Aatma-Katha : Nijmukh Prabhamal Nij Honi

आत्मकथा- निजमुख प्रभामाल निज होनी लेखक- डॉ. प्रभाकर द्विवेदी प्रभामाल

Aatma-Katha : Nijmukh Prabhamal Nij Honi
Nijmukh Prabhamal Nij Honi

निजमुख ‘प्रभामाल’ निज होनी

(आत्मकथा)

ISBN-  978-81-922645-4-7

लेखक

डा. प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’

प्रकाशक :  ‘त़ख्तोताज’

105-F/4, ॐ गायत्री नगर (सादियाबाद), इलहाबाद। मो.-9839873793

www.lokparlok.in, Email- [email protected]

मुद्रक

अजय ऑफसेट, आर्य कन्या डिग्री कॉलेज के पास,  इलाहाबाद।

संस्करण : प्रथम - 2015

मूल्य : सप्रेम भेंट

सर्वाधिकार :  लेखकाधीन

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साधुवाद एवं कृतज्ञता के दो शब्द

मैं तो केवल ईश्वर से यही प्रार्थना करने का साहस जुटा पा रहा हूँ कि ऐसे विद्वान मनीषी को जिस सद्भाव और शील भावना से इस कार्य को सम्पन्न करने में सहयोग दिया हूँ, यह कार्य-कारण सम्बन्ध से निश्चित रूप से मेरे पूर्व जन्म का कोई पुण्य रहा होगा, जिससे ईश्वरीय प्रेरणा से ‘प्रभामाल’ जी की अदभुत कृपा मुझे स्वतः ही प्राप्त हो गयी। ईश्वर उनकी तपस्या के लिये निश्चय ही ऐसे दिव्य पुरुष की परोपकार भावना का इह लोक और परलोक दोनों में कल्याण करे। वस्तुतः डॉ० प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’ के व्यक्तिगत परिचय के खास कुछ पखवारे ही बीते थे। ‘राम कथा कुंज’ की बैठक स्थल नागेश्वर नाथ महादेव जी के मंदिर में आते जाते उनके साथ चलते फिरते मार्ग में कुछ बातें होती थीं। उनकी प्रतिभा, धर्म परायणता, अर्थ त्याग और ईश्वर और समाज के प्रति उनकी सेवा भावना तथा नि:स्वार्थ पूर्ण चेतना से मैं इतना प्रभावित हुआ कि उनकी आत्मकथा लिखवाने में स्वयम् अपने को प्रस्तुत कर बैठा। उस समय ‘प्रभामाल’ जी के हाथ में कुछ तकलीफ थी जिससे वे स्वयं कुछ लिख पाने में असमर्थ थे। वह शायद इसलिये कि ऐसे पुरुषार्थी व्यक्ति के अनुभव से समाज प्रेरणा ले। उनकी थोड़ी सी सेवा करने की मैंने स्वत: स्फूर्त भावना से सहर्ष स्वीकृति दी। ऐसे महापुरुष की सेवा करके मैं स्वयम् ही कृत-कृत्य हूँ। मैं इसके लिये ईश्वर को धन्यवाद एवं डॉ० ‘प्रभामाल’ को साधुवाद देता हूँ।

ॐ तत्सत्

ओम प्रकाश तिवारी

पूर्व प्रवक्ता, मनोविज्ञानशाला

20-01-2005

आशीर्वचन

दिनांक 03-01-2015

डॉ. प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’ ने आत्म जीवन लिखकर न केवल एक शिक्षक के दायित्व का निर्वाह किया है अपितु अपनी अर्द्धांगिनी के सहयोग से उसे पूर्ण पारिवारिक गीता का स्वरूप प्रदान किया है।

भला ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसे अपने बचपन अपने गाँव पर अपने परिवार की स्मृतियों की सुखद अनुभूति नहीं होती है? किन्तु जब कोई व्यक्ति कर्मयोगी के रूप में समाज में, देश में या संसार में स्थान बनाना चाहता है तो उसे पग-पग पर संघर्ष करना पड़ता है। वस्तुत: मनुष्य का जीवन एक संघर्ष की कहानी है।

डॉ. प्रभाकर द्विवेदी ने बचपन से लेकर ८० वर्ष तक की आयु में किन-किन कठिनाइयों का सामना कर चुनार से दिल्ली, पिलानी, देवरिया, तिर्वा, आगरा और फिर इलाहाबाद की नगरी में आकर अपना स्थान बनाया, इसकी पूरी कहानी इस पुस्तक में है।

आप युवावस्था से ही सामाजिक, साहित्यिक तथा बौद्धिक मंचों से जुड़े रहे अत: आपका परिचय क्षेत्र एवं अनुभव क्षेत्र काफी व्यापक रहा।

आपने इस पुस्तक के माध्यम से अपने जीवन संघर्ष को जिस तरह रूपायित किया है, वह भावी पीढ़ी के लिए दिशासूचक सिद्ध होगा।

मैं अपने शिष्य डॉ. प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’ को इस कृति के लिए साधुवाद देता हूँ और उनके दीर्घजीवी होने की कामना करता हूँ।

 (डॉ. शिवगोपाल मिश्र)

प्रधानमंत्री

विज्ञान परिषद प्रयाग

इलाहाबाद

नान्दीवाक्

दिनांक 20-03-2015

आत्मवृत्त लिखने की परम्परा, भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीनकाल से चली आ रही है। मैं तो वेदों में उपलब्ध वाव्âसूक्त, शिवसंकल्पसूक्त, सरमापणिसंवाद-सूक्त, अरण्यानी-सूक्त, इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि-संवादसूक्त तथा विश्वामित्रनदी-संवादसूक्त को भी आत्मकथापरक ही मानता हूँ। उपनिषदों में उपलब्ध अपाला, घोषा, याज्ञवल्क्य, गार्गी तथा जनक-अष्टावक्तादि के वृतान्त भी आत्मवृत्तात्मक शैली में ही उपलब्ध होते हैं। श्रीमद्भागवत में उपलब्ध गोपीगीत तथा कृष्ण को प्रेषित भीष्मनन्दिनी रुक्मिणी का पत्र भी आत्मकथा ही तो है।

आर्षकाव्यों की यही परम्परा अभिजात संस्कृत-वाङ्गमय में भी प्रतिष्ठित हुई। महाकाव्यों के प्रारम्भ अथवा पुष्पिका में तथा रूपकों की प्रस्तावना में कवियों द्वारा आत्मपरिचय दिया जाने लगा– संक्षेप अथवा विस्तार में। कालिदास, वाणभट्ट, भवभूति, भामह, दण्डी, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ, पण्डितराज तथा नीलकण्ठ दीक्षित आदि ने अपनी कृतियों में आत्मकथा के कुछ सूत्र प्रकट किये हैं, जिनसे उसका परिचय ज्ञात हो पाता है।

संस्कृत कविता की ध्वजवाहिनी हिन्दी ने भी प्राय: संस्कृत के समस्त सौष्ठवों को आत्मसात् किया है। पौराणिक कथाओं में वाल्मीक, अगस्त्य, नारद एवं काग-भुसुन्डि आदि ने अपने पूर्व और वर्तमान जन्म की आत्मकथा ही तो कही है। हिन्दी में आत्मकथा लिखने की परम्परा मुगल-सल्तनत में ही प्रारम्भ हो गई थी। जब श्री बनारसीदास ने अपनी आत्मकथा लिखी। इसकी रचना का कथारस अद्भुत है। बनारसीदास का कार्यक्षेत्र मूलत: जौनपुर-बनारस-क्षेत्र था। परन्तु उन्होंने बड़ी बेबाकी से स्वयुगीन सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों की समीक्षा की है। मि़र्जा ़गालिब-प्रणीत चिरागे दैर (संस्कृत अनुवाद-देवालय प्रदीप:) भी अद्भुत आत्मकथापरक काव्य है जिसमें मिर्जा ़गालिब के जीवन का सर्वाधिक कठिन दौर चित्रित है।

वर्तमान हिन्दी साहित्य में आत्मकथा एक लोकप्रिय रचनाविधा के रूप में प्रतिष्ठित है। राष्ट्रपिता बापू की आत्मकथा (सत्य की खोज) के बाद तो आत्म-कथा-लेखन की बाढ़ सी आ गई। पं. नेहरू ने भी मेरी कहानी एवं इन्दिरा के नाम लिखे पत्रों में अपना जीवनसूत्र प्रकाशित किया। हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा कई खण्डों तथा शीर्षकों में आई (क्या भूलूँ क्या याद करूँ?, नीड का निर्माण फिर से) विस्तृत वैâन्वस के साथ।

कुछ लोगों को आत्मकथा के प्रति संशय भी है क्योंकि इस विधा में सत्य के गोपन/अपलाप तथा आत्मोत्थापन का प्रभूत अवसर मिलता है। आत्मकथा का कोई परत: प्रामाण्य तो होता नहीं। वह स्वत: प्रामाण्य से लिखी जाती है। अब प्रश्न यह है कि कथा लेखक आप्तपुरुष है या नहीं? उसके विवरणों पर विश्वास वैâसे किया जाय?

डॉ. प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’ जी ने अपनी आत्मकथा को जननी, जन्मभूमि से प्रारम्भ करने के पश्चात् अपने कुल की वंशावली, अपने पितामह की विद्वता, ईमानदारी एवं प्रबन्ध-पटुता के साथ अपने पिता जी के त्याग एवं संघर्षमय जीवन, तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं, प्रमुख साहित्यकारों एवं अभिनेताओं से उनकी घनिष्ठता के बाद, अपने बचपन की स्मृतियों, संस्कारों आदि का विवरण देते हुए, अपने विद्यार्थी जीवन, गाँव की पाठशाला से लेकर, चुनार, दिल्ली, पिलानी, देवरिया, तिरवा एवं आगरा के संघर्षों, प्रयाग में नियुक्ति एवं कुलभास्कर महाविद्यालय के विविध क्रिया-कलापों का विस्तृत विवरण देते हुए, अपने विवाह का विस्तृत एवं मनोहरी विवरण प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही साथ अपने गाँव के आसपास के प्रसिद्ध स्थलों, लोक संस्कृति एवं तीज-त्यौहारों का हृदयग्राही विवरण देते हुए अपने साहित्यिक, आध्यात्मिक एवं राजनैतिक जीवन में सक्रियता, विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्धता, अपने आवास- ‘अध्यात्म कुटीर’ के निर्माण एवं वहाँ आयोजित विविध क्रियाकलापों, वासुकी बांध पर नागेश्वर नाम मंदिर निर्माण में योगदान, वहाँ राम, लक्ष्मण, सीता एवं हनूमान जी की मूर्तियों की प्रतिष्ठा, वहाँ के दैनिक क्रिया कलापों, प्रमुख संतों, साहित्यकारों एवं राजनेताओं तथा विभिन्न संस्थाओं से अपनी सन्निद्धता एवं सक्रियता, देश के विभिन्न तीर्थ स्थलों, शिक्षा संस्थाओं एवं ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण का विवरण देकर अपने गाँव के अपने बचपन एवं आज के अन्तर का विवरण, अपनी धर्म पत्नी के निधन का वर्णन करके अन्तत: अपनी वर्तमान की दिनचर्या का विवरण देकर अपनी आत्मकथा की इतिश्री की है। बीच-बीच में अपनी माता एवं धर्म पत्नी के सम्बन्ध में अपनी भावपूर्ण कविताओं के साथ लोक प्रचलित प्रथाओं और गीतों को प्रतिष्ठित कर आत्मकथा को रोचक, भावग्राही, ज्ञान वर्धक एवं भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणाप्रद भी बना दिया है।

इन सब विवरणों को देखते हुए मैं डॉ. प्रभामाल जी को हृदय से साधुवाद देता हूँ। मेरी दृष्टि में मेरे अग्रज, साहित्यसर्जना के प्रभविष्णु विभावसु डॉ. प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’ द्वारा लिखी गई आत्मकथा ‘निजमुख प्रभामाल निज होनी’ अद्भुत है, क्योंकि यह कथा ठेठ शैली में प्रस्तुत है। इस कथा का रस अद्भुत है क्योंकि इसमें अपनी माटी की गन्ध है, जवार की चहल-पहल है तथा ग्रामजीवन की संवेदना है। समुन्नत शिष्ट संस्कारों तथा झुग्गी-झोपड़ियों की साझा संस्कृति में जीवन-निर्माण करने वाले भाई प्रभामाल ने बड़ी आत्मीयता तथा ईमानदारी से अपने परिवेष तथा वृत्तों का वर्णन किया है। इसे पढ़ कर लगा मानों मैं प्रेमचन्द की रंगभूमि, प्रेमाश्रम, गोदान और सेवासदन पढ़ रहा हूँ।

भाई प्रभामाल जी विगत शताब्दी के अन्तिम चार दशकों में मेरे अभिन्न सहचर एवं बन्धुरत्न रहे हैं तथा अभी भी हैं। वह शतायु हों, यही कामना है।

–प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र

पूर्वकुलपति

(राष्ट्रपति-सम्मानित)

विषय-सूची

1. मेरी माँ  2. मेरी जन्मभूमि 3. मेरी वंशावली      4. मेरे बाबा जी      5. मेरे पिता जी 6. मेरा विद्यार्थी जीवन      7. मेरा विवाह    8. देवरिया प्रवास 9. तिरवा प्रवास 10. चित्रकूट भ्रमण 11. आगरा प्रवास  12. प्रयाग निवास 13. मेरा पारिवारिक जीवन 14. गाँव की स्मृतियाँ 15. ‘अध्यात्मकुटीर’ निर्माण 16. अर्धाङ्गिनी के सानिध्य में पाँच दशक  17. बज्राघात 18. अर्धाङ्गिनी के प्रति श्रद्धाञ्जलि    19. हमजोली बिना होली 20. पहले और अब 21. मेरी गतिविधियाँ 22. मेरी दैनिक जीवनचर्या

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मेरी माँ

अपने बारे में कुछ लिखना जितना आसान है उतना ही दुरूह भी है। कहाँ से प्रारम्भ करें, किस बात को विस्तार दें, किसे नहीं? दूसरे की बतलाई बातें या सुनी सुनाई किंवदंतियाँ कितनी सही, कितनी गलत हैं इसका निर्णय करना, विशेषकर समय और चर्चाओं के क्रम में उलटफेर की सम्भावनाएँ सामने खड़ी होकर लेखन कार्य को अवरुद्ध करती हैं। अपनी स्मरण शक्ति में भी आगे-पीछे होने की सम्भावना बनी रहती है जिसपर दशकों का प्रभाव अवश्यंभावी है। फिर भी समस्याओं से भयभीत हुए बिना और लोगों के चिंतन और आलोचनाओं की परवाह किये बिना लेखक को अपनी कलम चलानी ही चाहिए। सत्यनिष्ठा से और सद्भाव से जिसमें आत्मतुष्टि के साथ-साथ समाज, राष्ट्र और मानवता के कल्याण का सद्भाव हो इसी संकल्प के साथ यह आत्मकथा ‘निज मुख ‘‘प्रभामाल’ निज होनी’’ प्रस्तुत है।

‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’’ के सिद्धान्त का सहारा लेकर सबसे पहले अपनी माँ का विवरण देना मैं उचित समझता हूँ।

माता पुत्र की जननी है, संरक्षिका है, सेविका है तथा इसके साथ ही साथ माँ प्रथम गुरु भी है। माँ के आँचल की छत्रछाया में पोषण प्राप्त कर उनके कर कमलों की छत्र-छाया में सेवा और संरक्षण प्राप्त कर हर संतान बढ़ती है। भाव व व्यवहार से प्यार और दुलार सबसे पहले माँ से ही अधिकतम प्राप्त होता है।

मेरी मां का नाम कलावती था। वह यथा नाम तथा गुण को सार्थक करने वाली आदर्श महिला थी। मेरी माँ जिसे मैं ‘माई’ कह कर पुकारता था, बहुत ही सुन्दर, गोरी, स्वस्थ और सुडौल, सुशील और मृदुभाषी तथा हँसमुख महिला थी। अपनी माँ की मैं प्रथम संतान था, सतमासा ही पैदा हो गया था, माँ ने कैसे-कैसे उपाय करके मुझे जीवनदान दिया था, यह तो माँ ने और दूसरों ने भी बाद में मुझे बतलाया। किंतु प्रत्यक्ष रूप से माँ के सम्बन्ध में जो बातें मुझे स्मरण हैं वह सब सोचकर आज भी मैं अपनी माँ के प्रति कृतज्ञ हूँ और परमपूज्य भाव से अक्सर भावुक हो जाता हूँ। मैं माँ की आँचल की छत्र-छाया में प्राय: छ: वर्ष की आयु तक रहा जब तक मुझसे छोटी मेरी बहन पद्मावती पैदा नहीं हो गई। प्राय: तीन वर्ष का होने के बाद की कुछ स्मृतियाँ मुझे हैं तब माँ मुझे किस तरह नहलाती धुलाती, स्तनपान कराती तथा अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाकर प्यार से खिलाती थी। जब मैं अन्य बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त रहता था और खाने-पीने पर ध्यान नहीं देता था तब माँ मुझे जबरदस्ती पकड़कर अपनी गोद में बिठाकर तथा एक हाथ से पकड़े रहकर जबरदस्ती तोता का कौर, मैंना का कौर, गौरेया का कौर, गाय का कौर और इस तरह घोड़े, हाथी और शेर का कौर बताबताकर अनेक प्रकार से मेरा पेट भरती। उसे मेरे आगे अपने खाने-पीने और सुख-सुविधा की चिंता नहीं रहती थी। अपने हाथ से मेरे लिये जाँघिया और कमीज सिलती। हाथ से सुई-डोरा के जरिए मेरे लिए कपड़े साट-साटकर बिछौना तैयार करती। इन सब माने में मेरी माँ कलाकार थी, हरफनमौला। पुरानी धोतियों को साटकर उनसे रंग-बिरंगे धागों से कलाकारिता दिखाते हुए सुजनी तैयार करती। रद्दी कागजों को पानी में भिगोकर उसे ओखली में मूँसर से वूँâचकर तथा उसमें मेथी और गोंद मिलाकर लुगदी बनाती और फिर उसे हाँड़ी अथवा गगरी पर उल्टा रखकर कुरुई और दौरी बनाती और सूख जाने पर उस पर रंग-बिरंगी चित्रकारी करती। बरुआ से कुरुई, दौरी तथा सींक से और बाँस की पतली पत्ती से बेना आदि बनाती तथा उसे रंगकर उस पर कपड़े चढ़ाती और कोनों पर फूल लगाती। मेरी माँ को नक्षत्रों का भी ज्ञान था। नक्षत्रों के नाम लेकर मुझे रात में आँगन में सोने पर समय का ज्ञान कराती।

मेरी माँ हर प्रकार के पकवान, मिठाई आदि बनाने में भी सिद्धस्त थी। पट्टीदारी में विशेष अवसरों पर लोग माँ को इन सब कार्यों के लिए आदर-पूर्वक बुला ले जातीं। हम लोगों के खेलने के लिए माँ कपड़ों से गुड्डा-गुड़िया, गेंद और ढेढ़ुआ आदि बनाती।

मुझे अक्षर ज्ञान कराने में भी माँ का प्रमुख योगदान रहा है। रात में रोज कहानियाँ सुनाना, गीत और भजन सिखाना, थपकी देकर और लोरी गाकर जबरदस्ती सुलाना। यह सब सोचकर माँ के प्रति अपार श्रद्धा और प्यार उमड़ आता है। मेरे पिता जी तो हमेशा बाहर-बाहर रहकर मुझसे दूर-दूर रहे किंतु मेरी माँ ने माता-पिता दोनों का कर्त्तव्य निर्वाह किया।

इतना सब ही नहीं मेरी माँ आँख का अंजन और दाँत का मंजन भी स्वयं ही बनाती थी तथा सबकी माँग होने पर बाँट देती थी। माँ आजीवन अपने हाँथ की बनाई चीजों का ही प्रयोग करती रही। आँख का अंजन जिसे वह काजल कहती उसे गाय के कई वर्ष पुराने रखे घी से बनाती थी। काजल बनाने के लिए वह पीतल के थाल को राख से खूब माँजकर पहले साफ करती थी फिर उसको सुखाकर तथा उलटकर उस पर गाय का घी पोतकर पहले हर्रय, मेथी, लौंग, इलायची, फिटकरी, पिपरमेंट और कपूर को बारी-बारी से रगड़ती। कालिख बनाने के लिए सरसों के तेल को परई में रखकर कपड़े की बनाई बत्ती से जलाकर मिट्टी की घंटी में कालिख बनाती और उसे गाय के घी में मिलाकर खूब रगड़ती और फिर सारी चीजों को मिलाकर पानी के छींटे देदेकर कई बार धोती और जब सारे कण धुल जाते तो उसे डिबियों में भरकर रखती तथा इस प्रकार बने काजल का उपयोग करती थी।

इसी तरह माँ विशेष प्रकार का मंजन भी बनाती। इसके लिए वह खड़िया में नमक, लौंग, इलायची, फिटकरी, बबूल और नीम के बीज पीसकर उनसे मंजन तैयार करती और उसका इस्तेमाल करती। कभी-कभी नमक और सरसों के तेल से भी स्वयं मंजन करती और मुझे भी कराती। यह सब विशेष गुण मेरी माँ में थे। जिसे वह बड़े परिश्रम और प्रसन्नता पूर्वक बनाकर लोगों को बाँटती थी। हम लोग जब तक छोटे थे तब तक उन्हीं के बनाये मंजन और काजल प्रयोग में लाते थे। बड़े होने पर हम लोग नींम और बबूल का दतुअन इस्तेमाल करने लगे तथा उसी को फाड़कर जीभ भी छीलते थे। बड़े होकर जब छात्रावास में रहने लगे तबसे पेस्ट और ब्रश का इस्तेमाल करने लगे तथा उसके बाद आजीवन यही क्रम चलता रहा।

मेरी माँ बड़ी सरल और निश्छल स्वभाव की थी। उसकी सरलता की कई बातें सोचकर आज भी हँसी आती है। उन घटनाओं को बिस्तार न देकर केवल उनका नाम देना ही उचित लग रहा है। वे घटनाएँ हैं– तरबूज में चीनी की जगह नमक मिला देना, चीनी के शरबत से स्नान कर लेना, मिठाई की दुकान पर शीशे में देखकर गाय को मिठाई खाते बतलाना, गाय के गोबर की जगह किसी अन्य पशु के मल को उठा लेना, यमुना स्नान के लिए मूड में आकर रास्ता भूलकर बहुत दूर चले जाना, मेरा दिन भर में बचपन में तेल और उबटन से तेरह बार मालिश करना, पाली हुई बकरी को ठोंक-ठोंककर दिनभर में छ: से आठ बार दूध निकालना, शीतला मंदिर में महीनों रहकर उपासना करना इत्यादि।

मेरी माँ बड़ी साहसी भी थी। देवी-देवताओं में उसकी असीम आस्था थी। इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना याद है, वह यह कि– मेरे अनुज रत्नाकर की एक आँख चेचक के प्रकोप से जाती रही किंतु माँ ने संकल्प किया कि वह शीतला माता से प्रार्थना करेगी कि वह मेरे बच्चे को आँख दे दे। अत: अपने निर्णय के अनुसार हम लोगों को, हमें और मेरी छोटी बहन को घर पर आजी के संरक्षण में छोड़कर लगभग एक महीने तक शीतला जी के मंदिर में, जो हमारे गाँव के पास ही गंगा पार सुल्तानपुर गाँव में हैं; वहाँ दिनरात रहकर तपस्या करती रही और माँ का चरणामृत अनुज के आँखों पर लगाती रही। माँ की तपस्या को देख वहाँ माँ की मान्यता बढ़ गई। लोग उन्हें भी पूजने और प्रणाम करने लगे। किंतु अन्ततोगत्वा हारकर होनहार के आगे माँ को झुकना पड़ा था और घर वालों के दबाव के कारण वह अन्ततोगत्वा लौट आई।

अपनी माँ को माघमेले में मैंने साठ के दशक में कई वर्ष कल्पवास करवाया किंतु उम्र बढ़ने के बाद एक दुर्घटना में उनकी अस्वस्थता को देखते हुए मैंने उसको मना कर दिया। अनेक वर्षों बाद सपत्नीक मैंने भी कल्पवास करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार माँ की और अपनी भी कल्पवास की पूर्णाहुति सम्पन्न किया। धीरे-धीरे माँ की अस्वस्थता बढ़ती गयी। मुझे हरिद्वार कुम्भ स्नान करने के लिए माँ ने स्वयं प्रोत्साहित किया। अत: माँ से आज्ञा लेकर मैंने अपने अनुज रत्नाकर को सपत्नीक माँ की सेवा करने के लिए बुलाकर तब हरिद्वार गया। किन्तु ईश्वर की जो इच्छा थी वही हुआ जिसका मुझे भय था, अंतत: वहीं घटित हो गया। माँ तेरह अप्रैल १९९८ को कुम्भ वाले दिन ही सायंकाल जब घर में कोई नहीं था, रत्नाकर कहीं गये थे और भइया जी बाहर लान में काम कर रहे थे उसी वक्त माँ ने अपनी इह लीला समाप्त कर दी। उसके प्राण जब निकले तो बरामदे में जहाँ वह सोई हुई थी वहाँ का बिजली का राड बड़े जोर की आवाज के साथ एकाएक टूटकर गिर गया। चारो ओर अँधेरा छा गया। आवाज सुनकर भैया जी भागकर आये और देखा तो माँ का सिर लटका हुआ था। उन्हें किसी की मृत्यु का अनुभव तो था नहीं अत: पड़ोसी यादव जी को बुलाकर दिखाये और तब उन्हें आजी के स्वर्गवासी होने का पता चला। इसी बीच रत्नाकर भी आ गये। मुझे हरिद्वार जिसके यहाँ मैं टिका था सूचना दी गई किंतु उस समय मैं मेले में था। तीसरे दिन मेले से लौटने पर रात में मुझे मेरी माँ की मृत्यु का समाचार बतलाया गया। मैंने तुरन्त टेलीफोन कार्यालय जाकर इलाहाबाद में भैयाजी से सम्पर्क किया। उस समय मोबाइल का प्रचार तो था नहीं, उसके बाद तुरन्त मैं सपत्नीक पहली गाड़ी से हरिद्वार से चलकर प्रयाग आ गया। माँ के श्राद्ध की सारी व्यवस्था प्रयाग से ही सम्पन्न की गयी। वार्षिक श्राद्ध भी मैंने उसी क्रम में सम्पन्न कर लिया। गाँव, घर और रिश्तेदारी से सभी लोग आये और माँ के श्राद्ध में भाग लिये। मैंने उसके बाद गया श्राद्ध भी कर लिया और श्रीमद्भागवत सप्ताह का आयोजन करके यथाशक्ति दान-दक्षिणा देकर माता-पिता के ऋण से मुक्त हुआ। अप्रैल २००० में मैंने प्रयाग और काशी के पिशाचमोचन तथा गाँव की भी परिक्रमा करते हुए तथा वहाँ पारिवारिकों से अक्षत लेते हुए गया जी में पाँच दिन रहकर गया श्राद्ध का संस्कार भी सम्पन्न किया। इसके बाद जुलाई २००० में अपने गुरुदेव रामानुजाचार्य जी से श्रीमद्भागवत कथा एवं सप्ताह का सात अन्य ब्राह्मणों के साथ सपत्नीक श्रवण किया। रिश्ते-नाते एवं पड़ोसियों को पूर्णाहुति के दिन यथासाध्य दान और मान से तृप्त किया। इस प्रकार इन संस्वâारों को सम्पन्न करके मुझे आत्मिक संतोष प्राप्त हुआ।

मेरी आजी का नाम रुद्राणी था जिनका मायका मूल रूप से सुरही में था किंतु उनके पिता जी को नवासे पर डफलपुरा में बहुत सारी संपदा प्राप्त हो गई थी और वे वही जाकर बस गये थे। मेरी आजी बड़ी सुन्दर, गम्भीर और ओज वाली महिला थी। इस आत्मकथा की बहुत सी बातें आजी द्वारा भी बतलाई गई हैं। बाबा के  सम्वत्  २००५ में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन स्वर्गवासी होने के ठीक बीस वर्ष बाद आजी भी श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन ही सम्वत् २०२६ में स्वर्गवासी हो गईं। उनकी श्राद्ध एवं तेरही संस्कार खूब धूम-धाम से मनाया गया।

मेरी बड़ी माँ का नाम श्रीमती था उनका मायका शेरवाँ में था, वे तीन बहनें थीं, उनके पिता साधु हो गये थे और अक्सर बीमार रहते थे। उनकी सेवा के लिए बड़ी माँ अक्सर शेरवाँ में ही रहती थी। उनके देहान्त के बाद उनके मकान और जमीन को बेंचकर उन्हें कई हजार रुपये मिले थे जो तीनों बहनों ने आपस में बाँट लिया था। बड़ी माँ काम करने में अक्सर दूर बनी रहती थी, केवल सबेरे दही से मट्ठा और घी निकालने का काम वे बड़े प्रेम से करती थी। मट्ठा पास-पड़ोस के लोग आकर ले जाते थे। उनका स्वर्गवास काशी में हुआ।

मेरा मुंडन संस्कार–

मेरे बचपन की महत्वपूर्ण घटना जो मेरे स्मृति पटल पर बनी हुई है, वह है मेरे ननिहाल जाने का और वहाँ मेरा मुण्डन संस्कार होने का। मेरे परिवार की परम्परा रही है कि पहला मुण्डन विंध्याचल देवी धाम में होता है, तथा उसके बाद मनौती के अनुसार अन्य मुण्डन अलग अलग स्थानों पर बाद में किये जाते है। चूँकि मैं सतमासा ही पैदा हो गया था, अत: मेरे जीवन के लिए परिवार और रिश्तेदारी में अनेक मनौतियाँ मानी गयी थी। मेरी माँ मुझे बतलाती थी जब मैं पैदा हुआ तो मेरे शरीर में रोये ही रोये थे, तथा चमड़ा इतना पतला था कि जैसे रक्त झलकता था। माँ ने बतलाया था कि मुझे दिन और रात में मिलाकर बारह तेरह बार सरसों व चिरौंजी के उबटन तथा तेल की मालिस की जाती थी। कुछ ही दिनों के बाद इस प्रक्रिया से मेरे रोये समाप्त हो गये और माँ की सेवा से मैं शीघ्र ही हृष्ट पुष्ट हो गया। चूँकि विध्याचल में मेरा मुण्डन तीसरे साल के प्रारम्भ में ही हो गया था इसलिए उसकी स्मृति मुझे नहीं के बराबर है। किन्तु बाद में सुरही, चकिया और जौनपुर के चौकिया के शीतला मंदिरों में हुए मेरे मुण्डन संस्कार का मुझे पूरा स्मरण है। मुझे याद है मैं ननिहाल माँ के साथ डोली में बैठ कर गया था। मेरा ननिहाल तब के बनारस जिले के चकिया तहसील के नीबी कला गाँव में है। मुझे याद है कि डोली के उâपर भी ओहार डाला गया था जिससे बाहर से अन्दर का कुछ भी दिखाई नहीं देता था। किन्तु अन्दर से बाहर का दृश्य देखा जा सकता था। डोली कहार लोग अपने कन्धे पर ढो कर ले जा रहे थे और रास्ते भर कहारों की लगातार बोली जाने वाली अटपटी बातें राह भर सुनता रहा। बातें कुछ समझ में नहीं आ रही थीं कि वे क्या कह रहे है। किन्तु बाद में मुझे पता चला की आगे वाला कहार पीछे वाले कहारों को अपनी बोली और भाषा में ऊँचा-नीचा, ठोकर इत्यादि के प्रति सावधान करते रहते हैं। जब डोली में बैठ कर मैं गाँव जा रहा था तो कैलहट स्टेशन के पास माँ ने मुझे आती हुई रेलगाड़ी दिखलाया। जिन्दगी में शायद पहली बार मैं उस समय लगभग चार बरस का था। ननिहाल में मैंने धान की फसल देखने की जिज्ञासा प्रगट की। गर्मी के दिन थे अतः फसल तो नहीं थी। मेरे एक मामा ने पुआल का बोझ दिखाकर बताया कि यही धान का पेड़ है। मैने हँस कर कहा धत् ये तो पुअरा है और लोग हँसने लगे थे। चूंकि मेरे गाँव में धान तब नहीं होता था। अत: मैं अपने यहाँ होने वाली फसलों को पहचानने लगा था लेकिन धान का पेड़ वैâसा होता है इसकी जिज्ञासा बनी हुई थी। इस दिन के बाद गाँव में लोग मुझे प्यार से गोद में उठा लेते और कहते चलो तुम्हें धान का पेड़ दिखायेंगे। लोगों को मजाक करने का एक मौका मिल गया था। मेरे मामा के लड़के ने तब मुझे आस्वस्त किया कि दशहरा दीवाली की छुट्टी में आइये तो सब जगह धान ही धान दिखाई देगा। यह सब बातें आज मैं ठेठ हिन्दी में लिख रहा हूँ किन्तु हमारे गाँव और अधिकांश रिश्तेदारियों की बोली ठेठ बनारसी है जो अवधी, भोजपुरी और बुन्देलखण्डी का मिश्रण है। चूँकि हमारे परिवार में अनेक चाचा चाचियाँ, मातायें, बहुएं दूर दूर से अगल अलग गाँवों  से आयी है, अतः बोलियों का मिश्रण हो गया है जिससे हमारे गाँव और घर की बोली का एक अलग ही रस और माधुर्य है। कहावत है कि-  ‘‘कोस कोस पर पानी बदलै चार कोस पर बोली’’ अतः इस सिद्धान्त के अनुसार रस माधुरी की वर्षा अपने मिश्रण के साथ भावपूर्ण हो जाती है।

चकिया में मेरे मुण्डन के लिए एक अच्छी खासी भीड़ गाँव की साथ में पैदल ही गयी। चकिया काशी नरेश का ग्रीष्मकालीन आरामगाह और शिकारगाह रहा है। चन्द्रप्रभा नदी के किनारे बसी चकिया नगरी तब चारो ओर पहाड़ों और घने जगलों से घिरी थी। वहाँ तब काशी नरेश का एक भव्य आवास था और प्रसिद्ध काली मन्दिर। काली मन्दिर में ही मेरा मुण्डन माना गया था। मुझे गाँव का पोतन नाई अपने कन्धे पर बिठा कर ले गया था। रास्ते में चन्द्रप्रभा नदी पड़ी थी, जिसमें बड़े बड़े मगर रहते थे। तब नदी के उâपर पुल तो था नहीं एक ताड़ का लट्ठा रखा हुआ था उसी पर से लोग आते जाते थे। नीबी के लोगों का उस पर अक्सर आते जाते हुए अभ्यास था। पोतन नाई सामान्य रूप से चलता हुआ मुझे उस पार ले गया किन्तु मेरी माँ बहुत भयभीत थी। वह आगे पीछे दो पुरुषों के बीच में बैठ कर किसी तरह उस पार पहुँची थी। लोग रास्ते भर उसकी कछुआ चाल का मजाक उडाते रहे। मन्दिर में पहुँच कर मुझे पहले देवी का दर्शन कराया गया और उसके बाद मुण्डन संस्कार के बाद पुन: विधिवत पूजन कराया गया। वहाँ की एक घटना जो मुझे आज भी रोगटे खड़ा करा देती है वह यह है कि मुण्डन के पश्चात वही काली चौतरे पर बैठ कर सब लोग लाई चूड़ा और गट्टा इत्यादि का आनन्द ले रहे थे उसी समय एक बकरे को कान से पकड़ कर कुछ लोग लाये। वही दो खूटे गड़े हुए थे, जिसमें रस्सी बँधी हुई थी, जिसमें उस बकरे को उसके गले में फँसा दिया गया, बकरा जोर जोर से मिमिया रहा था। उसको माला पहनाया गया टीका लगाया गया शायद लड्डू खिलाने को दिया गया। और उसके बाद एक व्यक्ति ने गड़ासे से उसकी गरदन को काट कर सिर और धड़ को अलग कर दिया। तमाम खून चारो तरफ पैâल गया। कटने के बाद भी कुछ क्षण बकरा मिमियाता रहा तथा उसके पैर भी हिलते रहे। किन्तु कुछ ही क्षणों में सब शान्त हो गया। यह भयानक दृश्य आज भी मेरे मस्तिष्क में दर्दनाक दृश्य उपस्थित कर देता है। देवी को प्रसन्न करने के लिए इस प्रकार की जीव हत्या की परम्परा न जाने किस अज्ञानता का प्रतीक है। सम्भवत: मांसभक्षी लोग अपनी पेट पूजा के लिए देवी का प्रसाद का बहाना बनाते हैं। इसके बाद के मनौती के बाकी मुण्डन आजी और उनके भतीजे उâधव चाचा के साथ जा कर सम्पन्न हुआ था। बाद में विंध्याचल में मेरा दुबारा मुण्डन हुआ, जिसकी कुछ कुछ स्मृति मुझे है कि मैं पहले पहल रेल गाड़ी में बैठ कर विंध्याचल गया था।

माँ के सम्बन्ध में मैं अपना एक भाव गीत यहाँ देना उचित समझता हूँ–

माई तोहसे उरिन हम नाहीं

 

माई तोहसे उरिन हम नाहीं।

तोहरे गर्भ में जब हम अइली अति प्रसन्न तू भइलू।

हमके कोख में पालत सब संयम परहेज निवहलू।

समय न बीतत देर लगल दिन गिन गिन के जन्मउलू।

पहला पुत्र रत्न पा माई कुल कै  ज्योति जलउलू।

तोहरे पुण्य प्रताप से माई बढ़ल वंश बट-छाहीं।।

 

आपन दूध पिया के माई लालन पालन कइलू।

दिन भर उपटन तेल लगाके बङ्का शरीर बनउलू।

नजर बचावे बजे माथ टीका काजल कै  लगउलू।

कजरौटा सिरहाने रख अपभय कै  भूत भगउलू।

तोहरे सब उपचार से माई नींद लगे क्षण माहीं।।

 

अपने निखरहरे खटिया सुतलू हमके गद्दा बिछौना।

अपने भीजल ओर तू सुतलू हमके सूखल ओढ़ना।

खेल खिलौना पलना झुलाके हमके बड़ा बनउलू।

कथा पुराण संस्कार सब हमके सदा सिखउलू।

अरमानन के तोहरे माई फूल फूलल पल माहीं।।

 

अंगुरी पकड़ के चलै सिखउलू अक्षर ज्ञान करउलू।

धूर में अंगुरी पकड़ के लिखौलू गिनती पहाड़ा रटउलू।

करिया पटरी दुद्धी दवात नरकट कै  कलम जुटउलू।

फिर सिलेट फिर कागज पर हमके तू लिखे सिखउलू।

ममता मयी प्रथम गुरु तोहई शारदा वैâ परछाहीं।।

 

तनिको पड़ी बीमार तै माई तोहरे निकलै प्राण।

वैद्य डॉक्टर नुक्शा टोना-टोटका करा निदान।

तोहरे आशीर्वाद से माई पढ़ लिख पंडित भइली।

मिलल नौकरी मन माफिक तोहार सुख संसार सजउली।

इह-परलोक वैâ सब सुख माई तोहरे चरण रज माही।।

 

मुंडन, बरुआ, बियाह, गौना, दोंगा उत्साह से कइलू।

सुखद गृहस्थी खातिर हमरे सब सरजाम जुटउलू।

तोहरे पुण्य प्रसाद से माई बहू मिलल संस्कारी।

ओनके सेवा संयम से भइल सब परिवार सुखारी।

तोहरे आशीर्वाद से माई हम सुख सिन्धु नहाहीं।।

 

सब कर माई ऐसे पर हमार ‘कलावती’ माई।

यथा नाम गुण कला प्रवीणा लक्ष्मी कै  परछाईं।

तोहरे किरपा से माई हमार भरल पुरल परिवार।

बेटा, बेटी, नाती, पोता, सब सुखमय संसार।

सबके आशीर्वाद दे माई तू स्वर्ग गइलू पलमाहीं।।

 

जहाँ जनमबू माई जीवन तोहार शुभ गति पाई।

तोहरे कुल कै  बाग बगीचा फूली फली अघाई।

स्वर्ग से आशीर्वाद दै माई जन जीवन सुख पावै।

जन्मभूमि वरदान से तोहरे सुख सिन्धु में गोता लगावै।

जीव मात्र अपने जननी प्रति हो कृतज्ञ गुण ग्राही।।

 

जन्मावे आधार बने जीवन भर करे संभार।

अइसन देवी कै ही माई कहावे कै अधिकार।

गंगा, गऊ, धरती, गायत्री, शारदा, लक्ष्मी गौरी अवतार।

नाम रूप अनन्त माई कै रक्षक भुजा हजार।         

यज्ञ भाव से सब माइन्ह से नेह निभावे चाही।।

माई तोहसे उरिन हम नाहीं।।

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मेरी जन्मभूमि

जउने माटी में लेहली जनम

जउने माटी में लेहली जनम। प्रभु हो काम आयीं ओही के हम।

कोख से जेकरे ई देह पउली। थपकी लोरी में बचपन बितौली।

मइया दूधवा के तोहरे कसम। प्रभु हो काम आयीं...।

खाके उपजल जहाँ के दाना पानी। हमरे रग रग में व्यापल जवानी।

ओहि धरती के प्रति ई धरम। प्रभु हो काम आयीं...।

कवन पिछले जनम पुण्य कइली। देश भारत में हम जनम पउली

देश खातिर ही टूटे ई दम। प्रभु हो काम आयीं....।

गंगा-जमुना के पावन पानी। धर्म संस्कृति के अविरल रवानी।

टूट जाये न धारा वैâ क्रम। प्रभु हो काम आयीं....।

धर्म भूमि भारतवर्ष के उत्तर में उत्तर प्रदेश नामक एक विशाल प्रदेश विद्यमान है जो भारत के मुकुट हिमालय की छत्रछाया में बसा हुआ है। यह प्रदेश गंगा, यमुना, सरयू, राप्ती, ताप्ती, गंडकी, रामगंगा, सोन और जरगो आदि नदियों से सिंचित, विंध्यपर्वत की अतुल खनिज संपदा एवं वन से परिपूर्ण हैं। गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, गोंडा, लखीमपुर, खेरी आदि के बहुमूल्य वन सम्पदा से परिपूर्ण यह प्रदेश बहुत ही सम्पन्न है। भगवान राम एवं कृष्ण की जन्मभूमि अयोध्या व मथुरा, बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी, तीर्थराज प्रयाग और नैमिष आदि धर्मस्थलों, कुशीनगर की बौद्ध संस्कृति तथा आगरा, झाँसी और चुनार के ऐतिहासिक दुर्गों की धरोहर लिए एक अत्यन्त उत्तम प्रदेश है। विश्व प्रसिद्ध आगरा का ताज महल यहीं है। इसी प्रदेश के दक्षिण-पूर्व में मीरजापुर जनपद स्थित है।

मीरजापुर जनपद माँ विंध्यवासिनी की छत्र-छाया में बसा एक बहुत ही प्राकृतिक रूप से सम्पन्न क्ष्ोत्र हैं। मिर्जापुर का शुद्ध उच्चारण ‘‘मीरजापुर’’ है, जिसका तात्पर्य है– लक्ष्मी का निवास स्थान। माँ विन्ध्यवासिनी साक्षात् लक्ष्मी ही तो है। यहाँ की मिट्टी की मूर्तियाँ देश में ही नहीं, विदेशों में भी पूजी जाती हैं। यहाँ के पत्थर, बालू, गिट्टी, गेरू, आदि का उपयोग अनेक नगरों में होता है। ऐतिहासिक रूप से यह क्षेत्र आल्हा-उâदल की कर्म भूमि रही हैं। चुनार चरणाद्रिगढ़ तथा नैनागढ़ के नाम से भी प्रसिद्ध रहा है। ऐसी किन्बदन्ती हैं कि जब भगवान ने विराट रूप धारण किया था तब पृथ्वी पर उनके चरण चुनार ही में पड़े थे। इसीलिए इस नगर का नाम चरणाद्रिगढ़ पड़ा था। सचमुच चुनार का किला चरण के आकार में ही बना हुआ है। चुनार के किले से ऐसा कहा जाता है, कि महोबा तक जमीन के नीचे नीचे सुंरग बनी हुई है जिसमें से होकर उâदल की प्रेयसी ‘‘सोनवा रानी ’’ अपने मायके चुनार आती जाती थी। विद्यार्थी जीवन में मैने स्वयं देखा हैं कि किले के अन्दर एक बड़ा विशाल कुआँ है जिसका सम्बन्ध गंगा नदी से है। उसी वुँâऐ के बीच से एक सुरंग जैसी खिड़की बनी है। जहाँ तक पहँुचने के लिये सीढ़ियाँ बनी हैं और उसकी दूसरी तरफ आगे भी सुरंग गयी है। उसमें काफी झाड़ झंखाड़ और अँधेरा है, अतः जाने में भय लगता है। इसका सम्बन्ध पहाड़ से नीचे राम सरोवर मार्ग पर बने हजारी के बगले तक जाता है, तथा हजारी के बंगले में भी दूसरी ओर जाने के लिए सुरंग हैं। यह तो मैने स्वयम् देखा है और ऐसी सम्भावना है कि इसी तरह जगह जगह बने बँगलों से यह सुंरग एक दूसरे से जुड़ती हुई महोबा तक गयी होगी। सत्य क्या हैै, यह तो पुरातत्व विभाग खोज कर के पता लगावें। चुनार के किले में अब भी सोनवा रानी के विवाह का मण्डप स्थान बना है जहाँ सोनवा रानी का विवाह हुआ था। इसके अलावा चुनार के किले में राजा भगीरथ का भी एक मंदिर है जिसमें भगीरथ की मूर्ति के सामने एक छोटा सा छिद्र बना हुआ है जिसमें लोग श्रद्धा वश तेल चढ़ाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि जिनके अन्दर श्रद्धा रहती हैं उनके द्वारा चढ़ाये हुये तेल से वह छिद्र भर जाता है, किन्तु जिसके अन्दर श्रद्धा के बजाय अहंकार होता है, और कहते है कि इसमें कितना तेल आयेगा, तब बहुत सा तेल डालने पर भी वह छिद्र भरता नहीं है। यह मैने सुना है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है। इसी तरह चुनार के किले में प्रवेश करते वक्त ढाल पर ही वारेनहेस्टिंगज के घोड़े के टाप का निशान बना हुआ है जहाँ वारेनहेस्टिंगज ने किले वâी दीवाल फाँद कर घोड़े को कुदाया था, घोड़ा तो वहीं मर गया था, किन्तु वारेनहेस्टिंगज बच गया था, और जा कर अन्ततः जलालपुर मांफी में किसी भड़भूजे की झोपड़ी में छिप कर अपनी जान बचाई थी। चुनार के किले की एक विशेषता और बतलाई जाती है कि दो किले एक साथ बनाये जा रहे थे। एक चुनार का तथा दूसरा भुइली का । उन दोनों में शर्त यह लगी थी कि जो किला पहले बन जायेगा वह दीपक जला देगा। ऐसा कहा जाता है कि चुनार का किला पहले बन गया और दीपक जला दिया गया। अतः भुइली का किला अधूरा ही रह गया, और वहाँ के कारीगर अपनी हार मान कर भाग गये थे। अतः वह किला अधूरा ही रह गया। भुइली के किले में भी एक खम्भा बना हुआ है जिसको लोग अकवार में लेते है; जो श्रद्धा से अकवार में लेते है, उनकी तो पकड़ में पूरा खम्भा आ जाता है, किन्तु जिनमें अहंकार होता है, उनमें खम्भा पूरी तरह पकड़ में न आ कर दो चार अंगुल बचा रह जाता है। यह सब जनश्रुति हैं। श्रद्धा और विश्वास पर आधारित सत्य या असत्य के परीक्षण की कल्पना करना औचित्य से परे है। उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जनपद के प्रसिद्ध चुनार तहसील के गंगा और जरगो के द्वाबे में बसा मेरा ऐतिहासिक गाँव जलालपुर माफी है।

मेरे गाँव में लगभग सभी जाति के लोग हैं, किन्तु मुख्य रूप से ब्राह्मण और कुर्मी जातियाँ बहुलता से हैं। उसमें भी कुर्मियों की संख्या अधिक है। ब्राह्मणों में लगभग दो सौ परिवार रहते हैं जिममें अधिकांश सरयूपारीण द्विवेदी ब्राह्मणों की बहुलता है। द्विवेदी के अलावा पाण्डेय, पाठक, तिवारी, उपाध्याय इत्यादि भी रहते हैं। ब्राह्मणों में मेरा अपना घराना ‘पंडित जी का घराना’ कहलाता है। शायद यह उपाधि मेरे बाबा एवं उनके पूर्व के अन्य विद्वानों के कारण प्राप्त है।

मुझे याद है मेरे बचपन में मेरा बहुत बड़ा परिवार था। लगभग ७० आदमियों का कुनबा था। मेरा घर भी बहुत बड़ा था जिसमें बहुत बड़ा आँगन, चारों तरफ बरामदे कोठरियाँ। कोठरियों के ऊपर कोठे तथा खपरैल का छाजन था, उत्तर और पश्चिम की तरफ बड़े बड़े बरामदे थे । बरामदे के बाद दोनो तरफ दालान, आँगन इतना बड़ा था कि रात में महिलाओं को सोने के लिए बीसों खाटें पड़ जाती थीं जिनमें बहू बेटियाँ सोया करती थीं। भोजन कोठे पर बना करता था, जिसके लिए सुबह और शाम को भोजन बनाने के लिए चार-चार बहुओं की पारी लगती थी। चार बहुएँ प्रात:काल रात में तीन ही बजे उठ कर गीत के साथ चक्की में आटा पीसती थीं तथा चार बहुएँ बरतन माँजने और घर की सफाई इत्यादि का काम करती थी । इस तरह पन्द्रह-पन्द्रह दिनों की व्यवस्था बनती थी। इतने बड़े परिवार के लिए बड़ी-बड़ी बटलोहियों में पाँच किलो दाल तथा दस किलो बाजरे तथा धान का भात बनता था। और इसके बाद लगभग दस किलो आटे की रोटियाँ। आटा, जौ और चने का बेर्रा का बनता था।

बच्चों को भोजन पहले खिला दिया जाता था बाद में बड़े और अन्त में महिलायें भोजन करती थीं। प्रातः काल स्कूल जाने वाले बच्चों को बोरसी पर भऊरे की लिट्टियाँ बनती थीं जिसे नमक और घी तथा दूध से खाकर बच्चे स्कूल चले जाया करते थे ।

हमारे गाँव में चूँकि धान की फसल नहीं होती थी अतः बाजार से खरीदना पड़ता था, अथवा बाजरे के बदले रिश्तेदारों के यहाँ से चावल आ जाया करता था। परिवार इतना बड़ा था कि अक्सर इन पारियों में कभी कभी जान बूझ कर पक्षपात और अड़ंगेबाजी लगाई जाती थी। चूँकि मेरे बाबा मालिक थे अतः मेरी दादी मालकिन बन गयी थीं। 

जब पक्षपात अत्यधिक होने लगा और लगा कि इस तरह अब सम्मिलित रूप से परिवार नहीं चल पायेगा तब मेरे बाबा ने सुविधा को ध्यान में रखकर बँटवारा कर दिया। उस समय मैं लगभग तीन साल का था। बँटवारे का मुख्य कारण मेरे बाबा-दादी की ईमानदारी और पुरुषों तथा महिलाओं का अन्त:कलह था। बाबा कहाँ कहाँ देखते। लोग खेत में ही बोझा अपने मित्रों के खलिहान में डाल देते थे। घर में महिलाएँ काम से चोरी और खाने पीने की चीजों की भी अपने अपने लोगों के लिए चोरी करने लगी  थीं। इस तरह जब बाबा को पता चला कि लोग बाहर बाहर अनाज बेचने लगे हैं और दूसरे लोगों ने आकर इस बेइमानी की बात बताई तो बाबा ने सबसे कह दिया कि आप लोग जिस खेत को जहाँ चाहे, वहाँ ले लें और अपना अपना अलग व्यवस्था करें। अगली फसल से लोगों  ने मनचाहे खेत चुन लिए और जो शेष बचा वह बाबा के हिस्से पड़ा। बाबा आधे के हिस्सेदार थे और आधे में दो परिवार जिसमें एक में तीन तथा दूसरे में पाँच परिवार सम्मिलित थे । खेतों के नाम भी विशिष्ट थे यथा– गोयड़े, चमराने, तरी, दुम्बा, समदा, करइल, नईकी, मिल्कीं, मोहानें, ठीका, कृष्णार्पण तथा रेता आदि।

पहले वाली जो  बखरी थी, वह बँटवारे में दूसरे पक्ष के लोगों ने ले लिया और बाबा के लिए गली के उस पार उत्तर तरफ एक नई बखरी जहाँ सार्वजनिक क्रियाकलाप जैसे जन्माष्टमी, दशहरा, होली इत्यादि का आयोजन होता था तथा जिसके अधिकांश हिस्से में भूसा गोइठा और लक़डियाँ रखी थी वह हिस्सा तथा गली के दक्षिण तरफ कुएँ की जमीन और बगीचा बाबा के हिस्से में पड़ा।

मुझे याद है कि जिस दिन अलगउझी हुई, उस दिन शाम के धुँधलके में मेरी  माँ मेरी उँगली पकड़कर, मेरी दादी जिन्हें हम सभी लोग आजी कहते थे, और बड़ी माँ के साथ नये घर में आये। इस नये घर में यद्यपि जगह पर्याप्त थी किन्तु रहने लायक कोठरियाँ कम थीं। चूँकि तीन महिलाओं के लिए तीन कोठरियाँ आवश्यक थीं, अत: दादी को सार्वजनिक कोठरी तथा मेरी माँ और बड़ी माँ को उत्तर तरफ एक-एक कोठरी दे दी गयी जिसमें उâपर कोठे भी थे और चढ़ने के लिए मिट्टी की सीढ़ियाँ भी बनी थीं। चूँकि बैठक का अभाव था अत: बाहर कुएँ के पश्चिम तरफ फूस की एक मड़ई बनाई गई, जिसमें कई तख्ते और खाटें डाल दी गईं। गोशाले में एक नई बैठक बनाई गई। मुझे याद है कि मुहम्मद नाम के एक मुसलमान ने पाँच सौ रूपये में ठीका लिया था। जिसमें बैठक कोठे पर जाने की सीढ़ी बगल में गोशाला तथा चउतरा बनाना था। बैठक काफी लम्बा चौड़ा था जिसमें आलमारियाँ खिड़कियाँ और दरवाजे नये ढंग के लगे थे। इस बैठक की प्रशंसा सभी लोग करते थे। नये घर में भी बाबा ने कुछ नये निर्माण कराये जिसमें दो कमरे, एक रसोई घर, और बरामदे बनवाये गये। इस तरह नई बखरी में दो आँगन हो गये। पश्चिम की तरफ के आँगन में नाबदान तथा कमरों में भूसा और लकड़ी तथा गोइठा रखने की व्यवस्था हुई। पूरब के आँगन में दक्षिण तरफ दादी का कमरा उत्तर तरफ मेरी माँ का कमरा तथा माँ के कमरे के पश्चिम बड़ी माँ का कमरा। इन कमरों के आगे बरामदा। रसोई घर दोनों आँगन के बीच में, तथा साथ में बरामदा। इस तरह सारी व्यवस्था उपयुक्त ढंग से हो गयी।

मुझे याद है दादी के कमरे के कोठे पर एक बहुत बड़ी कृष्ण भगवान की फोटो टँगी थी जिससे जन्माष्टमी मनाई जाती थी। दादी के कमरे में लकड़ी का एक बहुत बड़ा बक्स आठ गुणे चार तथा चार फुट उâँचा था जिसमें अनेक प्रकार की पुस्तकें पड़ी थीं। बाहर कुँए की जमीन पर पूरब और पश्चिम दोनों तरफ कुएँ की जगत के बाद चउतरे पर बाबा के हिस्से में जमीन मिली थी जिसमें दोनों ओर मड़ई बनाई गई थी। पश्चिम की ओर की मड़ई सार्वजनिक बैठक का काम देने लगी थी। मुझे याद है कि बाबा के जमाने में सुबह और शाम दोनों समय गाँव के जमीदार के मुंशी मेवालाल तथा अन्य प्रतिष्ठित शिक्षित लोग जुट जाया करते थे और धर्म और राजनीति की बातें किया करते थे। बाबा की चौकी अलग थी जिस पर दूसरा कोई नहीं बैठता था। केवल हम लड़के ही उनकी गोद में जा बैठते थे। विभिन्न जातियों के लोग अपनी अपनी उम्र और प्रतिष्ठा के अनुसार खाटों और चौकियों पर गुड़तार और मुड़तार का ध्यान रख कर बैठते थे। कुछ अन्य लोग कुर्सी और मोढ़ों पर अपनी हैसियत के अनुसार बैठते थे । कई लोग उकडू होकर जमीन पर ही बैठते या खड़े रहते थे। गाँव की कोई भी समस्या यहीं पर सबके सहयोग से सुलझाई जाती थी। मेरे परिवार का नाम ही ‘बड़का पंडित जी का परिवार’ पड़ गया था। हम लोग जहाँ कही भी निमन्त्रण आदि में जाते थे तो इसी नाम से लोग हम लोगो को पुकारते थे और आदर करते थे ।इस कारण बचपन से ही हम लोगों के अन्दर कुछ बड़प्पन का भाव आ गया था। बाबा के बारे में कभी कभार दादी के द्वारा तथा गाँव के अन्य प्रतिष्ठित लोगों के द्वारा उनके संस्मरण सुन कर आज भी उनके प्रति पूज्य भाव पैदा कर देता है, जिसका विस्तृत विवरण आगे देना उचित होगा।

अलगौझी होने पर हम लोग नये घर में आ गये। बक्से, बिस्तर और अन्य बड़े सामान हमारे बड़े बाबू जी पहले ही नये घर में पहुँचा चुके थे। बर्तन और राशन भी पहले से ही घर में आ गया था। इन सब बातों की कुछ की मुझे स्मृति है और कुछ बातें बाद में आजी और माँ ने बताई।

हम लोग एक सम्पन्न गृहस्थ थे । सैकड़ों बीघा खेत था। परिस्थिति ऐसी बनी कि न सम्हाल पाने के कारण बाबा ने नदी पार दूर चुनार मार्ग पर चालीस बीघा खेत को जमींदार को लौटा दिया। तब उसे एक कुर्मी ने ले लिया। आज वह जमीन एक करोड़ रुपये से भी अधिक की हो गई है। घर में छ: भैसें, दस गायें और चार जोड़ी बैल तथा एक घोड़ा हमेशा रहता था। अतः पुरानी बखरी में महिलाओं के रहने और भोजन बनाने का काम होता था। तथा नयी बखरी में अन्न व भूसा इत्यादि के भण्डारण की व्यवस्था थी। पुरानी बखरी में भी इतने कमरे नहीं थे कि सभी बहुओं को अलग अलग एक एक कमरा मिलता। यद्यपि पुरानी बखरी बहुत बड़ी थी, जिसमें आँगन इतना बड़ा था कि उसमें रात में सोने के लिए लगभग बीस खाट बिछाई जाती थी। आँगन के चारों ओर बरामदे थे। जिसमें शीशम की लकड़ी के खम्भे लगे थे और उसके बाद चारों ओर कमरे । हर कमरे के उâपर कोठे बने थे, तथा उन पर चढ़ने के लिए सीढ़िया बनी थीं। बाहर की ओर पश्चिम और उत्तर की ओर बड़े बड़े बरामदे थे, जिनके किनारे कोठरियाँ भी बनी थी। दक्षिण और पूरब की ओर कोलियाँ थी। उत्तर की ओर बहुत बड़ा चबूतरा था, जिसके बीच में एक कुआँ था। पश्चिम की ओर एक लम्बी सी मड़ई थी। यह मड़ई ही उस समय सार्वजनिक बैठक के रूप में इस्तेमाल होती थी। कुएँ के पूरब की ओर स्नान करने के लिए चौकी तथा उसी से लगी हुई एक बहुत बड़ी फूलवारी थी। जिसमें नीबू, केला, और गुलाब के पौधे लगे हुए थे। घर के उत्तर की ओर मुख्य निकास था। फुलवारी में मौसमी फूल और सब्जियाँ भी उगाई जाती थीं। बखरी के पश्चिम की ओर बरामदे में औरतों के बैठने की व्यवस्था थी। एक बहुत बड़ा पत्थर का चबूतरा था। इस पर शाम के समय घर और मोहल्ले की औरतें बैठ कर आपसी बातचीत करती थीं।

हमारा गाँव जलालपुर माफी बहुत बड़ा गाँव है जिसमें कई पुरवे है तथा जिसकी आबादी लगभग छ: हजार है तथा कुल जमीन पाँच हजार छ सौ बीघा है। हमारे गाँव में प्रायः सभी जातियों के लोग रहते है जिसमें बहुलता कुर्मी क्षत्रियों की है। ब्राह्मणों के दो सौ परिवार हैं। मुसलमान, जुलाहे का काम करने वाले पचास परिवार हैं, मल्लाहों के पुरवे तथा चमारों के पुरवे अलग अलग हैं, जिसमें पचास परिवार मल्लाह तथा सौ से अधिक चमारों के परिवार हैं। इनके अलावा कई घर कुम्हार, नाई, धोबी, तेली, बनिया, हलवाई, सुनार, जैसवाल आदि प्रजाजनों के हैं। ऐसा लगता है कि इस गाँव में सबसे पहले हमारे ही पूर्वज आकर बसे हैं। क्योंकि गाँव में सबसे ऊँचाई पर मेरा ही घर है। हमारा गाँव गंगा, जरगो एवं कलकलिया नदी के द्वाबा में बसा है। इसीलिए बारह गाँवों को द्वाब अथवा ढाब वâहते है। ढाब में जलालपुर माफी, केशवपुर, मुजाहितपुर, चितरहा, शिवपुर, बगही, धरमपुर, गांगपुर, नियामतपुर, रमरापुर, मोहाना एवं सहंसापुर शामिल हैं। जहाँ लगभग हर साल बाढ़ आ जाती है। मुझे याद है १९४८ में और तदुपरान्त १९७८ में जब बड़ी बाढ़ आई थी, तो पूरा गाँव बाढ़ से डूब गया था किन्तु हमारे घर के चारों ओर कुछ ही घर सुरक्षित बचे थे।

हमारे गाँव का नाम जलालपुर माफी क्यों पड़ा, इस सम्बन्ध में मैंने बुजुर्गों से एक किम्बदन्ती सुनी है। जब काशी नरेश चेत सिंह और वारेन हेस्टींग के बीच लड़ाई हुयी तो वारेन हेस्टींग गंगा पार कर आकर चुनार के किले में छिप गया। जब राजा ने वहाँ भी उसे खदेड़ा तब वह घोड़े से दीवाल फाँद कर कूद पड़ा जिसका प्रमाण घोड़े के टाप का निशान आज भी चुनार के किले में जाते हुए बना हुआ है। घोड़ा वहीं मर गया और वारेन हेस्टींग पैदल ही भागा और भागते भागते आकर हमारे गाँव में किसी भरभूजे की दूकान में आकर छिप गया। और इस प्रकार उसकी जान बच गयी। जब अग्रेजों का भारतवर्ष पर कब्जा हो गया और वारेन हेस्टिंग वाइसराय बन गया तब भी उसे अपने प्राणरक्षक गाँव की स्मृति बनी रही और उसने एक आदेश निकाल कर गाँव को लगान में माफी दे दी। इस तरह गाँव का नाम जलालपुर माफी हो गया।

हमारा गाँव हमारी पिछली पीढ़ी से ही काफी शिक्षित रहा है। हमारे यहाँ हमारे पूर्व की पीढ़ी में भी डाक्टर, इंजिनियर, आचार्य, प्राचार्य तथा अन्यान्य सरकारी महकमें के अधिकारी प्रचुर मात्रा में थे। गाँव में जमीदार लोग भी थे जो बड़े सम्पन्न थे। हम लोगों की पीढ़ी मे आते आते शिक्षा का प्रचार प्रसार बहुत बढ़ गया था। और अनेक लोग शिक्षित हो कर विभिन्न पदों पर कार्य करने लगे थे। किन्तु इसका गाँव पर दुष्प्रभाव भी पड़ा, क्योंकि अनेक शिक्षित लोग गाँव छोड़ कर विभिन्न नगरों में बस गये थे। अनेक लोग अच्छे व्यवसायी हो कर कलकत्ता, पटना और बम्बई में रह कर जीवनयापन करने लगे थे जो कभी कभार ही गाँव आते थे। किन्तु गाँव से उनका सम्बन्ध बना हुआ था और काफी सम्पन्न हो गये थे। एकाध परिवार स्वतत्रता पूर्व ही रंगून और सिंगापुर में जा कर बस गये थे तथा एकाध परिवार सूरीनाम और मारीशस में भी चले गये थे। ऐसा पूर्वज लोग बताते थे। जब विश्व युद्ध के समय जापान का आक्रमण होने लगा तो अनेक स्वर्णकार कलकत्ता और रंगून से भाग कर बनारस और गाँव में आ गये थे। गाँव में रहने वालों में हमारा परिवार खेती के माने में काफी सम्पन्न था। दूबे परिवार के अलावा ब्राह्मणों में पांडे, तिवारी, पाठक, और उपाध्याय लोग भी थे जो सम्भवत: नवासे पर आकर पी़ढ़ी दर पीढ़ी आकर बस गये थे। दूबे परिवार में एक परिवार से लगभग दो सौ परिवार हो गये थे। हमारी पीढ़ी के पश्चात् गाँव के ब्राह्मणों की अवनति होने लगी थी, और कोई भी सुयोग्य उच्च पदस्थ व्यक्ति नहीं रह गया था। सब सामान्य जीवन यापन कर रहे थे। खेती भी लोग बटाई पर देने लगे थे। अधिकांश घरो में ताले लग गये थे। जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कुर्मियों में कई परिवार जमीदार थे और कई शिक्षित होकर डॉक्टर इंजिनियर आदि बन गये थे। हमारे गाँव के कुर्मी काफी परिश्रमी और अध्यवसाई थे जिनमें से अनेक अच्छे अच्छे पदों पर कार्य कर रहे है। बटाई पर ब्राह्मणों के खेत ले कर भी कई कुर्मी परिवार उनके जमीन को भी खरीद लिये है और काफी सम्पन्न हो गये हैं। हमारे गाँव में जो भाई चारा सभी जातियों के बीच था वैसा कम ही गाँवों में देखने को मिलता है।

मुझे याद है कि मेरे बचपन में परिवार किस तरह व्यवस्थित चलता था। महिलायें दो ढाई बजे ही उठ कर चक्कियों से पाँच किलों के लगभग अनाज पीस लेती थी और तब शौच के लिए बाहर जाती। ब्रह्म मुहूर्त में चक्की पर गाये जाने वाले गीत मुझे बहुत अच्छे लगते थे । करुणा मिश्रित भाव वाले गीत बडे रसमय होते थे। मेरे बचपन में पाँच किलो बाजरा पकाने वाली बड़ी सी बटलोही तथा तीन किलो दाल पकाने की बटलोहिया थी जो फूल धातु की बनी थीं। कभी कभी तो दो दो बटुही भात बनता था। गृहस्थी अच्छी होने पर भी लोग अभाव में जीवन जीते थे। मेरी दादी बतलाती थीं चूँकि हमारे यहाँ चावल नहीं होता था और रिश्तेनाते से ही चावल बदले में आता था। अतः मेहमानों के आने पर घर के अन्य लोगों को नीचे बाजरे का भात तथा ऊपर से चावल के भात की परत डाल कर परोसा जाता था। जिसे साथ बैठ कर खाने वाले व्यक्ति को छिपा कर खाना पड़ता था। दादी बताती थी कभी कभी ऐसी स्थिति आती थी कि इतने बडे परिवार में भोजन का अभाव हो जाता था और किसी महिला मेहमान के आने पर लोग रसोइ घर में जाते और आधा पेट खा कर ही हाथ मुँह धो लेते थे। यह सब महिला मेंहमान से छिपा कर किया जाता था। जिससे उसे अभाव का पता न चल सके । एक ओर पारिवारिक मर्यादा का ध्यान और दूसरी ओर अभाव का बोझ और उनके बीच समन्वय स्थापित करना, इन सब बातों को आजी अक्सर बड़ी भावुक होकर बताती थीं। यह एकाध पीढ़ी पहले की बातें है। अलगउझी हो जाने  के बाद हमारे परिवार में हमारी जानकारी में इस तरह का अभाव कभी नहीं रहा। सम्भवतः आजी जब बहू बन कर आयी रही होगी उस स्ामय का किस्सा सुनाती थीं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर सम्भवतः बाबा ने अलगउझी कर के अन्य लोगों से अलग रहने का निर्णय लिया होगा।

अलगउझी के बाद हमारे परिवार में दिनों दिन सुधार होता गया। मेरे बड़े बाबू जी पहले शकतेशगढ़ में और बाद में गाँव में हेडमास्टर हो गये थे। मेरे पिता जी भी अपनी शिक्षा पूरी कर के कलकत्ता में अध्यापकी करने लगे थे। और बाबा के जमाने तक प्रत्येक माह नियमित रूप से चालिस रूपये भेजने लगे थे। जिसमें दस रुपये मेरी माँ के लिए होता था। बाबा को भी खेती गृहस्थी से तथा कथा पुराण आदि से आमदनी हो जाती थी। उन्होंने कई गाँव में धान के खेत भी खरीद लिऐ थे जिससे चावल भी उपलब्ध होने लगा था। अत: पहले जैसा अभाव का वातावरण अब नहीं रह गया था। चूँकि बँटवारे में हम लोगों को नया घर मिला था उसमें कमरों का अभाव था। अत: बाबा ने सबसे ज्यादा प्राथमिकता घर बनवाने के लिए दी थी। मुझे याद है पुरानी दो कोठरियों के अलावा बाबा ने दो कमरे उत्तर की ओर दो पश्चिम की ओर तथा तीन कमरे दक्षिण की ओर बनवाये थे। दोनों आँगन के बीच में एक रसोई घर बनावाया था। तथा पूरब और उत्तर की ओर लम्बे लम्बे बरामदे बनवा दिये थे। बाहर चबूतरे पर एक लम्बी चौड़ी बैठक तथा गोशाला बनवा दिया था। सभी कमरों में कोठे भी बन गये थे, जिससे पर्याप्त जगह हो गयी थी। मुझे याद है कि कोठों पर बड़े बडे मिट्टी के कुंडे थे जिसमें आज के साठ सत्तर किलों अनाज रखने की क्षमता थी और जिसमें अलग अलग प्रकार के अनाज सावा, जोन्हरी, मक्का, बाजरा, चना, उड़द, मूंग, मसूर तथा चावल आदि रख कर उन्हें ढकनी से ढक कर मिट्टी से सील कर दिया जाता था जिससे घुन इत्यादि न लगें। इसके अलावा उनसे छोटे ठिल्लों में भी हर प्रकार के अनाज रखे जाते थे। बरसात से अनाज को बचाने के लिए बखारी बनाई जाती थी। जिसमें बोरों में अनाज रख कर और चारों तरफ से भूसा बिछा कर और उâपर से भूसे से भी ढक दिया जाता था। अनेक कुंडों में गोजई, बेर्रा, तीसी, सरसों, बरई, रेड़ी, रामदाना, इत्यादि रखा जाता था। मिट्टी के कोठिले भी बनाये जाते थे, जिसमें अनाज भरा रहता था। बँटवारे के बाद पशुओं की संख्या भी काफी कम हो गयी थी। मेरे बचपन में बँटवारें के बाद चार बैल एक भैस दो गाय और एक घोडा तक ही पशु रह गये थे। परिवार के बँटवारे के साथ साथ मजदूरों का भी बँटवारा हो गया था। बाबा की ईमानदारी के चलते अच्छे मेहनती मजदूर अन्य पटिदारों ने ले लिए थे तथा कमजोर मजदूर हम लोगों के हिस्से पड़े थे। किन्तु इन सबसे काम में कोई बाधा नहीं पड़ती थी। बहुत आवश्यक होने पर रिश्तेदारियों से भी कुछ दिनों के लिए बैल मँगा लिये जाते थे।

जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ बाबा ने दरवाजे पर जो बैठक बनवाया था, वह था तो मिट्टी का ही, किन्तु उसकी सुविधाएँ देख कर गाँव में उसकी बड़ी प्रसंशा होती थी। बाबा के जमाने में खान पान में बड़ी सात्विकता बरती जाती थी। रसोई बनाने वाली स्त्रियाँ जाड़े के दिनों में भी रसोई बनाने के लिए एक विशेष साड़ी पहन कर ही चौके में जाती थीं। बिना सिले कपड़े पेटीकोट बिलाउज रहित केवल साड़ी में ही भोजन बनाने के बाद उसे कचार दिया जाता था। और पुनः शाम को उसका प्रयोग होता। भोजन बनाने के बाद सारा रसोई घर गोबर और मिट्टी से लीप कर साफ किया जाता था, चूल्हा इत्यादि सब। भोजन करने वाले भी कपड़े उतार कर ही भोजन करते थे। हमारे घर में लहसुन और प्याज पूरी तरह से वर्जित था। जब कुएँ से हमारे घर का पानी भरा जाने लगता, तो सब लोग कुएँ पर से हट जाते थे। मुझे याद है कि मेरी पटिदारी के एक चाचा परम हंस द्विवेदी स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी होकर मीरजापुर जेल में बन्द थे और जब जेल से छूट कर आये तो उन्होंने सब से छिपाकर चोरी से एक दिन प्याज खरीद दिया और उसका छिलका बाबा ने देख लिया। इस पर बाबा बहुत नाराज हुए और एक निषेध लागू कर दिये की परमा की रसोई अलग बनाई जाये। बाबा का इतना भय था कि चुनार से जब कोइरिन सब्जी बेचने हमारे गाँव आती थी, तो हमारी गली में आकर वे प्याज लहसुन का नाम नहीं लेती थी। इतना भय व्याप्त था बाबा का। इस प्रकार का प्रतिबन्ध मेरी माँ के समय तक चलता रहा, किन्तु बाद में आधुनिक बहुओं के आ जाने के कारण रसोई घर का यह प्रतिबन्ध समाप्त हो गया। यहाँ तक कि बिना नहाये रसोई घर में भोजन बनने लगा। मुझे याद है कि बचपन में बरसात के बाद दिवाली के पूर्व सारे घरों को अन्दर और बाहर पहले गोबर से लीप कर उसके बाद पीली मिट्टी से पोत कर और उस पर चूने का छिड़काव कर के और गेरू से दरवाजे खिड़कियों इत्यादि को रंग कर सजाया जाता था। विशेषकर कार्तिक मास में तुलसी चौरे की नित्य पोताई होती थी ओर दोनों समय आरती और पूजन किया जाता था। पूरे घर में सात्त्विकता चारो ओर परिलक्षित होती थी। यह सब बाबा और आजी के प्रति श्रद्धा और विश्वास के कारण तथा बहुत कुछ उनके भय के कारण होता था। पुराने घर में यह सात्विकता नहीं के बराबर थी, क्योंकि वहाँ की श्रद्धावान स्त्रियाँ हमारे घर में आ कर तुलसी पूजन करती थीं।

एक विशेष बात जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है वह यह है कि हमारे घर में होली की आग कभी नहीं बुझती थी। होली की आग घर में लाकर जो जलाई जाती थी, वह साल भर हमेशा जलती रहती थी। जाड़े के दिनों में राख के अन्दर कण्डा सुलगाकर उसे सुरक्षित रखा जाता था। गाँव में यह परम्परा केवल मेरे घर में ही सम्भव थी। प्रायः प्रतिदिन पटिदारी और पड़ोस के लोग आग माँगने के लिए मेरे घर आते थे। उन लोगों के यहाँ आग सुरक्षित नहीं रहती थी। शाम होते ही कपड़े की बत्ती बना कर तथा रेड़ी अथवा कुसुम के तेल से दीपक जलाये जाते थे। मिट्टी के दियों के अलावा छोटी छोटी शीशे की डेबरियाँ जलाई जाती थीं। मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेन और लैम्प का प्रचार तब नही था। यह सब काफी बाद में आये। घर की औरतों का नित्य का नियम था सबेरे उठ कर चक्की में आटा पीसना और फिर अँधेरा रहते ही शौच चले जाना और अँधेरा रहते ही औरतें सारे घरों में झाडू ताड़ की कूची द्वारा लगा देती। बाहर दरवाजे की सफाई तथा गोशाले की सफाई का जिम्मा पुरुषों का था। रात में झाडू लगाना निषिद्ध था, ऐसा विश्वास किया जाता था कि जिससे लक्ष्मी घर से चली जाती हैं। रात के बर्तनों की सफाई सबेरे-सबेरे कर लिया जाता था। और उसके बाद स्नान कर के तथा रसोई का कपड़ा पहन कर के भोजन बनाने की परम्परा थी।

हमारे गाँव में हमारे बचपन में मेरा परिवार बहुत बड़ा था। मेरे दादा ने बाद में अलगउझी कर के अपनी अलग गृहस्थी बना ली थी। हम लोगों के अलावा ब्राह्मणों में हमारे भारद्वाज गोत्र के ही पचासों परिवार हो गये थे। यही नहीं हमारे बचपन के संयुक्त परिवार में ही पचीस से अधिक परिवार हो गये थे। और सब की खेती गृहस्थी अलग अलग हो गयी थी। मेरे बाबा ने गाँव में ऐसी व्यवस्था बना दी थी कि लोग आपस में ही अपना काम चला लेते थे। हम लोगों के दूबे खानदान के पुरोहित नवासे पर आये हुये पांडे परिवार के लोग थे, इन पांडे लोगों के पुरोहित एक दूसरे गोत्र के पांडे लोग थे। तथा इन लोगों के पुरोहित हम लोग थे। अतः एक दूसरे से सब का काम चल जाता था। इस प्रकार त्रिभुज सा बन गया था, और कोई अंहकार बस अपने को छोटा बड़ा नहीं कह सकता था। इतने बड़े ब्राह्मण परिवार में कर्म काण्ड करने वाले बहुत कम लोग थे। इस माने में मेरे बाबा पंडित श्यामधर द्विवेदी जो बड़का पंडित जी कहलाते थे, और काशी नरेश तक उनकी पहुँच थी। किन्तु उनके बाद कर्मकाण्डियों की कमी थी। हमारे पुरोहित जी पंडित बलदेव प्रसाद पांडे अथवा उनके छोटे लड़के पंडित विजय शंकर पांडे कर्म काण्ड तो सब जानते थे, किन्तु मंत्र नहीं जानते थे। अतः दूसरे के सहारे ही रस्म निभाते थे। पंडित बलदेव प्रसाद के पुरोहित पंडित राम प्रसाद पांडे कर्म काण्ड के अच्छे जानकार थे। हमारे परिवार में हमारे चाचा परमहंस द्विवेदी तथा उनके लडके विजय नाथ द्विवेदी भी कर्मकाण्ड में कुशल थे। सुधाकर भैया के अलावा लल्लू ने भी कर्म काण्ड कराना शुरू कर दिया था। चूँकि हमारा गाँव बहुत बड़ा था, और अक्सर शादियाँ, अथवा कथा और हवन आदि कि मांग होती रहती थी, अतः कुछ लोग तो मात्र ब्राह्मण होने के नाते कुछ भी न जानते हुऐ,  कर्मकाण्ड कराते थे। उनका गॉव के लोग मजाक भी उड़ाते थे। ऐसे लोग ब्राह्मण समाज के लिए कलंक थे, और पाप कर रहे थे। बिना मंत्र की जानकारी और कर्मकाण्ड के विधि विधान को जाने केवल पैसे के लोभ में इस प्रकार के क्रिया कलाप बहुत ही निन्दनीय थे। किन्तु चाहे बाध्यता बस या अज्ञानता वस लोग इसकी स्वीकृति देते थे, और इसी में सन्तुष्ट रहते थे।

कर्मकाण्ड एक सनातन वैदिक परम्परा है। शास्त्र ने इह लोक और परलोक दोनों लोक के लिए फलदायी बतलाया है। शर्त यही हैं कि इस प्रकार के कर्मकाण्ड के कार्य श्रद्धा और विश्वास के साथ शास्त्रोक्त विधि विधान से सम्पन्न कराये जायें। यदि विधि विधान से यह क्रिया सम्पन्न की जाती है तो देवता प्रसन्न होकर आर्शीवाद देते है और सुख सम्पदा की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । किन्तु यदि यही कार्य विधि विधान से नहीं किया जाता है तो इसका परिणाम हानिकारक भी होता है। इससे जजमान के साथ साथ पुरोहित का भी अनिष्ट होने की सम्भावना होती है। अतः पुरोहित को विशेष रूप से पूरी जानकारी के साथ इस कर्म को करना चाहिए। आज कल अधिकांश कर्मकाण्डी लोभी ज्यादा हो गये हैं। अपनी गलती सुधारने की ओर उनका ध्यान कम रहता है। कभी कभी तो अच्छे जानकार पंडित भी उच्चारण की गलती कर देते है। जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है। और उसका प्रभाव समाज पर पड़ता है। इस ओर मैने कई मंचों से पंडितों का ध्यान दिलाया किन्तु अब भी अनेक कर्मकाण्डी पंडित इस गलती को दोहराते रहते है। मैं इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त देना चाहूँगा। प्रत्येक कर्मकाण्ड के प्रारम्भ में स्वस्ति वाचन और शान्ति पाठ किया जाता है। उसमें एक जगह जिसका शुद्ध उच्चारण हैं- ‘‘अभयं नः पशुभ्यः’’ होना चाहिऐ। किन्तु अर्थ की अज्ञानता के कारण अनेक कर्मकाण्डी पंडित - ‘‘भयं नः पशुभ्यः’’ का उच्चारण करते है। जिसका अर्थ होता है हमारे पशु ‘‘भय ग्रसित हो ’’जब कि शुद्ध उच्चार के अनुसार होना चाहिए कि हमारे पशु ‘‘भय रहित हो’’। यह गलती बड़े बड़े समारोहों में अधिकाशं पंडित लाउडस्पीकर की ऊँची आवाज में चिल्ला चिल्ला कर कहते हैं जिसका परिणाम हमारे पशुओं को भुगतना पड़ रहा है। मैने इस सम्बन्ध में शंकराचार्य तक से शिकायत करके इसमें सुधार के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने का निवेदन भी किया किन्तु अनेक प्रयासों के बाद भी इस गलती का परिमार्जन नहीं हो पा रहा है। विशेषकर प्रयाग के माघ मेले में कर्मकाण्डियों की इस प्रकार की अनेक गलतियाँ प्रचलन में हैं। मात्र अर्थ लोभ में यह सब हो रहा है, जो नहीं होना चाहिऐ। इन गलतियों से ब्राह्मण वर्ग और समाज तथा राष्ट्र सब का अनिष्ट हो रहा है जिस पर अंकुश लगाना समय की माँग है। जब तक इन कर्मकाण्डियों में लोक कल्याण की भावना नहीं जागृत होगी और वे लोभ के क्रिया कलापों में सुधार कर के उचित श्रद्धा और विश्वास के साथ शास्त्रीय परम्परा का पालन नहीं करेगे तब तक लाभ की अपेक्षा हानि की सम्भावना बनी रहेगी। देश में ऐसी अनेक संस्थायें हैं जो धार्मिक आस्था और विश्वास को ध्यान में रख कर शास्त्रसम्मत निर्देश के अनुसार समुचित ढंग से सभी क्रियाओं को सम्पन्न करती हैं। किन्तु ऐसी संस्थाये गिनती की ही हैं। अधिकांश संस्थायें धार्मिक श्रद्धा और विश्वास का दुरुपयोग कर समाज का शोषण करने में ही संलग्न हैं ।

बचपन में मेरे एक बाबा ने पता नहीं क्यों मेरे अन्दर क्या गुण देखा कि उन्होंने अचानक कह दिया कि प्रभाकर तो बड़ा साधू लगता है। उनके इस कथन के बाद तो गाँव में मेरा नाम ही साधू पड़ गया। और बहुत दिनों तक जब भी मैं गॉव जाता लोग मुझे साधू भैया, साधू चाचा, या साधू बाबा, के नाम से पुकारते रहे। वास्तविकता तो यह है कि मैं बचपन से ही अपने मन के अनुसार चलने वाला मनमौजी और हँसी मजाक करने वाला व्यक्ति रहा हूँ। मैं अपने साथियों को चिढ़ाने में पीछे नहीं रहता था। किन्तु यह भी सही है कि मेरे अन्दर आध्यात्मिकता प्रारम्भ से ही अन्दर जड़ जमाये रही। अक्सर मैं शान्त और एकान्त में रह कर कुछ चिन्तन के भाव में रहा करता था। सम्भव हैं कि इन्हीं क्षणों में बाबा ने मुझे देखा हो और अपना भाव प्रकट किया हो। मेरी माँ ने बचपन में ही मुझे अक्षर ज्ञान करा दिया था, और चूँकि वे स्वयम् नित्य सूर्य को अर्घ्य देती थीं, तुलसी को जल चढ़ाती थीं, मंदिरों में पूजा करती थीं, तथा हनुमान चालीसा और सुन्दर काण्ड का नित्य पाठ करती थीं, यद्यपि उनके उच्चारण बड़े अटपटे अस्पष्ट और गलत होते थे। कई श्लोकों को तो उन्होंने मनमाने ढ़ंग से याद कर रखा था। जब मैं कुछ बड़ा हुआ और माँ को उन्हीं के शब्दों में उन श्लोकों को सुनाता तो वे चिढ़ जाती थीं। किन्तु चाहे जैसे भी सब उनको याद हो गया था। माँ की इस प्रकार के धार्मिक संस्कारों के कारण मेरी भी अभिरुचि उन पुस्तकों को पढ़ने की हो गयी थी, और कुछ ही दिनों बाद मुझे हनुमान चालीसा, हनुमान जी की आरती, राम चन्द्र जी की आरती तथा हनुमानाष्टक आदि कंठस्थ हो गये थे। बाद में मैं पहले केवल सुन्दर काण्ड और फिर उसके बाद पूरे रामचरितमानस का भी मास परायण और अवकाश के समय में नवान्ह परायण करने लगा था। हमारे परिवार में रामचरितमानस की कई प्रतियाँ थीं। छोटे गुटका से ले कर वृहद रामायण तक। यहाँ तक की मानस की एक हस्तलिखित प्रति भी थी, जिस पर चारों ओर प्रत्येक पृष्ठ पर फूल-पत्तियों की चित्रकारी भी की गयी थी। यह हस्तलिखित प्रति आज के छापाखाने से प्रकाशित पुस्तकों से किसी माने में कम नहीं थी। बड़े सुन्दर काले अक्षरों में यह लिखी गयी थी। पता नहीं वह पुस्तक अब किसके पास है? है भी या नहीं। ऐसा अमूल्य ग्रन्थ दुर्लभ है। चैत्र नवरात्रि में रामचरितमानस का नवान्ह परायण करने का मेरा अभ्यास बचपन से ही बन गया है। प्रारम्भ में मुझे यह पाठ करने में छ:-छ: घण्टे लग जाते थे, किन्तु अभ्यास होने पर अब तो सस्वर पाठ करने में मात्र दो या ढाई घण्टे लगते हैं। मेरे अन्दर कुछ अपभय रहता था। कभी कहीं यदि अशुद्ध पाठ हो जाता था, और बाद में जब वह भाव मन में बना रहता था, तो मैं फिर से वहीं से दुबारा पाठ करने लगता था। इस प्रकार काफी समय लग जाता था। यह प्रक्रिया मैं बिना जल भी पिये, कभी कभी तो दो-दो तीन-तीन बजे तक पाठ करता रहता था। गर्मी की छुट्टियों में जब मैं गाँव में रह कर यह अनुष्ठान करता था। प्रात: नित्य गंगा स्नान करने जाता था। गंगा जी हमारे घर से प्रायः पाँच-छ: किलोमीटर दूर हैं। जिसमें बीच में जरगो नदी की शाखा तथा अधगंगी गंगा की एक शाखा बीच में पड़ती है तथा आधा मार्ग रेतीला है। अधगंगी में जल की अनिश्चितता रहती है। कभी घुटने तक पानी और कभी तैरने लायक। उस समय मेरे पास घड़ी तो थी नहीं। जब भी प्रातः नींद खुलती, मैं चल पड़ता और मार्ग में ही शौच और दातून करता। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि समय का ज्ञान न होने से मैं गंगा जी पहुँच गया और तब तक घना अँधेरा ही बना रहा। मुझे कुछ भय लगने लगा, क्योंकि पास में ही श्मशान घाट भी था। एक बार तो ऐसा हुआ कि जब मैं स्नान कर के लौट रहा था, तो घनघोर वर्षां होने लगी।  मैं राह भटक गया और बाई ओर उत्तर की ओर पुनः गंगा के किनारे पहुँच गया। मैं घबड़ा सा गया। किन्तु उसी बीच बिजली चमकी और उसके प्रकाश में पीछे दक्षिण की ओर मुझे चुनार का किला दिखलाई पड़ गया। और तब मैं लौट कर अधगंगी में आया, जहाँ तैरने लायक जल हो गया था, और तैर कर के अपने गाँव के मार्ग पर सही दिशा में आ गया तथा भीगते हुये इस प्रकार गाँव पहुँचा। इन सब व्यवधानों के बावजूद मेरे नियम में व्यतिक्रम नहीं पड़ा। नवान्ह परायण पाठ का यह क्रम अब भी अबाध गति से नियम पूर्वक चल रहा है। 

हमार गाँव

गँवई हमार हमरे देश के परान हो, गँवई किसान हो गँवई जवान हो।

देशवा के रग-रग में गँवई वैâ पानी। गँवई के दाना पानी वैâ न कुछौ सानी।

गँउना बनौले बूँढ़ भारत के जवान हो। गँवई हमार......

एक जून खा के कबहो आधा पेट खाई। कौनो दिन जुरै नाहि मारे के खराई।

देशवा के खातिर सुखावै ला परान हो। गँवई हमार......

चाहे पड़े पाला पत्थर चाहे बरसे पानी। जाड़ा चाहे गरमी चाहे तूफान चाहे आँधी।

कौने विघ्न बाधा से न रुवैâ बढ़ल पाँव हो। गँवई हमार......

गाढ़ा के कथरी फटही पुरानी। लाज ढवैâ जैसे-तैसे मरदा जनानी।

तबो पर बचावे लोग देशवा वैâ लाज हो। गँवई हमार......

केतनन के घर न दुआर नाही खेती। कौनो व्यापार नाही नाही कौनो रोजी।

देशवा के खातिर तबो होलन कुर्बान हो। गँवई हमार......

खेले खाये के उमिर में कमर तोड़ म़जदूरी। फूल जैसन लाल जिये ़िजन्दगी अधूरी।

धोवनो नसीब नाही तबो मुस्कान हो। गँवई हमार......

धनि-धनि गँवई के लोगवा लोगाई। हउवै महान भारत तोहरे कमाई।

तोहई बचौले जब जब बूड़ल देश नाव हो। गँवई हमार......

कीर्ती तोहार जब ले गंगा जमुना पानी। दिन दिन फूलै-फरै तोरी तोरी ़िजन्दगानी।

जतन से बचौले रहे आपन सब शृंगार हो। गँवई हमार......

मेरे गाँव के आस-पास के कुछ प्रसिद्ध स्थल

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धूँई बाबा

हमारे गाँव के पास ही जरगो नदी के उसपार, लगभग दो किलोमीटर दूर भरेहटा गाँव में धूँई बाबा का सिद्धपीठ है। जरगो नदी यहाँ दो शाखाओं में बँट गई है। एक शाखा गाँव के पूरब की सीमा बनाती हुई आगे जाकर गंगा में मिल गई है। इसी में इसके पहले पूरब से आकर कलकलिया नदी भी मिलगई है। दूसरी शाखा मेरे गाँव से पश्चिम से होती हुई शिवपुर के पास जाकर गंगा में मिल गई है। जहाँ जरगो दो शाखाओं में बँटी है, वहाँ हम लोगों के बचपन में बड़ा घना जंगल था जिसमें विशेष रुप से हुड़ार, सियार, नीलगाय आदि जानवर झुण्ड के झुण्ड रहते थे। ये जानवर हमारे गाँव में आक्रमण करके गाय, भैंस और बकरी के बच्चों को उठा ले जाते थे। एकाधबार तो आदमी के बच्चों को भी उठा लेने की घटनाएँ हुई। ये बघर्रे कभी-कभी पूरे परिवार के साथ आक्रमण करते थे, इनको लोग सतरोहनिया कहते थे। अर्थात सात बघर्रे एक साथ आक्रमण करते थे। बड़े लोग भी इनसे बड़े भयभीत रहते थे। इसी जंगल में जरगो के उस पार ऊँची करार पर धुईं बाबा का उस क्षेत्र का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, जहाँ प्राय: रोज ही कथा वार्ता होती रहती है। विशेषकर पूर्णिमा और पर्वों पर तो वहाँ मेला जैसा लग जाता है। आसपास के सैकड़ों गाँव के लोग यहाँ अपनी मान्यता के अनुसार सत्यनारायण भगवान की कथा और हवन आदि करते हैं तथा भोज का आयोजन होता रहता है।

किंवदंती है कि कोई संत यहाँ अचानक आये और अपनी खन्ती से टटोलते हुए एक स्थान पर रुके और बोले यहीं वह सिद्ध स्थान है जिसके लिए मेरे गुरुजी ने मुझे बतलाया था, वहाँ एक विशाल इमली का पेड़ था और एक बरगद का वृक्ष भी था। वे बाबा वहीं आकर बस गये। वे नंगे रहते थे और नित्य दूध से ही स्नान करते थे और दूध ही पीते थे तथा दूध का ही हवन करते थे और सदा धूनी रमाये रहते थे। ऐसा कहा जाता है एक दिन बड़े जोरों की आँधी आयी और इमली का पेड़ दो भागों में बँटकर धराशायी हो गया। और लोगों का ऐसा विश्वास है कि बाबा उसी आँधी में समा गये। बाबा क्या हुए, कहाँ गए, किसी को कुछ पता नहीं। तभी से वह धूनी का स्थान पूजा स्थान बन गया और धूनी से धूईं बाबा हो गया। धीरे-धीरे इसकी मान्यता बढ़ती गई। हम लोगों के बचपन में धूनी का वह क्षेत्र बरगद का पेड़ और पास ही एक शिवाला भी था जहाँ हम लोग अक्सर पिकनिक मनाते थे। वहीं कार्तिक मास में आँवले के पेड़ के नीचे भोजन की व्यवस्था होती थी। अब तो वहाँ काफी भव्य स्थान बन गया है। हमारे गाँव के लोगों ने चँदा करके एक धर्मशाला और एक वुँâआ बनवा दिया है। और अब यह क्षेत्र बहुत ही भव्य बनता जा रहा है। चारो ओर घेराबन्दी कर दी गई है।

शीतला मन्दिर

मेरे गाँव के पश्चिम में करीब चार किलोमीटर दूर गंगा के उसपार सुलतानपुर गाँव में इस क्षेत्र का प्रसिद्ध शीतला मन्दिर विद्यमान है, जहाँ नित्य ही पूजन से रौनक रहती है। पूजा-पाठ, हवन, आरती आदि करने लोग दूर-दूर से यहाँ आते हैं और मनौती के अनुसार मुंडन आदि कराकर पूड़ी-हलवा का प्रसाद बनाकर चढ़ाते हैं।

किवदंती है कि सुल्तानपुर के किसी मलाह को स्वप्न हुआ कि गंगा में अमुख स्थान पर मेरी मूर्ति पड़ी है उसे निकालकर तुम मंदिर बनवाओ और मेरी पूजा-पाठ की व्यवस्था करो। इससे तुम्हारा परिवार सदा सम्पन्नता को प्राप्त होगा। उस मलाह ने वैसा ही किया। वहाँ मलाह ही पुजारी हैं। देवी शीतला की बड़ी मान्यता है। पर्वों पर वहाँ विशेष भीड़ होती है। मैंने भी अपने संकल्प के अनुसार वहाँ के एक माली को मेरे नाम से नित्य एक माला देवी को चढ़ाने को कह रखा है। और जब भी मैं वहाँ जाता हूँ। माली को जितना भी कहता है उतना धन देकर प्रसन्न होता हूँ। इसी शीतला मंदिर में मेरी माँ ने रत्नाकर की आँख के लिए महीने भर तपस्या की थी।

शिवशंकरी मेला

मेरे गाँव के पास वैâलहट स्टेशन के आगे पचेवरा गाँव में मीरजापुर-बनारस सड़क मार्ग पर एवं रेलवे क्रासिंग के पास एक बगीचे में चैत्र मास के नवरात्र में शिवशंकरी जी का मेला लगता है जिसमें दूर-दूर के लोग आते हैं और अपनी आवश्यकता के अनुसार हर प्रकार की गृहस्ती की सामग्री खरीदते हैं और मनोरंजन के अनेक साधन खेल-तमाशे, भेड़ों की लड़ाई, मुर्गों की लड़ाई, नौटंकी, सिनेमा इत्यादि का आनन्द लेते हैं। देवी का दर्शन करके लोग संतुष्ट होते हैं। हम लोग बचपन में प्रत्येक वर्ष अपने बड़े बाबू जी के साथ उस मेले में जाते थे और देवी का दर्शन करने के पश्चात बसन्तू की दुकान पर भरपेट मनपसंद मिठाई खाते थे। मेले में बड़ा आनन्द आता था। वहीं पास ही में हम लोगों का आम का बगीचा था। जब कभी आँधी आती तो हम लोग दौड़ते हुए दौरी लेकर जाते और गिरे हुए आम ले आते।

धुँईं बाबा, शीतला देवी, शिवशंकरी धाम के अलावा हमारे गाँव में अहिरा बाबा, महाराम बाबा, शमिया माई, बाणूवीर बाबा आदि के भी प्राचीन स्थल हैं, जहाँ विवाह के पश्चात मौर और मौरी गाड़ने के लिए कंगन छुड़ाने के पश्चात महिलाएँ गाते-बजाते जाती हैं और इन स्थानों पर पूजा करती हैं। हमारे गाँव में मंदिरों में प्रसिद्ध हनुमान जी का मंदिर, शिव-पार्वती मंदिर, काली जी का मंदिर और दुर्गा जी का मंदिर है। अलग-अलग मुहल्लों में भी इस तरह शिव और हनुमान की मूर्तियाँ स्थापित हैं। पास के केशवपुर में भी एक हनुमान मंदिर है।

रामसरोवर का मेला

चुनार के दक्षिण-पश्चिम में लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर एक भव्य रामसरोवर है। जहाँ पहाड़ की तलहटी में कई प्रसिद्ध मन्दिर है। इसके चारो ओर बहुत दूर तक पैâला हुआ समतल मैदान है, जहाँ गर्मियों में पशुओं का मेला लगता है तथा गृहस्थी से संबन्धित अन्य उपयोग की सामग्री भी दिखती है। अनेक खेल-तमाशे भी लगाये जाते हैं। आस-पास के किसान गाय, बैल, भैंस और घोड़ों आदि की खरीद-फरोख्त अपनी आवश्यकतानुसार करते हैं तथा आनन्द मनाते हैं। यह मेला कई दिनों तक चलता है। यहाँ का नित्य शाम का घुड़दौड़ और मन्दिर में आरती दर्शनीय होती है। मुझे मालूम नहीं अब ये परम्परा चल रही है या नहीं, लेकिन हम लोगों के बचपन में यहाँ बड़ी रौनक रहती थी और हम लोग अक्सर मेला देखने जाते थे।

दुर्गाकुण्ड

चुनार जंक्शन से आगे दक्षिण की पहाड़ियों में एक भव्य झरना गिरता है, जो एक कुण्ड से होता हुआ आगे बहता जाता है। वहीं पर एक प्राचीन दुर्गा मंदिर है। श्रावण के महीने में यहाँ मेले जैसा वातावरण होता है। दूर-दूर से लोग कुण्ड में स्नान करने और दुर्गा दर्शन के लिए आते हैं। तथा वहाँ बाटी-दाल, खीर और चोखा आदि बनाने और खाने का आनन्द लेते हैं। बचपन में हमलोग हर साल वहाँ पिकनिक पर जाते थे।

आश्चर्य कूप या अचारज जी का पोखरा

चुनार नगर से थोड़ी ही दूरी पर जैनियों का एक प्रसिद्ध तीर्थ आश्चर्य कूप है। जहाँ श्रावण मास में दूर-दूर से जैन सस्प्रदाय के लोग आते हैं। वहाँ रहने के लिए धर्मशालाएँ बनी हैं। और वहाँ महाबीर जी का मंदिर भी है। तालाब में रंगीन मछलियाँ पाली गई हैं। जिनको कोई पकड़ता नहीं। इसलिए बड़ी-बड़ी मछलियाँ तैरते हुए स्वच्छ जल में दिखलाई देती है। लोग अनाज के दाने फेंककर उनका नाचना देखते हैं।

हजारी का बंगला

चुनार से रामसरोवर मार्ग पर हजारी बंगले का खंडहर है। कहते हैं कि चुनार के किले से हजारी के बंगले से होते हुए महोबा तक सुरंग बनी हुई है जिसमें होकर सोनवा रानी किले में आती जाती थी। चुनार के किले में इस सुरंग को हम लोगों ने स्वयं देखा है और हजारी के बंगले में भी चुनार की किले की तरफ तथा महोबा की तरफ जाते हुए इस सुरंग की निशानी हम लोग स्वयं देखे हैं। सत्य क्या है? यह तो इतिहासकार जानें।

महाराम बाबा

हमारे गाँव से बिल्कुल सटे हुए गाँव केशवपुर में महाराम बाबा का चबूतरा है। पूर्व में किसी ब्राह्मण की यहाँ किसी ने हत्या कर दी थी तब से ही चउरा और पिण्डी बनाकर उनकी पूजा होती है। कुछ लोग ब्रह्मबाबा भी कहते हैं। किसी भी शुभ कार्य के बाद उन्हें धोती चढ़ाई जाती है। इनके अलावा गाँव में अहिराबाबा, बाढ़ूबीर बाबा, चउरामाई आदि पूज्नीय स्थान हैं जिनका अस्तित्त्व अब समाप्त सा होता जा रहा है।

इनके अलावा भी अनेक अन्य भी ज्ञात-अज्ञात् स्थल हैं जो विस्तार के कारण उनका विवरण देना मैंने उचित नहीं समझा है।

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मेरी वंशावली

जैसा की पहले उल्लेख किया जा चुका है मेरे बाबा इलाहाबाद से गाँव में जाकर बस गये थे। उनके दो लड़के थे पंडित दिग्गज द्विवेदी तथा पंडित हरिशंकर द्विवेदी तथा एक कन्या थी प्रभावती। प्रभावती का विवाह सड़सा देवरिया में राजनारायण चौबे से हुआ था। उनके चार लड़के अमरनाथ, पारसनाथ, रवीन्द्र नाथ एवं गजानाथ हैं। मेरे बाबा पंडित श्याम धर द्विवेदी ‘इलाहाबाद के बाबूजी’ अथवा ‘बड़का पंडित’ के नाम से विख्यात थे। मेरी दादी का नाम रुद्राणी तथा मेरी बड़ी माँ का नाम श्रीमती तथा मेरी माँ का नाम कलावती था। मेरी बड़ी माँ के तीन पुत्र सुधाकर, दिवाकर, और पद्माकर तथा सबसे बड़ी कन्या थी राजकुमारी। राजकुमारी का व्याह मीरजापुर के पशुपति नाथ दुबे से हुआ। उनके सुपुत्र कन्हैया हुए। मेरी माँ के दो पुत्र हुए, प्रभाकर और रत्नाकर तथा एक कन्या थी पद्मावती। पद्मावती का विवाह वाराणसी जनपद के सरने गाँव के विक्रमा तिवारी से १९५५ में हुआ था। उसके तीन लड़के अनिल, सुशील, और सुनील तथा दो कन्या हुई, छोटी कन्या के जन्म के समय लापरवाही से पद्मावती की जान चली गई थी। लड़की बच गई। यह बड़ा दु:खद प्रकरण आजीवन मुझे बिना बहन के ही  कर दिया। पद्मावती मुझसे छोटी थी और रत्नाकर से बड़ी थी। मेरे चार बच्चे हैं। तीन लड़कियाँ और एक पुत्र। लड़कियों का नाम है– वन्दना, वीना और साधना तथा पुत्र का नाम है– देवव्रत। देवव्रत साधना से बड़े हैं। मेरी छोटे भाई रत्नाकर के दो पुत्र हैं– सत्यव्रत एवम् सुव्रत तथा पुत्री का नाम रेखा है। रेखा सबसे बड़ी है। मेरे सुपुत्र देवव्रत की शादी प्रतिभा से हुई है जिसकी दो कन्यायें हैं संस्कृति और प्रगति। संस्कृति पैâशन डिजाइनिंग में ग्रेजुएट है तथा प्रगति १०वीं कक्षा में है। मेरे अनुज रत्नाकर के लड़के सत्यव्रत को एक कन्या है जिसका नाम श्री तथा एक पुत्र ओम भी अभी हाल में पैदा हुआ है। इस प्रकार हमारे बाबा के वंश की शाखाएँ तथा उप शाखाएँ पल्लवित हुई हैं। मेरी लड़कियों में वन्दना जिसकी शादी राजीव त्रिपाठी से हुई हैै, वे रेलवे में पार्सल अधिकारी हैं। जिनकी दो कन्याएँ हैं– प्रशस्ति तथा स्वस्ति। प्रशस्ति फूड टेव्नâालाजी में डाक्टरेट की है तथा स्वस्ति सी.ए.एस. है। दूसरी कन्या बीना का विवाह हीरालाल त्रिपाठी से हुआ है जो रेलवे में गार्ड है। साधना का विवाह प्रदीप पांडेय से हुआ है जो मैकेनिकल इंजिनियर हैं तथा एक प्राईवेट कम्पनी में जनरल मैनेजर हैं। साधना की पुत्री का नाम साक्षी है। वह दन्त चिकित्सक है। मेरे तीनों दामाद इलाहाबाद जनपद से ही सम्बधित हैं। सभी ने अपना आवास इलाहाबाद में ही बनवा लिया है और मैं भी अपने ‘अध्यात्म कुटीर’ आवास में रह कर पूरी तरह से इलाहाबादी हो गया हूँ। गाँव से सम्बन्ध अब मात्र नाम का रह गया है।

बाबा के अलावा मेरे अन्य बाबाओं में सब अलग अलग पटिदार बन गये हैं। एक बाबा जंगल दूबे जो बहुत अच्छे पहलवान थे। अपने संस्मरणों में वे बताते थे कि वे जिलाजीत पहलवान रह चुके हैं।  तथा गामा पहलवान से, जो उस समय के भारत केशरी कहलाते थे उनसे भी कुस्ती लड़ने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके हैं। इनके अलावा उस समय के प्रसिद्धयोगी पहलवान राममूर्ति जो रेल इंजन और ट्रक को रोक देते थे उनसे भी हाथ मिला चुके है। उनके बड़े भाई पंडित चंद्रिका प्रसाद रामचरित मानस और भागवत की कथायें व्यास के रूप में कहते थे। उनके हाथ की लिखी हुई तुलसीकृत रामचरित मानस की हस्तलिखित प्रति मेरे परिवार में गौरव के साथ सुरक्षित रखी थी जिसमें चित्र भी बने हुए थे। वह प्रति आज के छापे खाने के प्रतियों से किसी भी माने में कम नहीं थी। मुझे पता नहीं है कि वह प्रति अब किसके पास हैं। बहुत दिनों तक उस प्रति का दर्शन करने के लिए लोग लालायित रहते थे।

मैने अपने बुजुर्गो से ऐसा सुना है कि सीताराम नाम के हमारे कोई पूर्वज गोरखपुर जनपद के सरार गाँव से आकर हमारे गाँव में पहले पहल बस गये थे। सीताराम, राजाराम, राघवराम, जयराम, दयाराम, कृपाराम के बाद सातवीं पीढ़ी में रामेश्वर तथा आठवीं पीढ़ी में प्रयाग। प्रयाग के दो पुत्र्र हुए। एक भोला तथा दूसरे हरनारायण। भोला से बद्री, बद्री से श्यामधर, श्यामधर से हरिशंकर, हरिशंकर से प्रभाकर और रत्नाकर। प्रभाकर से देवव्रत। देवव्रत से संस्कृति और प्रगति। हरिशंकर से रत्नाकर तथा उनसे सत्यव्रत व सुव्रत। इसी प्रकार श्यामधर के दूसरे पुत्र दिग्गज से सुधाकर, दिवाकर व पद्माकर। सुधाकर से राजेन्द्र, महेन्द्र, देवेन्द्र, सुरेन्द्र। दिवाकर से नगेन्द्र व पद्माकर से परितोष हुए। इस प्रकार हमारी शाखा की वंश परम्परा है। दूसरी ओर हर नारायण के चार पुत्र थे। रामसुन्दर, अच्युतानन्द, सुरेश, और राघव। राम सुन्दर के पांच पुत्र थे। कृष्णा नन्द, अक्षयवर, संकठा, अम्विका, और धनेश। अच्युतानन्द के भी पाँच पुत्र थे चद्रिका, रमाशंकर, जंगल, विश्वनाथ, एवं सुदर्शन। इनमें रमाशंकर, विश्वनाथ व सुदर्शन नि:सन्तान थे। चंद्रिका के चार पुत्र थे भगवती प्रसाद, परमानन्द, देवदत्त, और धर्म दत्त, जिनमें देव दत्त और धर्म दत्त निःसन्तान थे। भगवती प्रसाद के तीन पुत्र थे प्रेमनाथ, पारसनाथ, और देवनाथ। प्रेमनाथ के तीन पुत्र आशुतोष, शैलेन्द्र, नृपेन्द्र। पारसनाथ के आनन्द तथा देवनाथ के अनिल एक मात्र पुत्र थे। भगवती प्रसाद के अनुज परमानन्द के चार पुत्र हुए उदयनाथ, विजयनाथ, सिद्धनाथ तथा भृगुनाथ। विजयनाथ के तीन पुत्र अजय, संजय व धनञ्जय हैं तथा भृगुनाथ के दो पुत्र  शुभम् एवं श्रेयम् हुये। उदयनाथ को एक पुत्री हुई तथा सिद्धनाथ को एक पुत्र मनोज व एक पुत्री रश्मि हुई, दोनों डॉक्टर हैं। इस तरह से इस शाखा की वंश परम्परा चली । जंगल दुबे के छ: पुत्र हुए लक्ष्मी कान्त, उमाकान्त, राधाकान्त, रमाकान्त, श्रीकान्त, एवम् शिवाकान्त। इनमें राधाकान्त, रमाकान्त, और श्रीकान्त बचपन में ही कालकवलित हो गये। लक्ष्मीकान्त के तीन पुत्र हुए रजनीकान्त, शशिकान्त एवम् निशिकान्त। उमा कान्त के चार पुत्र हुए कन्हैया ,श्री प्रकाश, श्री निवास, एवम् जय प्रकाश। शिवाकान्त के दो पुत्र हुए नवीन और प्रवीन । इनके पूर्व की पीढी में राघव के घनश्याम नाम के पुत्र हुये जो कालकवलित हो गये। इस प्रकार इस दूसरी शाखा की वंश परम्परा चल रही है।

मेरे परिवार में  मेरे बचपन में, मेरे बाबा के अलावा सात बाबा और थे। जो तीन पीढ़ियों से अलग अलग सम्बन्ध रखते थे। मेरे बाबा अपने पूर्वजों से तीन पीढ़ियों से अलग शाखा में हो गये थे, अतः तभी से आधी सम्पदा के अधिकारी हो गये थे। शेष आधी सम्पदा में दूसरी पीढ़ी में दो पटिदार हो गये थे। अच्युतानन्द एवं राम सुन्दर। रामसुन्दर के अम्बिका, अक्षयवर, कृष्णानन्द, धनेष एवं संकठा थे, जिसमें सुरेश नि:संतान थे। धनेश के कमला, अम्बिका के राजकुमार, जनककुमार एवं शिव कुमार। राजकुमार एवं शिवकुमार नि:संतान थे। अक्षयवर के विक्रमा, संकठा के श्रीधर व वंशीधर हुए। पुन: जनक कुमार के संतोष,अजय एवं कृष्णा। विक्रमा के कैलाश, अरबिन्द, रवीन्द्र, कौशल। कमला के रामचन्द्र तथा श्रीधर के उषा, पुष्पा, रीता एवं संध्या लड़कियाँ हुईं। इस सम्बन्ध में मेरे पूर्वजों का वंश वृक्ष हैं। जो मेरे मूल वंश से जो गोरखपुर जनपद के सरार गाँव से सम्बधित है उसे यहाँ देना मैं उपयुक्त समझता हूँ।

इस वंश परम्परा में हम लोग भारद्वाज गोत्रीय सरयूपारी ब्राह्मण कहलाते हैं। तथा हम लोगों का प्रवर त्रिप्रवर कहलाता है। और हमारी शाखा माध्यन्दिनी है  तथा हम लोग सरार के दूबे कहलाते है।

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मेरे बाबा जी

बाबा से मेरे सम्बधों की स्मृति सम्भवतः मड़ई में उनके साथ उठते बैठते ही प्रगट हुई थी। मुझे याद है मेरे बाबा मुझे और मेरे बड़े पिता जी के लड़के दिवाकर को जो मुझसे मात्र छ: दिन छोटे थे, गोद में बैठा कर कहानियाँ सुनाते और श्लोक रटाते थे। मुझे याद है कि पहले पहल उन्होंने हम दोनों भाइयों को-‘‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’’ रटाया था। यह श्लोक मुझे जल्दी याद हो गया था किन्तु दिवाकर को नहीं। अतः बाबा की झिड़की दिवाकर को मिली थी। और उन्होंने कहा था कि तू बुद्धू ही रह जायेगा और मुझे प्यार से उन्होंने आशीर्वाद दिया था कि तुम खानदान का नाम रोशन करोगे। मेरा निश्चय है कि मेरे बाबा का वह आशीर्वाद ही मेरे जीवन के पग-पग पर फलीभूत हो रहा है। आज भी उस क्षण का स्मरण कर मैं रोमांचित हो जाता हूँ। मेरे बाबा का पूर्व का अधिकांश जीवन काशी एवं बाद में प्रयाग में बीता था। काशी के उनके समकालीन पंडितों में पं० बामदेव मिश्र, पं० महादेव शास्त्री एवं पं० राजाराम शास्त्री आदि प्रमुख थे। इनके अलावा मेरे पुरोहित पं० रामाचल पाण्डेय प्रकाण्ड विद्वान थे। जो शिवपुर में एक संस्कृत विद्यालय चलाते थे जहाँ मेरे परिवार के मेरे पिता जी व चाचा जी भी विद्यार्थी रहे थे। मेरे बाबा पं० श्यामधर द्विवेदी ने पं० रामाचलजी के साथ रह कर वेद वेदांग आयुर्वेद एवं ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त किया था। तथा इसके अलावा मेरे बाबा साहित्य और व्याकरण दोनों के आचार्य भी थे। बाद में मेरे बाबा प्रयाग चले गये थे और पं० रामाचल जी काशी में ही रह कर अपना संस्कृत विद्यालय चलाते रहे। काशी के संस्कृत विद्यालयों की एक परम्परा थी। किसी प्रतिष्ठित सेठ का सानिध्य प्राप्त कर यह विद्यालय नि:शुल्क चलता था, जहाँ रहने और खाने की नि:शुल्क व्यवस्था रहती थीं। यहीं रह कर मेरे पिता जी पं० हरिशंकर द्विवेदी एवं मेरे चाचा पं० भगवती प्रसाद द्विवेदी आदि शास्त्र ज्ञान प्राप्त किये थे। मेरे पिता जी संस्कृत के साथ आधुनिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए साथ ही साथ काशी विद्यापीठ के भी विद्यार्थी रहे तथा बाद में वे कलकत्ता चले गये जहाँ से उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से कामर्स विषय से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की थी। उनका बाद का अधिकांश जीवन कलकत्ता और दिल्ली में बीता।

मेरे बाबा प्रयाग में आकर दारागंज में किसी वैद्य के सहकर्मी बन कर अपना जीविकोपार्जन करने लगे। इलाहाबाद में कई वर्षो तक रहने के कारण गाँव तथा रिश्तेनाते के लोग उन्हें ‘इलाहाबाद के बाबूजी’ कह कर पुकारते थे। बाद में वे वैद्य जी से नाराज होकर एकाएक गाँव चले गये और अपनी गृहस्थी से जुड़ गये। इलाहाबाद से चले जाने के सम्बन्ध में मेरी दादी बतलाती थीं, कि अलोपी बाग के किसी राजकुमार को क्षय रोग हो गया था। मेरे बाबा बड़े वैद्य जी के आदेशानुसार उनका उपचार करते थे किन्तु एक दिन राजकुमार स्वर्गवासी हो गये। बाबा जब लौट कर आये और बड़े वैद्य से यह बात बताई तो उन्होंने पूछा ‘शुल्क लाये हो या नहीं ?’ बाबा ने सीधा सा उत्तर दिया- शुल्क किससे माँगता, जब मेरे जाने के पूर्व ही राजकुमार स्वर्गवासी हो गये थे। अतः शुल्क माँगने का कोई औचित्य नहीं था। इस पर बड़े वैद्य जी उखड़ गये और कहाँ ‘तुम वहाँ गये थे अतः शुल्क माँगना चाहिए था।’ बाबा को यह बात बहुत अनुचित लगी और तत्क्षण बोले - जिस पेशे में मुरदे से भी शुल्क लेने की बात कही जा रही है ऐसा पेशा मैं आज से नहीं करूँगा और ऐसा कह कर वैद्यगी का हमेशा के लिए परित्याग कर दिया तथा गाँव में आकर गृहस्थ का जीवन बिताने लगे।

मुझे याद है मेरे गाँव में उस समय एक दो डाक्टर तथा वैद्य भी थे जो अक्सर बाबा से सलाह लेने आया करते थे। एकाध बार गम्भीर बीमारी में किसी रोगी को देखने का भी बाबा से निवेदन किया किन्तु उन्होंने अपना संकल्प नहीं तोड़ा। मैंने स्वयं देखा था बाबा के बड़े वाले बक्से में आयुर्वेद, ज्योतिष, इतिहास और पुराण की अनेकों पुस्तकें थी। तमाम हस्तलिखित प्रतियाँ विशेष कर सचित्र रामचरितमानस भी था। किन्तु बाबा की उदारता के कारण अनेक पुस्तकें जो लोग मांग कर पढ़ने के लिए ले गये, फिर लौटाये नहीं। एकाध बची खुची पुस्तकें बाबा की स्मृति में मैं इलाहाबाद ले आया। बाद में बाबा के स्वर्गवासी होने पर वह बक्सा मेरी बड़ी माँ ने ले लिया जिन्होंने उन पुस्तकों का कोई महत्व नहीं समझा।

मेरे बाबा शतरंज के बड़े प्रेमी थे। शास्त्र चर्चा और शतरंज उनकी हाबी थी। मेरे पिता जी जब कभी किसी धार्मिक कृति पर चर्चा करने लगते तो पिता जी ने ही मुझे बतलाया था कि कभी-कभी बाबा दृष्टान्त दे कर उनकी गलती को सुधारते थे। कि फलाँ पुस्तक में फलाँ ने क्या लिखा है यह तुम्हें याद नहीं है। और पिता जी सहर्ष अपनी गलती स्वीकारते थे। वृद्धावस्था में भी बाबा की स्मृति अक्षुष्ण बनी हुई थी। एक समय मेरे फूफा जी के लिए पिता जी ने मुझे बताया था, कि काशी राज प्रभुनरायण सिंह जब अपने दरबार में शास्त्र की व्यवस्था करते थे, तो मेरे बाबा को भी राजा का निमंत्रण आता था। और राजा का सईस घोड़े के साथ बाबा को लेने आता था। मेरे बाबा धोती मिरजई और बहुत बड़ी पगड़ी बाँधते थे तथा भस्म का त्रिंपुड लगाते थे। सुरती सूघंने की भी उनकी आदत थी, जो हमेशा अपने साथ रखते थे। सहीस के साथ घोड़े पर बैठ कर बाबा रामनगर राजदरबार में जाते थे। कभी कभी बाबा अपने घोड़े पर बैठकर बहुआरे जब अपने सम्बन्धी के यहाँ जाते थे तब जाते वक्त सड़क की दाहिनी ओर मेरी बुआ का गाँव सड़सा पड़ता था। सड़सा गाँव को भी बाबा देखना नहीं पसन्द करते थे। इतने कट्टर थे कि अपनी पगड़ी को उस ओर झुका लेते थे। गाँव वाले उनको देख कर पहचान जाते थे और कहने लगते थे कि देखिये ‘बड़का पंडित, जी’ जा रहे है, जो अपनी बेटी का गाँव और घर नहीं देखना चाहते। राज दरबार में बहुधा बाबा को शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका निभाने का कार्य दिया जाता था। मेरे बाबा की विद्वत्ता की इतनी धाक थी।

मेरे बाबा ने गाँव में एक महावीर जी की मूर्ति की स्थापना करायी थी। हनुमान जी विनम्र भाव से हाथ में गदा ले कर खड़े है । ऐसी मूर्ति अन्य किसी स्थान पर देखने को नहीं मिली। मन्दिर के पीछे एक बड़ा सा पीपल का पेड़ और सामने बहुत बड़ा चबूतरा है इस चबूतरे पर अक्सर विभिन्न धार्मिक आयोजन और यज्ञादि कर्म होते रहते हैं। विभिन्न सार्वजनिक सभाएँ और पंचायत की सभाएँ भी होती रहती थी। जो आज भी उसी तरह से सम्पन्न होती चली आ रही हैं।

बाबा का जो पक्ष बचपन से ही मुझे प्रभावी लगा वह था उनका संयमित जीवन। बारहों मास वे लगभग चार बजे उठ जाया करते थे और बिस्तर पर बैठे -बैठे ही लगभग एक घन्टे तक कुछ श्लोकों का वाचन, नामजप तथा भजन गुनगुनाते रहते थे। अक्सर हम लोगों को गोद में बैठाकर गुनगुनाया करते थे। उनकी यह प्रवृत्ति मेरे भावी जीवन का भी अंग बन गयी और आज भी ईश्वर की कृपा से लगातार संयमित रूप से चल रही है।  बिस्तर से उठ कर लोटे का जल लेकर खेत में शौच के लिए जाना और फिर ताजे नीम अथवा बबूल के दातुअन से एक घन्टे तक दाँत साफ करना और फिर स्नान, उसके बाद सन्ध्या पूजन और जप। यह सब करीब दो से तीन घन्टे चलता था। पूजन से उठते समय तक उनके लिए भोजन तैयार हो जाता था और वे सीधे भोजन करने चले जाते थे। भोजन के तुरन्त बाद वह अपने कुल पुरोहित पंडित बलदेव पाँड़े के यहाँ चले जाते थे और लगभग पूरी दुपहरिया वहीं बिताते थे। पाँडे जी के आवास पर भी गाँव की समस्याओं का समाधान तथा जिज्ञासुओं के प्रश्नों का समाधान करते थे। पुरोहित जी यद्यपि उम्र में बाबा से दो तीन साल बड़े थे किन्तु वे बड़े आदर से बाबा को पंडित भैया कह कर पुकारते थे और बड़े आदर से उनके लिए अलग चौकी पर बिस्तर लगाकर बिठाते थे। बाबा का अपराह्न का समय कुएँ के चबूतरे पर अथवा मड़ई में बीतता था। जिसमें बहुधा शास्त्र चर्चा और मनोरंजन के लिए गायन वादन का आयोजन भी होता रहता था। उस समय पुरोहित जी भी सम्मिलित होकर रुचि लेते थे तथा निर्देशक की भूमिका निभाते थे। जब यह आयोजन नहीं होते थे तब पड़ोस के ठाकुर साहब राजा राम जी के साथ शतरंज खेलने में समय बिताते थे। सायं काल नियमित रूप से स्नान संध्यावन्दन और फिर भोजन यह उनका नियमित क्रम था।

गृहस्थी के कामों में बाबा मात्र प्रबन्धक की भूमिका निभाते थे। कभी कभार ही वे खेत खलिहान में जाते थे खेती बारी का सारा काम पटिदारी के चचेरे भाई लोग सँभालते थे और बाबा से छिपाकर इसका लाभ उठाते थे। बाबा में इन सब गुणों के साथ-साथ एक बड़ा भारी दुर्गुण था- क्रोध। जब कभी भी उनके निर्देशन के विपरीत कोई काम करता था तो वह बहुत क्रोधित होकर उसे मारने लगते थे। उस समय वे आयु और पद का भी ध्यान नहीं रखते थे और जो भी डण्डा हाथ में आ जाता था उसी से मारने लगते थे। लेकिन क्षणेरूष्टा क्षणेतुष्टा का स्वभाव था। यह सब लोग जानते थे। अत: मर्यादित रूप से रह कर कोई भी उनका विरोध नहीं करता था। लोग अपनी गलती को स्वीकार कर बाबा के क्रोध का गिड़गिड़ाकर सामना कर लेते थे। मेरे स्मरण में अनेक ऐसे दृष्टांत है। भंयकर मार के बाद ऐसे प्रशान्त और दयालु जैसे कुछ हुआ ही नहीं। उनके क्रोधित होने पर अगर कोई बचाने के लिए जाता था तो वह भी उनके क्रोध का शिकार हो जाता था। यहाँ तक की मेरी दादी भी उनके क्रोधित होने पर थरथर काँपती रहती थीं। एक दुर्गुण उनमें और था। क्रोधित होने के पश्चात् लाख मनाने पर भी वे उस दिन भोजन नहीं करते थे। सम्भवतः मानसिक पश्चाताप के कारण ऐसा था।

मेरा यज्ञोपवीत संस्कार–

१९४७ की गर्मियों में बाबा ने बड़े धूम धाम से मेरा और दिवाकर का यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न किया। उन्होंने स्वयं हम दोनों के कान में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। उन्होंने ब्रह्मभोज एवं दानमान से सबको पूर्ण संतुष्ट किया। उस दिन पूर्णरूप से ब्रह्मचारी का रूप धर कर हम दोनों आनन्दित हुए। ब्रह्मदेव, देवपूजन एवं लोकाचार के सारे कृत्य हुए जो विवाह के समय सम्पन्न होते हैं।

बाबा के संयमित जीवन के कारण ही उनका स्वास्थ्य लगभग ८५ वर्ष की अवस्था में भी न तो वे चश्मा लगाए और न ही एक भी उनका दाँत टूटा तथा इस अवस्था में भी वे पूर्णत: सक्रिय जीवन बिताते रहे। उन्होंने आजीवन केवल आयुर्वेदिक औषिधियों का सेवन किया। यहाँ तक कि मृत्यु के समय आठ दिनों से कोमा में पड़े रहने पर भी जब कोई उनको कुछ पिलाने की कोशिश करता तो वे बिगड़ जाते और कहते– हम अंग्रेजी दवाई लेईला? जब उनके कान के पास जाकर जोर से कोई कहता– ये अन्नपूर्णाजी का प्रसाद है अथवा बाबा विश्वनाथ जी का चरणामृत है, तब वे मुख खोल देते।

१९४८ में जिस दिन और जिस समय बाबा का स्वर्गवास हुआ उस दिन सम्वत् २००५ कीश्रीकृष्ण जन्माष्टमी थी। बाबा का हालचाल लेने के लिए मेरे फूफा जी के चाचा महादेव चौबे आये हुए थे। मैं उनके साथ ही फलाहार करने के लिए रसोई घर में ही बैठा था। मैंने पानी पीने के लिए बड़े लोटे में रखा हुआ पानी गिलास में उड़ेलने लगा। तभी लोटा हमारे हाथ से छूट कर थाली में जा गिरा और उसका छिंटा फूफाजी के चाचा की थाली के साथ-साथ रसोईं तक चला गया। इस पर चौबेजी बोले ये तो बड़ा भारी अपशगुन है। निश्चय ही बाबा नहीं रहे और फलाहार छोड़कर उठ गये। बाद में बनारस से जब परिवार के लोग उनका संस्कार करके आये तो उन लोगों ने बतलाया कि यह सही है। उसी समय बाबा का अन्तकाल हुआ था। इस घटना को याद कर मेरी आँखें अब भी डबडबा जाती हैं। मेरे बाबा सम्वत् २००५ की कृष्ण जन्माष्टमी को काशी में वैकुण्ठवासी हुए थे।

बाबा का श्राद्ध और तेरहवीं बड़े धूमधाम से किया गया। जिनको निमंत्रण दिया गया था, वे तो पधारे ही उनके साथ-साथ जिनको निमंत्रण नहीं मिला था वे भी बाबा के स्वर्गवासी होने का समाचार पाकर बिना बुलाये ही बाबा का प्रसाद पाने के लिए चले आये जिससे बड़ी अव्यवस्था सी हो गई। द्वाबा के बारह गाँव के अलावा अन्य अनेक गाँव के लोग भी जुट गये। जहाँ लगभग एक हजार लोगों की भोजन की व्यवस्था थी वहाँ दो हजार से भी ज्यादा लोग जुट गये। सारा खानपान का सामान शुद्ध देशी घी में बनाया गया था। बाद में अधिक भीड़ हो जाने पर तेल का उपयोग होने लगा। किंतु इस पर भी काम नहीं चला, गाँव भर में जब इसकी चर्चा चली तो लोगों ने घर-घर में चक्की चलाकर आटा तैयार किया और जिसके पास जो भी सब्जी आदि थी उसकी व्यवस्था लोगों ने की। इसप्रकार देर रात तक लोग प्रसाद पाते रहे। यह था बाबा के प्रति लोगों का अनुराग। बाबा के श्राद्ध में चुनार से त्रिदण्डीजी, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, राजेन्द्र बाबू के सचिव चक्रधर जी एवं बाल्मिकी चौधरी, मीरजापुर से महादेव सेठ, कानपुर से विधायक देवदत्त मिश्र एवं कमलापति त्रिपाठी, तथा पतारा के शिवनारायण शुक्ल आदि विशिष्ट लोग पधारे। मैं उस समय किसी को पहचानता तो था नहीं बाद में आजी ने और अन्य लोगों ने इन सब बातों की चर्चा की। कई दिनों तक लोगों के शोक-संवेदना का पत्र आता रहा।

बाबा की तेरही पर आये अनेक लोगों ने अपने श्रद्धाभाव प्रगट किये किंतु अपने पुरोहित पं. बलदेव पाण्डेय का बाबा के प्रति सद्भाव श्रद्धांजलि के शब्द आज भी मुझे याद हैं, जो उन्होंने पिताजी को सम्बोधित करते हुए कहा था– ‘‘लालजी मुझे तो लगता है कि मेरा दाहिना हाथ कट गया है और जुबान बंद हो गई है।’’ यह कहकर वे सबके सामने जोर-जोर से रोने लगे थे। उस समय सबकी आँखों में आँसू आ गये थे। यह था मेरे बाबा के प्रति सबका सद्भाव।

पंडित रामाचल पाण्डेय जी

मेरा सौभाग्य रहा है कि मेरे बाबा एवं मेरे पिताजी के गुरु पं. रामाचल जी का दर्शन करने एवं यत किंचित उनकी सेवा करने का यह सुअवसर मुझे उन्हीं की कृपा से प्राप्त हो सका। एक दिन अचानक मृत्युंजय पाण्डेय का लड़का अरुण पाण्डेय सबेरे-सबेरे मेरे पास आया और संदेश दिया कि आपको मेरे बड़े बाबा बुलाये हैं। मैं उसके साथ ही तुरन्त चला गया और वहाँ बारामदे में एक गौराङ्ग लम्बे, छरहरे पंडित जी को देखा जो धोती पहने थे और नंगे बदन, कंधे पर एक अगौछा रखे तथा मस्तक पर चंदन का त्रिपुंड लगाये, चौकी पर बैठ माला जप रहे थे। मैंने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया तो उन्होंने मेरी ओर ध्यान से देखकर पूछा– ‘‘तुम प्रभाकर हो?’’ मैंने मुस्कराकर सिर हिलाकर हामी भरी। तब उन्होंने बड़े प्यार से चौकी पर बैठने का इशारा किया। मैं संकोच से उनका चरण स्पर्श कर बैठ गया। उस वक्त मेरी उम्र लगभग बारह वर्ष की थी। उन्होंने मुझसे संदेशा दिया कि अपनी आजी से कह देना कि कल पंडित जी उनके यहाँ ही जलपान और भोजन करेंगे। मुझे उन्होंने एक पेड़े का प्रसाद दिया। प्रसाद पाकर मैं दौड़ता हुआ घर चला आया और आजी से सारी बात बतला दी। आजी यह सुनते ही घबड़ा-सी गई। उन्होंने तुरन्त मेरी माँ को बुलाया और कहा कि कल गुरु जी यहाँ आयेंगे और जलपान और भोजन करेंगे। इसके बाद आजी ने तुरन्त मजदूरिन को बुलाकर बैठक को पीली मिट्टी से पुतवाया और गोबर से लिपवाया तथा मड़ई में से एक तख्ता मँगवाकर उस पर गद्दा, चादर और तकिया लगाया तथा एक चद्दर ओढ़ने के लिए भी रख दिया। रसोई घर तथा आँगन भी गोबर से लीपा गया। उनके जलपान के लिए दूसरे दिन हलवा, पकौड़ी, मेवा डालकर दूध तथा दोपहर के भोजन के लिए चावल, चपाती, कढ़ी, सब्जी और खीर बनाने की व्यवस्था दी गयी। भेंट में देने के लिए एक धोती और एक गमछा मँगाया। यह सब करने में आजी का उत्साह और हाव-भाव देखने लायक था। हमको आजी ने आदेश दिया कि जब वे आवें तो उनका गरम पानी से पैर धुलना और जब लेटें तो पैर दबाना। मैं यह सब सुनकर खुश हो रहा था कि मुझे एक विशिष्ट व्यक्ति की सेवा करने का सुअवसर प्राप्त हो रहा था। आजी ने मुझे बताया कि ये पुरोहित तो हैं ही लेकिन इन्होंने तुम्हारे बाबा और पिता जी को पढ़ाया भी है। वे बड़े विद्वान हैं। वे काशी में आश्रम चलाते हैं। मैं यह सब सुनकर खुश था। दूसरे दिन प्रात:काल ही मैं स्नान करके आजी के कहने पर उन्हें बुलाने गया। वे कल की तरह ही माला जप रहे थे। मुझे देखकर मुस्कराये और कहा कि वह खूँटी पर टँगा हुआ झोला उतारो। मैंने देखा कि उसमें आम रखे थे। मेरे साथ ही पंडित जी तैयार होकर मेरे घर आये। उनके आते ही आजी, मेरी माँ, मेरी बड़ी माँ और मैं सबने थाली में गरम पानी से उनका पैर धुलाया, माँ ने उनके पैर में तेल लगाया। पंडित जी ने सबका परिचय पूछा। यह सुनकर पंडित जी ने सबको संस्कृत में आशीर्वाद दिया। उसके बाद योजनानुसार उन्हें जलपान और भोजन कराया गया। झोले में रखे हुए आम को उन्होंने गिनवाया कुल पचास आम थे। उन्होंने कहा कि इसे धोकर बाल्टी में रखकर रस्सी में बाँधकर थोड़ी देर के लिए वुँâए में डाल दो इससे इसकी गर्मी निकल जायेगी। मैंने वैसा ही किया हम बच्चों के लिए यह सब कौतूहल सा लग रहा था। थोड़ी देर बाद उन्होंने कुएँ से आम को निकलवाया और बाँटने लगे। पटिदारी के लोगों को भी पूछ-पूछकर बँटवाये और मेरी आजी व माँ को विशेष रूप से औरों की अपेक्षा एक-एक आम ज्यादा दिये। मुझे भी एक आम अधिक मिला। मैं खुश था और यह सब करने के पश्चात् आजी ने उनकी विदाई की। धोती, अँगौछा और पाँच रुपये। और फिर उनको उनके घर पहुँचा आये। इस तरह मुझे भी गुरु-दादा जी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

रामाचल जी चार भाई थे। रामाचल, बलदेव, सुखदेव और छविनाथ। रामाचल जी काशी में गुरु परंपरा का निर्वाह कर रहे थे। बलदेव जी गाँव में रहकर गृहस्थी देख रहे थे। सुखदेव जी अन्नपूर्णा मंदिर में भोजनालय के अध्यक्ष थे। तथा छविनाथ पाण्डेय बिहार में पटना में रहकर राजनीति करते थे एवं साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेकर वहाँ के साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बन गये थे। इसके पूर्व वे भागलपुर के किसी राजा के मैनेजर भी रह चुके थे। बलदेव के मृत्युंजय एवं विजय शंकर, मृत्युंजय के अरुन, नरेन्द्र, ज्ञान, श्याम और मान पाँच पुत्र, विजयशंकर के राम औ बब्बू दो पुत्र हैं।

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मेरे पिता जी

जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ पिता जी की प्रारम्भिक शिक्षा काशी में पंड़ित रामाचल जी के संस्कृत विद्यालय में एवं काशी विद्यापीठ में हुई। जैसा कि पिता जी ने बतलाया था, काशी विद्यापीठ में पिता जी के सहपाठियों में - अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद, पं कमलापति त्रिपाठी एवं भारत के पूर्व प्रधान मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री भी थे। पंडित रामाचल जी सम्भवतः मेंरे बाबा से भी अधिक क्रोधी स्वभाव के थे। पठन पाठन के दौरान भूल के कारण शिष्यों को बेरहमी से पीटना और भोजन पानी से भी वंचित रखना उनका नित्य का काम था। कभी-कभी ऐसे भी असम्भव कार्य दण्ड स्वरूप करने के लिए कहते थे, जो बड़ा कष्टकर होता था। एक घटना जो पिता जी ने मुझे बताया था, वह यह है एक बार नाराज हो कर पंडित जी ने मेरे पिता जी और मेरे चाचा जी को लगभग चार-चार पसेरी राशन और दो बडे-बड़े कटहल गाँव ले जाने को कहा। उस समय बनारस से गाँव आने के लिए पैदल ही आना जाना था। बनारस से मेरा गाँव पैदल के रास्ते लगभग बीस किलोमीटर पड़ता था और बीच में नाव से गंगा पार करना पड़ता था। दोनों भाई गुरुआदेश मानकर भूखे प्यासे सामग्री ले कर चले। उस समय उन लोगों की आयु १२-१३ साल की थी। वे चलते चलते थक कर चूर हो गये थे । भार कम करने के लिए उन लोगों ने कटहल किसी गाँव में अपने परिचित को दे दिया और राशन गाँव तक पहुँचा दिया। बाद में पंडित जी से बहाना बना दिया कि गंगा की कगार पर उतरते समय कटहल गिर कर गंगा जी में चले गये । पिता जी को भय था कि लौट कर जाने पर गुरु जी की काल दृष्टि शायद उन्हें बचने न दे, अत: बाबा से पिता जी ने पांच रुपये उधार लिए और कलकत्ता चले गये। उनके कलकत्ता या अन्यत्र कहीं चले जाने का वृत्तान्त सुन कर पंडित रामाचल जी मन ही मन दुखी हुए और मेरे चाचा के प्रति इसके बाद से काफी विनम्र हो गये थे। उनके स्वभाव में काफी परिर्वतन आ गया था। अत: मेरे चाचा उन्हीं के सानिध्य में रह कर अपनी आचार्य तक की पढ़ाई पूरी किये। पिता जी के भाग जाने का उनको गहरा पश्चाताप हुआ। कई महीनों तक पिता जी का कोई समाचार नहीं मिला। बाद में गाँव के चौधरी खानदान के श्याम नारायण सिंह ने आकर पिता जी के कलकत्ता ने रहने का कुशल समाचार दिया। पिता जी पंडित रामाचल जी के साथ शास्त्री प्रथम वर्ष की परीक्षा ही दे पाये थे। कलकत्ता में उन्होंने अग्रेजी स्कूल में दाखिला ले लिया था। किन्तु कुछ ही महीने बाद वे अर्थाभाव के कारण पुनः बनारस आ गये। बनारस के ही पं० नरोत्तम शास्त्री ने उन्हें काशी विद्यापीठ में पढ़ने का सुझाव दिया और अपने आवास में ही रहने और खाने पीने की व्यवस्था कर दी। किन्तु यह क्रम भी अधिक दिन नहीं चल पाया और किसी परिचित के सुझाव पर पिता जी पुन: कलकत्ता चले गये। कलकत्ता में पिता जी ने अपने स्वाध्याय और लगन से तथा मिलनशील व्यवहार से अपने आजीविका की भी व्यवस्था कर ली। वे वहाँ ट्यूशन कर के आजीविका चलाने लगे । अपने आकर्षक व्यक्तित्व और मिलनसार व्यवहार के कारण शीघ्र ही कलकत्ता में उन्होंने अनेक सम्भ्रान्त परिवारों का संरक्षण प्राप्त कर लिया। उस समय हाईस्कूल की परीक्षा विश्वविद्यालय स्तर से होती थी। पिता जी ने हाईस्कूल से लेकर एम० काम० तक की सभी परीक्षाऐं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली । बी काम करने के बाद ही उन्हें कलकत्ता के माहेश्वरी विद्यालय में अध्यापन का भी सुअवसर प्राप्त हो गया । अपने कलकत्ता  प्रवास के दौरान वे राजनीति में भी सक्रिय भाग लेने लगे थे। सामाजिक तौर पर उनकी प्रतिष्ठा बहुत बड़ गयी थी। उन्होंने कलकत्ता के बड़ा बाजार में पृथ्वीराजकपूर के साथ मिल कर ‘‘हिन्दी नाट्य परिषद’’ की स्थापना में, तथा उसके क्रियाकलापों में सक्रिय भाग लिया। वे पृथ्वीराजकपूर और सहगल के साथ उनकी थिएटर कम्पनी में भी काम करने लगे थे। तथा उनसे पारिवारिक सम्बन्ध भी हो गया था। इसी क्रम में पिता जी ने राजकपूर और शशिकपूर का ट्यूशन भी किया था। यही नहीं उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल विष्णुकान्त शास्त्री को भी पढ़ाया था।

कलकत्ता में पिता जी जयप्रकाश नारायण, विधान चन्द राय तथा राममनोहर लोहिया के भी सम्पर्क में आये। सुभाष चन्द बोस जी से उनकी ज्यादा घनिष्टता हो गयी थी। १९४२ के आन्दोलन में पिता जी लोहिया और जयप्रकाश जी के साथ नेपाल में जा कर छिप गये थे। कई महीनों तक उनका कोई अता पता नहीं मिला। मेरी आजी का तथा मेरी माँ का रोते रोते बुरा हाल था। बाबा उन्हें सान्त्वना देते थे कि, हमारा लड़का देश की सेवा कर रहा है। तुम लोग उसे अपने परिवार में बाँध कर रखना चाहती हो। दो तीन वर्ष बाद सम्भवतः १९४६ में जब कांग्रेस और अंग्रेजों में समझौता हो गया तो पिता जी का किसी सन्देसिया के हाथ से बाबा को पत्र मिला कि वे सकुशल बनारस में रह रहे है । यह सब बातें आजी ने मुझे बाद में बताई थी। पिता जी कांग्रेस में रहते हुए भी कांग्रेस के क्रियाकलापों से खुश नहीं थे। अक्सर गाँधी जी को तथा जवाहर लाल नेहरू को भी आरोपित करते मैंने स्वयम् उनके मुँह से सुना है । पिता जी कभी जेल नहीं गये। उन्होेंने अनेक कांग्रेसियों की तरह स्वतत्रता सेनानियों की पेंशन भी कभी नहीं लिया, जैसा कि अनेक कांग्रेसियों ने झूठे दस्तावेज बनवाकर लिया। पिता जी अपने आदर्श पर डटे रहे। सन् ४२ के आन्दोंलन में कई महीने वे राजेन्द्रबाबू के साथ बिहार में उनके गाँव में तथा अन्य स्थानों में भी छिपे रहे । बिहार की राजनीति से उनका लगाव हो गया था। बिहार में मेरे पुरोहित के सबसे छोटे भाई पंडित छविनाथ पांडे वहाँ की राजनीति में काफी सक्रिय थे तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बिहार के कार्यक्रमों में भाग लेते थे। वे भागलपुर के किसी राज्य के मैनेजर भी हो गये थे। उनकी वजह से पिता जी का उनके यहाँ आना जाना अक्सर होता रहता था। विशेष कर राजेन्द्रबाबू के साथ काम करने में उन्हें विशेष आनन्द मिलता था। कलकत्ता विश्वविद्यालय में छात्रों में तथा कांग्रेस में भी इन लोगों का अपना अन्तरंग गुट था। पिता जी राजेन्द्रबाबू और गाँधी जी के साथ चम्पारन के आन्दोलन में भी भाग लिये थे तथा नोवाखाली आन्दोलन में भी सक्रिय थे। इन सब व्यस्तताओं के बावजूद माहेश्वरी विद्यालय से उनका अटूट सम्बन्ध बना था। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ पिता जी का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक तथा वाणी ऐश्वर्य बहुत ही प्रभावी था। इन गुणों के कारण पृथ्वी राज कपूर आदि ने उन पर फिल्म जगत में सक्रिय होने के लिए काफी दबाव डाला किन्तु अपने संस्कारगत भावनाओं के कारण सम्भवतः पिता जी ने इस आग्रह को स्वीकार नहीं किया। एक बार की घटना जो पिता जी ने मुझे स्वयम् बतलाई थी कि स्वतंत्रता के पश्चात् कलकत्ता में पंडित जवाहर लाल नेहरू जो भारत के पहले प्रधान मंत्री बने थे। उनके अभिनन्दन की योजना बनी। पिता जीr की वाणी चूकि बड़ी प्रभावी थी। अतः अभिनन्दन पत्र पढ़ने का कार्य उन्हें ही सौपा गया। अभिनन्दन पत्र लिखने का कार्य हिन्दी जगत के देदीप्यमान लेखक पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र को सौंपा गया। वे इस इस शर्त के साथ अभिनन्दन पत्र लिखने का कार्य स्वीकार किये कि मैं उस सभा में जाऊगाँ नहीं। जब मंच से पिता जी ने उस अभिनन्दन पत्र का वाचन कर लिया और जवाहर लाल नेहरू के बोलने की पारी आयी तो वे बडे आवेश में थे। उन्होंने अपनी वार्ता का प्रारम्भ ही इस उद्धरण के साथ किया कि आप लोगो ने मेरा अभिनन्दन नहीं किया बल्कि मेरी बेइज्जती की है। जिस किसी ने भी यह अभिनन्दन पत्र लिखा है उसको या तो इतिहास का ज्ञान नहीं है, अथवा उसने जान बूझ कर के मेरे साथ शरारत वâी है। इसका कारण यह था कि उग्र जी नेहरू जी से नाराज रहते थे और उन्होंने उनके अभिनन्दन में उनकी प्रशंसा में उनकी तुलना उस समय के विदेशों के प्रभावी नेताओं हिटलर, स्टालिन एवम् मुसोलिनी से कर दिया था। जिसका भाव अन्य लोग तो नहीं समझ सके किन्तु नेहरू जी इतिहास के मर्मज्ञ थे। अतः उन्होंने  इसमे अपनी बेइज्जती समझी। बाद में जब इस घटना की चर्चा उग्र जी से की गयी तो वे ठठाकर हँस पड़े तथा कहे कि मैं इसीलिये इस सभा में नहीं गया। अगर कोई वहाँ यह बता देता कि मैने अभिनन्दन पत्र लिखा है तो जवहिरा माइक खीच कर मुझे मार देता। इस तरह उग्र जी ने नेहरू जी से अपनी नाराजगी प्रदर्शित की ।

किन्ही विशेष परिस्थितियों में पिता जी ने दिल्ली की बिरला काटन मिल में भी कुछ दिन कार्य किया था। उन्होंने एक बार अपनी संस्मरण में मुझे बतलाया था कि कार्य के दौरान शाम को अपना काम छोड़ कर बिना अपने उच्च अधिकारियों से आज्ञा लिये उसी वैâम्पस के लान में टेनिस खेलने चले जाया करते थे। बाद में जब उन लड़कों को पता चला कि ये मिल का कर्मचारी है और काम छोड़ कर चला आता है। तो उस व्यक्ति ने मैनेजर को बुला कर डाट लगाई। मैनेजर ने पिता जी को बुला कर पूछा कि तुम्हें मालुम है कि जिन लड़कों के साथ तुम टेनिस खेलते हो ये मिल के मालिक बिरला जी के ही लड़के है। जिन्होंने तुमसे परिचय पूछा था वे स्वयं घनश्यामदास विरला जी हैं। किन्तु फिर मैनेजर साहब हँस कर कहने लगे कि बिरला जी तुम्हारे खेल से खुश थे और रोज शाम को छुट्टी देकर खेलने के लिए कहा है। पिता जी ने चूँकि अपनी ईमानदारी से बिरला जी को खुश किया था। यद्यपि यह सब बाते अन्जान में हुई थी। बाद में उनकी यही ईमानदारी और सच्चाई काम आयी और बिरला जी ने स्वयं खुश हो कर उन्हें खेलने के लिए आमंत्रित किया।  बाद में तो पिता जी बिरला जी के पारिवारिक सदस्य के रूप में जलपान और खाने आदि पर भी आमन्त्रित होने लगे थे। मिल में कुछ दिन तक काम करने के बाद पिता जी का स्वास्थ्य कुछ खराब होने लगा और बिरला मिल के ही एक हकीम ने उन्हें सुझाव दिया कि तुम्हारे फेफड़े में रूई के रेशे प्रवेश कर जा रहे है। अगर तुम इसका बचाव नहीं करोगे तो तुम्हे टीबी हो जायेगी यह सुनते ही पिता जी तुरन्त निर्णय लिये और मिल का कार्य छोड़ कर कलकत्ता चले आये। कलकत्ता में भी बिरला परिवार से उनकी अन्तरंगता बनी रही।

पिता जी कलकत्ता में हरीशन रोड़, बड़ाबाजार तथा कुछ दिन श्याम बाजार में भी रहे थे। उनकी मित्र मंडली में फिल्म कलाकार, लेखक, कवि, तथा राजनैतिक कार्यकर्ता आदि थे। अक्सर बातचीत में जब पिता जी अपने संसमरण सुनाने लगते तो सूय&कान्तत्रिपाठी निराला, भगवती चरणवमा&, पाडे बेचन शमा& उग्र, पृथ्वी राज कपूर, तथा देवानन्द आदि के बारे में बतलाते थे। राजकपूर और शशि कपूर को तो उन्होंने पढ़ाया ही था। राजनीति से उन्हें सुभाष चन्द्र बोस के तथाकथित निधन के पश्तात वितृष्णा हो गयी थी। काग्रेस में उनके आदश& थे, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद जिन्हे वे बाबू जी कह कर सम्बोधित करते थे। बाबू जी का पिताजी पर व्यक्तिगत दुलार और संरक्षण था। स्वतंत्रता के पश्वात् उन्ही का आदेश मानकर पिता जी महेश्वरी विद्यालय की स्थायी नौकरी छोड़ कर  दिल्ली में पहले संविधान सभा में तत्पश्चात् राज्य सभा सचिवालय में सम्पादक की नौकरी स्वीकार कर ली थी। १९६५ में अवकाश ग्रहण के पूव& वह उसी सेवा में लगे रहे। अवकाश के पूव& वे प्रबन्धक भी बन गये थे। किन्तु प्रबन्धक का काय& उनके रुचि के प्रतिकूल था। अतः अपने से जूनियर व्यक्ति को प्रबन्धक का काय& सौप कर वे स्वयम् सम्पादन का काय& ही करने में रुचि लेते रहे। दिल्ली में वे पहले २२/१०५८ लोदी रोड़ में रहते थे। तथा बाद में २०६, ईस्ट विनय नगर जो बाद में लक्ष्मी बाई नगर कहलाने लगा था वहाँ अवकाश प्राप्ति के पूव& तक कई वषों& तक रहे। पिता जी के साथ मैं ५० से ५२ तक लोदी रोड में रहता रहा। इसी बीच पिलानी पढ़ने भी गया था।

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१९६५ में पिता जी अवकाश प्राप्ति के पश्चात् दिल्ली छोड कर वाराणसी में रवीन्द्र पुरी में आकर रहने लगे। वहाँ उन्होंने एक आवास की व्यवस्था कर ली थी। मुझे अक्सर जब अपनी जिन्दगी की दास्तान सुनाते तो कहते कि मेरी सारी जिन्दगी बड़े बड़े शहरों में बड़े बड़े लोगों के बीच बीती है। और अब अवकाश प्रााप्fत के बाद गाँव में रहना मुझे कष्ट प्रद होगा। बनारस में रहते हुए वे नियमित रूप से महीने में दो चार दिन के लिए गाँव अवश्य आते थे। तथा अन्य रिश्तेदारियों में वे अक्सर आते जाते रहते थे। जब वे कलकत्ता में रहते थे, तो दशहरा और होली पर वे अवश्य गाँव आते थे। शायद विद्यालय की लम्बी छुट्टी के कारण। उनके आते ही घर में खुशहाली का वातावरण बन जाता था। जब भी आते तो कलकत्ते का डिब्बा बन्द रसगुल्ला अवश्य लाते थे तथा परिवार के छोटे बड़े सभी के लिए कपड़े लाते थे। और जाते वक्त सबको रुपये बाँट कर जाते थे। गाँव के अभाव ग्रस्त परिवार में यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि हो जाती थी। मेरे बड़े बाबू जी जो गाँव के प्राइमरी विद्यालय में प्रधानाध्यापक थे, वे भी कुछ न कुछ उपहार पा कर कृतज्ञ हो जाते थे। मुझे याद है जब तक बाबा जिन्दा रहे तब तक नियमित रूप से रजिस्टड& लिफाफे में चालीस रुपये प्रति माह पिता जी भेजते थे। जिसमें से दस रुपये मेरी माँ को मिलता था। बाबा जी इस रुपये की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे। बाद में जब पिता जी दिल्ली चले गये तब भी मेरी पढ़ाई लिखाई के लिए नियमित रूप से सहयोग राशि हर महीने भेजते रहते थे। तब मैं गाँव में रह कर घर गृहस्थी भी देखता था और चुनार पी० डी० एन ० डी० कालेज से मैंने इण्टरमीडिएट पास किया। जब मैं स्वयम अध्यापक हो गया और कमाने लगा तब से यह क्रम बन्द हो गया। अपने छोटे भाई रत्नाकर की पढ़ाई का भार भी मैंने सभाल लिया था।

दिल्ली में पिता जी का भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद से पहले से ही व्यक्तिगत सम्बन्ध था तथा दिल्ली में वे पारिवारिक व्यक्ति के रूप में उनका आदर पाते रहे। राष्ट्रपति के सहायक चक्रधर जी, एवम् बाल्मीकि चौधरी पिता जी के अन्तरंग मित्र थे। बाल्मीकि जी ने राष्ट्रपति भवन के सम्बन्ध में अनेक पुस्तकें लिखीं हैं। राजेन्द्र बाबू के सहयोगी उपयु&क्त दोनों महाशय पिता जी को बहुत मान्यता देते थे क्योंकि पिता जी ने इन लोगों को पढ़ाने लिखाने में हर प्रकार का सहयोग दिया था। उन्ही की संस्तुति से वे राजेन्द्र बाबू के व्यक्तिगत सहायक बन पाये थे। राज्यसभा सचिवालय के काय& से निवृत्त होकर वे बहुधा राष्ट्रपति भवन जाते और वहाँ पारिवारिकों के साथ गीता और रामायण पर  प्रवचन देते थे।

पिता जी बड़े मूडी स्वभाव के थे। एक बार का संस्मरण उन्होंने सुनाया था, कि वे प्रवचन देने के लिए राष्ट्रपति के आसन पर ही विराजमान होकर प्रवचन देने लगे। जब राजेन्द्र बाबू आये तो लोगों ने इशारा किया किन्तु अपने बोलने के मूड में वे बात समझ नहीं पाये। राजेन्द्र बाबू ने आकर स्वयम सबको इशारे से मना कर दिया और स्वयम् पिता जी के आसन पर बैठ गये । प्रवचन के बाद जब लोगों ने पिता जी को उनकी गलती बताई तो वे बड़े शमि&न्दा हुए और राजेन्द्र बाबू से क्षमा माँगने लगे । किन्तु राजेन्द्र बाबू इतने विशाल हृदय के थे कि उन्होंने कहा प्रवचन कता& सव&श्रेष्ठ होता है। मैं यहाँ राष्ट्रपति के रूप में नहीं, बल्कि एक श्रोता के रूप में आता हूँ । अत: आप ने कोई गलती नहीं की थी। अतः क्षमा करने का कोई प्रश्न ही नहीं है। यह तो अधिकारियों का आडम्बर है। वहाँ राष्ट्रपति के लिए विशेष कुसी& रख देते है। पिता जी राजेन्द्र बाबू की इस साधुता पर गद्गद् हो कर यह संस्मरण सुनाते थे।

१९५७ में राष्ट्रपति भवन में मेरे साथ भी एक अद्भुत घटना घटी थी। बाल्मीकि चौधरी के आग्रह पर मुझे भी राष्ट्रपति भवन में एक दिन का आतिथ्य ग्रहण का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। बाल्मीकि जी ने राष्ट्रपति भवन घुमाने के पश्चात् रात्रि विश्राम व्ाâे लिए एक भव्य आवास में भेज दिया। वहाँ का ताम झाम और सजावट मेरे जैसे विद्यार्थी के लिए जिसका जीवन अधिकांश गाँव में ही बीता था, उसके लिए वहाँ की साज सज्जा स्वप्न लोक अथवा स्वर्ग लोक जैसा था। वहाँ का शौचालय ही देखकर मुझे आर्श्चय हुआ जिसमें चारो तरफ बड़े बड़े जर्मन शीशे लगे हुए थे। शौच के लिए कमोड भी था। तथा टब बाथ गरम और ठंडा पानी आदि की व्यवस्था थी। भोजन भी मेरे लिए आश्चर्यजनक ही था। और गद्देदार बिस्तर जिस पर मुझे नीद ही नहीं आयी। और अन्त में बाध्य होकर मैं जमीन पर बिछे कालीन पर सो कर रात बिताया। दूसरे दिन बाल्मीकि चौधरी के आने पर जब उन्होंने पूछा कि कोई असुविधा तो नहीं हुई तो मैंने रात की सारी बातें उन्हें सत्य सत्य बतला दी। इस पर बाल्मीकि जी ठठा कर हँस पड़े और उन्होंने बताया कि ये सब राष्ट्रपति भवन के विशिष्ट कक्ष हैं। जिस पर विदेशी विशिष्ट अतिथि विश्राम करते हैं। बाद में यह बात राजेन्द्र बाबू तक पहँुच गयी। तो उन्होंने मुझे नाश्ते पर आमंत्रित किया। वहाँ मुझे लाई, चना, गुड़, और सत्तू खाने को मिला। राजेन्द्र बाबू ने मुझे ठेठ भोजपुरी में बतलाया ‘‘हम त इहै सब खाइला। राष्ट्रपति भवन के पकवान से हमसे कौउनो मतलब नाहीं। इहाँ के लाव लसकर से हम दूरई रहीला। ए ही चौकी पर हम अपने हाथे कातल सूत का चदरा बिछाइला राष्ट्रपति भवन में त हमै नाटक करे के पड़ैला। येही से सूनीला कि जवाहर लाल हमसे नाराज रहलन कि ओनके तरह हम चूड़ीदार पजामा और शेरवानी नाही पहिरीत।’’

राजेन्द्र बाबू की साधुता, उनकी सरलता एवम् राजनैतिक निष्पृहता की बातें सुन कर आज भी मै रोमांचित हो जाता हूँ। लोदी रोड़ में पिता जी के साथ लाल बहादुर शास्त्री के व्यक्तिगत सचिव नन्द कुमार जी भी रहते थे। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक पंडित बेचन शर्मा उग्र भी साथ रहते थे। एक पहाड़ी नाम का नौकर था जो सबका भोजन बनाता था। पिता जी को आम खाने का बड़ा शौक था। रोज दोनों समय बढ़िया आम आता था। तथा भोजन में दही अवश्य रहती थी। मैं गाँव से गया था, जहाँ खाने पीने की उतनी सुविधा नहीं थी। और वहाँ का खाना दोनों समय बढ़िया चावल दाल रोटी, सब्जी, आम, दही आदि पा कर मैं बड़ा खुश रहता था। सब लोगों की अपनी अपनी ड्यूटी थी, अतः एक साथ भोजन कोई नहीं कर पाता था। उग्र जी दोनों समय भांग पीते थे। उनकी आदत थी। दोनों समय स्वयं बैठ कर सिल बट्टे पर भांग पीसते थे। पिता जी मुझे पढ़ाने के लिए दोनों समय, समय निकाल लेते थे। उनके पढ़ाने का तरीका मुझे अच्छा लगता था। किन्तु गलती करने पर और काम पूरा न होने पर निर्दयता पूर्वक मारते भी थे। उन्हीं की पढ़ाई और तपस्या का ही फल था कि मैं विशेषकर अंग्रेंजी में अपने से दो चार साल बड़े लड़कों से भी अच्छी अंग्रेजी सीख गया था। आकाशवाणी के उस समय के उद््घोषक नारायण बाबू एवम् शिव सागर मिश्र जी जो पास ही रहते थे कभी कभी मेरी परीक्षा लेते थे, और मेरी सफलता पर बधाई स्वरूप कुछ खाने पीने की चीज भेंट करते थे। उस समय मेरी उम्र लगभग १५ साल की थी। जब पिता जी मुझे टाइम्स ऑफ इण्डिया और स्टेट्समैन अंग्रेजी के अ़खबार पढ़वाते थे। विशेषकर भूगोल पढ़ाने में वे बड़ी रुचि लेते थे। उन्होंने मेरे लिए एक बड़ा सा ग्लोब और नक्शे की पुस्तिका खरीद दी थी। उन्हीं की कृपा शिक्षण और प्रशिक्षण का प्रतिफल था जो हाईस्कूल की परीक्षा में भूगोल में मुझे ७०प्रतिशत अंक मिले थे तथाा अंग्रेंजी में भी प्रथम श्रेणी में उर्त्तीrण हुआ था। लेखन के प्रति अभिरुचि जगाने में भी वहाँ के सभी सम्भ्रान्त लोंगों का योगदान रहा है। वे लोग कई कई घन्टे तक कुछ न कुछ लिखा करते थे। तथा मेरे नाम से अपने पत्र पत्रिकाओं में अनेक लेख और कवितायें छपा देते थे, जिसका परिणाम हुआ कि उन लोगों की देखा देखी मैं भी कुछ लेख लिखने लगा जिसे सुधार कर वे अपनी पत्रिका में स्थान देने लगे थे। एक बार जब मैं बनारस में अध्ययन रत था, तो अप्रत्याशित रूप से मेरे नाम चालीस रूपये का मनीआर्डर आया। नीचे लिखी बातों को प़ढ़ कर पोस्टमैन ने पूछा की आप लेखक है क्या? और मैंने मुस्कराकर हामी भरी थी। पिता जी दिल्ली में मुझे अक्सर बड़े बड़े लोगो से मिलवाने ले जाते जिनमें प्रमुख थे, लाल बहादुर शास्त्री, केशव देव मालवीय , श्री प्रकाश जी , के० एम० पनीकर, देवदत्त मिश्र, शिव नरायण शुक्ल आदि इन लोगों से पिता जी की विशेष पटती थी। अक्सर पिता जी को ये लोग रात्रि भोज पर आमंत्रित करते थे।

एकाध घटनायें विशेष रूप से मुझे याद हैं। एक बार पिता जी अस्वस्थ हो गये थे। उनको देखने को लाल बहादुर शास्त्री घर पर आये। मैंने ही दरवाजा खोला तब मैं उनको पहचानता नहीं था। वे बिना तकल्लुफ के अन्दर कमरे में चले गये और पिता जी से मिल कर लौटते हुए मेरी पीठ सहलाकर कहा तुम पिता जी सेवा करते हो यह जान कर मै बहुत खुश हूँ। ऐसे ही बड़ों के प्रति सेवा भाव रखनी चाहिए। मैंने संकोच से कहा आप तो सेवा नहीं लेते, पानी भी नहीं पीते। यह सुनकर वे हँसते हुए चले गये। उसी के कुछ दिन बाद श्री प्रकाश जी जो उस समय महाराष्ट्र के राज्यपाल थे पिता जी से मिलने आये। मैं अपने मित्रों के साथ लान में रिंग खेल रहा था। तभी एक तिरगां झंडा लगी गाड़ी मेरे दरवाजे पर आ कर रुकी और पिता जी का नाम लेकर पूछा कि क्या वे यही रहते हैं। जब श्री प्रकाश जी पिता जी को देखने आये और पिता जी को पूछने लगे तो मैं जल्दी से दौड़कर सीढ़ी चढ़ गया । और जल्दीबाजी में चीनी का डिब्बा जो चीटी निकालने के लिए पहाड़ी ने धूप में रख दिया था मेरे पैर से लग कर दरवाजे के सामने ही छितरा गया । मैं घबड़ा गया किन्तु मेरी प्रत्युत्पन्न मति ने एक दरी ले कर उस पर बिछा दिया और उसके बाद मैंने दरवाजा खोला। श्री प्रकाश जी आये उसी दरी पर से होकर कमरे में गये और पिता जी से मिल कर जब लौट गये तब पिता जी ने दरी बिछाने का कारण पूछा तब मैंने दरी उठा कर सारी घटना बताई। इस  पर पिता जी बहुत खुश हुए। इस घटना की चर्चा वे अपने मित्रों से और गाँव में भी अक्सर किया करते थे। बाद में श्री प्रकाश जी केन्द्रीय खाद्य मंत्री बन गये थे। वे पिता जी से उम्र में बड़े थे। अतः उनके प्रति बड़े आदर से औपचारिक व्यवहार निभाते थे। किन्तु शास्त्री जी के साथ एकदम घरेलू व्यवहार था। उनके बड़े लड़के हरि किशन के साथ मैं अक्सर खेलता रहता था। एक दो बार हरि किशन ने गाड़ी से दिल्ली के ऐतिहासिक भवनों का भ्रमण कराया था। उनकी गाड़ी अपनी न थी, किन्तु शास्त्री जी के पुत्र के नाते जिससे भी मांगते वह नकारता नहीं था। एकाधबार मेरे सामने ही शास्त्री जी ने उन्हें इस बात के लिए बहुत डॉटा था। बाद में पिता जी ने मुझे भी हरिकिशन के साथ न जाने की हिदायत दी थी।

दिल्ली रहते हुए ही मैने पिता जी से लोदी गार्डेन में साइकिल चलाना सीखा था। तब दिल्ली में अधिकांश लोग साइकिल से ही आया जाया करते थे। कार बहुत ही कम लोगों के पास थी। स्कूटर और मोटर साइकिल तो नहीं के बराबर थी। मोटर साइकिल के नाम पर टेम्पों चलते थे जिससे लोग दूर की यात्रायें करते थे। साइकिल सीख लेने के बाद मैं छुट्टियों के दिन साइकिल से ही तमाम दिल्ली का भ्रमण किया करता था। कभी कभार ही रोड़वेज की बस से यात्रा करता था। दिल्ली में रहते हुए १९५०-५२ के बीच में मैने भारत के साथ कॉमनवेल्थ, एम०सी०सी०, तथा आस्ट्रेलिया के साथ तीन क्रिकेट मैचो का पाँच दिनों का टेस्ट मैच पिता जी के साथ देखा था। पिता जी के अपने इष्ट मित्र भी साथ रहते थे। मैंच के दैरान डबलरोटी खा कर भूख मिटाई जाती थी। क्रिकेट के खेल में पिता जी की बहुत अभिरुचि थी तथा खेल के बारिकियों की व्याख्या करके वे मुझे बीच बीच में समझाया करते थे। उनकी व्याख्या सुन कर तथा खेल को देख कर मैं भी क्रिकेट के बारे में बहुत कुछ जान गया था। और मेरी अभिरूचि भी बढ़ गयी थी। पिता जी ने मेरे लिए गेंद बल्ला विकेट आदि भी खरीद दिया था। बाद में जब मैं पिलानी में पढ़ने गया तो वहाँ स्कूल में मैं एक अच्छा खिलाड़ी गिना जाता था।

के० एम० पनिक्कर पिता जी के अभिन्न मित्रों में से थे। उन दिनों पनिक्कर जी चीन के राजदूत थे। और जब कभी दिल्ली आते तो पिता जी अवश्य मिलते थे। पिता जी भी उनकी चर्चा अक्सर किया करते थे। तथा उनकी बातों में वे बड़ा लुफ्त लेते थे। एक बार जब वे चीन जा रहे थे तो पिता जी उन्हें विदा करने विलिग्डन एअरपोर्ट गये थे, तथा मुझे भी साथ लेते गये थे। विलिग्डन हवाई अड्डा मेरे घर के पास ही था। दूसरे दिन अखबार में उनके साथ मेरी भी फोटो छपी थी। उस अखबार की कटिंग शायद मेरे पास अभी भी धरोहर के रूप में कहीं पड़ी होगी । मैं प्रायः रोज ही शाम को जहाजों का उड़ना और आना देखने के लिए हवाई अड्डे चला जाता था।

पिता जी की ताश खेलने में बड़ी अभिरुचि थी। फुरसत के समय में शाम को अक्सर चौकड़ी जुट जाती और देर रात तक लोग ताश खेलते रहते। ब्रिज खेलना उनको अच्छा लगता। ब्रिज खेल दो जोड़ी ताश से वे लोग खेलते और अंग्रेजी में बोल बोल कर खेलते रहते। देखते देखते मैं भी ब्रिज खेलना सीख गया था। जब भी पिता जी गाँव आते तो ताश की जोड़ी अवश्य साथ लाते और गाँव तथा परिवार के लोगों के साथ ताश के विविध खेल-कोटपीस, गन, ब्लैक क्वीन, रमी आदि खेलते। कभी कभी तो जब कोई भी नहीं रहता तो अकेले भी खेला करते थे। रिश्तेदारियों में जाने पर भी उनका यह क्रम बना रहता था।

राजेन्द्रबाबू जब तक राष्ट्रपति रहे, तब तक पिता जी का शाम का समय तो अक्सर राष्ट्रपति भवन में बीतता किन्तु काम राज योजना के अनुसार नेताओं को अपने पद से दस बरस के बाद हट जाने के नियम बन जाने के अनुसार राजेन्द्रबाबू पहले नेता थे जो १९५२ से १९६२ तक राष्ट्रपति के पद पर रहे और आम जनता के चाहते हुए भी उन्होंने नियम के अनुसार पुनः पद पर बने रहना स्वीकार नहीं किया। जब कि अन्य अनेक नेता इस नियम को नहीं निभाये और कुर्सी पर जमे रहे। राजेन्द्र बाबू के बिहार के सदाकत आश्रम में चले जाने के बाद पिता जी का शाम का समय अक्सर काफी हाउस में बीतने लगा। दोपहर का भोजन भी वे संसद के वैâन्टीन में खा लेते और देर रात ही घर लौटते थे। एक विशेष बात जो सबसे पहले मुझे राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर जी ने पहले बतलाया था और बाद में पूछने पर पिता जी ने भी विस्तार से मुझे बतलाया था। बात यह थी कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पं० द्वारिका प्रसाद मिश्र ने रामायण के आधार पर ‘कृष्णायन’ लिखा तो उसकी भूमिका लिखने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू से आग्रह किया । राष्ट्रपति को कहाँ इतनी फुरसत कि वह इतनी बड़ी पुस्तक पढ़कर उसकी भूमिका लिखे। अतः उन्होंने यह जिम्मेदारी मेरे पिता जी को सौंप दी। पिता जी ने कृष्णायन को बड़े मनोयोग से पढ़ा और विस्तृत भूमिका लिख कर राजेन्द्र बाबू को दिया। राजेन्द्र बाबू ने पूछा कि पुस्तक वैâसी लगी तो पिता जी ने संक्षेप उत्तर दिया राम चरित्र मानस की तो बात ही अलग है। किन्तु अधिकांश प्रसंगों में कृष्णायन में भी वहीं रसानुभूति होती है। उस भूमिका में अपनी ओर से कुछ संशोधन कर के भूमिका लिख कर द्वारिका प्रसाद जी को राजेन्द्र बाबू ने दे दी थी।

पिता जी बनारस में पंडित रामाचल जी से डर कर तथा बाबा से पांच रूपये लेकर कलकत्ता चले गये थे। उस वक्त उनकी अवस्था लगभग १५ वर्ष की थी। पिता जी का जन्म सम्भवत: ६ अक्टूबर, १९०३ को हुआ था। उनके जन्म तिथि की ठीक ठीक जानकारी मुझे नहीं है। उनका स्वर्गवास १७ नवम्बर १९८३ को वाराणसी में हुआ था। कलकत्ता में चौधरी परिवार के हमारे गाँव के कुछ लोग पहले से रहते थे। उन्हीं के साथ पहले कुछ दिन रहे। प्रारम्भ में वे ट्यूशन करके अपना जीवीकोपार्जन करते थे। पुनः कलकत्ता जाने के पूर्व वे कुछ समय काशी विद्यापीठ में भी छात्र रहे। उनके सहपाठियों में पं०कमला पति त्रिपाठी, लाल बहादुर शास्त्री तथा चन्द्रशेखर आजाद आदि भी थे। वहीं बनारस से ही पिता जी से सुपरिचित हिन्दी संस्कृत के तब के जाने माने विद्वान पं० नरोत्तम शास्त्री भी रहते थे। पिता जी का उनसे पारिवारिक सम्बन्ध था। शास्त्री जी के सुपुत्र श्री विष्णुकान्त शास्त्री जो बाद में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बन गये थे, उनको भी पिता जीने  पढ़ाया था। कलकत्ता में पं० सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला और पाडें वेचन शर्मा उग्र तथा भगवती चरण वर्मा आदि के साथ पिता जी की अक्सर गोष्ठिया होने लगी थीं। कांग्रेस के प्रति भी उनका लगाव बढ़ गया था। १९२० में गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से प्रभाविंत हो कर उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता भी ग्रहण कर ली थी तथा एक सक्रिय कार्यकर्ता बन गये थे। उस समय बंगाल के विधान चन्द्र राय वरिष्ट कांग्रेसी असहयोग आन्दोलन को गति प्रदान कर रहे थे। पिता जी उनके निकट सम्पर्क में आये और उसी काल में सुभाष चन्द बोस से उनका निकट का सम्पर्क एवं परिचय हुआ। पिता जी सुभाष चन्द बोस को ‘बोस मोसाय’ अथवा बोस बाबू कह कर सम्बोधित करते थे। कांग्रेस के सक्रिय सदस्य हो जाने के कारण वे आजीवन खादी धारी बन गये थे। धोती कुर्ता टोपी और पम्प जूता यही उनका पहनावा था। पिता जी ट्यूशन से अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। हमारे गाँव के चौधरी परिवार के लोग जमीनदार थे और सम्पन्न थे। पिता जी का स्वभाव ऐसा था कि किसी से मदद नहीं लेते थे। किन्तु उनका जीवन कभी किसी व्यवधान से प्रभावित नहीं हुआ। बाबा जब कभी सुनते की वह ट्यूशन कर के जीवन यापन कर रहा है तो कभी कभी सहयोग करने की आकांक्षा व्यक्त करते, किन्तु पिता जी ने उनके आग्रह को नकार दिया था।

एक बार चौधरी खानदान के लोगों के माध्यम से बाबा ने पिता जी को पत्र लिखा कि मैं तुम्हारे विवाह की चर्चा चला रहा हूँ। और यदि उचित समझो और अपने क्रिया कलापों में तुम्हें किसी प्रकार का व्यवधान न महसूस हो और तुम्हारी इच्छा हो तो अबकी गर्मियों में कुछ दिनों का समय निकाल कर गाँव चले आओ। इस पत्र को पिता जी ने अपने सहयोगी मित्रों को भी पढ़ कर सुनाया और सब ने यह राय दी कि तुम्हारी सक्रियता में इससे व्यवधान नहीं पड़ेगा अतः इसकी स्वीकृति दे दो। पिता जी ने बाबा के पत्र का उत्तर देना सम्भवतः संकोच वश उचित नहीं समझा, किन्तु बिना सूचना दिये ही लम्बे अवकाश पर गाँव आ गये थे। और इस प्रकार बाबा को अपनी मौन सहमति दे कर विवाह के बन्धन में बँधने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।

पिता जी अक्सर कहा करते थे कि अगर मै दुनिया में किसी से डरता था तो मात्र अपने पिता जी से। सो इसलिए नहीं कि वो मेरे पिता थे बल्कि इसलिए कि उन्होंने कभी भी मुझे आदेशात्मक स्वर में कोई बात नहीं कहीं। हमेशा एक सहयोगी और मित्र की भाँति व्यवहार किया। मेरे पिता जी इतने बड़े विद्वान और प्रतिष्ठित पंडित होते हुए भी मेरी भावना का आदर करते थे। इसलिए मैं भी उनके प्रति कृतज्ञया और हमेशा उनसे दूरी बनाये रहता था, तथा भयभीत भी रहता था। मेरे विवाह के सम्बन्ध में द्वारचार के पश्चात जब शास्त्रार्थ होने लगा, जैसी कि परम्परा थी, उस समय बाराती और घराती पक्ष के पंडित आपस में अपने-अपने तर्क देने के साथ ऐसे झगड़ पड़े कि लगा जैसे मार पीट की नौबत आ गयी। उस शास्त्रार्थ में मेरे पिता जी स्वयं बाबा तथा पंडित राजाराम शास्त्री बरातियों की ओर से थे। तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध पंडित बामदेव मिश्र एवं पंडित महादेव शास्त्री घरातियों की तरफ से थे। जब बात बहुत उलझ गयी तो पिता जी बतलाते थे कि मुझसे चुप नहीं रहा गया। यद्यपि मैं दुलहा था, किन्तु अपनी बुद्धि के अनुसार मैने कुछ ऐसा तर्क दिया जो मेरे पिता जी के विपक्ष में था। मेरी बात सुन कर घरातियों के पंडित ताली बजा कर हँसने लगे और अपने को विजयी घोषित कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि वर साक्षात विष्णु का अवतार होता है। और उसके तर्क को विना दुविधा के मान्यता प्रदान किया जाये। इस बात को दोनों पक्षों ने हँस कर स्वीकार कर लिया। मेरे तर्क को सुन कर मेरे पिता जी हार कर भी मेरे कारण जीत का अनुभव कर रहे थे और उन्होंने बड़ी भावुकता से मेरा सिर चूम कर मुझे आशीर्वाद दिया। पिता जी बड़े भावुक हृदय से इस घटना की चर्चा करते थे और कहते थे कि पिता जी के सामने मँुह खोलना यह शायद जीवन में पहला अवसर था। विवाह उपरान्त के सभी रस्म पूरे कर के पिता जी कुछ दिन बाद कलकत्ता लौट गये थे। उसी साल १९२०-२१ में बाबा को सूचना मिली कि पिता जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उर्त्तीर्ण कर लिया। बाबा ने यह समाचार सुन कर गदगद भाव से आशीर्वाद के रूप में पत्र लिखा कि तुम्हारी ग्रह दशायें अच्छी चल रही है। तुम अपने क्षेत्र में इसी तरह आगे बढ़ते जाओगे।

कलकत्ता में पिता जी ने राजनीति में सक्रियता के साथ साथ अपने अध्ययन का क्रम भी जारी रखा था। कुछ ही दिनों के बाद पिता जी बड़ा बाजार शहर कांग्रेस के अध्यक्ष बन गये थे। और इस प्रकार राजनीति में कलकत्ता ही नहीं बल्कि बगांल और देश के बड़े बड़े नेताओं के सम्पर्क में आने लगे थे। उन्हीं दिनों राजेन्द्र बाबू से उनका परिचय हुआ था। संरक्षक के रूप में यद्यपि विधान चन्द राय थे। किन्तु पिता जी का ज्यादा झुकाव सुभाष चन्द बोस की तरफ था। और इसी कारण १९३७ के त्रिपुरी कांग्रेस में वे डेलीगेट के रूप में भाग लिये थे, जिसमें सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे और गाँधी जी से उनका मतभेद हो गया था। गाँधी जी सीता रमइया को अध्यक्ष बनाना चाहते थे किन्तु कांग्रेस के ज्यादा तर सदस्य सुभाष चन्द के पक्ष में थे और इस लिए उनकी विजय हुई। उसी समय से पिता जी सुभाष चन्द बोस के एक सक्रिय सहयोगी के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे। गाँधी जी के विरोघ के कारण सुभाष चन्द बोस ने अन्तत: अपने जीवन का लक्ष्य बदल दिया और बाद में भारतीय आजाद हिंद फौज का निर्माण कर अंग्रेजो से शक्ति से लड़ने का संकल्प ठाना। सुभाष चन्द ने ही पिता जी का पंडित जवाहर लाल नेहरू से परिचय कराया था। जब भी जवाहर लाल कलकत्ता जाते पिता जी को ही उनके आवभगत की जिम्मेदारी सौंपी जाती ।

सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस के गतिविधियों से अलग हो जाने के बाद पिता जी की भी कांग्रेस से वितृष्णा सी होने लगी थी। विशेष कर १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में जब देश भर में तोड़ फोड़ की राजनीति चलने लगी तब यह बात पिता जी को अच्छी नहीं लगती थी। यद्यपि वे १९२० से ही असहयोग आन्दोलन में सक्रिय थे, किन्तु सुभाष चन्द्र के गुप्त हो जाने पर उनकी निष्क्रियता बढ़ती ही गयी। आन्दोलन के दौरान ही पिता जी ने बी० कॉम० की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उर्त्तीण कर ली थी और माहेश्वरी विद्यालय में अध्यापक नियुक्त हो गये थे। जीविका का साधन मिल जाने के कारण उनका रहन सहन भी बदल गया था। बी० काँम० करने के बाद उनकी पढ़ाई में आन्दोलन के कारण व्यवधान पड़ गया था। उन्हीं दिनों कलकत्ता के कुछ उत्साही नवयुवकों ने शस्त्र आन्दोलन का संकल्प ले लिया था। और बम बनाने और बम की पैâक्ट्रियाँ स्थापित करने में सक्रिय हो गये थे। उनमें से अधिकांश पिता जी के सम्पर्की थें और वे चाहते थे कि पिता जी भी इस कार्य में सहयोग करें। किन्तु अपनी मनोभावना के अनुसार उन्होंने क्षमा प्रार्थना के साथ उनके प्रस्ताव को नकार दिया था। इस संस्मरण को सुनाते वक्त पिता जी अक्सर कहते थे-‘बाप न मारे मेढूकी बेटा तीरंदाज ’ फिर भी उनके क्रान्ति कारी मित्र उनसे आदर के साथ सम्बन्ध बनाये रखे। सम्भवतः उन्हीं दिनों सुभाष चन्द्र बोस गुप्त रूप से कलकत्ता से गायब हो गये थे। और तब से सुभाष चन्द्र के सम्बन्धों के कारण पकड़े जाने के भय से पिता जी भी गुप्त रूप से बिहार और नेपाल में छिपने लगे थे। सुभाष चन्द्र बोस के कलकत्ता छोड़ देने के कारण पिता जी अकेला पन महसूस करने लगे थे। और जय प्रकाश नरायण तथा राम मनोहर लोहिया के साथ गुप्त रूप से रह रहे थे। १९४२ के आन्दोलन में नवयुवकों द्वारा राष्ट्रीय सम्पत्ति का नुकसान पिता जी को अच्छा नहीं लगता था। यद्यपि असहयोग आन्दोलन में सक्रिय होने के कारण विद्यालय के क्रिया कलापों से वे वंचित हो गये थे। किन्तु गाँधी जी के अति जिद्दी स्वभाव को भी वे पसन्द नहीं करते थे। असहयोग आन्दोलन के दिनों में गाँधी जी और एनीबेसेन्ट में जो मतभेद हो गया था वह इस बात को लेकर कि गाँधी जी ने अध्यापकों, कर्मचारियों, विद्यार्थियों, वकीलों आदि का आह्वान किया था कि वे अपने पेशे छोड़ कर असहयोग आन्दोलन में भाग लें तब ऐनिबेसेन्ट ने उनकी इस राय को उचित नहीं माना था और खुल कर गाँधी जी का विरोध किया था। ऐनीबेसेन्ट का कहना था कि इस प्रकार के आन्दोलन से भारत के स्वतन्त्र हो जाने पर उसके भविष्य पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा । क्योंकि स्वतंत्रता के बाद भी विरोध स्वरूप इस प्रकार के आन्दोलन जारी रहने की सम्भावना बनी रहेगी जिसे भावी नेतृत्व को सभालना मुस्किल होगा। किन्तु गाँधी जी ने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था और हुआ भी ऐसा ही स्वतत्रता के पश्वात छोटी छोटी बातों को लेकर आन्दोलन, आमरण अनसन और हड़ताल आम बात हो गयी। यही नहीं तोड़ फोड़ की राजनीति चलती रही जिसको देख सुन कर अक्सर पिता जी ऐनिबेसेन्ट की प्रशंंंसा करते और गाँधी जी की निन्दा करते। पिता जी अपने लेखो में और विभिन्न मंचों से भी तथा दूसरों से बातचीत में भी गाँधी जी के जिद्दी स्वभाव के कारण इस प्रकार की घटनाओं की निन्दा किया करते थे। इसके विपरीत वे सुभाष चन्द्र बोस के सिद्धात को उचित मान्यता प्रदान करते थे कि हम शक्ति शाली बन कर तथा वैश्विक कूटनीति का सहारा लेकर अगे्रजों से ज्यादा सफलता से लोहा ले सकते थे। इन्हीं वैचारिक विभिन्नताओं के कारण ही कांग्रेस से अन्ततः उन्हें वितृष्णा हो गयी थी। कांग्रेस में रहते हुए भी गाँधी जी की नीतियों की सार्वजनिक भर्तसना या विरोध उचित नहीं समझे और एक कार्यकर्ता के रूप में कांग्रेस में बने रहे । उन्हीं दिनों पिता जी संगठन क्षमता और योग्यता को परख कर बिहार के जाने माने वकील श्री सचिदानन्द सिन्हा ने बिहार की राजनीति में सक्रिय होने के लिए उन्हें  आमन्त्रित किया। उन्होंने पिता जी को एक मध्यस्थ के रूप में अपने साथ कर लिया था। एक जाने माने वकील होने के कारण वे कांगे्रस की गतिविधियों में तथा क्रान्तिकारियों की गुप्त क्रिया कलापों में सहयोग देते रहते थे। इस रूप में पिता जी को उन्होंने एक माध्यम के रूप में अपना सहयोगी बना लिया था। किन्तु यह सम्बन्ध भी अधिक दिनों तक नहीं चल पाया। स्वभावत: पिता जी इस प्रकार की गतिविधियों से खुश नहीं रहते थे। किन्तु कुछ दिनों में ही बिहार के सक्रिय राजनेताओं के सम्पर्क मेंवे आ गये और बिहार उनके छिपने और छिपाने का एक अन्तरंग स्थान बन गया। १९४२ के आन्दोलन में उनका अधिकांश समय बिहार में ही एक शरण स्थली के रूप में काम आया। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से धीरे-धीरे अलग हटते हुए अपने अध्ययन और अध्यापन पर अधिक ध्यान प्रारम्भ किया और इस प्रकार १९२५ में बी० काम० कर लिया था किन्तु एम० कॉम० आन्दोलन कि व्यस्तता के कारण १९३० में ही कर पाये। माहेश्वरी विद्यालय में अध्यापकीय कार्य निर्वाह करते हुए उनका ज्यादा समय कांग्रेस के सुभाष चन्द्र बोस के साथ ही बीतता था।

साहित्य के क्षेत्र में पिता जी का बहुत मौलिक योगदान तो नहीं रहा किन्तु सरकारी सेवा में रहने के कारण छद्म नाम से वे ‘मतवाला’ और ‘हिन्दू’ तथा ‘हिन्दुस्तान’ व ‘विश्वमित्र’ आदि प्रकाशनों में अपने विचार प्रकट करते रहते थे। कलकत्ता मे ‘हिन्दी नाट्य परिषद’ की स्थापना के पश्चात वे उसमें सक्रिय रूप से भाग लेने लगे तथा पृथ्वी राज कपूर के थियेटर कम्पनी में भी सक्रिय योगदान देने लगे। व्यक्तित्व के धनी स्वथ्य सुन्दर शरीर, बाणी, के ओज, तथा नाटकीय गुणों के कारण पृथ्वी राज ने उन्हें फिल्म जगत में प्रवेश करने के लिए प्रेरित किया। किन्तु पारिवारिक मर्यादा के कारण वे न तो थियेटर कम्पनी में सक्रिय हुए न फिल्म वालों के आग्रह को स्वीकार किया । सुभाष चन्द्र बोस के भारत छोड़ कर चले जाने के पश्चात कांग्रेस में भी उनकी सक्रियता कम होती गयी। क्योंकि सुभाष बोस ही पिता जी के संरक्षक, मार्ग दर्शक, और सहयोगी थे। अब पिता जी का अधिकांश समय अध्ययन और अध्यापन में बीतने लगा। कांग्रेस में अपने निश्छल स्वभाव के कारण इन विपरीत परिस्थितियों  में राजेन्द्र बाबू के काफी निकट आते गये। सुभाष चन्द्र बोस के अभाव में राजेन्द्र बाबू ही, पिता जी के संरक्षक एवमं मार्ग दर्शक थे। यद्यपि राजेन्द्रबाबू का अधिकांश समय जेल में बीता और पिता जी ने अधिकांश समय इधर उधर छिपते हुए विताया किन्तु दोनों के सार्थक सम्बन्ध बने रहे। 

कभी पिता जी ने अपने संस्मरण में मुझे बताया था अपने जन्म दिन के बारे में। मेरी जिज्ञासा पर उन्होंने अपना यह भाव प्रगट किया था कि अक्टूबर में पैदा होने वाले पद और प्रतिष्ठा के लोभ में नहीं पड़ते। मैंने पूछा था कि आपके इतने अच्छे बड़े बड़े नेताओं से सम्पर्क थे। अगर आप चाहे होते तो कलकत्ता, बिहार अथवा दिल्ली में मंत्री बन सकते थे। इस पर उन्होंने हँस कर जवाब दिया था कि यह मेरी कुंडली से सम्बन्धित है। विशेष कर जय प्रकार नरायण और लोहिया का दृष्टांत देकर कहते थे कि इन्होंने आजीवन कोई पद स्वीकार नहीं किया था। जब कि नेहरू जी ने जय प्रकाश को उप प्रधानमंत्री तक बनने का निमंत्रण दिया था। आगे महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री का नाम इसी क्रम में लेते। मैं जब कहता लाल बहादुर शास्त्री तो मंत्री बने थे। तो हँस कर कहते सब लोग लालबहादुर शास्त्री नहीं हो सकते। बड़े संकोच से वे कहते थे कि मेरी प्रवृति जय प्रकाश से ज्यादा मिलती है। जब मैं उनसे पूछता था कि आपकी जन्मतिथि और जय प्रकाश की जन्म तिथि एक ही तो नहीं है? इस पर कुछ संकोच के भाव से उन्होंने बताया था कि मेरी माँ मुझे पितृ पक्ष में मातृनौमी की रात भोर में पैदा होने की बात बताती थी। हाईस्कूल के प्रमाण पत्र में मैंने अनजान में ही २० अक्टूबर की तिथि लिखा दी थी। किन्तु मेरी जन्म तिथि का अथवा तारीख का निश्चित ज्ञान मुझे नहीं था। एक चाचा ७ अक्टूबर को मेरा जन्मदिन बतलाते थे। बाद में बड़ा होने के बाद जब उस वर्ष के पंचाग में मैने मिलान कराया तो उस साल दो अक्टूबर से पितृपक्ष प्रारम्भ हुआ था। मेरी माँ ने कभी मुझे बताया था। कि मातृनवमी की रात मैं सौरी में थी। अत: मातृनौमी दस अक्टूबर को थी। पिता जी संकोच से कहते थे हो सकता है मेरा और जय प्रकाश नरायण का जन्म दिन ग्यारह अक्टूबर यानी एक ही हो। क्योंकि माँ की बात में सच्चाई है।

कलकत्ता में रहते हुए जब जापान ने बमबाजी करना प्रारम्भ कर दिया तब अधिकांश लोगों के साथ पिता जी बनारस में आकर रहने लगे थे। उन्हीं दिनों रंगून से भी भाग कर हमारे गाँव के कुछ सेठ गाँव आ गये थे। वहाँ से बहुत सा सोना चाँदी लेकर एकसेठ जिनका नाम छेदी सेठ था, पहले कलकत्ता में पिता जी के यहाँ रहे और फिर पिता जी के साथ ही बनारस आ कर रहने लगे थे। बाद में छेदी सेठ जी गाँव में आ गये थे, सेठ जी ने मुझसे कई बार पिता जी के साहस और ईमानदारी की प्रसंशा की थी। कहते थे कि हम लोगों के पास लाखों का खजाना था। उस समय दूसरा कोई होता तो उसकी नीयत डोल जाती किन्तु अपनी कोठरी में उन्होंने हम लोगों को शरण भी दी और निडर हो कर रहने की प्रेरणा भी देते रहे। पिता जी की इसी सहृदयता के कारण मुझे भी सेठजी अपने अन्त समय तक विशेष आदर देते रहे। कलकत्ता में भारत के बँटवारे के बाद और उसके पहले भी जब हिन्दू मुसलिम झगड़ा चलता था और वहाँ के मुसलमान नेता हसनशहीद सुहरावर्दी जो पहले कांग्रेस में ही पिता जी के नेतृत्व में कार्य करते थे, बाद में मुसलिम लीगी हो गये थे। उन्हीं के नेतृत्व में कलकत्ता और ढाका में हिन्दुओं का कत्लेआम हो रहा था। उस समय के हालात में भी पिता जी दरवाजा खोल कर शहर की गतिविधियों का पता लेते रहते थे। और जब कभी सोहरावर्दी या अन्य नेताओं से उनकी मुलाकात होती तो हँस कर पूछते कहो मौलाना आज कितना कत्लेआम किये और सोहरावर्दी मुस्कराकर उनकी बात का जवाब देते, अरे पंडित जी आप क्यों मुझको लांछित करते हैं। मैं तो बीच बचाव करने में योगदान करता हूँ। उस समय हमारे घर के एक चाचा चाची भी पिता जी के साथ ही रहते थे।  मुसलमानों को देख कर चाची डर जाती थी, और कहती थी कि भाई जी को जरा भी डर नहीं लगता। वे कुछ हिन्दू और मुसलमानों को साथ लेकर शान्ति कराने निकल जाते हैं। चूकि अधिकाशं हिन्दू और मुसलमान नेता पिता जी से परिचित थे, इसीलिए वे निडर होकर ऐसा साहस पूर्ण कार्य करते थे। जब कभी हिन्दू या मुसलमान जलूस निकाल कर एक दूसरे को दबाने की कोशिश करते तथा एक दूसरे के विरूद्ध नारे लगाते जो पिता जी स्वयम् भय रहित हो कर उन्हें शान्त रहने के लिए कहते। कई बार हिन्दुओं के आक्रमण से उन्होंने मुसलिम बच्चों और महिलाओं को संरक्षण भी प्रदान किया था। इसी तरह अपने मुसलमान मित्रों के यहाँ कई हिन्दू परिवारों को संरक्षण प्रदान करने में उनका योगदान था। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था जो खद्दर के धोती कुरते में और भी निखर जाता था। हिन्दू और मुसलमान दोनों उनकी बातों की कद्र करते थे। मुसलमानों में विशेष कर सैयद परिवारों को तो वे कहते थे अरे आप लोग तो ब्राह्मण है। पिता जी को शामिष खान पान से परहेज था। किन्तु हिन्दू मुसलमानों के प्रेम भाव से मिलने और साथ खाने पीने में उन्हे कोई झिझक नहीं थी।

बगांली समाज में तथा मुसलमानों के साथ रह कर भी उनका सात्त्विक स्वभाव आजीवन निभ गया। चूंकि सब उनकी आदत से परिचित थे। अतः भोज और दावतों में उनके खान पान में विशेष ध्यान रखा जाता था। जाति-पाति, धर्म और सम्प्रदाय के बीच छुआ छूत को पिता जी मान्यता नहीं देते थे। किन्तु स्वच्छता और सफाई पर उनका विशेष जोर रहता था। कुछ लोगों को दोनों हाथ से खाने की आदत थी और भोज इत्यादि में उसी हाथ से परोसने की भी आदत थी जो पिता जी को पसन्द नहीं था। इसे वे जूठा मानते थे। इस लिए लोग उनके साथ खाने पीने में उनकी भावनाओं का ध्यान रखते थे। पिता जी की विशेष आदत थी कि अपनी खाई हुई प्लेट या थाली वे अपने हाथ से हटा लेना अच्छा समझते थे। अपने स्वभावा नुसार अपने आवास पर भी जब वे विशिष्ट मेंहमानों को भोजन पर आमँत्रित करते थें तो विशिष्ट मेहमान भी पिता जी के इस शिष्टाचार को गौरव और प्रसन्नता के साथ निभाते थे। उनके इस संकल्प को अगर खण्डित किया तो मेरी पत्नी ने अर्थात पिता जी की बहू ने, और पिता जी ने इसको सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। 

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् जब राजेन्द्र बाबू संविधान सभा के अध्यक्ष बनाये गये तब उन्होंने पिता जी को भी प्रेरित किया कि तुम कलकत्ता से दिल्ली चले आओ। इस बात पर पिता जी ने बड़ी विनम्रता से राजेन्द्र बाबू से निवेदन किया कि यहाँ पर मैं स्थायी नौकरी में हूँ और जब तक दिल्ली में भी मेरे लिए किसी स्थायी नौकरी की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक मैं अपनी व्यक्तिगत और पारिवारिक परिस्थितियों के कारण ऐसा नहीं कर सकता। इस बात पर राजेन्द्र बाबू ने उन्हें आश्वस्त किया कि तुम्हारी इच्छा के अनुसार व्यवस्था हो जायेगी। तब राजेन्द्र बाबू के सुझाव के अनुसार पिता जी ने विद्यालय से त्याग पत्र दे दिया और दिल्ली में संविधान सभा में पहले ओनरेरियम पर और बाद में स्थायी रूप से अनुवादक का कार्य करने लगे । जब राजेन्द्र बाबू भारत के राष्ट्रपति बन गये तब उन्होंने पिता जी को राज्य सभा सचिवालय में अनुवादक के पद पर स्थायी नियुक्ति दिला दी थी। पिता जी दिल्ली में इस पद पर आजीवन रहे और अवकाश ग्रहण करने के पूर्व वे सहायक सम्पादक, बाद में सम्पादक और तत् पश्चात्   प्रबन्धक के रूप में काम करते रहे। अवकाश प्राप्त करने के पूर्व जब प्रबन्धक के रूप में उन्हें प्रशासनिक कार्य सौपा गया तो यह कार्य उन्हें अपने स्वभाव के विरूद्ध  बड़ा अटपटा सा लगता था। और उन्होंने अपने एक कनिष्ठ सहायक को प्रशासन की जिम्मेदरी सौप दी और स्वयम् सम्पादक का तकनीकी काम ही देखते रहे।

अवकाश प्राप्ति के पश्चात् जब पिता जी बनारस में आ गये तो उन्हें नये सिरे से अपने सम्बन्ध बनाने पड़े थे। रवीन्द्र पुरी में रहते हुए पिता जी का प्रात: भ्रमण के क्रम में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अनेक प्रोफेसरो और कालोनी में रहने वाले अनेक विद्वानों और अवकाश प्राप्त अधिकारियों से उनका निकट का सम्बन्ध हो गया था। अपनी आदत के अनुसार भ्रमण के दौरान वे किसी न किसी मित्र के घर चले जाते और वहाँ अपने संस्मरणों को लोगों को सुनाते। लोग उनकी बातों में बड़ा रस लेते थे। पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी जी से अक्सर उनकी शान्ति निकेतन और कलकत्ता की बातें होती। दोनों हिन्दी के साथ साथ बँगला में बोल कर अपनी प्रवीणता प्रदर्शित करते। बनारस के उस समय के प्रसिद्ध तांत्रिक पंडित गोपी नाथ कविराज से उनका अन्तरंग परिचय था। कविराज जी दिल्ली में राजेन्द्र बाबू के यहाँ भी जाते थे। और इस तरह परिचय की प्रगाढ़ता बढ़ गयी थी। एकाध बार मुझे भी पिता जी के साथ जाने पर इन दोनों की अनौपचारिक बात चीत सुन कर मुझे बड़ा आश्चर्य होता था। बनारस में रहते हुए पिता जी अक्सर गाँव और रिश्तेदारों के यहाँ भी जाया करते थे। और तीन तीन चार चार दिन मेहमान बाजी करते थे। अपने थैले में वे दो जोड़ी तास, गीता, और विवेक चूणामणि की पुस्तक तथा डायरी और कलम हमेशा साथ रखते थे। डायरी लिखने की उनकी भी आदत थी। पारिवारिकों और रिस्तेदारों से पूरी तरह घुल मिल कर एक मजे हुए नाटककार की तरह अपनी अतीत की स्मृतियाँ सबको सुनाते थे। लोगों को गीता और चूड़ामणि की बातें भी समझाते थे। बनारस में अनेक अच्छे अच्छे विद्वानों के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव और विचारों का आदान प्रदान करते थे। पिता जी को अग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत और बंगला भाषा का अच्छा ज्ञान था। इसके अलावा वे पंजाबी भी बोल लेते थे। जब वे मेरे साथ बैठते थे तो कभी कभी खाना पीना भूल कर रात के ग्यारह बारह बजे तक अपनी अतीत की स्मृतियों के पृष्ठ खोलते जाते थे। मुझे बात करते वक्त अक्सर अग्रेजी और संस्कृत में सम्भवतः मुझे प्रशिक्षित करने के लिए अनेक उद्धरणों का प्रयोग करते थे। उनकी बाणी में बड़ा ओज और तेज था। मुझसे पूरी तरह अनौपचारिक रूप से बात करते एकदम मित्रवत। पिता पुत्र की मर्यादा के प्रतिकूल भी बहुत सी बातें वे बिना झिझक के मुझसे कह देते थे। उनसे बात करते करते मुझे भी बँगला भाषा सीखने की इच्छा जागृत हो गयी थी। और मैंने बँगलाभाषा की प्रारभिक पुस्तिका भी खरीद लिया था। उनका अधिक सानिध्य न मिलने के कारण मेरा यह लक्ष्य पूरा न हो सका। जब कभी यात्रा के दौरान या अन्य कहीं भी जब किसी बगांली से मिलते तो उनसे बँगला में ही बात करते। उनकी पोषाक और व्यक्तित्व के कारण अनजान लोग उन्हें बगांली ही समझते थे। अनुवादक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने तमिल और उड़िया भाषा का भी सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लिया था। तमिल मित्रों से टूटीफूटी तमिल भाषा में वे बात करते और गलती पर सुधार होने पर खूब ठठाका लगाकर हँसते। जब वे संस्मरण सुनाते तो पिता जी के बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण लोग उनके संस्मरणों को बड़े आदर से सुनते और उन्हें गौरव प्रदान करते। कभी कभी लोग सुने हुए संस्मरणों को जब फिर फिर सुनना चाहते तो पिता जी उन्हें झिड़क देते कि एक ही बात को बार-बार क्यों सुनना चाहते हो?

कलकत्ता में बगांलियों के साथ अधिकांश जीवन बिताने के कारण पिता जी अन्तरमन से शक्ति के उपासक थे। किन्तु मैंने कभी उनको बैठ कर नियमित पूजा पाठ करते नहीं देखा। किन्तु दिल्ली में रहते हुए वे प्रत्येक मंगलवार को कनाटप्लेस के हनुमान जी का दर्शन कर और लड्डू का प्रसाद लाना वे नहीं भूलते थे। अपने संस्मरणों में उन्होंने एक बार बताया था, कि जब श्रीमती इन्दिरा गाँधी कांग्रेस की अध्यक्षा बनी तो उन्होंने अपने घर पर दुर्गासप्तशती के पाठ का आयोजन रखवाया था। इस आयोजन को पिता जी के ही प्रबन्धन में पंडितों ने सम्पन्न कराया। पूर्णआहुति के समय पिता जी ने इंदिराजी को संदेश भेजा कि वे पूरा सम्ाय तो नहीं दे सकेगीं अतः हवन के अन्त में आकर पूर्णाहुती और पुष्पाजली दे दें। इन्दिरा जी अपनी व्यस्तता के कारण दो तीन बार संदेशा देने पर भी जब नहीं आ पाई तब दस पन्द्रह मिनट की प्रतीक्षा के बाद पंडित लोग स्वयं आहुती करने की काना फूसी करने लगे तब पिता जी भी क्रोधित होकर बड़े जोर से चिल्ला कर बोले– ‘‘देवी जी इन्दिरा जी के पूर्ण आहुती के लिए बैठी नहीं रहेगी, कर दीजिए विसर्जन। नहीं जरूरत है इन्दिरा की पूर्ण आहुती की।’’ यह बात इन्दिरा जी को सुनाने के लिए ही पिता जी ने बड़े जोर से कहा। इस बात को सुन कर इन्दिरा जी भागी भागी आयी और विलम्व के लिए क्षमा मांगी। पूर्ण आहुती और पुष्पाजली के कार्य को समाप्त करने के पश्चात इन्दिरा जी ने अपनी व्यस्तता के लिए छमा माँगी और विना प्रसाद लिये ही जाने लगी तब पिता जी उन पर बिगड़ गये और कहे कि इस प्रकार के आयोजन आप न किया करिये और जब किया कीजिये तो उसके लिए पूरा समय निकाला कीजिऐ। ऐसे अनुष्ठानों में धार्मिक मर्यादाओं की बड़ी महत्ता होती है। संकल्प के अनुसार श्रद्धा पूर्वक कार्य सम्पन्न होने पर तो इष्ट की प्राप्ति निश्चित रूप से शीघ्रातिशीघ्र हो जाती है किन्तु व्यतिक्रम होने पर देवी रूष्ट भी हो जाती है और इष्ट की जगह अनिष्ट की सम्भावना ब़ढ़ जाती है। यह बात सुन कर इन्दिरा जी पुन: अपनी गलती के लिए छमा माँगी और भविष्य में ऐसी गलती न करने का वादा किया। आज कल के पंडित तो बड़ी हस्तियों के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिडाते रहते है। सम्भवत: प्रलोभन के कारण, किन्तु पिता जी को कोई लोभ तो था नहीं। लाल बहादुर शास्त्री के कहने के कारण उन्होंने अपनी स्वीकृति प्रदान की थी। तभी इन्दिरा जी जैसी हस्ती के सामने उन्होंने निर्भीकता पूर्वक अपनी बात कहने का साहस जुटाया। उनकी यह विशेषता थी मर्यादा के विपरीत कोई बात होने पर वे अपनी हृदय की अन्तर व्यथा ओज पूर्ण बाणी में पूरी तरह निश्छल और स्वतन्त्र भाव से बिना किसी लाग लपेट के कह देते थे। वाद विवाद की स्थिति में वे अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य से अपनी बौद्धिक क्षमता का लोहा मनवा लेते थे। और निश्छलता के कारण ही प्रतिपक्षी भी उनके इस व्यवहार की प्रशंसा करते औरउन्हें आदर देते ।

पिता जी का सारा जीवन बड़े बड़े लोगों के सानिध्य में बीता और उनका जीवन काफी सफल भी कहा जा सकता है। किन्तु अपने अन्तिम समय में वे काफी रूग्ण और कमजोर हो गये थे। मैं प्रयाग छोड़ कर बनारस जाकर उनकी सेवा कर नहीं सकता था। मैंने उनसे कई बार आग्रह किया कि वे प्रयाग आ जायें किन्तु उन्होंने मन से काशी में ही अपना जीवन बिताने का संकल्प कर लिया था। मैं कभी कभार जाकर उनकी सेवा सुश्रुषा की व्यवस्था तो कर आता था किन्तु नौकरी छोड़कर हम दोनों भाइयों का काशी में रह कर उनकी सेवा करना सम्भव नहीं था। जिसका नतीजा हुआ की हम दोनों भाई उनके अन्तिम समय में सेवा का लाभ नहीं प्राप्त कर सके। और अन्त में १८ नवम्बर १९८३ को उन्होने अपनी हार्दिक इच्छा के अनुसार काशी में रविन्द्रपुरी के आवास में अपनी इह लोक की लीला समाप्त की। इस असार संसार में कब किसके साथ क्या होगा कोई नहीं जानता। ‘वहीं होता है जो मंजुरे खुदा होता है।’ हरिशचन्द्र घाट पर सभी रिश्तेदारों और परिचितों के सानिध्य में उनका अग्नि संस्कार सकुशल सम्पन्न हुआ। हमसे जितना बन पड़ा मैने अपनी पूरी श्रद्धा के साथ तेरह दिनों तक उनका श्राद्ध धूम धाम से सम्पन्न किया। सोलहवे दिन वार्षिक श्राद्ध भी सम्पन्न कर लिया गया। क्योंकि विद्यालय के क्रिया कलाप को छोड़ कर मैं अधिक दिनों तक छुट्टी लेकर नहीं रह सकता था। वार्षिक श्राद्ध की अपनी मर्यादा होती है। उनको निभा पाना आज के युग में अधिक दिनों तक सम्भव नहीं हो पाता। उसके बाद गया श्राद्ध और श्रीमद्भागवत सप्ताह भी बडे धूम धाम से प्रयागमें सम्पन्न कर मैं पितृ ऋण से मुक्त हुआ। गया श्राद्ध में मेरी पत्नी और रत्नाकर साथ थे और पाँच दिनों तक गया में रह, श्राद्ध कार्य सम्पन्न कराये। गाँव से भी भिक्षा ले गया था। भागवत में सभी रिश्तेदार, परिवार के लोग तथा मुहल्ले के लोगों ने बड़ी भक्तिभाव से भाग लिया। मेरा दुर्भाग्य ही रहा कि मैं न तो पिता जी के और न माता जी के अन्तिम समय पर उपस्थित रह पाया। माता जी के बैकुण्ठ वास के समय मैं हरिद्धार में कुम्भ स्नान के लिए चला गया था। मेरी अनुपस्थिति में मेरे अनुज रत्नाकर ने सभी संस्कार सम्पन्न किया। यह एक तरह से अच्छा ही रहा कि दो भाईयों में एक ने पिता जी के संस्कार किये और दूसरे ने माता जी के। सब कुछ ईश्वरीय इच्छा के अनुसार होता है। इस बात का मुझे सन्तोष है। पिता जी आजीवन एक संस्कारी ब्राह्मण का जीवन अपने अन्त समय तक निर्वाह किये। उनके ऐसे कई मित्र थे जो भाँग, और मांस मदिरा के शौकीन थे। उनमें अनैतिकता भी थी किन्तु मेरे पिता जी इन लोगों से मित्रवत व्यवहार करते हुए भी उनके दुर्गुणों से प्रभावित नहीं थे। ऐसे लोगों में वरिष्ट पत्रकार एवम् लेखक पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का नाम जग जाहिर है। उग्र जी के पिता जी मेरे ही गाँव के वासी थे। बाद में वे मंदिर के पुजारी के नाते चुनार में जा कर बस गये थे। जब हम लोग प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे, तो उनके खण्डहर में हम लोग खेला करते थे। उनके पिता जी ने बाद में अपना घर तथा खेत इत्यादि अपने पट्टिदारों को बेच दिया। उग्र जी के परिवार के हम लोग पुरोहित लगते थे। शायद इसीलिए उग्र जी पिता जी से उम्र में बड़े होते हुए भी उनका बड़ा आदर व सम्मान करते थे। इस सम्बन्ध में एक विशेष संस्मरण जो पिता जी ने मुझे सुनाया था वह यह है कि उग्र जी ने ‘‘दीवाने गालिव’’ नाम से एक पुस्तक लिखी तो उसकी आठ प्रतियाँ रेशमी जिल्द में छपवाई। जिसकी पहली प्रति उन्होंने बडे आदर से पिता जी को सप्रेम भेंट किया था तथा अन्य प्रतियाँ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री एवं अन्य विशिष्ट लेखकों को दी थी। उस प्रति को पिता जी बनारस आने पर भी बड़ा सहेज कर रखे थे। मैंने उस प्रति को देखा था। जब पिता जी बीमार हुए तो न जाने कौन उस प्रति को उठा ले गया। पिता जी ने मुझसे भी पूछा कि तुम तो नहीं ले गये। मेरा नकारात्मक उत्तर सुन कर वे बड़े चिन्तित हुए और कहने लगे जाने कौन उस अमूल्य निधि को उठा ले गया। उस समय उस विशेष प्रति के लिए उनका विशेष लगाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था। पिता जी जिससे भी सम्बन्ध बनाये आजीवन उन्होंने उसका निर्वाह किया। कभी कभी पारिवारिकों के विरोध के बावजूद भी मर्यादा और जिम्मेदारी नहीं छोड़ी । यह उनकी निष्ठा और आदर का एक ज्वलन्त उदाहरण है।

पिताजी के सम्बन्ध में एक ज्वलन्त उदाहरण मैं देना आवश्यक समझता हूँ, जो उनके तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के उनके पारिवारिक सम्बन्धों को उजागर करता है। एक बार पिताजी एक विवाह समारोह में बिहार के छपरा गये तो वहाँ राजेन्द्र प्रसाद के सुपुत्र मृत्युञ्जय प्रसाद जी जो उस समय वहाँ के सांसद थे, अतिथि के रूप में पधारे थे। घरातियों के लोग पिताजी के सम्बन्धों की परीक्षा लेने के लिए उनके पास आकर सूचना दिये कि सांसद जी पधारे हैं और आपको पूछ रहे हैं, तबतक मृत्युञ्जय जी स्वयं आकर बड़े आदर से पिताजी का चरण स्पर्श किये और हाथ जोड़कर सामने खड़े-खड़े उनका हालचाल पूछते रहे। लोगों ने उनके लिए कुर्सी लाकर रख दी किंतु उस पर बैठे नहीं जब तक पिताजी ने स्वयं उनसे बैठने के लिए नहीं कहा। बहुत देर तक उनसे नई पुरानी बातें करते रहे और आश्चर्यचकित होकर लोग उनकी बातों को सुनते रहे। बाद में सब लोगों ने पिताजी की बड़ी प्रशंसा की। कहाँ उन लोगों के क्षेत्र के विशेष आदरणीय पुरुष सांसद जी और कहाँ उनके नये सम्बन्धी पिताजी। इस व्यवहार को देखकरके वहाँ उपस्थित सभी लोग गौरवान्वित हुए।

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मेरा विद्यार्थी जीवन

गाँव की प्राथमिक पाठशाला में–

मुण्डन संस्कार के बाद मैं जब पाँच बरस का हो गया था, तो मुझे गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा जाने लगा। स्कूल जाने के पूर्व हमारे बाबा ने हमारा और हमारे चचेरे भाई दिवाकर का पट्टी पूजन संस्कार घर पर ही करा दिया था। मेरे गाँव का प्राइमरी स्कूल जो १९२८ में ही निर्मित हो गया था उसमें चार कमरे थे तथा बाहर चारो कमरे के सामने बड़ा सा बरामदा था। दीवाले मजबूत पत्थर से बनाई गयी थीं। जिसमें नीचे अलकतरा और उâपर चूना पोता गया था। दीवालों पर प्रार्थनायें लिखी गयी थीं। बाहर एक बड़ा सा चबूतरा था, जिसके पश्चिम में कच्ची मिट्टी से बना हुआ तथा खपडैल से छाया हुआ एक कमरा था। जिसमें बाहरी अध्यापक अपना भोजन बनाते थे और दोपहर में विश्राम करते थे। चबूतरे के बाद क्यारियाँ बनी हुई थीं, जिसमें अच्छे अच्छे फूल मौसम के अनुसार लगाये जाते थे। पश्चिम की ओर ही एक बड़ा सा पक्का कुँआ था, जिसमें गड़ारियाँ लगी हुई थीं। कुँआ के चारों ओर पक्का जगत भी बना हुआ था। कमरे काफी बड़े बड़े थे। जिसमें उत्तर की ओर दो दो खिड़कियाँ तथा दक्षिण की ओर लोहे के दरवाजे लगे हुए थे। पहले कमरा तथा दूसरे कमरे के बीच भी एक दरवाजा था जिसमें पहले कमरे में एक महिला अध्यापिका पढ़ाती थीं जो मेरे ही परिवार की मेरी चाची थी। पढ़ी लिखी होने के कारण पहले महिला अध्यापिका के रूप में मेरी माँ की ही नियुक्ति हुयी थी। किन्तु जब ट्रेनिंग के लिए उसे मीरजापुर जाने की बात उठी तो बाबा ने मना कर दिया। इस तरह बाद में चाची सरस्वती देवी पत्नी केदारनाथ दूबे जो पटिदारी की ही थी वे अध्यापिका बन गयीं।

मेरी माँ गाँव में पहली पढ़ी लिखी महिला थी। जो कोई परीक्षा तो नहीं दी थीं लेकिन मेरे नाना रामरक्षा तिवारी ने जैसी की पहले की परम्परा थी घर पर ही उन्हें काफी कुछ पढ़ा दिया था। मेरी माँ रामायण और हनुमान चालीसा का नित्य पाठ करती थी। मेरे स्कूल जाने के पूर्व मेरी माँ ने घर पर ही जमीन पर राख बिछाकर तथा उँगली से लिखवाकर मुझे अक्षर ज्ञान करा दिया था। तथा प्राइमरी की पुस्तक भी मुझे पढ़ना सिखा दिया था। मेरी माँ प्राइमरी स्कूल खुलने के पूर्व घर पर ही परिवार एवम् पास पड़ोस के लड़के लड़कियों को पढ़ाया करती थी। मेरी माँ के दो भाई थे– आदित्यनाथ व भोलानाथ। आदित्यनाथ युवावस्था में दिवंगत हो गये थे। इनके दो लड़के थे– राममूर्ति एवं उमानाथ। राममूर्ति के चार पुत्र हैं– अमिताभ, पद्यनाभ, नलिनाभ एवं श्वेताभ तथा एक कन्या विभा है जिसका विवाह मेरे चचरे जीजा पशुपति नाथ के पुत्र कन्हैया दूबे से हुआ है। आदित्यनाथ के साले महादेव शास्त्री थे जो महेश्वरानन्द के रूप में  ऊर्द्धपीठ के शंकराचार्य बनाये गये थे। दूसरे भाई भोलानाथ व्यास थे उनके एक लड़का पारसनाथ तथा पुत्री शान्ता थी। उमाकान्त के सुपुत्र राजेन्द्र तिवारी हैं।

स्कूल जाने के पूर्व मुझे प्राइमरी कक्षा में पढ़ने को कुछ भी नहीं बचा था। मैं सब कुछ पहले से जानता था और दूसरे बच्चों को एक कोने में रखे घेरे में बालू पर उँगली से लिखना सिखाता था। मैं नित्य गुरू जी, जो मेरी चाची ही थी उन्हें सब लोग गुरू जी ही कहते थे उनके पैरपर रख कर पूरी किताब रोज पढ़ जाता था तथा शाम को गिनती और पहाड़ा पढ़ाने का काम भी मुझे ही करना पढ़ता था। मैं आगे आगे जोर जोर से बोलता था और बाकी बच्चे उसे दोहराते थे। मैं इस तरह कक्षा का मानीटर का कार्य करता था।

जब मैं दर्जा एक में गया तो वहाँ चुनार के मुंशी रामनाथ जी मेरे अध्यापक थे। उन्हीं दिनों रंगून से भाग कर आये सेठ के लड़के भी पढ़ने आये थे। जो हमारे मुंशी जी को गुरू जी कहते थे। और हम सब लड़के उसको मूर्ख समझते थे। यह हम लोगों का तब का अज्ञान था। हम लोग केवल महिला अध्यापिका को ही गुरू जी कहना उचित समझते थे और मुंशी जी, बाबू साहब और पंडित जी को उनके इन्हीं नामों से पुकारते थे। लेकिन वह सेठ का लड़का सबको गुरू जी कहता था। और हम लोग हँसते थे। तब हम लोगों को गुरू जी का वास्तविक अर्थ ज्ञान नहीं था।

मुंशी जी ने मुझे आर्ट, क्राफ्ट तथा नाटक की कला भी सिखाई। मेरे उâपर उनकी विशेष कृपा थी। चूँकि मैं पढ़ने में तेज था तथा इन कलाओं में रुचि भी लेता था, अत: मुंशी जी मुझे अच्छे पात्र का पाठ याद कराते थे। तथा गाना भी सिखाते थे। नाटक में मुझे राम, कृष्ण, अभिमन्यू की पात्रता देते और पाठ रटाकर बोलना और अभिनय करना सिखलाते। उन्हीं की शिक्षा का परिणाम है कि मैं एक अच्छा कलाकार बाद में बन सका। उस समय की बनाई हुई राजा कनिष्क का एक चित्र पहली कक्षा की दीवाल पर टाँगा गया था। जिसे लगभग पन्द्रह वर्षो के बाद जब मैं किसी बारात के स्वागत में उस कक्षा में गया था तो वह चित्र जहाँ का तहाँ टँगा हुआ था।  चूँकि नीचे मेरा नाम भी लिखा हुआ था अतः मैने सबको यह बात बताई और स्वयम् बड़ा गौरव का अनुभव किया। प्राइमरी कक्षा में दर्जा दो और तीन में जब मैं गया तो हम लोगों को तब ड्लि और लेजम भी सिखाया गया था, तथा नाटक और स्काउटिंग की भी शिक्षा दी गयी थी। प्रति दिन हम लोग कोई न कोई सेवा का कार्य करते थे, और उसकाे स्काउटिंग पुस्तिका में लिखा जाता था। हम लोगों को एक एक सीटी दी गयी थी, जिसे अनेक प्रकार से बजा कर उसके अलग अलग भाव सिखाये गये थे। चीजों को छिपा कर और उन्हें ढूढ़ना भी सिखाया गया था। हम लोग क्यारियों में तरह तरह फूल लगाते तथा हजारे से उनकी Eिसचाई करते। प्रत्येक छात्र को अपने पौधे की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी जाती थी। जब मैं दर्जा चार में गया तो मेरे ही बड़े बाबू जी जो प्रधानाध्यापक थे हम लोगों को पढ़ाते थे। वे हिन्दी भाषा, इतिहास, भूगोल और गणित पढ़ाते थे तथा गलती होने पर बहुत मारते थे। मुंशी जी भी इस माने बड़े कठोर थे और गलती होने पर बाँस की छड़ी से मारते थे। तब प्राइमरी स्कूल की परीक्षायें दर्जा चार तक ही होती थी। चार की परीक्षा फाइनल परीक्षा कहलाती थी। उसमें कई प्राइमरी स्कूलों की परीक्षायें एक केन्द्र पर होती थीं और डिप्टी साहब परीक्षा लेते थे। इस परीक्षा में भी मुझे सर्वोच्च अंक प्राप्त हुआ था। क्योंकि मैंने डिप्टी साहब के सामने दिनकर जी की प्रसिद्ध कविता- ‘‘यह है भारत का शुभ्र मुकुट, यह है भारत का उच्च भाल’’ बड़े राग और जोश खरोश से सुनाया था। इस पर डिप्टी साहब बहुत खुश हुए थे। और मुझ्ो कुल १५० नम्बरों की परीक्षा में १४९ नम्बर मिले थे। सारा इतिहास, भूगोल तथा गणित एकदम रटा हुआ था। उसमें कोई गलती नहीं थी। इस प्रकार १९४७ में मैंने गाँव से प्राइमरी परीक्षा पास की। प्राइमरी कक्षा की एक मजेदार बात और याद है कि जब कोई लड़का अनुपस्थित होता था तो चार लड़कों को उसे घर से बुलाने के लिए भेजा जाता था और ये चारो लडके उसे जबरदस्ती हाथ पैर पकड़ कर झुलाते हुए ले आते थे। लड़कों के आगे घर वाले भी बहाना वाजी करते थे कि तबियत नहीं ठीक है किन्तु लडके मानते नहीं थे और उसे जबरदस्ती घर में घुस कर उठा लाते थे। इस लिए लड़के, जहाँ तक सम्भव होता था, अनुपस्थित कम ही होते थे।

विद्यालय में आने पर सबसे पहले अपनी अपनी कक्षा के अनुसार चबूतरे पर सब लड़के पंक्तियों में खड़े हो जाते थे तथा आगे से पीछे की ओर लड़के एक दो तीन चार इस तरह बोलते जाते थे। इस प्रकार पता चल जाता था कि किस कक्षा में कितने लड़के अनुपस्थित है। हाजिरी का यही तरीका था। बाद में रजिस्टर में अध्यापक लोग उसे चढ़ा लेते थे। छात्रों की गिनती हो जाने के पश्चात प्रार्थना होती थी जिसमें मुख्य रूप से नित्य बदल -बदल कर -‘‘हे प्रभू आनन्द दाता’’, ‘‘हम डूब रहे भव सागर में’ अथवा ‘वह शक्ति हमे दो दया निधे’ आदि प्रार्थनायें होती थीं। जिसे मैं ही अधिकतर कराता था। युद्ध के दिनों में -‘‘हम सैनिक है हम सैनिक है’’ अथवा ‘‘जै जै पंचम जार्ज’’ आदि भी गाया जाता था। इसके बाद छात्र अपनी कक्षाओं में जाते थे। दोपहर में एक घंटे की खाने की छुट्टी होती थी और शाम को चार बजे छुट्टी। छुट्टी की घंटी बजते ही सभी बच्चे अपना अपना बस्ता लेकर दौड़ पड़ते थे। जैसे जेल से छूटे हों।

प्राइमरी स्कूल में मैंने एक ही वर्ष में अ और ब की कक्षायें पास कर ली थीं तथा दूसरे साल एक में आ गया था। एक में आने पर हम लोगों को लकड़ी की पट्टी पर जिस पर कालिख पोत कर तथा शीशी से रगड़ कर खूब चमकाया जाता था, तथा जिस पर लकीरें बनीं होती थीं उस पर नरकट अथवा सरई की कलम से दुद्धी से बड़े बड़े अक्षर लिखाये जाते थे। जब इसका अभ्यास हो जाता था तब दर्जा २ में आलेख तथा सुलेख की कापी पर काली स्याही से तथा किरीच की कलम से लिखना सिखाया जाता था। सुलेख में सभी अक्षर छपे हुए अक्षरों के समान लिखाये जाते थे। इस प्रकार अक्षरों की लिखावट में सुधार किया जाता था। मुंशी जी दर्जा १ व दर्जा २ दोनों में पढ़ाते थे तथा अपने डिब्बे में चुनार से ही लगवा कर पान लाते थे और दिन भर खाया करते थे। दर्जा तीन में भाषा, भूगोल और इतिहास बाबू साहब पढ़ाते थे। बाबू साहब दोपहर में अपना भोजन स्वयम् बनाते थे। वे लड़कों से ही उपले आदि मँगा कर अहरा लगवाते थे और बच्चों से ही बर्तन मँजवाते थे। मेरे बडे बाबू जी जो दर्जा चार के छात्रों को पढ़ाते थे, शिक्षा देने में बहुत निपुण थे। भाषा की किताब में कवितायें पढ़ाने का उनका तरीका बड़ा सुलझा हुआ था। इतिहास, भूगोल और गणित के सवाल तो सभी लड़कों को प्रायः रटा देते थे। वे गलती होने पर मारते बहुत थे। दो तरह के डण्डे रखे थे, एक पतली छड़ी दूसरा मोटा डण्डा उनके नाम थे, घेलू और भगेलू। गलती होने पर लड़के से ही पूछते थे कि कहो किससे स्वागत किया जाये। हम लोगों से भी जब गलती हो जाती थी तो खूब मार पड़ती थी। स्कूल के पास ही नदी थीं, हम लोग प्रायः उसमें नहाने चले जाते थे और गलती होती थी, तो यही कह कर मारते थे, कि जाओं नदी नहाओं, पढ़ लिख कर क्या करोगे? हथेली पर मोटे डण्डे से तथा पीठ पर पतले डण्डे से हाथ पर मारने की उनकी आदत थी। मार के भय से ही हम लोग प्राइमरी कक्षाओं में हर चीज को रट लिये थे। जिससे हम लोगों की नींव मजबूत हुई थी। प्राइमरी स्कूल की शिक्षा से कला और काव्य के प्रति मुझे आन्तरिक अनुभूति और प्रेरणा प्राप्त हुई थी।  हम लोगों के प्राइमरी स्कूल में शिक्षा के समय एक मुसलमान डिप्टी साहब थे, जो साइकिल से आते थे। उन दिनों में साइकिल किसी के पास नहीं थी। अतः डिप्टी साहब एक बड़े आदमी माने जाते थे। दूर से ही जब उनकी साइकिल दिख जाती थी तो लोग सतर्क हो जाते थे और उनके स्वागत की तैयारियाँ होने लगती थीं। दोपहर में उनके भोजन के लिए पड़ोस में ही रहने वाले अब्दुल्ला के घर व्यवस्था होती थी। जो उन्हें प्रायः मांसाहार खिलाता था। उन दिनों जाति पाँति की और धर्म की कट्टरता थी। छुआ छूत अपने चरम पर था। उसी के अनुसार उनका आवभगत होता था। वे बडे हँसमुख स्वभाव के थे। उनके चले जाने पर मौलाना, मौलाना कह कर लोग उनका आपस में मजाक उड़ाते थे। प्राइमरी के फाइनल परीक्षा के दिन दर्जा चार के सभी छात्र एक जगह एकत्रित हो जाते थे। तथा सभी मंदिरों में दर्शन करते हुए हम लोग अपने गाँव से लगभग पाँच किलोमीटर दूर स्थित उस वर्ष के केन्द्र सहस पुरा गाँव में सूर्योदय के पहले ही पहँुच गये थे। डिप्टी साहब ने सबकी परीक्षा ली, जिसमें मुझे सर्वाधिक अंक मिले थे। प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही मेरे अन्दर काव्य भाव जागृत हो गया था और मैं छिट पुट दोहे इत्यादि भी लिखने लगा था। जिसमें से कुछ मैं यहाँ नीचे उद्धधृत करना उचित समझता हूँ।

(१)    आई बाढ़ आई बाढ़। चढ़ गया सावन गया अषाढ।

 (२)   आग लगी है पानी लाओं। जल्दी जल्दी आग बुझाओं।

                अनाज,भूसा जल्दी हटाओं। माल पानी का बक्सा  बचाओं।

 (३)   दुई सहत्र और चार का सम्बत अति अनुदार ।

                भादो कृष्णा अष्टमी बाबा स्वर्ग सिधार ।

(४)    दो सहत्र और चार में सम्बत का संहार ।

                भादो कृष्णा द्वादशी गंगा बड़ी अपार ।

 (५)   सन् १९३६ का पौष शुक्ल बुधवार ।

                पूनम प्रातः छः बजे ‘‘प्रभाकर’’ का अवतार।

इस तरह के कई दोहे और तुकबन्दियाँ मैं बचपन में ही करने लगा था।  एक बात और जो मेरे स्वभाव में विशिष्ट बन गयी थी वह थी अपनी दिनचर्या लिखना। सम्भवतः मेरी यह आदत प्राइमरी कक्षाओं में स्काउटिंग की पुस्तिका भरने के क्रम में प्रारम्भ हो गयी थी। इस प्रकार मैं रोज कापी पर दिनांक डाल कर अपनी दिनचर्या लिखने लगा था।

चुनार के मिडिल स्कूल एवं पी.डी.एन.डी. कॉलेज में–

प्राइमरी पास करने के बाद मैं और दिवाकर दोनों मिडिल स्कूल में भरती करा दिये गये । मिडिल स्कूल में और तो कोई विशेष बात नहीं थी किन्तु वहाँ के मौलवी साहब जो उर्दू पढ़ाते थे गलती होने पर निर्दयता, पूर्वक हरी हरी बाँस की छड़ी से मारा करते थे। उनकी मार से भयभीत होकर हम लोग उर्दू पढ़ना छोड़ दिये थे। यह बात जब घर वालों को पता चली तो मेरी माँ और दादी पीठ पर पड़ी हुई साट देख कर मौलवी साहब को अपशब्द कहने लगीं और अपना रोष भाव प्रकट किया कि ऐसी पढ़ाई में आग लगे। और बड़े बाबू जी से कह कर वहाँ से नाम कटवा दिया। प्राइमरी स्कूल में दर्जा चार पास कर हम लोग मिडिल स्कूल में दर्जा पाँच में पढ़ते थे। किन्तु पी० डी० एन० डी० कालेज में तीसरे दर्जे से अँगे्रजी की पढ़ाई होती थी। अतः हम लोगों का नाम थर्ड क्लास में लिखवाना पड़ा। यहाँ का वातावरण हम दोनों को अच्छा लगने लगा हमारे गाँव के अधिकांश लड़के  इसी प्रकार मिडिल स्कूल से नाम कटवा कर कालेज में आ गये थे। इस कालेज में एक अच्छी सुविधा हम लोगो को यह मिली कि दोपहर मे भोजन अवकाश के समय भीगा हुआ चना जिसमें नमक जीरा और नीबू मिला रहता था खाने को मिलता था। जब स्कूल सबेरे सात बजे का रहता था तो हम लोग लगभग छः बजे ही गाँव से चल देते थे क्योंकि चुनार स्कूल हमारे यहाँ गाँव से लगभग छः किलो मीटर दूर था। सबेरे सबेरे हम लोग उठ कर शौच इत्यादि से निवृत हो स्नान कर लेते थे और मेरी माँ बोरसी पर अहरा सुलगाकर लिट्टी लगा देती थी। इस प्रकार रोज हम लोग नमक घीसे लिट्टी खा कर तथा एक एक गिलास दूध पी कर चुनार पढ़ने के लिए चले जाते थे। रास्ते में जरगों नदी की एक शाखा भी थी जो गाँव के पश्चिम से बह कर आगे गंगा नदी में जा कर मिल गयी थी। जरगो नदी की मुख्य शाखा हमारे गाँव के पूरब से दक्षिण से उत्तर की ओर बहती थी। हम लोग सबेरे नदी में ही स्नान करके तैयार होते थे। बरसात के दिनों में गाँव की करैली मिट्टी में पैर धँसाते हुए नंगे पाव कीचड़ लपेटे हुए बड़े बीहड़ रास्ते से तथा नदी पार कर के जाते थे। जब नदी में पानी ज्यादा होता था तो नाव से पार होना प़ड़ता था। जब पानी कम रहता था तो हम लोग कपड़े उतार कर उस पार चले जाते थे। चुनार पहुँच कर किसी गढडे में हाथ पैर धोकर तथा कपड़े पहन कर तब स्कूल जाते थे। गर्मी के दिनों में भी नंगें पाव ही सब विद्यार्थी आते जाते थे। रास्ते में कहीं भी न तो बड़े पेड़ थे न तो पानी की सुविधा। चूआ बनाकर नदी में गड्ढा खोद कर चुरूआ से पानी निकाला जाता था। और उसी से हम लोग प्यास बुझाते थे। जब पैर जलने लगता था तो दौड़ दौड़ कर घासों पर चलते थे। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि सबेरे जब हम लोग स्कूल गये तो नदी सूखी हुई थी और जब दोपहर में लौटे तो बरसाती नदी पानी से भर गयी थी। एक बार ऐसा ही हुआ कि हम लोगों को कराह में बैठा कर गाँव वालों ने नदी पार कराया था। एकाएक नदी में बाढ़ आ गयी थी और प्राय: परिवार के सभी लड़कों के संरक्षक चुनार के रास्ते पर जहाँ नदी पार करना होता था पहुँच गये थे किन्तु वहाँ कोई उपाय नहीं सूझा कि वैâसे लड़वâों को नदी पार कराया जाये। क्योंकि पहले पहले पानी में अनेक जीव जन्तु तथा झाड़ झखाड़ बह कर आते थे। अत: लोगों ने सुझाव दिया कि गाँव के सामने सब लड़के चले चलें। उस पार लड़के और इस पार पारिवारिक साथ साथ गाँव के सामने आये। जब वहाँ भी कोई तरीका नहीं सूझा तो लोगों ने राय दिया कि नदी जहाँ गंगा में मिलती है वहाँ चलो, वहाँ शायद पानी कम होगा । थके, मादे, भूखे,प्यासे सारे लड़के खेत खेत में होते हुए काँटे कासे के बीच चलते हुए जब संगम के पास पहँुचे तो वहाँ भी कोई उपाय नहीं सूझा। वहाँ फिर राय बनी कि चलो गाँव के सामने और फिर हम लोग लौट कर गाँव के सामने आये। गाँव के सामने आने पर सबकी राय से एक बड़ा सा कराहा नदी में उतारा गया तथा उसके कड़ियों में लेजुर (रस्सी) बाँधा गया। हमारे पड़ोस में ही रहने वाले राम स्वरूप बनियाँ जो अच्छे तैराक तथा बड़े हिम्मती थे, उन्हें कराह की रस्सी का एक छोर पकड़ा कर तथा कराह में दो नवयुवकों को बैठाकर उस पार पहँुचाया गया और फिर उस कराह पर चार चार लड़कों को बैठाकर उस पार से रस्सी ढ़ीली की गयी तथा इस पार से रस्सी खींची गयी। इस प्रकार चार चार लड़के इस पार उतारे गये। राम स्वरूप बनियाँ कराह के साथ साथ तैर कर हर बार आते जाते रहे और इस प्रकार सारे विद्यार्थी इस पार उतारे गये । तब सबके जान में जान आयी। राम स्वरूप बनियाँ की हिम्मत को क्या कहा जायें वे बहुत ही पुरुषार्थी थे। जब कभी कुएँ में कोई गगरा या बाल्टी गिर जाता तो वे ही कुएँ में उतारे जाते और बड़ी प्रसन्नता से यह कार्य करते । जब कभी किसी के घर में साँप आदि निकलता तब भी राम स्वरूप बनियाँ ही बुलाये जाते और बड़े हिम्मत से वे साँप को खेला खेला कर बरछी से मारते। उस समय अपने एक हाथ में वे एक छड़ी रखते थे तथा दूसरे हाथ में बरछी। जब कभी साँप उनकी ओर लपकता, तो वे छड़ी से उसे उसके मँुह पर मार कर हटा देते। उनकी यह हिम्मत देखने लायक होती थी। उनके साहस और कौशल की जितनी भी प्रशंसा की जाये वह थोड़ी ही रहेगी। उस जमाने में प्रायः सभी के घर कच्ची मिट्टी के बने हुए थे और उâपर खपरैल के छाजन होते थे और लकड़ी गोइठा इत्यादि भरा रहता था। दीवालों में दरारें भी होती थीं। अत: ये सब सुविधायें साँपों के जीवन यापन के लिए सुरक्षित जगह हुआ करती थीं और प्राय: सबके घरों में हर साल बड़े बड़े साँप निकलते थे जो जहरीले भी होते थे और अक्सर साँप काटने की घटनाये होती थीं। उस समय अस्पतालों की सुविधा तो थी नहीं, कुछ जानकार मंत्र के द्वारा साँपों का जहर उतारते थे और कुछ लोग जहर वाले स्थान पर मुर्गी सटाकर जहर उतारते थे। किन्तु अधिकांश लोग साँप काटने पर मर ही जाते थे। राम स्वरूप का दुबला पतला छरहरा बाठा व्यक्तित्व आज भी आँखों में तैरता रहता है। वे कान में उâपरी हिस्से में सोने की बालियाँ पहनते थे। नित्य सवेरे तीन बजे उठ कर अपने बैल और उँâटों को खिला पिला कर तैयार करते थे। तथा स्वयम् स्नान करके बैल उँâट पर अनाज लाद कर कभी बनारस तथा कभी गंगा पार अदलपुरा के बाजार में आढ़तियों को बेच आते थे। यह उनका नित्य का नियम था। कभी कभी जब अनाज का भाव चढ़ता था। तो दो दो बार बनारस का दौरा करते थे। जाते वक्त पैदल और आते वक्त ऊँट पर सवार होकर आते थे। पैदल के रास्ते बनारस हमारे यहाँ से लगभग २० किलोमीटर पड़ता था। तथा अदलपुरा भी लगभग इतना ही था। किन्तु हर मौसम में बरसात को छोड़ कर उनका नित्य का नियम था। कभी कभी तो रात के दस ग्यारह बजे लौटते थे। और हमारे कुएँ पर ही उनका स्नान होता था। उन्हीं के व्यापार से उनके परिवार की विपन्नता दूर हुई थी। हम लोगों के बचपन में वे बहुत ही गरीब थे। उनकी माँ हमारे घर का चौका बरतन करती और जो कुछ पड़ोसी होने के नाते उन्हें खाना पीना दे दिया जाता उसी से सन्तुष्ट रहतीं। लेकिन राम स्वरूप के कठिन परिश्रम  और उनके बड़े भाइओं के सहयोग से कुछ ही वर्षो के पश्चात् वे एक सम्पन्न परिवार वाले हो गये थे। गाँव में ही उन्होंने परचून की दूकान भी खोल ली थी और इस प्रकार लड़कों के बड़े हो जाने पर गाँव के अगल अलग मोहल्लों में उनकी कई दुकाने हो गयी थीं और मकान भी दुकान के साथ पक्के हो गये थे। राम स्वरूप के बारे में यह संस्मरण उनके व्यक्तित्व की छाप जो हमारी आँखों में आज भी छायी हुई है, बिना किसी प्रकार का मेहनताना लिये, वे इस प्रकार के कार्य सेवा भावना से प्रसन्नता पूर्वक करते थे। ऐसे व्यक्ति अब समाज में कम ही मिलेगे।

स्वतंत्रता संग्राम एवं  स्वतंत्रता के दीवाने–

हम लोग १९४७ में चुनार कालेज में पढ़ने लगे थे। उसी साल पन्द्रह अगस्त को भारत स्वतन्त्र हुआ और कालेज में झण्डा उड़ाया गया। बगल में स्थित कचहरी में भी अधिकारियों ने तिंरगा झण्डा उड़ाया। दोनों जगह मिटाइयाँ बाँटी गयी तथा जैकारा लगाया गया - ‘‘भारत माता की जय’’ , ‘‘महात्मा गाँधी की जय’’ , ‘‘पंडित जवाहर लाल नेहरू की जय’’ , ‘‘पंडित गोबिन्द बल्लभ पंत की जय’’, ‘‘पंडित कमला पति त्रिपाठी की जय’’ आदि आदि। उसके बाद गाते हुए जुलुस भी निकाला गया तथा भाषण बाजी भी हुई। हम लोग तब न तो स्वतंत्रता को जानते थें और न इन व्यक्तियों से ही काेई लगाव था, जिनका जय कारा बोला गया। हम लोग मिटाई खा कर प्रसन्न थे। कार्यक्रम के बाद जब हमारे गाँव के लड़के लौटने लगे तो चुनार शहर के बाहरी ओर एक गिरजाघर था। कालेज के सामने भी एक पुराना गिरजाघर था। नये गिरजाघर में हम लोगों ने देखा कि एक डण्डे में तिरगां झण्डा जमीन पर गाड़ा गया है। उस झण्डे को देख कर हम लोगों के मन में यह भाव आया कि इस झण्डे को ले कर गाँव में हनुमान जी के मंदिर पर गाड़ा जाये । अग्रेजों के गिरजाघर में तिंरगे की क्या जरूरत है? अतः एक लड़के ने चारो तरफ देख कर कि कोई देख तो नहीं रहा है, डण्डे समेत झण्डे को उखाड़ लिया और हम सब लोग उसे लेकर दौड़ते हुए गाँव की ओर भागे । तभी एक मेम ने हम लोगों को देख लिया और चिल्लाने लगी। उसके कहने पर गिरजाघर का कोई कर्मचारी साइकिल से हम लोगों का पीछा करने लगा । यह देख कर हम लोग खेत खेत में भागने लगे । हम लोगों के सामने आकर उसने साइकिल रास्ते पर छोड़ दी और वह भी खेत में दौड़ कर हम लोगों के पास आ गया। और झण्ड़ा छीनने लगा। लड़के कई थे और वह अकेला था। अतः झण्डा छीन न सका । तभी गाँव के एक किसान ने यह झगड़ा देख कर पास आकर उसको डाट कर भगा दिया। इस प्रकार हम लोग झण्डा लेकर हनुमान जी मंदिर पर गाड़ कर तथा चुनार में लगे नारों को दोहरा कर इस प्रकार स्वतंत्र रूप से, भले ही गलत ढंग से, अपना पहला स्वतंत्रता दिवस मना कर आनन्दित हुए थे।

इसके पूर्व १९४२ में हमारे परिवार के ही हमारे एक चाचा परमहंस द्विवेदी स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेकर जेल गये थे। मुझे याद हैं कि वे हाथ में तिरंगा झण्डा लेकर गाँव की गलियों में गाना गाते हुए और जय कारा लगाते हुए चल रहे थे। उनके पीछे कुछ अन्य युवक तथा हम लड़के भी जलूस में चल रहे थे। गाँव के बाहर आते ही पहले से सूचना प्राप्त पुलिस आ पहुँची थी और उन्हें इक्के पर बैठा कर दरोगा पहले चुनार की जेल में और बाद में सजा हो जाने पर मीरजापुर की जेल में छ: महीने के लिए बन्द कर दिया था। जुलूस में जो गाना गाया जा रहा था उसकी कड़ियाँ थी-‘‘कदम कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा’’ । यह जिन्दगी है कौम की तुम कौम पे लुटाये जा। ऐ शेरे दिल तुम आगे बढ़, मरने से कभी न डर , फलक तलक उठा के सर, जोशे वतन बढ़ाये जा।’’ अथवा ‘‘अब दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, दिल्ली चलेगे। रोके न हम किसी को, रूके हैं, न रूकेगें। झण्ड़ा तिरंगा लाल किले पर उड़ायेगें । जै हिन्द के नारो से फलक को हिलायेगें । अगे्रज चले जायँ है ये देश हमारा, प्राणों से भी प्यारा हैं हमको जी से दुलारा। इसके लिए सर रख कर हथेली पर लड़ेगें। अब दिल्ली चलो दिल्ली चलो दिल्ली चलेगे।’’ और इसके साथ साथ नारे भी लगाये गये थे। उस समय तो नहीं, किन्तु बाद में ये कड़ियाँ मुझे याद हो गयी थीं। उस समय जिस गली से हमारे चाचा निकलते, उस घर के बुजुर्ग महिला व पुरूष उन्हें टीका लगा कर आशीर्वाद देते। जब चाचा जी पकड़ लिये गये, तो हम लोगों को डाट कर भगा दिया गया। किन्तु कुछ पुरुष उनके साथ चुनार तक गये थे। उन्हें छः महीने की सजा हुई थी। मुझे याद है कि जब वे सजा भोग कर छः महीने बाद लौटे, तो जाड़े की रात में लगभग दस बजे गंगा स्नान करने के लिए उन्हें भेजा गया। गंगा जी हमारे गाँव से लगभग चार किलोमीटर दूर हैं। गंगा स्नान करके महावीर जी के मंदिर पर पूजन और हवन कर के तब उन्हें घर में घुसने दिया गया था।

चुनार में अपनी पढ़ाई के दौरान जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो मुझे हाकी, फुटबाल, और क्रिकेट खेलने का शौक लग गया था। छुट्टी के घण्टे में हम लोगों के अध्यापक हम लोगों को सिखाते थे। चूँकि हमारे गाँव के बहुत लड़के पढ़ते थे, अतः विशेष आग्रह कर के हम लोगों ने एक फुटबाल गाँव के लिए भी मांग लिया था और रोज शाम को खलिहान में फुटबाल खेलते थे। हमारे गाँव के उत्तर और पश्चिम में जमींदार की तरफ से ही दो बड़ेबड़े समतल मैदान परती छोड़े गये थे जिसमें गर्मी के दिनों में किसान लोग अपना खलिहान लगाते थे। सब की जगहें निर्धारित थी। उत्तर वाले खलिहान में होलिका भी जलायी जाती थी। हम लोग गाँव के प्राइमरी स्कूल के सामने नाले के बाद जरगो नदी के शाखा के किनारे स्थित खलिहान में जो काफी बड़ा और चौरस था उसमें फील्ड बना कर हाकी और फुटबाल खेलते थे। इस मैंदान के पश्चिम की ओर जरगो नदी की शाखा थी। उत्तर की ओर नाला और उसके बाद प्राइमरी स्कूल। दक्षिण की ओर खेत और पूरब की ओर गाँव। इस खलिहान में गाँव के ठीक बाहर एक बहुत बड़ा बहुत पुराना इमली का पेड़ था। प्राइमरी स्कूल के सामने भी एक बड़ा सा बरगद का पेड़ था तथा नदी किनारे पश्चिम की ओर एक बड़ा सा नीम का पेड़ था। दक्षिण की ओर जहाँ हमारा खलिहान लगता था, हमारे बाबा ने छाया के लिए एक पकड़ी का पेड़ लगा दिया था। बरगद के नीचे जब गाँव में कोई बारात आती, तो वहीं पर उनका तम्बू कनात लगता था। जहाँ नाच गाने होते थे। हमारे गाँव की बालीबाल की टीम बहुत ही प्रसिद्ध थी। मुझे याद है कि जब हम लोग छोटे थे, तो राधेश्याम पांडे जो रिश्तेदारी में रह कर पढ़ते थे, सीखड़ के पास के गाँव फुलहा के निवासी थे। वे भारत की टीम में खेलते थे। एक बार बहुत दिनों के बाद जब इलाहाबाद में अन्तर प्रान्तीय बालीबाल मैच फायरबिग्रेड के मैदान में हो रहा था, तो उसमें वे खेलने आये थे, और बड़े प्रेम से हम लोग अपने बचपन को याद कर के मिले थे। वे भारत के टीम में लंका के साथ भी बालीबाल खेल आये थे। मुझे याद है कि मेरे बचपन में सामूहिक संघ के नाम से एक बालीबाल की टीम बनी थी। जो उत्तर वाले खलिहान में खेला जाता था। किन्तु लड़कों की संख्या जब बढ़ गयी और कई अच्छे खिलाड़ी अभ्यास करने से वंचित हो जाते थे, तो एक दूसरी टीम -‘‘आजाद नव युवक संघ’’ के नाम से बनायी गयी, जिसमें राधेश्याम को वैâप्टन बनाया गया। इसी टीम में हम लोग भी खेलते थे। इस टीम में बड़े अच्छे अच्छे खिलाड़ी थे। जो जिले में ही नहीं प्रान्त में भी प्रसिद्ध थे। इन खिलाडियों में ऐसे अच्छे खिलाड़ी थे जो फील्ड में रूपया रख दिया जाता था और बालिगं कर के ऐसा सटीक मारते थे, कि रूपया उलट जाता था, और बािंलग मारने वाले को वह रूपया मिल जाता था। उस जमाने में विक्टोरियाँ चाँदी के रूपये होते थे। हाकी खेलने के लिए हम लोग बबूल की डाल काट कर लोहार से उससे हाकी बनवा लेते थे। क्योंकि हाकी खरीदने की क्षमता हम लोगों के पास नहीं थी। विद्यालय से भी केवल गेंद मिल जाती थी। हाकी नहीं। क्रिकेट का खेल छुट्टी के दिनों में हम लोग विद्यालय के मैदान पर ही खेलते थे। क्रिकेट में मैं बालिंग अच्छी कर लेता था। तथा गुगली और सुर्री बाल फेंकने का मुझे अच्छा अभ्यास हो गया था। यह सब भी प्रारम्भ में मैंने पिलानी में अपनी पढ़ाई के दौरान तथा बाद में चुनार में खेलने पर अभ्यास हुआ था। जब हम लोग प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे तो उस समय गुल्ली डण्डा खेलते थे। गुल्ली डण्डा के खेल में खेलते खेलते गर्मी के दिनों में भी हम लोग मीलों चले जाते थे। और भंयकर दुपहरियाँ में भी खेलते रहते थे। इसके अलावा गाँव में रहते हुए जब पहली बरसात होती थी तो हम लोग सट्टरा और कबड्डी खेलते थे। इन खेलों में किसी वाह्य उपकरण की आवश्यकता नहीं होती थी तथा चुस्ती चालाकी और शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। सट्टरा के खेल में लड़कों की संख्या के आधार पर चार छः या आठ लड़को ंका सट्टरा खेल होता था। उनमें दो दल बन जाते थे। एक दल में जितने लड़के होते थे उतने जमीन पर आयताकार लकीरे खीच कर लगभग आठ गुणीत बारह फीट के खाने बना दिये जाते थे। एक दल इन लकीरों पर खड़ा हो जाता था। तथा दूसरे दल के लड़के एक खाने में खड़े हो जाते थे। शर्त यह होती थी कि सभी खानों में हो कर पुनः एक स्थान पर सब को एकत्रित होना पड़ता था। अगर बिना बाधा के यह लक्ष्य पूरा होता था, तो वह दल विजयी होता था। दूसरे दल के लोग पहले दल के लड़कों को दूसरे खाने में जाने से रोकते थे। हाथ पैâलाकर और दौड़ाकर उन्हें यदि उनका शरीर स्पर्श हो जाता था, तो वे आउट घोषित हो जाते थे। इस खेल में बड़ा आनन्द आता था और चुस्ती और फुर्ती दोनों आवश्यक थी। इसी तरह कब़ड्डी में भी बीच में एक लकीर खींची जाती थी तथा पीछे की तरफ भी सीमा रेखा खींची जाती थी।  बारी बारी से प्रत्येक दल का कोई व्यक्ति सांस को रोक कर एक ही साँस में कबडी, कबडी कहता हुआ दूसरे पाले में घुस कर आक्रमण करता था तथा दूसरे पाले के किसी व्याक्ति को स्पर्श कर के मध्य रेखा तक लौटना पड़ता था। शर्त यह थी कि सांस न टूटने पावे, और बिना बाधा के अपने पाले में लौट आवे, स्पर्श हो जाने पर वह व्यक्ति बाहर चला जाता था। और शेष लड़के ही आगे खेलते थे। इस प्रकार जब सभी लड़के बाहर चले जाते थे तो पहली टीम विजयी घोषित हो ती थी। यह खेल भी बिना किसी उपकरण की सहायता से शक्ति, कौशल और फुरती में वृद्धि में सहायक बनाता था। इसी तरह तुतुल मुतुल का खेल भी बड़ा आनन्ददायक होता था। सभी लड़के एक गोल घेरे में खड़े हो जाते थे। और घेरे के बाहर से एक लड़का तुतुल मुतुल पढ़ाता था और गोलाई में घूमता रहता था। वह कहता था -‘‘तुतुल मुतुल भाई तुतुल मुतुल। कहाँ क तुल भाई कहा क तुल। राज घाट कलवरीयाँ तुल । केकरे पर, और किसी लड़के का नाम लेकर कहता था इनके पर ।’’ अब जिसका नाम लिया जाता था वह गोल घेरे के बाहर भागने की कोशिश करता था और अन्य लड़के उसे मारने लगते थे। बाहर वाला लड़का किसका नाम लेगा यह किसी को पता तो रहता नहीं था, इसलिए सब अपने बचाव में भी रहते थे और नाम लिये जाने पर उस लड़के को मारने का भी उत्साह रहता था। इस प्रकार सब आनन्दमग्न होते थे। इसी तरह बगीचे में होड़वापताल का खेल खेलते थे और जो लड़का एक फेंके हुए डण्डे को उठा कर सबसे पहले पेड़ पर चढ़ जाता था वह विजयी होता था। बचपन की ये बातें आज भी याद करके मन आनन्द से भर जाता है। बचपन में हम लोग नदी में नहाते थे। और वहीं तैरना भी सीखे थे। आज की तरह तब जरगो नदी में कीचड़ और मिट्टी नहीं थी। नीचे बालू रहता था और पानी बड़ा साफ। नदी की गंदगी तो जरगो बन्धा बन जाने के कारण बढ़ गयी है। हम लोग नदी में घण्टों नहाते थे। और भीगे जाँघिये में उâपर करारी पर से फिसल कर छपाक से पानी में गिरना फिसलते हुए बड़ा अच्छा लगता था। करार की चिकनी मिट्टी इसमें सहायक बनती थी। शहरों में तो फिसलने के लिए सीमेन्ट और लोहे के इस प्रकार के बनावटी उपकरण बनाये जाते हैं। गर्मी के दिनों में बड़ी बड़ी बाँस की लग्गियाँ लेकर हम लोग बबूल के गोद एकत्रित करते थे। तथा खेलने के लिए खेत से रेणी भी बीनते थे।

कहाँ तक गिनाऊ मेरे बचपन की हमारे गाँव की विशेषताएँ एक एक कर के याद आ रही हैं । उस समय जघिंया हाफ कमीज और कुर्ता पहन कर हम लोग जाड़ा, गर्मी, बरसात सब मौसमी मार को बिना कष्ट के झेल लेते थे। एक बार की घटना मुझे याद हैं। हमारे गाँव में मुसलमानों की भी काफी बड़ी बस्ती है, जो बनारसी साड़ी बनाने का काम करते हैं। गाँव में कइयों ने अपने करघे बना रखे हैं। जिस पर बनारस से रेशम लाकर वे साड़ियाँ बिनते है और वे बनारस में ले जा कर बेचते है। ये लोग मुहर्रम के दिनों में ताजिये का जुलूस निकालते थे। कागज से खूब सजाकर बड़े और छोटे ताजिये बनाये जाते थे और रात में वे लेकर गँवारा घूमते थे। जगह-जगह इन ताजियों पर हिन्दू औरतें भी माला फूल इत्यादि चढ़ाती थीं और बाजे गाजे के साथ हसन हुसैन कहते हुए ताजियें का जुलुस निकलता था। एक बार भयंकर जाड़े में जब यह जुलूस हमारे दरवाजे पर से गुजरा तो हम कई लड़के केवल जाघिया पहन कर बिना गन्जी या कमीज के जुलुस के साथ हो लिये जब यह जुलूस जमीदार की छावनी पर पहुँचा तो वहा तलवार भाले और बनेटी इत्यादि भाँजने के खेल होने लगे । उस खेल को देखने में हम लोग मस्त थे। तभी जमीदार के मुंशी की निगाह हम लोगों पर पड़ी और जमीदार ने अपने मनसबदार से पूछा ये लड़के किसके घर के हैं। जब मनसबदार शिवसागर दूबे जो हमारे ही परिवार के थे उन्होंने बताया कि ये बड़का पंडित जी के नाती है तब उन्होंने अलाव जला कर हम लोगों को तापने के लिए कहा और ओ़ढ़ने के कम्बल भी दिया। खेल खत्म होने के बाद जब हम लोग घर आने लगे तो हमारे परिवार के साथ के पाँच छ: लड़कों को दो दो लड्डू भी दिया। घर पहुँचने पर जब बाबा को इस बात का पता चला तो वे बहुत नाराज हुए और कहने लगे। तुम लोग हमारी बदनामी कराओगे। सबेरा होने पर जमीदार के मुंशी लाला जी ने स्वयम् आ कर बाबा को इस घटना की सूचना दी थी। ऐसे मौके पर ही बाबा की पूज्यनीयता और श्रेष्ठता का पता हम लोगों को प्राप्त होता था। बाबा के सामने मुंशी जी खंड़े ही रहते थे। कभी भी कहने पर भी खाट पर नहीं बैठते थे।

मदन मोहन मालवीय विद्यालय में–

चुनार में एक और नया विद्यालय खुल गया था। जो छात्रों के अभाव में अधिक दिन नही चल पाया था। इस विद्यालय में मेरे एक चाचा पंडित श्रीधर द्विवेदी जो पहले कलकत्ता में मेरे पिता जी के साथ ही रह कर ट्यूसन करते थे, तथा एकाध फिल्म में भी उन्होने छोटा मोटा काम किया था, ऐसा वे बताते थे। वे भी बँटवारे की वजह से कलकत्ता छोड़ कर गाँव में आ कर बस गये थे तथा कुछ दिन मालवीय विद्यालय में अध्यापक भी रहे। इनके अलावा पंडित राम प्रसाद पांडेय भी उस विद्यालय में संस्कृत के अध्यापक थे। इस विद्यालय में ६ से १० तक पढ़ाई होती थी। अत: अधिकांश विद्यार्थी यहाँ तीन के बाद सीधे ६ में आ गये और पिछली कमी दूर हो गई। श्रीधर चाचा के छोटे भाई बंशीधर जो किसी बात पर श्रीधर चाचा से नाराज हो कर घर से भाग गये थे उनका जूता और गमछा नदी किनारे पड़ा हुआ मिला था। उनका कुछ पता नहीं चला कि क्या हुआ। कुछ लोगों ने उन्हें मुगलसराय में गाड़ी में बैठते हुए देखा था। किन्तु वे कहा गये जिन्दा है या मुर्दा कुछ पता नहीं चला। कुछ लोग उन्हें मारीशस चले जाने की भी बात कहते थे। किन्तु सही बात का पता नहीं चला । श्रीधर चाचा को बाद में तपेदिक रोग हो गया था। उन्हें पिता जी दिल्ली में अपने पास रख कर उनका इलाज करवाये और ठीक होने पर वे पुनः गाँव आ गये।

गाँव में मेरी पढ़ाई सुचारु ढंग से नहीं हो पा रही थी। बाबा का स्वर्ग वास हो चुका था। बड़े बाबू जी भी जो प्राइमरी स्कूल में प्रधानाध्यापक थे दमे के रोगी थे। उन्हें हाइड्रोसील भी हो गया था। वे घर गृहस्थी के काम में बहुत समय नहीं दे पाते थे। उनके बड़े लड़के सुधाकर की शादी हो चुकी थी। किन्तु वे भी गृहस्थी से लापरवाह रह कर अपने वैवाहिक आनन्द में ही मस्त रहते थे। इस लिए पढ़ाई के साथ साथ मुझे और दिवाकार को ही गृहस्थी का अधिकांश काम करना पड़ता था। सबेरे जानवरों के लिए खेत से काट कर चरी लाना, मशीन में उसे कुट्टी काटना, घर व पशुओं के लिये लगभग दोनों समय सुबह और शाम पचास पचास बाल्टी पानी भरना और स्कूल भी जाना आना यह सब पढ़ाई के साथ साथ हम लोगों को करना होता था। इसकी शिकायत  हमारे पिता जी की एक बुआ ने जो उन्हें बहुत मानती थी मेरे पिता जी से की और कहा कि पढ़ाना हो तो प्रभाकर को अपने साथ दिल्ली ले जाइये। यहाँ रह कर उसका जीवन चौपट हो जायेगा। पिता जी ने उनकी सलाह को मान लिया और मुझे अपने साथ दिल्ली लेते गये।

दिल्ली प्रवास–

गाँव में मैं और लड़कों की तरह ही सामान्य जाघिंया और हाफ कमीज पहन कर स्कूल जाता था। मेरे पास जूता भी नहीं था। अतः दिल्ली जाने के पूर्व पिता जी मुझे बनारस ले गये । और वहाँ बूट, प्ोटी, तथा दो जोड़े हाफ पैन्ट और हाफ कमीज अच्छी क्वालिटी का खरीद दिये । मेरा बाल भी एक सैलून में ले जा कर कटवा दिये किन्तु मेरी चुटियाँ खूब बड़ी सी बनी रही । दिल्ली जाने के लिए मैं पहले मुगलसराय गया और वहाँ से कालका मेल में बैठ कर पिता जी के साथ दिल्ली के लिए रवाना हुआ। रास्ते में जब गाड़ी वैâलहट के सामने आयी तो पिता जी ने मुझे दिखाया की वो सामने गाँव दिखाई दे रहा है। वैâलहट और मुगलसराय के रास्ते से मैं परिचित था। ननिहाल जाते वक्त कई बार मैं उस रास्ते से आया गया था। अतः सारे स्टेशन और दृश्य मुझसे पूर्व पूर्व परिचित थे। मैं सबको देखता हुआ विशेष कर शिवशंकरी देवी का दर्शन में हाथ जोड़ता हुआ गया। जब पिता जी ने मुझे गाँव दिखलाया तो मैने ये सारी बाते उन्हें बतलाई और वे सुन कर प्रसन्न हुए । विन्ध्याचल तक सारे स्टेशन मेरे जाने सुने थे। किन्तु उसके बाद के स्टेशनों से मैं अपरिचित था। क्योंकि उसके आगे कभी नहीं गया था। इलाहाबाद में जब जमुना पुल से गाड़ी गुजरने लगी तो पिता जी ने बताया कि ये जमुना नदी है। और उधर दूर गंगा नदी दिखाई दे रही है। यहाँ दोनों का संगम हुआ है। हर साल यहाँ बहुत बड़ा मेला लगता है। तब हमें क्या पता था कि इस इलाहाबाद में ही मेरा कार्य क्षेत्र बनेगा और यही मेरी जिन्दगी के अमूल्य दिन बीतेंगे। उसके बाद मुझे नीद आ गयी और पिता जी ने मुझे उâपरी बर्थ पर सुला दिया। जब मेरी नीद खुली तो पिता जी ने मुझे खाने के लिए कहा और इस प्रकार रात दस बजे के लगभग मैं दिल्ली पहुँचा। वहाँ आटों रिक्शा पर बैठ कर लोदी रोड में पिता जी के आवास पर पहँुच गया तथा भोजन कर के सो गया।

सबेरे नीद खुलने पर नित्य क्रिया से निवृत्त होने पर, पिता जी ने मुझे पांडे बेचन शर्मा उग्र से मिलवाया। उनके कहने के अनुसार मैंने उन्हें प्रणाम किया। उग्र जी उस समय रसोई घर में बैठ कर नंगे बदन मात्र एक गमछा पहन कर सील बट्टे पर भांग पीस रहे थे। पिता जी ने जब जा कर उनसे कहा कि ये प्रभाकर हैं, तब उग्र जी मेरी ओर देख कर बोले -‘‘हमारे तरफ के लड़कों का व्यक्तित्व ही एक विशेष प्रकार का होता है।’’ मैं उन्हें प्रणाम कर दूसरे कमरे में आ गया तथा रेडियों पर गाने सुनने लगा। पिता जी के पास उस समय बड़ा सा रेडियों सेट था। जिसको बजाना उन्होंने मुझे सिखा दिया था, तथा आकाशवाणी में फोन कर के मुझे फोन करना भी सिखा दिया था। पिता जी के कार्यालय चले जाने पर मैं अक्सर आकाशवाणी फोन कर समय पूछा करता था। और किसी का नम्बर हमें मालूम नहीं था। अतः शौकिया आकाशवाणी ही फोन करता। मेरे घर के बरामदे से सामने दूरी पर कुतुबमीनार दिखाई देता था। पिता जी ने उसका इतिहास मुझे बतला दिया था।  मैं जब भी खाली रहता उसको निहारा करता । इसके अलावा चूँकि पास में ही विलिग्डन एयरर्पोट था। अतः जहाज हमारे घर के सामने से ही आते जाते थे।  तथा काफी नीचे हो जाने के कारण बहुत बड़े दिखाई देते थे। जब भी जहाज आता मैं शौक से उसे निहारा करता। ये सब मेरे लिए आश्चर्य जनक घटनायें थी। मेरे आवास के सामने ही सड़क के उस पार तम्बुओं में पाकिस्तान से आये हुए शरणार्थियों के लिए एक स्कूल भी चलता था। जिसमें छोटे बड़े सभी बच्चे पढ़ते थे। और मैं उनका आनन्द लेता रहता था।

२२/१०५ लोदी रोड़ के आवास में दो कमरे, दोनों तरफ दो बरामदे, रसोई घर, तथा शौचालय और स्नान घर था। हम लोग पहले तल्ले पर रहते थे। तथा उâपर छतपर जाने के लिए सीढ़ियाँ लगी थीं। शाम को हम लोग ऊपर छत पर ही सोते थे। छत पर भी एक बरामदा बना हुआ था, जिसमें बारिश आदि से बचने के लिए हम लोग अन्दर चले जाते थे। बाद में यही बरसाती मेरा अध्ययन कक्ष बन गयी थी। और मेरे बाद ‘उग्र जी’ इसी बरसाती में अपना आवास बना लिये थे। जिसमें जाने का सौभाग्य मुझे कुछ वर्षो बाद मिला था।

पिलानी प्रवास–

दिल्ली में मैं एकाध महीने ही रह पाया था। तथा लालबहादुर शास्त्री और राजेन्द्र बाबू के सुझाव पर पिता जी ने अपने एक मित्र श्री शिव नरायण शुक्ल के लड़कों के साथ मुझे पिलानी में बिरला हाईस्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया था। पिलानी राजस्थान में बिरला जी की जन्मस्थली है। जहाँ उन्होंने काफी पैसा खर्च करके जंगल में मंगल, अथवा रेगिस्तान में नखलिस्तान के रूप में एक नगर बसा दिया है। हाईस्कूल के अलावा वहाँ उस समय इंजिनियरिंग कालेज तथा मेडिकल कालेज भी खुल गये थे। एक बहुत बड़ा सर्व सुविधा सम्पन्न अस्पताल भी बन गया था। पिलानी जाने के लिए दिल्ली से हम लोग पहले टे्रन से रिवाड़ी होते हुए लोहारू जंक्शन पर पहँुचे और वहाँ से बस के द्वारा पिलानी पहँुचे । पिलानी नगर एक दम रेगिस्तान में बसा है। उस समय सड़क के नाम पर रेत में होते हुए बस गयी थी। चारों ओर बालू ही बालू के टीले तथा कीकर के जंगल दिखायी देते थे। कहीं किसी बस्ती का नामो निशान नहीं था। जब हम लोगों की बस  पिलानी पहँुची, तो छात्रावास के सामने हम लोग उतर गये और वहाँ प्रवेश सम्बन्धी सारे आवश्यक कार्य पिता जी और शुक्ल जी मिल कर करा दिये। वहाँ दो छात्रावास थे - ‘ए ब्लाक’, तथा ‘बी ब्लाक’। ‘ए ब्लाक’ में कालेज के लड़के रहते थे। तथा ‘बी ब्लाक’ में छोटे क्लासों के बच्चे। अतः हम लोगों को ‘बी ब्लाक’ में कमरा नम्बर २९ में जगह मिली । दोनों ब्लाक काफी बड़े बड़े थे। प्रायः चौकोर से जिनके चारों ओर बड़े बड़े कमरे बने हुए थे तथा बीच में लान और बगीचा था। कमरों के आगे तथा कमरों में भी पत्थर की फर्श बनी हुई थी तथा दोनों ब्लाकों के बीच में सर्व सुविधा सम्पन्न रसोई घर था। उस समय लकड़ियों से ही भोजन बनता था। जिनके लिए अलग कमरे थे। कमरे के बाहर बड़ा सा बरामदा था। जिसमें मोजैक की मेंजे तथा बैठने के लिए मोजैक की ही चौकियाँ भी बनी हुई थीं। फर्श भी पत्थरों की बनी हुई थी। तथा मक्खी मच्छरों से बचने के लिए खिडकियों और दरवाजों पर जालियाँ लगी हुई थी। दोनों ब्लाकों के बीच में बने इस रसोई घर के सामने एक बहुत बड़ा बगीचा था। जिसके बीचों बीच पत्थर के गोले तालाब में एक सीमेन्ट का बहुत बड़ा सारस बनाया गया था, जिसके मुँह से हमेशा फौवारा निकलता रहता था। छात्रावास के बाहर भी चार दीवारी के अन्दर बहुत से फूल पत्ते पेड़ पौधे लगे थे, जिससे चारों ओर हरियाली बनी रहती थी। इसके बाद चार दीवारी में एक बड़ा सा फाटक बना हुआ था, जो कभी कभार ही खुलता था। फाटक के अन्दर एक छोटा फाटक भी था, जिससे होकर हम लोग अन्दर आते जाते थे। बड़े फाटक के अगल बगल दोनों ब्लाकों के छात्रावास अधीक्षकों के आवास थे। जिनमें बैठ कर फुरसत के समय में हम लोग रेडियों सुनते थे। कमरों में हम लोगों को एक एक चौकी मिली हुई थी। पिता जी ने एक दरी, एक चदरा, एक तकिया , एक रजाई तथा एक ओढ़ने के लिए अन्य चदरा खरीद दिया तथा एक वक्स भी दे दिया। जिसमें हम अपने कपड़े तथा किताबें इत्यादि रखते थे। छात्रावास से विद्यालय लगभग एक किलोमीटर दूर था। हम लोग स्नान घर में स्नान करके तथा स्कूल ड्रेस में विद्यालय जाते वहाँ का स्कूल ड्र्रेस था खाकी हाफ पैन्ट, सफेद हाफ कमीज, सफेद जूता, एवम् सफेद मोजा। यह सब भी पिता जी ने मेरे लिए व्यवस्था कर दी। मैं और शुक्ल जी लड़के रमेश और सुरेन्द्र तथा दिल्ली के ही घण्टे वाले हलवे के दुकानदार का लड़का जय प्रकाश एक कमरे में रहते थे। शुक्ल जी का बड़ा लड़का जो नवी कक्षा में पढ़ता था, वह बगल के दूसरे कमरे में रहता था। वहाँ स्कूल जाने के पूर्व भोजनालय से कभी पूडी, कभी पराठा कभी हलवा , कभी पकौड़ी मिल जाती थी। चाय का चलन तब नहीं था। नास्ता कर के हम लोग विद्यालय जाते और दोपहर में भोजन की छुट्टी में आ कर मेस में भोजन करते। भोजन भी वहाँ दो प्रकार की दालें, दो प्रकार की सब्जियाँ, चावल, दाल, रोटी मिलती। इस सम्बन्ध में मुझे एक बात याद हैं कि मैं गाँव से गया था। और पहले दिन जब मेस में गया तो वहाँ सब्जी और दाल दो तरह की बनती थी। एक मिर्च मसाले वाली और दूसरी सादी। परोसने वाले ने जब मुझसे पूछा कि कौन सी सब्जी लेंगे तो मैने अपने गाँव की बोली में तीतकी शब्द का प्रयोग किया। जिसको परोसने वाला समझ नहीं पाया। कई बार पूछने पर तब हमारे बगल के लड़के ने बतलाया कि ये मिर्च मसाले वाली सब्जी चाहते है। बात ये थी कि वहाँ अधिकाशं लोग पंजाबी और राजस्थानी थे। छात्र भी अधिकांश ऐसे ही थे। वहां तीन प्रकार के छात्र पढ़ते थे। एक पंजाबी शरणार्थी जिन्हें खाना, पीना, आवास, वस्त्र तथा पुस्तकें सब बिरला परिवार द्वारा मुफ्त में दी जाती थी। इन्हें शरणार्थी कोष से ये सारी सुविधाएँ दी जाती थी। दूसरे प्रकार के छात्र बिरला मिल से सम्बन्धित थे, जिन्हें मिल कोष से आधी सहायता मिलती थी, और आधा स्वयम् भुगतान करना पड़ता था तथा तीसरी श्रेणी में हम लोग आते थे जिनको सारा भुगतान स्वयम् करना पड़ता था। भोजन वहाँ हर रविवार और त्यौहारों पर विशेष बनता था। जिसमें पूड़ी, कचौड़ी, खीर, मिठाई तथा फल आदि खाने को दिया जाता था। लेकिन उस दिन एक ही समय भोजन थोड़े देर में मिलता था। शाम को प्रत्येक दिन स्कूल से आते ही एक एक गिलास मेवा और चीनी मिश्रित खूब उबाला हुआ गाढ़ा दूध मिलता था। तथा कमरों के हिसाब से प्रत्येक कमरे के छात्र को उसकी बारी आने पर मलाई और मेवे दार दूध मिलता था। अतः खाने पीने की तथा रहन सहन की भी वहाँ अच्छी व्यवस्था थी। दूध पीने के बाद वहाँ एक और नियम था कि शाम को फील्ड में आकर सभी विद्यार्थी और अध्यापक एक साथ पी० टी० करते थे। जिसमें काफी कसरत हो जाती थी।

छुट्टी के दिनों में अधिकांश लड़के वहाँ एक कृत्रिम नहर में नहाने जाते थे। यह नहर कुछ दूरी पर थी। सड़क से जाने में लगभग तीन किलोमीटर तथा छोटे रास्ते से जंगल से होकर जाने पर लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर थी। तालाब के चारों ओर बहुत सुन्दर बगीचा था। सड़कों के दोनों ओर बिजली के खम्भे तथा हर प्रकार के खाने पीने की दुकानें थी। नहर गोलाई में लगभग एक किलोमीटर के घेरे में बनी हुई थी। जो लगभग छः मीटर चौड़ी थी। जिसमें पक्की फर्श तथा दीवाले बनी थी। फर्श ऐसे बनी हुई थी कि बीच में लगभग पाँच फीट जल होता था। तथा किनारे कि ओर केवल तीन फीट वैâनाल के अन्दर की ओर एक भव्य महल तथा बगीचा था। जिसमें बिरला परिवार के लोग आ कर रहते थे। उनका वास्तविक पुस्तैनी आवास तो पिलानी शहर में ही था। किन्तु यह बँगला एक आरामगाह के रूप में उपयोग में लाया जाता था। इस बँगले के आगे एक बहुत बड़ी सीमेन्ट की बनी हुई शिव जी मूर्ति थी। जो कई सीढ़ियों पर से होकर नहर के पास तक आती थी। शिव जी की जटा में से हमेशा पानी की एक मोटी धार गिरती रहती थी। जो नालियों के माध्यम से नहर में आ जाती थी। और पम्प के द्वारा फिर वह शिव जी जटा में से निकलती रहती थी। अतः नहर के पानी में ताजगी के साथ साथ हल्का बहाव भी रहता था। पानी को ट्यूबवेल से खींच कर जटा के माध्यम से हमेशा ताजा पानी बहता रहता था। नहर का पानी बाहर बगीचे की िंसचाई के लिए उपयोग में लाया जाता था। इस नहर में नहाने का अपना ही आनन्द था। मेरे जैसे नदी में तैरने वाले व्यक्ति के लिए एक तैरने का स्थान मिल गया था। वहाँ की हर चीज मेरे लिए नई थी। और मैं सब का आनन्द लेता था।

छात्रावास का कार्यक्रम बड़ा नियमित था। सबेरे चार बजे जगाने की घण्टी बज जाती थी। शौचालय और स्नान घर कई थे। अतः कोई असुविधा नहीं होती थी। स्नान से निवृत होकर हम लोग कुछ देर पढ़ाई करते। छः बजे जल पान की घण्टी बजती, साढे छः बजे तक जलपान कर के स्कूल ड्र्रेस में हम लोग सात बजे विद्यालय पहँुच जाते थे। वहाँ सड़कें रेत की थी। लोग बताते थे कि नीचे ककंरीट बिछी हुई है। किन्तु बालू के आगे उसका कुछ अता पता नहीं था। विद्यालय में पढ़ाई की सारी सुविधायें थी। यह विद्यालय बिरला एजुकेशन ट्रस्ट के द्वारा संचालित होता था। जिसके महा प्रबन्धक उस समय सुखदेव प्रसाद पाण्डेय नाम के कोई वरिष्ट अधिकारी थे। यह ट्रस्ट देश भर में पैâले हुए बिरला के स्कूलों का प्रबन्ध देखता था। विद्यालय में जाते ही प्रार्थना होती थी। जिसमें सभी अध्यापक और विद्यार्थी भाग लेते थे। वहाँ के अध्यापक बड़े ही सुयोग्य थे । वहाँ के चित्रकला के अध्यापक भूर सिंह जी ने मेरी मात्र दो मिनट में पेंसिल से चेहरे का एक रेखा चित्र बनाया था, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है। विज्ञान की प्रयोगशाला बहुत ही उच्च कोटि की थी। जिसके अध्यापक कौल साहब के पढ़ाने का ढंग आज भी मेरे मस्तिष्क में बना हुआ है। यह सब बातें मैं १९५० की बता रहाँ हूँ, जब मैं वहाँ का विद्यार्थी था और कक्षा सातवीं में पढ़ता था। उस समय मट्टू जी नाम के प्रधानाचार्य थे, जो हमेशा सफेद रंग के पैंट और कोट पहनते थे। १९५० में उस साल संयोग से बिरला एजुकेशन ट्रस्ट की स्वर्णजयन्ती मनायी जा रही थी। जिसमें अलग अलग कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पधारे थे। इनके अलावा जयपुर के महाराजा सवाई मान सिंह जी भी अपनी सुन्दर पत्नी गायत्री देवी के साथ पधारे थे। सवाई मान सिंह विश्व प्रसिद्ध पोलो के खिलाड़ी थे और मुझे ऐसा बतलाया गया था कि किसी राजा ने उनके पोलो के खेल को देख कर के ही अपनी कन्या गायत्री देवी को उन्हें पुरस्कार स्वरूप भेंट कर दिया था और वे इस प्रकार विवाह बन्धन में ब्ाँध गये थे। वहाँ के सरस्वती मंदिर की आधार शिला राष्ट्रपति ने रखी थी, तथा इंजिनियरिग कालेज का उदघाटन नेहरू जी ने किया था। इस स्वर्णजयन्ती समारोह के उत्सव को देखने का सौभाग्य मुझ जैसे देहाती लड़के के लिए बड़ा ही आश्चर्य जनक लगा था। उन्हीं कार्यक्रमों में मैंने पहले पहल कवि सम्मेलन भी सुना था, जिसमें हरिबंशराय बच्चन, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, गोपाल व्यास आदि पधारे थे। बच्चन जी की ‘मधुशाला’ सुनने के लिये छात्रों में होड़ सी लग गयी थी। चूंकि मेरे अन्दर भी कविता के प्रति लगाव के बीज बचपन से ही जम गये थे, अतः मैंने इन कवियों की कविताओं को बड़े श्रद्धा के साथ सुना। कविता के प्रति मेरी समझ तो उस समय नहीं थी, किन्तु श्रोताओं के उत्साह का आनन्द मैं लेता रहा और भाव विभोर हो गया था। उस साल इंजिनियरिगं कालेज में एक प्रदर्शनी भी लगी थी, जिसमें वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान का प्रदर्शन किया गया था। पहाड़, नदियाँ , रेलवे लाइन, पुल, और उन पर चढ़ती उतरती रेल गाड़ियाँ, सड़कों पर चलती बसें, उड़ते हवाई जहाज और हवाई अड्डे, आकाशवाणी की प्रसारण प्रक्रिया, सेना के टैंक, इत्यादि माडल के रूप में प्रदर्शित किये गये थे, जिन्हें देख कर भारत की भविष्य की अनोखी झाँकी, विकास की विविध योजनाएँ, बाँध , विद्युत उत्पादन, आदर्श गाँव, शिक्षा व्यवस्था, नगर, आवश्यक आधुनिक सुविधाएं, सब कुछ बड़े ढंग से प्रदर्शित किया गया था। बिरला बन्धुओं का शिक्षा के प्रति अनूठा योगदान जो सम्भवतः १९००-१९०१ में  पड़ा होगा, जो निश्चय ही अमूल्य योगदान रहा होगा । भारत में उस समय ब्रिटिश हुकूमत होते हुए भी इन भारतीय मनीषियों द्वारा भारतीय संस्कारों के अनुरूप शिक्षा का प्रचार प्रसार करने का संकल्प लेना निश्चय ही प्रशंसनीय है।  इस क्रम में पूरब में राजा राम मोहन राय, पश्चिम में स्वामी दयानन्द सरस्वती, उत्तर में पंडित मदनमोहन मालवीय तथा सरसैयद अहमद खाँ तथा दक्षिण में सुब्रहमणयम भारती का योगदान निश्चय ही प्रशंसनीय है। पिलानी चूंकि बिरला बन्धुओं की जन्म भूमि है, अत: वहाँ उनका पैतृक आवास आज भी अपने पुराने रूप में ही सुरक्षित रखा गया है।

बिरला जी के पूर्वज बहुत ही गरीब थे। वे गाय चराया करते थे, तथा गाय बैलों का व्यापार करते थे। १९५६ में काशी के गाय घाट में स्थित उनके आवास पर मैंने बलदेव दास बिरला को देखा था। पंडितो के सुझाव पर वे काशी वास कर रहे थे। उन्हें नित्य कुर्सी समेत उनके सहायक नित्य गंगा स्नान कराते और फिर उन्हें लाकर उनके कमरे में बैठाया जाता था। उनके भोजन में चम्मच से मात्र कुछ औषधीय चीजें ही दी जाती थीं। बलदेव दास बिरला से ही उनके उत्थान का प्रारम्भ होकर घनश्याम दास बिरला और उनके पुत्रों ने आज इतना विशाल आर्थिक साम्राज्य बना डाला है। बिरला परिवार से चूँकि मेरे पिता जी भी जुड़े रहे, अत: उनके बारे में पिता जी हम को अक्सर संस्मरण सुनाया करते थे, जिसको सुन कर मुझे आश्चर्य और सहानुभूति दोनों साथ साथ होती थी। जब मै अपने एक चाचा पंडित भगवती प्रसाद द्विवेदी तथा उनके सुपुत्रों के साथ बलदेव दास बिरला से मिलने गया था तो वहाँ हम लोगों को जलपान में फल, मेवा और मिठाई मिली थी, तथा चार चार तिल के लड्डू जिसमें रूपये पड़े हुए थे, दक्षिणा के रूप में मिले हुए थे। चाचा जी को एक शाल भी मिला था। सम्भवतः ब्राह्मण होने के नाते और खिचड़ी का त्योहार होने के नाते चाचा जी को विशेष रूप से बुलाया गया था। उस समय चाचा जी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक थे, तथा मालवीय जी से उनकी बड़ी निकटता थी। मालवीय जी के जीवन चरित्र की एक अमूल्य पुस्तक है जिसमें मालवीय जी के साथ तथा अन्य अध्यापकों के साथ उसमें मेरे चाचा श्री भगवती प्रसाद जी का चित्र भी लगा हुआ है।

इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना याद आती है कि बहुत दिनों के बाद जब मैं अध्यापक हो गया था तो आजममढ़ के कप्तान गंज में प्रायोगिक परीक्षा लेने गया था। वहाँ से कुछ ही दूरी पर मेरे साले के साढू का गाँव तेरही  है। जब उन लोगों को पता चला, तो वे बड़े आदर से मुझे अपने गाँव लिवा ले गये । वहाँ उनके बैठक में वही चित्र टँगां हुआ था, जिसे देख कर मैंने पूछा, यह चित्र आपके यहाँ क्यों लगा है? उन्होंने बताया कि यह मेरे बाबा हैं, पंडित वामदेव मिश्र जो मालवीय जी के साथ संस्कृत विद्यालय में अध्यापक थे। तब मैने भी बताया कि मालवीय जी के बगल में ये मेरे चाचा हैं। यह सुन कर वे हँस पड़े। चाचा जी घर गृहस्थी में इतने व्यस्त थे कि अक्सर आ कर गाँव में कई दिन रह जाते थे। यह बात मालवीय जी को पसन्द नहीं थी। अतः एक दिन किसी बात को ले कर के मालवीय जी ने उनसे इस्तीफा ले लिया और बाद में चाचा जी गाँव के पास ही भुणकुणा गाँव में संस्कृत अध्यापक के रूप में काम करने लगे। तब वे गाँव छोड़ कर के पारिवारिक विवाद के कारण चुनार में रहने लगे थे। चुनार से भुणकुणा लगभग १२ किलोमीटर दूर है। रोज सबेरे ही उठ कर जो कुछ मिल जाता खा पी कर वे विद्यालय चले जाते और लौट कर पुनः घर गृहस्थी का काम देखना पड़ता। कभी कभी बनारस भी जाना पड़ता, क्योंकि उनके लड़के उस समय बनारस में रह कर ही अध्ययन कर रहे थें। इतना बड़ा परिश्रम उनके उâपर पड़ता था जिसका नतीजा हुआ उनका स्वास्थ्य गिरता गया और सन् १९५५ में वे स्वर्गवासी हो गये। तब उनके लड़के असहाय हो गये। किन्तु विश्वविद्यालय में उन्हें फीस नहीं देनी पड़ती थी और कुछ आर्थिक सहायता भी मिलने लगी थी। उनके मामा जो बहुआरे के रहने वाले थे एक सम्पन्न गृहस्थ थे और उन्होंने ऐसी स्थिति में उनके राशन आदि का सारा जिम्मा अपने उâपर ले लिया। उनके मामा के एक लड़के श्री राम तिवारी भी इन लोगों के ही साथ हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। मैं भी कुछ दिन इन लोगों के साथ ही द्वारिकाधीश के मंदिर में, जो अस्सी पर स्थित है, रह चुका हूँ। वहाँ हम लोग स्वपाकी थे और अगंींठी और लकड़ी के कोयले पर तब भोजन बनाते थे।

पिलानी में मैं एक साल ही रह पाया। वहाँ की एक घटना मुझे याद है। हम लोग कक्षा में पढ़ रहे थे, शाम का समय था। एकाएक गड़गड़ाहट की आवाज हुई और सारी विल्डिंग हिलने लगी तथा सामने का  बिरला टावर जिसमें बड़ी सी घड़ी लगी थी, जोर-जोर से हिलने लगी। जंगल में मोर, कौये तथा अन्य पक्षी जोर जोर से चिल्लाने लगे। नीचे प्राचार्य मंट्टू जी चिल्ला चिल्ला कर छात्रों को नीचे उतरने के लिए कहने लगे। उसी समय हमारी कक्षा के आसाम के रहने वाले छात्र यह कहते हुए भागे कि भूकम्प आ गया है। हमारे लिए ये बिल्कुल नयी चीज थी। जब तक मैं समझ पाता तब तक भूकम्प समाप्त भी हो गया। और हम भयभीत से होकर धीरे-धीरे सीढ़ियों से उतर कर नीचे आये। इसके पहले भूकम्प के बारे में मेरा कोई अनुभव नहीं था।

पिलानी में गर्मी के दिनों में मुझे एकाएक दोपहर में बहुत तेज बुखार आ गया, तथा सारे बदन में चेचक के दाने उभर आये, मैं बेहोश हो गया। मुझे कुछ भी पता नहीं कि किस प्रकार ये सूचना छात्रावास अधीक्षक को मिली और वैâसे मैं तुरन्त अस्पताल पहुँचाया गया। दूसरे दिन प्रातः काल जब मुझे होश आया तो मैंने देखा, की अस्पताल का एक कर्मचारी पोटास के पानी से मेरा देह साफ कर रहा है। मुझे दो तीन दिन अस्पताल में ही गुजारना पड़ा, उस समय मेरी परीक्षायें चल रही थीं। एकाध ही विषय बचे थे, जब मैं अस्वस्थ हो गया था। परन्तु मेरे पिता जी को सूचना दी गयी, वे आये और मुझे दिल्ली ले गये। बाद में मेरे एक सहपाठी श्री राम शर्मा ने कार्ड द्वारा मुझे सूचित किया कि मै सफल घोषित किया गया हूँ। यह जान कर मुझे प्रसन्नता हुई। सम्भवत: मेरे छमाही के अंकों के अनुसार प्रश्न पत्र छूट जाने के बावजूद मुझे सफल घोषित किया गया था।

हमलोगों के छात्रावास अधीक्षक भूषण जी थे। तथा ए ब्लाक के छात्रावास अधीक्षक बनारस के निवासी रामसजीवन दूबे जी थे। जिन्होंने मुझसे मेरे बारे में काफी जानकारी प्राप्त कर ली थी, और एक तरह से मेरे स्थानीय संरक्षक बन गये थे। छात्रावास की ओर से भूषण जी के पास एक रेडियों सेट था, जो बरामदे में रखा रहता था, और छात्र अपने मन के अनुसार उसका लाभ उठाते थे। मेरे लिये ये सब चीजें नयी थी। यद्यपि दिल्ली में जहाँ मैं कुछ ही दिन रह पाया था, और पिता जी के पास भी एक रेडियों सेट था, जिसे पिता जी ने मुझे बजाना सिखा दिया था, तथा टेलिफोन करना भी सिखा दिया था। पिता जी ने मुझे आकाशवाणी का नम्बर भी बता दिया था, और मैं शौकियाँ फोन कर के आकाशवाणी से समय की जानकारी प्राप्त करता था।

दिल्ली में रहते हुए पिता जी के शौक के अनुसार मुझे भी भोजन के साथ दही तथा बाद में आम खाने की आदत पड़ गयी थी। पिता जी खाने पीने के बहुत शौकीन थे और हर मौसम में मौसमी फल अवश्य खाते थे।

पिलानी में विद्यालय की एक अच्छी व्यवस्था यह भी थी कि शाम के समय विद्यालय के सभी छात्र और सभी अध्यापक एक साथ खेल के मैदान में एकत्रित होते थे। एक मंच से पी० टी० के अध्यापक आगे आगे पी० टी० करते जाते थे, तथा सभी अध्यापक और प्राचार्य भी एक यूनिफार्म में सभी छात्रों के साथ लगभग आधे घण्टे लगातार पी० टी० करते थे और इसके बाद अपनी इच्छा अनुसार खेल कूद। हम लोग विद्यालय से आने के बाद दूघ पी कर खेल के मैदान में चले जाते थे, और वहाँ शाम तक खेलते रहते थे। और फिर शाम को छात्रावास में आ कर भोजन करके अपनी -अपनी पढ़ाई करते थे, तथा रात में दस बजे सब के सो जाने की घण्टी बजती थी। इस तरह पिलानी में बड़ा संयमित जीवन बीत रहा था।

पिता जी तो नहीं किन्तु शुक्ला जी लगभग हर पन्द्रह -बीस दिन के बाद दिल्ली से पिलानी आ जाते थे, और हम लोगों का हाल चाल लेते रहते थे। जब वे आते तो रात में आ कर गेस्टहाऊस में टिकते थे, जो हम लोगो के स्कूल जाने के रास्ते में ही पढ़ता था, और सबेरे उठ कर हम लोगों की प्रतीक्षा करते रहते थे। जैसे ही हम लोगों की नजर उन पर पड़ती थी, वे खुश हो जाते थे । और शाम को स्कूल से आने के बाद हम लोगों को घुमाने ले जाते थे। छात्रावास में हम लोगों को बहुत ही उच्च कोटि का भोजन मिलता था। चावल, दाल, दो सब्जी, घी चुपडी रोटी, तथा सलाद और फल या मिठाई । हर छुट्टी के दिन स्पेशल भोजन बनता था। जिसमें पूड़ी, सब्जी, और मेवे की खीर बनती थी। सभी शुद्ध देशी घी में।

पिलानी की एक मौसम सम्बन्धित विशेषता ये थी कि वहाँ गर्मी में भयकर गर्मी आँधी और लू तथा जाड़े में भयंकर सर्दी, जिसमें बर्फ तक जम जाती थी। दोपहर में अाँधी इतनी भयंकर उठ जाती थी कि बालू उड़ कर सारे वातावरण में छा जाता था और जहाँ कही उâचें उâचें टीले होते थे, समतल बन जाते और गड्डे में बालू भर जाता था। जब जाड़े में बर्फ पड़ती थी, हम लोग छत पर स्केटिंग करते थे। पिलानी में इस परिवर्तित मौसम के अलावा भयंकर कीकर के जंगल थे, तथा कुछ दूरी पर एक छोटी पहाड़ी के नीचे एक तालाब भी था, जंगल में मंगल की तरह, वहाँ हम लोगों को अक्सर घुमाने के लिए ले जाया जाता था। जहाँ दोपहर में वहीं भोजन का प्रबन्ध होता था। बर्फ कभी कभी ही पड़ती थी। विशेष कर फौहारे का जल जम जाता था, और लड़के उसमें से बर्फ ले कर एक दूसरे के उâपर फेक कर आनन्द लेते थे। छात्रावास में ट्यूबवेल के द्वारा पानी की सप्लाई होती थी, जो सीमित समय तक ही चलाया जाता था। अतः छुट्टियों में प्रायः लड़के वैâनाल में नहाने के लिए चले जाते थे। मुझे याद है कि एक बार जब हम पहले पहल वहाँ गये थे, तो स्नान के बाद जलपान गृह में सब लोग गये। मेरे लिए जलपान गृह की वह साज सजा बिलकुल नयी और अजीब लगी थी। शुक्ला जी के बड़े लड़के काऊंटर पर जा कर मेरे लिए सादा डोसा तथा अपने और अपने भाईयों के लिए आमलेट का आर्डर दे आये। तब मैं न तो डोसा से परिचित था, और न ही आमलेट से ही। गाँव से गया था, मेरी लम्बी सी चुटिया थी और शुक्ला जी के लड़के मुझे पंडित जी कहा करते थे। जलपान करने के बाद जब हम लोग बाहर आये, तो शुक्ला जी का छोटा लड़का रमेश मुझे चिढ़ाने लगा कि पंडित जी का आज धर्म चला गया। तो बड़े लड़के शम्भू ने उसे डाटा और कहा कि तुम्हारा धर्म चला गया। तुम लोग आमलेट खाये हो ये तो डोसा खाये है। तब वह बेचारा सिटपिटा गया। उस समय मुझे पता चला कि डोसा शाकाहारी होता है, और आमलेट मांसाहारी । बाद में हमारे संरक्षक छात्रावास अधीक्षक ने मुझे बताया कि आमलेट अण्डे से बनता है, और अण्डा तो शाकाहारी होता है। उन्होंने बताया की गाँधी जी भी इसका सेवन करते थे। उसके बाद से मैं भी आमलेट खाने लगा था। और उसका स्वाद भी मुझे अच्छा लगा था।

पिलानी में विद्यालय में तकनीकी ज्ञान देने के प्रायः सभी विषय थे। विज्ञान की कक्षा के अलावा कला, और क्राफ्ट, बढ़ई गीरी, तथा फोटोग्राफी भी सिखाई जाती थी, मैं विशेष कर फोटोग्राफी में रुचि लेने लगा था। मुझे चित्र खीचना और उसको रसायनों द्वारा धो कर चित्र उभारना सब आ गया था। वहाँ के कला अध्यापक भूर सिंह जी ने जो मेरा पेंसिल से मात्र दो मिनट में चित्र बनाया है, वह मेरे पास आज भी सुरक्षित है।

पिलानी में पहले पहल जब मुझे भूकम्प का अनुभव हुआ था, फिर गाँव में और दिल्ली में भी उसके अनुभव हुए। गाँव में पानी खींचते वक्त गड़ारी हिलने लगी थी, तथा दुबारा खाट हिलने लगी थी। दिल्ली में भी हम छत पर बैठे थे, तो भूकम्प के झटके का आभास हुआ था। किन्तु पिलानी जैसा भूकम्प फिर देखने को नहीं मिला।

पिलानी की एक और बात मुझे याद है कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जब स्वर्णजयंती समारोह में भाग लेने के लिए गये थे, और विद्यालय के खेल के मैदान में उनकी सभा चल रही थी, उसी बीच पास के जंगल में किसी शिकारी ने बन्दूक चलाया, जिसकी आवाज सभा मंच तक पहुँची। चूंकि हाल ही में गांधी जी की हत्या हो चुकी थी, अत: जवाहर लाल जी की सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था रहती थी। कई अंगरक्षक उन्हें चारों ओर से घेरे रहते थे। जवाहर लाल की आदत थी कि वे अपनी कुर्सी पर से उठ कर आगे मेज पर बैठ कर भाषण देते थे। जैसे ही धमाका हुआ उसी समय अलग बगल के अंगरक्षक तो सतर्क हो कर इधर उधर देखने लगे, तब तक उनके पीछे खड़ा अंग रक्षक मेज पर से उछल कर उनके सामने आ गया। उसकी फुर्ती देख कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। चूंकि हम बच्चे आगे ही बैठे हुए थे और जहवार लाल हम लोगों के काफी नजदीक थे, अतः सारा दृश्य आज भी सोच कर मैं रोंमांचित हो जाता हूँ। बाद में सूचना दी गयी कि जंगल में किसी शिकारी ने बन्दूक चलायी थी। सभा की कारवाई समाप्त होने के बाद जवाहरलाल हम बच्चों के बीच में भी आये थे और बड़े प्यार से अधिकाशं बच्चों को सिर सहलाकर और पीठ पर थपकी दे कर प्यार जताये थे। उस समय मुझे भी उनसे हाथ मिलाने का अवसर मिला था।

पुनः गाँव में–

पिलानी में मुझे एक ही साल कक्षा सात में पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जहाँ मैने अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। मुझे पता नहीं है कि किस कारण से पिता जी ने मुझे दूसरे साल पिलानी में न पढ़ाकर दिल्ली में ही पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। दिल्ली में मैं यू०पी० बोर्ड से सम्बंधित एक स्कूल में पढ़ने लगा। सम्भवतः पिता जी के मन में गाँव की परिस्थितियों ने बाध्य किया होगा । मेरे बड़े बाबू जी का उसी साल देहान्त हो गया था और घर की गृहस्थी डावाँडोल हो गयी थी। मेरी माँ भी मेरे लिए काफी चिन्तित रहती थी कि अकेले दूर देश में मेरा लड़का अकेले रह रहा है। पिता जी के आन्दोलन में भाग लेने से उस समय की परिस्थितियों की भी पीड़ा उसके मन में थी। अतः वह नहीं चाहती थी कि मैं पिता जी से भी दूर अकेले रह कर पढ़ाई करूँ। उन्हें क्या पता था कि अच्छी शिक्षा के लिए यह सब करना पड़ता है। किन्तु गाँव की परिस्थितियों का आकलन कर के पिता जी ने मुझे अपने पास दिल्ली में ही रखना उचित समझा । उनके मन में यह भी भाव था कि भविष्य में अन्तोगत्वा मुझे गाँव की जिम्मेदारी भी सँभालनी थी। इसी लिए शायद दिल्ली बोर्ड के किसी स्कूल में मेरा नाम न लिखा कर यू० पी० बोर्ड के स्कूल में मेरा नाम लिखाया गया। यू० पी० बोर्ड की परीक्षा देने के लिए दिल्ली में पढ़ाई करके अन्ततोगत्वा मुझे चुनार पुनः पी०डी०यन०डी० कालेज में आना पड़ा। चुनार में सम्भवतः लालबहादुर शास्त्री जी के सुझाव पर मुझे कृषि विज्ञान पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया। यदि मैं दिल्ली में ही रह जाता तो शायद मेरा भविष्य और रहन सहन कुछ अलग ही होता। गाँव आ जाने पर मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं स्वर्ग से पुनः नर्क में आ गया हूँ। कहाँ पिलानी और दिल्ली का उच्चतम आदर्श रहन सहन और शिक्षा व्यवस्था और कहाँ गाँव के सामान्य किसान का रहन सहन और चुनार की पी.डी.एन.डी. कॉलेज की शिक्षा । यद्यपि उस वक्त गाँव और चुनार के बहुत से धनी मानी लड़कों की अपेक्षा मेरे पास बहुत से जूते और कपड़े थे। जिसे मेरे सहपाठी बड़े आश्चर्य और आदर से सराहते थे। किन्तु धीरे-धीरे मेरा जीवन क्रम गाँव के वातावरण के अनुसार एकदम सामान्य हो गया।

मेरे बड़े बाबू जी के १९५० में देहान्त के पश्चात् उनके बड़े लड़के सुधाकर द्विवेदी के कन्धे पर गृहस्थी का सारा भार आ पड़ा था। वे केवल दर्जा चार पास थे। उनकी नयी नयी शादी हुई थी और वे नये पैâशन में रंग गये थे। मालिक होने के कारण वे अक्सर अनाज बेच कर नये नये कपड़े पहनने का शौक पाल लिये थे और अक्सर सैर सपाटे के लिए बनारस और मीरजापुर चले जाते थे।  मेरी पटिदारी के एक चाचा जनक कुमार जो उनके हम उम्र थे, बनारस में ही रह कर हरिशचन्द्र कालेज में रह कर पढ़ रहे थे और मणिकर्णिका घाट पर एक कोठरी ले कर रहते थे। उन्हीं के साथ सुधाकर भैया एक खाटे बनारसी के रंग में रंग कर मौज मस्ती करने लगे थे और घर गृहस्थी से लगभग नाता तोड़ लिये थे। यह बात जब पिता जी को पता चली, तो उन्होंने बिगड़ती हुई गृहस्थी को संभालने के लिए मुझे दिल्ली से गाँव में भेज दिया। जहाँ मैं रह कर चुनार में पढ़ने लगा। गृहस्थी का सारा दारोमदार हमारे और सुधाकर भैया के छोटे भाई दिवाकर के कन्धे पर आ पड़ा था। हम दोनों हम उम्र थे। दोनों चुनार में हाईस्कूल पास करके इण्टर में पढ़ने लगे थे। मैं पिता जी के सुझाव के अनुसार कृषि विज्ञान का छात्र बन गया था, तथा दिवाकर वाणिज्य के। दोनों की एक नियमित दिनचर्या बन गयी थी। सुबह उठ कर शौच आदि से निवृत हो, गोयड़े के खेत से नित्य एक एक बोझा चरी काट कर ले आना, मशीन में उसकी कुट्टी काटना, और भूसा के साथ मिला कर पशुओं को खिलाना, गोशाले की सफाई करके गोबर खेत में फेंकना, पशुओं और घर को मिलाकर लगभग पचास बाल्टी पानी कुँऐ से भरना, तथा नहा धो कर और कुछ खा कर चुनार पढ़ने के लिए जाना। यही क्रम स्कूल से आने के बाद शाम को भी दोहराया जाता। मेरी माँ बोरसी पर अहरा सुलगाकर लिट्टी लगा देती जिसे हम लोग नमक और घी से तथा दूध से खा कर स्कूल चले जाते । कभी कभी जब देर हो जाती थी, तो विद्यालय का घण्टा जो बहुत दूर तक सुनाई देता था। जिसे हम लोग हजारा और पचासा कहते थे, सुन कर उसके अनुसार दौड़ कर अथवा तेज चल कर ठीक समय पर हम लोग प्रार्थना के समय विद्यालय में उपस्थित हो जाते थे। विद्यालय में एक बहुत बड़ा कदम्ब का पेड़ था, जिसमें रेलवे का एक बड़ा सा गार्डर टंगा हुआ था। जिसे चपरासी पहले आधा घण्टा पूर्व हथौड़े से लगभग पाँच मिनट तक लगातार घनघन बजाता था। इसको हम लोग हजारा कहते थे। और प्रार्थना के दस मिनट पूर्व टन टन कर के जोर जोर से पचास घण्टे बजाये जाते थे, जिसे हम लोग पचासा कहते थे। घण्टे की यह आवाज मीलों दूर तक सुनाई देती थी, और जिसके अनुसार हम लोग अपने चाल को तदनुसार ब़ढ़ा घटा कर समय से विद्यालय में उपस्थित हो जाया करते थे। हमारे गाँव के लड़कों की अपनी अपनी व्यवस्था के अनुसार मजबूरी थी। जिसे सभी लोग जानते थे। और अक्सर प्रार्थना में  बिलम्ब से पहुँचने के कारण प्रधानाचार्य की झिड़की भी सुननी पड़ती थी, कि जलालपुर के लड़के प्रार्थना के पूर्व नहीं आ पाते। किन्तु प्रार्थना के पश्चात् कक्षा में हाजिरी के समय हम लोगों की अनुपस्थिति प्राय: नहीं ही रहती थी। ऐसा व्यस्त और व्यवस्थित जीवन था हम विद्यार्थियों का। हमारे गाँव के ही एक दो अध्यापक तथा जो बाद में प्रधानाचार्य भी हो गये थे। हम लोगों की वस्तु स्थिति को जानते थे। चुनार में हम लोगों को एक प्रतिष्ठित परिवार का व्यक्ति माना जाता था, अतः हम लोगों का एक अलग ही रूतबा था। बरसात में कीचड़ में से हो कर तथा नदी पार कर के आना जाना होता था। जाड़े में बहुतेरे ऐसे गरीब लड़के थे, जो बिना स्वेटर के पढ़ने जाते थे। जूता भी बहुतों को नसीब नहीं था। मेरे पास भी दिल्ली जाने पर ही जूते और अच्छे कपड़े हो पाये थे। इसके पहले मैं गाँव में, घर में खड़ाऊ पहनता था, तथा स्कूल नंगें पाँव ही जाता था। एकाध बार गाँव में ही चमारों द्वारा बनाया गया, चमरउधा जूता पहनने को मिला था, जिसे रेड़ी के तेल में डुबो कर पहले मुलायम बनाया जाता था। तब भी अक्सर ऐड़ी में उसके पहनने से घाव हो जाता था। और कपड़ा अथवा रूई लगा कर चलना पड़ता था। कई ऐसे गरीब सहपाठी थे, जिनके पास फटे कपड़े थे । ऐसी विपन्नता को देख कर के मैने एक बार अपना एक पुराना जूता और दो पैन्ट कमीज उसे दे दिया था। यद्यपि वे उसके नाप के नहीं थे फिर भी उसे वह बड़े शौक से पहनता था। अपने हरवाहे के लड़कों को भी मैने अपने कई पुराने जूते और कपड़े दे दिये थे। बाद में जब मैं नौकरी करने लगा था, तो जब भी गाँव जाता था तो मेरे हरवाहे ये उम्मीद लगाये रहते थे कि भैया आयेंगे तो कपड़े अवश्य देंगे। यह क्रम मेरा बहुत दिनों तक चलता रहा। किन्तु बाद में तो मेरे हरवाहे सम्पन्न हो गये थे, और उतारे हुए कपड़े पहनना पसन्द नहीं करते थे। खास कर नवयुवक लड़के अपनी मान-हानि मानने लगे थे। मैने अपने हरवाहों की पाँच पीढ़ियाँ देखी है। चौथी पीढ़ी के लड़के तो हर तरह से सम्पन्न हो गये थे। किन्तु उनके बाप दादे और पर दादे बहुत विपन्नावस्था में जीवन बिताये थे।

हाईस्कूल की परीक्षा मैंने साहित्यिक वर्ग से दी थी, और उसमें मेरे काफी अच्छे नम्बर आये थे। किन्तु उसमें चुनार के विद्यालय का कोई योगदान नहीं था। दिल्ली और पिलानी में मैंने जो ज्ञानार्जन किया था, उसी का परिणाम था कि गृहस्थी का भार सँभालते हुए भी मैं अच्छे नम्बरों से पास हुआ था। गणित में तिहत्तर, अंग्रेजी में छाछठ नम्बर, भूगोल में पैसठ और हिन्दी में अठावन अंक प्राप्त हुये थे। किन्तु नागरिक शास्त्र में मुझे मात्र चौतीस अंक ही मिले थे। हाईस्कूल के बाद इण्टरमीडिएट में कृषिविज्ञान पढ़ना था, जो मेरे लिए एक नया विषय था। चुनार में एक साल पूर्व ही कृषि वर्ग की कक्षायें प्रारम्भ हुई थीं। कृषि के जो भी अध्यापक आते, वे मात्र एक दो महीने रह कर किसी महाविद्यालय में चले जाते थे। और इस प्रकार वहाँ कृषि की पढ़ाई का माहौल उचित नहीं बन पाया था।

उन दिनों कृषि के स्नातकों और परास्नातकों की महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा सरकारी नौकरियों में अत्यधिक माँग थी। उत्तर प्रदेश में उस समय केवल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय, इलाहाबाद कृषिमहाविद्यालय तथा कानपुर में ही मात्र कृषि की उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी। कृषि स्नातकों की उपलब्धता की अपेक्षा चूंकि मांग अत्यधिक थी, अत: बहुधा कृषि के विद्वान एक स्थान को छोड़ कर दूसरे अच्छे स्थानों पर चले जाते थे। इसके कारण कृषि के इण्टर कालेजों में परास्नातकों की जगह स्नातक अध्यापकों के द्वारा ही प्रवक्ता का काम लिया जाने लगा था। चुनार के विद्यालय में दो सालों में मुझे कई बार इन व्यवधानों के कारण कठिनाई हुई। कृषि शिक्षा जो मेरे लिए एक नया विषय था, उसके उâपर गृहस्ती का भार। अतः मेरी कृषि की पढ़ाई ठीक से नहीं हो पायी और मैं फाइलन परीक्षा में सफल नहीं हो पाया। मेरे साथ के मेरे गाँव के कृषि के बारह छात्रों में से मात्र एक छात्र और वह भी तृतीय श्रेणी में सफल हो पाया था। मैं भी पहले साल असफल हो गया और दूसरे प्रयास में भी तृतीय श्रेणी ही प्राप्त कर सका। यह सब विद्यालय की परिस्थितियों तथा घर गृहस्थी के व्यवधानों के कारण हुआ। मैं उस समय प्रायः ऐसा सोचता था कि शायद मैं साहित्य वर्ग का विद्यार्थी होता तो मैं इण्टरमीडिए की परीक्षा अधिक अच्छे नम्बरों से पास करता। किन्तु विधि के विधान को कौन टाल सकता है। कृषि विज्ञान का स्नातक होने के बाद मुझे उसका लाभ यह मिला कि मुझे नौकरी के लिए भटकना नहीं पड़ा, और मुझे तुरन्त नौकरी मिल गयी।

मैं जब तक गाँव में रहा अपने स्वभाव के कारण गाँव की साँस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रियता से रूचि लेता रहता था। सुधाकर भैया भी परिस्थिति बस गृहस्ती में अभिरूचि दिखाने लगे थे। शायद भविष्य की बात सोच कर कि इण्टर के बाद मैं और दिवाकर दोनों आगे के अध्ययन के लिए जब बाहर चले जायेंगे तो वे अकेले पड़ जायेंगे, और उन्हीं को सारी जिम्मेदारी सभालनी पड़ेगी। अतः उनके मनोभावों और व्यवहारों में काफी अन्तर आ गया था।

मैं जब इण्टर की परीक्षा नहीं दे पाया था, तभी उसी साल १९५५ में मेरा विवाह भी हो गया था। दिवाकर का भी विवाह उसी साल हो गया था। दिवाकर का गौना भी साल के अन्दर ही हो गया। मेरा गौना तीसरे साल में आया। १९५५ की ३१ मई को मेरा विवाह हो गया था। और जिस दिन इण्टर का परीक्षा फल घोषित हुआ, और मैं असफल घोषित हुआ, उस दिन मेरे चाचा श्रीधर द्विवेदी खेत में कुआँ खोदवा रहे थे। दिन भर हम लोग घर्रा खींच कर तथा मेहनत कर के पूरी तरह थके हुऐ थे, तभी मुझे यह सूचना मिली कि परीक्षा में असफल हो गये। यह सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ और दिन भर का थका मादा मैं बिना खाना पीना किये अपने को एक कमरे में बन्द कर रोता रहा। माँ के साथ साथ अनेक पारिवारिकों ने मुझे मनाया किन्तु मैंने दरवाजा नहीं खोला। दूसरे दिन से सब कुछ समान्य हो गया। पहले साल असफल हो जाने के बाद चूंकि चुनार में कृषि की पढ़ाई व्यवस्था ठीक नहीं हो पा रही थी, अतः मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय  के कृषि अध्यापक डाक्टर महातिम सिंह के सानिध्य में रह कर कृषि की तैयारी करता था, तथा दूसरे वर्ष इसी कारण मुझे अच्छे अंक मिले। चुनार में कृषि की पढ़ाई का माहौल ठीक नहीं हो पाया था, और जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि पहले साल केवल एक विद्यार्थी वह भी केवल तृतीय श्रेणी में सफल हो पाया था, तथा दूसरे साल भी केवल मैं ही सफल हुआ और बाकी सभी विद्यार्थी असफल हो गये थे। यह सब चुनार के विद्यालय के कृषि विज्ञान वर्ग की पढ़ाई में उथल पुथल के कारण हुआ था। नया नया विषय होने के कारण अध्यापक भी कृषि शिक्षा की गम्भीरता को नहीं समझ पाते थे और तदनुसार उचित प्रशिक्षण नहीं मिल पाता था, जिसका नतीजा हुआ कि आगे के वर्षो में बहुत से छात्र कृषि विज्ञान से भयभीत होकर कला वर्ग में चले गये थे। बाद के वर्षो में प्रदेश में अनेक कृषि के विद्यालय तथा महाविद्यालय खुल गये थे, और उनसे निकले विद्यार्थी नौकरियों में लग चुके थे। अतः कुछ वर्षो के बाद कृषि विज्ञान की अपेक्षा विज्ञान और वाणिज्य वर्गो की मांग ज्यादा बढ़ गयी थी। चूंकि मेरा कृषि का परीक्षाफल तृतीय श्रेणी में ही था। अतः बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेरा प्रवेश नहीं हो पाया। इलाहाबाद के नैनी कृषि संस्थान में मेरा प्रवेश हो गया किन्तु वहाँ के रहन सहन और अर्थाभाव के कारण मैं वहाँ प्रवेश नहीं ले पाया। तथा बाध्य हो कर कृषि महाविद्यालय देवरिया में पढ़ने के लिए वहाँ चला गया।

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मेरा विवाह

ज्योति बन जिन्दगी के

ज्योति बन जिन्दगी के तिमिर में मिली, प्रीति की रीति से मन कली खिल गई।।

दो कगारों में बाँहों के बंध जिन्दगी हर भँवर को लहर में बदल बढ़ चली।

डोर के ज्यों सहारे बंधी इक पतंग हर अध: झोेंक पर ऊर्ध्व मुख उड़ चली।

भाव के भोर से स्वप्न सब धुल गये, प्यार के पंथ पर मोतियां बिछ गई।।

बाँह की डाल पर, श्वाँस की ताल पर, शशि मुखी मस्त हो नृत्य करने लगी।

स्पर्श जल से सुसिंचित बदन बाग में कामनाओं की कलियाँ महकने लगी।

खुल गया सृष्टि का तत्त्वगत भेद सब जिस घड़ी दृष्टि को इष्ट गति मिल गई।।

कल्पना के विहंग उड़ चले नीड़ से, हंस बनकर विलग करने पय नीर से।

बुद्धि की उक्ति से भाव घट भर गया, बह चली गीत धारा हृदय तीर से।

गीत मेरे बने मीत तेरे की तब, मंत्र ध्वनि से धरा यह सुवाषित हुई।।

दूर का चाँद लखकर उठी जो लहर, सत्य पहचान कर आप ही हट गयी।

जो है अपना दिल में समाया हुआ शेष मृग जल सभी भेद यह कह गयी।

प्रेरणा की किरण, श्रोत ऊर्जा का बन, स्फूर्ति अंग-अंग में मादक जगाती गई।।

मेरा विवाह १९५५ के ३१ मई को बहुत ही असामान्य परिस्थितियों में अचानक हो गया था। उसी वर्ष मेरी छोटी बहन पद्मावती, जो मुझसे छः साल छोटी थी, उसका विवाह कर के पिता जी अपने कर्तव्य भार से मुक्त हुए थे। मेरे ससुर श्री चन्द्रदेव त्रिपाठी जी बनारस जिले के चन्दौली तहसील के राममढ़ गाँव के निवासी थे। यह गाँव प्रसिद्ध अवघड़ संत बाबा कीनाराम की जन्म स्थली और कार्य स्थली के लिए प्रसिद्ध है। मेरे एक मामा श्री बनमाली त्रिपाठी जो चकिया के पास स्थित सिकन्दर पुर कसबे के निकट नीबीकलाँ गाँव के निवासी थे, वे रामगढ़ में ही संस्कृत के अध्यापक हो गये थे, और मेरे ससुर से उनकी घनिष्टता हो गयी थीं। मेरी सास उस समय चुनार के ही प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थी तथा ससुर जी जो पहले पंचायत इंपेक्टर थे, उनको संरक्षण देने के लिए चुनार में ही किसी दुकान पर सहयोगी बन गये थे। उन्हें सम्भवतः मेरे मामा द्वारा अथवा किसी और  के द्वारा यह सूचना मिली कि मेरे परिवार में कई अच्छे लड़के विवाह के योग्य हैं। सबसे पहले वे मेरे मामा के साथ चुनार में ही मेरे एक चाचा पंडित भगवती प्रसाद द्विवेदी के लड़के प्रेम नाथ को देखने गये। किन्तु वहाँ जाने पर पता चला कि अभी हाल ही में उनकी शादी तय हो चुकी है, अतः वहाँ से निराश होकर दोनों मुझे देखने के लिए चुनार में ही अध्यापक मेरे दूसरे चाचा श्रीधर द्विवेदी को साथ लेकर वे मेरे गाँव पर आये। दोपहर का वक्त था। भगवती चाचा के सुझाव के अनुसार श्रीधर चाचा को साथ ले कर वे मुझे देखने जब आये और श्रीधर चाचा ने बड़े उल्लास से यह सूचना मेरी माँ और आजी को दिया कि बनवारी जी प्रभाकर की शादी के लिए आये है। माँ ने मामा जी को बुलाकर सब जानकारी ली, किन्तु साथ ही साथ यह भी कह दिया कि अभी तो लड़की की शादी हुई है, माड़ो अभी नहीं खुला है, एक ही साल में एक ही कोख, एक ही मंडप में दो लोगों की शादी नही हो सकती। उस समय मैं भी घर पर था। मैने अतिथियों का स्वागत सत्कार किया। साथ ही साथ उन्हें यह भी सन्देश दिया गया कि मेरे पिता जी कुछ दिनों बाद आने वाले हैं, वे जैसा चाहेंगे वही होगा। मेरे ससुर जी ने मेरे पारिवारिकों, मेरे घर द्वार और मुझकों हर तरह से पसन्द कर लिया था। मामा जी के माध्यम से उन्होंने आजी को सन्देशा दिलवाया कि चाहे जैसे हो शादी मुझे यहीं करना है। चाहे एक साल बाद ही करें, तब भी मैं तैयार हूँ। अन्ततोगत्वा सब कुछ पिता जी के आने के बाद निर्णय होने की बात कह कर अतिथियों को विदा किया गया। मेरे मामा जी इस सम्बन्ध के लिए बहुत जोर दे रहे थे। हर प्रकार की प्रशंसा के पुल बाँध रहे थे। शिक्षित लड़की, सम्पन्न शिक्षित परिवार और जाना बूझा सम्बन्ध तथा सम्बन्धियों से भी सम्बन्ध इन सब बातों की प्रशंसा कर के वे मेरी माँ और आजी को प्रभावित कर दिये थे। दोनों को मन ही मन यह सम्बन्ध भा गया था।

मेरे ससुर जी के एक जीजा पंडित अजुर्न पाठक जो गाजीपुर जिले के पटखौली गाँव के रहने वाले थे, वे पहले बनारस के संस्कृत कालेज में, जो बाद में सम्पूणानन्द विश्वविद्यालय बन गया था, के कार्यालय अध्यक्ष थे। बाद में वे शिक्षा विभाग में जिला विद्यालय निरीक्षक कार्यालय और अन्ततः इलाहाबाद में उप शिक्षानिर्देशक कार्यालय में कार्यालय अधीक्षक के रूप में अवकाश प्राप्त किये। वे काफी सुलझे हुए अनुभवी और व्यवहार कुशल थे। वे मेरे ससुर जी के परिवार के एक अच्छे हितैषी और सरंक्षक भी थे। उन्हें जब मेरे बारे में बतलाया गया, तो वे बड़े प्रसन्न हुये। उन्होंने बतलाया कि मैं उस परिवार से परिचित हूँ। वे इसके पूर्व किसी बारात में मेरे परिवार में आये हुए थे, और गाँव में मेरी पारिवारिक प्रतिष्ठा को उन्होंने स्वयंम् देखा था। उस समय बारातियों के स्वागत सत्कार और व्यवहार की, तथा सम्पन्नता की बातें बतलायी।

पिता जी के आगमन वाले दिन हमारे ससुर जी अर्जुन पाठक को साथ ले कर एकाएक गाँव में आ गये थे। पिता जी के आने का तो निश्चय था, किन्तु वे गाँव पर अभी तक नहीं पहुँच पाये थे। लोगों ने अनुमान लगाया कि हो सकता है चुनार में भगवती च्ााचा के यहाँ रूक गये हों। अतः लोगों की राय बनी कि मैं साइकिल से जा कर पिता जी का पता लगाऊँ। अगर वे आये हों तो साथ लेकर आ जायें। उस समय गर्मी की दुपहरियाँ के लगभग एक बजें थे। अप्रैल का महीना लू चल रही थी। मैं साइकिल से जब चुनार पहुँचा तो सचमुच पिता जी वहाँ आ चुके थे। मैंने उन्हें जब सारी बात बतलाया तो वे तुरन्त गॉव के लिए मेरी ही साइकिल से मुझे बैठा कर स्वयं साइकिल चला कर उस भंयकर लू के थपेडों के बीच गाँव आये।लगभग ढाई बजे हम लोग गाँव पहुँचे। शिष्टाचार आदि के पश्चात् पिता जी आजी और माँ से मिलने और उनकी राय जानने के लिए घर में गये। उन लोगों ने तो पहले ही अपना मन बना लिया था। अतः उन्होंने अपनी संस्तुति दे दी थी।  उसके बाद पिता जी ने उन लोगों के समक्ष अपनी आर्थिक मजबूरी का स्पष्टीकरण किया। अभी तो हम अपनी लड़की की शादी किये हैं, अतः मैं मजबूर हूँ। इस साल विवाह सम्भव नहीं हो पायेगा। इस बात पर मेरे ससुर जी तो कुछ नहीं बोले, किन्तु उनके जीजा अर्जुन पाठक जी जो बड़े वाक्यपटु और चालाक थे, उन्होंने तुरन्त सुझाव दिया कि आप को एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ेगा। आप केवल बारात लेकर आ जाइयेगा। लड़के का सारा संस्कार भी वहीं हो जायेगा। अतः एक मंण्डप और एक कोख वाली समस्या का समाधान भी हो जायेगा। पिता जी को यह प्रस्ताव उचित लगा, और उन्होंने स्वीकृति प्रदान कर दी। साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि मैं सीधे दिल्ली से बारात में ही आऊँगा। मेरी भी छुट्टियाँ समाप्त हो गयी हैं। अतः मैं गाँव पर नहीं आ पाऊँगा। विवाह प्रस्ताव तो पिता जी ने स्वीकार कर लिया, किन्तु बली का बकरा मुझे बना दिया। उन्होंने सबके सामने कहा कि जब इतनी खड़ी दुपहरिया में ये मुझे बुलाने के लिए गये तभी मैं निश्चय कर चुका कि लड़का शादी करने को उत्सुक है। अतः इस कारण से मैं आपके प्रस्ताव को स्वीकार कर रहा हूँ। इस पर गाँव घर के सभी उपस्थित लोग ठहाका लगा कर हँस पड़े और मैं संकोच में पड़ गया। उसके बाद पुरोहित को बुला कर विवाह की तिथि आदि का भी निपटारा कर लिया गया। और बररक्षण का संस्कार भी उसी समय पूरा कर लिया गया। इसके बाद हमारे ससुर और उनके जीजा प्रसन्न हो कर चले गये। मात्र एक हप्ते बाद ही विवाह की तिथि निश्चित हुई थी।

विवाह वाले दिन के एक दिन पूर्व ही हम लोग सारी तैयारी कर के शाम की पैसेन्जर से मुगलसराय पहुँचे। बारात बहुत ही सीमित मात्रा में गयी थी। केवल परिवार के लोग, पुरोहित, कुछ प्रजा जन एवम् नौकर तथा कुछ सम्बन्धी। कुछ सम्बन्धी तो सीधे रामगढ़ ही पहँुचे। मुझे भी बिना किसी तैयारी के सामान्य रूप से जाना था। क्योंकि गाँव पर कोई संस्कार हुआ नहीं था। मैं बिलकुल सामान्य वेष में सबके साथ चल पड़ा। चूंकि बारात में जाने के पूर्व देवालय में बर का परछन करने की परम्परा होती है और किसी सवारी का प्रबन्ध नहीं किया गया था, अतः हमारे एक पड़ोसी श्री उदित नारायण चौधरी जो जमीदार थे, ने अपना घोड़ा लाकर उस पर मुझे बैठाया और स्वयम् लगाम पकड़े देवालय तक गये। मेरे पीछे पीछे परिवार और पड़ोस की औरतें गाते बजाते देवालय तक गयीं। वहाँ मेरा परछन संस्कार हुआ और उसके बाद मैं पैदल ही वैâलहट स्टेशन के लिए चल पड़ा। साथ में परिवार के लड़के और अन्य बराती साथ साथ गये तथा पसिन्जर पकड़ कर मुगलसराय पहँुचे। वहाँ विश्रामालय में हमारे कई मामा लोग पहले से ही आ गये थे, और दरी बिछाकर हम लोगों की प्रतीक्षा कर रहे थे। स्टेशन पर पहँुचते ही हम लोगों का हाथ मुँह धुलवाया गया तथा जलपान और थोड़ी देर बाद भोजन। भोजन के पश्चात् रात में ही रामगढ़ जाने के लिए बस की व्यवस्था कर दी गयी थी। पिता जी की प्रतीक्षा हो रही थी, और जैसे ही उनकी गाड़ी आयी, वे भी साथ हो लिये। उस  समय रात के लगभग ११ बज गये थे। जब पिता जी से भोजन करने का आग्रह किया गया तो उन्होंने बतलाया कि मैंने टे्रन में ही भोजन कर लिया है। अतः तुरन्त ही सारा सामान समेट कर सब लोग बस में बैठ गये, तथा सबेरा होने के पहले ही हम लोग रामगढ़ के प्राइमरी स्कूल में, जहाँ हम लोगों के लिए जनवासा बनवाया गया था, पहुँचा दिये गये। रामगढ़ पहुँच कर सब लोग बगल में स्थित बाण गंगा नदी में जा कर नित्य क्रिया से निवृत हुए। कुछ लोग पास ही स्थित एक भव्य वुँâए में स्नान किये। यह कुँआ कीनाराम बाबा के आश्रम का था और उसके बारे में बतलाया गया, कि इसमें चार घाट हैं और चारो का पानी चार प्रकार की बीमारियों के हरण के लिए उपयुक्त माना जाता है। हमारे मामा लोगों ने बतलाया कि यह कुँआ औघड़ संत बाबा कीनाराम ने स्वयंम् बनवाया था और जब ईटों की कमी हो गयी तो उन्होंने गोबर के उपले से बाकी का कुँआ तैयार करवा दिया और बाद में उनकी कृपा से यह लखौरी ईटों में बदल गया था। कीनाराम इसी कुऐं में एक बार कूद गये थे, और बनारस में कृमि कुण्ड में जा कर निकले थे। ऐसी उनकी योग साधना थी। मैं यह सब सुन कर मन ही मन बड़ा प्रसन्न और सन्तुष्ट हो रहा था। क्योंकि सबके मुख से इस आश्रम की और गाँव की प्रशंसा ही सुनने को मिल रही थी। रामगढ़ गाँव हमारे गाँव की तरह ही बहुत बड़ा गाँव है, जहाँ आवश्यकता की सारी सुविधायें उपलब्ध है। स्नान आदि से निवृत हो कर सब लोग कीनाराम आश्रम का दर्शन करने गये, और उसके बाद  वहाँ की विभूति लगा लगा कर पुनः अपने जनवासे में आकर बैठ गये। तब सब को जलपान कराया गया। चूंकि बारात में लगभग पचास व्यक्ति ही थे। अतः घरातियों ने आवश्यकता से अधिक खाने पीने का सामान ला कर रख दिया था। जिसकों कई बार दिन भर लोग खाते पीते रहे। इस बीच गाँव के लड़के लड़कियों की भीड़ बारात देखने के लिए जमा हो गयी थी, और जैसा कि सामान्य रूप से होता है, लोग दूल्हा देखना चाहते थे। किन्तु मैं एक सामान्य पहनावे में ही था। अतः बच्चों का कौतूहल शान्त नहीं हो पा रहा था।

जैसा की पहले निश्चय किया जा चुका था, मुझे विवाह पूर्व के विविध संस्कार कराने के लिए घरातियों की ओर से बुलावा आया। किन्तु हमारे पुरोहित जी ने आदेश दिया कि बिना द्वारपूजन के लड़के का दरवाजे पर और घर में जाना उचित नहीं रहेगा। अतः यही जनवासे में ही सारे संस्कार कर लिये जायें। पिता जी ने भी इस प्रस्ताव को उचित जान स्वीकार कर लिया। अतः सुझाव के अनुसार घरातियों ने सभी आवश्यक सामग्री जनवासे में ही पहँुचा दी। और फिर नाऊ और बारी के सहयोग से हमारे पुरोहित जी ने जनवासे में ही हल्दी तेल, मटमँगरा, एवम मातृ पूजन आदि विविध संस्कार स्वयंम् ही सम्पन्न करा दिया। इस प्रकार बिना किसी आडम्बर से सूक्ष्म रूप से सभी संस्कार परिस्थिति के अनुसार पूरे किये गये।

चूंकि बारात लगन के एक दिन पहले ही आ गयी थी, अतः दोपहर के भोजन की व्यवस्था जनवासे में ही बनायी गयी। चूंकि रात में मुगलसराय में सब लोग पूड़ी सब्जी खाये थे, और सबेरे जलपान में भी अनेक प्रकार की मिठाईयाँ और पकौडियाँ खाने को मिली थी, अतः लोगों ने राय दिया कि दोपहर के भोजन में चावल दाल और चोखा बनाया जाये। प्रस्ताव के अनुसार थोड़ी ही देर में घरातियों ने सारी व्यवस्था कर दी। उपले मिट्टी की बड़ी बड़ी हाडियां, परई, पत्तल, कुल्हड़, चावल, दाल, आलू, बैंगन, तेल, नमक, अँचार और पर्याप्त मात्रा में घी तथा दही आदि की व्यवस्था कर गये। एक बड़ी हाड़ी भर कर रबड़ी भी पहँुचाई गयी। तुरन्त ही अलग अलग टोलियों में लोगों ने अपने अपने अहरे दागे और लगभग दो बजे तक भोजन की व्यवस्था हो पाई। सभी लोग भूखे थे, अतः सभी लोगों ने छक कर स्वादिष्ट भोजन किया। रबड़ी की हाड़ी पर सबसे पहले हमारे पुरोहित श्री बलदेव पांण्डेय जी ने हाथ लगाया और पर्याप्त रबड़ी पहले ही खा गये तथा शेष लड़कों को बाँट दिया। यह देख कर घरातियों ने एक दूसरी हाड़ी की रबड़ी तुरन्त पहँुचा दिया जो बचे हुए सम्बन्धियों और अन्य बरातियों को खाने को मिला। इस रबड़ी की प्रशंसा पुरोहित जी, जब तक जिन्दा रहे तब तक करते रहें। रामगढ़ की रबड़ी उन्हें पसन्द आ गयी थी। हमारे पुरोहित जी बाद में जब भी हमारे दरवाजे पर आते या किसी बारात में जाते, तो रामगढ़ की चार विशिष्टिताओं का बखान अक्सर किया करते। एक तो कीनाराम बाबा के आश्रम और वहाँ के विशिष्ट कुऐं का माहात्म्य, दूसरा रामगढ़ की रबड़ी का स्वाद, तीसरा वहाँ के नाऊ और बारी द्वारा बारातियों की तेल मालिश और अन्य सेवा तथा चौथा वहाँ की महिलाओं का गाली गाना वे बड़े उत्साह से और आन्तरिक प्रसन्नता से इनका वर्णन करते और प्रसन्नता में उनके आखों से आँसू बहने लगते। उस समय सामान्य रूप से इतना लम्बा चौड़ा कुँआ जिसके चारो ओर पक्की जगत और छत तथा पानी के बहने की पक्की नालियाँ, ऐसा कुँआ इसके पूर्व किसी गाँव में देखने को नहीं मिला था। कुएँ में चारों घाट पर ईटों के मजबूत खम्भों में लोहे की बड़ी बड़ी गड़ारियाँ लगी थीं। बाबा कीनाराम अठारहवी शताब्दी के संत थे, और औघड़ योगियों में उस समय उनकी काफी प्रसिद्धि थी। अपनी तांत्रिक क्रिया के फल स्वरूप ही वे उस कुऐं में कूद कर रामगढ़ से लगभग चालीस किलोमीटर दूर बनारस में प्रकट हुए थे। बनारस में भदयनी पर क्रिम कुण्ड स्थित है, जहाँ अनेक औघड़ संत रहते हैं। रामगढ़ में प्रतिवर्ष औघड़ पंथियों का मेंला लगता है। जहाँ देश भर के औघड़ पंथी जुट कर अपनी योग साधना का प्रदर्शन करते हैं। बाद में बाबा कीनाराम के नाम से ही वहाँ एक उच्च कोटि का इन्टर कालेज एवम् डिग्री कालेज स्थापित हो गया है। इसके अलावा प्रदेश के प्रर्यटन विभाग ने बाण गंगा नदी का उत्थान करके एक जलाशय तथा पर्यटन केन्द्र की स्थापना कर दी है। जहाँ यात्रियों के ठहरने के लिए एक भव्य बंगला तथा बच्चों के खेल के मैदान तथा छोटे बच्चों के लिए झूले और फिसलने के लिए उपकरण लगा दिये गये हैं। इस तरह आश्रम एक भव्य पर्यटन केन्द्र बन गया है।

बाबा कीनाराम के आश्रम से कुछ ही दूरी पर एक बैराठ नाम का गाँव है, जहाँ एक किले का भगनावशेष है। जिसके लिए किम्बदन्ती है, यह महाराज विराट का किला था। बाण गंगा के लिए भी ऐसा कहा जाता है कि यह अर्जुन के तीर से बनी गंगा है। जो गंगा के एक शाखा के रूप में बैराठ तक जाती है। इस तरह महाभारत काल से इस स्थान का जुड़ा हुआ इतिहास है। इन सब बातों को सुन कर मैं बड़ा गौरवान्वित होता था कि ऐसे ऐतिहासिक और पुराण प्रसिद्ध संत के गाँव में मेरी ससुराल है।

शाम को द्वारपूजन की तैयारी हुई और जैसा कि पहले से तय था, बारातियों को कोई भी प्रबन्ध नहीं करना था। सारी तैयारी घरातियों की ओर से हुई। दो तीन डोलियाँ और एक पालकी ला कर जनवासे में उपस्थित की गयी। आश्रम की ओर से हाथी और घोड़े भी सज कर आ गये। दो प्रकार के बाजे बैण्ड बाजा और शहनाई बाजे की भी व्यवस्था घरातियों ने कर दी थी। इस प्रकार आगे आगे हाथी जिस पर हमारे फूफा जी और जीजा जी तथा घर के कुछ लड़के बैठाये गये। डोलियों में पुरोहित जी तथा दूसरी डोली में पिता जी बैठाये गये। पालकी में मुझे दूल्हे के भेष में सजा कर मौर जोरा, जामा आदि के साथ पालकी मे बैठाया गया। इस तरह सज धज कर बारात द्वारपूजन के लिए चल पड़ी। पुरोहित जी की पालकी में मेरे फूफा जी के चाचा महादेव चौबे बाबा भी बैठाये गये थे, और पिता जी के साथ मेरे एक बाबा श्री धनेश जी बैठे थे। दरवाजे पर पहुँचने पर सबसे पहले हाथी को गणेश का प्रतीक मान कर परम्परा अनुसार पहले गणेश पूजन हुआ, और फिर द्वारा चार की रस्म पूरी की गयी। द्वाराचार के पश्चात् सभी बरातियों को पाँच तरह की मिठाई और दो तीन तरह की नमकीन तथा दही का शर्बत दिया गया। उस समय चाय की परम्परा तो थी नहीं अतः बारातियों ने भर पेट शर्बत का आनन्द लिया। मेरी जानकारी में किसी बारात में शायद पहली बार टेबुल और कुर्सियों पर बैठा कर खाने पीने की यह व्यवस्था सम्पन्न हुई थी। यह सारी सुविधा गाँव के विद्यालय के कारण सम्भव हो पायी थी। और व्यवस्था करने में अर्जुन पाठक जी का विशेष योगदान रहा। इसके पहले अन्य बारातों में खाटों पर बैठा कर बारातियों का स्वागत सत्कार होता था। यह सब व्यवस्था देख कर और विशिष्ट आवभगत देख कर सभी बाराती खुश थे।

चूँकि बारात बहुत ही सीमित थी अतः निर्णय हुआ कि क्यों बार बार जनवासे आया जाया जाय। यहीं दरवाजे पर ही सबके सोने की भी व्यवस्था कर दी गयी। चबूतरा काफी बड़ा था, इस लिए चबूतरे पर ही कई खाटें और चौकियाँ बिछा दी गयीं, और सभी बाराती तथा घरातियों के भी रिस्तेदार एक दूसरे से परिचित हो कर आनन्द से वार्तालाप करने लगे। प्रायः सभी लोगों ने एक दूसरे से अपने अपने सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त कर ली और हंसी मजाक के वातावरण में आनन्द लेने लगे। द्वाराचारा के समय ही तिलक की रस्म भी पूरी कर ली गयी थी। मेरे लिए एक विशेष खाट पर अच्छे विस्तर विछा कर विश्राम करने की व्यवस्था की गयी थी। द्वाराचार और विवाह के बीच के समय में गाँव के कई नाऊ, बारी, और अन्य प्रजा जन आ कर बारातियों के सिर में सुगन्धित तेल लगाने और पैर दबाने में व्यस्त हो गये। हँसी मजाक के बीच सब ने इस विशिष्ट सेवा का आनन्द लिया। विशेष कर हमारे पुरोहित जी पंडित बलदेव प्रसाद पांडे, जो बहुत बातूनी थे, और हंसी मजाक करने में अगुआ थे। उनकी वजह से वातावरण बड़ा आनन्द मय हो गया था। इसी बीच गाँव के विशिष्ट गायकों ने आ कर अच्छे अच्छे गानों से बारातियों का मनोरंजन किया। इसके बाद नहछू नहावन के लिए मेरी बुलाहट हुई किन्तु पिता जी ने मना कर दिया कि यह सब संस्कार जनवासे में पूरे किये जा चुके हैं। अतः विवाह पूर्व लड़के का आँगन में जाना नहीं होगा।

विवाह का समय हो जाने पर मुझे पुनः सजा बजा कर आँगन में ले जाया गया। बाराती पहले से ही मण्डप में पहुँच चुके थे, और कन्या पूजन की रस्म पूरी हो चुकी थी। चूंकि आभूषण वस्त्र इत्यादि भी सब कुछ घरातियों को ही करना था अतः सारी सामग्री पहले ही बारातियों को दिखाकर उसका पूजन इत्यादि हो चुका था। आँगन में जाने के पूर्व मेरी आरती उतारी गयी, और फिर मंण्डप में दो तीन घण्टे विभिन्न कर्मकाण्डों की औपचारिकता में वैâसे बीत गया मुझे पता ही नहीं चला।

इसी बीच एक विशिष्ट घटना यह हुई कि गाँव के ही विधायक ठाकुर लोक नाथ सिंह जो विद्यालय के प्रबन्धक भी थे, इस विवाह में सम्मिलित होने के लिए लखनऊ से सीधे आये थे, और उन्होंने पंडित कमला पति त्रिपाठी का पिता जी के लिए एक पत्र सौंपा, जिसमें अपनी व्यस्तता के कारण विवाह में उपस्थित होने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। यह पत्र हमारे एक चाचा ने मंण्डप में ही पढ़ कर सबको सुनाया। जब विधायक जी मंण्डप में आये तो उनके स्वागत में आँगन में ही एक कुर्सी रख दी गयी थी। किन्तु उन्होंने कुर्सी पर बैठना उचित नहीं समझा और पिता जी से परिचय प्राप्त कर उनके चरण स्पर्श किये, जिसके लिए उनके हाथ से कमलापति त्रिपाठी जैसे उत्तर प्रदेश के विशिष्ट नेता ने बधाई पत्र लिख कर भेजा था। कमलापति त्रिपाठी पिता जी के काशी विद्यापीठ में सहपाठी रहे थे। वही पर उनके साथ श्री लालबहादूर शास्त्री जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने तथा अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद भी सहपाठी थे। इन सब बातों को कमलापति जी ने सम्भवतः विधायक लोकनाथ जी को बतला दिया था। अतः वे पिता जी को बड़ा आदर और सम्मान देते हुए उन्हें भी एक कुर्सी मँगा कर उस पर बिराजमान होने के लिए निवेदन किये। किन्तु पिता जी अपने पुरोहित और अन्य सम्बधियों की मर्यादा का ध्यान रख उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किये। अतः हार कर विधायक जी भी पिता जी के पास ही उनके गद्दे पर पीछे बैठ गये। यह सब देख कर गाँव वालों के लिए हमारे पिता जी की विशिष्टता का बोध हुआ, और इस प्रकार इस सम्बन्ध की मर्यादा पिता जी के कारण और बढ़ गयी, जिसका लाभ मुझे रामगढ़ जाने पर अभी भी मिलता है। बाद में लोकनाथ जी विधायक मुझसे बनारस में, और एकाधबार लखनऊ में भी मिले और मेरे पिता जी के नाते उन्होंने मुझे बड़ा सम्मान दिया। विवाहोंपरान्त कोहबर की रस्म पूरी की गयी, जिसमें मैं संकोच और झिझक के साथ महिलाओं के बीच बैठ कर आनन्दित हुआ।

कोहबर की रस्म के बाद मेरी सास इंदुमति त्रिपाठी जो राजकीय विद्यालय में अध्यापिका थीं, और उस समय बनारस में कार्यरत थीं, मुझसे परिचय के लिए कुछ विशेष बातचीत करना चाहती थी, और अवसर की प्रतीक्षा में थी। उन्होंने दही गुड़ के बहाने मुझे अपने पास बुलाया और एक कटोरा भर मलाई दार दही तथा चीनी मेरे सामने रख दिया गया। मेरी खाने की इच्छा नहीं थी। एक दो चम्मच ही खाया और थोड़ी देर बात चीत करके बाहर आ गया। मेरा शेष प्रसाद मेरी पत्नी मालती को प्राप्त हुआ।

विवाह के उपरान्त भोजन की व्यवस्था हुई भोजन में सारे पकवान देशी घी के बनवाये गये थे। सभी बारातियों ने गाली के मधुर गीतों के बीच स्वादिष्ट पकवानों का आनन्द लिया। हमारे पुरोहित जी सब का नाम बताबता कर गाली गवा रहे थे। और बड़े धीरे-धीरे खा कर गाली गायन का आनन्द ले रहे थे। महिलायें भी पुरूषों की रूचि को देख कर और भी उत्साह में बढ़ बढ़ कर गाली सुना रही थीं। विवाह के पश्चात् भोजन कर के सभी बाराती जनवासे में आ कर रात्रि विश्राम किये। प्रातः काल जब तक हम लोग नहा धो कर निवृत हुए, उसके पहले ही जनवासे में ही जलपान की व्यवस्था हो गयी। विवाह के पूर्व भाथी की रस्म भी पूरी कर ली गयी थी, जिसमें दूल्हे के साथ अन्य छोटे बच्चों को विवाह पूर्व भोजन करा दिया जाता है। बड़हार के दिन दोपहर में खिचड़ी खाने की रस्म जिसे कलेवा भी कहते है, दोपहर में मंण्डप में सम्पन्न हुयी तथा उसके तुरन्त बाद समधी के भात खाने का आयोजन भी सम्पन्न कर दिया गया। परम्परा के अनुसार खिचड़ी और भात के भोज में दूल्हे तथा समधी को भेंट दिया जाता है।  गाँव घर के लोग इस दृष्य को देखने के लिए उत्सुक रहते हैं कि क्या क्या दिया गया। इस लिए समाज में इस आयोजन का बड़ा महत्व है। हमारे परिवार की परम्परा यह रही है कि हम लोग न तो कोई शर्त रखते है न तो कुछ मांगते है। मैं भी उसी परम्परा के अनुसार जैसे ही सारी भोजन सामग्री मेरे सामने आ गयी, मैने पंचकवल करके इस रस्म को पूरा किया। यह दृष्य देख कर गाँव के लोगों को सुखद आश्चर्य हुआ। यह उनके लिए एक नयी बात थी कि बिना कुछ पाये दूल्हे ने भोजन कर लिया। यही क्रिया भात के समय पिता जी ने भी किया, यह सब देख कर घरातियों के अन्य सम्बन्धी तथा गाँव वाले आश्चर्यचकित थे।

मैने अपने गाँव पर और अन्य रिश्तेदारियों में देखा हैं कि वैâसे खिचड़ी और भात पर दूल्हा और समधी अपनी मांगों को मनवाने के लिए घण्टों बैठे रहते है। कभी कभी तो लड़ाई झगड़े की स्थिति हो जाती है। मध्यस्थ के कारण स्थिति अनिश्चित होने के कारण इस तरह के बवाल अक्सर पैदा होते हुए मैने देखा है। भोजन परोसने के बाद मक्खियाँ भिनभिनाती रहती है, भोजन ठण्डा हो कर सूखने लगता है, किन्तु अपनी जिद्द के आगे मान मनौवल होते होते काफी समय बीत जाता है, और तब भविष्य का वादा करके बात को निपटाया जाता है। तब जा कर दूल्हा और समधी भोजन करते हैं। किन्तु हमारे परिवार में यह परम्परा नहीं है। गाँव की भीड़ में से अनेक महिलाओं और पुरूषों ने अपने मनोभावों को प्रकट किया कि तिवारी जी का भाग्य कि इनको इतने सीधे दूल्हा और समधी प्राप्त हुए हैं। हमारे फूफा जी पिता जी पर व्यंग किये, कि क्या इतने भूखे थे कि तुरन्त खाना खाने लगे थोड़ी देर रूक जाते तो कुछ और उपलब्धि हो जाती। किन्तु पिता जी ने जवाब दिया कि जिसको जो कुछ देना है, श्रद्धा से दे। जबरदस्ती माँगना उचित नहीं है। दबाव में पड़ कर दान देना और लेना दोनों बुरा है। यह सब सुन कर अनेक उपस्थित लोगों ने मेरे पिता जी की बड़ाई की।

दहेज की प्रथा तभी तक उचित है, जब वह श्रद्धा और प्रेम से अपनी शक्ति व भक्ति के अनुसार दी जाये। जबरदस्ती जोर देना यह तो एक प्रकार का शोषण है। इससे जितना ही ज्यादा बचा जाये, उतना ही समाज का कल्याण होगा। यह वीभत्स परम्परा, जिसमें समधी अपने स्वार्थ के कारण अन्य रिश्तेनातों के भी भोजन में बाधक बनता है, यह किसी भी प्रकार से उचित नहीं कही जा सकती। हम लोगों के जमाने में प्रायः दूल्हे साइकिल की मांग करते थे, तथा समधी गाय, भैस अथवा बैल की मांग करते थे। चूंकि मैने खिचड़ी संस्कार के समय कोई भी मांग नहीं रखी थी, किन्तु मेरी सास के मन में कचोट रह गयी थी, वे कमासुत थी, अतः मंण्डप में आ कर उन्होंने स्वयम् सूचित किया कि बेटा हम तुमको गौने में साइकिल देंगे। खिचड़ी, भात के पश्चात् बर के चाऊर बाँटने की प्रथा महिलाओं के भीड़ के बीच में सम्पन्न हुई, जिसमें गाँव और घर की महिलाओं तथा रिश्तेनाते की महिलाओं ने अपनी अपनी हैसियत के अनुसार रूपये दिये। सभी औरते मेरी प्रश्ांसा कर रही थी। मेरे सुन्दर व्यक्तित्व की और सुन्दर स्वभाव की। सास की तरफ से एक विशेष भेंट एक थैली में मेरी माँ के नाम से दिया गया। चावल बाँटने की रस्म में पति और पत्नी एक साथ बैठ कर दोनों के हाथ में पीले चावल भरे जाते फिर मुझसे कहा गया कि इस चावल को कपड़े में रख कर एक ही हाथ से बाँध कर गाँठ लगा दीजिये। मैने कपड़े का एक टोका पैर से दबा लिया और दूसरे टोके से खींच कर गॉठ लगा दिया। इस पर सभी महिलायें प्रसन्न हो कर मेरी प्रशंसा करने लगी कि दूल्हा तो बड़ा चालाक है। विवाह के बाद जब दूल्हा कोहबर में जाने लगता है, तो सालियाँ दरवाजे पर खड़ी हो कर रास्ता रोक लेती है। मेरी उस वक्त दो सालियाँ थीं। मैंने अपने जेब में हाथ डाला और मुट्ठी में जितना भी पैसा आया वे बड़ी साली को थमा दिया। मुझे स्वयम् भी नहीं मालूम कि कितने रूपये थे। कोहबर में भी सालियों ने मेरा जूता चुरा लिया, और उस पर एक पीला कपड़ा ओढ़ाकर मुझसे आग्रह करने लगीं कि ये हमारे इष्ट देवता हैं, इनकी पूजा कीजिये। मैं उनकी मजाक समझ गया था, और अपनी प्रति उत्पन्न मति का लाभ उठा कर उन्हीं से पूछा कि पूजा वैâसे की जाती है, आप करके बताइये तो मैं वैसा ही करूँगा। इस पर उन लोगो ने मजाक किया कि आप ब्राह्मण के लड़के हैं, पूजा भी करना नहीं जानते। इस पर मैने जवाब दिया कि मैं अपने इष्ट देवता की पूजा करना जानता हँॅू। आपके इष्ट देवता की पूजा करना आप बताइये। इस पर काफी हँसी ठिठोली होती रही और अन्त में सालियों ने कपड़ा हटा लिया और कहा कि जीजा जी आप बड़े चालाक हैं। इस तरह हँसी ठिठोली के बीच सम्बन्धियों से परिचय और सहज निकटता प्राप्त करने का सहज अवसर सुलभ हो जाता है। इसके बाद मण्डप हिलाने की रस्म पिता जी ने पूरी की। जब उन्हें रूपये दिये जाने लगे तो उन्होंने मना कर दिया। मात्र एक रूपया उसमें से ले कर शुभ रस्म को पूरा कर दिया और कहा कि यह लेन देन की रस्म प्रभाकर तक की सीमित रखिये। हमें इसकी आवश्यकता नहीं है। मंण्डप हिलाने की रस्म का तात्विक अर्थ यह है कि पहले जमाने में मंण्डप बहुमूल्य रत्नों से सजाये जाते थे और विवाह के पश्चात मंण्डप की आवश्यकता नहीं रहती थी। इसी लिऐ मण्डप की बहुमूल्य सामग्री बर पक्ष को दान स्वरूप देने के भाव से मण्डप हिलाने की प्रथा चली होगी, आज कल फूस के बने मण्डपों के निमित्त अगल से कुछ रूपये दे कर इस रस्म को पूरा किया जाता है। अब तो किराये के मंण्डप बनने लगे है। अतः प्रतीक रूप से बर पक्ष के समधी को एक बन्धन को खोल कर रस्म पूरा करना पड़ता है, और दक्षिणा के रूप में उन्हें स्वर्णाभूषण अथवा कुछ रूपये प्राप्त हो जाते हैं। विवाह के समय सिन्दूर बन्धन होते वक्त लकड़ी के बने तोते लूटने का भी यही रहस्य है। पहले मण्डप के तोते बहुमूल्य रत्नों के बनाये जाते थे। अतः बर पक्ष के लोग सिन्दूर बन्धन के समय प्रसन्नता पूर्वक उन्हें ले लेते थे। मंडप हिलाते वक्त तो कहीं-कहीं तो समधी चादर पैâला कर दक्षिणा पाने का व्यवहार करते है। मण्डप हिलाने की रस्म के बाद सम्बन्धियों का बारातियों के साथ आपस में मिलना होता है, जिसमें सभी बाराती क्रम से अपने अपने रिश्तों के अनुसार मिलते हैं, तथा कुछ द्रव्य दान स्वरूप प्राप्त करते हैं, इसके बाद प्रजा जनों को उनके कार्यो के अनुसार धोती, रूपये अथवा चाँदी के आभूषण आदि देने की रस्म निभाई जाती है। हम लोग चूंकि प्रजाओं के लिए कुछ ले नहीं गये थे, अतः पिता जी ने प्रजाओं की इच्छा के अनुसार, जिसने जितना भी मांगा, उसे एक दो रूपया ज्यादा दे कर सबको खुश कर दिया था। दो रूपये में तो उस समय प्रजाओं की धोतियाँ आ जाती थीं। अतः चार रूपये की जगह कोई प्रजा यदि पाँच या छः रूपये पा जाता था, तो वह बहुत प्रसन्न हो जाता था। इस प्रकार विवाह के सारे कार्यक्रम सम्पन्न कर के तथा रात के भोजन के लिए पूड़ी सब्जी और मिठाई के पैकेट प्राप्त कर सभी बाराती जिस बस से आये थे, उसी बस में बैठ कर मुगलसराय स्टेशन पर आ गये। रात मुसाफिर खाने में आ कर सब ने अपने पैकेट का भोजन किया और रात वही बिता कर सबेरे की पसिन्जर पकड़ कर गाँव आ गये, पिता जी रात में ही किसी गाड़ी से दिल्ली के लिये प्रस्थान कर गये।

नित्य क्रिया से निवृत होने के बाद उसी दिन बन्दनवार की रस्म भी सम्पन्न कर ली गयी। इस संस्कार में परिवार की महिलायें गांते बजाते दूल्हे के साथ नदी में जाती हैं, और वहाँ मौरी को नदी के अन्दर जमीन में गाड़ दिया जाता है, तथा लौटते वक्त गाते बजाते गाँव के सीवान और सभी देव स्थानों का दर्शन पूजन करते हुए लोग घर लौटते हैं। हमारा गाँव चूंकि बहुत बड़ा है, तथा देव स्थान भी कई है, और खेत के सीवान में कई जगह पूजन किया जाता है, अतः परिक्रमा करते करते काफी थकावट आ जाती है।

विवाह करके घर लौटने के पश्चात हमारे परिवार की एक परम्परा यह भी है कि दूल्हा सभी बड़ों का चरण स्पर्श करके उनको कुछ दक्षिणा देता है। घर जाते ही मेरी माँ ने जैसा बताया मैंने सब का चरण स्पर्श किया और उनव्ाâो दक्षिण दिया। सभी रिश्तेनाते बड़े खुश हुए। ससुराल से मुझे काफी रूपये मिल गये थे। मेरे कुर्ते की सभी जेबे रूपयों से भरी हुई थीं। अतः माँ की इच्छा अनुसार मैने सबको सन्तुष्ट किया। माँ को दिये गये थैली को भी मैने माँ को दे दिया, जिसमें चाँदी के पचीस रूपये रखे हुऐ थे। माँ यह सब देख सुन कर बड़ी प्रसन्न थीं। ऐसा  मेरे परिवार में इसके पहले किसी को इतना रूपया नहीं मिला था। इस प्रकार मेरे विवाह की विशिष्टता देख सुन कर सभी पारिवारिक एवम् सम्बन्धी प्रसन्न थे। एक अनोखा विवाह हंसी खुशी के वातावरण में सम्पन्न हुआ। माँ की इच्छा के अनुसार अपने सभी सम्बन्धियों तथा परिवार के अपने से बड़ों चाचियों, भाभियों, बड़ी माताओं तथा आजियों को माँ के निर्देश के अनुसार मैंने दो रूपयें से लेकर पाँच रूपये तक विदाई स्वरूप दिया। सभी लोग बड़े प्रसन्न थे। ऐसा इसके पहले हमारे परिवार में किसी ने नहीं किया था। अतः गाँव में यह चर्चा का विषय बन गया था। इस प्रकार मेरे विवाह की सारी रस्म और रीतियाँ हँसी खुशी के माहौल में एक अनोखे विवाह कि परम्परा के साथ सम्पन्न हुई।

चूंकि हमारे परिवार की परम्परा के अनुसार विवाह के साथ बहू की विदाई की परम्परा नहीं प्रचलित थी, अतः मेरा गौना तीसरे साल में सम्पन्न हुआ। कई लोगों के गौने साल अन्दर भी विवाह के बाद सम्पन्न हो गये थे। किन्तु मुझे इण्टरमीडियेट की परीक्षा देनी थी, और मेरी पत्नी को भी हाईस्कूल की परीक्षा देनी थी। अतः गौना तीसरे वर्ष में करने का सुनिश्चित हुआ। गौना के समय बहुत ही सीमित लोग मात्र एक टैक्सी में बैठ कर गये थे। परिवार के तथा रिश्तेदारों में भी खास खास लोग ही गये थे। गौने में पिता जी नहीं आये थे। टैक्सी से हम लोग शाम को पहुँचे और सबेरे विदाई हो गयी।

 मेरी पत्नी हाईस्कूल के बाद इण्टरमीडिएट की परीक्षा नही दे पाई क्योंकि वाराणसी में तब आर्य कन्या विद्यालय में इण्टरमीडिएट की कक्षायें नहीं चलती थीं। अतः हाईस्कूल के बाद मेरी पत्नी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन से विशारद एवंम् साहित्य रत्न की परीक्षा पास की। गौने के बाद मै भी इण्टरमीडियेट परीक्षा पास कर देवरिया में आगे अध्ययन के लिए चला गया था। मेरे गौने की एक और विशेषता यह रही कि मेरा गौना डोली या पालकी में न होकर टैक्सी में हुआ। गाँव में इसके पहले कोई बहू टैक्सी में बैठ कर नहीं आयी थी। मुझे गौने में इतना अधिक मिष्ठान लड्डू और खाझा मिला था, जैसा मेरे गाँव में कभी किसी को नहीं मिला था, तथा दहेज में भी विविध सामग्रियाँ पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुई थींr। अतः सारे गाँव में मिठाई बाँटी गयी, और दहेज की सामग्री भी सम्बन्धी की औरतें अपनी अपनी इच्छा के अनुसार माँ से माँग लीं। माँ ने उनकी इच्छा के अनुसार प्रसन्नता पूर्वक सबको सन्तुष्ट किया। बहुत दिनों तक इन सब बातों की चर्चा होती रही।

जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि जब मेरा विवाह हुआ था तो उस समय हमारे साले की शादी एक साल बाद हुई किन्तु उनका गौना साल के अन्दर ही हो गया था, और मेरे गौने के समय मेरी सरहज बहू के रूप में आ गयी थी। मेरे विवाह के समय मेरी मात्र दो सालियाँ थी। माधुरी और मंजू और बाद में ममता, मंजरी और मनीषा का जन्म हुआ। मेरे देवरिया  प्रवास के दौरान इन नवजात सालियों की देख भाल बड़ी होने के नाते मेरी पत्नी ने ही किया। क्योंकि मेरी सास अध्यापिका होने के कारण पढ़ाने के लिए विद्यालय चलीं जातीं थीं। अत: मेरी पत्नी का दूर के कॉलेज में जाकर आगे पढ़ना सम्भव नहीं हो पाया था।

मेरे सभी बच्चे १९६० और १९७१ के बीच में हो गये। मुझे कुल छ: सन्तानें हुई। १९६० में मेरा पहला पुत्र मृत ही पैदा हुआ था। इसके बाद फरवरी के बसन्त पंचमी के दिन मेरी सबसे बड़ी पुत्री बन्दना का जन्म हुआ। मेरी दूसरी पुत्री बीना २८ अक्टूबर १९६३ को विजयादशमी के दो दिन बाद हुई। उसके बाद तपस्या और अनेक मनौतियों के बाद देवव्रत का जन्म १३ नवम्बर, १९६७ को तथा साधना का जन्म १२ जुलाई १९७१ को हुआ। बीना के बाद लड़का पैदा हुआ वह सातवें महीने में ही अचानक किसी कमी के कारण पैदा हो गया, और २४ घण्टे के अन्दर ही चल बसा। उस समय मैं विद्यालय जाने की तैयारी में था। अपै्रल का महीना, अपराहन की कड़ी धूप, मैं तैयार ही हो रहा था कि अचानक पत्नी को लगा की जैसे जोर की लघु शंका लगी हो। वह भाग कर कमरे के बाहर लघुशंका के लिए आयी और अचानक पेट से बच्चा गिर गया। यह सब देख कर मैं हतप्रद और अवाव्â रह गया। क्या करूँ, क्या न करूँ, मेरी समझ में नहीं आया। मैने छत पर से ही मकानमालकिन पड़ाइन को आवाज लगाई। वे दौड़ी हुई अपनी लड़कियों के साथ आयीं और सारी व्यवस्था कीं। मैं थोड़ी देर बाद राम भवन चौराहे से जाकर डॉक्टर आरोरा को ले आया। उन्होंने सारी बात सुन कर मुझे आश्वस्त किया कि सब ठीक ठाक है। रात में किसी प्रकार की कोई कमी महसूस नहीं हुई। शाम को ही मैंने दाई का भी प्रबन्ध कर दिया था। अपनी आदत के अनुसार दूसरे दिन मैं सबेरे चार बजे ही उठ कर अपने सम्बन्धी, श्री हरि राम द्विवेदी, जो बागड़ धर्मशाले में रहते थे, सबेरे जा कर टहलते हुए उनको भी सूचित कर आया। समाचार सुन कर वे बड़े प्रसन्न हो कर अपनी पत्नी के साथ थोड़ी देर में आने का वादा किया।

संयोग ऐसा था कि उसी दिन शाम को बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक पिता जी भी आ गये और यह खुशखबरी सुन कर बड़े प्रसन्न हुये। दूसरे दिन सबेरे सबेरे मेरी पत्नी के मामा पंडित जुगुल किशोर पांडे जी भी अचानक कानपुर से आ गये थे। सबेरे सबेरे जब दाई सेवा करने के लिए आयी तो मैं अपने नीचे के कमरे में बैठा अध्ययन कर रहा था। तभी दाई ने मुझे ऊपर से आवाज लगाई और जाने पर बतलाया कि बच्चे की हालत बिगड़ती जा रही है। यह सुन कर मेरे पिता जी भी तथा मामा जी भी दौड़ कर उâपर पहँुचे। तब तक उसका काम तमाम हो चुका था। पिता जी ने डबडबाई ऑखों से बच्चे की नाड़ी देख कर कहा कि बच्चा नहीं रहा। इसके पूर्व मोहल्ले के लोग जो अनजान से थे, मुझे बाहर बुला कर बधाई देने लगे, और जब मैने उन्हें वास्तविकता बताई तब सब शोकाकुल हो गये। अपने मकान मालिक पांडे जी से पूछ ताछ कर मैने शव को प्रवाहित करने की व्यवस्था किया। पिता जी मामा जी, तथा मोहल्ले के कुछ लोग मेरे साथ गये और जमुना किनारे गऊ घाट से नाव पर सवार हो कर यमुना पुल के पास बीच जमुना में पहुँच कर प्रवाह संस्कार सम्पन्न किया। इस प्रकार यह पुत्र भी ईश्वर को प्यारा हो गया।

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महा मृत्युजंय जप –

मैं दुखी तो था ही। पिता जी गाँव चले गये और वहाँ जा कर सारी बात सुधाकर भैया से बतलाये, तो उन्होंने अपनी पत्नी को सेवा के लिए भेज दिया। कुछ दिनों के बाद सब सामान्य हो गया। मैने प्रयाग में भी और बनारस में भी पंडितों से विचार कर के महामृत्युंजय का जप मृत्युंजय मंदिर वाराणसी में, जो दारा नगर में स्थित है, कराने का संकल्प किया। बनारस में मैं बड़ी पियरी पर अपने ससुराल में रह कर सबेरे पैदल ही दशाश्वमेध घाट जाता था। वहाँ गंगा स्नान कर के शीतला मंदिर, काली जी, ढुंन्डी राज, अन्नपूर्णा, बाबा विश्वनाथ, काली जी, संकठा जी, विंध्यवासिनी, भैरव जी, मृत्युंजय महादेव तथा बड़ा गणेश का दर्शन करते हुए घर आता था, और वहाँ से सारी व्यवस्था कर के नौ बजे के लगभग मृत्युंजय महादेव मंदिर पहँुच जाता था। वहाँ दर्शन पूजन के पश्चात् पंडितों के साथ मैं स्वयम् बैठ कर जप करता था। दस बजे से एक बजे तक, फिर जल पान, जिसमें आठ आठ पेड़े और एक एक गिलास दूध सब लोग पीते थे। सात पंडित और एक मैं, इस तरह लगभग आधे घण्टे विश्राम कर हम लोग पुनः बैठ जाते थे जप करने, और पुनः तीन घण्टे जप चलता था। इसके पश्चात् मृत्युंजय भगवान का पूजन और आरती करने के पश्चात् मैं घर आता था, और फलाहार करता था। रात में फर्श पर ही सोना पड़ता था। इस प्रकार नौ दिनों तक यह क्रम चला। उसके बाद विशेष हवन पूजन और प्रसाद वितरण हुआ। तत्पश्चात् ब्राह्मण भोजन और जप करने वाले ब्राह्मणों को पूर्व निश्चय के अनुसार उनका पारिश्रमिक दे कर  बिदाई प्रसन्नता पूर्वक की गयी। सभी ब्राह्मण सन्तुष्ट होकर गये। मुझे सभी ने आर्शीर्वाद दिया, और अपनी मनोभावना व्यक्त की कि हम लोग समझते थे, कि आप एकाध दिन एकाध घण्टा ही जप करेगें, किन्तु यह देख कर हम लोग आश्चर्यचकित थे कि वैâसे सबके साथ आपने सारे नियमों का निर्वाह किया। उसके पूर्व भी आप गंगा स्नान और दर्शन पूजन करते थे। यह सब एक तपस्वी के लक्षण हैं। मैं उनकी बातों को सुन कर प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ। मेरे गाँव और रिश्तेनाते के लोग भी पूर्ण आहुति के दिन आमंfित्रत थे। सब भोजन उपरान्त सन्तुष्ट होकर तथा यथा साध्य दक्षिणा प्राप्त कर प्रसन्न मुद्रा में आर्शीर्वाद दे कर गये। संयोग से पिता जी भी दिल्ली से इस सुअवसर पर आ गये थे। उनका आशीर्वाद प्राप्त कर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुयी। इस प्रकार संकल्प के अनुसार यह शुभ कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। इसमें मेरे ससुराल वालों का हर प्रकार का सहयोग प्रशंसनीय रहा।

गया श्राद्ध एवं श्रीमद्भागवत सप्ताह श्रवण –

जब मैं चारो धाम की यात्रा पर गया था तब मेरी माताजी जीवित थीं। अत: ब्रह्मशिला पर जैसा कि अन्य सहयोगियों ने किया मैं श्राद्ध नहीं कर सका। जब मेरे माता पिता दोनों स्वर्गवासी हो गये तो मैंने सपत्नीक गया श्राद्ध करने का संकल्प किया। मेरे अनुज रत्नाकर भी मेरे साथ गये। सबसे पहले हम लोग प्रयाग से परिक्रमा और पिण्डदान करके गाँव गये वहाँ भी गाँव की परिक्रमा और श्राद्ध करके काशी में पिशाच मोचन में श्राद्ध कर्म सम्पन्न किये और तत्पश्चात् गाड़ी से गया चले गये। वहाँ सेन पन्त के यहाँ हम लोगों ने अपना आवास बनाया और पाँच दिन वहीं रुककर यथा क्रम पण्डा के साथ पिण्डदान किया। विष्णुपाद पर अन्तिम दिन पूजन करके हम लोग प्रयाग आ गये। यहाँ आने पर उचित तिथि पर गुरुदेव श्री रंगरामानुजाचार्य जी के संरक्षण में श्रीमद््भागवत् जप, पाठ एवं सप्ताह श्रवण का कार्यक्रम कुशलता पूर्वक सम्पन्न किया। इसमें सभी पारिवारिक, रिश्तेदार, पड़ोसी आदि नित्य आकर कथा श्रवण करते थे। सातवें दिन के बाद पूर्णाहुति यज्ञ और भोजन का आयोजन हुआ जिसमें सम्मिलित होकर सब मुझे कृतार्थ किये। गुरुदेव और उनके साथ आये ब्राह्मणों का समुचित द्रव्य, अन्न और वस्त्र आदि से सबको संतुष्ट कर यह सुखद धर्म कर्म भी ईश्वर की कृपा से सम्पन्न हुआ। सभी पारिवारिक और रिश्तेदार संतुष्ट होकर अपने अपने आवास को चले गये।

‘‘प्रभामाल’’

एक दिन मेरी पत्नी ने एक तकिया का गिलाक मुझे दिया और कहा– ‘इस पर कुछ बना दीजिए मैं कढ़ाई कर दूँगी।’ मैंने तुरन्त एक सूर्य का गोला बनाकर इसके बीच में लिख दिया ‘प्रभामाल’। पत्नी ने कहा– ‘यह ‘प्रभामाल’ क्या है?’ मेरी एक चाची ने तुरन्त कहा– नहीं समझी? ‘प्रभाकर’ का ‘प्रभा’ और ‘मालती’ का ‘माल’ मिलकर बन गया ‘प्रभामाल’। यह सुनकर सब लोग हँस पड़े। यह सबकुछ एक पल मे अप्रत्याशित रूप से बिना सोचे समझे हो गया। इस तरह शाश्वत ‘प्रभामाल’ अस्तित्व में आया–

तुम मेरे जीवन में आयी कलियों की कोमलता ले।

सुमनों का सौरभ बिखराती, शुचि गङ्गा चञ्चलता ले।।

नभ का चन्दा आँगन खेले,मेरा प्रश्न तेरा उत्तर।

सूनी कुटिया बिहँसी मेरी, अमर वेल की बढ़ी लतर।।

जीवन लक्ष्य प्राप्त करने को, साधन के सङ्ग साध्य मिला।

तुमसा साध्य प्राप्त कर, मुझको संगम तीर्थ प्रयाग मिला।।

धर्म, भक्ति और ज्ञान त्रिवेणी, तुम मेरी ‘मालती’ लता।

बनी ‘प्रभाकर’ की तुम माला, ‘प्रभामाल’ नव नाम पता।।

‘कर’ को हटा ‘प्रभाकर’ से, ‘मालती’, ‘माल’ मिल ‘प्रभामाल’।

स्त्रीलिंग, पुलिंग का भेद मिटा, शुचि नवल प्रयोग-सुधा-स्वर-ताल।।

आत्मा एक, बिलग जीवात्मा, दोनों अमर अनादि कहायें।

तन नश्वर है तब क्या चिंता, आगे, पीछे कोई जाये।।

तुम शारदा, लक्ष्मी, धात्री, माया, ब्रह्म युगल की पात्री।।

‘प्रभामाल’ की यही प्रार्थना, सुयश युगल का अमर कहाये।।

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देवरिया प्रवास

देवरिया का देवरिया महाविद्यालय एक वर्ष पूर्व नया नया ही खुला था। अतः मीरजापुर तथा बनारस के बहुत से विद्यार्थी देवरिया पढ़ने चले गये थे। उस समय देवरिया महाविद्यालय, जो डी० एम० कालेज कहलाता था, उसके प्रबन्धक वहीं के स्थानीय नेता श्री दीप नरायण मणि त्रिपाठी थे, जो कभी कभार ही विद्यालय में आते थे। उस समय वे वहाँ के एम० एल० ए० भी थे। विद्यालय आगरा विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त था। चूंकि विद्यालय नया नया था अतः प्रयोगशालायें नाम मात्र की ही थी, और एक एक कक्षा में सत्तर से भी अधिक छात्र थे। अध्यापकों के पढ़ाने का तरीका प्रायः सभी का एक जैसा यह था कि वे अपने स्नातक शिक्षा के नोट छात्रों को बोल कर लिखा देते थे, और प्रायोगिक परीक्षा में अध्यापक अपनी संस्तुति के आधार पर, जिसको जैसा चाहते थे, नम्बर दिलवा देते थे। किसी भी विषय के प्रायोगिक शिक्षा की उचित व्यवस्था नहीं थी। केवल अभ्यास पुस्तिका में सभी विषयों के प्रायोगिक कार्य लिखा दिये जाते थे। हम लोगों ने गोरखपुर जा कर पहले वर्ष की परीक्षा पूरी तरह से आगरा विश्वविद्यालय के अन्तरगत ही दी थी। किन्तु दूसरे वर्ष १९५८ में चूंकि गोरखपुर विश्वविद्यालय बन गया था और देवरिया का हम लोगों का महाविद्यालय गोरखपुर विश्वविद्यालय के कार्य क्षेत्र में आ गया था, अतः बी० एस० सी० एजी० की डिग्री हम लोगों को गोरखपुर विश्वविद्यालय से ही प्राप्त हुई ।

मुझे याद है कि परीक्षा देने के लिए हम लोग पहले पहल गोरखपुर गये थे, और वहाँ उर्दू बाजार में स्थित आर्य समाज मंदिर में परीक्षा के दिनों में रहने के लिए व्यवस्था कर आये थे। वहाँ केवल रहने की अनुमति मिली थी। शौच आदि के लिए हम लोगों को बाहर जाना पढ़ता था, तथा खाने पीने की अपनी व्यवस्था करनी पड़ी थी। दूसरे वर्ष की परीक्षा जो फाइनल परीक्षा थी, मैं अपने एक रिश्तेदार डाक्टर राम चन्द्र तिवारी, जो वहीं महाराणाप्रताप महाविद्यालय में हिन्दी के अध्यापक थे, जो बाद में गोरखपुर विश्वविद्यालय बन गया था, जहाँ हम लोगों का परीक्षा केन्द्र था, मैं उनके आवास पर रह कर परीक्षा में सम्मिलित हुआ था।

देवरिया में हम लोगों को रहने के लिए विद्यालय के समीप ही नया नया आधा-अधूरा बना छात्रावास था, जिसमें लम्बाई में कमरे तो बीस बने थे, किन्तु छत केवल आठ कमरों पर ही पड़ पायी थी। एक एक कमरे में दो दो छात्र रहते थे। मैं दो नम्बर के कमरे में अपने जिले के ही एक छात्र राम जी सिंह के साथ रहता था। हमारे बगल में अपने गाँव के आस पास के ही गाँव के तीन चार लड़के और थे। एक नम्बर में दो हरिजन छात्र थे। शेष कमरों में वाराणसी  के यू०पी० कालेज के छात्रों की भरमार थी, जो अधिकांश क्षत्रिय थे। छात्रावास के सोलह लड़कों में मैं अकेला ब्राह्मण था। हम लोगों से पहले वर्ष के तीन चार छात्र एक ही कमरे में रहते थे, जो हमसे वरिष्ट थे। यूपी कालेज के छात्र एक गुट बना कर रहते थे, और अपने से वरिष्ट छात्रों से भी राग द्वेष करते थे। छात्रावास में कोई सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं थी। वार्डन भी नाम मात्र के थे। भोजन के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं थी। एक हैन्डपम्प था, जिससे अपनी अपनी बाल्टी से हम लोग स्नान करते, शौच के लिए खेतों में जाते। विद्यालय में एक कुँआ भी था, जब कभी हैन्डपम्प खराब हो जाता तो हम लोग उस कुएँ के जल का इस्तेमाल करते। हैन्डपम्प के पास भी अक्सर पानी और कीचड़ भरा रहता था। इन विपरीत परिथितियों में रह कर हम लोग वहाँ देवरिया में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। कहाँ पिलानी का सर्वसुविधा सम्पन्न छात्रावास, कहाँ दिल्ली का सब सुख भोग, और कहाँ देवरिया की यह विपत्ति भरी जिन्दगी जहाँ न रहने की उचित व्यवस्था, न खाने पीने की। पास ही में एक चीनी मिल थी। जिसका गंन्दा पानी जिसमें शीरा मिला रहता था, बह कर छात्रावास के पास से ही बहने वाली वुँâआनों नदी में गिर कर बदबू पैâलाता था, तथा जिससे आस पास मच्छरों की भरमार थी। ऐसे छात्रावास में हम लोग रह रहे थे। सबेरे बिना कुछ खाये पीये सात बजे ही हम लोग विद्यालय चले जाते और बीच के अवकाश में विद्यालय से लगभग दो किलोमीटर दूर देवरिया स्टेशन पर जा कर भोजन करते। रात में भी यही क्रम चलता। कभी कभार बिना खाये ही सो जाते। मच्छर इतने भयंकर थे, और इतने अधिक थे कि मच्छरदानी में भी घुस जाते और बड़ा कष्ट होता था। उनका भनभनाना इतना अधिक होता था जैसे कोई स्टोब जल रहा हो। चूंकि पढ़ाई करनी थी, इस लिए सब कष्ट सहकर हम लोग पढ़ रहे थे। एकाध महीने के बाद मैं रात में लोटे में चना भिगोने लगा था और गुड़ रखने लगा था। सबेरे विद्यालय जाने के पहले मैं वह चना और गुड़ खा कर विद्यालय पढ़ने जाया करता था। मेरी देखा देखी अन्य छात्रों ने भी यह व्यवस्था बना ली।

कुछ दिनों के बाद जब सभी लोगों से आपसी मेल जोल बढ़ गया तो हम लोगों ने एक पहाड़ी नौकर रख कर उससे भोजन बनवाना प्रारम्भ कर दिया। ईटे इकट्ठा कर चूल्हा बना लिया। आपस में चंदा इकट्ठा कर आवश्यक बर्तन भगवना, तवा, कराही, गिलास, प्लेट, कटोरियाँ तथा जार आदि खरीद दिया था। कुछ छात्रों की एक कमेटी बना दी गयी थी, जिसका प्रबन्धक मुझे बना दिया गया था। मैने खरीददारी करने की जिम्मेदारी जान बूझ कर यूपी कालेज के छात्रों को सौंप दी थी, यह कहकर कि उनका छात्रावास का अनुभव है। दो छात्र यूपी कालेज के तथा दो छात्र वरिष्ट कक्षा के तथा मैं इस प्रकार पाँच आदमियों की कमेटी थी। सामान खरीदने के लिए चारों लोग साथ-साथ जाते थे और नित्य मुझे आकर हिसाब लिखा दिया करते थे। निश्चय यह हुआ था कि जो भी खर्च आयेगा उसे सभी छात्रों में बराबर बराबर बाँट दिया जायेगा। एक ही महीने के अन्दर लोग मुझसे काफी प्रभावित हो गये थे। इसलिए सभी लोगों ने यहाँ तक कि मेरे वरिष्ट छात्रों ने भी मुझे अध्यक्ष चुन लिया था। अध्यक्ष के नाते मैं सबसे पहले प्रधानाचार्य जी० सी० माहेश्वरी से मिल कर छात्रावास के लिए एक दैनिक समाचार पत्र देने की व्यवस्था करवायी। शाम को जब तक भोजन बनता रहता मैं एक कुर्सी पर बैठ कर सभी छात्रों को धर्म, राजनीति, समाज, तथा विद्यालय की समस्याओं  के बारे में अपने विचार रखता जिसे सभी छात्र बड़े ध्यान से सुनते तथा अपनी भी सम्मति देते।

विद्यालय चूँकि नया नया था, न तो तब तक स्नातक स्तर के उचित शिक्षा के अनुसार प्रयोगशालायें ही बन पायी थी न पुस्तकालय और न छात्रों के बैठने की उचित व्यवस्था थी। खेल कूद के लिए भी कोई खास प्रबन्ध नहीं था। इस लिए अच्छे विद्यालयों से आये हुए छात्रों के अन्दर आक्रोश पनप रहा था। प्रधानाचार्य प्रबन्ध समिति से उचित सहयोग न मिल पाने के कारण असहाय से थे। उस महाविद्यालय में विज्ञान वर्ग और कृषि विज्ञान वर्ग की कक्षाऐं चलती थी। देवरिया जनपद का वह पहला पहला महाविद्यालय था, जिसके कारण छात्रों की संख्या तो लगभग ५०० के करीब थी, किन्तु उसकी तुलना में अध्यापकों की संख्या विषय विशेषज्ञों की आवश्यकता के अनुसार नहीं हो पायी थी। दो दो तीन तीन विषयों को पढ़ाने के लिए एक एक अध्यापक को दायित्व दिया गया था। ये अध्यापक भी अक्सर आते जाते रहते थे। अतः पढ़ाई का उचित माहौल नहीं बन पाता था। अधिकांश अध्यापक अपने समय के शिक्षा के नोटों को लिखा कर कोर्स पूरा होने की खाना पूर्ति कर लिया करते थे। कुछ ही अध्यापक ऐसे थे जो अपने विषय को ढंग से समझाने का प्रयास करते थे। प्रायोगिक ज्ञान का तो कोई सवाल ही नहीं था। क्योंकि न तो उचित प्रयोगशालायें थी, न तो प्रायोगिक उपकरणों की व्यवस्था थी। जैसा कि उस समय का प्रचलन था, अध्यापक जो कोई एकाध प्रायोगिक कराये रहते थे, उसी के आधार पर परीक्षा दिलवा देते थे। विद्यार्थी के स्तर का आकलन मौखिक परीक्षा के माध्यम से बाह्य परीक्षक करते थे। किन्तु जहाँ तक अंक मिलने का सवाल था, सम्बन्धित अध्यापक अपनी विद्यार्थी के प्रति रुचि के अनुसार वाह्य परीक्षक से अंक दिलवा देते थे। लिखित परीक्षा चूँकि बाहर के केन्द्र पर होती थी, अतः वहाँ का वातावरण बड़ा गम्भीर रहता था। किसी प्रकार की उदंडता और नकल का तो सवाल ही नहीं था। विद्यार्थियों के अन्दर उछृंखलता तो १९७० के दशक के बाद विशेष रूप से चलने लगी थी। तब परीक्षा के समय इतनी कड़ी व्यवस्था रहती थी कि कोई नकल करने की सोच भी नहीं सकता था। देवरिया महाविद्यालय के छात्रों की परीक्षा यद्यपि आगरा विश्वविद्यालय के अन्तर्गत ही हुआ था, किन्तु १९५८ में गोरखपुर विश्वविद्यालय बन जाने के कारण हम लोगों का बी० यस० सी० एजी० का परीक्षाफल गोरखपुर विश्श्वविद्यालय की ओर से घोषित किया गया था। इस तरह हम लोग अनायास ही गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रथम सत्र के स्नातक बन गये थे। विद्यालय में हर प्रकार की सुविधाओं का अभाव था। पढ़ाई में भी अध्यापकों की मनमानी चलती थी। छात्रावास में भी सुरक्षा का कोई इन्तजाम नहीं था, न तो चहारदीवारी ही थी। मच्छरों का प्रकोप इतना भयंकर था, कि हम लोग भयभीत रहते थे। जैसा कि मैं पहले बता चुँका हूँ कि हम लोगों ने अपने ही प्रबन्ध से एक नौकर रख कर भोजन बनाने की सुविधा बनाई, किन्तु वह नौकर भी भोजन बनाने में निपुण नहीं था। हम लोग उसके पास बैठ कर काम कराते थे। इस तरह दूर स्टेशन पर न जा कर भोजन की सुविधा किसी तरह बन पाई । जलपान का सवाल ही नहीं था। जैसा की मैंने बताया हम लोग चना और गुड़ तथा लाई इत्यादि का व्यवस्था कर के उसी से जलपान करते थें। शाम का भोजन जल्दी ही दिन रहते बना लिया जाता था क्योंकि प्रकाश की कोई व्यवस्था भी नहीं थी। पढ़ाई के लिए सब लोगों ने अपने अपने टेबुल लैम्प खरीद लिये थे, जिसमें मिट्टी का तेल डाल कर पढ़ाई होती थी।

जैसा की मैं पहले बता चुका हूँ भोजन के पूर्व छात्रों के ज्ञान वर्धन के लिए मैं एक घण्टा प्रवचन देता था। तथा हम सभी छात्र मिल कर उस दिन पढ़ाये हुए विषयों का आपस में आदान प्रदान किया करते थे। हम लोगों की चिन्ता थी कि किस प्रकार विद्यालय की प्रगति हो और हम लोग भी कुछ उचित सुविधाऐं भी प्राप्त कर लें। हम लोगों के इस आयोजन की सूचना जब प्रधानाचार्य और अध्यापकों तक पहँुची तो वे भी कभी कभार आ कर हम लोगों का ज्ञान वर्धन करने लगे। यहाँ तक की नगर में रहने वाले छात्र भी इस बैठक से ज्ञान अर्जन करने लगे। इस बैठक में सभी छात्र अपने अपने ज्ञान और गुण के अनुसार अपनी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने लगे थे। इस प्रकार पूर्णतः अव्यवस्थित क्रम में भी हम लोग अपने प्रयास से ज्ञानार्जन करने लगे थे। एक बार तो हम लोगों ने उस समय के जाने माने कम्युनिस्ट नेता गोपालन जो देवरिया में पधारे थे, उनको भी इस गोष्ठी में आमन्त्रित किया था, तथा इस कार्यक्रम को छात्रावास में न कर के विद्यालय में दिन के समय किया गया था, जिससे अधिक से अधिक छात्र लाभान्वित हो सकें। गोपालन जी अंग्रेजी में बोले थे। बीच बीच में टूटीफूटी हिन्दी का भी प्रयोग कर लेते थे। उन्होंने हम लोगो के अव्यवस्थित जीवन क्रम पर खेद प्रकट किया था, तथा छात्रों को अपनी पढ़ाई के साथ साथ समाज और देश का भी चिन्तन करना चाहिए, यह आह्वान दिया था। जब हम लोगों ने उन्हें बतलाया कि हम नियमित रूप से इस प्रकार के कार्यक्रम करते रहते है, तो वे बड़े प्रसन्न हुऐ थे। उनका यह कार्यक्रम बड़ा सफल हुआ था और समाचार पत्रों में भी विद्यालय में हम लोगों की दयनीय स्थिति फिर भी हम लोगों की नियमित अध्यापन की प्रशंसा के साथ गोपालन जी की भी प्रशंसा की गयी थी।

किन्तु इस कार्यक्रम को आयोजित करके हम लोग एक बड़ी मुसीबत में पड़ गये थे। हुआ यह कि गोपालन जी के विद्यालय प्रांगण में व्याख्यान देने की सूचना समाचार पत्रों के माध्यम से जब तत्कालीन एम० एल० ए० तथा विद्यालय के प्रबन्धक श्री दीपनरायण मणि त्रिपाठी को मिली तो उन्होंने काँग्रेसी होने के कारण प्राचार्य जी से इसकी शिकायत की। प्राचार्य जी ने जब उन्हें बतलाया कि यह हमारा कार्यक्रम नहीं था, विद्यार्थियों ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया था, तो पता लगा कर उन्होंने हमारे साथ के अन्य पाँच छः छात्रों को बुलाकर अपनी नाराजगी प्रकट की और कह दिया, आप लोगों के लिए यह विद्यालय नहीं खोला गया है। जब हम लोगों ने बतलाया कि हम को राजनीति से क्या लेना देना है। हम तो विद्यार्थी हैं। हम लोगों ने विद्यार्थी होने के नाते ज्ञानार्जन की दृष्टि से उनके विचार जानने के लिए, देश के उस समय के जाने माने प्रतिष्ठित नेता को बुलाया था, यह कोई अपराध नहीं है। इस पर वे और बिगड़ गये और कहने लगे, आप लोग अपने अपने घर जाइये, यह विद्यालय आप जैसे लोगों के लिए नहीं खोला गया है। इस पर हम लोग भी उग्र हो गये और उनसे सब ने जोर दे कर कह दिया, कि आप यह लिख कर दे दीजिये यह विद्यालय केवल कांग्रेसियों के लिए है, तो हम लोग विद्यालय छोड़ देंगे। बात बहुत बढ़ गयी थी। हम लोगों ने अपनी सारी मुसीबतें सबके सामने जब बयान किये तो वे कुछ शान्त हुए, और हम लोगों को सुविधाएँ प्रदान करने का वादा किया । बाद में इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विद्यालय में छात्र संघ बनाने की नींव पड़ी, जिसके लिए बाघ्य हो कर अपनी नाराजगी के बावजूद छात्रों की दृढ़ता और एकता के आगे उनकी कोई भी नीति चल नहीं पाई, और इस प्रकार छात्र अपने को विजयी महसूस करने लगे।

कुछ ही दिनों के बाद महाविद्यालय में छात्र संघ के चुनाव की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। नामांकन प्रक्रिया में बिना मुझसे पूछे नगर के तथा छात्रावास के भी अनेक छात्रों ने जोर दे कर अध्यक्ष पद के लिए मेरा भी नामांकन पत्र भरवा दिया। मानसिक रूप से यद्यपि मैं इस होड़ में नहीं पड़ना चाहता था, किन्तु नगर के अनेक प्रभावी छात्रों ने जोर दे कर कहा कि आप को एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ेगा। विशेष कर देवरिया की चीनी मिल के मैनेजर के सुपुत्र देवराजअरोड़ा ने विशेष सहयोग और संघटनात्मक कौशल का प्रयोग करके मुझे नगर के छात्रों के बीच स्वयम् अपनी साइकिल पर ले जा कर सबसे मिलवाया था। मेरी प्रतिद्वन्दिता में यूपी कालेज के पूर्व छात्र लोक नाथ सिंह खड़े थे, जो बाद में वही प्राध्यापक भी हो गये थे। दक्षता व्याख्यान के दिन डॉक्टर केपी श्रीवास्तव जो चुनाव अधिकारी थे, उनकी अध्यक्षता में तथा सभी छात्रों और अध्यापकों के समक्ष चुनाव में भाग लेने वाले छात्रों को दक्षता व्याख्यान देना पड़ा। प्रायः सभी छात्रों के लिए इस प्रकार के कार्यक्रम में भाग लेने का पहला सुअवसर था। व्याख्यान का विषय ठीक उसी समय प्रगट किया गया था। प्रायः जितने भी छात्र बोले, वे विषय तथा वत्तृâता की दृष्टि से नगण्य से थे। दक्षता व्याख्यान के लिए दस मिनट का समय दिया गया था, और अधिकांश छात्र मात्र दो तीन मिनट बोले वह भी भटक भटक कर डरते हुए कुछ बोल पाये थे। किन्तु जब मेरी बारी आयी तो जैसे सरस्वती मेरी जिह्वा पर बैठ गयी थीं। जीवन में इस प्रकार के माहौल में मुझे पहली बार बोलने का अवसर प्राप्त हुआ था। किन्तु बाद में मैं स्वयम् आश्चर्य चकित था कि वैâसे विषय के अनुसार सटीक उत्तर देकर मैं पूरे दस मिनट तक बोलता रह गया था, और जैसे ही घण्टी बजी और मैंने अपना व्याख्यान समाप्त किया कि चारों ओर से हजारो छात्रों और अध्यापकों ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मेरी जयकार करनी प्रारम्भ की। सब के चेहरे प्रसन्नता से परिपूर्ण थे। यहाँ तक कि सभी अध्यापकों की निगाहें भी अपनी खिलखिलाहट तथा हाव भाव से मुझे आशीर्वाद भी दे रहे थे। यह मेरे जीवन का शायद बहुत उल्लास मय क्षण था। बिना किसी तैयारी के मैं कैसे इतना अच्छा बोल गया, यह मैं स्वयम् नहीं समझ सका। यह निश्चय ही कोई दैवीय चमत्कार था। प्रसन्नता के कारण मेरा गला भरा हुआ था। छात्र उत्साहित हो मुझे अपने कन्धे पर बैठा कर छात्रावास लाये थे। मैं रो रहा था या हँस रहा था, मुझे स्वयम् पता नहीं। अरोरा ने अपनी ओर से सभी छात्रों को मिष्ठान वितरण किया था। अब चुनाव प्रक्रिया का कोई महत्व नहीं रह गया था। सभी छात्रों ने आपस में समझौता और निर्णय कर के मेरे प्रतिद्वन्दियों को बैठा दिया था। उन लोगों ने अपने नामांकन वापस ले लिये थे। इसमें अध्यापकों ने भी योगदान दिया। और किसी ने ऐतराज भी नहीं किया। यह सब निर्णय सामूहिक रूप से दक्षता व्याख्यान वाले दिन ही हो गया था। किन्तु इसकी वास्तविक घोषणा चुनाव की तिथि को ही की गयी। इस प्रकार बिना चुनाव के ही बिना चुनावी रंजिश के ही सभी छात्रों और अध्यापकों के सहयोग से मैं निर्विरोंध अध्यक्ष चुन लिया गया था। मैने अपने सहयोग के लिए अन्य पदाधिकारियों की भी घोषणा छात्रों की राय से कर दी थी, और इस प्रकार महाविद्यालय में पहला पहल छात्र संघ बन गया था।

विद्यालयों में छात्र संघों का अपना विशेष महत्व है। इस प्रकार के संगठनों से छात्रों में वास्तविक जीवन क्षेत्र में उतरने के पूर्व उनकी संगठन क्षमता, व्यक्तिगत प्रतिभा तथा सामाजिक चिन्तन का मार्ग प्रशस्त होता है। तथा रचनात्मक क्रियाकलाप के गुण आ जाते है। किन्तु छात्र संघ जब अपनी मनमानी मागों को मनवाने और स्वार्थ पूर्ति के अड्डे बन जाते है, तथा छात्रों की शिक्षा दीक्षा में हड़ताल और तोड़फोड़ कर के व्यवधान डालने लगते है, तथा विद्यालयों की परिस्थिति का ध्यान न रख कर उपेक्षित व्यवहार करने लगते हैं, तो वैसे छात्रसंघ स्वार्थी तत्वों के अ़ड्डे बन जाते है। ऐसे छात्रसंघ यदि नहीं हों तो अच्छा है। हमारे समय का वह छात्रसंघ प्रथम प्रयास में ही विद्यालय के प्रगति में सहयोग देने में काफी सफल रहा था। मुझे याद है कि निर्देशक के सुझाव के अनुसार हमने सभी विद्यार्थियों को विद्यालय की सम्बर्धन निधि में उस समय प्रत्येक छात्र से पन्द्रह पन्द्रह रूपये देने का निवेदन किया था, जिसे सभी छात्रों ने स्वीकार कर लिया था, और जिसकी सहायता से एक बास्केटबाल फील्ड पक्की फर्श के  साथ बन गयी थी। तथा बालीबाल के लिए भी व्यवस्था हो गयी थी, जिससे हम लोगों का शाम के समय का सद्उपयोग होने लगा था। अपने गाँव में मैं बालीबाल का खिलाड़ी तो था ही बास्केटबाल भी अच्छा खेलने लगा था। उस समय मैं बिल्कुल दुबला पतला लम्बा छरहरा था, और बास्केटबाल अच्छा खेलने लगा था, अतः अध्यापकों ने मुझे इन दोनों खेलों का वैâप्टन बना दिया था। छात्र संघ के प्रयास से ही छात्रावास में भोजन बनाने के लिए भी उचित व्यवस्था हो गयी थी। इस प्रकार छात्रसघं का छात्रों की भलाई के लिए महाविद्यालय में यह प्रारंभिक योगदान था, जो निश्चय ही भविष्य में छात्रसंघों को प्रेरणा प्रदान किया होगा।

हमारी अध्यक्षता में छात्र संघ ने देवरिया में १९५८ में एक और अनूठा कार्य किया था, जो उस समय की राजनीतिक परिस्थिति में एक साहसिक कार्य था। हुआ यह था कि उस वर्ष अलीगढ़ विश्वविद्यालय में एक आन्दोलन के दौरान छात्रों ने गीता की प्रतियाँ जला दी थीं। समाचार पत्रों के माध्यम से जब हम लोगों को इसकी सूचना मिली, तो हम लोगों ने इसके विरोध में जुलूस निकालने का निर्णय लिया। इस जुलूस में विद्यालय के  लगभग ५०० छात्र तो थे ही, नगर के अन्य इण्टर कालेजों के भी छात्र प्रचार करके, और स्कूल बन्द करा करके, इसमें शामिल कर लिये गये थे। कुछ राजनैतिक दल भी इस जुलूस में अपनी रोटी सेंकने के लिए शामिल हो गये थे, जिसमें प्रमुख थे देवरिया के तत्कालीन समाजवादी नेता गेंदा सिंह। तमाम इण्टर कालेजों को बन्द कराने के बाद, तथा वहाँ के छात्रों के भी शामिल हो जाने के बाद, जुलूस में लगभग दो हजार छात्र हो गये थे। किन्तु सारे नगर की परिक्रमा करने के पश्चात् जब हम लोगों का जुलूस मुसलमानों के इलाके में पहुँचा, तो वहाँ पुलिस के लोग आ कर हम लोगों को आगे बढ़ने से रोक दिये। उस समय डी० एन० आर्या देवरिया के पुलिस अधीक्षक थे। जब छात्र पुलिस का विरोध करके आगे बढ़ने लगे, तो आर्या ने छात्रों पर लाठी चार्ज का हुक्म दे दिया। इससे भगदड़ मच गयी, और नेता लोगों के साथ अनेक छात्र गलियों में भाग गये। हम लोग लगभग बीस पचीस महाविद्यालय के छात्र बन्दी बना लिये गये। उसी समय वहाँ के तत्कालीन जिलाधीश माथुर साहब भी आ गये, और उन्होंने पुलिस से छुड़ा कर, किन्तु पुलिस की ही गाड़ी में अपने कार्यालय में ले चलने का आदेश दिया। गेंदा सिंह पता नहीं कहाँ भाग गये थे। इस तरह पुलिस के ही संरक्षण में हम लोगों को जिलाधिकारी के कार्यालय में पहँुचाया गया। बाद में बहुत से छात्रों की भीड़ और गेदा सिंह भी अपने दल बल के साथ जिलाधिकारी के पास पहुँच गये। यही गेंदा सिंह बाद में एक जुझारू नेता के रूप में मान्यता प्राप्त किये और उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंण्डल में स्थान प्राप्त किये। किन्तु जिलाधिकारी ने सबको दूर हटवा दिया, और हमारे साथ छात्र संघ के पांच छः छात्रों को अपने कार्यालय में बुला लिया। हमारे लिए जिलाधिकारी का तामझाम, रुतबा और अदब आदि देखने का यह पहला मौका था। जिलाधिकारी माथुर ने सबसे पहले हम लोगों को जलपान कराया अौर लगभग एक घण्टे तक बड़े प्यार के साथ हम लोगों के उâपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने का प्रयास करते रहे और जलूस को शान्ति पूर्वक भंग करने की अपनी इच्छा प्रकट की। माथुर साहब ने अपने विद्यार्थी जीवन की बातों तथा स्वतन्त्रता के आन्दोलन को बतलाकर तथा इनसे विरत रह कर अपने आई० ए० एस० में चुने जाने का दृष्टान्त दिया, और कहा कि हम लोग विद्यार्थी के रूप में केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें। उन्होंने यह भी कहा कि गीता का अपमान सुन कर आप नवयुवकों का आक्रोश जायज है, किन्तु नगर की कानून व्यवस्था और आप सबकी सुरक्षा का संरक्षक होने के नाते मुझे अपने अधिकारों का प्रयोग करना पड़ रहा है। किन्तु जब उन्होंने हम लोगों के दृढ़ संकल्प को सुना तो, अन्ततः इस बात पर राजी हो गये कि पुलिस के संरक्षण में आप लोग अपने संकल्पित मार्ग से शांन्ति पूर्वक विद्यालय चले जायें। उनके इस सुझाव को हम लोगों ने मान लिया कि मुसलमानी इलाके में भी यदि हम लोगों का विरोध नहीं हुआ, तो हम लोग शान्ति पूर्वक चले जायेंगे।  इस प्रकार पुलिस के संरक्षण में हम लोग कुछ छात्र जैसे ही मस्जिद के पास से आगे बढ़े तो हम लोगों ने देखा की वहाँ मुसलमानों की भीड़ एकत्रित है और वे बलबा करने पर उतारू हैं। वे नारे भी लगा रहे थे। इस पर हमारे साथ के छात्र भी, हम लोगों के मना करने पर भी नारे के जवाब में नारे  लगाने लगे। मस्जिद की ओर से जुलूस की ओर एकाध पत्थर फेंके जाने पर छात्र उतेजित हो गये, और सड़क पर पड़ी गिट्टियों को उठा कर मस्जिद की ओर फेंकने लगे। बात शायद ब़ढ़ जाती, किन्तु साथ में पुलिस और पी० ए० सी० का भारी दस्ता हम लोगों की सुरक्षा में चल रहा था, और जैसा कि जिलाधिकारी के सामने हम लोगों ने मौन जुलूस का वादा किया था, हमने आगे बढ़ कर छात्रों को शान्त किया। पुलिस वाले मुसलमानों को भी समझाये और इस प्रकार कोई विशेष दुर्घटना नहीं हो पायी और हम लोगों का जूलूस विद्यालय में आकर एक सभा के रूप में एकत्रित हो गया और अनेक विद्यार्थियों ने अपने भाषण के माध्यम से अपना गुस्सा प्रकट किया। बहुत देर के बाद लगभग शाम के समय सभा विसर्जित हुई। पुलिस के अधिकारी हम लोगों की संगठन क्षमता, वक्तव्य और व्यवहार से खुश थे, और हम लोगों को बधाई देते हुए वे चले गये। इस घटना के बाद छात्रसंघ में कोई और विशेष बात नहीं हुई। केवल छात्रावास में मेरा और अन्य प्रतिभाशाली छात्रों का नियमित व्याख्यान और पढ़ाई सम्बन्धित विषयों का आदान प्रदान नियमित चलता रहा।

विद्यालय के वार्षिक समारोह में छात्र संघ ने अपना समुचित योगदान दिया और सब ने अपनी अपनी विशिष्ट प्रतिभा का प्रदर्शन किया। मैने भी उस समारोह में सार्वजनिक रूप से शायद पहले पहल अपनी एक स्वरचित कविता सुनाई जो इस प्रकार है :-

 ‘‘देखली तोर देवरियाँ भईया, देखली तोर देवरिया ।

आधे खेत में उâख बोवाला, आधे में रहरियाँ।।

मच्छर अइसन, अइसन बाटन, घुस जालन मसहरियॉ।

देवता, पित्तर पिपरे तर लोटें, लग्गे न एक्को  पुजरिया।।

खान पान राक्षसी इहाँ बा, मांस मछरी भरमरियॉ।

मिल वैâ शीरा कुआनों में बहे, महकई सारी बजरिया।।

काम धाम से दूर रहे सब, सूतइ बैठ दुअरिया।

देखली तोर देवरिया, भइया देखली तोर देवरिया।।’’

इस कविता को सुन कर छात्र बड़े प्रसन्न हुऐ थे। किन्तु देवरिया के ही रहने वाले हमारे एक अध्यापक श्री मारकण्डेय राव जी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि ‘‘हमहू तोहार मीरजापुर, बनारस देखले हई।’’ इस पर छात्रों ने और जोर से ठहाका लगाया था।

देवरिया में हम लोगों का कष्ट पूर्ण रहन सहन और नाम मात्र का अध्ययन जो परीक्षा में सफल होने के लिए तो सहायक हुआ, किन्तु हम लोगों को कृषि विज्ञान का ज्ञान तो मात्र पुस्तकीय ही हो पाया। किसी प्रकार हम लोग कृषि स्नातक हो गये थे। मुझे वास्तविक ज्ञान तो बाद में मेरी दुर्गानारायण कालेज, तिरवा , फर्रूखाबाद में अध्यापक के रूप में नियुक्ति के पश्चात् तथा उसके बाद में आगरा में स्नातकोत्तर अध्ययन के पश्वात् ही समुचित रूप से हो पाया।

जब मेरा परीक्षा फल निकला और मैं द्वितीय श्रेणी में स्नातक बन गया था, तब मैंने पिता जी से आगे पढ़ने की अपनी आकांक्षा व्यक्त की। किन्तु पिता जी ने मुझे प्रयास करके कोई नौकरी प्राप्त करने की सलाह दी। जब मैं पिता जी के भाव को जान गया, तो मैंने सरकारी नौकरी के लिए समाचार पत्रों में निकले विज्ञापन के अनुसार ए० डी० ओ० के लिए आवेदन दे दिया था जहाँ मेरी नियुक्ति भी हो गयी थी। किन्तु तभी मुझे तिरवा से भी मेरे आवेदन पर निर्णय लेकर तुरन्त आकर अध्यापक बनने का आदेश प्राप्त हुआ। मैंने तिरवा को वरीयता दी और वहाँ चला गया।

अमृत रस बरसे

मन तन परसत प्रेयसि तव कंचन कोमल कर से।

क्लान्त वदन नव ऊर्जा उपजत पीर भगत डर से।

नवल स्फूर्ति नव क्रांति प्रगट तन रोम रोम हरषे।

काया कल्प करन की क्षमता देवन तिय तरसें।

‘प्रभामाल’ से भरे रहे प्रेयसि के कर कलशे।।

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तिरवा प्रवास

तिरवा पहँुचने पर मैंने अपना कार्य भार सँभाल लिया। ए० डी० ओ० के रूप में नियुक्ति का पत्र भी मुझे प्राप्त हुआ था। मैं दुविधा में पड़ गया। किन्तु तिरवा के प्राचार्य से मिल कर  मैं कुछ दिनों का अवकाश ले कर बाँदा जिले के अतर्रा में ए० डी० ओ० के पद पर भी कार्य करने का मन बनाया। चूँकि यह सरकारी नौकरी थी। किन्तु वहाँ जाने पर और वहाँ की व्यवस्था देख कर मैं अपने सहयोगियों की राय से कि अब ए० डी० ओ० से बी० डी० ओ० बनने में पहले जैसी आसान स्थिति नहीं रह गयी तथा ए० डी० ओ० को काफी परेशानी उठानी पड़ती है। उस समय का मेरा वी० डी० ओ० भी कुछ दुष्ट प्रकृति का था। उससे मेरी नहीं पटती थी। वह जान बूझ कर मुझे परेशान करने में लगा था तथा दूर दूर जंगल में मेरी ड्यूटी लगा देता था। अतः मैं कुछ ही दिन बाद पुनः तिरवा चला आया।  तिरवा में आने पर वहाँ के ए० डी० ओ०, जो कन्नौज और फर्रूखाबाद में स्थानान्तरित होकर आये थे, वे आ कर मुझे अपनी दास्तान बताने लगे, तथा उस विशेष वी० डी० ओ० के बारे में भी बहुत सी बातें उसके खान पान, रहन-सहन एवं गलत आदतों के बारे में बताई तो मैने निर्णय ले लिया कि मैं इस झंझट में नहीं पडूँगा और इण्टर कालेज का प्रवक्ता होना ही उचित समझा। मैं फि वाँदा गया ही नहीं, कृषि स्नातकों को उस समय इण्टर कालेजों में सीधे प्रवक्ता का पद प्राप्त हो जाता था। जैसा कि बिना किसी प्रयास के मेरे साथ भी हुआ। तिरवा में मुझे उस समय १२० रूपये प्रतिमाह की नियुक्ति प्राप्त हुई थी।

तिरवा में विद्यालय का भवन बहुत ही भव्य था। तिरवा के राजा ने इस विद्यालय को बनवाया था, जहाँ हर प्रकार की सुविधा प्राप्त थी। पुस्तकालय, वाचनालय सभी हर विषय की पुस्तकों से भरी थीं। उच्च कोटि की प्रयोगशालायें, जिसमें उच्च शिक्षा से सम्बंधित सभी उपकरण, अध्यापकों के लिए अलग अलग कार्यालय तथा शिक्षक कक्ष, विशाल खेल के मैदान, सभी विषयों के योग्य अध्यापक, छात्रों के लिए छात्रावास, इत्यादि उस विद्यालय की उत्कृष्टता को प्रकट करती थी। कृषि विज्ञान में सभी प्रकार के हल, पम्प, जानवरों में गाय, भैस, बैल, इत्यादि तथा बड़ा सा फार्म था। इस प्रकार का कृषि विज्ञान का सर्वसुविधा सम्पन्न विभाग मुझे मिल गया, जो मैने कभी न देखा था, न पढ़ा था। वहाँ कृषि विज्ञान के बारे में सारे उपकरण देख कर धीरे-धीरे उनकी जानकारी प्राप्त कर मुझे काफी प्रायोगिक ज्ञान, कृषि विज्ञान के सम्बन्ध मे हो गया, और मैं एक सफल अध्यापक के रूप में बहुत व्यस्त रह कर अपना कार्य करने लगा।

चूँकि मेरे एक सहयोगी उस समय बी० एड० की ट्रेनिग के लिए लखनऊ चले गये थे, अतः मुझे उनकी भी कक्षायें लेनी पड़ती थीं। विद्यालय में उस समय आठ घण्टी पढ़ाई होती थी। जिसमें मुझे सात घण्टी पढ़ाना पड़ता था। लगातार एक कक्षा से निकल कर दूसरी कक्षा में जाकर पढ़ाना। इसके अलावा विद्यालय के फार्म और पशुशाला की भी जिम्मेदारी हमारी ही थी। किन्तु कृषिकार्य में कुशल अनुभवी मालियों और चपरासियों के कारण मुझे उनसे कुछ सीखने को ही मिलता था उन्हें निर्देश देने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। मेरे साथ छोटी कक्षाओं में पढ़ाने के लिए एक दो अन्य कृषि अध्यापक थे। किन्तु हाईस्कूल और इण्टर मीडिएट में कृषि, पशुपालन, एवं अभियांत्रिकी की कक्षाऐं मुझे ही लेनी पड़ती थी। बाद में मेरे साथ कार्य करने के लिए ओम प्रकाश तिवारी नाम के एक अन्य सहायक भी आ गये। तथा गंगा राम कटियार छोटी कक्षाओं में कृषि पढ़ाने के लिए पहले से संलग्न थे। कृषि कार्यो में मेरे आदेशों का परिपालन उन्हीं के माध्यम से होता था। गयादीन, ख्याली राम तथा शोभनाथ तीन तीन चपरासी बड़े ढंग से सभी कृषिकार्य कर लेते थे। विद्यालय में एक ट्रैक्टर भी था तथा सिचाई के लिए एक पम्प भी था। अतः विद्यार्थियों को इण्टर कालेज के स्तर पर प्रशिक्षित करने के लिए यह एक सर्वसुविधा सम्पन्न विद्यालय था। वहाँ मुझे इन पुराने अनुभवी चपरासियों के माध्यम से सभी प्रकार के हलों, थे्रशर, कल्टीवेटर, ट्रैक्टर तथा पम्प के खोलने तथा बाँधने आदि का प्रायोगिक ज्ञान, जो मुझे देवरिया में स्नातक कक्षाओं में नहीं मिल पाया था, वह तिरवा विद्यालय में स्वतः ही प्राप्त हो गया था। ऐसे विद्यालय में नियुक्ति पाकर मैं गौरवान्वित था।

तिरवा में मेरी नियुक्ति श्री दुर्गानारायण इण्टर मीडिएट कालेज में जुलाई १९५८ में हो गयी थी। प्रारम्भ में मैं बिलकुल अकेले एक छोटी सी कोठरी में रहता था, और होटल में खाना खाता था। संयोग से एक अच्छा मकान जो तिरवा की उस समय की परिस्थितियों में सभी सुविधा सम्पन्न एक अलग मकान मिल गया, जिसमें एक बड़ा कमरा एक छोटा कमरा रसोई घर, तथा शौचालय था। शौचालय मल उठाने वाला था। यह एक अच्छे परिवारिक का मकान था, जो आपस में अन्दर अन्दर सम्बन्धित था। ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ भी थी। तथा बड़ा सा आँगन था। प्रारम्भ में संयोग से वह मकान मिल जाने के पश्चात् मैं कुछ महीने उसमें अकेले ही रहा तथा बर्तन आदि खरीद कर स्वयम् भोजन बनाने लगा। किन्तु मकान मालकिन के आग्रह पर मुझे माँ को बुलाना पड़ा, तथा बाद में पत्नी भी आ गयी। मैने आवश्यक उपयोगी वस्तुएँ पहले से ही खरीद लीं थी, और उस काल में अपनी सन्तुष्टि के अनुसार दिल खोल कर खान पान की व्यवस्था की। मेरे ऊपर कोई भार भी नहीं था, और न कोई रोकने वाला था। मैं अपने संसार का अपन्ो मन का बादशाह था। तिरवा में मनोरंजन आदि का कोई दूसरा साधन तो था नहीं, अतः खान पान में ही आनन्द का एक सुलभ मार्ग बन गया था। खान पान में मैं बचपन से ही शौकीन था। मैं किसी वस्तु की मात्रा पर नहीं बल्कि उसके गुण पर तथा विविधता पर विशेष जोर देता था। और मेरी माँग होने पर मेरी माँ हर प्रकार से मेरी इच्छा पूर्ति की व्यवस्था करती थी। मैं थोड़ी ही मात्रा में अच्छी चीज खाने का शौकीन था। हलवा, खीर, सेवई अथवा पकौड़ी आदि मेरे कहने पर मेरी माँ तुरन्त बना देती थी। इसके लिऐ उसने एक छोटी सी बोरसी, छोटी कड़ाही और बटलोही की व्यवस्था कर रखी थी। मेरी इच्छा होते ही वह बोरसी में उपले सुलगाकर तुरन्त मेरी इच्छा के अनुसार पकवान तैयार कर देती थी। जब मैं चुनार पढ़ने जाने लगा तो उसी बोरसी पर वह लिट्टी सेंक देती और उसे घी तथा नमक तथा बाद में दूध से खा कर मैं स्कूल चला जाता था। तिरवा में माँ का वह शौक उसी प्रकार विद्यमान था। मैं कमासुत सुविधा सम्पन्न व्यक्ति बन गया था। अतः माँ बड़े शौक से मेवा युक्त पकवान बनाकर मुझे खिलाने लगी। प्रायः नित्य ही प्रातः काल के जलपान में बादाम का हलवा बनता, दूध की व्यवस्था तो थी ही, खान पान की इस सुविधा से मैं और मेरी माँ दोनो बहुत ही स्वथ्य हो गये। चेहरे पर लालिमा छा गयी। पहले मैं बहुत ही दुबला पतला छरहरा व्यक्तित्व का आदमी था। किन्तु तिरवा के विशेष खान पान ने मुझे और मेरी माँ दोंनो को स्थूलता प्रदान कर दी। मै रोज प्रातः और शायम् दोनों समय दण्डबैठक और कसरत करता था। तथा विद्यालय के फील्ड में दोनों समय दौड़ लगाता था। किन्तु अत्यधिक भोग के कारण मेरे शरीर पर चर्वी की मात्रा बढ़ती गयी। बाद में पत्नी के आ जाने पर भी यह क्रम बना रहा, बल्कि खान पान की विविधता और भी बढ़ गयी। पत्नी चूंकि सद्गुणी थी। अतः शौकिया मेरे लिऐ नये नये पकवान बनाती, जिनमें से कुछ का स्वाद तो मैने पहले लिया ही नहीं था। मेरे खान पान और रहन सहन का स्तर बहुत उच्च कोटि का हो गया था।

मेरा प्रारम्भ से ही स्वभाव रहा है, अपने घर ईष्ट मित्रों को बुला कर खिलाने पिलाने का। गाँव पर रहते हुये अभाव के बावजूद मैं अपनी पटीदारी के साथियों को अक्सर बुला कर खिलाता पिलाता था। विद्यार्थी जीवन में भी शायद बहुत ही कम ऐसे अवसर आते थे जब मैं अकेले जलपान करने गया हूँ। छात्रावास में रहते हुऐ जब मैं घर आता तो माँ और पत्नी मेरे लिये कुछ जलपान की वस्तुऐं बनाकर मुझे देती थी, और मेरे छात्रावास में जाते ही मेरे इष्ट मित्र मेरे कमरे में आ जाते और मैं प्रसन्नता पूर्वक वह सामग्री साथियों को बाँट कर खिलाता। यद्यपि अर्थाभाव के कारण मैं वैंâटीन में कम ही जाता था, किन्तु जब भी जाता अपने कमरे के साथी को साथ ले जाना नहीं भूलता था। तिरवा में भी मेरे कई करीबी अध्यापक मित्र जलपान के लिए मेरे यहाँ आते थे। विशेष कर पुस्तकालय के अध्यक्ष रिजवी साहब जो हमसे उम्र में बहुत बड़े थे, हमारे यहाँ की काफी की बड़ी प्रशंसा करते थे। यह उनका बड़प्पन था। काफी में कोई विशेषता नहीं होती थी। बाद में इलाहाबाद आने पर भी यह क्रम बना रहा। विद्यालय के अध्यापक मित्र अक्सर आपस में चर्चा करते कि द्विवेदी जी का अतिथि सत्कार का स्वभाव प्रशंसनीय है। प्रयाग में अक्सर मेरे यहाँ राजनैतिक और साहित्यिक गोष्ठियाँ होती थीं, जिसमें समुचित रूप से जल पान कराने का मेरा शौक था। इसी क्रम में एक बार हम कुछ पारिवारिक मिल कर एक ‘‘पकौड़ी क्लब’’ कीr स्थापना किये थे, जिसमें प्रत्येक रविवार को बारी बारी से प्रत्येक सदस्य के घर पर क्लब के सदस्यों को विभिन्न प्रकार की पकौड़ियाँ खिलाई जातीं थीं। किन्तु यह सिलसिला एकाध अध्यापक के कृपणता के कारण अधिक दिनों तक चल नहीं पाया। इसी तरह विद्यालय में एक बार ‘‘मिष्ठान क्लब’’ भी बना, जिसमें प्रत्येक अध्यापक बारी बारी से बाजार से कई प्रकार की मिठाईयाँ मगाँ कर सदस्यों को खिलाता था। इस क्लब में प्राचार्य जी को भी आमंत्रित कर के आनन्द और हँसी मजाक के वातावरण में मिष्ठान भोग के साथ अध्यापक अपनी समस्याओं का भी समाधान का निवेदन प्राचार्य से कर देते थे। इस मिष्ठान्न क्लब के बाद प्राचार्य जी के सुझाव पर यह योजना बनी की बहुत ज्यादा मिठाई खाने की अपेक्षा प्रत्येक अध्यापक जिसमें प्राचार्य ने अपने को भी सम्मिलित कर लिया और निर्णय दिया कि घर से जलपान बनवाकर लाया जाये और यहाँ बैठ कर एक साथ खाया जाये। इतना ही नहीं उसके साथ कुछ विटामिन के वैâप्यूल भी आने लगे और सभी अध्यापक मौज मस्ती से विविध प्रकार के व्यजनों का आनन्द लेने लगे। किन्तु यह क्रम भी कुछ ही दिन बाद शायद बड़े अवकाश के कारण बन्द हो गया।

माँ के आ जाने से मेरे खाने पीने की व्यवस्था सुव्यवस्थित हो गयी थी। तब का रहन सहन बहुत ही सस्ता था। दस रूपये में मुझे रहने के लिए पूरा मकान मिल गया था। मकान मालकिन बहुत व्यवहार कुशल थीं।

तिरवा में मुझे पहले साल १२० रूपये तथा दूसरे वर्ष १७५ रूपये मिलने लगे थे। तब का रहन सहन बहुत ही सस्ता था। हम माँ बेटे का अच्छा से अच्छा भोजन और कपड़ा महीने भर का खर्च ७०-७५ रूपये में चल जाता था। मैं खान पान का शौकीन था। नयी नयी नौकरी लगी थी। रोज फार्म से मुझे ताजी हरी सब्जियाँ मिल जाती थी। रोज एक लीटर दूध जो उस समय मात्र चारआना लीटर था, तथा एक किलो घी जो पाँच से छः रूपये किलो था, तथा एक किलो बादाम जो दस रूपये किलो था, मैं हर महीने मँगाता था। मेरी मां प्रायः रोज ही बादाम का हलवा बनाती थी। इस प्रकार उच्च कोटि के खान पान से तीन चार महीने में ही मेरा और मेरी माँ का स्वास्थ्य बहुत बदल गया था। देवरिया तक मैं बहुत दुबला पतला था। किन्तु तिरवा में आ कर मैं काफी स्वस्थ हो गया था। तिरवा में मेरे एक अच्छे मित्र हो गये थे, श्री भूप नारायण तिवारी, जो राजा दुर्गानारायण जी के राजवैद्य थे। दुर्गानारायण के नाम से ही यह विद्यालय बना था। राजा दुर्गा नारायण के प्रबन्धक जौनपुर के तिलकधारी सिंह थे तथा उन्होंने तिर्वा कालेज की तरह ही राजा के सहयोग से तिलकधारी कालेज बनवाया जो बिलकुल तिरवा कालेज जैसा है। तिवारी जी संगीत के अच्छे जानकार थे, तथा तबलाबादन का उनका अच्छा अभ्यास था। उन्होंने मुझे भी तबला बजाना सिखाने का प्रयास किया। किन्तु इस कला के लिए जितने अभ्यास की जरूरत पड़ती है, उतना समय मैं न दे पाता था, अतः नीम हकीम ही बना रहा। वैद्य जी मुझे अपने साथ संगीत गोष्ठियों में भी ले जाते थे। जो प्रायः हर शनिवार को कहींr न कहीं होती थी। उनके साथ रह कर मैने भी कई भजन सीख लिये थे और गोष्ठियों में सुनाया करता था।

तिरवा विद्यालय में राजघराने की एक बड़ी अच्छी परम्परा थी। वह यह कि जब कोई नया अध्यापक नियुक्त होता था, तो उसे राजपरिवार में उपस्थित होकर अपना परिचय देना होता था। उस समय के राजा साहब जो दुर्गानारायण के बड़े सुपुत्र थे, वे लखनऊ में रह कर अपना अधिकांश समय तबायफों के साथ मुजरा सुनने में बिताते थे। उनके छोटे चचेरे भाई कुँवर साहब तिरवा में रह कर सारी व्यवस्था देखते थे। राजा साहब के लिए हर महीने वे उस समय छः हजार रूपये भेज देते थे, जिससे वे एैश आराम करते थे। वे तिर्वा कभी कभार ही आते थे। वुँâवर साहब ने मुझे अपनी बग्गी भेज कर अपने राज दरबार में बुलवाया वहाँ जाने पर वुँâवर साहब के साथ राज माता और उनकी बहुऐं बिराजमान थीं। राज माता के लिए मुझे बतलाया गया कि उनकी आयु १०० साल से भी अधिक है। उन्होंने १८५७ के गदर को अपनी आखों से देखा था। उस समय उनकी आयु लगभग १५ वर्ष की थी। इस तरह १९५८ में वे ११६ साल की रहीं होगीं। मेरे जाते ही उन्होंने इशारे से अपने पास बुलाया, उन्हें सुनाई कम पड़ता था। अतः उनकी बहुओं ने हमारे कहने के अनुसार उनको जोर जोर से बतलाया कि मैं काशी का रहने वाला ब्राह्मण हूँ। यह सुनते ही उन्होंने आँचल लगा कर मेरा चरण स्पर्श किया, तथा बहुओं से भी वैसा ही करने के लिए कहा। आते वक्त मुझे दो रूपये तथा चार लड्डू भी दियें। मेरे साथ गये अध्यापको को एक एक रूपये तथा चार चार लड्डू दिये। मैं वहाँ की इस आदर्श परम्परा से गद्गद था। जब अन्य अध्यापकों से इसकी चर्चा हुई और उन्होने मेरी प्रशंसा सुनी तो वे भी भाव बिभोर हो गये थे।

इसके बाद इससे भी बड़ा आश्चर्य तो मुझे तब हुआ कि जब लगभग चार महीने बाद दशहरे के दिन वहाँ की परम्परा के अनुसार विद्यालय के सभी अध्यापक और कर्मचारी राजा साहब के अस्त्र पूजन समारोह में उपस्थित हए। उस  समय सभी राजकर्मचारी और अध्यापक गण राजा साहब को भेंट स्वरूप कुछ रूपये देते थे, और राजा साहब सबको मिष्ठान देते थे। जब मेरी बारी आयी तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ, की राज माता ने मुझे पहचान कर अपने पुत्र राजा साहब से मेरा परिचय कराया कि मैं काशी का ब्राह्मण हूँ और उन्होंने राजा साहब से भी मुझे प्रणाम करने के लिए कहा। राजा साहब ने मुस्कुराते हुए मुझे प्रणाम किया स्वयं राजमाता और अपनी बहुओं से भी उन्होंने प्रणाम करवाया, जब कि सभी अध्यापक और कर्मचारी राजा साहब को प्रणाम करते थे और विदाई में मुझे एक पैकेट के बजाय दो पैकेट मिष्ठान और एक पैकेट मेवा मिला। सभी अध्यापक मेरे इस सौभाग्य पर प्रसन्न थे और मैं चर्चा का विषय बन गया था।

विद्यालय में अपने व्यस्त कार्यक्रम के पश्चात् शाम को मैं बिलकुल खाली रहता था, तथा पंडित भूप नरायण त्रिपाठी के यहाँ बैठ कर इधर उधर की बातें कर के समय बिताता था। बाद में शाम का वहाँ मेरा एक विशेष दैनिक कार्यक्रम बन गया। तिरवा में नगर के बाहर एक बहुत बड़े आम के बगीचे के बीचो बीच एक बहुत ही भव्य अन्नपूर्णा देवी का मंदिर बना है। उसी के बगल में एक बड़े से तालाब के अन्दर भी जो पंच महला तालाब था, उसके बीच में भी एक बड़ा सा मंदिर बना है। जिसमें शिव, विष्णु, हनुमान आदि की मूर्तियाँ स्थापित हैं। वहाँ के पुजारी जो विन्ध्याचल के रहने वाले थे, उनसे मेरा परिचय हो गया था, और उन्होनें ही मुझे शाम को रामचरित मानस का सस्वर पाठ करने का आमंत्रण दिया, और मैं नित्य शाम को रामायण सुनाने लगा। मेरे पढ़ने के ढंग से लोग काफी प्रभावित थे। धीरे-धीरे श्रोताओं की संख्या बढ़ने लगी। यहाँ तक की कभी कभार राज माता जी के साथ बंहुए भी आ कर मेरा रामायण सुनने लगी थीं। उन्हें कहार लोग चाँदी के सिहांसन पर उठा कर ले आते । राजमाता को सुनाई नहीं देता था किन्तु श्रद्धा में हाथ जोड़ कर थोड़ी देर बैठकर चलीं जातीं। तिर्वा का यह मन्दिर बहुत ही भव्य था। अन्न पूर्णा जी को लाखों रूपये के आभूषण पहनाये गये थे। उनके माथे और ठूॅडी में हीरे जड़े हुये थे, जो आरती के समय चमकते थे। कुछ वर्षो बाद समाचर पत्रों के माध्यम से मुझे पता चला कि वहाँ के प्रबन्धक और पंण्डे मिल कर असली आभूषण और हीरों की जगह नकली आभूषण देवी को पहना दिये थे, और रहस्य खुलने पर उन्हें जेल की सजा मिली थी।

मंदिर के पास के आम के विशाल बगीचे में प्रति वर्ष अक्षय तृतीया से एक बहुत बड़ा पशुओं का मेला लगता था, जिसमें हर प्रकार के जानवरों का क्रय विक्रय होता था। इसके साथ साथ अनेक प्रकार की प्रदर्शनियाँ नृत्य नाटिकायें, नौटंकी, सिनेमा और थियेटर आदि तथा अनेक प्रकार के झूले लग जाते थे। खान पान और गृहस्थी की हर प्रकार की दुकानें भी सज जाती थीं। एक महीने तक इस मेले की वजह से तिर्वा में काफी चहल पहल रहती थी। इस मेले से राजा साहब को लाखों रूपये की आमदनी हो जाती थी। तथा कर्मचारी भी अपने अपने ढँगं से काफी कुछ कमा लेते थे। ऐसे मेलों में अच्छाइयों के साथ बुराइयाँ भी आ जाती हैं। जो समाज के लिये एक कलंक बन जाती हैं। इसका उदाहरण था, तबायफो का डेरा। जिनका कार्य और व्यवहार मेले को दूषित कर रहा था। इसकी जितनी भी निन्दा की जाये, वह कम है।

तिर्वा में मेरी माँ कुछ ही दिन मेरे साथ रह पायी क्योंकि गॉव पर हमारे छोटे भाई रत्नाकर जो चुनार में पढ़ते थें, उन्हें खाने पीने में बहुत असुविधा होने लगी थी। उन्होंने इस सम्बन्ध में एक विस्तृत शिकायती पत्र विस्तार से लिख भेजा था। अतः मैने दशहरे की छुट्टियों में माँ को गाँव पहुँचाने का निर्णय ले लिया था। गाँव जाने के क्रम में मेरे एक सहयोगी अध्यापक, पंडित भगवान प्रसाद त्रिपाठी जो संस्कृत पढ़ाते थे, तथा बनारस के रहने वाले थे, वे मेरे मित्र हो गये थे। उनकी पत्नी चित्रकूट के पास करवी में अध्यापिका थी। उन्होंने मुझे तथा माता जी को चित्रकूट घुमाने की योजना बना ली और मैं सहर्ष तैयार हो गया।

जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ मेरा विवाह १९५५ में हुआ। द्विरागमन १९५७ में हुआ तथा दोगा १९५८ में सम्पन्न हुआ। ये तीनों परम्परायें लग्न को ध्यान में रख कर सम्पन्न की जाती हैं। उसके बाद बहू के आने जाने में कोई विशेष अड़चन नहीं होती। १९५८ में मैं तिरवा में अध्यापक हो गया था। वर्ष के प्रारम्भ में मेरी माता जी मेरे साथ थी। किन्तु उत्तरार्ध में मेरा संन्देश पा कर मेरे साले रविशंकर त्रिपाठी, मेरी पत्नी को तिरवा पहँुचा गये थे। इसके पूर्व मैं माँ को दशहरा की छुट्टियों में चित्रकूट घुमा कर गाँव पहुँचा आया था। तिरवा में मैं जिस मकान में रह रहा था वे काफी सम्पन्न शिक्षित और प्रतिष्ठित चौवे खानदान के लोग थे। मेरी मकान मालकिन जिनके हिस्से में मैं रहता था, वे एक विधवा वृद्धा थी। और जिन्हें लोग जिया जी कहते थे। उनका एक लड़का और एक अविवाहित लड़की भी थी। मुझे यह मकान मात्र दस रूपये किराये पर मिल गया था। प्रारम्भ में मैं दस ही रूपये किराया दे कर एक छोटी सी अँधेरी कोठरी में भी रह चुका था। अतः इस मकान में मुझे खुला वातावरण मिला। मैं प्रारम्भ में जब तक माता जी नहीं आई थीं, तब तक मैं स्वयम् अपना भोजन बनाता था। मेरे विद्यालय चले जाने के बाद मकान मालकिन आ कर मेरे भोजन को व्यवस्थित ढंग से रख देती थीं, तथा बरसात में आंगन में पड़े मेरे कपड़े भी हटा देती थी।  मेरी परेशानी को देख कर जिया जी ने सुझाव दिया कि घर से किसी महिला को बुला लें तो आपको सुविधा हो जायेगी। मैंने उन्हें बताया की मेरी पत्नी जाड़े में दोगा होने के बाद ही आ पायेगी। इस बीच मैं अपनी माँ को बुला ले रहा हूँ। इस सम्बन्ध में मैने गाँव पर सुधाकर भैया को तुरन्त पत्र लिखा और वे माँ को पहुँचा गये। गाँव पर चूँकि मेरा छोटा भाई रत्नाकर पढ़ रहा था, और उसे बड़ी असुविधा थी, अतः दशहरे की छुट्टी में मैं माँ को घर पहँुचा आया। बाद में जब मेरी पत्नी आ गयी तो मुझे काफी सहूलियत हो गयी। मेरे खान पान और रहन सहन में अभूतपूर्व परिवर्तन आ गया। विद्यालय जाने के पूर्व वह मुझे प्रतिदिन बदल बदल कर अच्छा से अच्छा जलपान देने लगी थी, तथा दोपहर का भोजन भी। शाम को आने पर भी उपयुक्त जलपान और रात्रि भोजन भी सुरूचि पूर्ण मिलने लगा था। मेरी पत्नी को जिया जी अपनी बहू की तरह रख रही थीं। जब भी वे कभी मंदिर में दर्शन करने जातीं या बाजार जाती तो वे मेरी पत्नी को भी पिछौरी ओढ़ा कर या घूँघट ओढ़ा कर बाहर ले जातीं। उन्होंने कृपा पूर्वक पास पड़ोस की महिलाओं से भी परिचय करा दिया था। अतः मेरे विद्यालय में होने पर कोई न कोई मेरी पत्नी के साथ रह कर उनकी सहायता करती रहती थी। उस समय तिर्वा की परम्परा ऐसी थी कि पति पत्नी साथ साथ घूमने नहीं निकलते थे। महिलायें अलग और पुरूष अलग। मैं भी उनकी मर्यादा का ध्यान रख इस संरक्षण का आदर करता था और निश्चिन्त भी था। एक कुलीन परिवार का आदर्श संरक्षण मुझे स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो गया था। अनेक अध्यापक अपनी पत्नियों के साथ तिर्वा में रहते थे, जिसमें से अनेक बाहरी थे। जब कभी एक दूसरे के यहाँ आना जाना होता, तो महिलायें पर्दे में रह कर ही आव भगत करती थीं। तब वहाँ पर्दा प्रथा की परम्परा बड़ी दृढ़ थी। खाना पीना चाय नाश्ता सब स्वागत सत्कार होता था, किन्तु पर्दे की आड़ से ही।

मेरी पत्नी दिसम्बर १९५८ में तिर्वा गयी थी, और २५ दिसम्बर १९५९ को मुझे पहला पुत्र रत्न प्राप्त हुआ था। मैं कुछ दिन पहले ही पत्नी को बनारस में अपनी सास के यहाँ छोड़ आया था। वे बनारस में बड़ी पियरी पर एक किराये के मकान में रहती थीं, जो कबीर चौरा अस्पताल के समीप ही था। पत्नी को बनारस भेजने का एक और कारण भी था। क्योंकि मैं अपनी पूर्व इच्छा के अनुसार आगरा में एम० एस० सी० (एजी०)  कर रहा था और तिरवा छोड़ आया था। बनारस में जब पत्नी को पहला पुत्र हुआ तो कबीर चौरा में डाक्टरों की लापरवाही कहें अथवा विधि का विधान कहें पहला बच्चा पैदा होने के पहले ही मृत हो गया था। उस समय मेरी सास बनारस में अकेली ही थीं। ऐसी स्थिति में मेरी पत्नी को अस्पताल में रुग्णा अवस्था में छोड़ कर वे अकेले ही शव को ले कर गंगा में प्रवाहित करने चलीं गयीं थीं। उस समय संयोग ऐसा था कि कोई भी पुरुष उनके साथ नहीं था। बाद में तार द्वारा मुझे आगरा में सूचित किया गया। यह दुखद समाचार सुन कर मैं तुरन्त अपने विभागाध्यक्ष से मिला और जो भी पहली गाड़ी उपलब्ध हुयी, मैं जाड़े की रात में दो बजे मुगलसराय उतरा और टैक्सी करके पता लगाते हुए, अस्पताल पहँुचा। मेरी सास उस समय बाहर बरामदे में सोई हुई थीं। ऐसी परिस्थिति में मुझे देखते ही सब लोग रोने लगे। सिवाय सान्त्वना देने के मैं क्या कर सकता था। कुछ देर वहाँ रह कर मैं डेरे पर आ कर विश्राम किया। जब मेरी पत्नी अस्पताल से छुट्टी पा कर डेरे पर आ गयीं तब मैं पुनः आगरा चला गया। आगरा                                                                                                                         में मेरा पहला साल तो लगभग पूरा ही हो चुका था, दूसरे वर्ष पिता जी मेरी पत्नी को दिल्ली लिवाले गये थे। मैं दशहरे की छुट्टी में जब दिल्ली गया तो पत्नी को साथ साथ प्रायः सभी जगहों पर जो एैतिहासिक थे, और जो मेरे दिल्ली प्रवास के काल में परिचित जगहें थीं, सब जगह पत्नी को घुमाया, लाल किला, कुतुबमीनार बिलिग्डन एयरपोर्ट, राष्ट्रपति भवन अशोका होटल, इत्यादि इत्यादि। मेरी छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं, अतः पत्नी को दिल्ली से मैं अपने साथ आगरा घूमाने भी ले आया और अपने महाविद्यालय के तथा छात्रावास और मेस के साथ साथ अपनी प्रयोगशाला में भी घुमाया तथा आगरा के दर्शनीय स्थल ताजमहल, लाल किला, मोती मस्जिद, फतेहपुर सीकरी तथा सिकन्दरा भी घुमाया। उसके बाद मैं पत्नी को साथ ले कर गाँव आ गया और उन्हें माँ की सेवा में छोड़ कर पुनः आगरा चला गया। दिल्ली में जब मैं रहता था तो उस पुराने मकान को भी पत्नी को दिखाया-कहाँ खेलता था, कहाँ पढ़ने जाता था, कहाँ मैने साइकिल चलाना सीखा। इन सब स्थानों का परिभ्रमण मैने बड़े उत्साह और प्रेम पूर्वक कराया । सुबह जलपान कर के मैं निकल जाता था और देर रात ही घूम कर लौट पाता था। दिल्ली में पिता जी के कुछ सुपरिचितों के यहाँ भी मैं पत्नी को साथ ले कर गया और सब ने सपत्नीक आने के कारण मेरी प्रशंसा की और आवभगत के पश्चात पत्नी को विदाई भी दिया।

दिल्ली में पहले मैं २२/१०५८ लोदी रोड में रहता था। छत पर बने बरामदे में जहाँ मैं पढ़ाई करता था, वही बाद में मेरे गाँव के ही पूर्व निवासी पांडे बेचन शर्मा ‘‘उग्र ’’ जो हिन्दी कथाकारों में अग्रणी रहे हैं, बाद में उसी बरामदे में रहने लगे थे। कुछ समय के बाद एक बार जब मैं दिल्ली गया तो पिता जी उनसे मिलाने के लिए मुझे भी साथ ले गये। उस समय पिता जी ईस्ट विनय नगर जो बाद में लक्ष्मी बाई नगर कहलाने लगा था, तथा जो बिलिग्डन एयरपोर्ट के ठीक बगल में था, जहाँ से सारा हवाई अड़ा दिखाई पड़ता था। उसमें रहने लगे थे। जब मैं पिता जी के साथ अपने पुराने आवास में गया तो उग्र जी उस समय स्नान करने गये हुऐ थे। पिता जी की उनकी घनिष्टता तो थी ही। १९५० में मुझसे भी उनका परिचय हो गया था। तथा कुछ दिन साथ भी रहे थे। अतः हम लोग बिना झिझक उनके कमरे में जा कर बैठ गये। पिता जी दरवाजे के सामने बैठे थे, और मैं बगल में था। उनके टेबुल पर कुछ फल और मिठाइयाँ रखी थी। पिता जी ने हमको भी पकड़ा दिया और अपने भी खाने लगे। इस बीच उग्र जी नहा कर आ गये और दूर से ही पिता जी को देख कर बड़े जोर से बोले - ‘‘अरे यह कौन बन्दर मेरे फल और मिठाइयाँ खाये जा रहा है।’’ यह कहते हुए जैसे ही कमरे में घुसे तो एकाएक मुझे देख कर और पहचान न पाने के कारण वे कुछ झिझक से गये। मैं उस समय नये नये सूट पहने हुऐ था। पिता जी ने उनकी खबराहट को देख कर कहा अरे ये प्रभाकर हैं। यह सुन कर उग्र जी सहज हो गये और जोर का ठहाका लगा कर हँस पड़े और बोले - ‘‘अरे प्रभाकर तुम तो पूरे अंग्रेज अफसर लग रहे हो’’ पहले तो बिलकुल दुबले पतले थे। और अब तो बहुत भव्य व्यतित्व वाले बन गये हो। ‘‘इस बीच वे अपने कपड़े पहनते रहे और मेरा हाल चाल पूछते रहे। मेरी प्रशंसा करते हुए उन्होंने अपनी भी प्रशंसा प्रारम्भ की ओर कहा - ‘‘देखो इस कमरे में तुम एक टुटही खाट पर रहते थे। देखो मैने कितना इसको सजा बजा रखा है।’’ इस पर मैने कहा - ‘‘ तब मैं एक मामूली कक्षा का छात्र था और आप तो हिन्दी के जाने माने लेखक और कमासुत हैं।’’ इस बात पर उग्र जी ने हँस कर मेरी बात का समर्थन किया। उस दिन उग्र जी ने बहुत प्रकार के मेवे डाल कर तथा साथ में अंडे डाल कर अपने लिऐ खिचड़ी बनायी थी, जिसका रसास्वादन करने के लिऐ उन्होंने बड़े प्यार से मुझे भी एक प्लेट में थोड़ा सा परोस दिया, तथा साथ ही यह भी कहा कि तुम्हारे पिता जी तो यह सब खायेगे नहीं, लो तुम इसका स्वाद चखों। मुझे उस वक्त ज्ञान नहीं था, कि इसमें अंडा भी मिला है। पिता जी के भी आग्रह करने पर मैं उनके प्रसाद को नकार नही सका था। उनके प्रेम को देखते हुऐ मैं थोड़ा सा ही खा पाया। मुझे वह भोजन बहुत ही गरिष्ट और विचित्र स्वाद का लगा। बाद में लौटते वक्त पिता जी ने बतलाया कि उग्र जी उसमें अंडा भी डाल देते है। इसी लिए तुमको अच्छा नहीं लगा होगा। हाँलाकि मेरे खाने के पूर्व उग्र जी ने इस ओर इशारा कर दिया था कि तुम्हारे पिता जी तो खायेगे नहीं, किन्तु मैं इस बात को तब समझ नहीं पाया था। उग्र जी मांस मदिरा से परहेज नहीं करते थे। १९५० में जब उग्र जी लोदी रोड में पिता जी के साथ रहते थे, उस समय वे मांस मंदिरा के आदी नहीं थे। और सबके साथ शाकाहारी भोजन ही करते थे। यदि खाते भी रहे होगे तो बाहर होटल में जा कर के, जिसका ज्ञान मुझे नहीं था। उस समय सबेरे सबेरे उठ कर भांग घोट कर पीना उनके नित्य क्रिया का अंग था। लगभग एक छटाक भांग का गोला वे बनाते थे और उसमें बादाम आदि मिलाकर और लोढ़े को ही शिव बनाकर उस पर चढ़ा कर भांग छानने की उनकी कमजोरी थी। कभी कभी पिता जी को भी आग्रह करके एकाध गिलास पिला देते थे।

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चित्रकूट भ्रमण

चित्रकूट जाने का यह मेरा पहला अवसर था। १९५८ का अक्टूबर माह तिर्वा से हम लोग कानपुर होते हुए करवी पहँुचे। उनकी पत्नी विद्यालय में ही एक कमरा ले कर रह रही थीं। हम लोगों से मिल कर वे काफी प्रसन्न हुई । दूसरे दिन हम लोगों का चित्रकूट घूमने का कार्यक्रम बना। रास्ते के लिए हम लोगों ने पूड़ी सब्जी रख लिया। उस समय आवागमन की सुविधायें नहीं थी। हम लोग करवी से पैदल ही सीतापुर आये थे। पहले दिन पैदल ही कामद गिरि परिक्रमा, प्रमोद वन और स्फटिक शिला का दर्शन कर, तथा सीता पुर के मंदिरों में दर्शन कर एक पंण्डे के घर में रात्रि विश्राम किये। दूसरे दिन राम घाट पर मंदाकिनी में स्नान कर के अनुसूइया आश्रम जाने का कार्यक्रम बना। सीतापुर से हम लोग पैदल ही अनुसूइया आश्रम गये। तब घनघोर जगल से पगडन्डियों के मार्ग से गये तथा मार्ग में मिलने वाले बटोहियों से पूछते हुए लगभग शाम को अनुसूइया आश्रम पहुँचे। सीतापुर से अनुसूइया आश्रम लगभग पैतीस चालीस किलोमीटर दूर है। रास्ते में बनवासी कुल्हाड़ी लिये हुऐ मिलते और उनसे पूछते अभी कितना दूर जाना है, तब वे अपनी बोली में कहते फढ़ भर और है। कुछ और आगे जाने पर भी यही जवाब मिलता, हम लोग बुरी तरह थक गये थे, किन्तु अन्ततोगत्वा अपने लक्ष्य पर अनुसूइया आश्रम पहुँच गये। वहाँ हम लोगों ने वहाँ के ब्रह्मचारियों से बतलाया कि हम लोग बाहर से आये हुये हैं, और रात यहीं विश्राम करेंगे। तो वहाँ के ब्रह्मचारियों ने हम लोगों को भयभीत कर दिया, यह कह कर कि परम हंस जी रात में यहाँ किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं रहने देते। उस समय अनुसूइया जी का मंदिर बहुत छोटा सा एक गाँव के मंदिर जैसा था। नीचे मंदाकिनी नदी और चारों ओर पहाड़ और घनघोर जंगल। जब हम लोगों ने अपनी विवशता बतलायी कि हम लोग थके हुऐ है, लौटना सम्भव नहीं है। साथ में माँ भी थी। अतः हम लोगों के बहुत निवेदन करने पर उन्होंने बतलाया की परम हंस जी अभी संध्या कर रहे है। वे जब बाहर निकलते हैं, तो उनसे निवेदन करिये, वे जैसा आदेश देंगे वही होगा। उन्होंने फिर कहा कि हम लोगों की जानकारी में आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि यहाँ आश्रम में कोई भी व्यक्ति और वह भी किसी स्त्री के साथ रात में रहा हो। उन्होंने हम लोगों को उपाय बतलाया कि परमहंस जी से मिलने के पूर्व आप लोग यज्ञ शाला की भभूत अपने माथे पर लगा लीजियेगा।

जब हम लोग सीतापुर से अनुसूइया जी आ रहे थे, तो रास्ते में नंग धड़ंग मात्र भगई पहने तथा हाथ मे कुल्हाडी और डण्डा लिये काले काले कापालिकों जैसे वनवासियों का दर्शन तथा दूसरे मार्ग में ही बिलकुल रास्ते पर एक ताजाताजा मरे हुऐ हिरन का कटा हुआ सिर, जिससे अभी रक्त बह रहा था, जिसे देख कर पंडित जी ने बतलाया कि किसी जानवर ने अभी अभी इसे मारा है और हम लोगों की आहट पा कर हट गया है। यह सुन कर हम लोग अत्यन्त भयभीत हो गये थे। मेरी माँ तो मुझसे भी ज्यादा भयभीत थी। वहाँ ब्रह्मचारियों से जब हम लोगों ने अपनी लौटने की असमर्थता के क्रम यह सब बतलाया तो उन्होंने भी कहा, यह सब तो यहाँ रोज ही होता रहता है। उस समय इन ब्रह्मचारियों में जो मात्र तीन थे, उनमें से एक शायद आज के प्रसिद्ध सन्त अड़गड़ानन्द भी थे। यह बात बाद में जब मैंने इस घटना की चर्चा अड़गड़ा नन्द जी से की थी, तो उन्होंने स्वयम् ही स्वीकार किया था।

इन ब्रह्मचारियों के निर्देशानुसार जब परमहंस जी संध्या वन्दन से निवृत्त हो अपने चौकी पर आ कर बैठ गये, तब हम लोग मंदाकिनी में हाथ पैर धो कर तथा यज्ञशाला की विभूति लगा कर, परमहंस जी के पास जा उन्हें शाष्टांग दण्डवत प्रणाम किया, तथा अपना परिचय तथा मन्तव्य बताया, तो उनका व्यवहार देख कर हम लोगों को सुखद आश्चर्य हुआ। उन्होंने ब्रह्मचारियों से एक चटाई मंगाकर बिछवाया और हम लोगों को उस पर बैठने को कह कर, दो तीन घण्टे तक बातें करते रहे। शिक्षा जगत की बातें, धर्म और संस्कृति की बातें, समाज और राजनीति की बातें, करते रहे। और ब्रह्मचारियों से कह कर हम लोगों को दो दो कम्बल एक ओढ़ने के लिए और एक बिछाने के लिए तथा एक एक चटाई दिलवाया और हम लोगों की सुरक्षा के लिए एक ब्रह्मचारी को ड्यूटी पर लगाया तथा एक गुफानुमा आवास में हम लोगों को रात्रि विश्राम का आदेश दिया। इसके पूर्व प्रसाद के रूप में एक एक टिगरी (बाटी) तथा गुड़ और घी खाने को दिया। हम लोगों ने परमहंस जी से बतलाया की हमारे पास भोजन सामग्री है, तब भी उन्होंने कहा यह प्रसाद भी खाओं। पानी पीने के लिए एक लोटा और बाल्टी भर पानी भी ब्रह्मचारी जी से कह कर साथ भेज दिया। घनघोर जंगल में अनजाने स्थान पर, निस्तब्ध रजनी में आश्रय लेने का यह अद्भुत संयोग था। परमहंस जी की जहाँ कुटियाँ थी, वहाँ एक बहुत बहुत विशाल वुँâआ था, जिसके एक किनारे एक बरामदे के दोनों ओर छोटी छोटी कोठरियाँ थी, जिसमें परमहंस जी रहते थे। ब्रह्मचारियों के लिए अनुसूइया जी के मंदिर के बगल में भी छोटे छोटे आवास बने थे।

रात में नयी जगह में हम लोगों को नीद क्या आती। रात में अनेक प्रकार के जानवरों की आवाजें हम लोगों को भयभीत करती रहीं। इस पर ब्रह्मचारी जी ने हम लोगों को बतलाया कि इन जानवरों को आश्रम में कुछ नये व्यक्तियों के आने की गंन्ध मिल गयी है। इसीलिए अन्य दिनों की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा ही शोर मचा रहे हैं। इस भय के वातावरण में कब नींद लग गयी पता ही नहीं चला। जब नींद खुली तो सूरज निकल आया था। ब्रह्मचारी जी न जाने कब उठ कर नीचे चले गये थे। हम लोग भी नीचे उतर कर शौच और मंदाकिनी में स्नान आदि कर के तथा पुनः अनुसुइया जी का दर्शन कर के तथा परमहंस जी का आशीर्वाद ले कर करवी लौट आये। परमहंस जी का दिव्य व्यक्तित्व मुझे सुभाष चन्द्र बोस की तरह लगा था। कौन जाने वे सुभाष जी ही रहे हों। करवी में आकर दूसरे दिन हम लोग चित्रकूट के कुछ विशिष्ट तीर्थो हनुमान धारा, देवांगना, कोटतीर्थ और गणेश बाग, प्रमोद वन, जानकी कुंड आदि का दर्शन किये। स्फटिक शिला का दर्शन, जहाँ जयन्त ने कौवे का वेष धर कर जानकी जी को चोंच मारा था, अनुसूइया जी जाते वक्त कर लिये थे। चूंकि हमारे पास समय कम था, मुझे माँ को गाँव पहँुचा कर तिर्वा लौटना भी था, अतः इच्छा होते हुए भी गुप्त गोदावरी का दर्शन नहीं कर पाये। यह संयोग मुझे बहुत वर्षों बाद मिल पाया। जब हम लोग कोटतीर्थ जा रहे थे, तब पंडित जी का चार पाँच साल का लड़का भी मेरी गोद में था, उसे लेकर पहाड़ चढ़ने में मैं काफी थक जाता था। जब हम लोग कोटतीर्थ जा रहे थे तो वहाँ का पुजारी लौट रहा था। हम लोगों  को देख कर वह फिर वहाँ मंदिर तक गया और अपनी परम्परा के अनुसार सबके पीठ पर छड़ी मार कर आशीर्वाद दिया। पुजारी जी ने बतलाया कि यहाँ रात में जंगली जानवर विश्राम करते हैं। अतः रात में मैं यहाँ नहीं रहता। सचमुच वहाँ जानवरों के मल से बहुत बदबू आ रही थी जो जंगली जानवरों के वहाँ के वास का प्रत्यक्ष प्रमाण था। हनुमान धारा का दृश्य बड़ा ही मनोरम था। एक बड़े से चट्टान के नीचे हनुमान जी की भव्य मूर्ति थी, तथा बगल में एक मिष्ठान की दुकान थी। जहाँ से प्रसाद ले कर लोग हनुमान जी को चढ़ाते थे। चट्टान के उâपर से शीतल जल धारा लगातार गिरती रहती थी, जिससे वहाँ वातावरण ठंडा बना रहता था। किन्तु वहाँ पर बन्दरों का उत्पात देखने लायक था। अक्सर वे बन्दर जरा सा असावधान होने पर मिठाई का प्रसाद लूट लेते थे। इसलिए बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती थी। हनुमान धारा से ऊपर चढ़ कर हम लोगों ने सीता रसोई का भी दर्शन किया। गणेश बाग एक बहुत ही भव्य पुराना सात तल्ले का तालाब है, जिसकी बनावट प्रशंसनीय है। करवी लौट कर दूसरे दिन शाम को हम लोगों को सच्चा आश्रम में आंमत्रित किया गया जो करवी के गुफा स्थान पर स्थित है। सन्त से तिवारी जी पूर्व परिचित थे। अतः हमारे आने की सूचना पा कर उन्होंने हम लोगों को रात्रि भोज पर आमंत्रित किया। उस भोज में गेहॅू चना मिश्रित आटे की मोटी मोटी रोटियाँ जो पूरी तरह घी में डुबोई हुई थीं, तथा उसके साथ मेवे की खीर का प्रसाद खाने को मिला। जिसका स्वाद आज भी भूला नहीं है।

इस प्रकार करवी में तीन चार दिन बिता कर तथा चित्रकूट आदि के दर्शन कर के मैं गाड़ी पकड़ कर गाँव आ गया। वहाँ माँ को छोड़  कर मैं पुनः तिर्वा चला आया।

तिर्वा मैने एक साल अध्यापन कर अपनी आगे की पढ़ाई के लिए पर्याप्त धन जुटा लिया था। अतः दूसरे साल मैं आगरा में प्रवेश लेने के लिए, आगरा के बलवन्त राजपूत कालेज गया। किन्तु वहाँ की परिस्थिति और प्रवेश की जटिलता को सुन कर मेरे लिए उस साल प्रवेश लेना सम्भव नहीं हो पाया। मुझे बतलाया गया कि लगभग कुल चार हजार रूपये खर्च होंगे, और प्रारम्भ में ही आंशिक भुगतान के रूप में मुझे पन्दह सौ रूपये जमा करने होगे। पिता जी अपनी परिस्थिति से परेशान थे। वे किसी प्रकार के आर्थिक सहयोग से अपनी असमर्थता प्रकट कर चुके थे। गाँव की गृहस्थी से भी मुझे किसी प्रकार की उम्मीद नहीं थी। अतः अगले साल प्रवेश पाने का आश्वासन प्राप्त कर मैं बाध्य होकर पुनः तिर्वा लौट आया। मेरी आगे पढ़ने की तीव्र इच्छा में किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिल पाया था। अतः मैं बहुत क्षुब्ध था। मैने अपने बारे में किसी को भी कोई सूचना नही दी। न तो गाँव से सम्पर्क किया, और न पिता जी से, मैं क्षुब्ध तो था ही मेरा हाल चाल बहुत दिनों तक न तो गाँव पर और न पिताजी को ही मिला तो सबके मन में मेरे बारे में घबड़ाहट का वातावरण बन गया। मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ, यह बात मैंने अपनी माँ से बतला दिया था। जब कहीं से मेरा कुशल समाचार नहीं मिला तो कुछ दिनों के बाद पिताजी ने एक पत्र प्रधानाचार्य के नाम से तिर्वा भेजा जिसमें मेरे बारे में सूचना माँगी गयी थी। मुझे बड़े बाबू ने बुला कर हँस कर वह पत्र दिखलाया और पूछा क्या आप घर से नाराज हो कर आये हैं। मैने हँस कर उन्हें सारी बात बतला दी, और उसके तुरन्त बाद अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए, पिताजी और गाँव में सुधाकर भैया को भी पत्र लिखा कि मैं प्रवेश के लिए आगरा चला गया था, किन्तु आर्थिक परेशानियों के कारण मैं पुनः तिर्वा लौट आया। किन्तु अगले साल मैं अवश्य ही आगरा में अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखूँगा। इस पत्र का प्रभाव पिताजी पर पड़ा और वे स्वयम् तिर्वा आ कर पांच सौ रूपये दे गये थे। और मेरी हार्दिक इच्छा को देख कर आगे की पढ़ाई के लिए गाँव से भी तथा अपनी ओर से भी आर्थिक सहयोग देने का आश्वाशन मुझे दिया था। मैं पिताजी के भाव को जान कर प्रसन्न हुआ था।

तिर्वा में दूसरे वर्ष मेरे कार्य से सन्तुष्ट हो कर प्राचार्य जी जो पहले मुझे एक सौ पचीस रूपया महीना देते थे अब एक सौ पचहत्तर रूपये महीना देने लगे। पाँच रूपये की वार्षिक वृद्धि भी मुझे प्राप्त हो गयी थी इस प्रकार मेरा वेतन भी पिछली वर्ष की अपेक्षा १८० रूपये हो गया था। इससे मुझे बचत का एक साधन ईश्वर की कृपा से अपने आप प्राप्त हो गया था। दूसरे वर्ष मेरा गौना हो जाने के बाद अपनी पत्नी को भी तिर्वा बुला लिया। पत्नी की तरफ से भी मेरी पढ़ाई के लिए आर्थिक सहयोग के साथ साथ उसके त्याग की भावना से भी मैं प्रभावित हुआ। मेरी आगे पढ़ने की भावना को देख कर उसने अपना आभूषण बेच कर भी मुझे आगे पढ़ने के लिए आश्वस्त किया। इससे मुझे आत्मिक सन्तोष प्राप्त हुआ। हालाँकि आभूषण बेचने की नौबत नहीं आयी।

तिर्वा में मैं जिस मकान में रहने लगा था, वह एक कुलीन चतुर्वेदी परिवार का घर था। जो अन्दर ही अन्दर कई मकानों से सम्बधित था। जब मैं अकेला रहता था, तब भी परिवार की जिया बरसात में मेरे बाहर डाले गये कपड़ों को आकर सुरक्षित रख देती थी तथा मेरे भोजन की भी सुरक्षा कर देती थी। आज मैंने क्या बनाया है। उसको ठीक से ढँक देती थी। मैं जल्दी जल्दी भोजन बना कर खा पी कर विद्यालय चला जाता था। अतः उन लोगो का यह सहयोग मुझे अच्छा लगता था। उन्हीं के परिवार के पंडित कान्ता नाथ चतुर्वेदी के बड़े लड़के त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी आई० ए० एस० परीक्षा में सफल हो कर जिलाधीश बन गये थे। और बाद में  अवकाश प्राप्ति के बाद वे सांसद तथा उसके बाद राज्यपाल भी बन गये थे। उनसे बाद में इलाहाबाद में मैं कई बार उनसे मिला था। कामता नाथ जी जो पूर्व राजा के कोषाधिकारी थे, उनका एक लड़का बिल्हड़ मेरा मित्र बन गया था। और बहुधा मुझे अपने घर पर भोजन कराता तथा अपने फार्म पर ले जा कर फसली चीजें भी खिलाता। उस परिवार के कुछ लड़के व लड़कियाँ हमारी छात्र भी थीं। उस समय वहाँ पूर्व विधायक और उच्च शिक्षा मंत्री श्री नरेद्र सिंह गौड़ भी मेरे विद्यार्थी थे। उनके एक चाचा ठाकुर हरिहर बक्स सिंह तथा दिग्विजय सिंह हमारे सहयोगी थे। जब मैं इलाहाबाद में बाइकेबाग में रहता था, तो नरेद्र सिंह जो कीटगंज में रहते थे, तथा विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे थे, उसी रास्ते साइकिल से रोज आते जाते थे और एक दिन उन्होंनें स्वयंम् आकर अपना परिचय दिया था।

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आगरा प्रवास

दो साल १९५८ से १९६० तक तिर्वा में अध्यापन करने के पश्चात् मैं पुनः आगरा आगे की पढ़ाई करने के लिए चला गया, और वहाँ मैंने अपनी इच्छा के अनुसार पशुपालन एवं दुग्ध विज्ञान विभाग में एम० एस० सी० (एजी) में प्रवेश ले लिया। यह सूचना मैंने तिर्वा के प्रधानाचार्य को भी लिख कर भेज दिया। तिर्वा से प्रधानाचार्य का भाव पूर्ण पत्र मुझे प्राप्त हुआ। उन्होंने मुझे आगे पढ़ने के लिए बधाई दी तथा यह भी लिखा कि आप का स्थान इस विद्यालय में सुरक्षित है। आप जब भी चाहे यहाँ आ सकते है। मैंने उनके पत्र का उत्तर दे दिया अभी तो दो साल यहाँ मुझे अध्ययन रत रहना है, भविष्य में देखा जायेगा। तिर्वा के कई अध्यापकों ने भी मुझे तिर्वा की नौकरी छोड़ने पर खेद व्यक्त किया तथा आगे पढ़ने के भाव पर बधाई के पत्र भेजे। एकाध अध्यापक तो आगरा में आ कर मुझे छात्रावास में मिलकर बधाई दे गये। तिर्वा के लोगों का यह सद्भाव और सहृदयता देख कर मैं बड़ा सन्तुष्ट और आनन्दित हुआ।

आगरा में मेरा विभाग बहुत ही अनुशासित वातावरण में कार्य करने के लिए प्रसिद्ध था। मेरे विभागाध्यक्ष डॉक्टर शिव नरायण सिंह बहुत ही अनुशासन प्रिय थे तथा बहुत ही सुलझे हुये अनुभवी अध्यापक थे। मेरा विभाग छात्रावास से मात्र दो सौ मीटर दूर था। बीच में केवल एक बालीबाल और टेनिस के खेल के मैंदान थे। छात्रावास में मैं चौथै ब्लाक में तीन नम्बर के कमरे में रहता था। जो प्रथम तल्ले पर था। हम लोग प्रातः सात बजे तक तैयार हो कर साढ़े सात से  ११ बजे तक तथा भोजन के उपरान्त २ से ५ बजे तक विभाग में व्यस्त रहते थे।  देवरिया के छात्रावास की तुलना में यह छात्रावास हर तरह से सुव्यवथित था। यहाँ रहन सहन की सभी सुविधायें उपलब्ध थी। बगल में ही भोजनालय था जो शाकाहारी था। मांसाहारी भोजनालय एक ब्लाक के नजदीक था। भोजन बहुत ही स्वादिष्ट तथा समय पर मिलता था। भोजन के समय हम लोग गरम रोटी प्राप्त करने के लिए घण्टों बैठ कर हँसी मजाक के बीच भोजन करते थे। खाने पीने में भी छात्रों में होड़ लग जाती थी। एकाध छात्र तो ऐसे थे जो चालीस चालीस रोटी खा जाते थे। वहाँ प्रायः दो प्रकार की दाल बनानी पड़ती थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग जहाँ उरद की दाल पसन्द करते थे, वहाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग रोटी के अलावा चावल और अरहर की दालें पसन्द करते थे। मेस का पंडित भरवा बैगन बहुत ही स्वादिष्ट बनाता था। जिस दिन भरवा बैगन बनता था, उस दिन शामिष भोजनालय के छात्र भी अतिथि के रूप में आकर भरवा बैगन का स्वाद लेते थे। प्रत्येक त्यौहारों पर तथा रविवार के दिन अथवा अन्य किसी छुट्टी के दिन स्पेशल भोजन बनता था, जिसमें पूड़ी, सब्जी, खीर अथवा सेवई आदि बनती थी तथा सलाद और फल भी दिया जाता था।

आगरा में मुझे अध्ययन के दौरान बहुत ही व्यस्त रहना पढ़ता था। विशेष कर अपनी थीसिस के अनुसंधान के लिए विद्यालय से छुट्टी होते ही कन्धारी फार्म जाना पड़ता, जो छात्रावास से लगभग २ किलोमीटर दूर था, और वहाँ से अनुसंधान के लिए सामग्री वीर्य एकत्रित कर तथा उसे विभिन्न परिस्थितियों तथा विभिन्न तापक्रमों पर सुरक्षित रखना पड़ता था, तथा प्रत्येक दिन एकत्रित वीर्य की जीवन्तता एवम् सक्रियता का परीक्षण करना पड़ता था। मुझे कन्धारी फार्म पर एक भेड़ मिला था, जिसका मैने राम नाम रख दिया था। मेरे जाते ही वहाँ का  चपरासी भेड़ मेरे पास ले आता और मैं कृत्रिम गर्भाधान के द्वारा उस भेड़ का वीर्य एकत्रित कर तथा थर्मश में रख कर प्रयोगशाला में ले आता था और वहाँ विभिन्न परीक्षण करना पड़ता था।

 इस प्रयोगशाला में चूंकि यह कार्य मुझे पहले पहल करना पड़ा था, अतः उसके लिए आवश्यक सुविधायें भी अपनी सूझ बूझ से तैयार करनी पड़ती थी। मेरे इस प्रयोग के निर्देशक डॉक्टर ओम प्रकाश सिंह सेगंर का हर कार्य में बहुमूल्य योगदान रहता था। वे इसी विषय का प्रशिक्षण ले कर अमेरिका से कुछ ही दिन पहले आये थे, और उसी आधार पर यहाँ आगरा में मुझे अपने अनुभव के अनुसार कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया था। चूंकि कार्य नया था और सुविधाओं की कमी थी, अतः वे मेरे साथ रात के दो ढाई बजे तक प्रारम्भ में रह कर मुझे कार्य सिखाते थे। उन्हीं दिनों आगरा में बड़ी भयंकर शीतलहरी चल रही थी। यह बात १९६२ की है। मैं वहाँ १९६० से १९६२ तक अपनी पढ़ाई तिर्वा से आने के बाद कर रहा था। मुझे शून्य से चालीस डिग्री नीचे ताप पर वीर्य को सुरक्षित रखना पड़ता था, जिसके लिए मुझे उâनी दस्तानों के साथ उâपर से चमड़े का दस्ताना भी पहन कर तब काम करना पड़ता था और बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती थी। जरा सी असावधानी होने पर उस दिन के पूरे प्रयोग के गलत हो जाने तथा हाथों के उँगलियों के गलने का भय लगा रहता, जैसा कि प्रारम्भ में प्रशिक्षण के दौरान दो तीन बार हुआ भी। यह कार्यक्रम लगभग तीन महीने तक चला और मैने अपने प्रयोग के आधार पर छः महीने तक वीर्य को सक्रिय एवम् सुरक्षित रख लिया था। इस परीक्षण में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। मेरे शोध पत्र के प्रकाशित होने पर रूस के एक प्रयोगशाला के निर्देशक ने मेरे प्रयोग की विस्तृत प्रक्रिया और नतीजों की विस्तृत जानकारी माँगी थी। सम्भवतः उनके यहाँ भी इसी प्रकार के प्रयोग हो  रहे थे। इससे हमारे निर्देशक तथा विभाग का नाम प्रसिद्ध हुआ। भारत की परिस्थितियों में यह अपने प्रकार का सम्भवतः पहला प्रयोग था। अपने निर्देशक से इस सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर मुझे बड़ी आत्मिक शान्ति प्राप्त हुई।

मेरे बाद डॉक्टर सेगंंर ने अन्य छात्रों से भी अलग अलग पशुओं पर इस प्रयोग को जारी रखा था। मेरे इस प्रयोग से उसके बाद सारे विश्व में तथा भारत वर्ष में भी अनेक प्रयोगशालाओं में मेरी प्रक्रिया का प्रयोग करके कृत्रिम गर्भाधान की विधि भारत के अनेक पशुओं पर लागू होने लगी और कृत्रिम गर्भाधान पशुओं के जाति की उन्नति तथा उसकी उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक सरकारी कार्यक्रम के रूप में सारे देश में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में प्रारम्भ हो गया था।

इसी प्रकार का एक और प्रयोग उसी साल हमारे एक सहपाठी ने किया। पहले दूध बोतलों में भर कर ग्राहकों को भेजने की प्रकिया थी। इस प्रक्रिया में अक्सर बोतल टूट जाते थे, और दूध का नुकसान भी होता था। दूध को शीशे की बोतलों में रख कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में तब बड़ी कठिनाई होती थी, तथा बोतलों को धोना भी तथा उन्हें जीवाणु रहित करना भी आवश्यक होता था। मेरे सहपाठी ने शीशे के बोतलों के स्थान पर प्लास्टिक के थैलो में जीवाणु रहित दूध भेजने की प्रक्रिया पर सफल प्रयोग किया और तब से बोतलों की जगह यह प्रक्रिया सफलता पूर्वक आज भी चालू है। इन्ही सब विशिष्ट प्रयोगों के कारण हमारा विभाग काफी प्रसिद्ध हो गया था। अपनी संयमित कार्य कुशलता और कार्य निपुणता के कारण अन्य विश्वविद्यालय और महाविद्यालय के लोग हमारे विभाग की प्रयोगशाला में नयी नयी तकनीक सीखने के लिए अक्सर आते रहते थे। विशेष कर कानपुर विश्वविद्यालय, जो बाद में बना तब वहाँ के कृषि महाविद्यालय के छात्र आ कर महीनों वहाँ टिक कर विभिन्न प्रयोग सीखते और करते थे। उस समय पशुपालन की स्नातकोत्तर कक्षाएँ देश में बहुत ही कम स्थानों पर चलती थीं। अतः हमारा विभाग एक विशिष्ट विभाग बना हुआ था। हमारे विभाग की कठोर अनुशासन प्रियता थी डॉक्टर सिंह के कारण भी सभी लोग उनका लोहा मानते थे। आगरा में मैने अपने विषय पशुपालन एवम् दुग्ध विज्ञान के तकनीकी ज्ञान को तो प्राप्त किया ही इसके साथ साथ अनुशासन प्रियता और सबके प्रति प्रेम भाव का व्यवहार भी मुझे सीखने को मिला, जिसे भविष्य में एक शिक्षक के रूप में मैने अपने जीवन में सफलता पूर्वक अपनाया और मैं अपने जीवन में समय से पढ़ाने तथा कठोर अनुशासन के लिए प्रसिद्ध हो गया था। मेरे जीवन का यह आदर्श अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदारी, अनुशासन, संयमित जीवन, समय का ध्यान तथा सबसे प्रेम और आदर व्यवहार यह मेरे जीवन का आदर्श बन गया, जिससे सभी विद्यार्थी और अध्यापक प्रेरणा लेते थे। लोग कहा करते थे, कि आप अपने गुरू डॉक्टर शिव नरायण सिंह की तथा डॉक्टर सेगंर की परम्परा के वास्तविक अध्यापक लगते हैं। यह सब बड़ाई सुन कर मुझे हार्दिक प्रसन्नता और गौरव का अनुभव होता था।

आगरा में अपने अध्ययन के दौरान अन्य छात्रों की अपेक्षा आर्थिक दृष्टि से मुझे सदा संकोंच करना पड़ता था। इस आर्थिक कमी के कारण ही मैं डॉक्टर सिंह से विशेष अनुमति प्राप्त कर एक प्रशिक्षण यात्रा पर भी नहीं गया था। छात्रावास के अन्य अनेक छात्र जब कि विद्यालय जाने के पूर्व जल पान गृह में जाकर इच्छा अनुसार जल पान करते थे, मैं भीगा हुआ चना अथवा लाई चना और गुड़ खा कर ही विभाग में जाता था। किन्तु इसके साथ विभाग से आधा लीटर दूध नियमित रूप से खरीदता था। तब मुझे चाय पीने की आदत नहीं थी। कभी कभार अन्य छात्र मुझे जबरदस्ती जलपान गृह में ले जाते तभी चाय पीता था। तिर्वा में रहते हुए मैने एक स्टोव खरीद लिया था जिस पर दूध गर्म करता। मेरे एकाध अन्य साथी भी मेरी तरह जीवन बिता रहे थे, और वे मेरे ही स्टोप पर दूध गर्म करने आते थे।

मेरा बचपन से ही श्रावण मास के सोमवार का व्रत रहने का अभ्यास था और जब तक शिव जी का पूजन नहीं कर लेता था, तब तक कुछ भी नहीं खाता था। ऐसे व्रतो में मैं बिना जल पीये दिन भर प्रयोगशाला में काम किया करता था और शाम को विद्यालय की चहार दीवारी के बाहर स्थित शिव मंदिर में पूजन करके तब शाम को फलाहार करता था। विद्यालय के सहकारी समिति द्वारा मुख्य फाटक के पास दोनों ओर दुकानें बनी हुई थीं। जिसमें एक तरफ जलपान गृह था, जहाँ हर प्रकार की मिठाईया समोसे टिकिया तथा अन्य नमकीन तथा टोस्ट मक्खन आदि सस्ते दामों पर उपलब्ध थे। इसी तरह दूसरी तरफ एक फलों की दुकान थी, जहाँ हर प्रकार के फल मिलते थे। यह दुकानदार चूंकि मुझे जान गया था कि मैं व्रत रहता हूँ अतः बड़ी सफाई से सेंधा नमक और काली मिर्च डाल कर तथा बर्तन धोकर मुझे फल देता था। उस दिन मैं केवल दूध पी कर रह जाता था।

जैसा कि मैं पहले बतला चुका हू कि अर्थाभाव के कारण मैं देश भ्रमण के शैक्षिक यात्रा पर नहीं जा पाया था, उसका असर मेरी परीक्षा पर पड़ा क्योंकि उस यात्रा का विवरण मैं प्रस्तुत नहीं कर पाया था। जब हम आगरा में पहले साल में अध्ययन कर रहे थे, उस समय हम लोगों से एक वर्ष वरिष्ट छात्रों को डेरी रसायन की परीक्षा में प्रायः सभी छात्रों को बहुत कम अंक मिले थे। अधिकांश छात्र असफल हो गये थे। किन्तु चूँकि सभी विषयों के अंकों को जोड़ कर छात्रों को  सफलता प्राप्त होती थी, अतः अन्तिम परीक्षा में कोई छात्र यद्यपि असफल नहीं हुआ था, किन्तु मनोवैज्ञानिक रूप से हमारे साथ के छात्र बहुत भयभीत थे। तब डेरी रसायन चूंकि बड़ा दुरूह लगता था। यहाँ तक की हम लोगों के अध्यापक भी इस विषय से पूर्ण विशेज्ञता नहीं प्राप्त कर पाये थे, और जब हम लोग फाइनल परीक्षा देने उस विषय में बैठे तो कई अध्यापक यह कह कर कि प्रश्नपत्र तो बड़ा कठिन है, विद्यार्थी क्या कर रहे हैं, क्या लिख रहे है? अगर ये परीक्षा छोड कर उठ जाते, तो इस सम्बन्ध में विश्वविद्यालय को कुछ लिखा जाता, किन्तु हम लोग अपने वरिष्ट छात्रों की असफलता और विषय की दुरूहता को जान कर हम लोगों ने उस विषय में कुछ अधिक ही तैयारी की थी। विशेष अनुरोध करके हाल ही में प्रकाशित अमेरिका की पुस्तक ‘‘जैनिस एण्ड पेटेन की डेरी वैâमेस्टी’’ की कई प्रतियाँ हम लोगों ने विभाग में मँगा ली थीं और पूरी पुस्तक को प्रायः रट डाले थे। जिसका परिणाम हुआ कि हमारे साथ के प्रायः सभी छात्र उस विषय में अच्छे अंक प्राप्त किये। जब मेरा परीक्षा फल और अंक पत्र मुझे अपने गाँव पर प्राप्त हुआ तो यह देख कर कि मुझे उस दुरूह विषय में ५७ अंक प्राप्त हुये थे, हार्दिक प्रसन्नता हुई थी। हम लोगों के पूर्व हमारे विषय में कोई भी विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में नहीं सफल हुआ था। किन्तु हमारे साथ के तीन साथी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो कर विभाग में एक रेकार्ड स्थापित किये थे। मेरी कक्षा में उस वर्ष कुल तेरह छात्र थे। हम लोगों के सत्र के बाद मेरा विभाग अपने अध्यापकों और विद्यार्थियों के कठोर परिश्रम और अनुशासन के कारण अनेक नई नई और ऊँची-ऊँची उपलब्धियाँ प्राप्त कर पाया था। मैं जब इलाहाबाद में अध्यापक हो गया, तो कई बार वहाँ परीक्षक बन कर गया। और विभाग की उन्नति और नई नई परियोजनाओं को देख कर हमें बड़ी प्रसन्नता, सन्तोष और गौरव का अनुभव होता था, जिसकी आधार की नींव बनाने में हम लोगों का भी अांशिक योगदान था।

जैसा की मेरा प्रारम्भ से ही स्वभाव था, आगरा में भी मैं शाम को अवकाश के समय विद्यालय के क्रीड़ा मैदान में अथवा बाग में घण्टों शाम को एकान्त में बैठा रहता था। आगरा प्रवास के दौरान मैं दो तीन बार ताजमहल देखने गया। कुवार की पूनम रात में रात के १२ बजें जब चाँद ताजमहल के सिर प्ार चमकता था, उस दृष्य को भी मैंने देखा। उस दिन ताजमहल में मेले जैसी भीड़ लग जाती थी, और लोग रात भर रह कर ताजमहल की छटा का आनन्द लेते थे। आगरा में कई बार आगरा का किला, सिकन्दरा, मोती मस्जिद तथा फतेहपुर सीकरी में अकबर का किला आदि ऐतिहासिक स्थानों का दर्शन किया था। दिल्ली से लौटते वक्त मैं अपनी पत्नी को भी कौतूहल वश अपना छात्रा वास का कमरा, प्रयोगशाला एवम् मेस आदि का दिगदर्शन कराया था। उसके पूर्व पिता जी मेरी पत्नी को कुछ दिनों के लिए दिल्ली घुमाने के लिए गाँव से अपने साथ ले गये थे। दिल्ली से अपनी पत्नी को आगरा घुमाकर मैं उन्हें गाँव में माँ के पास छोड़ आया था।

बिपरीत परिस्थितियों में मेरे स्नातकोत्तर कक्षा में प्रवेश लेने, अध्ययन रत रहने एवम् सफलता पूर्वक परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के पश्चात् मेरे पिता जी ने मेरे पत्र के प्रतिउत्तर में बहुत ही शिक्षाप्रद और प्रेरणाप्रद पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने मेरी संकल्प शक्ति, लगन तथा लक्ष्य प्राप्ति की भूरि भूरि प्रशंसा की थी। जैसा कि  उन्होंने वादा किया था, मेरे आगरा में प्रवेश ले लेने के बाद वे प्रत्येक माह कुछ आर्थिक सहयोग मुझे देते रहे। मुझे पैसे की आवश्यकता नहीं थी। मेरे पास तिर्वा से इतना वेतन संचित हो कर प्राप्त हो गया था कि संकोच से ही सही मेरा कार्य सकुशल चल रहा था। पिता जी का पत्र प्राप्त कर मैने अपने जीवन क्रम को विस्तार से उन्हें पत्र के माध्यम से बतला दिया। आर्थिक अभाव में भी मैंने किस प्रकार अपना अध्ययन जारी रखा, यह सब मैने उन्हें लिख भेजा। शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् मैंने पिता जी को यह भी लिख दिया कि अपने अनुज रत्नाकर के अध्ययन का भार भी मैं ही सभालूँगा। यह सब जान कर पिता जी बड़े खुश हुये थे और मुझे अपने आशीर्वाद से कृतकृत्य किया था।

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प्रयाग निवास

कुलभास्कर महाविद्यालय में–

ईश्वर की कृपा से तथा मेरे सौभाग्य से मेरा परीक्षाफल निकलने के तुरन्त बाद ही मुझे इलाहाबाद के कुलभास्कर आश्रम महाविद्यालय से नियुक्ति पत्र प्राप्त हो गया। मेरी इस नियुक्ति में भी विशेषता यह रही कि जब मैं कुलभास्कर आश्रम का पत्र प्राप्त कर प्रबन्ध समिति के सामने इन्टव्यू के लिए उपस्थित हुआ तो उस समय मेरे साथ सात लोग उस पद के लिए आये हुऐ थे। जब मेरी बारी आयी तो प्रबन्ध समिति के एक सदस्य पी० पी० माथुर जो अवकाश प्राप्त आई० सी० एस० थे, उन्होंने मुझसे जितने प्रश्न किये, मैं निडर होकर उनका सटीक उत्तर देता गया। इस पर वे मुझसे बड़े प्रभावित हुये। उस समय मुंशी हरिनन्दन प्रसाद जो एक नामी वकील थे, वे ही उस समय कायस्थ पाठशाला ट्रस्ट के अध्यक्ष थे।  उनके सुपुत्र जस्टिस्ट यशोदानन्दन  जिन्होंने इन्दिरा गाँधी के खिलाफ निर्णय सुनाया था, वे , माथुर साहब, चौधरी नौनिहाल सिंह, जो उत्तर प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री हुए थे, चौधरी शिवनाथ सिंह, विद्यालय के प्राचार्य श्री बृज बिहारी सहाय तथा अध्यापक प्रतिनिधि प्रोफेसर जैराम सिंह चयन समिति में थे। और जैसा स्वाभाविक था, इन सदस्यों में से कुछ लोग जातिवादी प्रवृत्ति होने के कारण किसी अन्य की नियुक्ति के लिये जोर देते रहे। किन्तु माथुर साहब ने बड़ा जोर दे कर मेरी नियुक्ति के लिए संस्तुति किया। अन्त में निर्णय ये हुआ कि मुझसे लिखवा लिया जाये कि तीन वर्ष तक कम से कम वे विद्यालय नहीं छोड़ेंगे, तभी उन्हें नियुक्त किया जाये। यह शर्त जान बूझ कर लगाई गयी थी। जब मेरे सामने यह बात आयी तो मैंने अपने बाबा का दृष्टान्त देकर कि मेरे बाबा यहाँ प्रयाग में रह चुके हैं, और मेरा सौभाग्य होगा कि तीर्थराज प्रयाग में मुझे कार्य करने का मौका मिलेगा, किन्तु मैं लिख कर नहीं दूँगा। मेरे प्राचार्य और बड़े बाबू वर्मा जी बार बार मुझे समझाते रहे कि लिख कर देने में क्या हर्ज है। आपको जहाँ जाना होगा अच्छी जगह पर आप चले जाइयेगा। कोई आप कर मुकदमा थोड़े न ठोकेगा। इस पर मैने जवाब दिया कि देखिये मैं यहाँ से जाऊँगा नहीं, किन्तु लिख कर भी नहीं दूँगा। यह बात जब प्रबन्ध समिति के सामने पहुँची तो इस पर माथुर साहब के साथ साथ अध्यक्ष मुंशी हरिनन्दन प्रसाद भी मेरे पक्ष में हो गये। यह कह कर कि यह इस व्यक्ति की संकल्प शक्ति को प्रदर्शित करता है, जो अध्यापक का एक विशेष गुण है। अतः भले ही वह लिख कर नहीं दे रहा है, किन्तु नियुक्ति उसी की दिया जाये। और इस प्रकार मेरी नियुक्ति कुलभास्कर आश्रम में हो गयी। पहली जुलाई को मेरा इन्टरव्यू हुआ था, और नौ जुलाई १९६२ को मुझे नियुक्ति होने का आदेश गाँव पर प्राप्त हुआ। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। अपने इन्टरव्यू के समय जब मुझे लिखने पर जोर दिया जाने लगा, तो मैंने उन्हें बतलाया कि देखियें मेरे पास नियुक्ति के दो पत्र मेरी जेब में पड़े है। एक देवरिया महाविद्यालय का जहाँ का मैं छात्र रहा हूँ तथा दूसरा ब्रह्मानन्द महाविद्यालय राठ, हमीरपुर का । किन्तु यदि प्रयाग में आप मुझे नियुक्ति देते हैं, तो मैं यहाँ रहना अपना सौभाग्य समझूँगा। यह सब जान कर प्रबन्ध समिति ने अन्ततः मुझे योग्य समझ कर नियुक्त कर लिया था। यह सब बातें तो मुझे बाद में प्राचार्य, बड़े बाबू तथा अध्यापक प्रतिनिधि ने बतलाई थी। वे बार बार कहते थे कि माथुर साहब को आपने ऐसा मोह लिया था कि वे दूसरे किसी अन्य के नियुक्ति के बारे में बड़े जोर से विरोध करते रहे और आप को ही नियुक्त करने का निर्णय अन्ततः उन्हीं के जोर देने के कारण हुआ। यह सब सुन कर मैं बाद में माथुर साहब से मिला और अपनी कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने मुझे हर तरह से सहयोग देने का आश्वासन दिया। मैं बड़ा प्रसन्न होकर उनके आवास से आया। इस प्रकार अपनी बाबा की परम्परा में मैं भी इलाहाबादी बन गया।

इलाहाबाद में जब मेरी नियुक्त हो गयी तो मेरे सामने यहाँ आने पर सबसे बड़ी समस्या आवास की थी। मुझे इस नगर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।  मैने अपनी समस्या विद्यालय के प्राचार्य श्री बृजबिहारी सहाय जी से निवेदन किया और उन्होंने बड़ी कृपा पूर्वक मेरी समस्या का समाधान तुरन्त कर दिया। मुझे कुलभास्कर आश्रम के फील्ड में बने स्टेडियम में एक कमरा उन्होेंने खाली करा कर दे दिया, और वहीं मैं रहने लगा। मैं बिल्कुल खाली हाथ मात्र एक झोला ले कर प्रयाग आया था। मैने पूछ ताछ कर के कटरा से छः रूपये में एक बाँस की खाट, एक दरी, और एक चादर, खरीद लिया और उस विशाल फील्ड में खुले स्थान में अकेले सोने लगा। बाद में मुझे बतलाया गया कि यह स्थान तो चोरों और बदमाशों का अड्डा है। जहाँ अक्सर अनाचार और व्यभिचार होते रहते है, तथा कई हत्यायें भी हो चुकी हैं। यह सब सुन कर मैं थोड़ा भयभीत तो हुआ, किन्तु ईश्वर पर आस्था रखने वाला मेरे जैसा व्यक्ति निडर हो कर निश्चिन्तता से कुछ दिन उस कमरे में रहता रहा। किन्तु मै इसे सौभाग्य कहूँ या दुर्र्भाग्य, लगभग एक हप्ते के बाद ही तत्कालीन भारत के प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का प्रयाग आने का कार्यक्रम एकाएक बना और उसी हमारे कमरे के छत पर से ही उन्हें आम सभा को सम्बोधित करना था। जैसे ही उनके आने का प्रोग्राम तय हो गया, नगर के पुलिस अधिकारी आकर सारा निरीक्षण करने लगे और जब उन्हें पता चला कि मैं यहाँ आठ दस दिन पूर्व से रहने लगा हूँ, तो उन्होंने मेरा कमरा खुलवा कर कमरे का निरीक्षण किया और मेरे बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर सन्तुष्ट हो कर चले गये। किन्तु उसके दूसरे ही दिन जब दिल्ली से विशेष सुरक्षा अधिकारी आये तो उन्होंने मुझे कमरा तुरन्त छोड़ने का आदेश दे दिया। मेरे हर प्रकार से समझाने के बाद भी सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें परिस्थिति जन्य मेरी उपस्थिति संदेहास्पद लगी, और बाध्य हो कर मुझे कमरा तुरन्त खाली करना पड़ा। ऐसी परिस्थिति में मेरे एक विद्यार्थी ने अपने आवास पर मुझे रहने को आमंत्रित किया। मैं मजबूर था, अतः कुछ दिन विद्यालय से काफी दूर कीट गंज में उस विद्यार्थी के एक कमरे में मुझे रहना पड़ा। मुझे विद्यालय दो बार आना जाना पड़ता था। अतः मुझे काफी असुविधा होती थी। जब मैं इलाहाबाद आने लगा था, तो मेरी माँ ने बड़ी माँ से सौ रूपये उधार ले कर मुझे दिया था। विद्यालय में मेरी नियुक्ति दो सौ बीस रूपये में हुयी थी। अतः एक माह बाद ही वेतन मिलने पर मैने बड़ी माँ को सौ रूपये के बदले एक सौ दस रूपये दे कर कृतज्ञता ज्ञापित की थी। उस समय भोजन बनाने की व्यवस्था मेरी नहीं बन पायी थी। अतः होटल में ही खाता था। विद्यालय चूंकि दो सिफ्टों में चलता था, प्रातः सात से नौ और दोपहर ११ से ४.३० बजे तक। कीटगंज से पैदल आने जाने में ही लगभग आधे घण्टे लग जाते थे, अतः भोजन बनाने का सवाल ही नहीं था। कुछ दिन तो अपने उस विद्यार्थी के साथ किसी तरह मैने बिताया, किन्तु मुझे बड़ा संकोच होने लगा। मैने अपनी असुविधा की चर्चा अन्य विद्यार्थियों से की। मेरे कारण उस विद्यार्थी को भी काफी असुविधा थी। किन्तु वह भी संकोच के कारण कुछ कहता नहीं था। इन परिस्थितियों में मेरे एक दूसरे विद्यार्थी ने मेरी सहायता की। उसने अपने मकान में मुझे चालीस रूपये किराये पर अपने मकान का एक अलग हिस्सा मुझे अपने पिता जी से कह कर दिलवा दिया। यह मकान बाईकेबाग में ६६ नम्बर का मकान था, जहाँ एक छोटा सा शिव जी का मंदिर भी था। अलग  स्थान मिल जाने के कारण मुझे काफी सुविधा हो गयी थी। यह स्थान भी कीट गंज की अपेक्षा विद्यालय के काफी नजदीक था। अतः आने जाने की समस्या भी सरल हो गयी। इस मकान में एक परिवार के लिये सभी सुविधाऐं थी। यहाँ सब कुछ अलग था। एक कमरा नीचे, एक कमरा ऊपर दो छोटे छोटे बरामदे, शौचालय और स्नान गृह, तथा आँगन जो, हमारे लिये पर्याप्त था। वेतन मिलने पर मैने कुछ फर्नीचर भी खरीद लिये। नीलामी में दो खाट तथा कुर्सियाँ खरीद लाया। दस रूपये में ही एक बहुत अच्छी मजबूत चौकी भी मुट्ठी गंज से खरीद लाया। इस प्रकार सारी गृहस्थी जुटा कर मैं माँ को भी अपने साथ प्रयाग ले आया। पहले वाले विद्यार्थी के आवास में मैं दो तीन दिन ही रह पाया, क्योंकि उसका स्वयम्  तथा उसके भाई का स्वयम् का परिवार था। मेरे कारण उन लोगों को काफी असुविधा थी। अतः विद्यार्थी से कह कर मैने उसके पास ही एक दूसरा मकान किराये पर ले लिया। यह मकान बराव के राजा का था। बहुत बड़ा एक कमरे में ताला बन्द था। दूसरे कमरे में उनके प्रबन्धक ने मुझे किराये पर मात्र दस रूपये में दे दिया। वहाँ बरामदे में कई चौकियाँ व खाटें पड़ी थी। तथा वहाँ कोई रहता नहीं था। कभी कभार राजा के कार्यकर्ता आ कर ठहरते थे। राजा की अलग कोठी जार्जटाउन में थी। जहाँ वे परिवार के साथ रहते थे। इस बड़े मकान में मैं लगभग १५ दिन रहा। किन्तु एक रात अचानक राजा के कार्यकर्ता रात लगभग १२ बजे सात आठ की संख्या में अचानक दरवाजा खोल कर आये और हम लोगों को सोया देख कर वे जोर जोर से पुकारने लगे कि आप लोग कौन हैं? उस समय मेरा चचेरा भाई पद्माकर भी मेरे साथ रह कर मेरे विद्यालय में ही बी० एस० सी एजी० कर रहा था। इन लट्ड बाजों को रात में आये देख कर वह डर गया। किन्तु मैने हिम्मत कर के सारी बात उनको समझाया कि मैनेजर साहब ने यह कमरा मुझे किराये पर दिया है। और मैं उठ कर पास में ही रहने वाले मैनेजर साहब को बुला लाया। उनके समझाने पर वे सब लट्ड बाज चले गये। और तब हम लोग उस रात शान्ति से सो सके। किन्तु ऐसी दुविधा वाली जगह पर रहना मैने उचित नहीं समझा और प्रयास करने पर बाईकेबाग में मुझे सर्वसुविधा सम्पन्न वह आवास मिल गया। कीटगंज में रहते वक्त ही मेरे ससुर जी एकाएक अपने जीजा अर्जुन पाठक के साथ मेरे आवास पर पधारे और वहाँ मेरी परिस्थिति देख कर वे कुछ खिन्न से हुये। किन्तु मेरी लाचारी थी। मैं कर ही क्या सकता था।

बाइकेबाग में माँ के आ जाने से मेरी गृहस्थी सुचारू रूप से चलने लगी। इसके पूर्व मैं होटल में ही भोजन करता था। होटल वाला भी मुझसे तो सन्तुष्ट था, किन्तु मेरे चचेरे भाई पद्माकर से अक्सर उसकी कहा सुनी हो जाया करती थी। क्योंकि वह भोजन भट्ट था। जहाँ मैं तीन चार चपाती और थोड़े से चावल से संतुष्ट हो जाता था, वहाँ वह दस दस बारह बारह चपाती खा जाता था और ऊपर से चावल दाल पर्याप्त मात्रा में। एक दिन तो होटल वाले ने उससे बहाना बना दिया, कि चावल खत्म हो गया है। उसने पूछा दाल है? होटल वाले ने कहा हाँ दाल है। तब पद्यमाकर ने कहा ले आओं दाल ही ले आओं। तब होटल वाले ने पानी दार दाल ले आ कर उसको दे दिया। तब भी उसका पेट नहीं भरा। तब होटल वाले ने मुझसे कहाँ बाबू जी आप का स्वागत है, किन्तु कल से इन्हें मैं नहीं खिला पाउâँगा। यह तो मेरा दिवाला उड़ा दे रहे हैं। और तब से उस होटल को भी मुझे छोड़ देना पड़ा।

माँ के आ जाने से हम लोगों के भोजन की समस्या का समाधान हो गया। मैने आने जाने की सुविधा के लिये दस रूपये मासिक किराये पर एक साइकिल भी ले लिया, और इस प्रकार मेरा रहन सहन सुविधा पूर्वक हो गया। पिता जी भी बीच में आ कर मेरी व्यवस्था का निरीक्षण कर गये। वे बड़े प्रसन्न और सन्तुष्ट थे, कि मैं तीर्थराज प्रयाग में अपने बाबा की परम्परा में कार्यरत हो गया हूँ, तथा अपने परिश्रम तथा स्वाध्याय से मैं प्रयाग में कृषि महाविद्यालय में प्रवक्ता बन गया हूँ। पिता जी ने मेरे संकल्पवृत्ति की तथा प्रारब्ध और सौभाग्य की खुल कर प्रशंसा की थी। उन्होंने मेरे बाबा के सम्बन्ध में जो एक वैद्य के रूप में दारा गंज में रहते थे, उनके प्रवास के सम्बन्ध में अनेक संस्मरण सुनाये। इलाहाबाद में रहने के कारण ही लोग मेरे बाबा को ‘इलाहाबाद के बाबू जी’ कह कर पुकारते थे। अतः मेरे पिता जी मेरी इस सफलता पर हृदय से प्रसन्न थे और उनका आशीर्वाद  प्राप्त कर मैं भी परम सन्तुष्ट था। बाई के बाग में मैं १९६२ से १९६९ तक सात वर्ष रहा। इसके बाद १९७० से १९७३ तक तीन वर्ष साहित्य सम्मेलन मार्ग पर राधेश्याम अग्रवाल के मकान में रहा। १९७३ से १९९५ तक ४, अध्यापक आवास में तेइस वर्ष रहा।

मेरी यात्राएँ–

बचपन में माँ के साथ मैं अक्सर बनारस और ननिहाल के रास्ते में मुगलसराय होते हुए नीबी कला जाता था। विंध्याचल, चकिया तथा आजी के मायके सुरही और डफलपुरा तथा बड़ी माँ के मायके शेरवाँ तथा फूफा जी के गाँव सड़सा तक ही आना-जाना हुआ था। अपने जनपद मिर्जापुर का दर्शन तो मैं लगभग बीस वर्ष का होने पर ही कर पाया था। बनारस में मेरे मामा के साले महादेव प्रसाद अस्सी पर रहते थे और मेरी मामी जो बिधवा हो गई थी बहुधा किसी को भेंजकर माँ को बुलवा लेती थी। माँ से उनकी ज्यादा पटती थी। छोटी मामी नीबी गाँव में ही रहती थी। बचपन में निमंत्रण इत्यादि में आसपास के गाँव भरेहटा, पँचेवरा, बरेवाँ, मीरपुर, वैâलहट आदि में भी जाते थे। कभी-कभार फूफा के गाँव पटीहटा भी गया था। पढ़ने के सिलसिले में चुनार भी जाने लगा था।

बड़ी यात्राएँ तो सबसे पहले पन्द्रह वर्ष की अवस्था में दिल्ली जाना ही हुआ तथा वहीं से पिलानी की यात्रा की। पिताजी के साथ उनके मित्र शिवनारायण शुक्ल के कानपुर के गाँव पतारा भी गया। इसके बाद इलाहाबाद, देवरियाँ, आगरा भी अपने अध्ययन के सम्बन्ध में गया। कुलभास्कर महाविद्यालय में अध्यापक हो जाने के बाद सबसे पहले छात्रों के समूह के साथ १९६३-६४ में बनारस, कुशीनगर, गोरखपुर, लखनऊ और आगरा गया। १९६४-६५ में कानपुर, दिल्ली, इज्जतनगर तथा नैनीताल गया। १९६५-६६ में दिल्ली, जयपुर, अजमेर, चित्तौड़गढ़, उदयपुर और जोधपुर की यात्राएँ की तथा इन ऐतिहासिक नगरों का दर्शन कर आनन्दित हुआ। जोधपुर से पाकिस्तानी बम के टुकड़े भी ले आया था जो उसी साल भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध के दौरान पड़े थे। १९६६-६७ पटना, राँची, कलकत्ता, बोलपुर, शान्तिनिकेतन, दार्जलिंग की यात्राएँ की। १९६७-६८ गया, राँची, खड्गपुर, कटक, पुरी की यात्राएँ की। १९६८-६९ में जबलपुर, बम्बई, पूना, गोवा, हैदराबाद, मैसूर, बैंगलोर और ऊटकमण्ड की यात्राएँ की। १९६९-७० में नागपुर, हैदराबाद, मद्रास, रामेश्वरम्, कन्याकुमारी, त्रिवेन्द्रम की यात्राएँ हुई। १९७०-७१ दिल्ली, हिसार, लुधियाना, चंडीगढ़, शिमला तथा सूरतगढ़ फार्म तथा अहमदाबाद और आनन्दडेयरी का भ्रमण किया। यह सब यात्राएँ विद्यार्थियों के शिक्षण और प्रशिक्षण से सम्बन्धित थीं। इनके अलावा मैं बाद में अपनी पत्नी के साथ इनमें से कई स्थानों पर दुबारा भी गया। वैष्णव देवी, जम्मू, कश्मीर तथा नेपाल में ललितपुर, पोखरा और जनकपुर की यात्राएँ की। वैद्यनाथ धाम और कलकत्ता तथा पुरी में पत्नी के साथ मैं दुबारा भी गया। गंगा सागर भी सपत्नीक गया। इन सब यात्राओं का विस्तृत विवरण देना उचित नहीं होगा। इन यात्राओं के अलावा मैंने कई कार्यशालाएँ भी दिल्ली, कर्नाल, हैदराबाद आदि में रहकर महीनों वहाँ कार्यशाला में कार्य करते रहे। हैदराबाद में डाक्टर सुबैमा के निर्देशन में हम लोगों ने ह्यूमन न्यूट्रिशन में प्रशिक्षण प्राप्त किया। दिल्ली में, इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप पर कार्य करने का प्रशिक्षण प्राप्त किया। नई दिल्ली में प्रसिद्ध अशोका होटल में पाँच दिनों के ‘अन्तर्राष्ट्रीय भैंस परिसंवाद’ में भी मैंने भाग लिया। थियोसोफिकल सोसाइटी के फेडरेशन सेक्रेटरी के नाते प्रदेश के प्राय: अनेक जिलों में तथा चेन्नई में कई बार जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ।

डॉ॰ पी॰ जी॰ पाण्डेय –

मेरे विभाग में उस समय मुझसे वरिष्ट दो अध्यापक और थे। एक डाँ० पी० जी० पाण्डेय जो उत्तर प्रदेश के पशुपालन विभाग के अवकाश प्राप्त निर्देशक थे, तथा उसके भी पूर्व मथुरा वेटेरिनरी कालेज के प्राचार्य भी रह चुके थे, तथा अपने किसी शोध छात्र की गलती की वजह से उन्हें सजा के तौर पर अवकाश प्राप्त करने के लिये बाध्य होना पड़ा था। हुआ यह था कि उनके किसी शोध छात्र ने अमेरिका के किसी शोध छात्र की लगभग पूर्ण रूप से नकल करके अपने शोध के रूप में प्रस्तुत कर दिया था। इसे सन्योग कहे या दुर्योग, डाँ० पाण्डेय के शोध छात्र का शोध पत्र अमेरिका में उसी निर्देशक के पास परीक्षण हेतु पहुँचा, जिसकी नकल उनके शोध छात्र ने कर लिया था। यह जान कर अमेरिकी सरकार ने भारतीय दूतावास में इसकी शिकायत कर दी, और जब पंडित जवाहर लाल नेहरू अमेरिका गये तो उनके कानों में भी इस करतूत को बतलाया गया। चूंकि दो देशों की बात थी, अतः जवाहर लाल जब भारत लौटे तो उन्होंने तुरन्त इस पर कार्यवाही की और डॉ० पाण्डेय की कोई गलती न होते हुये भी, उन्हें बाध्य हो कर दण्ड स्वरूप अवकाश लेना पड़ा। इस तरह उन्हें बाध्य हो कर इलाहाबाद अपने आवास पर आना पड़ा और मामूली वेतन पर कुलभास्कर आश्रम में अध्यापन कार्य की जिम्मेदारी लेनी पड़ी। डॉ० पाण्डेय अपने समय के पशुओं के अनेक रोगों के शोध कर्ता रहे हैं। वे प्रशासक के रूप में प्रसिद्ध थे। उनकी शोध क्षमता और वैज्ञानिक प्रतिभा के लोग कायल रहते थे। यही नहीं, उन्हें कृर्षि प्रदर्शनी में उत्तर प्रदेश के पंडाल को, उन्ही के कारण प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था और राष्ट्रपति के द्वारा निर्देशक के रूप में उन्होंने इस पुरस्कार को ग्रहण किया था। उनकी प्रतिभा के हम लोग भी कायल थे, और अक्सर उनके शोधों के बारे में उनसे जानकारी लेते थे, और वे बड़े विस्तार से बड़ी प्रसन्नता पूर्वक हम लोगों का ज्ञान वर्धन करते थे । डाँ० पाण्डेय हमारे गाँव के पास ही गंगा पार के सीखड़ गांव के रहने वाले थे, और हमारे दूर के सम्बन्धी भी थे। हमारे बाबा और हमारे पिता जी से वे अच्छी तरह परिचित थे। इस तरह उनसे हमारी धनिष्टता बढ़ गयी थी और मैं अक्सर उनके आवास पर आया जाया करता था। उनकी शादी इलाहाबाद के तत्कालीन प्रसिद्ध वकील कन्हैया लाल मिश्र की सुपुत्री से हुआ था। मिश्र जी ने ही उन्हें अपने बँगले के पीछे एक बहुत बड़ा आवास दे दिया था, जिसमें वे अपने रिश्तेदार डॉ० पन्ना लाल मिश्र, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान के प्रवक्ता थे, और अवकाश प्राप्ति के बाद डॉ. पाण्डेय जी के साथ ही रहते थे। जब तक ये दोनों व्यक्ति जीवित रहे, मेरे प्रति इन लोगों की कृपा बनी रही और मेरे संरक्षक के रूप में वे हमेशा कृपा बनाये रहे। डॉ० पाण्डेय की तीन लडकियाँ थी। डॉ० मंजुला पाण्डेय जो मेडिकल काजेल में महिला विभाग की अध्यक्ष थी डॉ० मृदुला पाण्डेय जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में विभाग अध्यक्ष हो गयी थी, तथा नमिता पाण्डेय जो मनोविज्ञान की प्रवक्ता बन गयी थीं। इसे संजोग कहें या दुर्योग डॉ० पाण्डेय हमारे महाविद्यालय में स्थापित ‘भाषा संगम’ में अध्यक्षता करते समय स्वर्गवासी हो गये। हम लोगों की ऑखों के सामने एकाएक उनका स्वर्गवासी होना बड़ा दुखद रहा। डॉ० पाण्डेय बहुत ही सरल स्वभाव के थे। इतने बडे वैज्ञानिक और प्रशासक होते हुये भी वे सबसे समता का व्यवहार करते थे और व्याख्यान देने के बाद विद्यालय के चपरासियों से भी सुर्ती मांग कर खाया करते थे। ऐसे महापुरुष को मेरा मन स्मरण कर श्रद्धा से झुक जाता है ।

डॉ० पाण्डेय के अलावा मेरे विभाग में एक वेटेरिनेरी डॉ० बी० पी० जौहरी भी थे, जो पहले डिस्ट्रिक्ट लाइव स्टाफ अफसर के पद से अवकाश प्राप्त कर आये थे। उन्हें अध्यापन का अनुभव तो नहीं था, किन्तु प्रायोगिक कार्यो में वे काफी निपुण थे, और उसमें शिक्षा देने में बहुत रूचि लेते थे। उनका स्वभाव बहुत ही सरल था और हमेशा छात्रों के पक्ष में रहते थे। चूंकि पढ़ाने में अच्छे नहीं थे, अतः स्वाभाविक रूप से अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए छात्रों को इधर उधर की बातें ज्यादा बताया करते थे, जिनका कोर्स से कोई सम्बन्ध नहीं था। जब मैं विभाग में आया तो विभाग में छात्रों को पढ़ाने के हिसाब से कोई भी शिक्षण सामग्री नहीं थी। यहाँ तक कि प्रयोगशाला भी नहीं थी। यद्यपि विद्यालय दो साल पहले खुल चुका था और कानपुर विश्वविद्यालय से उसे मान्यता भी मिल गयी थी किन्तु एकाध विभाग को छोड़ कर शेष सभी विभाग अभाव ग्रस्त थे। चूंकि पास में ही स्थित कुलभास्कर इण्टर कालेज पहले से ही सुचारू रूप से चल रहा था, अतः दो साल तक इण्टर के अध्यापकों से ही सहायता ले कर तथा विश्वविद्यालय के भी दो एक अध्यापकों का सहयोग ले कर किसी तरह काम चला लिया गया था। किन्तु मान्यता मिल जाने के पश्चात् विश्वविद्यालय के स्तर के अनुरूप नियुक्तियाँ एवम् प्रयोगशालाओं का होना आवश्यक था। मेरे साथ ही अन्य विभागों में भी कई नियुक्तियाँ की गयीं। किन्तु पूरी तरह से सुविधासम्पन्न विभाग १९६५ तक ही हो पाये। जब मैं विभाग में आया तो मुझे भी इण्टर मीडिएट कालेज के कताई बुनाई केन्द्र के एक कच्चे झोपड़ी नुमा कमरे को खाली करा कर उसमें ही मुझे अपनी प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए सुविधा प्रदान की गयी। मैने विश्वविद्यालय के सिलेवस के अनुसार अपने विभाग के लिए आवश्यक उपकरणों की सूची प्रधानाचार्य को सौंपी और अनुदान प्राप्त करने का आग्रह किया। मुझे प्रसन्नता हुई जब प्रधानाचार्य की संस्तुति के पश्चात् प्रबन्ध समिति ने भी मेरे प्रस्ताव का अनुमोदन किया। उस समय निविदा आमंत्रित कर के सामान खरीदने में विलम्ब को देखते हुए प्राचार्य ने मुझे स्वयम् आवश्यक उपकरणों को खरीदने के लिए इटावा जाने का आदेश दिया। उनके आदेशा -नुसार मैं इटावा गया और सभी सामिंग्रयों की सूची रामकुमार एण्ड संस फर्म को दे कर शीघ्र सामान भेजने का आदेश दे कर चला आया। फर्म के मालिक से यह भी निवेदन कर दिया कि जो सामान आपके पास उपलब्ध न हो, कहीं से भी प्राप्त कर उसे अवश्य शीघ्रातिशीघ्र भेजिये। मेरे निर्देश के अनुसार एक महीने के अन्दर ही फर्म का कर्मचारी एक ट्रक पर सामान ले कर विद्यालय में आ पहुँचा। मेरे अनुमान से अधिक खर्च का व्यौरा जब फर्म से प्राप्त हुआ तो मुझे उसके लिए पुनः प्रबन्ध समिति से प्रधानाचार्य के माध्यम से निवेदन करना पड़ा, जिसकी स्वीकृति शीघ्र ही मिल गयी। इसके बाद मैने अपनी योजना के अनुसार सभी उपकरणों को उपयुक्त तरीके से यथा स्थान स्थापित कर अध्यापन का कार्य करने लगा। हमारे विभाग के उपकरण सबके लिए नये थे। अतः छात्रों को उस पर काम करते हुये देख कर अन्य विभाग के अध्यापक भी प्रसन्न होते थे। डेरी और वेटेरिनरी सांइस के उपकरणों पर काम कर के विद्यार्थी भी बड़े सन्तुष्ट थे। साल के अन्दर ही मैने अपने विभाग में गैस, बिजली और पानी की भी व्यवस्था कर ली। चूंकि उस समय मेरे विभागाध्यक्ष डॉ० पाण्डेय थे, अतः मेरे सभी सुझाव उनकी संस्तुति के बाद प्राचार्य और प्रबन्ध समिति के लोग शीघ्र ही स्वीकार कर लेते थे। डॉ० पाण्डेय ने हमारे विभाग में भी स्नातकोत्तर कक्षाऐं प्रारम्भ करने के लिए सारी कार्य योजना तैयार कर ली थी। किन्तु विद्यालय की राजनीति के कारण यह सम्भव नहीं हो पाया। इसी बीच डॉ० पाण्डेय का अचानक निधन भी हो गया। उसके बाद डॉ० जौहरी विभागाध्यक्ष बने जो अपनी कमियों और अज्ञानता के कारण विभाग की उन्नति के लिए कोई विशेष कार्य नहीं कर सके और कुछ ही दिनों बाद १९६५ में वे भी अवकाश प्राप्त कर लिये। इसके बाद मेरे कन्धे पर विभागाध्यक्ष का कार्यभार वरिष्ठता क्रम में स्वभाविक रूप से आ पड़ा। मैने स्नातकोत्तर कक्षाओं के लिए प्रस्ताव को प्राचार्य से अनुमोदित करवा कर प्रबन्ध समिति के पास विभागाध्यक्ष होते ही भिजवा दिया किन्तु प्रबन्ध समिति ने एक विशेष व्यक्ति के लिए ऐसे विभागों में स्नातकोत्तर कक्षाऐं खोली गयीं जिसमें एक जाति विशेष के अध्यापक वरिष्ट नहीं थे। यह पक्षपात पूर्ण रवैया यद्यपि अध्यापकों ने मन से स्वीकार नहीं किया, किन्तु प्रबन्ध समिति के निर्णय के आगे सब लोग शान्त रह गये। विश्वविद्यालय की नियमावली के अनुसार विभागाध्यक्ष की योग्यता के लिये तीन वर्ष का अध्यापन अनुभव आवश्यक था। इस प्रकार हमारा विभाग हर तरह से सक्षम होते हुये भी स्नातकोत्तर की मान्यता नहीं प्राप्त कर सका। हमारे अलावा हमारे विभाग में श्री राम लखन यादव, श्री शिवानन्द अवस्थी, और डॉ० हरीश कुमार बाउट्रा भी मेरी संस्तुति पर विभाग में नियुक्ति प्राप्त कर चुके थे। इस प्रकार मेरे विभाग में अध्यापकों की संख्या भी कम नहीं थी। किन्तु इस पर भी जातीयता हावी हो गयी और विभाग में स्नातकोत्तर कक्षाऐं नहीं खुल सकी। क्योंकि मेरे विभाग में एक विशेष जाति का कोई अध्यापक या कर्मचारी नहीं था। मैने प्रधानाचार्य जी से विशेष अनुरोध कर के एक आदर्श प्रयोग शाला बनाने का सुझाव भी प्रस्तुत किया। क्योंकि जो प्रयोगशााला मुझे दी गयी थी, वह किसी भी पैमाने के अनुसार उचित नहीं थी। बस किसी तरह काम चल रहा था। उसी समय आई० सी० ए० आर० की एक टीम भी विद्यालय की प्रगति को स्वीकृति प्रदान करने के लिए निरीक्षण करने आयी थी और मेरा सौभाग्य रहा कि इस टीम ने मेरे प्रस्ताव को उचित समझा, और इसके लिए उचित आर्थिक सहायता देने के लिए संस्तुति कर दिया। इस प्रकार लगभग दो वर्षों के अन्दर ही एक अलग विभाग के रूप में एक प्रयोगशाला, एक व्याख्यान कक्ष एवम् चारो अध्यापकों के बैठने के लिए अलग अलग कमरे तथा साथ में स्टोर, स्नान गृह तथा शौचालय आदि बन कर तैयार हो गये। इस नई प्रयोगशाला में हम सभी अध्यापकों ने मिल कर एक सर्वसुविधा सम्पन्न एक आदर्श प्रायोगशाला के निर्माण में योगदान किया। इस बीच विभाग में अन्य कई नये नये उपकरण आ गये थे, जिससे विद्यार्थियों को प्रशिक्षण देने में और भी सुविधा प्राप्त हो गयी थी। इस प्रकार एक अलग भवन में दुग्ध विज्ञान की प्रयोगशाला सर्वसुविधा सम्पन्न विभाग के रूप में स्थापित हो गयी थी, जिसकी प्रशंसा दूसरे महाविद्यालयों से आने वाले शिक्षक और प्रशिक्षक भी करते रहते थे। इस प्रकार १९६५ से ले कर १९९५ तक विभागाध्यक्ष के रूप में मैं अपना कार्यभार सुचारू रूप से करता रहा। १९६२ के जुलाई में मैने महाविद्यालय में नियुक्ति प्राप्त की थी। इस प्रकार पूरे ३३ वर्षों तक मैं महाविद्यालय से जुड़ा रहा।

 विद्यार्थियों को उचित प्रशिक्षण और शिक्षण देने के साथ ही साथ मेरी रुचि कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम के प्रति भी थी। विद्यालय में बड़ा शुष्क वातावरण था। जब मैं प्रयाग में नया नया आया था तो एकाध साल मुझे अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने में लग गया। पहले कीटंगज में तथा बाद में बाईकेबागमें रहते हुये मैं लगभग एक साल तक दस रूपये मासिक के किराये की साइकिल से विद्यालय आता जाता रहा। किन्तु दूसरे ही साल मैने अपनी साइकिल खरीद ली। छुट्टियों में जब मैं गाँव गया तो मेरी सास ने मुझे बनारस बुलवाया और अपने वादे के अनुसार मुझे साइकिल खरीदने के लिए दो सौ रूपये दिये। साइकिल तो मैं पहले ही खरीद चुका था, किन्तु संकोच होते हुये भी मैं उनके आशीर्वाद को टाल नहीं सका। उनका आग्रह और आशीर्वाद प्राप्त कर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। यद्यपि उस समय मुझे साइकिल मात्र १७० रूपये में ही मिल गयी थी। इस साइकिल से मैं लगभग २० वर्षों तक विद्यालय आता जाता रहा और बाद में जब मैने दूसरी नयी साइकिल खरीदी तो अपनी पहली वाली साइकिल अपने छोटे भाई रत्नाकर को दे दिया। अवकाश प्राप्त करने के पूर्व साइकिल का जमाना समाप्त हो गया था, और स्कूटर का जमाना आ गया था। अतः मैने भी एक स्कूटर खरीद लिया और उस पर विद्यालय आने जाने लगा। कुछ अध्यापकों ने कार भी खरीद लिया था।

महाविद्यालय में १९६५ में तीन विषयों में स्नातकोत्तर कक्षाऐं चलनी प्रारम्भ हो गयी थी। कृषि अर्थशास्त्र, कृषि प्रसार एवम् कृषि औद्यानिकी १९८० में कृषि वनस्पति विज्ञान और कृषि रसायन में भी स्नातकोत्तर कक्षाऐं चलनी प्रारम्भ हुई। इसके पूर्व १९७० में ही विज्ञान संकाय की पढ़ाई हमारे विद्यालय में होने लगी थी। तथा १९९२ में कम्प्यूटर साइंस की कक्षाऐं भी चलने लगीं। महाविद्यालय को आई० सी० ए० आर० तथा सी० यस० आई० आर० के विविध अनुदानों से नये नये कक्ष और प्रयोगशालायें आदि बनती रहीं। विद्यालय का भवन जो पहले सूना-सूना सा लगता था, एक प्रसिद्ध वास्तुकार अभियन्ता श्री कान्ति किशोर अग्रवाल के प्रयास से बिना अधिक तोड़ फोड़ के विद्यालय भवन को एक भव्य भवन का रूप प्रदान कर दिया। कमरों के आगे बरामदे और पोर्टिको आदि बना कर तथा सामने जापानी बाग का रूप प्रदान कर, विद्यालय भवन को भव्यता प्रदान की गयी। विद्यालय के मुख्य द्वार पर जय जवान और जय किसान का नारा लिख कर तथा नये ढंग से आकर्षक चहार दीवारी का निर्माण कर विद्यालय की भव्यता को बढ़ा दिया। भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शात्री जब विद्यालय में आये तो उन्होंने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। शास्त्री जी इस विद्यालय में एक साल के अन्दर चार बार पधारे और उन्होंने मंच से यह उद्घोषणा की कि कुलभास्कर महाविद्यालय सम्भवतः दुनिया का एक विशिष्ट विद्यालय है, जहाँ किसी देश का प्रधानमंत्री एक वर्ष में चार बार पधारा हो। जब श्री शात्री जी रूस गये थे, तो उन्हें दो ट्रैक्टर भेंट में दिये गये थे, जिसमें से एक ट्रैक्टर उन्होंने महाविद्यालय को प्रदान किया तथा दूसरा पंथ नगर विश्वविद्यालय को। यह उनकी विद्यालय के प्रति सदा शयता थी।

जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ, मेरे विद्यालय आने के बाद किसी भी विभाग में प्रायोगिक कक्षाओं के लिए किसी प्रकार की समुचित व्यवस्था नहीं थी। इलाहाबाद में ही जमुना पार स्थित इलाहाबाद एग्रीकल्चर इन्स्टीचूट में जहाँ सारी सुविधायें प्राप्त थीं, वहाँ के अध्यापक और विद्यार्थी विद्यालय का मजाक उड़ाया करते थे। विद्यालय में बाहर से आने वाली टीमों को अनुदान प्राप्त करने के लिए निरीक्षण के समय बहुत से असत्य आकड़ें दिखा कर अनुदान प्राप्त करने का प्रयास किया जाता था। विद्यालय में प्रायोगिक अभ्यास पुस्तिकाओं में व्ाâेवल प्रयोग का मौखिक ज्ञान ही दिया जा सकता था। परीक्षाओं में भी आपसी सहमति से छात्रों को उनकी मौखिक योग्यता के अनुसार अंक प्रदान किये जाते थे। किन्तु, यह सब मात्र प्रारम्भ के एक दो वर्षों तक ही हुआ। १९६५ तक जब पर्याप्त अनुदान प्राप्त हो गया तो प्रायः सभी विभाग विश्वविद्यालय की कार्य योजना के अनुसार सुविधासम्पन्न बन गये थे और उपयुक्त प्रकार से विद्यार्थियों को समुचित प्रायोगिक ज्ञान प्रदान किया जाने लगा था। जैसे जैसे अनुदान राशि प्राप्त होती गयी वैसे वैसे अलग अलग विभाग सर्वसुविधा सम्पन्न विद्यालय का रूप १९७० तक ले चुके थे। कानपुर विश्वविद्यालय के अन्य महाविद्यालयों की अपेक्षा कुलभास्कर महाविद्यालय हर दृष्टि से औसत से उâपर था, और इसकी विश्वविद्यालय में काफी प्रशंसा होती थी।

कुलभास्कर आश्रम में कार्यरत रहते हुए मैं सात वर्ष बाई के बाग में, तीन वर्ष साहित्य सम्मेलन मार्ग पर तथा तेईस वर्ष ४, अध्यापक आवास में रहा। इस प्रकार मैंने कुल तैंतीस वर्ष विद्यालय की सेवा की तथा हर वर्ग से मेरा प्रेमपूर्ण सम्पर्क बना रहा। अध्यापक आवास में रहते हुए ही मेरे सभी बच्चों की पढ़ाई एवं विवाह आदि सम्पन्न हो गये। अत: चार, अध्यापक आवास मेरे लिए सिद्ध पीठ के समान बना रहा। जहाँ मेरे सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए। मेरे सीधे स्वभाव के कारण विद्यालय के सभी अध्यापकों एवं कर्मचारियों से मेरा प्रेममय सम्बन्ध बना रहा। प्राचार्य और प्रबन्ध समिति के लोग भी मुझे मान्यता देते रहे और महत्वपूर्ण अवसरों पर मेरी सेवाएँ लेते रहे। अध्यापक आवास में मेरे पहले पड़ोसी डा॰ सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव थे, जो मेरे विद्यार्थी भी रह चुके थे तथा बाद में प्रो॰ दयाशंकर तिवारी, जिनकी पत्नी शारदा पाण्डेय भी अध्यापिका थी, मेरे पड़ोसी बने। शारदा पाण्डेय साहित्यिक अभिरूचि की महिला थी तथा मेरे घर अक्सर होने वाले कवि गोष्ठियों में बड़े प्रेम से मेरी पत्नी के साथ कवितायें सुनती थीं। ये लोग बाद में अल्लापुर में अपना मकान बना लेने के बाद वहाँ से चले आये और उनके बाद डा. श्री बल्लभ मेरे पड़ोसी बने, जो बहुत दिनों तक मेरे साथ रहे। विद्यालय में मेरा सबसे अधिक सम्बन्ध और लगाव डा॰ विश्वनाथ लाल निगम और उनके परिवार से था। डा. निगम का और मेरा जन्मदिन एक ही था, किन्तु दस वर्ष के अन्तराल पर। उनका स्वभाव और उनकी पत्नी का स्वभाव सद््भावपूर्ण होने के कारण उनसे मेरा पारिवारिक सम्बन्ध अधिक था। हम दोनों समाज और राष्ट्र के सेवक तथा मानवतावादी थे। अत: हम दोनों का सम्बन्ध हार्दिक और अटूट था। मेरी पत्नी के स्वर्गवासी होने के बाद हम दोनों की अलग-अलग व्यस्तता के कारण दूरियाँ बढ़ती गई।

वरीयता क्रम से १९६५ में जब मैं विभागाध्यक्ष बन गया, तो अपनी आन्तरिक अभिरुचि और प्रतिभा के अनुसार मैने प्राचार्य और अन्य अध्यापकों की सहमति से सांस्कृतिक कार्यक्रम को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विद्यालय में ‘‘युग भारती’’ के नाम से एक संस्था की स्थापना की, जिसके माध्यम से छात्रों में विषय के ज्ञान के साथ साथ सांस्कृतिक अभिरुचि को बढ़ावा देने का प्रयास किया। इस संस्था के माध्यम से छात्रों में वाद विवाद प्रतियोगिता, लेखन प्रतियोगिता, प्रायोगिक ज्ञान प्रतियोगिता, प्रतिभा परीक्षण प्रतियोगिता आदि कार्यक्रम करने लगा, जिससे छात्रों में ज्ञान विज्ञान के प्रति एक अटूट लगन दिखाई दी। इस संस्था के माध्यम से ही मैने कवियों और शायरों को एकत्रित कर एक ही मंच से कविता और मुशायरे के पाठ का आयोजन किया, जिसकी नगर में बड़ी प्रशंसा हुई। इस संस्था के माध्यम से ही विद्यार्थियों के कल्याण के लिए मैंने अनेक शिक्षाप्रद व्याख्यानों का आयोजन किया। जिसमें नगर के ही नहीं, बल्कि देश के अच्छे वक्ताओं ने भाग लिया। इन सब आयोजनों के लिए मैंने विद्यार्थियों की ही सहायता ली महाविद्यालय अथवा प्रबन्ध समिति पर किसी प्रकार का आर्थिक भार नहीं डाला। विद्यार्थी स्वयम् इनके संचालन में उदारता पूर्वक भाग लेते थे। इसके अतिरिक्त अपने विषय से सम्बन्धित एक अन्य संस्था ‘‘दुग्ध विज्ञान परिषद’’ के नाम से भी स्थापना की, जिसका संचालन भी विद्यार्थी ही करते थे। मैं केवल निर्देशक की भूमिका निभाता था। इन दोनो संस्थाओं के माध्यम से विद्यार्थियों में नेतृत्व क्षमता एवम् संगठन क्षमता का विकास हुआ तथा उनका ज्ञान वर्धन तथा मनोंरंजन भी हुआ। ‘‘दुग्ध विज्ञान परिषद’’ के माध्यम से मैने हिन्दी भाषा में ‘‘गो सेवक’’ नाम की एक मासिक पत्रिका भी प्रकाशित करनी प्रारम्भ की जिसमें अनेक विद्वानों ने अपने लेख भेज कर पत्रिका का सहयोग किया। यह पत्रिका अपने विषय की हिन्दी भाषा में सम्भवतः विश्व की पहली पत्रिका थी, जिसका उदघाटन १९६५ में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो० नील रत्न धर ने कृपा पूर्वक किया था। ‘युग भारती’ संस्था में हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वानों यथा सुमित्रानन्दर पंत, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा तथा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर्वश्री कुँअर बहादुर अस्थाना एवम् महेश नरायण शुक्ल ने भी अध्यक्षता की थी। यही नहीं बल्कि तत्कालीन मारीशश के राजदूत महामहिम रवीन्द्र घरभरन जो बाद में मारीशश के राष्ट्रपति भी हो गये थे, उन्होंने ने भी ‘युग भारती’ की अध्यक्षत्ाा की थी। इन सब क्रिया कलापों से मैने विद्यालय में छात्रों के अन्दर अनेक प्रकार के ज्ञान और मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराये। उस समय तक विद्यालय में छात्र संघ नहीं था। बाद में छात्रों ने जब छात्र संघ की स्थापना कर ली, जिसमें अनेक प्रकार की राजनीति ने प्रवेश कर लिया तब मैने इन संस्थाओं से अपना हाथ खीच लिया। छात्र संघ की वजह से छात्रों में आपसी राग द्वेष भी जड़ें जमाने लगीं, जिसमें बड़ी खींचा तानी होने लगी और मुझे बाध्य हो कर अपने को इससे अलग करना पड़ा।

विविध कार्यशालाओं में

कुलभास्कर महाविद्यालय में अध्यापन के दौरान मुझे कई कार्यशालाओं में भाग लेने का सुअवसर मिला। मैं तीन बार एन.डी.आर.आई. करनाल में, एक बार आई.ए.आर.आई. नई दिल्ली में तथा एक बार हैदराबाद में गया। करनाल में विभिन्न तकनीकों के बारे में, आर्थिक दुग्ध उत्पादन के बारे में तथा डेरी उत्पाद के बारे में प्रशिक्षण मिला। दिल्ली में हम लोग इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप के बारे में जानकारी पाये। इस प्रकार के प्रशिक्षणों में प्रत्येक कार्यशाला लगभग एक महीने तक चली। वहाँ वैज्ञानिकों के रहने और खाने-पीने की मुफ्त उपयुक्त व्यवस्था रहती थी। जहाँ देश भर के वैज्ञानिक कार्यशाला में प्रशिक्षण प्राप्त करते थे।

हैदराबाद में–

ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण के दौरान मुझे हैदराबाद में एक महिला टे्रनिग कालेज में भी भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वहाँ की प्राचार्या डॉ० सुबैमा नियमों की बड़ी कट्टर समर्थक थीं, तथा समय के पालन में भी बहुत ही दृढ़ थी। उनसे भी मुझे प्रेरणा प्राप्त हुई थी। हम लोगों के प्रशिक्षण के दौरान एक कार्यक्रम में वहाँ के तत्कालीन शिक्षा मंत्री आमंत्रित थे तथा जिस विश्वविद्यालय से यह संस्था सम्बद्ध थी, वहाँ के कुलपति भी आमंत्रित थे। दोनों आमंत्रित व्यक्ति पाँच और दस मिनट विलम्व से आये। डॉ० सुबैमा ने ठीक समय से कार्यक्रम को प्रारम्भ कर दिया था। हम लोगों के साथ देश के अनेक कृषि वैज्ञानिक प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे और हम लोगों को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि मंत्री महोदय और कुलपति जी जब आये तो डॉ० सुबैमाने उनका स्वागत तक नहीं किया। वे दोनों सामान्य व्यक्तियों के साथ चुपचाप पीछे बैठ गये। समारोह के अन्त में जब उन लोगों की बोलने की बारी आयी तो प्राचार्या डॉ० सुबैमा ने क्षोभ प्रकट करते हुए उन्हें मंच पर बुलाया और अतिथियों ने भी बड़ी विनम्रता से विलम्ब से आने के कारण क्षमा प्रार्थना माँगी। डॉ० सुबैमा क्योंकि अपनी जगह पर ठीक थी, और अनुशासन प्रिय महिला के रूप में प्रसिद्ध थीं, इस लिए उन दोनों महानुभावों ने अपनी गलती को स्वीकार करते हुये डॉ० सुबैमा से क्षमा मांगी। बाहर से आये हुऐ वैज्ञानिकों को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक महाविद्यालय की प्राचार्या अपने ही कुलपित और शिक्षामंत्री से इस प्रकार का व्यवहार की। मुझे डॉ० सुबैमा की इस अनुशासन प्रियता को देख कर बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार का व्यवहार एक सुयोग्य अध्यापक जो स्वयम् अनुशासन प्रिय और ईमानदार हो, तभी इस  प्रकार का व्यवहार अपने अधिकारियों से करने का साहस कर सकता है। उत्तर भारत में तो इसके ठीक विपरीत व्यवहार करने वाले व्यक्ति अधिकांश रूप से मिल जायेगें। जहाँ समय की पाबन्दी का कोई ध्यान नहीं रखता और अधिकांश लोग बहुधा समय और अनुशासन की अवहेलना कर के बिलम्व से ही कार्य करने की आदत डाले हुऐ है, और अपनी गलती को छिपाने के लिए इसे ‘भारतीय समय’ का झूठा इलजाम लगा कर अनुशासन प्रियता को बदनाम करते रहते है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय परम्परा में समय का परिपालन अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। भारत में जन्म कुण्डली में एक मिनट का भी अन्तर होने पर ग्रहों और नक्षत्रों की गणना में सारा भविष्य फल गलत हो जाने की सम्भावना होती है। भारतीय परम्परा में तो सभी संस्कार लग्न और समय देख कर ही सम्पन्न किये जाते हैं, अतः भारतीय समय कह कर इस प्रकार का बहाना बनाना और अपनी गलती को छिपाना घोर अपराध है। मेरे जीवन में भी समय और अनुशासन प्रियता मेरे जीवन की सफलता का एक विशेष कारण रहा है। मुझे भी समय पालन का सन्तोष और दुष्परिणाम दोनों भोगना पड़ा है। मेरे महाविद्यालय में जो भी सार्वजनिक कार्यक्रम होते थे उसमें संचालन का कार्य प्रायः मुझे ही सौपा गया था। विशेष कर स्वतन्त्रा दिवस और गणतन्त्र दिवस के शुभ दिवस पर झण्डा रोहण के कार्यक्रम में एक बार हमारे प्राचार्य बिलम्व से आये। मैंने दो तीन मिनट उनकी प्रतीक्षा की और अन्ततः विद्यालय के जमादार से मैने झण्डा रोहण करा दिया। राष्ट्रगायन हो जाने के पश्चात् प्राचार्य जी पधारे और झण्डा रोहण हो जाना देख कर वे खीझ गये। यह बात प्रबन्ध समिति तक पहँुची और मेरे विरूद्ध अनुशासन भंग का आरोप लगाया गया। किन्तु प्रबन्ध समिति के कुछ ईमानदार सदस्यों ने मेरा पक्ष लिया और प्राचार्य को ही दोषी ठहराकर उनको लताड़ा। यह सब सुन कर मुझे बड़ा आत्मिक सन्तोष हुआ और समय के पालन में श्रद्धा और बढ़ गयी।

जब से मैं प्रयाग आया, ईश्वर की मेरे ऊपर विशेष कृपा प्रारम्भ से निरन्तर बनी रही। स्वयंम् प्रयाग में मेरा कार्यक्षेत्र बनना ही मैं ईश्वर की असीम अनुकम्पा मानता हूँ। जो व्यक्ति धूप से जितना अधिक तप्त रहता है, उसे उतना ही अधिक वृक्ष की छाया का आनन्द प्राप्त होता है। जैसा कि मैं पहले ही बतला चुका हूँ, मेंरा प्रारम्भिक जीवन एक औसत प्रतिष्ठित परिवार का जीवन था। कुल की दृष्टि से तो मैं उच्चतम शिखर पर था। मुझे मेरे बाबा और पिता श्री के उज्ज्वल संस्कार अनायास ही आशीर्वद स्वरूप प्राप्त हो गये थे, किन्तु सांसारिक दृष्टि से आगे बढ़ने के लिए मुझे स्वयं ही संघर्ष करना पड़ा। यद्यपि जब मैं अपने से नीचे की ओर देखता था, तो मुझसे असहाय अधिकांश लोग दिखाई देते थे। मै तो औसत से ऊपर ही नहीं, बल्कि मध्यम वर्ग में भी ऊपरी तबके के सुख सुविधाओं से सम्पन्न था। अभाव में पलते हुये भी मुझे कभी भी मेरी माँ ने अभावों की अनुभूति नहीं होने दी। जब कभी ऐसी परिस्थिति आ जाती थी, अथवा जब मैं नैराश्य की स्थिति में पहँुच जाता था, तो अपने से नीचे के और पीछे के समाज को देख कर अपने को धन्य समझता था तथा नैराश्य को समझ कर और भी उत्साह से अपने लक्ष्य पथ पर अग्रसर हो जाता था। प्रारम्भ से ही पूर्व संस्कारों के अनुसार जो एक विशेष संस्कार मेरे अन्दर विद्यमान था, वह भी प्रभु की कृपा से ही, प्रभु का सतत स्मरण करने की भावना। यह भावना, मेरे अन्तर मन में सतत उमड़ती रहती थी। बिना किसी को प्रकट किये मैं प्रभु से ही माँगता था। और प्रभु ने बड़ी कृपा पूर्वक मुझे खाई से निकाल कर पहाड़ की चोटी पर पहँुचा दिया। इसका मुझे बड़ा सन्तोष है। मेरी जो भी उपलब्धियाँ है, उसे मैं अपने पुरुषार्थ की उपलब्धि नहीं मानता उसे मैं ईश्वर की कृपा ही मानता हूँ। जिन स्थितियों की सामान्य व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकते मैं ईश्वर की कृपा से उन सभी भौतिक भोगों को भोग चुका हूँ। मेरा ईश्वर मुझे वैâसे उठा कर अचानक सिंघासनारूण कर देता था, यह मैं स्वयंम् ही नहीं जानता । अपने अध्ययन के दौरान जब मेरे पिछले वर्ष के विद्यार्थी जिस विषय में सब के सब असफल हो गये थे, उस विषय में मुझे अधिकतम अंक प्राप्त होना यह ईश्वर की कृपा नहीं तो और क्या है। अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में प्रयाग में कुलभास्कर महाविद्यालय में मेरी नियुक्ति बिना ईश्वर की कृपा से सम्भव नहीं थी। महाविद्यालय में कार्यरत रहते हुये  विभाग के लिए कुछ नहीं से सब कुछ जुटा लेना, चिन्मय मिशन, थियोसोफिकल सोसायटी, गीता आश्रम, पारिवारिक मानस सतसंग, तथा ‘युग भारती’ एवम् ‘दुग्ध विज्ञान परिषद’ की संस्थापना अनेक पुस्तकों की रचना, बड़े बड़े सन्तो के सम्पर्क में आना, तथा उनकी कृपा प्राप्त करना, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, एवम् धार्मिक कार्यक्रमों में सक्रियता से योगदान सब कुछ निष्काम भाव से करना, यह सब प्रभु की कृपा का ही फल है। प्रयाग वास में मुझे अनेक संतों की भी कृपा प्राप्त हुई।

देश भ्रमण–

अपने महाविद्यालय के कार्यकाल में मुझे छात्रों के साथ कई बार देश भ्रमण करने का भी सुयोग प्राप्त हुआ। विद्यालय में प्रत्येक वर्ष छात्रों की संख्या के अनुसार तीन चार टोलियाँ बना कर देश के विभिन्न भागों में शैक्षिक यात्रा के लिये जाती थीं। जिसमें प्रत्येक टोली में छात्र संख्या के अनुसार हर दश छात्र पर एक अध्यापक की ड्यूटी भी लगती थी। जिसमें वरिष्ट अध्यापक संरक्षक होता था। इस प्रकार इन शैक्षिक यात्राओं के माध्यम से कई वर्षों में मुझे प्रायः पूरा देश घूमने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यद्यपि इन यात्राओं में छात्रों के साथ अनेक प्रकार की कठिनाईयाँ भी आती थीं। छात्रों की उदण्डता, अनुशासन हीनता तथा लापरवाही के कारण कई बार विविध टोलियों में छात्रों के साथ अध्यापक भी संकट में पड़ जाते थे। किन्तु यथा साध्य उसका समाधान भी निकाला जाता था। इन टोलियों में कुछ लड़के तो बहुत भोलेभाले और यात्रा से अनभिज्ञता तथा कुछ बहुत ही चालाक व धाकड़। किसी के पास अर्थ की अधिकता से शाह खर्ची और किसी के पास अर्थाभाव। अतः इन यात्राओं में हम अध्यापकों को बड़ा सावधान रहना पड़ता था। कभी स्थानीय प्रशासन से मुठभेड़, कभी गुण्डे बदमाशों से पाला, आदि परेशानियाँ झेलनी पड़ती थीं। मैं भी इन परिस्थितियों में कई बार संकट में पड़ गया था। किन्तु मेरे साथ कोई बहुत बड़ी कठिनाई नहीं आयी, जैसा कि अन्य टोलियों के अध्यापकों के साथ हुआ। किन्तु मुझे एक बार एक छात्र को पैसे के अभाव में, उसे पैसा दे कर मैं विद्यालय के प्राचार्य का कोप भाजन बन गया था। उस लड़के ने अपने वादे के अनुसार फीस के साथ वह पैसा कार्यालय में जमा नहीं किया। और मेरे वेतन से उसे काटने की बात आयी। किन्तु बाद में लड़के ने मेरे कहने पर शुल्क जमा कर दिया और समस्या का समाधान हो गया। ऐसे संकट के समय में मेरी अनुशासन प्रियता और छात्रों में मेरी लोकप्रियता दोनों सहायक बनती थी। कई छात्रों ने सम्बन्धित छात्र को डाटा और उससे एक तरह से जबरदस्ती शुल्क जमा करा दिया। लड़कों ने कहा कि ‘गुरू जी ने संकट में तुम्हारी सहायता की और तुम्हारी गलती का दुष्परिणाम उन्हें मिल रहा है, यह कहाँ का न्याय है।’ और तब इस प्रकार लड़कों के दबाव में उसने शुल्क जमा किया। सम्भव हैं कि पहले उसके मन में गलत राह अपनाने का भाव रहा हो। इन सब घटनाओं में मैं ईश्वरीय कृपा को विशेष महत्व देता हूँ।

हँसी मजाक करने का मेरा स्वभाव बचपन से ही रहा है। किन्तु हँसी मजाक को एक सीमा में ही करता था। जिससे किसी को बुरा न लगे, और मुझे भी आनन्द का अनुभव हो। किशोरावस्था में भी यह रसिकता मेरे अन्दर विद्यमान रही, किन्तु मर्यादा के विपरीत आचरण मुझे अच्छा नहीं लगता था, और जहाँ कहीं भी इस प्रकार के क्षणों में हल्का पन, छिछोरा पन, अथवा उद्दन्डता की स्थिति आ जाती, तो स्वाभाविक रूप से मेरा विरोध प्रकट हो जाता था। यह मेरे अन्दर की रसबोधता थी, जो उम्र के बढ़ने के साथ साथ व्यक्ति के साथ साथ प्रकृति में भी उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। यह रस भाव ही मेरे कवि हृदय में कृतित्व का बीजारोपण करने में एक कारण बना था। धीर-धीरे यौवन की देहरी पर कदम रखते रखते मेरे आन्तरिक भाव रसिकगीतों के रूप में प्रकट होने लगे। जब कभी कोई वस्तु मुझे सुन्दर दिखती तो स्वभाविक रूप से उसके प्रति मेरा आकर्षण का भाव प्रकट हो जाता और वहीं कविता का रूप ले लेता। प्रकृति पुरुष के संम्बन्ध, मौसम की अटखेलियाँ, पवन के झोंके, तरु लतिकाओं की अगड़ाइयाँ, और पुरूष और नारी के शारीरिक विकास क्रम और सौन्दर्य का तथा उनकी चंचलता का सुखद भाव नारी सौन्दर्य, एवम् उनकी वक्रता और अगड़ाइयाँ मेरे मन को आकृष्ट करने लगीं, और मेरे मन के भाव कविता के रूप में प्रकट होने लगे थे। विभिन्न तीज त्यौहारों पर अपने सहज स्वभाव के अनुरूप अलमस्ती के आलम में सक्रियता पूर्वक अपने भावों और व्यवहारों को काव्य रूप में प्रकट करने लगा था। विपरीत लिंग के प्रति मेरा स्वभाविक आकर्षण, उनके रूप, यौवन और गुणों का लेखा जोखा, अपने मनो भावों के अनुसार कविता और मर्यादित व्यवहार के रूप में प्रकट होने लगा था।

विवाहोपरान्त अपनी सर्वगुण सम्पन्न पत्नी प्राप्त हो जाने पर मेरे भावों को पूर्ण तृप्ति मिलने लगी थी। मेरे सीमित परिवार में किसी प्रकार का बन्धन या पर्दा नहीं था। मेरी माँ भी इसमें बढ़ चढ़ कर सहयोग देती थी। सम्भवतः माँ के ऊपर उसके अपने जीवन का एक मनोविज्ञानिक कारण रहा होगा, कि उस समय की पारिवारिक मर्यादा और बन्धन के कारण माँ गाँव में ही रह गयी थी, और पिता जी कलकत्ता और दिल्ली में कार्यरत रहे थे। विशेष कर स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में पिता जी के योग क्षेम के बारे में कई महीनों तक पता न चल पाना, माँ का दुखी हो कर रोगी हो जाना, और पिता जी का कभी कभार ही गाँव आना, शायद ये सब कारण रहा होगा।

 माँ ने पिता जी के क्रान्तिकारियों के साथ गुप्त रहने पर दमे से पीड़ित होने के कारण वैद्य जी के सुझाव के अनुसार एक बकरी पाल ली थी। बकरी बड़ी ऊँची काले काले बालों वाली थी, माँ दिन भर में पाँच, छः बार उससे दूध निकालती थी, और उसे घर के अन्दर ही बाँधती थी। उसके बच्चों को सुरक्षा की दृष्टि से खाँची के अन्दर बन्द कर के उसपर से बड़ी सी सील रख देती थी। क्योंकि उन दिनों हुडारों का प्रकोप बहुत ज्यादा था। जो अक्सर गाँव से बकरियाँ उठा ले जाते थे। एकाध बार तो छोटे बच्चे भी उठा ले गये थे। इस लिये सुरक्षा की दृष्टि से माँ रात में यह सब व्यवस्था रखती थी, और वहीं पास में ही अपनी खटिया डाल कर सोती थी। पिता जी के साथ वह कभी भी बाहर नहीं गयी। आजीवन गॉव में ही रही। किन्तु मैं जब कमाने लगा, तो माँ को तिरवा में भी और प्रयाग में भी हमेशा अपने साथ रखने लगा था, और उसे विभिन्न तीर्थों का दर्शन और कल्पवास भी करवाया, क्योंकि मेरे साथ ऐसा कोई बन्धन नहीं था। जमाना काफी बदल चुका था। मैं ही अपने घर का मालिक था। विवाह के तीसरे वर्ष मेरा गौना हुआ और चौथे वर्ष में दोगा भी हो गया और उसके बाद मेरी पत्नी मेरे साथ ही तिरवा में और प्रयाग में मेरी माँ के साथ ही रहने लगी। मेरे देवरिया और आगरा में अध्ययन के दौरान मेरी पत्नी बनारस में अपनी माँ के पास ही रही और वहीं से अपनी शिक्षा प्राप्त की। वहीं पर उसे पहला पुत्र रत्न भी प्राप्त हुआ, किन्तु जन्म के साथ ही वह काल के गाल में समा गया। इलाहाबाद आने के पूर्व मेरी पत्नी को दूसरा बच्चा यानी पहली लड़की वन्दना ठीक बसन्त के दिन पैदा हुई। इसके बाद इलाहाबाद में जब मैं बाइकेबाग में रहने लगा तो मेरी माँ, मेरी पत्नी और मेरा छोटा भाई रत्नाकर तथा चचेरा भाई पद्माकर भी साथ रहने लगे थे। मैने अपनी आजी को भी बुला कर कुछ दिन अपने साथ रखा। मैने पद्माकर और रत्नाकर को पढ़ाने की जिम्मेदारी लिया। इस तरह मेरा जीवन सुख पूर्वक बीतने लगा था। मुझे याद है कि १९६५-६६ में जब प्रयाग में मेरे आने पर पहला कुम्भ मेला लगा तो मेरे छोटे से आवास में मेरे गाँव से, मेरी पटिदारी के, और परिवार के तथा अड़ोस पड़ोस के कई लोग तथा रिश्तेदारियों के लोग कुम्भ स्नान करने के लिए आये थे। उस समय कुल सत्तर आदमी आठ दिनों तक रह कर मेरा आतिथ्य ग्रहण किये और संगम स्नान का लाभ उठाये।

पहले हमारे यहाँ अर्धकुम्भ और कुम्भ के अवसर पर गाँव के पटिदार, पड़ोसी, परिचित और रिस्तेदार आदि स्नान करने के लिये जब भी आते थे, तो मेरे यहाँ ही ठहरते थे। उस समय मैं इलाहाबाद में उस क्षेत्र का अकेला व्यक्ति था। मेरे यहाँ भीड़ जुटी रहती थी। बाद में मेरे घर के एकाध लोग्ा तथा रिस्तेदारी के भी दो तीन लोग प्रयाग में रहने लगे थे। अतः पहले वाली भीड़ सबके यहाँ बँट गयी। पहले आवागमन की भी इतनी सुविधाऐं नहीं थी, जो पहले की अपेक्षा अब काफी बढ़ गयी हैं। अब तो बहुत से लोग अपने अपने साधनों से भी आने लगे हैं। ट्र्रकों, ट्रैक्टरों और कारो से लोग आते है, और स्नान कर के लौट भी जाते हैं। आज कल के लोगों में विशेष कर नई पीढ़ी के लोगों में संगम स्नान के प्रति उतनी श्रद्धा भी नहीं रह गयी है। पहले के लोगों को इलाहाबाद नगर घूमने और धार्मिक तथा एैतिहासिक स्थलों को देखने की लालसा रहती थीं। जिन्दगी में एकाध ही बार ऐसा अवसर प्राप्त होता था। किन्तु आवागमन के साधनों में वृद्धि और शिक्षा में वृद्धि के कारण हमारे तरफ के लोगों के लिए तो इलाहाबाद अपने घर जैसा हो गया है और अक्सर लोगों का आना-जाना बना रहता है। आज से पचास साठ वर्ष पूर्व और आज के इलाहाबाद में अब लोगों का उतना आकर्षण भी नहीं रहा  जैसा कि हमारे क्षेत्र के लोगों को पहले था। अब तो बनारस, इलाहाबाद में कोई अन्तर नहीं रह गया है, और हमारे तरफ के अधिकांश क्षेत्रीय लोग विशेष पर्वों पर सुविधा जनक मान कर बनारस में ही स्नान कर तृप्त हो जाते है।

मेरी पीढ़ी से पहले के लोग पश्चिम की ओर इलाहाबाद, कानपुर अथवा दिल्ली के प्रति उतने आकर्षित नहीं थे, जितने पूर्व की ओर पटना और कलकत्ता की ओर जाने को लोग प्राथमिकता देते थे। उससे और पहले तो जब आवागमन की सुविधायें नहीं थी, तब इच्छुक लोग इलाहाबाद, बद्रीनाथ अथवा केदारनाथ पैदल ही जाते थे, और साल दो साल बाद लौटने का सुयोग बन पाता था। कभी कभी तो ऐसा सुनने में आया है कि अधिक विलम्ब हो जाने पर उनके पारिवारिक तीर्थयात्रा पर गये व्यक्ति को स्वर्गवासी हुआ मान कर श्राद्ध इत्यादि कर, दिया करते थे। किन्तु कुछ साल बाद वे सकुशल लौट आते थे, और बुजुर्ग लोग उन्हें पहचान कर पुनः परिवार में प्रतिष्ठित कर देते थे। उस समय शिक्षा की भी कमी थी, जो लोग पढ़ने में रुचि रखते थे, वे गाँव में अथवा आसपास किसी नगर में शिक्षित विद्वान के साथ रह कर ज्ञानार्जन करते थे, तथा अपने खान पान की व्यवस्था किसी सेठ से भिक्षाटन प्राप्त कर जुटाते थे। उस समय मेरे घर पर भी, मेरे बाबा के जमाने में भी, तथा उसके पूर्व भी गुरुकुल जैसी व्यवस्था थी। आस पास के अनेक गाँवों के विद्यार्थी मेरे यहाँ रह कर ज्ञानार्जन करते थे। हमारे परिवार पर उनका कोई भार नहीं होता था। वे स्वयम् अपना राशन अपने घर से लाते थे अथवा भिक्षाटन द्वारा अपनी व्यवस्था करते थे तथा अपना भोजन स्वयम् बनाते थे। शिक्षा में भी कोई नियमित अनुशासन नहीं था। कोई निश्चित समय भी नहीं निर्धारित था। कई लोग अपने गृहस्ती के काम से अथवा पारिवारिक जिम्मेदारी से बाध्य हो कर कुछ दिनों के लिए चले भी जाते थे, और बाद में आ कर अपना पिछला अभ्यास पूरा करते थे। परीक्षा जैसी भी कोई नियमित व्यवस्था नहीं थी। जितना ज्ञानार्जन किये जब तक मन चाहा पढ़े, अथवा बीच में ही चले गये। इस तरह की शिक्षा प्राप्त करने वाले हम लोगों से बाद में बताते थे कि आप के बाबा से हमने संस्कृत का ज्ञान, कर्मकाण्ड, ज्योतिष व्याकरण, और वैद्यक का ज्ञान प्राप्त किया है। मेरे बाबा इन विद्यार्थियों से किसी प्रकार की भी सेवा या शुल्क नहीं लेते थे। मात्र ज्ञान दान करना ही उनका लक्ष्य होता था। परिवार का यही आदर्श कलकत्ता में मेरे पिता जी ने भी अपनाया था। बड़े बड़े नेताओं, अभिनेताओं, धनाढ्य सेठों आदि के लड़के लडकियाँ आ कर उनसे ज्ञानार्जन प्राप्त करते थे। किन्तु इस ज्ञानदान के एवज में कुछ ग्रहण करना वे मर्यादा के खिलाफ समझते थे। उनका इस सम्बन्ध में केवल एक नियम था कि मैं विवसता वश नहीं पढ़ाऊँगा। जब मेरे पास समय होगा और मेरा मूड बनेगा, तभी ज्ञानदान देना सम्भव होगा। एकाध बार तो पिता जी ने मुझे बताया था कि जब मैं मूड में आता था तो मैं स्वयम् विद्यार्थी के घर चला जाता था और बिना समय का ध्यान रखे तीन चार घण्टे तक पढ़ाता रहता था। ऐसी स्थिति में घर के अभिभावक आकर मुझे मना करते थे कि पंडित जी अब रहने दीजिये। आप भी थक गये होगे और लड़का भी। वे नियमित ट्यूसन नहीं करते थे। इसी लिये समाज में उनका बड़ा आदर था। इसके एवज में परोक्ष रूप से पिता जी को हर प्रकार की सुविधा भोजन और आवास की सहूलियत बिना माँगे ही मिल जाती थी। अपने इसी आदर्श व्यवहार के कारण पिता जी ने अपने गाँव के ही नहीं आस पास के गाँवों के कई लोगो को भी कलकत्ता में उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी दिलवा दी थी। पिता जी के सिपारिस को कोई भी नकारता नहीं था। कलकत्ता के प्रसिद्ध नेता डॉ० विधानचन्द्र राय जो बाद में वर्षों तक वहाँ के मुख्यमंत्री थे के सुपुत्रों अथवा पृथ्वीराजकपूर के सुपुत्र राजकपूर, अथवा सहगल को भी पिता जी ने पढ़ाया है। यही नहीं उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्य पाल श्री विष्णु कान्त शास्त्री जी को भी उन्होने शिक्षा दी थी। किन्तु बाद में अपनी राजनैतिक व्यस्तता के कारण उन्होंने ट्यूशन करना बन्द कर दिया। और हमारे एक चाचा श्री धर द्विवेदी को कलकत्ता में बुला कर उन्हें ट्यूशन करने के लिए लगा दिया था। वे शुल्क ले कर ट्यूशन करने लगे थे।

पिता जी की ही परम्परा में मैं भी विद्यार्थियों को जब भी आवश्यक होने पर अपने घर पर बुला कर ज्ञानार्जन करता हूँ, किन्तु  उसके ऐवज में कभी भी मैं कुछ स्वीकार नहीं करता। प्रारम्भ से ही मेरी प्रवृत्ति बनी हुई है कि मैं अर्थ को बहुत महत्व नहीं देता। जीवन भर मैं अपने मन का बादशाह रहा हूँ। अपने जीवन क्रम में मैं अनेक  संस्थाओं से जुड़ा रहा राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और धार्मिक आदि अनेक संस्थाओं कों मैने अपनी सेवायें दी हैं, किन्तु कही भी मुझे किसी प्रकार का अर्थ लोभ नहीं रहा। विद्यालय के अध्यापन के दिनों में भी जहाँ अर्थ की बात आती थी, वहाँ मुझे परेशानी महसूस होती थी, और वह कार्य मैं अपने सहयोगियों को सौप देता था, और पूर्ण रूप से मैं उससे अलग हो जाता था। मेरी एक ही अपेक्षा रहती थी कि मेरी मर्र्यादा बनी रहे। किसी प्रकार का लान्छन मेरे ऊपर न लगे और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में किसी प्रकार की अनियमितता या ढिलाई भी न होने पावे। ईश्वर की कृपा से मेरा यह आदर्श और मर्यादा अब भी उसी प्रकार से यथावत चल रहा है। अवकाश प्राप्ति के पश्चात् अनेक संस्थाओं और व्यक्तियों ने मुझे अच्छे मानद के साथ प्रलोभन दिया, किन्तु मैने किसी प्रकार के बन्धन में बँधने अथवा अर्थ लाभ के लोभ में अपनी स्वछन्द मानसिकता खोने को तैयार नहीं हुआ, और उदारता और विनम्रता पूर्वक मैने इन आग्रहो को ठुकरा दिया। किन्तु जब भी मुझे समय मिलता था और किसी सहयोग की मुझसे अपेक्षा की जाती थी, तो मैं सहर्ष उस कार्य को सम्पन्न करने को सहयोग देता रहा।

किसी भी व्यक्ति में संस्कार तो जन्मजात होते हैं, किन्तु वातावरण का भी उसमें बहुत बड़ा योगदान होता है। मेरे पूर्वजों का जैसा उच्च आदर्श था, और जैसा सात्विक आचार विचार था, परिवार की जैसी मर्यादा थी, वह सब आंशिक रूप से ही सही, मेरे अन्दर विद्यमान है। प्राइमरी कक्षा में अध्ययन के दौरान मेरी पटिदारी की एक चाची जी, जिन्हें हम लोग गुरू जी कहते थे, प्राथमिक कक्षा में मुझे पढ़ाया। इसके पूर्व ही मेरी माँ ने जमीन पर धूल और राखी बिछा कर मेरी उँगली पकड़ कर मुझे पर्याप्त अक्षर ज्ञान, गिनती और पहाड़ा आदि सिखा दिया था। रात में सोते वक्त मेरी माँ मुझे निश्चित रूप से कहानियाँ सुनाती थी। बाद में जब मैं बड़ा हो गया और मेरी छोटी बहन और मेरे छोटे भाई भी माँ के साथ रहने लगे तब भी यह क्रम बना रहा और मैं माँ से आग्रह कर के बचपन में सुनी हुई कहानियों का नाम ले ले कर माँ से पुनः पुनः उन कहानियों को सुनता था। जिसका ज्ञान सम्भवतः पुस्तक के माध्यम से उतना न हो पाता जितना माँ के द्वारा कही गयी कहानियों से हुआ। जब मैं दर्जा एक में पढ़ने लगा तो चुनार के मुशीं रामनाथ जी ने मुझे कला, कविता गायन और नाटक में भाग लेने की अभिरुचि पैदा की। उन्होंने मुझे स्काउटिगं और लेजम भाजना सिखाया। उनके द्वारा ही कक्षा का मानीटर बना कर मुझे नेतृत्व की भी शिक्षा प्राप्त हुई। प्राइमरी के हेडमास्टर तो मेरे सगे बड़े बाबू जी ही थे। जिन्होंने गणित, इतिहास और भूगोल की शिक्षायें दी। इसके पहले दर्जा दो और तीन में बाबू साहब बागवानी और खेती के प्रति अभिरुचि पैदा करने में सहयोग दिये। स्काउटिंग के माध्यम से मेरे अन्दर सेवाभावना का बीजारोपण मुंशी जी के द्वारा हुआ। चुनार में आगे की पढ़ाई में चौधरी साहब ने कला, क्राफ्ट और बढ़ईगिरी की शिक्षा प्रदान की। पंडित राम प्रसाद पांडे ने संस्कृत भाषा के प्रति रूचि पैदा की। मौलवी साहब ने कुछ ही महीने, मुझे उâर्दू पढ़ाया। चुनार में शिवप्रसाद तिवारी ने अंग्रेजी शिक्षा का बीजारोपण किया। इसके वाद पिलानी में मुझे विज्ञान की आधार भूत जानकारी कौल साहब ने दी। तथा भूर सिंह जी ने कला के प्रति मेरी अभिरुचि बढ़ाई। वे इतने अच्छे कलाकार थे, कि दो मिनट में ही मेरी पेन्सिल से चेहरे की आकृति बनाई थी, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है। पिलानी में ही मुझे क्रिकेट खेलने का प्रारम्भिक शौक प्राप्त हुआ जिसे दिल्ली में मेरे पिता जी ने और प्रोत्साहित किया। अंग्रेजी भाषा में मेरे ज्ञानार्जन को समुचित दिशा देने में मेरे पिता जी का विशेष योगदान रहा है। कालेज के स्तर पर आर० यन० मिश्रा ने अंग्रेजी के ज्ञान को और सुदृढ़ किया। विज्ञान और कृषि विज्ञान में मेरी अभिरुचि चुनार के विद्यालय से ही प्राप्त हुई, जिसमें जुगराज बिहारी श्रीवास्तव का योगदान उल्लेखनीय है। उन्हीं दिनों मेरे अन्दर गीता और रामायण पढ़ने की अभिरुचि बढ़ी, ये मेरा संस्कारगत स्वभाव था। इसमें मै किसका योगदान कहूँ मेरी समझ में स्वयम् नहीं आता। तिरवा में मेरी रामायण को दूसरों को सुनाने और उसका अर्थ बतलाने का भाव जागृत हुआ और वहीं से मेरा रामायण गाने और प्रवचन देने का क्रम भी प्रारम्भ हुआ। गीता के श्लोकों का अभ्यास और अर्थ ज्ञान का आधार भी मुझे तिरवा के ही एक आर्यसमाजी सन्त से प्राप्त हुआ। आगरा में और इसके पूर्व देवरिया में भी मेरी साहित्यिक गतिविधि भी बढ़ने लगी थी। किन्तु आगरा में मैं पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक का जीवन जी रहा था। वहाँ की शिक्षा शोध और प्रशिक्षण मेरे जीवन के आधार बने। कठिन परिश्रम और अनुशासन की शिक्षादीक्षा मैने आगरा में ही प्राप्त की। वहाँ के प्राचार्य डॉ० रामकरन सिंह अत्यन्त मृद भाषी किन्तु कठोर अनुशासन के आदर्श थे। वैज्ञानिक शोध में अभिरुचि मेरे विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ० शिवनरायण सिंह एवम् मेरे शोध निर्देशक डॉ० ओम प्रकाश सिंह सेंगर ने की। इन दोनों महानुभावों की भूमिका वैज्ञानिक चिन्तन, मनन और शोध के प्रति जागरूपता और प्रेरणा प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

मेरे शोध प्रबन्ध निदेशक प्रो. शिवगोपाल मिश्र जी

मेरे मन में बहुत दिनों से ये हार्दिक इच्छा थी कि मैं उच्चतम शिक्षा प्राप्त करुँ किन्तु विभाग में व्यस्तता और पारिवारिक जिम्मेवारियों के कारण यह इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी। कई बार प्रयास करने के बाद भी मैं लक्ष्य के अनुसार कार्य नहीं कर पा रहा था। किन्तु ईश्वर की कृपा से अन्तत: सन् १९७९ में डॉ. शिवगोपाल मिश्र जी की कृपा प्राप्त हुई। वे उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग में रीडर थे और विज्ञान परिषद् के प्रधानमंत्री भी थे। मैंने अपना मंतव्य जब उनके समक्ष रखा तो वे दुविधा में पड़ गये क्योंकि वे मृदा विज्ञानी थे और मैं पशुपालन विभाग से संबंधित था। किन्तु कुछ विचार कर उन्होंने कृपा पूर्वक सुझाव दिया कि यदि मैं पशुओं के चारे सम्बन्ध में कोई विषय चुनूँ तो वे शोध कार्य करा देंगे। साथ ही यह भी सुझाव दिया कि रसायन विभाग के पुस्तकालय में बायोलॉजिकल एब्सट्रेक्ट्स देखकर उसमें से अपने से संबंधित ३०-३५ विषय खोजकर ले आओ। उनके आदेशानुसार मैं कई दिनों के प्रयास के बाद जिन शीर्षकों के साथ उनके पास गया उसमें से उन्होंने ‘इवैल्यूशन ऑफ रूट क्राप्स एज एनीमल फीड्स’ विषय चुनकर मुझे इस पर कार्य करने को कहा।

उनकी आज्ञानुसार मैंने अपने विभाग के फार्म पर गाजर, शलजम और चुकन्दर इन तीनों रूट क्राप्स को उगाया और तीन मात्राओं में ग्रोथ प्रमोटर का प्रयोग करके तीनों रूट क्राप्स पर उनका प्रभाव देखा। तीन वर्षों तक ये प्रयोग चलें और अपने विभाग में तथा रसायन विज्ञान विभाग में विश्लेषण करके परिणाम निकाले गये। प्रत्येक स्तर पर मैं डॉ.मिश्र जी का मार्गदर्शन लेता रहा। अन्त में शोध प्रबंध लिखकर डॉ. साहब को दिखलाया तो उन्होंने बड़े परिश्रम पूर्वक उसमें यथोचित सुधार किए और  अंततोगत्वा १९८५ में शोध प्रबन्ध इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जमा हुआ। फिर वाइवा की तारीख सुनिश्चित हुई। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक प्रो. एस.पी. राय चौधरी वाह्य परीक्षक नियुक्त हुए। किन्तु दुर्भाग्यवश उनका निधन हो जाने के कारण नरेन्द्रदेव कृषि विश्वविद्यालय पैâजाबाद के डॉ. गिरीश पाण्डेय को वाह्य परीक्षक बनाया गया। वायबा में डॉ. गिरीश पाण्डेय के साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो.टी. पति और रसायन विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. हनुमान प्रसाद तिवारी आदि ने भी शोध कार्य के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न पूछे और इस प्रकार डॉ. मिश्र जी की कृपा से मुझे डी.फिल की उपाधि प्राप्त हुई। उस शोध प्रबन्ध में से ही दो शोध पत्र भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जर्नल में प्रकाशित हुए जिनकी बड़ी प्रशंसा हुई।

आदरणीय गुरुवर विज्ञान भूषण, प्रो. शिवगोपाल मिश्र जी की  सक्रियता, कर्मठता, सरल एवं हँसमुख स्वभाव तथा अपने छात्रों के कल्याण के प्रति सहज जागरुकता के प्रति मैं मूक भाव से सदा उनका प्रसंशक रहा हूँ। हमारे ऊपर उनकी विशेष कृपा रही है। वे एक आदर्श कर्मयोगी हैं जिनसे मुझे सदा प्रेरणा मिलती रही है।

शीलाधर इंस्टीट्यूट के संस्थापक एवं निदेशक डा. नील रत्नधर जैसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति वैज्ञानिक भी मेरे ऊपर हमेशा कृपा बनाये रखें। मैं उनके व्यक्तित्व से प्रभावित रहा हूँ। प्रयाग में महाविद्यालय के तत्कालीन प्राचार्य श्री बृजबिहारी सहाय जी का यम नियम, सादा जीवन और उच्च विचार से मैं प्रभावित हुआ। अपने कर्तव्य के प्रति पूरी ईमानदारी, छात्रों के प्रति प्रेम, कठोर अनुशासन, तथा छात्रों का चरित्र निर्माण करने में संकल्पित मंन से, मै सदा तत्पर रहता था। सत्य निष्ठा और अनुशासन के प्रति मेरी दृढ़ता अपने जीवन को खतरे में डाल कर भी मैने निभाने का आजीवन प्रयास किया। विद्यालय के अलावा चिन्मय मिशन के स्वामी चिन्मयानन्द तथा गीता आश्रम के हरिहर जी महाराज ने, गीता ज्ञान दे कर मुझे कृत-कृत्य किया। स्वामी चिन्मयानन्द जी की अंग्रेजी भाषा में अत्यन्त प्रभाव पूर्ण प्रवचन शैली ने मुझे आकृष्ट किया। रामचरित मानस के प्रति मेरी प्रारम्भिक अभिरुचि ने एक प्रवचन कर्ता के रूप में चिन्मय मिशन के माध्यम से और पारिवारिक मानस सत्संग के माध्यम से मुझमें जागृत हुई। काव्य कला का संस्कार मेरे अन्दर बीज रूप से विद्यमान था। बचपन से ही मैं तुकबन्दी करने लगा था। देवरिया में मेरा कविता लेखन और काव्य पाठ सार्वजनिक रूप से होने लगा था। देवरिया में ही मेरे अन्दर नेतृत्व भावना और संगठन क्षमता तथा भाषण देने की प्रवृत्ति जाग चुकी थी। साहित्यिक क्षेत्र में प्रयाग में आ कर अनेक विद्वानों और कवियों के सम्पर्क में रहने के कारण मेरा कविता प्रेम परवान चढ़ने लगा। विशेष कर डॉ० रामकुमार वर्मा के ‘‘ऋतुराज’’ संस्था के माध्यम से प्रत्येक शनिवार को हम लोग नयी रचनायें सुनाते थे। डॉ० रामकुमार वर्मा प्रत्येक रचना पर स्वयम् समीक्षक की भूमिका निभाते थे। किन्तु यह क्रम अधिक दिन न चल सका और डॉ० वर्मा के विदेश चले जाने से इसमें व्यवधान पड़ गया। बाद में हम कुछ कवियों ने मिल कर ‘‘सहयोगी मुद्रण एवम् प्रकाशन सहकारी समिति’’ की स्थापना की, जिसके अन्तरगत बारी बारी से प्रत्येक सदस्य के यहाँ साप्ताहिक गोष्ठियाँ होती रहीं। मैं अपने आवास पर भी अक्सर इन गोष्ठियों का आयोजन करवाता रहा। महाविद्यालय में ‘‘युगभारती’’ संस्था की स्थापना करके उसके माध्यम से कवि सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन करने लगा था। मेरे साहित्य सम्मेलन वाले आवास कुलभास्कर महाविद्यालय के अध्यापक आवास और नये नागवासुकी के ‘अध्यात्मकुटीर’ आवास में अक्सर गोष्ठियाँ होती रही। इन गोष्ठियों में एकाध बार पंडित पद्यकान्त मालवीय, सोहन लाल द्विवेदी और प्रसिद्ध गीतकार रमा नाथ अवस्थी भी सम्मिलित हुये थे। ‘युगभारती’ के आयोजन में मारिशस के तत्कालीन राजदूत रवीन्द्र घरभरन, जो बाद में वहाँ के राष्ट्रपति भी बन गये थे, उन्होंने भी इन गोष्ठियों में सदारत की थी। इसके अलावा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वुँâवर बहादुर अस्थाना एवम् महेश नरायण शुक्ल भी पधारे थे। साहित्यकारों में सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवीवर्मा, रामकुमार वर्मा और जगदीश गुप्त आदि अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकार ‘युग भारती’ के कार्यक्रमों में भाग लेते थे। श्रीधर शास्त्री की अध्यक्षता में मेरे साहित्य सम्मेलन मार्ग वाले आवास पर उमाकान्त मालवीय, अन्जनी कुमार दृगेश, भोलानाथ गहमरी,  ब्रह्मानन्द श्रीवास्तव, बाला जी, सरोजनी सुधा जी, विद्यावती कोकिल जी तथा शकुन्तला सिरोठिया आदि अनेक बार पधारी थीं। मेरा यह प्रारम्भ से स्वभाव रहा है कि किसी प्रकार के गुटबन्दी से मैं सदा दूर रहता था। या यो कहें कि मैं इन गुटबन्दियों से ऊपर रहता था। समाज में राजनीति में तथा साहित्य के क्षेत्र में भी गुटबन्दियाँ विद्यमान हैं। लोग एक दूसरे की आलोचना करने में पीछे नहीं रहते। प्रायः अपने यहां आयोजित गोष्ठियों में दूसरे गुट के कवि को आमंत्रित भी नहीं करते, किन्तु मेरा सौभाग्य रहा है, कि मैं प्रायः सबके द्वारा आमंत्रित किया जाता रहा हूँ। यद्यपि कुछ अपने ही खास लोग इस बात का जब बुरा मानने लगे और आलोचना करने लगे, तो मैं ऐसे सम्मेलनों और गोष्ठियों में जाना बन्द कर दिया। इन परिस्थितियों में गोष्ठियों में काव्य पाठ करने की मेरी सक्रियता धीरे-धीरे कम होती गयी और वैराग्य सा होने लगा। उम्र के बढ़ने के साथ साथ पूर्व के सांस्कृतिक, साहित्यिक और आध्यात्मिक संस्थाओं से मैं अब धीरे-धीरे अपना हाथ खीचने लगा हूँ और अधिक से अधिक शांन्त रह कर आध्यात्मिक अनुभव का आनन्द लेने का अब मेरा मन ज्यादा करता है। और जहाँ भी ऐसी सम्भावना रहती है वहीं जाने को मैने अपने को सीमित कर लिया है। सौभाग्य से मेरे वासुकीखुर्द आवास के समीप ही वासुकीबाँध पर एक नागेश्वर नाथ का मंदिर कुछ मित्रों ने मिल कर स्थापित कर दिया है। इस मंदिर निर्माण में अनेक दानदाताओं ने सहयोग दिया मुहल्ले से भी मैंने चन्दा इकट्ठा किया। कई लोगों ने मूर्तिदान भी किया। इस प्रकार यह मंदिर भव्यता को प्राप्त हुआ। मंदिर के दोनों ओर तब के विधायक एवं मेरे विद्यार्थी डा. नरेन्द्र कुमार सिंह गौड़ एवं डा. मुरलीमनोहर जोशी जी के सहयोग से दो बारह दरियाँ मंदिर के दोनों ओर बन गईं। जहाँ पुरुष और महिलाओं के लिए अलग-अलग स्थान हो गये। वहाँ नियमित रूप से ‘‘रामकथा कुंज’’ नामक स्थापित संस्था के माध्यम से प्रातः और सायम् संत्सग का कार्यक्रम चलने लगा है। मित्रों ने मुझे रामकथाकुंज का अध्यक्ष बना दिया है, और यहाँ अनेक अवकाश प्राप्त कर्मचारी तथा विद्यार्थी जुटने लगे हैं। और सबके प्रयास से सत्संग का एक सन्तोष जनक कार्यक्रम चलने लगा है। इसके पूर्व यहाँ अनेक प्रकार की वे सिर पैर की राजनैतिक और सामाजिक कटुता को बढ़ावा देने वाली जाति, धर्म और सम्प्रदाय की बातें होती थीं, जिसमें प्रायः कहा सुनी और कभी कभी मार पीट की नौबत आ जाती थी। ऐसे माहौल में वहाँ शान्त स्वभाव के लोग बैठना उचित नहीं समझते थे। किन्तु जब से सत्संग का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ है, तब से लोग पूर्व की कटुता को भूल कर श्रद्धा और साधक की भावना से जुटने लगे है, और अपना अपना अनुभव और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर संन्तुष्ट हो रहे है। इस प्रकार इस क्षेत्र के सदाचारी व्यक्तियों के लिए यहाँ  एक अच्छा मंच बन गया है, जिसकी उत्तरोत्तर प्रगति करने की सम्भावना प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होती है। यहाँ भी मैने नियम बना दिया है कि अर्थ को प्रधानता नहीं दी जायेगी। बिना किसी लोभ के  यहाँ के कार्यक्रमों में इच्छुक लोग भाग लेगे, और सबके प्रति समता का व्यवहार होगा। यहाँ की गतिविधि पूर्ण रूप से आध्यात्मिक रहेगी। मेरे जीवन का अनुभव रहा है कि आर्थिकता और पदलोलुपता के कारण ही अनेक संस्थायें आपसी छीना-झपटी और उठा-पटक के कारण प्रारम्भ तो हो जाती है, किन्तु बाद में शीघ्र ही मृत प्राय भी हो जाती है। इसी लिये इस संस्था में चाहे भले ही सीमित दायरे में ही सही सीमित स्वैच्छिक संसाधनों से काम चलाने पर इस संस्था में विशेष जोर दिया जाता है। 

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मेरा पारिवारिक जीवन

मेरा परिवार बड़े परिवार से अलग हो जाने के बाद भी अब काफी बढ़ चुका था। दादी, बड़ी माँ, मेरी माँ तथा तीन, तीन बहुऐं इस घर में आ चुकीं थी। अतः सबके लिए अलग अलग कमरों का अभाव हो गया था। चूंकि बँटवारे में हम लोगों को जर्जर मकान मिला था। अतः पिता जी ने कम से कम तीन कमरे तीनों बहुओं के लिए पक्का बनवाने का निर्णय लिया। उस समय आस पास ईट के भट्टे नहीं होते थे। अगर थे भी तो गाँव से दूर शहर के पास। अतः जिसे अपना मकान पक्का बनवाना होता था, वह स्वयम् अपने खेत में ईट पथवाकर भठ्ठा लगवाता था। चूंकि तीन कमरों के लिए हम लोगों को सीमित मात्रा में ही ईटों की आवश्यकता थी, अतः पटिदारी के श्रीधर चाचा तथा पड़ोस के बाबू नाग शरण सिंह को सम्मिलित करके सामूहिक रूप से ईट पकाई गयी थी। ईट हमारे ही खेत में पाथी गयी और वहीं भठ्ठा लगा। कोयला ट्रक से मँगाया गया। भठ्ठा लगाते वक्त ईटों की प्रत्येक दो पर्तो के बीच में कोयले की पर्त बिछाई जाती थी और इस प्रकार लगभग एक लाख ईटों का भठ्ठा आयताकार रूप से लगभग दस फीट लम्बा दस फुट चौड़ा और लगभग दस फुट उâँचा भठ्ठा तैयार किया गया। भठ्ठे के चारों ओर और उâपर भी मिट्टी का लेप लगा दिया गया, जिससे आँच बाहर न जाने पावे। एक शाम शाइत देख कर भठ्ठे के नीचे बने चूल्हों में बबूल के बड़े बड़े कुन्दे डाल कर चूल्हों में आग लगा दी गयी। इस प्रकार महीने भर बाद आग ठण्डी हो पाई तब भठ्ठा खोला गया। भठ्ठे में किनारे की ओर की ईटें उतनी अच्छी नहीं पक पाती जितनी की बीच में। चूंकि भठ्ठा सामूहिक रूप से लगा था, अथवा सुधाकर भैया की लापरवारवाही से अन्य दोनों सहयोगी बीच कीr अधिक पकी हुई ईटे अधिक मात्रा में उठा ले गये। बाद में पिता जी को जब आने के बाद इस चालाकी का पता चला तो उन लोगों को पिता जी ने बहुत डाटा था। मेरे चाचा श्रीधर दूबे तथा नाग शरण सिंह दोनों पूर्व में पिता जी से काफी अनुगृहीत थे। पिता जी की सहायता से इन लोगों की पढ़ाई लिखाई और नौकरी भी लगी थी। अतः पिता जी इस चालाकी पर बहुत नाराज हुये थे। किन्तु चूंकि ये लोग अपनी चालाकी बस अच्छी पकी हुई ईटें लाकर दीवाल बनवा लिये थे, अतः अब कोई चारा नहीं रह गया था। हमारे हिस्से की अधिकांश अधपकी ईंटे खेत में पड़ी रह गयीं। पिता जी ने मुझे विशेष रूप से सतर्क किया और मैं अपने हिस्से की ईटें गिन कर अपने दरवाजे पर उठा लाया, तथा उन लोगों की हिस्से की जो शेष ईंटे थीं, पकी और अधपकी दोनों उन दोनों लोगों को फसल जोताई के पहले वहाँ से हटा लेने को निर्देशित किया गया, जिससे मेरा खेत खाली हो जाये और जोताई करके इस पर खेती की जा सके। चूंकि इसके पूर्व मुझे इस सामूहिक कार्य के बारे में किसी ने कोई जानकारी नहीं दी थी, और अपनी पढ़ाई लिखाई की वजह से उधर स्वयम् भी ध्यान नहीं दिया। किन्तु जब मेरी गर्मी की छुट्टियाँ हो गयीं तो पिता जी के निर्देशानुसार मैंने गृह निर्माण का कार्य योजना अनुसार आरम्भ कर दिया। और १९५८ के दीपावली के पूर्व तीन कमरे बन कर तैयार कर दिये। इस प्रकार मेरे दो चचेरे भाइयों और मुझे एक एक कमरे प्राप्त हो गये। सुधाकर भैया ने अपने लिए पहला कमरा ले लिया जो अपेक्षा कृत बड़ा था। मुझे बीच का कमरा मिला और किनारे का कमरा दिवाकर को मिला।

अलगऊझी–

सुधाकर भैया से अलगउझी के पूर्व पिता जी ने उन्हें सुधर जाने का बहुत अवसर दिया। किन्तु वे लापरवाह बने रहे। किसी भी सुधार के काम में आगे बढ़ कर नहीं करना चाहते थे और न तो गृहस्थी से ही कुछ खर्च करना चाहते थे। हमेशा अभाव ही बतलाते रहते थे। गर्मी की छुट्टियों में या अन्य अवसरों पर जब भी हम लोग गाँव जाते तो वे अपनी गृहस्थी का रोना रोते और चाहते थे कि पिता जी और मैं उनको आर्थिक सहायता देता रहूँ। पिता जी ने उन्हें समझाया कि देखो गृहस्थी में मेरा भी आधा हिस्सा है। मैने आज तक गृहस्थी से कोई लाभ नहीं लिया है। तुम जो कुछ भी खर्च करो अपने आधे हिस्से के मालिक बन कर ही करो और मेरे हिस्से का उपयोग गृह निर्माण आदि में करो, जिससे एक सद् गृहस्थ का घर बन जाये। तुमको तो चाहिऐं कि प्रभाकर की पढ़ाई में भी तुम कुछ आर्थिक सहयोग करते रहो। अपने मन में हमेशा ये भाव रखों कि तुम्हारा हिस्सा आधा ही है। यह सब बातें पिता जी पत्रोत्तर के माध्यम से करते थे। मैं उस समय आगरा में पढ़ रहा था और पिता जी के लिए यह सम्भव नहीं था कि वे दिल्ली से बार-बार आ कर गृहस्थी की व्यवस्था देखते। किन्तु जब भी पिता जी समझाते हुए सुधाकर भैया को पत्र लिखते तो वे अपना ही रोना रोते। जब भी पिता जी गाँव आते तो पटिदारी के लोग सुधाकर भैया की चालाकी की बहुत सी शिकायतें पिता जी से करते। मुझे याद हैं कि तरी के खेत में चार पाँच नीम के, एक कइथा का, एक बेल का, तथा चार पाँच बबूल के बड़े बड़े पुराने पेड़ थे, एक लसोरा का भी पेड़ था। यह सब सुधाकर भैया ने कटवा कर बेच दिया था, और पिता जी को सूचना भी नहीं दी थी। यह सब जान कर पिता जी ने उन्हें बहुत समझाया और कहा कि यदि तुम्हारी नाrयत ऐसी ही बनी रही तो मुझे बाध्य हो कर अलगउझी कर लेनी पड़ेगी। उस साल सुधाकर भैया ने एक और चालाकी की कि खेत की सउजा बन्दी अनाज पर न कर रूपये पर करने लगे, और रूपया भी ले लिये। घर की खेती करना उन्होंने छोड़ दिया, तथा गाय, बैल,और भैस आदि बेच डाले। चूंकि दिवाकर भी बनारस में पढ़ने लगे थे, और मैं भी देवरिया, तिर्वा और तत्पश्चात आगरा में रहने लगा था, अतः जो सहयोग गृहस्थी के कार्यो में गाँव पर रहने पर मैं और दिवाकर सहयोग कर पाते थे वह वे नहीं पा सके अतः आराम से सउजा बन्दी कर के गृहस्थी के सारे झंझटों से अलग हो गये। उनके लिए अब कोई काम नहीं रह गया था। सिवाय खाने और सोने के । इस बीच उन्होंने एक अच्छा काम यह किया कि कर्मकाण्ड का कुछ काम सीख लिये। हालाकिं वे अधिक पढ़े लिखे नहीं थे, और शुद्ध उच्चारण भी नहीं कर पाते थे, किन्तु गाँव में रह कर कथा, विवाह तथा हवन आदि कराने लगे थे, और इससे उनको कुछ अतिरिक्त आमदनी होने लगी थी।

नव निर्माण–

अभी तक हम दोनों पटिदारों का आँगन और आने-जाने का मार्ग एक ही था। अलगउझी में मुवावजा देकर मुझे पहले के बने तीनों पुराने कमरे मिले। इसके बाद १९६८ में मैंने पुन: घर का जीर्णोद्धार किया। अपना हिस्सा मैंने अपना अलग कर लिया तथा चार और कमरे, स्नानगृह तथा बाहर चबूतरा बना लिया। पहले जहाँ मड़ई थी वहाँ भी मैंने दो कमरे बना लिये। पुराने कमरों का भी जीर्णोद्धार करके पुराने तथा नये कमरों की छत एक बराबर करा लिया। बाद में पटिदार देवेन्द्र दूबे के निवेदन पर मड़ई वाला दोनों कमरा उन्हें दे दिया। क्योंकि उन्हें बड़े परिवार के कारण ज्यादा आवश्यकता थी और हमारे लिये हमारा नव निर्मित मकान पर्याप्त था। हमारे दोनों भाइयों के परिवार के लिए अब बिल्कुल अलग सर्व-सुविधा सम्पन्न मकान तैयार हो गया। अलगउझी में जैसा कि अन्य परिवारों में तमाम रुकावटें और झगड़ा झन्टा उठाना पड़ा वैसा हमारी अलगउझी में कुछ भी नहीं हुआ। मेरी माँ ने बड़ी ईमानदारी से गृहस्थी के सामानों को दोनों परिवारों की सुविधा को ध्यान में रखकर बाँट दिया। अर्थात् अपने कम लिया और सुधाकर भइया को ज्यादा सामान दे दिया। अत: किसी प्रकार की किचकिच नहीं हुई। खेत और घर भी उन लोंगो को उनकी पसन्द के अनुसार दे दिया। क्योंकि मुझे खेती करनी नहीं थी और सौजाबन्दी करके ही काम चलाना पड़ा। सौजाबन्दी में कुछ खेत अनाज पर और कुछ रुपयों पर देकर मैं निश्चिंत हो गया।

 जैसा कि पहले बताया जा चुका है, जब पहले पहल हम लोगों का बँटवारा हुआ था, तो मात्र दो कमरे थे। अतः बाबा ने तुरन्त दो और कमरे तथा एक रसोई घर बनवा दिया था। कमरों के सामने बारामदे बना दिये थे तथा बाहर चबूतरे पर एक अच्छी बैठक और गोशाला बनवा दिया गया था। बाद में सुधाकर भैया की लापरवाही देख कर पिता जी ने उनसे भी अलगउझी कर ली। अतः पहले का रसोई घर सुधाकर भैया के हिस्से में चला गया था। मैने भोजन बनाने के लिए एक अस्थाई छप्पर की व्यवस्था कर दिया। किन्तु बरसात में उससे पानी टपकता जो अक्सर चूल्हे पर गिरता और बरसात की बौछार की मार भी झेलनी पड़ती थी। यह क्रम इसी तरह दो तीन सालों तक चलता रहा। किन्तु बाद में मैंने अलग से एक रसोई घर बनवा दिया जो सर्व सुविधा सम्पन्न था।

मेरे साथ जो दुर्घटनायें हों चुकी थीं उससे परिवार के सभी लोग चिन्तित थे। अतः मेरी आजी ने गंगा की मनौती मान दी थी उनके आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा से १३ नवम्बर १९६७ को मेरे पुत्र देवव्रत का जन्म हुआ। मेरी आजी अपनी मनौती के अनुसार आ कर त्रिवेणी में पूजन की और मेरी छोटी बहन पद्मावती ने गंगा के बीच में ही मुझसे गोदान की इच्छा प्रकट की। मैने प्रसन्नता पूर्वक उसकी इच्छा के अनुसार एक दूधारू गाय उसको दे दिया। मेरी आजी तो देवब्रत को गंगा राम और गंगा प्रसाद ही कहती रही। मैने सबकी सुविधा के लिए उन्हें भइया जी कहना प्रारम्भ किया।

गाँव में ऐसी विकृति आ गयी है कि लोग अक्सर नाम को बिगाड़ कर और रेरी के शब्दों में चि़ढ़ाने लगते हैं। जैसे राम सिंह को रमसिंहवा, विजयी को विजइया, दौलत को दौलतवा आदि आदि। मैने एैतिहासिक प्रमाण के अनुसार जैसा कि मेरे आजी की भावना थी, अपने पुत्र का नाम गंगापुत्र देवव्रत के नाम से रखा। यह नाम थोड़ा कठिन था जो सामान्य लोग सही उच्चारण नहीं कर पाते थे, अतः मैने पुकारने का नाम भइया जी रख दिया। इसमें भाव यह भी था कि इस नाम को लोग विकृत नहीं कर पायेंगे। भले ही भइया जी न कह कर केवल भैया कहें, यह सम्भावना थी। किन्तु अपनी आदत के अनुसार भइया का भी ‘भइयवा’ हो गया। यह सब स्वाभाविक विकृति राग द्वेष के कारण गाँवों में व्याप्त है। भैया जी के जन्म की सूचना मुझे तार द्वारा प्राप्त हुई, उसी दिन मेरे एक चचेरे छोटे भाई पारस नाथ की नियुक्ति के लिए इन्टरव्यू था, और वे हमारे यहाँ आये हुये थे तथा राजकीय विद्यालय के अध्यापक के पद पर चुन लिये गये थे। दोनो सूचनायें साथ साथ मिलीं, यह जान कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैं विद्यालय से छुट्टी ले कर बनारस अपनी ससुराल में चला गया। वहाँ पुत्र प्राप्ति की प्रसन्नता से सभी लोग आह्लादित थे। मैं वहाँ तब तक रुका रहा जब तक पत्नी अस्पताल से आ कर छठी और बरही के संस्कार से निवृत नहीं हो गयी। प्रयाग में आ कर नये शिशु के स्वागत में मैने एक बड़ा सा लकड़ी का पालना खरीद लिया था, तथा और भी बच्चों के सुख सुविधा के लिए यथोचित सामग्रियाँ एकत्रित कर ली थीं। इसके बाद १२ जुलाई सन १९७० को मेरी सबसे छोटी पुत्री साधना पैदा हुई । इस प्रकार एक दशक के अन्दर ही मेरे सारे बच्चे १९६० और १९७१ के बीच में पैदा हो चुके थे। बनारस में बड़ी पियरी पर मेरी सास रहती थीं, और वहाँ से कबीर चौरा अस्पताल बहुत नजदीक था, तथा मेरी सास के परिचित कुछ डाक्टर भी उस अस्पताल में थे, जिससे उन्हें काफी सुविधा मिल जाती थी। अतः मेरे सभी बच्चे कबीर चौरा अस्पताल में ही पैदा हुऐ। १९७० और १९८० के बीच में मैने अपने सभी बच्चों को यथासाध्य पढ़ा लिखा दिया और १९८४ और १९९३ के बीच मेरे सभी बच्चों का विवाह भी हो गया। मैने १९९५ में अवकाश प्राप्त किया और उसके पूर्व ही मैं वासुकि खुर्द में एक प्लाट ले कर उसमें कुछ निर्माण भी करा लिया था। अतः ईश्वर कि कृपा से मैं पूर्णतः निश्चिन्त हो गया था।

जैसा कि पूर्व लिखित विवरण से स्पष्ट है, मेरा जीवन बड़े उथल पुथल के वातावरण में बिना किसी के सहयोग और अपेक्षा से अब तक सफलता पूर्वक बीता था। मेरे सभी बच्चे उपयुक्त शिक्षा प्राप्त कर चुके थे। मेरी बड़ी लड़की वन्दना एम० ए० बीटीसी० कर के एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका हो गयी है। वन्दना के विवाह के लिए मुझे बहुत भटकना पड़ा था। मुझे जो कोई भी उपयुक्त वर बतलाता मैं वहाँ जाकर प्रयत्न करता किन्तु कहीं भी सफलता नहीं मिल पा रही थी। मुझे उसके लिए उपयुक्त वर ढूढ़ने के लिए इलाहाबाद, मिर्जापुर, बनारस, गाजीपुर, जौनपुर और आजमगढ़ आदि जिलों में भटकना पड़ा किन्तु अन्त में मेरे एक सत्संगी प्रेमी की कृपा से मेरे बिल्कुल पड़ोस इलहाबाद में ही दारागंज में उसके विवाह का संयोग बन गया। केशव त्रिपाठी जो रेलवे में हिन्दी अधिकारी थे, उनके सुपुत्र राजीव त्रिपाठी रेलवे में गार्ड की नौकरी पा गये थे किन्तु वे फिरोजपुर में कार्यरत थे। बाद में उनका स्थानान्तरण इलाहाबाद में हो गया। ये लोग मूल रूप से सोरई खुर्द, इलाहाबाद के निवासी हैं। राजीव जी पार्सल क्लर्क के रूप में इलाहाबाद में कार्यरत हैं और अब सीनियर पार्सल अधिकारी हो गये हैं।

दूसरी पुत्री बीना भी एम० ए० कर चुकी है, और अपने पति की इच्छा के अनुसार गृहस्थी सभाले हुए है। कुछ दिन उसने भी अध्यापन किया था किन्तु गृहभार के कारण पति की इच्छा अनुसार वह आगे अध्यापन कार्य नहीं कर पाई । बीना के विवाह के लिए मुझे अधिक नहीं भटकना पड़ा मेरे एक विद्यार्थी के सहयोग से हीरालाल तिवारी जी से उसके सम्बन्ध की बात तय हो गयी। वे रेलवे में गार्ड हैं। ये लोग मूल रूप से इलाहाबाद के सिकरो के पास नथउपुर गाँव के निवासी हैं। पहले ये लोग बड़ोखर में रहते थे।

सुपुत्र देवब्रत इलाहाबाद से आई० ई० आर० टी० से इलेक्ट्रानिक्स में डिप्लोमा ले कर और परीक्षा परिणाम निकलने के पूर्व ही मोदी जिरोक्स कम्पनी में कार्यरत हो गये। देवव्रत का विवाह उनकी पसन्द के अनुसार प्रतापगढ़ जनपद के बहादुरपुर गाँव के सुरेन्द्र प्रसाद शुक्ल की सुपुत्री प्रतिभा से सम्पन्न हुआ। ये लोग अब इलाहाबाद नगर के बलरामपुर में ही अपना आवास बना लिये हैं। प्रतिभा एम.ए. पास है और नगर के ही विवेकानन्द विद्यालय में अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं। कार्य की अधिकता तथा रोज रोज के स्थानान्तरण, जो उनके स्वभाव के प्रतिकूल था देवव्रत परेशान थे। मोदी जिराक्स में वे मध्यप्रदेश में भोपाल एवं विलासपुर में, महाराष्ट्र में नागपुर और जमशेद पुर में स्थानान्तरित होते रहे जिससे वे परेशान थे। अतः एक दिन बिलासपुर से अपनी सारी गृहस्थी समेट कर अचानक ट्रक से सब सामान ले कर एका एक इलाहाबाद आ गये। उनकी अपनी बाध्यता क्या थी यह तो मैं नहीं जान पाया। कुछ दिन पूर्व वे इलाहाबाद आये थे और अपनी भावना उन्होंने व्यक्त किया था, कि मैं मोदी जिराक्स की नौकरी छोड़ना चाहता हँॅू। मैने उन्हें राय दिया था कि कहीं दूसरी जगह नौकरी तलाश लो उसके बाद त्याग पत्र देना। किन्तु उनकी क्या मजबूरी थी, मैं नहीं जानता। किन्तु वे अपने लाव लश्कर के साथ जब इलाहाबाद आ गये तो मुझे बड़ा अफसोस हुआ। वे मुझे बार बार आश्वासन देते रहे कि मैं जल्दी ही किसी दूसरी कम्पनी में काम पा जाऊँगा अथवा आगे अध्ययन करूँगा। किन्तु लगभग तीन बरस का समय उन्होंने बेकारी के अवस्था में बिताया यह मुझे अच्छा नहीं लगा। कहाँ नौकरी में उनकी व्यस्तता और परेशानी और कहाँ हमारे पास रह कर आनन्द का जीवन, हर प्रकार की सुविधा, किन्तु मैं चिन्तित था। उनका विवाह भी हो गया था। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी उन पर आ गयी थीं। यद्यपि मेरी भी पारिवारिक जिम्मेदारियों को उन्होंने स्वेच्छापूर्वक स्वीकार कर लिया था। इस छोटे से परिवार के लिए कोई अर्थाभाव भी नहीं था। नया वेतन क्रम लागू हो जाने के कारण मुझे भी मेरी सीमित आवश्यकता से काफी अधिक आय होने लगी थी। अतः मैं भी विधि के इस विधान से संतुष्ट ही था। किन्तु मेरा चिन्तन इस ओर था कि इलाहाबाद म्ों ही यदि इनको कोई छोटा मोटा काम भी मिल जाये, तो बेकार रहने से क्रिया रत रहना ज्यादा उपयुक्त होगा। ईश्वर की कृपा से मुझे यह सुअवसर अचानक ही सुलभ हो गया।

विज्ञान परिषद –

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक संस्था- ‘‘विज्ञान परिषद’’ है जो १९१३ में स्थापित हुई एक स्वतन्त्र संस्था है, किन्तु विश्वविद्यालय के परिसर में ही स्थित है तथा अधिकांश वहीं के अध्यापक कार्यरत तथा अवकाश प्राप्त भी इस संस्था से संबद्ध हैं। यहाँ हिन्दी भाषा में विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए कार्य होता है। यहाँ से ‘‘विज्ञान ’’ नाम की एक पत्रिका तथा एक शोध पत्रिका भी हिन्दी भाषा में निकलती है। वहाँ के प्रधानमंत्री डॉ० शिव गोपाल मिश्र जो मेरे शोध के निर्देशक थे, और मुझसे पूर्व परिचित थे, उनसे मैंने बात चीत के दौरान जब अपनी समस्या बतलाई, तो उन्होंने सहर्ष देवव्रत को तुरन्त नियुक्त कर लिया। यह मेरे लिए ईश्वर की ओर से अन् अपेक्षित आशीर्वाद था तथा देवव्रत के लिए भी उनके आगामी जीवन में उत्तरोत्तर प्रगति का एक सहज सुअवसर सुलभ हो गया। यह कार्य उनके स्वभाव के अनुरूप लगा और वे वहाँ की गतिविधियों और क्रियाकलापों में रुचि लेने लगे और धीरे धीरे अनुभव प्राप्त करते हुए आज तो ऐसी स्थिति आ गयी हैं कि बिना देवब्रत के सहयोग के विज्ञान परिषद का कोई भी कार्य सुचारु ढंग से नहीं हो पाता। प्रधानमंत्री जी का उन पर अटूट विश्वास है, और वे विज्ञान परिषद के एक आवश्यक अंग बन गये हैं। बिना इनके विज्ञान परिषद के क्रिया कलापों में रुकावट सी आ जाती है। स्वयम् प्रधानमंत्री बिना इनके सहयोग के कठिनाई अनुभव करते हैं। डॉ० मिश्र इनके प्रति पुत्रवत् व्यवहार करने लगे हैं, तथा अपनी पारिवारिक समस्याओं का भी समाधान करने में वे प्रायः इनका सहयोग लेते रहते हैं, जब कभी भी डॉ० मिश्र किसी काम से बाहर जाते हैं, तो देवव्रत को हमेशा अपने साथ रखते हैं।

मेरी तीसरी सुपुत्री साधना एम० ए० एल० टी० हैं। उसका विवाह अचानक उसकी सास की अस्वस्थता में मेरी पत्नी द्वारा उनकी की गयी सेवा से प्रभावित होने के कारण हो गया। वे बहुत प्रसन्न होकर स्वयं ही साधना का विवाह अपने पुत्र प्रदीप से करने के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकृति प्रदान कर दी। राजवंशी पाण्डेय जो सिकन्दरा इलाहाबाद के रहने वाले हैं उनके सुपुत्र प्रदीप पाण्डेय सिविल इंजीनियर हैं और एक प्राइवेट कम्पनी में जनरल मैनेजर हैं। वर्तमान में इन्होंने करनपुर में जो प्रयाग स्टेशन के पास है, अपना निवास स्थान बना लिया है। साधना भी अपने पति की इच्छा के अनुरूप परिवार की सेवा में ही संलग्न हैं। आध्यात्मिक रूप से ये लोग पति पत्नी दोनों काफी संतुष्ट हैं और एक दूसरे का सहयोग कर के परम सन्तुष्ट हैं। इस प्रकार हम देखते हैं बिना किसी कठिनाई के बिना किसी प्रकार का भार दूसरों पर डाले, मेरे इस छोटे परिवार का जीवन यापन भली प्रकार हो रहा है। गाँव से भी चूंकि बनारस काफी नजदीक है, और इलाहाबाद से भी आवागमन की सुविधा हैं, अतः अक्सर मैं बनारस जा कर जब तक पत्नी बनारस में रही और जब बच्चे हुए तब भी मेरा बराबर आना जाना बना रहा। अपने पारिवारिकों पर मैने किसी प्रकार का आर्थिक भार नहीं डाला। मेरी सास ने हर मौके पर मेरा सहयोग किया।

आर्थिक दृष्टि से मैं अपने संयुक्त परिवार पर भी किसी प्रकार का बोझ नहीं बना, बल्कि उदारता पूर्वक सबकी सहायता ही करता रहा। मैंने अपने छोटे भाई रत्नाकर को एवं चचेरे भाई पद्माकर को भी अपने साथ रखकर पढ़ाया और उन्हें नौकरी दिलाने में भी सहयोग किया। इण्टर पास करने के बाद मैंने देवव्रत को प्रयास करके ई.सी.सी. में बी.एससी. में प्रवेश दिला दिया था किन्तु वहाँ लगता है कि वे कुसंग में पँâस गये और जब नतीजा निकला तो हर विषय में असफल थे। अत: मुझे बाध्य होकर उन्हें वहाँ से हटाकर आईईआरटी में इलेक्ट्रानिक डिप्लोमा में प्रवेश दिलाना पड़ा। यहाँ प्रवेश दिलाना उनके लिए सार्थक रहा और फाइनल का नतीजा निकलने के पूर्व ही उन्हें मोदी  जिराक्स कम्पनी में नौकरी मिल गयी। यह सब ईश्वर की कृपा थी।

मेरी पहली बेटी वन्दना मूल नक्षत्र में पैदा हुई थी। परम्परा के अनुसार मूल नक्षत्र में पैदा बच्चे का मँुह पिता मूल शान्ति के पहले नहीं देख पाता। २७ दिन के बाद जब वही नक्षत्र आता हैं तब एक विशेष पूजन के पश्चात् जिसे ‘मूल शान्ति’ कहते हैं उस प्रक्रिया को निभाया जाता है। इसमें मूल शान्ति का कर्म काण्ड देव पूजन, हवन और फिर एक बड़े से कटोरे में  तेल भर कर तथा बच्चे को पिता के कन्धे पर रख कर उसी तेल भरे कठोरे में सबसे पहले बच्चे की छाया दिखलाई जाती है। उसके बाद ही बच्चे को पिता की गोद में दिया जाता है। चूंकि वन्दना बनारस में अस्पताल में पैदा हुई थी, और ननिहाल में रह रही थी, अतः मूल शान्ति के लिए जच्चा बच्चा दोनों को हमारे गाँव पर बुलाया गया। मुझे भी सूचना दे कर आगरा से बुलवाया गया। मूल शान्ति संस्कार कर के मै पुनः आगरा लौट गया। मेरे सुपुत्र देवव्रत का भी जन्म मूल नक्षत्र में ही हुआ था। मूल के छः नक्षत्र माने जाते हैं। अश्वनी, श्लेषा, मघा, रेवती, जेष्टा, तथा मूल इसमें मूल नक्षत्र सबसे अधिक विघ्नकारक माना गया है। मेरे दोनों बच्चे रेवती नक्षत्र में पैदा हुए थे, जाे अपेक्षा कृत सामान्य विघ्नकारक माना जाता है। फिर भी पारिवारिक परम्परा के अनुसार मूल शान्ति के सभी संस्कार सम्पन्न किये गये। वन्दना का मूल शान्ति संस्कार गाँव में हुआ था। किन्तु मेरे सुपुत्र देवव्रत की मूल शान्ति मेरी सास की हार्दिक इच्छा के अनुसार बनारस में ही उनके आवास पर ही सम्पन्न किया गया, जिसमें हमारे परिवार के सभी लोगों को आमंत्रित किया गया था। इस कार्यक्रम में भी पिता जी दिल्ली से पधारे थे। और बड़ी हॅसी खुशी के माहौल में सारा संस्कार सम्पन्न हुआ। मूल शांन्ति एक कौतूहल और आनन्द का संस्कार है। विशेष कर मेरी सास की इच्छा के अनुसार सभी क्रिया कलाप बड़े भाव पूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुए। मेरी सास ने मेरे सभी पारिवारकों को यथोचित बिदाई दे कर सम्मानित किया। जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ, मेरे विवाह में भी लेन देन की कोई बाध्यता नहीं थी और उन लोगों की कल्पना से अधिक उन्हें उपयुक्त वर घर मिल गया था, जिससे वे हर तरह से सन्तुष्ट थे। मेरे परिवार, मोहल्ले और गाँव में भी इस बात की प्रशंसा होती थी कि इतनी पढ़ी लिखी तथा सुशील बहू पहले गाँव में नहीं आयी थी। अतः दोनों ओर से पूर्ण सन्तुष्टि थी। पहले पहल गाँव में कार में बैठ कर बहू का आना और दहेज में पर्याप्त सामग्री। सभी रिश्तेनाते दहेज पा कर प्रसन्न थे। सब बातें बहुत दिनों तक एक गाथा के रूप में लोग जहाँ भी मिलते सुनाते रहते। मेरी माँ की सरलता और उत्साह के कारण प्रायः महीने भर तक नित्य घर में पारिवारिकों का गायन, वादन, नृत्य और भोजन आदि का आयोजन होता रहा और सभी आनन्द मग्न रहते थे।

एक और विशेष परम्परा हमारे परिवार की थी। वह यह थी कि नयी आई हुई बहू बारी बारी से सोने के पूर्व सबकी तेल मालिश करती थी। कुछ लोग तो जान बूझ कर सोने के पूर्व अपनी खाट के नीचे तेल ही नहीं कभी कभी तो उबटन भी रख कर प्रतीक्षा करते रहते थे कि बहू आवे और उनकी सेवा करे। यह सब सेवा के साथ साथ एक विकृति भी है। सेवा कराना किसको अच्छा नहीं लगता। किन्तु सेवा करने वाली की स्थिति का भी ध्यान रखने की आवश्यकता होनी चाहिऐ। इस माने में यह कमजोरी कभी कभी दर्दनाक बन जाती है। कुछ लोग तो ऐसे होते है, जो सेविका को कभी मना ही नहीं करते। कुछ लोग ऐसे होते है, जो सेवा लेते लेते सो जाते है, सेविकाऐं भी थकी हुई तथा सेवा करते करते नीद ग्रसित हो जाने के कारण झूमती रहती हैं, किन्तु बिना आदेश पाये अपनी सेवा से उठती भी नहीं हैं। कभी कभी तो यह दृष्य देख कर दूसरों को दया बस मना करना पड़ता है। मेरे परिवार में इस माने में मेरी आजी बहुत कमजोर थीं। वे कभी भी मना नहीं करती थीं, चाहे जितनी देर तक मालिश किया जाये। मालिश करने का क्रम पहले बुआ, फिर बहन, फिर दादी, फिर बड़ी माँ, फिर माँ इस क्रम से चलता था। और कई कई घण्टे लग जाते थे। इस परम्परा में कभी कभी आधी रात से भी ज्यादा बीत जाता था और बहुओं को सोने का कम ही अवसर प्राप्त होता था। इस परम्परा के कारण मेरी पत्नी को आराम करने का और मेरे साथ रहने का सौभाग्य बहुत देर हो जाने पर ही मिल पाता था। इतना ही नहीं, दिन में भी पटिदारी की और रिश्तेदारी की महिलाऐं जब बहू को देखने आती थीं, तो मेरी माँ प्रथम बार तो निश्चित रूप से उनकी भी सेवा करने के लिए आदेश दे देती थीं। इन क्रिया कलापों से भले ही बहू को प्रशंसा के दो शब्द मिल जाते थे कि बहू बहुत अच्छा मालिश करती है, किन्तु बहू पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, यह कोई जानने का प्रयास नहीं करता है। मेरी पत्नी माँ के भावों का आदर करते हुऐ, बड़ी प्रसन्ता और श्रद्धा पूर्वक तकलीफ होते हुए भी उसे दूसरों पर न प्रगट करते हुऐ, माँ के आदेश का पालन करती रहती थी। हमारी माँ को तो जैसे लक्ष्मी प्राप्त हो गयी थी। उनकी हर प्रकार की सेवा नहलाना, कपड़े धोना, चोटी कंघी करना, आदर पूर्वक अच्छा से अच्छा भोजन बनाकर खिलाना, तथा पैर और शरीर की मालिश करना तथा उनकी सभी आकाक्षांओं को श्रद्धा भाव से पूरा करना। अतः मेरी माँ हर तरह से सन्तुष्ट और प्रसन्न थी। आखिर क्यों न हो, सारे गॉव में उनकी बहू की बड़ाई हो रही थी। मेरी माँ का भी जीवन इस तरह पिता जी की सेवा में तो कम, किन्तु पारिवारिकों की सेवा में अधिक बीता था। मेरी माँ ही गृहस्थी सम्हाले हुऐ थी, क्योंकि मेरी बड़ी माँ गृह कार्य में निपुण नहीं थी। मेरी आजी अक्सर उनको फटकारती रहती थीं। मेरी माँ की वे प्रशंसा करती थीं। भोजन बनाने से लेकर, चौका, बर्तन, गृहस्थी के सारे क्रिया कलाप निपुणता के साथ सम्पन्न करना मेरी माँ का स्वभाव था। यही नहीं मेरे पूर्व के बड़े परिवार के उप परिवारों में भी जब कभी त्योहारों अथवा उत्सवों पर जब विशेष पकवान या मिष्ठान बनाने की जरूरत होती थी तो मेरी माँ को ही लोग बुला कर ले जाते थे, और माँ बड़ी प्रसन्नता पूर्वक उसमें सहयोग देती थी। यही कार्य भार माँ को अपने विरासत के रूप में सहज भाव से मेरी पत्नी को भी सुलभ हो गया था।

बड़े परिवारों में पटिदारियों में जैसा कि प्रायः होता रहता है छोटी छोटी बातों को ले कर पुरूषों में तो कम, महिलाओं में अक्सर नोंक झोंक होती रहती थी। इस अभिशाप से मेरा वृहद परिवार मुक्त नहीं था। मेरे बाबा के स्वर्गवासी होने के पश्वात् तथा मेरे बड़े पिता जी के भी दिवंगत हो जाने के पश्चात् सुधाकर भैया परिवार के मालिक हो गये थे, तथा उनकी पत्नी भी मालकिन वे पढ़ी लिखी नहीं थीं। एक सामान्य कृषक परिवार से उनका सम्बन्ध था। मेरी एक चचेरे अनुज दिवाकर की पत्नी पास ही के गाँव बरेवाँ की एक सामान्य परिवार की लड़की थीं। वह भी पढ़ी लिखी नहीं थी। उनके तीसरे भाई पद्माकर की पत्नी मेरे ननिहाल की ही पटिदारी की एक लड़की थी। जो गाँव के नाते मेरी माँ को बुआ कहती थी, और मेरी भयाहू होते हुऐ भी मुझे भैया कहती थीं। वह सामान्य पढ़ी लिखी थी, किन्तु बहुत तेज तर्राक थी। मेरे छोटे भाई रत्नाकर की पत्नी भी एक सामान्य गृहस्थ परिवार की पास के ही गाँव भरेहटा की अनपढ़ लड़की थी। मेरे छोटे भाई रत्नाकर की एक आँख बचपन में ही चेचक निकलने के कारण खराब हो गयी थी। अतः माँ ने जल्द बाजी में यह सोच कर कि पता नहीं कि दूसरा सम्बन्ध आवे या न आवे, बाध्य हो कर इस सम्बन्ध को अपनी स्वीकृत दे दी थी। हालाँकि पिता जी इस सम्बन्ध में कुछ हिचकिचाहट में थे, किन्तु आजी और माँ के रूख को देख कर उन्होंने भी हामी भर दी थी। और विवाह में उपस्थित भी हुये थे। इस प्रकार पाँच बहुओं के सम्मिलित परिवार में गृहस्थी के काम धाम को लेकर अक्सर तना तनी बनी रहती थी। यह हालत विशेष कर तब और भी बिगड़ गयी जब मैं अपनी माँ और पत्नी को ले कर इलाहाबाद में रहने लगा था। वहाँ से गाँव के प्रतिदिन के लड़ाई झगड़े की चर्चा तथा मनमुटाव के सम्बाद अक्सर गाँव के मेरे यहाँ आने जाने वाले देते रहते थे।

इसी बीच दिवाकर को मेरे मामा के लड़के डॉक्टर राममूर्ति त्रिपाठी ने प्रयास करके अपनी एक सुपरिचित शिष्या से कह कर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत कला विभाग में लिपिक के रूप में रखवा दिया था। दिवाकर वही से बी० कामर्स की डिग्री प्राप्त कर चुके थे। पद्माकर हमारे साथ रह कर बी० एस सी० एजी० कर रहे थे। किन्तु पढ़ने में इतने कमजोर थे कि दो साल का कोर्स उन्होंने पाँच साल में पूरा किया। उन्हें भी मैने अपने एक शिष्य से कह कर कोवापरेटिव स्टोर में रखवा दिया था। किन्तु वहाँ की नौकरी उन्हें पसन्द नहीं आयी। काम चोरी की वजह से रोज ही अधिकारियों से अनबन बनी रहती थी। अतः बाद में उन्हें वहाँ से अनेक शिकायते प्राप्त होने के बाद विढ़ंमगंज में एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी लगवा दी। किन्तु अपने आलसी स्वभाव के कारण वहाँ भी उनका मन नहीं लगा और अन्त में विढ़ंमगंज की अध्यापकी छोड़ कर वे घर बैठ गये। यह सब सुन कर मुझे हार्दिक क्लेश हुआ।

सामूहिक परिवार में पढ़े लिखे व्यक्ति की बेकारी और भी विकट अभिशाप के रूप में आती है। विशेष कर विवाहित व्यक्ति के लिए। ऐसी स्थति में विघटन और कलह स्वभाविक रूप से अपना प्रभाव दिखाने लगता है। संयुक्त परिवार में अपनी सुख सुविधा को ले कर और काम धाम में लापरवाही को लेकर और भी कलह की स्थिति बन जाती है। इन्हीं पस्थितियों में मैंने रत्नाकर को और आगे की पढ़ाई सुचारू रूप से कराने के लिए उसे अपने साथ इलाहाबाद में ही रखने लगा था। गाँव पर अनेक प्रकार की अड़ंगेबाजी और जान बूझ कर कार्याधिक्य के कारण तथा प्रतिदिन की कहा सुनी और विग्रह के कारण उसका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। खान पान की उचित व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। इन सब कारणों से प्रायः वह प्रत्येक दर्जे में दो दो साल लगा कर बड़ी मुश्किल से सफल हो पा रहा था। किन्तु जब वह हमारे पास रहने लगा तो सभी कक्षाओं में समय से और अच्छे नम्बरों से सफल हो गया। हमारे यहाँ से एम० एससी० एजी० (उद्यान विज्ञान) करने के बाद मैने पहले उसे साहित्य सम्मेलन में कुछ दिन लगवा दिया था। और तत्पश्चात प्रसार अध्यापक के रूप में उसकी नौकरी लगवा दी। इस पद पर वे कई साल रहे तथा प्रताप गढ़, सुल्तान पुर और पैâजाबाद के मौधहा केन्द्र पर क्रिया शील रहे। सौभाग्य से उन्हीं दिनों पैâजाबाद के कुमार गंज में कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। और मौधहा के एक सुपरिचित अध्यापक ने अपने एक सम्बंन्धी से कह कर उन्हें दैनिक वेतन पर विश्वविद्यालय में स्थान दिलवा दिया। इनके काम से उस समय के विभागाध्यक्ष डॉक्टर कीर्ति सिंह सन्तुष्ट थे, और उन्होंने रत्नाकर को स्थाई रूप से नियुक्ति प्रदान कर दी। रत्नाकर के सौभाग्य से इनके विभागाध्यक्ष ही उस विश्वविद्यालय के कुल पति बन गये और उन्होंने रत्नाकर को विभाग में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति प्रदान कर दी। उस समय नियुक्तियों में बड़ी आसानी थी। अतः रत्नाकर उद्यान विभाग में प्रवक्ता के रूप में रह कर वही से पी० एच० डी० भी कर लिये, और प्रोन्नति पाते हुऐ रीडर के रूप में अवकाश प्राप्त किये। रत्नाकर अपनी तत्परता, क्रियाशीलता और ईमानदारी की वजह से विभाग में काफी प्रसिद्ध हो गये थे, और अपने मौलिक अन्वेषण कार्यो से विभाग में ही नहीं बल्कि पूरे विश्वविद्यालय में उनकी मान्यता होने लगी थी। यही नहीं देश विदेश की अनेक पत्रिकाओं में उनके अन्वेषण प्रकाशित हुए और देश के अनेक विश्वविद्यालय और अन्वेषण केन्द्र उन्हें अपनी विशिष्ट वैज्ञानिक उपलब्धियों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित करते रहे। देश में जहाँ कही भी जाते वे विशेष कर बेल तथा आँवला के विशिष्ट वृक्षों के वीज और कलम ला कर अपने विश्वविद्यालय में उन पर शोध करते और उनका रोपण एवं संरक्षण करते। इन शोधों के परिणाम स्वरूप डॉक्टर रत्नाकर ने बेल और आँवला के गुणों एवम् उनकी उत्पादकता में काफी लाभकर परिणाम प्राप्त किये थे।

रत्नाकर ने हमारे महाविद्यालय से एम० एस० सी० प्रथम श्रेणी में १९७० में पास किया था। हमारे यहाँ रह कर वे कभी असफल नहीं हुए। रत्नाकर के व्यक्तित्व और सौभाग्य में जमीन आसमान का अन्तर आ गया था। इसमें यद्किन्चित् मेरा योगदान भले ही रहा हो, किन्तु यह उनका निश्चित रूप से पूर्व जन्म के सद्कर्मो का फल था। इलाहाबाद में उन्हें हर प्रकार की सुख सुविधा प्राप्त थी। खान-पान, रहन-सहन तथा मेरे निर्देशन के कारण उनका जीवन सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ता रहा। हमारे इस छोटे से परिवार में कभी भी बिग्रह की स्थिति नहीं उत्पन्न हुई। रत्नाकर की पत्नी भी हमेशा एक सहयोगी के रूप में सक्रिय रही और किसी प्रकार की शारीरिक अथवा मांनसिक द्वन्द्व की स्थिति नहीं पैदा होने पायी। रत्नाकर अपने सौभाग्य से पैâजाबाद में अपना भव्य मकान भी बना लिये हैं। अवकाश प्राप्ति के बाद वे कुछ दिन एक प्राइवेट कालेज में प्राचार्य के रूप में भी क्रियाशील रहे हैं। उनकी लड़की रेखा की शादी सुधीर के साथ हो गयी, जो फूलपुर के इफको में इंजीनियर के रूप में कार्यरत है। रेखा के दो लड़के अध्ययन कर रहे हैं। रेखा स्वयम् एक जूनियर हाई स्कूल में अध्यापिका है। इस तरह अपने अपने सौभाग्य से सब अपने अपने पैरो पर खड़े हैं। रत्नाकर का परिवार पैâजाबाद में, मेरा परिवार इलाहाबाद में रह कर अपने जीवन पथ पर आगे बढ़ रहे हैं। विशेष अवसरों पर एक दूसरे का सम्बन्ध बना हुआ है। किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं है। अर्थ ही दुराव का कारण बनता है। और चूँकि इस प्रकार की कोई समस्या हम दोनों के बीच नहीं है, अतः सबका स्नेह और प्रेम बना हुआ है। रत्नाकर के बड़े लड़के का विवाह भी हो गया है। सत्यब्रत मिर्जापुर में एक कृषि विज्ञान केन्द्र पर लाल गंज में कार्यरत है, तथा मिर्जापुर में एक आवास किराये पर ले कर अपने परिवार को वही कर शिक्षित कर रहे है। उन्हें एक लड़की और पुनः एक पुत्र रत्न प्राप्त हो गया है। नित्य अपने कार्य के लिए कार्यालय जाना आना लगा रहता है। कभी कभी विश्वविद्यालय के कार्य से कुमार गंज भी जाते आते रहते है। अभी हाल ही में उनकी नियुक्ति बाँदा में कृषि विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में हो गयी है।

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भावगीत

एकाकार हुआ प्रिय जब तब, मम, तन, मन, धी हिय प्राण।

तब तब हुआ निरन्तर निश्चय, चिदानन्द का कुछ अनुमान।।

काया की यह बात नहीं है, स्थूल सूक्ष्म सब माया है।

भाव समर्पण पूर्ण परस्पर, सुख जाने जो पाया है।।

शब्दों के सम्प्रेषण सीमित, उत्तम भाव जगत का माध्यम।

शब्दों के परे प्रेम के, अनुपम अनुभव जनित उपक्रम।।

उसी भाव से उसी चाप से, पर-सुख में सुख के स्वभाव से।

सदा परस्पर जग निर्वाहन, करें सतत आनन्द अवगाहन।।

बना रहे युग-युग यह उपक्रम, महाकाल भी लगे विपलसम।

कभी परस्पर प्रेम हो न कम, युगल अभेद न त्वम् अह्म, तव, मम।।

सीताराम बीचि जल सम हम, राधेश्याम गिरार्थ रहित तम।

अर्धनारीश्वर गौरी शिव सम, निरगुण हम ही, सगुण स्वयं हम।।

गाँव की स्मृतियाँ

जैसा कि मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ। मेरा गाँव जलाल पुर माफी एक ऐतिहासिक गाँव हैं। ऐसी किम्बदन्ती है कि वारनहेस्टीग्ज ने इस गाँव को लगान माफी दे दी थी। जिसकी घोषणा तत्कालीन अंग्रेज जिलाधिकारी  हाथी पर गाँव में आ कर कर गये थे कि वाइसराय के आदेशानुसार अब से यह गाँव लगान माफी के कारण जलाल पुर माफी नाम से पुकारा जायेगा। मुझे बचपन में जिलाधिकारी के हाथी पर बैठ कर आने और गाँव का हाल चाल जानने का कभी बाढ़ के नाम पर, कभी सूखा के नाम पर तथा कभी ओला वृष्टि के नाम पर आ कर यथा साध्य सहायता प्रदान करते हुए का दृश्य आज भी याद है।

इसी तरह बचपन की एक और घटना मुझे याद है कि एक अंग्रेज जिसे हम लोग ‘‘दलघुसेड़ी’’ कह कर चिड़ाते थे, वह मिलेट्री का रिटायर्ड जनरल था। मेरे गाँव में हाथी पर बैठ कर अक्सर रेता में काँस के जंगल में सूअर का शिकार खेलने चुनार से आता था। उस समय हमारे गाँव के दो चार नवयुवक भी उसको सहयोग देने के लिये उसके साथ जाते थे। उन सहयोगियों के द्वारा ही हम लोगों को दलघुसेड़ी के बारे में जानकारी मिली थी। गर्मी के दिनों में हमारी मड़ई में वे लोग तास खेलने आते थे। और बड़ी प्रसन्नता से दलघुसेड़ी के किस्से सुनाते थे। इन सहयोगियों में प्रमुख थे, गोबरधन सिंह जो ऊँट रखे हुये थे, और अनाज का व्यापार करते थे, अतः हम लोग उन्हें गोबरधन ऊँटहारा कहते थे। दूसरे सज्जन थे, हरिहर भगत और तीसरे थे मेरे पडोसी रामअधार सिंह । ये तीनो व्यक्ति अपनी जवानी के दिनों की गाथायें कुछ बढ़ा-चढ़ा कर और नमक मिर्च लगा कर सुनाते थे, जिनका हम लोग आनन्द भी लेते थे, और मजाक भी उड़ाते थे। गर्मी के दिनों में गाँव के किसान गृहस्थी के भार से खाली रहते हैं, और हम लोग भी विद्यार्थी के रूप में अथवा अध्यापक के रूप में गर्मी की छुट्टियाँ मनाते रहते हैं, अतः हम लोगों के गॉव जाते ही हमारी मड़ई में तास का अड्डा जम जाता था। दो तीन समूहो में अलग अलग आयु के लोग प्रायः दिन भर तास खेलते रहते थे। मड़ई काफी बड़ी थी। जिसमें दो तीन तखत और दो तीन खाटें पड़ी रहती थी। और बूढ़े, बच्चे, जवान सभी उसी में बैठ कर आनन्द लेते थे। जाड़े के दिनों में मड़ई में खाट और तखत हटा कर पुआल बिछा दिया जाता था। जिस पर दिन भर बच्चों का उछलना कूदना लगा रहता था। हमारी यह मड़ई गाँव की एक तरह से सार्वजनिक बैठक थी, जिसमें बाबा के जमाने से लेकर और हम लोगों के जमाने तक गाँव के प्रायः सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति आ कर बैठते थे। छुट्टियों में हम लोगों के पहुँच जाने पर और भी चहल पहल बढ़ जाती थी। यहाँ बैठ कर लोगों में धर्म, राजनीति, समाज, गाँव, और देश की ज्वलन्त समस्याओं पर बहुधा गरमा गरम बहसें होती थीं, तथा उसी के बीच हँसी के ठहाके भी लगते थे। किन्तु अब तो गाँव का वह माहौल न जाने कहाँ खो गया है। मैं जब भी गाँव जाता हूँ तो चारो ओर सूना-सूना खड़हर जैसा दृश्य दिखाई देता है। अब तो गाँव में प्रायः सब के मकान पक्की ईंटों के दो दो तीन तीन तल्लों के बन गये हैं। किन्तु पहले जैसा प्रेम और सद्भाव न रह कर चारो ओर राग, द्वेष, घृणा, और दुराव का वातावरण दिखाई पड़ता है। गाँव सीमेन्ट और ईंट के जंगल जैसा लगता हैं, उसमें रहने वाले अब पहले जैसा प्रेम न दिखा कर अहंकार के वशीभूत हो गये हैं। सारी भौतिकता की उपलब्धता के बाद भी पहले जैसी शान्ति और आनन्द का वातावरण नहीं दृष्टि गोचर होता है। सब एक दूसरे की टांग खींचने में अपनी बड़ाई समझते हैं। और सब में आपसी सद्भाव न हो कर झूठी श्रेष्ठता का भाव आ गया है। मेरे बचपन की गाँव की सारी मर्यादायें धूल धूसरित हो चुकी हैं। विशेष कर लोक तंत्र के चुनाव की राजनीति ने केन्द्र से ले कर पंचायत तक के चुनावों ने गाँव को बाँट दिया है। चारों ओर अशान्ति का वातावरण दिखाई देता है। किसी में पहले जैसा प्रेम और सद्भाव नहीं रह गया है। कभी कभी तो लोग एक दूसरे के जान के भी प्यासे हो गये हैं। कहाँ वह मेरे बचपन का गाँव का मर्यादित जीवन, और कहाँ आज की उठापठक की जिन्दगी। जमीन आसमान का अन्तर हो गया है। पहले जहाँ निर्धनता की चरम सीमा पर जीवन व्यतीत करते हुये भी तथा जाति और वर्ग के अनेकताओं के बावजूद भी आपसी सम्बन्ध, एक दूसरे के प्यार और आदर से जुड़े हुये थे। समय पड़ने पर एक दूसरे के सहयोग की होड़ सी लगी रहती थी। शिष्टाचार और सदाचार हर कदम पर व्यवहार में प्रतिष्ठापित था। इसके ठीक विपरीत गाँव के आज का माहौल पूरी तरह मर्यादाहीन हो गया है। आज शहर के अजगर ने गाँव की संस्कृति और सभ्यता की मर्यादा को निगल सा लिया है। लोक तंत्र ने निश्चित रूप से कुछ भौतिक समृद्धि तो प्रदान की हैं, किन्तु अतीत की सांस्कृतिक मर्यादा आज मटियामेट हो गयी है। पता नहीं इसे देश की ऊर्ध्व गति कहेंगे या अधोगति। यह देश का विकास हो रहा है, या देश विनाश की ओर जा रहा है। समाज व्यक्ति से बनता हैं, यदि व्यक्ति का चरित्र मर्यादित नहीं होगा, तब निश्चित रूप से समाज और देश का चारित्रिक पतन अवश्यम्भावी है। भौतिकता मनुष्यता में यदि सहायक बने, तभी भौतिकता का महत्व है। भौतिकता यदि मानवता को दानवता की ओर ले जाये, तो ऐसी भौतिकता की कोई आवश्यकता नहीं है। अतीत में भारत सोने की चिड़ियाँ कहलाता था। वर्णाश्रम धर्म के कारण अर्थ और काम, धर्म के आधीन रह कर  मोक्ष प्रदायक थे। धर्म, अर्थ और काम में सन्तुलन बनाये रहता था। किन्तु यही धर्म जब अधर्म बन जाता है, अर्थ और काम पर धर्म का नियंत्रण नहीं रह जाता, तो वह विनाश कारी हो जाता है। धर्म से ही जीवन जीने की कला मनुष्यता को प्राप्त होती है। इस कला का जीवन में सही उपयोग ही सुख, शान्ति और समृद्धि प्रदायक होता है। इस सन्तुलन के कारण ही इह लोक के साथ साथ परलोक भी सुधरता है। किन्तु इसके विपरीत आचार, विचार और व्यवहार निश्चित रूप से समाज के लिए विनाशकारी सिद्ध होते हैं। काश भारतीय संस्कृति के इन पुनीत सिद्धान्तों और व्यवहारिक धरोहरों को यदि हमारा राष्ट्र अपने जीवन में उतार कर आदर्श को स्थापित करले, तो निश्चित रूप से विश्व की सम्पूर्ण मानवता को इससे मार्ग दर्शन प्राप्त होगा।

हर युग अपने अतीत का गुण गान करता आया है। गाँव में आज के युग में केवल अशान्ति ही हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज भी नगर हो या गॉव वहाँ नागरिक रहते हैं, और असन्तोष रहते हुऐ भी, सुख और शान्ति का जीवन भी बिता रहे हैं। किन्तु ऐसा जीवन बनावटी जीवन जैसा लगता है। जैसे मुखौटा लगा कर लोग व्यवहार कर रहे हों। कलयुग अपने धर्म के अनुसार कदम बढ़ा रहा है।

भारतीय धर्म और संस्कृति एक उल्लास उत्साह, और आनन्द की परिचायक है। प्रायः प्रत्येक सप्ताह में कोई न कोई तीज, त्यौहार, व्रत अथवा अनुष्ठान आदि पड़ते हैं, जो हमारे जीवन को जोड़ने, एकता के सूत्र में बाँधने और आनन्द की अनुभूति कराने के लिए बनाये गये हैं। इन परम्पराओं और उत्सवों का उसी भावना से निर्वाह करना आवश्यक है। जीवन के प्रत्येक क्रिया कलापों को धर्म और संस्कृति से जोड़ना, उनको आस्थामय बनाना यह भारतीय संस्कृति और सभ्यता की विशेषता रही है। मुझे याद है कि जब मेरे बचपन में पहली बरसात होती थी, तो गर्मी के दिनों में एक कोने में रखा हुआ हल निकाला जाता था, और उस पर साफ सफाई करके घर की मालकिन अपने हाथ के पंजे से हल्दी का छापा लगा कर उसे सिन्दूर से टीकती थी। बैलों के कन्धे पर भी हल्दी लगाई जाती थी, तथा उनके माथे, पर भी हल्दी का टीका लगाया जाता था। उस दिन बैलों को और हरवाहों को भी गुड़ खिला कर हल जोतने हेतु जाने की परम्परा थी। दोपहर में आने के बाद बैलों के कन्धों पर पुनः हल्दी मला जाता था, तथा हरवाहा उस दिन मालिक के घर ही भोजन करता था। उस दिन भोजन भी विशेष बनता था। दाल की पूड़ी और  खीर। जानवरों को भी पूड़ी और खीर खिलाई जाती थी। उसके बाद ही घर के लोग खाते थे। इतना ही नहीं हरवाहा अपने घर भर के लिये पूड़ी और खीर ले जाता था। जिस दिन बोवाई समाप्त होती थी, उस दिन को ‘‘कुड़मुदना’’ कहते थे। उस दिन भी बैलों और हरवाहों को इसी प्रकार पूड़ी और खीर के भोज्य से स्वागत होता था। वैâसी अच्छी शिष्ट परम्परा थी। यह एक पारिवारिक प्रेम धरती के पुत्र के प्रति, धरती के श्रमिक के प्रति, और पशुओं के प्रति भी एक रूपता, समरसता। इसी प्रकार अनेक ऐसे अवसर जो खेती से सम्बन्धित होते थे, चाहे खरीफ की फसल के, चाहे रवी के फसल के, सभी में एक परम्परागत प्रथायें प्रचलित थीं। ऐसे अवसरों पर सभी प्रजा जन, नाऊ, धोबी, कुम्हार, लोहार इत्यादि जिनका खेती और खेतिहर से सम्बन्ध था, सभी प्रजा जन अपने परिवार भर के लिये भोजन सामग्री थालों में भर के ले जाते थे। किसान और प्रजा दोनों में एक दूसरे के प्रति आनन्द और उल्लास का वातावरण, एक अपनत्व की भावना। इसके विपरीत आज भले ही मजदूरी उन दिनों की अपेक्षा कई गुना अधिक दी जाती है, किन्तु लेने और देने वाले दोनों ही असन्तुष्ट दिखाई देते हैं। देने वाला सोचता है कि मुझे ज्यादा देना पड़ रहा है और लेने वाला सोचना है कि मुझे मेरे कार्य के अनुरूप पारिश्रमिक नहीं मिल रहा है। दोनों ओर असन्तोष और अशान्ति। सम्बन्धों की वह शान्ति और सन्तोष का वातावरण अब नहीं रहा। उस समय जब दाता देते देते अघाता नहीं था, और प्राप्त कर्ता पूर्ण सन्तुष्टि का भाव और कृतज्ञता का भाव अर्पित करता था।

बचपन में हम लोगों के संयुक्त परिवार में एक विशेष कोठरी थी। जिसमें परिवार के सभी बच्चों का जन्म होता था। इस घर को, सौरीघर कहते ही थे। यह कोठरी बिना किसी खिड़की दरवाजे के तथा अन्य घरों की अपेक्षा जिसकी फर्श लगभग एक फिट नीचे थी, जिसमें ठाठ की ओर मात्र एक छोटा सा रोशनदान था। मेरी भी जन्म भूमि वही है, जो अब श्रीधर चाचा के हिस्से में पड़ गयी है, और पुष्पा के पति कमलाकान्त उपाध्याय जो मेरे विद्यार्थी भी रह चुके हैं उन्होंने सरायनन्दन वाराणसी में अपना पक्का मकान बना लिया है। चूंकि मेरे चाचा जी को कोई पुत्र नहीं था, अतः उनकी पुत्री पुष्पा के नाम से वह कोठरी है। ये लोग बनारस में ही रहते हैं, तथा कभी कभार ही गृहस्थी के काम से गाँव आना जाना होता है। अब तो सारे परिवार का पुराना और नया सभी मकान खड़हर के रूप में विद्यमान है। सबके घरों में ताले लगे हुये है। सभी पटिदारों ने विभिन्न शहरों में अपने निवास स्थान बना लिये है। और बहुत ही कम लोगों का गाँव से सम्बन्ध रहा गया है।

 जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ, अलगउझी के बाद हम लोगों को नये मकान में आना पड़ा था। मेरी माँ को उत्तर की ओर एक कोठरी मिल गयी थी। जिसमें कोठे पर जाने के लिए सीढ़ियाँ भी बनी थी। कमरे के उत्तर तरफ कोली थी। तथा दक्षिण तरफ बरामदा कमरे के पूरब तरफ पड़ोसी बल्लर और शिवकेदार का आँगन था। तथा पश्चिम तरफ मेरी बड़ी माँ की कोठरी थी। उस जमाने में चोरों का बड़ा डर रहता था। अक्सर चोर कोली की ओर से सेंध लगा कर चोरी करते थे। अतः माँ ने सबसे पहले करीब तीन फीट ऊँचाई तक ईंट जोड़ कर अपने हाथ से पाठा बना लिया था। अतः कोली की तरफ से कोई भय नहीं रह गया था। माँ के पास सोने और चाँदी के बहुत से गहने थे। मुझे याद है माँ सबके सो जाने पर एक दिन रात में दरवाजे के पीछे खुर्पी से खोद खोद कर जगह बना लिया था और उसमें दो बड़ी बड़ी हाँडियों में एक में सोने के गहने, तथा दूसरे में चाँदी के गहने रख कर रातो रात ईंट लगा कर, तथा मिट्टी भर कर, उसे बन्द कर दिया था। और उसे लीप कर बराबर कर दिया था। घर के लोगों को भी इसका पता नहीं चल पाया था। कुछ सामान्य पहनने के गहने उसने बचा लिये थे। माँ की सिधाई के कारण रामचरण सोनार ने धीरे धीरे सारे गहने ले लिए कि सफाई कर देंगे किन्तु सफाई की कौन कहे, उसने सारे गहने बेच डाले। माँ को कुसलाता रहा और अन्तत: मर भी गया। माँ हाथ मलती रह गई।

मेरी छोटी बहन पद्मावती मुझसे छः साल छोटी थी। जब तक वह पैदा नहीं हुई थी, तब तक मैं माँ के साथ ही सोता था, रात में जब माँ काम धाम से खाली हो कर आती थी, तो मुझे कहानी सुनाती थी। यह नित्य का नियम था। जब तक मैं कहानी सुन नहीं लेता था, तब तक मुझे नींद ही नहीं आती थी। माँ द्वारा कही गयी कहानियों में जो मुझे याद है- ‘‘ तोता मैना, बुढ़ कुब्बे, घड़ी छैलवा, कौवा हँकनी, ढोलकियाँ, सौतेली रानी, हुड़ार तथा रामायण की सीता राम की कहानियाँ सुनाती थी।’’ कभी कभी मेरी बड़ी माँ कन्हैया भईया की कहानी सुनाती थी। मेरी आजी अक्सर अपनी पूर्वजों की तथा संयुक्त परिवार की गरीबी के किस्से सुनाती थी। माँ जब कहानी सुनाती थी तो उसमें कहीं कहीं बड़े मार्मिक गीत भी गाती थी, जिसे सुन कर मैं रोमांचित हो जाता था। माँ का नियम था कि सबेरे लगभग तीन बजे ही उठ कर हमारे कोठरी में ही बने जाँत पर बड़ी माँ के साथ आँटा पीसती थी। लगभग एक घण्टे तक उस समय बड़े भाव पूर्ण गीत भी साथ साथ गाती रहती थी, जिसे सुन कर मुझे बड़ा अच्छा लगता था। ये गीत इतने रस मय होते थे और इतने भाव पूर्ण कि अर्थ न जानते हुये भी मुझे आनन्द आता था। आँटा पीसने के तुरन्त बाद सभी महिलायें खेत में शौच के लिये जाती थी,और लौट कर थोड़ा थोड़ा अँधेरा रहते ही सारे घर में ताड़ की कूँची से झाडू लगाया जाता था। रसोई घर को ऊपर की दीवाल तक तथा फर्श और चूल्हा करैली मिट्टी से पोतना के द्वारा नित्य पोता जाता था। हफ्ते में एक दिन पूरा घर गाय के गोबर से लीपा जाता था। इस लिये चारों ओर स्वच्छता का वातावरण बना रहता था। रसोई घर सुबह और शाम दोनो ंसमय पोता जाता था। घर की सफाई के तुरन्त बाद बर्तन माँजा जाता था। पुरुष लोग उठ कर बाहर दरवाजे, गौशाले, मड़ई और चबूतरे को झाड़ू लगाते थे। तथा गोबर एकत्रित करके और घर के भोजन की राख भी ले कर खेत में घूरे पर डाल आते थे। फिर घर में और जानवरों को पानी भरना, चरी काट कर खेत से लाना, तथा मशीन में कुट्टी काटना, भूसे के साथ मिला कर जानवरों को कुट्टी खिलाना, उसमें खली चूनी तथा रात का जूठन डालना यह नित्य का नियम था। महिलायें नहा धोकर भोजन बनाने के काम में लग जाती थीं। हम विद्यार्थी लोग गृह काम सम्पन्न कर के नहाधोकर तथा कुछ खा कर स्कूल चले जाते थे। मेरी माँ हम लोगों के लिए बोरसी पर अहरा सुलगा कर लिट्टी लगा देती थी, जिसे नमक घी और दूध के साथ खा कर हम लोग पढ़ने चले जाते थे।

जब मैं गाँव की प्राइमरी पाठशाला में पढ़ने जाता था, इसके पूर्व ही मेरी माँ ने मुझे उँगली पकड़ कर तथा जमीन पर ही राखी पैâला कर लिखने का अक्षर ज्ञान करा चुकी थी। अक्षरों को तथा गिनती और पहाड़े को उसने पहले ही मुझे रटा दिया था। रात में सोने के पूर्व कहानी के साथ साथ माँ मुझे अक्षर और गिनती रटाती थी। जब मैं थक जाता था तो मुझे कहानी सुनाती थी। इस प्रकार  मुझे स्कूल जाने के पूर्व ही लिखना पढ़ना आ गया था। स्कूल में जब मैं अ ब में पढ़ रहा था, तब अन्य लड़के भटक भटक कर पुस्तक पढ़ते थे, और मैं नित्य सारी किताब पढ़ जाता था। नये लड़कों को गुरू जी के आदेशानुसार मैं ही बालू में उँगली से उन्हें अक्षर ज्ञान कराता था। छुट्टियों में हम लोग गर्मी के दिनों में बास की पतली लम्बी लग्गी ले कर बबूल का लासा छुड़ाते थे। बरसात के दिनों में जब पहली बरसात होती थी, तो खेत से लाल हाथी (वीरबधूटी) ले कर उनके साथ खेलते थे। कभी कभी ग्वालिनों और तितलियों को पकड़ कर तथा उन्हें धागे में बाँध कर नचाते थे। पीली बरय& को लकड़ी से पकड़ कर उसका आर निकाल देते थे और जब वह हानि रहित हो जाती थी, तब उसे धागे में बाँध कर उड़ाते थे। नदी में पानी आ जाने पर तैरना सीखते थे। इसके अलावा गोटी, रेणी लड़ाना तथा कपड़े का गेंद बना कर उससे खेलना, यह हम लोगों के बचपन में प्रायः सभी बच्चों का एक जैसा स्वभाव था। लड़कियाँ कपड़े की गुड्डा गुड्डी बना कर उनका विवाह रचातीं तो हम लोग उसमें पंडित बन कर पूजा कराते, तथा बाजा बजाते थे। इस प्रकार मनोरंजन के और कोई साधन न होने पर हम लोगों का बचपन हँसी खुशी में बीतता था।

जब कुछ बड़े हुये तब तास खेलना, सट्टरा, कबड्डी खेलना, नदी में फिसलना, दण्ड बैठक व कूडी डाँकना, अखाड़े में लड़ना तथा नाल व गदा उठाने का प्रयास करना, यह सब हमारे परिवार के प्रायः सभी बच्चों का नियम बन गया था। कुछ और बड़े होने पर हम लोग गृहस्ती के काम में भी हाथ बँटाने लगे थे। जब अनाज खलिहान में तैयार हो जाता तो दौरी में भर भर कर हम लोग उसे घर लाते, खाँची में भूसा ढोते, तथा मचान पर बैठ कर सुबह शाम चिड़ियों और सियार इत्यादि से फसल की रखवाली करते। कभी कभी बाढ़ आ जाने पर पानी में घुस कर मक्के की बाल तोड़ते। हमारे गाँव में बाढ़ प्रायः प्रत्येक साल आती थी। शौच के लिये नाव से हम लोग दूर के दूसरे गाँव में उँâचाई पर जाते थे। कभी कभी जब नाव नहीं रहती थी, या बीच में किसी को आवश्यकता पड़ जाती थी, तब पानी में ही मचान जैसा बना कर तथा उस पर बोरे डाल कर शौचालय जैसा बना लिया जाता था, विशेष कर औरतों के लिये इससे सुविधा हो जाती थी।

 जब हम लोग चुनार पढ़ने जाने लगे तो वहाँ जैसा कि हमारे गाँव वालो ने बतलाया था, एक अंग्रेज जनरल जो अवकाश प्राप्त था, चुनार में ही रहता था। बड़ा लम्बा गोरा और हमेशा हाथ में बन्दूक लिये रहता था। उसे हम लोग जब भी देखते तो मजाक में सब लडके ताली बजा कर कहते, देखों ‘‘दलघुसेड़िया’’ जा रहा है। जैसा कि मैं पहले बतला चुका हूँ गाँव वाले उसे सूअर का शिकार कराने के लिये रेता में ले जाते थे। उन्हीं दिनों कभी उसे हमारे गाँव वालों ने दाल की पूड़ी खिलाया था, जिसे खा कर उसने बड़ी प्रशंसा की थी। तब से गाँव वाले उसका नाम ही दलघुसेड़िया रख दिये थे। यह बात हम लोगों के बुजुगो& ने बतलाई थी और हम लोग भी आनन्द के लिये उसको चिढ़ाने लगे थे। किन्तु एक दिन संयोग ऐसा बना कि हम लोग कालेज से कुछ लड़के बाजार की ओर जा रहे थे, और दलघुसेड़ी बाजार से कालेज की ओर आ रहा था। उस समय कालेज से कुछ दूरी पर एक पुराना गिरजाघर था, जिसकी लम्बीचौडी चार दीवारी थी। किन्तु बाद में नया गिरजाघर बन जाने के बाद वह उपयोग में नहीं आता था और खड़हर जैसा हो गया था। उसी चारदीवारी के अन्दर से बाजार आने जाने के लिऐ छोटा रास्ता बन गया था। उसी रास्ते पर अचानक दलघुसेड़ी से हम लोगों की मुलाकत हो गयी। उसने एक लड़के का हाथ पकड़ लिया और कहा -‘तुम लोग हमे दलघुसेड़ी कह कर चिढ़ाते हो, चलो तुम्हारे प्रिन्सिपल से शिकायत करते हैं। तुम लोगों को मैं बैगन के भरते की तरह कुचल डालूँगा। सभी लड़के उसकी तेज आवाज से काँपने लगे और उसके साथ साथ कालेज के फाटक तक आये। वह अंग्रेज होते हुये भी, नियम कानून का पालन करने वाला था। वह फाटक के अन्दर नहीं गया। वही से किसी चपरासी के द्वारा प्राचाय& को बुलाने के लिये कहा। प्राचाय& जी आये और उसने अंग्रेजी में उनसे कुछ बात चीत की और फिर दोनों हँस पड़े। सम्भवतः प्राचाय& जी ने उसको समझाया कि लड़के तुम्हारी प्रशंसा करते हैं, निन्दा नहीं करते। जब उसने इस बात को जान लिया तो, लड़कों की पीठ ठोकता हुआ, तथा हँसता हुआ चला गया। बाद में प्राचाय& जी ने हम लोगों को उससे हुई बात चीत का सारांश समझाया, तब से हम लोग उससे दूरी बना कर ही रहने लगे।

जैसा कि छात्रों का स्वभाव होता हैं स्कूल की छुट्टियां होने पर भूख तो लग ही जाती थी अतः रास्ते में जो कुछ भी खाने को मिल जाता, चना खेत से उखाड़ कर अथवा बाजरा की बाली मशल कर खाते पीते आते थे। कभी कभी रास्ते में पड़ने वाले बगीचे से अमरूद, शरीफा अथवा नीबू आदि भी तोड़ते। रखवाली करने वाले गाली देते रहते, किन्तु लड़के हँसते हुये अपनी भूख मिटाते।

चुनार में जरगों नदी के किनारे एक बहुत बड़ा ‘‘हाडलस’’ का बंगला था। जो कई तल्लों का था, तथा उसमें नदी से पानी खींच कर पाइप के द्वारा शौचालय और स्नान गृह में पहँुचाने की व्यवस्था थी। इसके अलावा उसके सामने ही एक बहुत बड़ा कुआँ, जो पक्के चबूतरे पर बना था, तथा जिसके ऊपर टिन का गोलाकार छाजन भी बना हुआ था, जिसमें रहट भी लगी हुई थी। चुनार का यह विशाल बँगला अपनी रंगबिरगी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध था। यह बँगला इतना बड़ा था कि इसमें बाद में जब चुनार चुक& रेलवे लाइन बनी तो उसका पूरा काया&लय इसी बँगले में बनाया गया था, जिसमें लगभग पाँच हजार रेलवे कम&चारी काय&रत थे। इसके अलावा चुनार के सेठ दौलत सिंह की कोठी भी प्रसिद्ध थी। जो चारो ओर से ऊंची चारदीवारी से घिरी थी, तथा जिसमें आढ़त का काम होता था। हमारे गाँव के हरिहर भगत वहाँ प्रायः नित्य ही जाते थे। और वहाँ के किस्से हम लोगों को सुनाते थे। चुनार की रामलीला में विशेष कर सीता हरण के दिन जब जूलूस निकलता था, तो दौलत सिंह राजसी ठाठबाट में नंगी तलवार ले कर घोड़े पर बैठ कर आगे आगे चलते थे। यह सब बचपन का दृश्य हम लोगों को बड़ा प्रभावित करता था। चुनार की रामलीला में धनुष यज्ञ की लीला भी बड़ी धूम धाम से मनायी जाती थी। इसके अलावा भरत मिलाप चुनार के किले के नीचे टेकउर गाँव के पास मनाया जाता था। जिसमें बड़ा ही प्राकृतिक दृश्य होता था। किले के ढाल पर दर्शक जनता बैठी रहती थी। सामने जरगो नदी और जंगल की तरफ से राम लक्ष्मण सीता की सवारी तथा चुनार नगर की तरफ से भरत और शत्रुधन की सवारियाँ आती थीं। और जरगो के किनारे प्राकृतिक वातावरण में भरत मिलाप की लीला सम्पन्न होती थी, जिसे देखने उस दिन हजारों की भीड दूर दूर के गाँवों से आती थी।

मेरे बचपन की यह सब स्मृतियाँ आज भी मेरे मन में बनी हुई हैं। पता नहीं अब ये सब परम्परायें चल रही हैं, अथवा नहीं। उस समय सदाचार और शिष्टाचार हर कदम पर व्यवहार में प्रतिष्ठापित था। किन्तु आज जब मैं गाँव जाता हूँ, तो चारों ओर मुर्दैनी सी छाई रहती है। अतीत की सारी सांस्कृतिक मर्यादा मटियामेट सी हो गयी है। भारतीय धर्म और संस्कृति के युगद्रष्टा ऋषियों और मुनियों ने अपने जीवन के अनुभव के आधार पर मानवता के हित के लिये जिस आचार-विचार और शिष्टाचार की परम्परा कायम की थी, जो मानव को जीवन जीने की एक उत्कृष्ट कला का दिग्दर्शन कराती थी, जिससे इह लोक और परलोक दोनों सुधरता था। किन्तु आज की विघटन कारी और विनाशकारी प्रवृतियों को देख कर यह निर्णय कर पाना मुश्किल लग रहा है कि आज की तथा कथिक भौतिक समृद्धि देश को अधोगति में ले जायेगी अथवा नहीं। काश अतीत के मर्यादित जीवन के पुनीत धरोहरों को भारत राष्ट्र ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता प्राप्त कर सके तो इसमें जीव मात्र का कल्याण निहित है। आज भौतिकता का सहारा ले कर बाहरी दिखावे की संस्कृति अधिक पनप गई है। जीवन एक खुले हुये वेपर्दे का रह गया है। हर जगह अधिकांश लोग मुखौटा लगाये हुये दिखते हैं। नैतिकता और मर्यादा ने अपने चेहरे को छिपा सा लिया है, तथा उछृंखलता , उद्दंडता, भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार व व्यभिचार आदि दुर्गुण समाज में सर्वत्र सीना ताने दिखाई देते हैं। अभी समय है यदि इस धारा को मोड़ कर सही रास्ते पर नहीं लाया गया तो निश्चय ही राष्ट्र का अधःपतन अवश्यम्भावी है।

इन सब बिपरीत परिस्थितियों से बचने का एक मात्र उपाय है कि हम अपनी स्थापित परम्पराओं से, तीज त्योहारों से पुनः जुड़ जायें। पुनः उल्लास और उत्साह का वातावरण बने। आज कल के अनेक प्रकार के उपकरणों से युक्त मनोंरजन के स्थान पर पुनः बिना उपकरण के भारतीय पारम्परिक खेल कूद कुश्ती इत्यादि की परम्परा पुनः स्थापित की जाये। गाँवों में कुश्ती के लिये अखाड़े और लम्बी और उँâची कूद के कूड़ियों की व्यवस्था की जाये और फिर से रिमझिम फुहारों के बीच ढोलक तासे और नगाड़े जैसे वाद्यों का सहारा ले कर उत्साह और उल्लास का जीवन अपनाया जाये।

मेरे गाँव में एक से एक अच्छे पहलवान तथा नाल उठाने वाले हमारे बचपन में थे। एकाध व्यक्ति प्रसिद्ध भोजन भट्ट भी थे। जैसा कि मुझे बताया गया है एक बार बनारस के किसी सेठ ने हमारे ही परिवार के एक भोजन भट्ट को भोजन पर आमंत्रित किया। उसने पाँच आदमियों के भोजन की सामग्री तैयार करवाई, जिसे अकेले ही वे खा गये। तब भी पेट उनका नहीं भरा, तो बाजार से पुनः पाँच किलों पूड़ी मिठाई मंगाई गयी, वह भी वे खा गये। तब सेठ ने हाथ जोड़ लिया और उन्हें उस जमाने में चाँदी के दस सिक्के दे कर बिदा किया। इसी तरह हमारे एक बाबा जंगल दूबे जो उस समय के प्रसिद्ध पहलवान गामा से कुश्ती लड़ चुके थे, तथा रेल इंजन को रोक देने वाले राममूर्ति से भी उन्होंने दो दो हाथ किया था। हमारे गाँव के कल्लू यादव तथा बोडर भगत दो मनवाली पत्थर की नाल को उठा कर तथा उसे एक हाथ से सभाल कर सारे अखाडे् का चक्कर लगाते थे। ऐसे लोगों से अब मेरा गाँव सूना सा हो गया है। बचपन में मुझे अपने परिवार के ही एक और पहलवान की याद आती है, जिनका नाम शायद कुछ और रहा होगा किन्तु पहलवान के नाम से ही प्रसिद्ध थे। उनका लम्बे डीलडौल का भारी शरीर आज भी मुझे आश्चर्य चकित करता रहता है। कभी कभी मैं सोचने को बाध्य हो जाता हूँ कि जब हमारे जमाने में इस कलयुग में ऐसे ऐसे नामी गिरामी लोग हैं तो द्वापर और त्रेता में भीम और हनुमान जैसे योद्धा निश्चित रूप से रहे होंगे। हमारे बचपन में हमारे ही परिवार के दो और पहलवान दिलीप और संन्दीप थे। जो काफी वृद्ध हो गये थे। नागपंचमी के दिन वे अपने चेलो को दाव का नाम ले ले कर के लड़ने के लिये प्रोत्साहित करते थे, तथा कुश्ती में बड़ा रस लेते थे। खाने पीने में ये लोग भी भोजन भट्ट थे और दो दो तीन तीन पाँत तक बैठ कर भोजन करते रहते थे। उन्हें कभी भी मैने कचौड़ी और पूड़ी तोड़ कर खाते नहीं देखा। पूरी की पूरी कचौड़ी और पूरी एक निवाले में मुहँ में डाल लेत्ो थे। पाँत में अन्य लोगों को जहाँ दो दो चार चार पूड़ियाँ परोसी जाती थी, उन्हें पत्तल भर पूड़ियाँ परोस दी जातीं और ऐसा कई बार किया जाता। भोजन के बाद मिष्ठान भी चाहे वह लड्डू हो चाहे गुलाब जामुन, चालीस चालीस पचास पचास खा जाते थे।  यह तो उनके बुढ़ापे में मैंने देखा हैं, पता नहीं युवावस्था में क्या रहा होगा। गाँव के अखाड़े पर किसी समय के दो मुगदर करीब चार चार फीट लम्बे और मन भर के थे। उसे हमारे जमाने में किसी ने घुमाने की हिम्मत तो नहीं की, किन्तु लोग ले कर कन्धे पर रख लेते थे। शायद हमारे पूर्वज इनको दोनों हाथ में ले कर के घुमाते रहे होंगे, तभी तो ऐसी मुगदर की ऐतिहासिक जोड़ी आज भी गाँव में पड़ी हुई है। हमारे जमाने में हम लोगों के साथ पढ़ने वाला वैâलाश सिंह नामक विद्यार्थी जो बाद में पी० ए० सी० में कम्पनी कमान्डर हो गया था, वह कूड़ी के आगे ऊँट खड़ा कर के तथा उस पर सवार को बैठा कर उँâची कूद में कूड़ी डाक गया था। तब से उसकी बड़ी प्रशंसा होने लगी थी। विद्यालय में भी वह हर कक्षा में उँâची वूâद और लम्बी कूद में हमेशा प्रथम आता था। इसी वैâलाश सिंह ने एक बार जब वह राम नगर में कम्पनी कमान्डर था, तब दशहरे के दिन राजा द्वारा शस्त्र पूजन के कार्यक्रम में विजया दशमी के दिन राजा के पीछे नंगी तलवार ले कर ड्यूटी कर रहा था। मैं अपने फुफेरे भाई पारस चौबे के साथ दशहरा देखने गया था। तो वैâलाश सिंह ने अपने एक सिपाही के माध्यम से इशारे से मुझे बुलाया और राजा के बगल में सिंहासन पर बैठने के लिऐ स्थान दिया। पहले तो मैं समझ नहीं पाया जब सिपाही ने आ कर मुझसे कहा कि साहब आपको बुला रहे हैं, तो मैं समझ नहीं पाया कि कौन साहब । किन्तु जब नजरों से देखा देखी हुई, तो मैं वैâलाश को पहचान गया और उसके कहने के अनुसार राजा के बगल में बैठ कर शस्त्र पूजा का आनन्द लिया। पारस ने अपने गाँव में आ कर इस घटना की चर्चा सबसे की और बड़ा गौरवान्वित हुआ।

हमारे गाँव में प्रायः सभी त्यौहार बड़े धूम धाम से मनाये जाते थे। रक्षा बन्धन का त्योहार जिसमें ब्राह्मण लोग अपने जजमानों के यहाँ जा कर जरई और रक्षा बाँटते हैं और इस उपलक्ष्य में कुछ दक्षिणा प्राप्त करते है। बहन के द्वारा भाई को रक्षा बाँधने का सिलसिला तो बाद में प्रचार में आया गाँव में तब यह प्रथा नहीं थी। मुझे मेरे बचपन की एक घटना इस सम्बन्ध में याद आती है। मैं अपने बचपन में बहुधा बीमार हो जाता था । तब उपचार का आज का साधन तो था नहीं, तुलसी का काढ़ा और मरीच ही दिया जाता था। और उपवास कराया जाता था, मैं एक रक्षाबन्धन के दिन महीनों उपवास के पश्चात् यह जान कर कि आज रक्षाबंधन हैं, बिना किसी को बताये, जाने किस शक्ति से उठा और गाँव भर में घूम कर अपने जजमानों से कही से एक पैसा, कहीं से दो पैसा, कहीं से एकन्नी प्राप्त करता हुआ लगभग डेढ़ रूपये इकठ्ठा कर के जब घर लौटा, तो माँ बड़ी परेशान थी। घण्टों से मैं चला गया था। बिना किसी को बताये, बीमारी की हालत में, सबको आश्चर्य हुआ जब मैंने वे पैसे माँ की हथेली पर रखे। मैं स्वयम् नहीं समझ पाया कि किस शक्ति ने मुझसे किस भाव से यह कार्य कराया। उस समय उन डेढ़ रूपयों की बड़ी महत्ता थी। जब लोग एक एक पैसे के लिये मोहताज थे, जब महीने भर कार्य करने के बाद प्राइमरी कक्षा का अध्यापक मात्र दो रूपये वेतन पाता था। ऐसे समय में मेरे द्वारा बीमारी की हालत में एक घण्टे के अन्दर डेढ़ रूपये कमा कर लाना बड़े आश्चर्य की बात थी।

रक्षाबंधन और नागपंचमी के अलावा गॉँधी जयन्ती अर्थात दो अक्टूबर को हमारे गाँव में विशाल कजली का आयोजन होता था। जिसमें अपने जिले के ही नहीं, बल्कि अन्य जिलों के भी प्रसिद्ध कजली गायक आते थे। दो मंच बनाये जाते थे और इस प्रकार दो प्रतिद्वन्द्वी पार्टिया बन जाती थीं। जिसे कजली लड़ाना कहा जाता था। इन मंचों से पारम्परिक कजली गीतो के अलावा समसामयिक, राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक समस्याओं पर तुरन्त लय बद्ध कजली सुना कर अपने प्रतिद्वन्दी को मात देने का प्रयास करते थे। हार्मोनियम, ढोलक, नगाडे और झाझ और मजीरे की थाप पर रात भर यह कार्यक्रम चलता था, और दोनों मंचों के प्रतिद्वन्दी अपनी अपनी कजली सुना कर बाह बाही लूटते थे। उस दिन गाँव में हजारों की भीड़ जुट जाती थी। शायद ही ऐसा कोई घर रहता होगा, जिसके यहाँ चार छः मेहनान न आ जाते हों। कजली का यह विशिष्ट आयोजन कई सालों तक चला जो एक से एक अच्छे कजली गायकों को सुनने का सुअवसर प्रदान करता था। प्रायः प्रत्येक वर्ष नये नये कजली गायक आमंत्रित किये जाते थे, जो अपनी गायन कला का प्रदर्शन कर के प्रशंसित होते थे।

मिर्जापुर की कजली की धूम तो वैसे ही सारे प्रदेश और देश में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में सरनाम है। कजली का त्योहार तो एक विशेष तिथि को भादो कृष्ण पक्ष की तीज के दिन मनाया जाता है। इस अवसर पर गाँव की परम्परा के अनुसार ससुराल से लड़कियाँ मायके में बुला ली जाती हैं। और ये लड़कियाँ अलग अलग टोलियों में गाँव में गवाँरा घूम कर अपनी भौजाईयों और अन्य सम्बन्धियों से गोलाई में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर झूमती रहती हैं और कजली गायन करती रहती हैं। विनोद के भाव से वे अपनी भौजाइयों के पतियों का नाम पूछती हैं। उनका लय होता है -‘‘अपने दुलहवा क नउवा बतावा गोरियाँ हिंगुली’’ इस क्रम में खूब हँसी मजाक होता। कभी कभी कोई चालाक भौजाई अपने पति का प्रचलित नाम न ले कर बहाने बाजी कर के अन्य नाम ले लेती अथवा कभी कभी अपने देवर, नन्दोई, अथवा जीजा का नाम ले लेती  और कहती - ‘‘ हमरे दुलहवा क नउआ ...... गोरियाँ हिंगुली’’ इस प्रकार बड़ा आनन्द और मस्ती का आलम बन जाता। रात में ये नाटक भी करती। अनेक प्रकार के भेष बदल कर वे खूब हँसी मजाक करती। नेता बन जाना, साधु बन जाना, दरोगा बन जाना और इस प्रकार जब किसी के घर किसी रिश्तेदार के आने का समाचार प्राप्त होता तब वे और उत्साहित हो कर इस सुअवसर का लाभ उठातीं। हमारे गाँव में दुःखवन्ती नाम की कुम्हारिन ऐसे आयोजनों में बड़ चढ़ कर हिस्सा लेती थी।

एक बार का हमारे बचपन का एक किस्सा मुझे याद है । वह यह है कि हमारे चाचा लोगों के एक फूफा उपाध्याय जी आये हुये थे, और भोजन इत्यादि से निवृत हो कर कुऐं के पास चबूतरे पर सोये हुये थे। अचानक रात में लगभग १२ बजे चार पाँच सिपाहियों के साथ एक दरोगा आया और फूफा जी को दो तीन हन्टर जमा कर बिगड़ कर बोला-‘‘ तुम अंग्रेजों से बगावत करके  यहाँ सोये हो, चलो थाने और फूफा जी नींद से अचकचा कर उठे और उन्होंने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ा कर हमारे एक चाचा परमहंस का नाम लिया जो सचमुच सत्याग्रही थे। उन्होंने कहा -‘‘माई बाप हम नहीं, परमहंस सत्याग्रह करते हैं, मैं तो मेहमानी में आया हुआ हूँ।’’ यह बात सुन कर जब आस पास छिपी हुई औरतें  हँसी का ठहाका लगाने लगी तब फूफा जी को वस्तु स्थिति का ज्ञान हुआ और वे गाली देते हुये उस कुम्हारिन को, जो दरोगा बनी हुई थी, दौड़ा लिये और वह डण्डा उनकी ओर फेक कर भाग गयी। बाद में जब कभी भी वे आते तो लोग उनसे उस घटना की याद दिला कर हँसी मजाक करते और तब वे भी हँस कर आनन्द लेते हुये कहते कोहइनियाँ ससुरी ने हमको दो तीन हन्टर मार दिया था। यह सब सुन कर लोग और भी आनन्दित होते। मुझे मालूम नहीं हैं कि आज कल भी क्या गाँव में वह रसमय वातावरण रह गया है या नहीं। जब जात पात से उâपर उठ कर इस स्तर के आनन्दमय वातावरण बनाये जाते। उस जमाने में गाँव की यह परम्परा थी कि चाहे किसी भी जाति का एक भी घर यदि कोई सम्बन्ध बना लेता  तो दूसरे गाँव के लोग भी जात पात से ऊपर उठ कर उन सम्बन्धों का आदर करते और सारा गाँव उस सम्बन्ध को मान्यता प्रदान करता। सम्बन्ध अब भी बन रहे होंगे किन्तु उस समय का आदर और व्यवहार अब शायद ही किसी गाँव में दिखाई देता हो।

दशहरे के दिन हमारे गॉव में तब चौकियाँ निकलती थी। लड़के, बूढ़े जवान सभी भेष बदल कर इन दृश्यों में भाग लेते और आनन्द करते बसन्तपंचमी के पर्व पर महावीर जी के मंदिर पर आस पास के अच्छे गवइये बुलाये जाते जो  अपने एकल कार्यक्रम में अनेक प्रकार के गाने सुना कर सबको मन्त्रमुग्ध कर देते। उस दिन शिवपुर के बाबू साहब अपने राजसी पोशाक में हाथी पर बैठ कर आते और गाने का आनन्द लेते। उस दिन ‘‘हाबुस’’ जो नये नये जौ गुड़ और घी को मिला कर बनाया जाता था, प्रसाद के रूप में लड्डू के साथ सबको बाँटा जाता था। होली के दिन होलिका का एक निश्चित स्थान निर्धारित था, जहाँ प्रत्येक वर्ष होलिका जलाई जाती थी। उस दिन घर के सभी लोग उबटन से मालिस करा कर उस झिल्ली को गोबर के प्लेट में रख कर साथ में पाँच उपले और कुछ लकड़ियां होली में डाल दी जाती। होली जलने के समय होलिका का पूजन होता। अलग अलग मोहल्लो से लोग ढोलक की थाप पर होली गाते हुये होलिका स्थल पर पहुँचते और साथ में जौ तथा बरर्य (कुसुम) के पौधे ले कर उसे होलिका के आँच में जलाते और फिर उसे ले जा कर अपने घर के ठाट में खोंस देते। दूसरे दिन सबेरे सबेरे होली की आग घरों में लाई जाती और यह आग साल भर सुरक्षित रखी जाती, कभी बुझने नहीं दिया जाता था। दोपहर में विभिन्न पकवान बनाकर लोग आनन्द लेते तथा अपराह्न में गाते बजाते होली गायको की टोलियाँ गँवारा घूमती और जगह-जगह विशिष्ट लोगों के यहाँ रूक कर शरबत, पान इलायची इत्यादि का स्वागत लेते हुये घूमती।देर रात तक यह क्रम चलता। लोग एक दूसरे को अबीर गुलाल लगाते और रंग डालते। महिलायें अपने अपने पद वालों के साथ होली खेलती। इस प्रकार आनन्द पूर्वक यह त्यौहार मनाया जाता। होली के अवसर पर बनाये जाने वाले विभिन्न पकवानों में गोझियाँ और खड़पूडियाँ जरूर बनायी जाती थीं। अपनी हैसियत के अनुसार कुछ लोग रोट, गुलगुला, और पूआ भी बनाते थे। इस प्रकार इस उत्सव पर खान पान एवम् रंग बाजी से लोग आनन्द प्राप्त करते थे। होली गान की घूम से मस्ती का वातावरण कई दिनों तक गाँव में आनन्द उत्सव के रूप में मनाया जाता था। फागुन महीने का प्रारम्भ होते ही होली गान और हुल्लड़बाजी प्रारम्भ हो जाती थी। गरीब लोग मिट्टी और कीचड़ एक दूसरे पर फेंक कर आनन्दित होते थे। गरीबों के लिये इससे अच्छा सर्वसुलभ पदार्थ और क्या हो सकता था। इसी में लोग अपने मन की भावनाओं को प्रकट करके आनन्दित होते थे।

हमारे क्षेत्र में शिवशंकरी जी में चैत्र के महीने में मेला लगता था। जिसमें अनेक प्रकार के खेल तमाशे, गाना बजाना , मुर्गो और भेड़ों की लड़ाई, जादू के खेल, तथा खेल खिलौने इत्यादि की दुकानें सजती थी। औरते सिंगार प्रसाधन की सामग्री खरीदने में व्यस्त रहती थीं। हम लोग जब छोटे थे, तो बड़े पिता जी हमको और दिवाकर को हर साल मेला घुमाने अवश्य ले जाते थे, तथा शिवशंकरी जी का दर्शन कर लेने के पश्चात् बसन्तू की दूकान पर हम लोगों को भर पेट मन चाही मिठाई खिलाते थे। हम लोग उसके लिये लालाइत से रहते थे। मेला बहुत ही छोटे क्षेत्र में एक आम के बाग में लगता था। आस पास के गाँव के लोग तथा रिश्तेनाते एक दूसरे से मिल कर दुआसलाम करते थे तथा अपनी पद और प्रतिष्ठा के अनुसार एक दूसरे का स्वागत सत्कार कर के संतोष का अनुभव करते थे। हमारे यहाँ सामान्यतया स्वागत का एक प्रचलित व्यवहार पान खिलाना अथवा बीड़ी पिलाना है। प्रायः अधिकांश लोग पान खाने के आदी होते थे। कुछ लोग सुर्ती खिलाकर व्यवहार निभाते थे। इस प्रकार  गाँव में एक दूसरे का प्रेम व्यवहार चलता था।

लड़कियाँ कपड़े की गुड्डा और गुड़िया बना कर उनका व्याह रचाती थी। जिसमें जब हम लोग छोटे थे तो कुल्हड अथवा छोटी हाड़ी पर कागज मढ़ कर गोंद से उसे चिपका दिया जाता था। तथा बीच में गोद और कालीख लगा कर ढोलक तबला, अथवा तासा के रूप में बजाते थे। लड़कियाँ विवाह के सभी आयोजन मिट्टी लाना, लावा लाना, आदि व्यवहार निभाती थी। जिसमें हम लोग आगे आगे बाजा बजाते हुये चलते थे। लड़कियाँ पीछे से गाती हुई चलती थीं। विवाह के लिये मण्डप बनाया जाता तथा वास्तविक विवाह के प्रतीक स्वरूप सभी सामग्री यथा- कलश, सील, लोढ़ा, मूसर, चकरी, हरीश, तथा सुग्गा आदि मिट्टी से बनाकर जुटाये जाते थे। बड़े होने पर हम लोग पंडित का काम करते थे। तथा विवाह की सभी रसमे कन्यादान से ले कर सिन्दूर बन्धन परिक्रमा कोहबर की रस्म निभाई जाती। लड़कों के दो दल बन जाते एक घराती तथा दूसरे बराती बन कर रस्म को पूरा करते। रद्दी कागज को भिगो कर उसे ओखली में कूट कर तथा उसमें गोद मिला कर डोली और पालकी बनायी जाती थी। उसके उâपर रंगीन चित्रकारी भी की जाती थी। जिसमें पालकी में दूल्हा आता था, तथा डोली में दुल्हन की विदाई होती थी। इस प्रकार हम बच्चों को लड़कियों के माध्यम से विवाह से सम्बन्धित सभी रस्मे परम्परागत रूप से ज्ञात हो जाती थीं। तथा लड़कियाँ इसी बहाने विवाह सम्बन्धित गीत गाना भी सीख लेती थी। इन सब खेलों में बड़ा आनन्द आता था।

छुट्टियों के दिन हम लड़के कपड़े का गेंद बना कर तथा पाँच खपरैल एक के ऊपर एक रख कर कुछ दूरी पर से निशाना लगाते थे, और जब निशाना ठीक लग जाता था, तो लड़कों के दो दलो में से निशाना लगाने वाला पक्ष भागता था, और दूसरा पक्ष उसी गेंद से मारता था। इस बीच में पहला पक्ष उन गिरी हुई गोटियों को पुनः अपने स्थान पर लगाने का प्रयत्न करता था। इस प्रकार इस खेल में बड़ा आनन्द आता था।

बचपन में हमारे गाँव में स्वतन्त्रता आन्दोल का एक छोटा रूप मैने अपने गाँव मे भी देखा था। उस जमाने में नवयुवक साहस जुटा कर अग्रेजों के विरूद्ध लाठी डण्डा, गोली, जेल की परवाह किये बिना किस प्रकार स्वतन्त्रता आन्दोल में भाग लेते थे, इसकी एक छाप आज भी मेरे मस्तिष्क में बनी हुई है। जेल में लोगों को अनेक प्रकार की पीड़ा झेलने के लिये बाध्य किया जाता था। जेल में चक्की पीसनी पड़ती थी। और निश्चित मात्रा में आटा पीसना आवश्यक होता था। इस कार्य में जरा भी कमी दिखाने पर उâपर से मार भी पड़ती थी। ऐसा भुक्त भोगियों ने बतलाया था। मेरे गाँव से मेरे चाचा परम हंस द्विवेदी तथा हृदय नारायण सिंह आन्दोल करके जेल गये थे। जैसा कि मैने विस्तार से पहले ही इसका विवरण दे दिया है।

१९४८ से पहले हमारे गाँव में शाखा भी लगती थी। शाखा लगाने वाला नवयुवक सूर्योदय से पूर्व ही चुनार से आता था। और हमारे उम्र के पढ़ने वाले छात्रों को घर घर से जगा कर अहिरा बाबा के मैदान में जो गाँव से थोड़ी दूर पर था ले जा कर अनेक प्रकार के खेल और ड्रिल आदि कराता था। एक डण्डे में लाल झण्डा लगा कर ध्वज प्रणाम, दक्ष तथा विश्राम इत्यादि का प्रारम्भिक ज्ञान हम लोगों को उसी के माध्यम से सीखने को मिला था। किन्तु १९४८ में महात्मा गाँधी की हत्या के बाद गाँव वालों ने उसे भगा दिया था और उसे चेतावनी दी गयी थी कि अब कभी इस गाँव में आओगे तो तुम्हारा हाथ पैर तोड़ दिया जायेगा।  हम लोग उस समय की राजनीति तो नहीं समझते थे और स्वयम् सेवक के द्वारा ऐसी कोई गलत भावना भी हम लोगों के अन्दर नहीं भरी गयी थी। किन्तु गाँव वालों के उसके प्रति क्रोध को देख कर हम लोगों के मन में भी शाखा के प्रति घृणा पैदा हो गयी थी। गाँधी जी की हत्या के पश्चात् राष्टी्रयता तथा राष्ट्र निर्माण की उस समय की अटूट लगन प्रेरणा दायक थी। किस प्रकार गाँव का सुधार हो, वैâसे बच्चे पढ़ें लिखें, किस प्रकार सामाजिक बुराईयाँ दूर हों, इस ओर लोगों का ध्यान रहता था। कुछ प्रतिष्ठित लोगों ने हमारे गाँव में एक बालिका व्िाद्यालय खोलने का संकल्प लिया और चंदे के द्वारा उसको कार्य रूप में भी परिणित किया। गाँव में सबसे पहला खड़जा का मार्ग हमारे दरवाजे पर से ही हो कर बना था। उस समय मै चुनार में इण्टर मीडियेट में पढ़ रहा था। जब सड़क बनने लगी तो हमारे दरवाजे पर कुएँ से जल ले कर स्नान करने के लिये एक बड़ा सा पत्थर रखा गया था। तथा पानी को रोकने के लिये एक बड़ा सा चहबच्चा बनाया गया था। यह काम मेरी ही प्रेरणा से सम्पन्न हुआ था। इसके पहले लोग जहाँ कहीं भी नहा लेते थे, और पानी बह कर गली में कीचड़ पैदा करता था, जिससे आने जाने को बड़ी असुविधा होती थी। विशेष कर हम लोगों को। क्योंकि हमारा घर कुएँ के दूसरी ओर गली उस पार था। अतः दिन या रात में भोजन करने जाने पर पैर में बहुत सा कीचड़ लग जाता था। हम लोग बाल्टी का पानी ले कर के तब आते जाते थे। जिससे पैर धोया जा सके। पहले हमारे कुएँ पर जगत भी नहीं बना था। अतः अक्सर ऐसा होता था कि नये पैदा हुये पशुओं के बछड़े प्रायः दौड़ते हुये वुँâऐं में गिर जाते थे। अतः मैने परिवार वालो से चन्दा ले कर जगत का निर्माण कराया। वुँâए पर पहले बबूल के लकड़ी के खम्भे लगा कर तथा उस पर बाँस रख कर सारा में गड़ारी लगायी जाती थी जो बहुत कमजोर रहती थी। इसको भी बदल कर मैने पत्थर के दो खम्भे मँगाये और रेलवे का गरडर उन खम्भो के बीच में रख कर उससे गड़ारी लगायी गयी। अतः इसके टूटने का भय समाप्त हो गया। गाँव में लोगों की प्रवृत्ति विकास की ओर नहीं रहती थी। जैसे तैसे काम चला लेना, यही उनका भाव रहता था। किन्तु मैं चूंकि दिल्ली इत्यादि में रह चुका था, अतः मेरे अन्दर साफ सफाई और सुरक्षा तथा सुधार की भावना प्रबल थी। इस कारण लोगों के सहयोग से यह सुधार सम्भव हो सका। जब सड़क बनने लगी तो चहबच्चा लगभग एक फुट सड़क में पड़ जा रहा था। उस वक्त हम लोग लीवर का सिद्धान्त पढ़ चुके थे। अतः मेरे मन मे भाव आया कि क्यों न इसका उपयोग कर के देखा जाये। मैने अपने सहयोगियों से राय बात किया और बाँस तथा बल्ली लगा लगा कर चहबच्चा के चारो ओर की मिट्टी हटा कर उसे अन्दर की ओर ढकेल दिया गया। सौभाग्य यह था कि चहबच्चा काफी मजबूत बना था। अतः समूचा का समूचा चहबच्चा बिना किसी नुकसान के एक फीट अन्दर चला गया और मिट्टी आदि से जब सब बराबर कर दिया गया तो कोई सोच भी नहीं सकता था कि ऐसा वैâसे सम्भव हुआ। प्रातः काल जो भी आता देख कर कहता, यह वैâसे हो गया और जब हम लोगों की कारगुजारी उनको बतलायी जाती, तो वे आश्चर्य चकित होते।

घर के आँगन में भी मैने पत्थर की पटिया रख कर ओरी के चूने से जो मिट्टी बह जाती थी उसका बचाव किया। ऑगन का पानी जिस रास्ते बाहर नाली में जाता था वहाँ भी ईटे बिछा कर मैने स्वयम् रास्ता पक्का कर दिया था। यह सब जब मैं करता था तो मेरे भइया सुधाकर को अच्छा नहीं लगता था। वे अक्सर टोंका टोंकी करते और कहते कि पानी का बहाव रुक जायेगा। लेकिन मैने सबका ध्यान रख कर के सारी व्यवस्था ठीक ढंग से कर दी, जिससे न कभी पानी रुका न मिट्टी बही, और न कीचड़ में से हो कर आना जाना पड़ा । यह सब व्यवस्था मैने सुधार की भावना से किया।

गाँव में जो बालिका विद्यालय बना, उसमें हमारे पड़ोसी श्री जीवित राम जी, जो बम्बई में रह कर व्यापार करते थे, अपना व्यवसाय अपने पुत्रों पर छोड़ कर गाँव में ही रहने का उन्होंने सकल्प ले लिया था, उनका प्रमुख हाथ था। वे सुधार वादी प्रवृत्ति के थे। उन्होंने हम लोगों के सहयोग से चन्दा एकत्रित किया और गॉव के बाहर विद्यालय की आधार शिला रखवाई। इसमें गाँव की दो तीन पढ़ी लिखी लड़कियों को अध्यापिका के रूप में रख लिया गया था, तथा हमारे परिवार के ही शिवकुमार दूबे को जो एक पाँव से अपगं थे, और उनका चुनार जा कर पढ़ने लिखने में मन नहीं लगता था, उन्हें उस विद्यालय में लिपिक के रूप में रख लिया गया था। एक बैठक कर के यह निर्णय लिया गया कि गाँव के जितने भी कमासुत लोग हैं वे प्रत्येक माह नियमित रूप से इस विद्यालय के लिये चन्दा दें। सब ने इसकी स्वीकृत दी और इस चन्दे से तीन बड़े बड़े कमरे बनाये गये। और क्रमशः अन्य कमरे, दूसरा तत्ला तथा विद्यालय की चार दीवारी आदि भी बना ली गयी। आज वही विद्यालय मान्यता प्राप्त इन्टर मीडिएट बालिका विद्यालय के रूप में कार्यरत है, जिसमें आस पास के गाँव की भी अनेक लड़कियाँ पढ़ने का लाभ प्राप्त कर रही हैं। अब तो सरकारी नियमानुसार बाहर की उपयुक्त प्रशिक्षित अध्यापिकायें कार्यरत है, तथा विद्यालय का कार्य सुचारू रूप से चल रहा है। इस तरह हम लोगों की पीढ़ी से प्रारम्भ हो कर यह विद्यालय आज की स्थिति को प्राप्त हो गया है। अब चन्दा देने का कार्य भी कई वर्षो से बन्द सा है क्योंकि सारी व्यवस्था अब सरकारी हो गयी है।

स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारे गाँव के नवयुवको में खेल कूद की ओर भी काफी अभिरूचि दिखलायी तथा सामूहिक संघ एवम्ं आजाद नवयुवक संघ के माध्यम से विशेष कर बालीबाल के खेल में हमारे गाँव ने बड़ा नाम कमाया। हम लोगों के ही एक साथी श्री राधेश्याम उपाध्याय, जो थे तो दूसरे गाँव के निवासी, किन्तु पढ़ाई उन्होंने अपने मामा के घर रह कर हमारे गाँव में की थी। राधेश्याम बचपन से ही हम लोगों के साथ बालीबाल खेलते थे। किन्तु उनका लम्बा छरहरा शरीर उन्हें इस खेल में महारत हासिल करने में सहयोगी बना और वे धीरे-धीरे  गाँव से ‘तहसील’ फिर जनपद, फिर प्रदेश और अन्ततः देश के बालीबाल के  एक अच्छे खिलाड़ी बन कर नाम कमाये। मुझे याद है इलाहाबाद के फायर विग्रेट के मैदान में एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में उनके आने पर और मुझसे मिलने पर कितनी प्रसन्नता हुयी थी। कहाँ बचपन के राधेश्याम और कहाँ आज के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त राधेश्याम से मिल कर और उनका हाल चाल जान कर मन गदगद हो गया था। वे भी मुझसे मिल कर और समाचारों से अवगत हो कर बड़ें प्रसन्न हुये थे।

गाँव में जिन विस्तृत खलिहानों में हम लोग बचपन में फुटबाल, बालीबाल, और हाकी आदि खेलते थे, उसे जमीदारी उन्मूलन के अवसर पर जमीदार ने अपने चहेतो को चोरी से बेच दिया और लोगों ने अपना अपना कब्जा भी जमा लिया। धीरे-धीरे स्थाई निर्माण करके सारा खलिहान इन स्वार्थी लोगों द्वारा हड़प लिया गया। जिस खलिहान में बारात ठिकती थी, नाच भा़ँड के खेल होते थे, और हम लड़के जहाँ शाम को खेलते थे, वह सब बेकार हो गया। एकाध बार तो कुछ नव युवकों ने विरोध भी किया किन्तु घर वालों के दबाव में अन्ततः शान्त हो जाना पड़ा। प्राइमरी पाठशाला के सामने खड़ा विशाल बरगद का पेड़ आज भी इस परिवर्तन का साक्षी बना शोक ग्रस्त है। एक ओर एक बहुत ही पुराना इमली का पेड़ था, जिसको काट कर उसका नामो निशान तक मिटा दिया गया। हमारा खलिहान जहाँ लगता था, वहाँ हमारे बाबा ने एक पकड़ी का पेड़ लगाया था, छाया के लिये। वह पकड़ी का पेड़ आज की परिस्थिति में शोक ग्रस्त सा लगता है। नदी के किनारे चौउरा माई का नीम का पेड़ था, जहाँ नाग पंचमी के दिन कूड़ी डाकी जाती थी, वह नीम का पेंड़ भी सुनता हूँ किसी बीड़ी पीने वाले की ना समझी से जल गया। जो ठूठ बचा था उसे भी लोग काट ले गये। गॉव की आस्था का यह वृक्ष जहाँ महिलायें हवन करती थीं पूजन करती थी, बन्दरवार छुडाया जाता था, वह सब समाप्त हो गया। यह सब देख कर स्वार्थी लोगों की नासमझी और समाज की दुर्दशा पर सोच करने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा है। हमारे गाँव के बालीबाल के अच्छे खिलाड़ियों में भूपत नरायण सिंह, आनन्द मोहन दूबे, और राम अधार सिंह का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। इस लोगों के साथ खेलने वाले राधेश्याम उपाध्याय तो अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी थे ही, किन्तु उपर्युक्त खिलाड़ी भी प्रदेश की टीम में प्रतिनिधित्व कर चुके थे। राधेश्याम उपाध्याय अपने उत्तम खेल के कारण ही पुलिस विभाग में अधिकारी बन गये थे। जब वे मुझसे मिले तो उन्होंने विशेष रूप से मुझसे कहा था कि जलालपुर माफी की आजाद नवयुवक संघ के सदस्य के नाते ही आज मैं बालीबाल का अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी बन पाया हूँ। बालीबाल का ए, बी, सी, डी तो मैने आपके गाँव से ही सीखा है। उन्होंने अपनी कृतज्ञता गाँव के प्रति प्रगट की थी। उस समय की मेरे गाँव की बालीबाल टीम बहुत ही अच्छे खिलाड़ियों से सुसज्जित थी। सर्विस करने के लिये एक तरफ रामअधार सिंह तथा दूसरी तरफ आनन्दमोहन दूबे रहते थे। बालरों में एक तरफ राधेश्याम उपाध्याय तथा दूसरी तरफ भूपत नरायण सिंह रहते थे। एक दूसरे पर धाक जमाने के लिये जहाँ सर्विस नेट से मात्र एक इंच ऊचाई से करने में दोनों खिलाड़ी माहिर थे, उसी तरह बालरों में फील्ड में रूपया रख कर और बालिंग करके रूपये पर निशाना मारा जाता था, और जो इसमें सफल होता था रूपया उसके नाम हो जाता था। बालीबाल में इस तरह की होड़ कम ही देखने को मिलती है। अब तो खेल होते भी होंगे तो मात्र मनोंरजन के लिये।

जहाँ तक खेलों के प्रति हमारे रूझान का सवाल है, गाँव में रहते हुये बचपन में कबड़ी, सट्टर्रा, तुतुलमुतुल, होड़वापताल और गुल्ली डण्डा आदि तो खेलता ही था, इसके अतिरिक्त विविध प्रकार के तास के खेल में भी मेरी अभिरूचि थी। बरसात के दिनों में देर तक नदी में तैरते रहने का शौक भी मुझे था। क्रिकेट खेलना तो मैने पिलानी में पहले पहल सीखा उसके बाद दिल्ली में आने पर क्रिकेट के प्रति मेरी अभिरूचि और बढ़ गयी। १९५०-५२ के बीच भारत बनाम एम० सी० सी०, भारत बनाम कामनवेल्थ तथा भारत बनाम आस्ट्रेलिया के तीन तीन टेस्ट मैच लगा तार पाचों दिन दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। इसके अलावा हैदराबाद प्रवास के दिनों में सौभाग्य से एक दिनी भारत और पाकिस्तान का मैच भी देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। दिल्ली में रहते हुये मैं प्रायः रविवार के दिन क्रिकेट खेलता था, तथा अन्य दिनों में आवास के लान में मोहल्ले वालों के साथ ही रिंग बाल खेलता था। दिल्ली में कभी कभी हम लोग दो टीमों में मैच भी आयोजित कर के खेलते थे। मैं क्रिकेट का एक औसत खिलाड़ी ही था। बल्लेबाजी और गेंद बाजी दोनों ही करता था। खेल के दौरान किसी का वैâच पकड़ने पर बड़ी प्रसन्नता होती थी। चुनार आने पर भी विद्यालय में जब क्रिकेट मैच आयोजित होता तो उसमें भी मुझे सुअवस्ार प्राप्त होता था। चुनार में एक बार विद्यालय और महापालिका के बीच हुये एक मैच में मैने दो खिलाडियों को आउट किया था। उस समय मेरी गुगली की लोगों ने बड़ी प्रसंशा की थी। कुलभास्कर महाविद्यालय में भी जब भी क्रिकेट मैच आयोजित होते तो उसमें मै टीम का उपयोगी सदस्य सिद्ध होता था, और अपनी बालिग तथा बैटिग दोनों से लोगों को प्रभावित करता था। किन्तु मेरा दिल जानता है कि मै एक सिद्धस्त खिलाड़ी कभी नहीं बन पाया जिसके लिये अधिक समय तथा अधिक तपस्या की आवश्यकता होती है। देवरिया में रहते हुये मैं बालीबाल और बास्केटबाल खेलता था। बास्केटबाल का तो मुझे वैâप्टन होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आगरा प्रवास के दौरान भी मुझे क्रिकेट खेलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। तिर्वा में भी एक बार छात्रों और अध्यापकों के मैच में मैने क्रिकेट खेला था। आगरा में रहते हुये क्रिकेट के लिये अभिरूचि रहते हुये भी मैं अधिक समय नहीं दे पाता था। क्योंकि अपनी पढ़ाई और अन्वेषण के कार्य के कारण मुझे समय कम ही मिल पाता था। क्रिकेट के प्रति मेरी अभिरूचि बचपन से ही थी, और जब भी मौका मिला मैने अपने, खेल का अच्छा प्रर्दशन किया, किन्तु यह चान्स की ही बात थी। नियमित अभ्यास के लिये चूंकि मैं समय नहीं दे पाता था, इसलिये क्रिकेट में विशेष कर आगरा की टीम में मुझे चान्स कम ही मिल पाता था। विभाग के शोध कार्य में व्यस्त रहने के कारण जो अपेक्षा कृत अधिक आवश्यक था। बाद में कुलभास्कर आश्रम में रहते हुये जब हम प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हो गये और नये अच्छे खिलाड़ी आ गये, तो हम लोगों ने बाध्यता पूर्वक क्रिकेट से अवकाश प्राप्त कर लिया। तब अध्यापकों ने मुझे विद्यालय के कमेन्टेटर के रूप वैâमिन्ट्री करने का मौका दिया। खेल के प्रति मेरी अभिरुचि प्रारम्भ से रही है, जब कभी राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राट्र्रीय कोई भी खेल होते हैं, तो उन्हें प्रत्यक्ष देखने अथवा आकाशवाणी या दूरदर्शन पर उसका आनन्द लेने का सुअवसर मैं प्रायः नहीं चूकता हूँ। इस क्रम में मेरे सुपुत्र देवव्रत भी विशेषकर हाकी के एक अच्छे खिलाड़ी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त किये थे। एक बार तो उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय की टीम के साथ पटियाला में आयोजित हाकी खेल में भाग लेने का भी सुअवसर प्राप्त हुआ था। देवव्रत क्रिकेट के एक अच्छे जानकार है, तथा उन्हें किस मैंच में, कब किस खिलाड़ी ने, कितने रन बनाये, वैâसे आउट हुये आदि का ज्ञान अच्छी प्रकार है, वे एक विश्वकोष की तरह इस ज्ञान को अपने अन्दर धारण किये हुये है। यह सब देख कर मुझे आत्मिक सन्तोष होता है।

हमारे गाँव में दीपावली के शुभ अवसर पर नाटक खेलने की परम्परा भी हम लोगों ने प्रारम्भ की थी। बाद में तो यह क्षेत्र की प्रसिद्ध नाटक मण्डली बन गयी, जो बहुत वर्षों तक अपनी नाट्य प्रतिभा से क्षेत्र के लोगों को आनन्द प्रादान करती रहती है। दीपावली के बाद दो दिन नाटक होते हैं, एक दिन धार्मिक नाटक तथा दूसरे दिन सामाजिक नाटक। अब तो विवाह आदि के अवसर पर भी लोग इस नाट्य मण्डली को आमंत्रित करने लगे हैं। यह आमदनी का एक जरिया बना गया है। किन्तु जैसा स्वभाविक है नाटक में भाग लेने वाले पढ़े लिखे प्रतिष्ठित लोगों को भी भाड़ मंडली अथवा नाच मंडली की तरह खान पान में सबसे अन्त में बुलाने लगे। इस पर लोगों ने एतराज किया और प्रायः अब ऐसे आयोजनों में जाना अपनी प्रतिष्ठा के विरूद्ध समझने लगे हैं।

जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ हमारे गाँव में बसंत पंचमी का आयोजन एक विशेष श्रद्धा और विश्वास के साथ भक्ति भावना से ओत प्रोत होता था। गाँव के महावीर जी चबूतरे पर  प्रातः काल पहले हवन होता था, जिसमें ताजे जौ गुड़, और घी मिलाकर हाबुस बनाया जाता था। उससे यज्ञ भी किया जाता था तथा वहीं प्रसाद के रूप में उपस्थित लोगों को बाँटा भी जाता था। दोपहर में घर घर में पकवान बनते थे, जिसे खा पी कर अपराहन में पुनः हनूमान जी के मन्दिर पर लोग जुटते थे। जहाँ प्रत्येक वर्ष बदल बदल कर बनारस एवम् मिरजापुर के प्रसिद्ध गवइये आमंत्रित किये जाते थे। जो भजन और पक्के राग में देर रात तक हार्मोनियाम बजा कर अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। उस अवसर पर हम जैसे बच्चों के लिये एक बहुत ही आकर्षक घटना होती थी। हमारे गाँव के पास ही स्थित शिव पुर के बाबू साहब प्रत्येक वर्ष अपने हाथी पर बैठ कर इस आयोजन में पधारते थे। बाबू साहब अच्छे जमीदार थे। बड़े लम्बे मोटे कद के तथा बड़ी बड़ी गलमूछों वाले, किन्तु स्वभाव के बहुत ही विनम्र औ प्रशान्त। वे जब भी आते तो सबसे पहले हाथी हनुमान जी के सामने चबूतरे के नीचे ही सड़क पर खड़ा हो कर हनुमान जी की तरफ मँुह कर के तथा सूँड़ उâपर उठा कर चिल्लाता था। साथ में अपना पैर भी उठाता था। इसके बाद महावत द्वारा दिये गये फूल अथवा माला को महावीर जी के उâपर फेंकता था। उसके बाद महावत के इशारे से हाथी बैठ जाता था और फिर सी़ढियों के सहारे बाबू साहब नीचे उतरते थे। बाबू साहब उतर कर पहले मंदिर के डेवढ़ी पर माथा टेकते थे, और फिर वहाँ उपस्थित हमारे बाबा तथा अन्य प्रतिष्ठित लोगों को चरण स्पर्श कर के प्रणाम करते थे। यह दृश्य हम जैसे बच्चों के लिये बड़े आनन्द और कौतूहल का होता था। कहाँ गाँव के फटे हाल लोग अधिकांश नंगे बदन और कहाँ बाबू साहब राजसी ठाठ बाट में शेरवानी चूड़ी दार पजामा और नकासी दार गोल टोपी लगाये रहते थे, तथा गले में सोने और मोतियों की माला पहन कर आते थे। पॉव में मोजा और चमचमा जूता। यह सब उनके व्यक्तित्व को और भी आकर्षक बना देते थे। इस आयोजन में बाबू साहब बहुत देर तक तो नहीं बैठते थे, जल्दी ही सबको प्रणाम करके और महावीर जी को माथा टेक कर जैसे आते थे, वैसे ही चले जाते थे। सम्भवतः इसका कारण उनका स्थूल शरीर और चूड़ीदार पजामा तथा मात्र दरी पर बैठना उनके लिये आरामदायक नहीं रहता था। गाँव वाले भी शायद उनको विशेष सुविधा देना व्यवहारिक नहीं समझते थे, अतः वे शीघ्र ही चले जाते थे। उनके आगमन से उस आयोजन को गौरव मिलता था। पता नहीं अब यह परम्परा चल रही या नहीं, मैं नहीं जानता, क्योंकि कई दशकों से बसंत पंचमी पर मेरा गाँव जाना सम्भव नहीं हो पाया है।

दशहरे पर हमारे यहाँ दुर्गा पूजा का भी आयोजन होता है। जिसमें गाँव के लोग विविध प्रकार के भेष बना कर जोकर बन कर गँवारा घूमते थे, और अपने हाव भाव और प्रहसन के द्वारा रिश्तेदारों और नातेदारों से हंसी मजाक करते हुये आगे बढ़ जाते थे। इस प्रकार हर दरवाजे के सामने एक आनन्द का दृश्य उपस्थित हो जाता था। फागुन के महीने में महीना प्रारम्भ होते ही नवयुवको की टोलियाँ जगह जगह रात में ढोलक और मजीरे के थाप पर होली गीत गाते थे। होली के दिन में अबीर गुलाल उड़ाते हुये विभिन्न टोलियाँ गँवारा घूमती थीं। जिसमें अनेक प्रकार के अश्लील गाने भी गाये जाते थे। किन्तु मेरे बाबा के भय से उनकी मर्यादा का ध्यान रखते हुये, हमारी गली में अश्लील गाने न गा कर लोग भजन अथवा अच्छे होली गीत गाते थे। किन्तु अब वह मर्यादा आज कल के नवयुवक प्रायः नहीं निभाते हैं। गवाँरा घूमने वाली टोलियाँ गाँव में चार पाँच प्रतिष्ठित लोगों के दरवाजों पर बैठ कर होली गाती थीं, जहाँ उनका रूचि के अनुसार पान, तम्बाकू, सुर्ती, बीड़ी इत्यादि से स्वागत होता था। जमीदार के जमाने में नाद में रंग घोर दिया जाता था और उसमें कपड़ा भिगो कर लोगों को सिर पर गार कर होली खेली जाती थी। इधर बीच एकाध बार मैं होली पर गाँव गया तो पहले वाला उत्साह मुझे नहीं दिखाई दिया। प्रथा किसी तरह से चल रही है, किन्तु वो उत्साह और भाव अब नही रहा। दीवाली के दूसरे दिन ग्वालों की टोली अपने लाठी डण्डे के साथ सिर पर पगड़ी बाँधे तथा नये, वस्त्र धारण कर अपने ढोलक और करताल की थाप पर बिरहा गाते हुये गँवारा घूमती थी। उस दिन ग्वाले दूध नहीं बेचते थे। उसका स्वयम् ही पकवान बनवा कर आनन्द लेते थे। दीवाली के दिन ग्वालों के घर उनके रिश्तेनाते के लोग भी जुटते थे, और खूब मेहमान बाजी होती थी।

अपने बचपन में हमने ग्वालों के द्वारा एक विशेष प्रकार का धार्मिक आयोजन बड़े उत्साह से मनाते हुये देखा है। उस दिन गाँव के सभी ग्वाले अपना दूध एक पूर्व निश्चित स्थान पर पहँुचा देते थे। उस सारे दूध से एक बड़े कराह में खीर बनायी जाती थी। इसके अलावा उस दूध को अहरा सुलगा कर बड़ी बड़ी गगरियों में दूध गर्म किया जाता था, और जब दूध खूब उबलने लगता था, तब एक दर्शनियाँ उन गगरियों में से उबलता हुआ दूध ले कर उससे स्नान करता था तथा गाँव के बारे में भविष्य वाणी करता था। ऐसी मान्यता थी कि गर्म दूध से स्नान करने से उसके उâपर देवता का वास हो जाता है, और वह वर्ष भर में बाढ़ आयेगी कि नहीं, महामारी का प्रकोप होगा कि नहीं, कितने घरों में आग लगने की सम्भवना रहेगी, इस तरह की बातें वह दर्शनिया बतलाता था, जिसे लोग बड़ी श्रद्धा और विश्वास से सुनते थे। इसके बाद लाई चना और गुड़ का प्रसाद बाँटा जाता था, तथा सक्रिय कार्यकर्ताओं को खीर का प्रसाद भर पेट खिलाया जाता था, और उसके बाद देर रात तक बिरहा गायन, लाठी भाँजने का कर्तव अथवा नृत्य इत्यादि होते थे। इस आयोजन में आस पास के गॉव के अहीर भी श्रद्धा पूर्वक भाग लेते थे। इस आयोजन की कोई तिथि निश्चित नहीं थी। इसी प्रकार गाँव के एक निश्चित दर्शनिया किसी भी मंदिर पर किसी खास दिन जुट कर हवन करने और पूड़ी हलवा चढ़ाने का ढिढोरा डुग्गी बजवा कर गाँव में कर देते थे। डुग्गी बजाने वाला हर नुक्कड पर डुग्गी बजा कर और चिल्ला कर इस आयोजन की सूचना देता था। इन आयोजनों में अधिकांश महिलायें ही भाग लेती थीं। किन्तु ये सब आयोजन मुझे अन्ध विश्वास से लगते थे। जो बातें सामान्य रूप से सभी लोग जानते थे, वही दर्शनिया भी आयोजन कर के कहता था। दूध से स्नान करना भी एक ढोंग ही है। क्योंकि सकरे मँुह वाली गगरी में उबलते दूध की झाग जमा हो जाती है। जो प्रायः उतनी गर्म नहीं होती किन्तु इन आयोजनों में भीड़ काफी जुटती थी। और अज्ञानता वस सीधे सादे ग्रामीण सत्य भाव से उनको ग्रहण करते थे। कभी कभी ओझा लोग भूत प्रेत उतारने का भी ढ़ोंग करते थे, जिसमें रोगी व्यक्ति कि बड़ी प्रताड़ना होती थी। गाँव में इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ एक सामाजिक विकृति के रूप में उस समय मान्य थी। किन्तु अब शिक्षा का प्रसार बढ़ जाने के कारण इस प्र्ाकार के झाड़ पँâूक के आयोजन अब कम होते जा रहे हैं। इस प्रकार के कार्यो में मुसलमानों के कुछ मुल्ले और मौलवी भी सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं। पीड़ित व्यक्ति महिला या पुरुष उन मुल्लाओं के सामने नाचने लगता था, और वे मोर पंख के झाडू से उसे स्पर्श कर के शान्त करने का भूत प्रेत निवारण को तत्पर रहते थे। पता नहीं इस सबो का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता भी है, अथवा नहीं। चूँकि प्रकृति स्वयं एक रहस्य है, जिसके बारे में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष क्रियाकलापों की जानकारी सामान्य रूप से प्रगट नहीं हो पाती, जिसका लाभ कुछ चालाक लोग अपने लाभ के लिये चाहे आर्थिक लाभ हो या न हो, किन्तु यश और प्रतिष्ठा तो मिल ही जाती है। इन सभी आयोजनों का वैज्ञानिक आधार पर सत्यता का निरूपण न तो हो पाया है और न ही आगे होने की सम्भावना है। समस्याओं का जितना भी समाधान निकालने का प्रयास हो रहा है, उतनी ही प्रकृति के इन रहस्यों की विविधता और विशालता अधिक से और अधिक होती चली जा रही है। इस तरह रहस्य रहस्य ही बना रह जाता है। इस प्रकार की घटनायें भारत के प्रत्येक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी ऐसी मान्यताऐं और परम्परायें प्रचलित है। जैसा कि विभिन्न देशों के साहित्य से पता चलता है। बंगालियों में काला जादू बड़े श्रद्धा और विश्वास से मान्य है। यन्त्र, मंत्र और तंत्र की दुनिया अपने अच्छाईयों और बुराइयों के साथ हर देश और काल में प्रचलित रही है, और इनसे छुटकारा पाना सम्भवतः मनोवैज्ञानिक कारणों से सम्भव नहीं लगता। गाँव सम्बन्धी इन सब बातों का विवरण देना मैने आवश्यक समझा जो मेरे मन और मस्तिष्क पर बचपन से ही छाये हुये थे और जिनका रहस्य मैं आज भी समझ नहीं पाया हूँ।

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अध्यात्मकुटीरनिर्माण

अवकाश प्राप्ति के शर्तो के अनुसार मुझे छः महीने के अन्दर महाविद्यालय का अध्यापक आवास छोड़ देना था। १९९५ में अवकाश प्राप्ति के कुछ वर्ष पूर्व ही दारागंज के वासुकी खुर्द में मैने एक प्लाट ले लिया था, और उसमें कुछ मिट्टी डलवाकर चाहारदीवारी और गेट लगवा दिया था। किन्तु उस स्थान तक पहँुचने के लिए उस समय कोई समुचित मार्ग सुलभ नहीं था। चारों ओर गड्डे, और नाले का पानी भरा रहता था। अतः कई बार मन में आया की इस प्लाट को बेच दूँ और कहीं अच्छी जगह पर आवास बनवाऊँ, किन्तु संजोग ऐसा बना कि राजेन्द्र कुमारी बाजपेयी जी से जब मैंने इसकी चर्चा की तो उन्होंने इस क्षेत्र के शीघ्र विकास के लिए अपनी योजना मुझे बताई। कुछ काल बीतने के बाद भी वहाँ कुछ विशेष नहीं हो पाया था। किन्तु वे मुझे आश्वासन पर आश्वासन देती रहीं। एक बार तो मैंने बनारस में भी बसने का मन बना लिया था। क्योंकि वहाँ मेरे कई पारिवारिकों और रिश्तेदारों ने अपने आवास बना लिये थे। बनारस मेरे गॉव से नजदीक भी था। किन्तु जैसा प्रारब्ध होता है, वही होता है। मेरे सक्रिय जीवन के तीन दशकों से अधिक का समय चूंकि प्रयाग में ही बीता था, और चूंकि हमारे बच्चों की रिश्तेदारियाँ भी सब की सब प्रयाग में ही हो गयी थीं, अतः यहाँ के लिये भी लगाव कम नहीं था। इस बीच मेरे सौभाग्य से धीरे धीरे इस क्षेत्र का समुचित विकास भी होने लगा। पहले जहाँ अपने प्लाट तक पहुँचने के लिऐ फुलवरियाँ रोड से आ कर अपने वाहन को सड़क पर ही छोड़ कर हरिजन बस्ती के बीच से नाली डाँकते कूदते बड़ी मुश्किल से अपने प्लाट तक पहुँचना पड़ता था, और प्लाट के पास भी केवल एक दो आवास ही बन पाये थे। चारो ओर गंदगी और बदबू का वातावरण था। वहाँ कुछ ही दिनों के बाद सड़कें बन गयीं थीं। यद्यपि लोगों ने नक्शे के अनुसार बीस फीट चौड़ी सड़क पर कब्जा कर के कहीं कहीं तो १७-१८ फीट ही सड़क रहने दिया था। किन्तु जहाँ कुछ भी नहीं था, वहाँ अब कम से कम १८ फीट चौड़ी सड़क उपलब्ध हो गयी थी। सड़कों पर मिट्टी पाट कर खड़ंजा भी लग गया था। वासुकी बाँध से ढाल बना कर मेरे प्लाट तक पहँुचने के लिए एक सीधी सड़क बन गयी थी। जिससे अब फुलवरियाँ रोड की ओर मुझे जाने की आवश्यकता नहीं थी। यह सुविधा प्राप्त हो जाने के बाद मैने संकल्पित मन से प्रयाग में ही आवास बनाने का निर्णय ले लिया। अवकाश प्राप्ति के प्रश्चात् मुझे विद्यालय से भी कुछ अर्थ लाभ हो गया था। गाँव की जमीन से भी मैने कुछ आर्थिक सहयोग प्राप्त किया। इस प्रकार प्रारम्भ में प्लाट में और मिट्टी पटवाने के बाद मैने दो कमरे, एक किचन, एक बरामदा, एक शौचालय और एक स्नानागार का निर्माण करा लिया। इस प्रकार अध्यापक आवास से विद्यालय की शर्तो के अनुसार समय से पूर्व ही मैने आवास को खाली कर दिया। और मैं अपने नये आवास ‘‘अध्यात्म कुटीर’’ में आ गया था। अर्थाभाव के कारण तब तक दरवाजे और खिड़कियाँ भी नहीं लग पाई थी। किन्तु शुभ मुहूर्त में मैने गृहप्रवेश का धार्मिक संस्कार सम्पन्न कर के बिना खिड़की दरवाजे के आवास में आ कर मैं रहने लगा। मोहल्ले के लोग यह स्थिति देख कर आश्चर्य प्रकट करते, कि वैâसे बिना खिड़की दरवाजे के आप यहाँ रहते हैं। किन्तु मैं पूर्ण रूप से ईश्वर के आधीन रह कर अपने को सुरक्षित महसूस करता रहा। धीरे-धीरे खिड़की दरवाजों की भी व्यवस्था पूर्ण हुई, बिजली और पानी की भी सुविधायें यथा योग्य उपलब्ध हो गयी। खाली पड़े प्लाट में कृषि का विद्यार्थी होने के कारण विविध प्रकार की सब्जियाँ उगा कर मैं अपने परिवार के साथ आनन्द पूर्वक रहने लगा। धीरे-धीरे जैसे-जैसे आर्थिक सुविधायें उपलब्ध होती गयी, मैने दो और कमरे और एक लम्बे बरामदे का निर्माण करा लिया। और कुछ दिनों बाद शेष प्लाट में भी निर्माण कर के एक बड़ा हाल, बरामदा दो शौचालय और स्नानागार तथा एक विस्तृत रसोई घर बना लिया। जैसा की मनुष्य का स्वभाव होता है, अधिक सुविधा भोगी होने का, कुछ चीजें तो आवश्यक होती हैं, किन्तु अधिकांश निर्माण मात्र लोभ के कारण और दिखावे के कारण ही बनाये जाते है। जहाँ प्रारम्भ में मुझे दो कमरे में भी अभाव नहीं लगता था, वहाँ इतना बड़ा मकान बन जाने पर भी लगता है कि कुछ और कमी रह गयी है। मै तो ऐसा व्यक्ति रहा हूँ, कि गाँव में दुरदिन के क्षणों में भी मैंने अपने जीवन के मूल्यवान पन्द्रह सोलह वर्ष काटें है। जहाँ तक भौतिक सुविधाओं के भोग का सवाल है, मुझे सौभाग्य से दिल्ली और पिलानी में सर्व सुविधा सम्पन्न आवासों में रहने एवम् सामान्य से बहुत उच्च कोटि का सुख भोग प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो चुका है। यहाँ तक की राष्ट्रपति भवन में भी आतिथ्य ग्रहण का सुयोग भी मुझे मिला है। तिरवा में मैने अपने स्वभाव के कारण अनुकूल परिस्थितियों में मनोनुकूल सुख भोग किया, जो सामान्य रूप से दुर्लभ की कहा जायेगा। एक ओर जहाँ देवरिया महाविद्यालय के छात्रावास का अत्यन्त अभाव पूर्ण जीवन मैने जिया है, वही आगरा के बलवन्त राजपूत कालेज के छात्रावास का सुख भोग भी मुझे सुलभ हुआ है। तिरवा में मुझे राजकीय सम्मान मिला जिससे मैं गद्गद् था। चूंकि मैं वहाँ पहले पहल कमासुत बना था, अभाव के पश्चात् एकाएक पर्याप्त आय होने लगी थी, और वहाँ किसी प्रकार का नियंत्रण भी नहीं था। अतः मेरे खान पान में उच्च कोटि की दिव्यता थी। प्रारम्भिक शौक भी था।

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अर्धाङ्गिनी के सानिध्य में पाँच दशक

जब से तुम मेरे घर आई खुशियों की बारात लिए।

घरभर के हिय मन में छाई, नवल प्रेम, मधुमास लिए।।

निर्मल सरल स्वभाव तेरा, सेवा संयम, व्यवहार कुशल।

गृह कार्यों में पूर्ण दक्ष, वाणी, विवेक, मुस्कान विरल।।

माता पिता विदाई में, थे दिये विपुल उपहार तुम्हें।

कभी न कुल में मिला किसी को, बिन माँगे जो मिला हमें।।

मेरे जीवन में आया, जब नव बसन्त, अनुराग भरा।

तृप्त हुई तव स्पर्शान्जलि से मेरी प्यासी हृदय-धरा।।

संयम, सेवा, हँसमुख स्वभाव से, घरभर का मन मोह लिया।

माँ सङ्ग, आजी का, विशेषकर, हृदय, पूर्णत: जीत लिया।।

मेरी जीवन नइया की, माझी तुम कुशल, साध पतवार।

करने लगी पार भवसागर, कभी न पँâसी बीच मजधार।।

मैं तुमको ‘साहब’ कहता था तुम भी मुझको ‘साहब’ कहती।

दो तन नाम एक आत्मा एकता प्रवृत्ति प्रगटती।।

कभी न ऐसा हुआ कि तुमने, कहना मेरा नहीं माना।

अपना दुख मेरे सुख खातिर, सुखस्वरूप तुमने जाना।।

जीवन के हर मोड़ पर तुमने, साथ निभाया मेरा।

हर हलचल हर उथल-पुथल में उत्साह बढ़ाया मेरा।।

बनी प्रेरणास्रोत हमारी, कविता की खेती में।

सम्भव हुआ सृजन मंगलमय, सूखी हिय-रेती में।।

हर तीर्थाटन, देशाटन में, साथ निभाई मेरा।

सेवक, रक्षक, सहयोगी, गृहिणी, सुमित्र, गुण तेरा।।

मैं रहता निश्चिंत सदा, पा तब आँचल की छाया।

दिन दिन लगी निखरने मेरी, जर्जर तन, मन, काया।।

गमक उठी बगिया मेरी, ऐसी जीवन सहचरी मिली।

आशाओं, आकांक्षाओं की, मन भावन हर कली खिली।।

तुम जैसी पत्नी पाकर मैं, बना परम अनुरागी।

काम वासना तृप्ति हुई संग, राम कामना जागी।।

कल्पवास, हर धर्म कर्म में, श्रद्धा और विश्वास बढ़ा।

आस्था की सूखी क्यारी, पुष्पित, पल्लवित विकास चढ़ा।।

पुत्री-पुत्र तीन-तीन पैदा पर, दैययोग दुर्भाग्य रचा।

हुए काल कवलित दो सुत, सौभाग्य एक कुल रत्न बचा।।

पुत्र रत्न देवव्रत पुत्रियाँ बन्दना, बीना, साधना।

पाकर हुआ गौरवान्वित मैं, पूर्ण युगल की कामना।।

विविध गृहस्थी कार्य सदा, तत्परता से तुम करती।

कभी न आलस, राग-द्वेष सद्भाव प्रेम रस भरती।।

कठिन कष्टप्रद कार्य जिसे, जीवन में पहले किया नहीं।

वह सब भी तुमने सप्रेम की, हँसी खुशी दुख रंच नहीं।।

यद्यपि तेरा प्रेम बंट गया, बच्चों के परिपालन में।

पर हार्दिक सद्भाव बढ़ गया सहज संतुलित लालन से।।

जब भी समय निकलता यद्यपि श्रमित किन्तु अपना लेती।

मुस्काती नजरों से तन, मन, हिय से गले लगा लेती।।

मैं भी सदा प्रतिक्षारत रहता, तुझको पा जाने को।

देर रात तक जाग जाग कर, तुझको गले लगाने को।।

यह सब जीवन का दैनिक क्रम, सबके हित तव जीवन प्राण।

पूर्ण संतुलित संयम, सेवा, सबको सुख कर, सबका त्राण।।

जब भी संकटग्रस्त कभी मैं, तेरा प्राण विकल होता।

हर प्रयास कर दु:ख हरण हित, तत्परता, व्याकुलता।।

तेरी सेवा सुश्रुशा सम्बल शीघ्र स्वास्थ्यप्रद होती।

दवा संग तव दुआ वृत्ति, निश्चय प्रभाव कर बनती।।

तेरा निर्मल हृदय भाव, प्रभु तो करुणा के सागर।

भक्ति भावना लख तत्क्षण, दुख हर लेते नट नागर।।

केवल गुण ही गुण तुमने, अवगुण न कोई किंचित था।

भ्रमवश निन्दक भी तेरे, सद््भाव नहीं वंचित था।।

तेरी कुछ इच्छायें पूर्ण न हुई, मुझे इसका अफसोस।

सक्षम था सामर्थ्य भी पर, असमर्थ सोच दु:ख हृदय मसोस।।

श्रम करना बस हाथ जीव के, सुख दु:ख हानि लाभ परिणाम।

फलदाता के हाथ ज्ञान यह, करे दूर असन्तोष तमाम।।

कितना कहूँ कहाँ तक गाऊँ तेरी चिर जीवन गाथा।

अब तो मात्र हृदय मन्दिर की मूर्ति, समक्ष विनत माथा।।

स्वप्न लोक की परी बन गयी उड़कर चली गयी आकाश।

मैं धरती पर पड़ा रह गया खंडित सब आस्था विश्वास।।

एक बात से पूर्ण तुष्ट हूँ तेरा प्रण परिपूर्ण हुआ।

तेरी हार्दिक इच्छा जैसी सुसंकल्प सम्पूर्ण हुआ।।

तुम सधवा स्वर्गीय बन गयी तेरा चिर सौभाग्य विरल।

हालि लाभ जग जीवन आवागमन जीव प्रारब्ध अटल।।

अनहोनी जो हुई हमारे लिए अटल वह होनी थी।

पाया कभी अमूल्य रत्न वह असमय में ही खोनी थी।।

मेरी प्रभु से यही प्रार्थना तेरा जीवन हो सुख कर।

भव बन्धन से मुक्त करें जीवन चिर लक्ष्य प्राप्त सत्वर।।

अपने ही सब बने पराये किसको क्योंकर दोष लगाऊँ।

जीवन की यह रीति निराली सहज कर्मफल अपना पाऊँ।।

कौन है अपना कौन पराया स्वार्थी जग जीवन सब माया।

वही पुरुष प्रबुद्ध कहलाया जो माया से पिण्ड छुड़ाया।।

जग से क्या कुछ लेना देना सर्व भोग या चना चबैना।

सब स्थिति में सन्तोष से रहना परम शान्त कुछ कहना न सुनना।।

अब तो सद्् जीवन का क्रम है ईश्वर एक सत्य यह वाणी।

माया नगरी जग सब भ्रम है शास्त्र सन्त की अटल कहानी।।

अर्धाङ्गिनी के प्रति श्रद्धाञ्जलि

तुम गई आशा गई विश्वास भी डगमग हुआ।

अब कहाँ किसकी दवा किसके लिए करना दुआ।।

आज भी आँखों में अंकित अन्तिम सक्रियता तेरी।

पूजा घर में झाड़ू पोछा यद्यपि तन जर-जर हुआ।।

तुम पकड़ ली खाट अस्थि के दर्द से लाचार थी।

तेरी आह कराह करवट लेने में दर्द विकट हुआ।।

जितनी थी सम्भव दवा और दुआ सभी हुई मगर।

पर प्रबल प्रारब्ध आगे सब प्रयत्न बे असर हुआ।।

अन्त काल तुम्हारा क्रमश: देख तन, मन, हिय विकल।

वैâसे प्रगटू शब्द सीमा, गम को भारी गम हुआ।।

तुम तुम्हारे शब्द, जग व्यवहार, सब प्रत्यक्ष मन।

भावना का ज्वार हिय में तेरा प्रेम अमर हुआ।।

तन तो सबका क्षर हुआ क्षर किन्तु अक्षर आत्मा।

देह बंधन त्याग आत्मा मिली अन्तर कम हुआ।।

जब हुआ विश्वास बचना अब तुम्हारा असम्भव।

दृढ़ किया तन मन हृदय को, मुक्ति हित तत्पर हुआ।।

मानसिक सब तीर्थ का आह्वान, पूजा का प्रसाद।

महा मृत्युन्जय के मंत्र का जप स्वत: सस्वर हुआ।।

तुलसी गंगा जल तुम्हारे मुख में गीता मंत्र स्वर।

स्वयं शिव के भाव ‘राम’ का महामंत्र मुखर हुआ।।

मेरा दायां हाथ तेरे सिर पर, बायें कर में कर।

करने को अन्तिम विदाई, अश्रु जल निरझर हुआ।।

बहू बेटा बेटियां सबने ही तुलसी गंगा जल।

मुख में डाला सबके आगे, मुक्त तन बन्धन हुआ।।

एक पल के लिए तेरे नेत्र खुले निहारे जग।

धीर-धीरे श्वाँस मन्द से मन्द तर हो स्थिर हुआ।।

प्रिये तुम तो चल बसी जाना है सबको एक दिन।

किन्तु तेरी छटपटाहट दृश्य अन्तिम ज्वर हुआ।।

आज भी उस ताप से तन, मन जले, पीड़ित जिगर।

तेरी जैसी साध्वी का प्रारब्ध क्यों कर यह हुआ।।

अब तो जो होना था वह हो गया, सब अनुचित कथन।

स्वस्थता लक्षण दिखाकर अटल मरण वरण हुआ।।

काल आता है नहीं, वह है बुलाता सबको पास।

देह, इन्द्रिय, बुद्धि, मन, सब कालमय बरबस हुआ।।

काल के आगे न चलता, किसी का कुछ भी प्रयत्न।

सृष्टि से अब तक सदा, शाश्वत यही गति क्रम हुआ।।

तुम गई स्मृतियाँ तुम्हारे साथ की सब पास हैं।

पाँच दशकों का सकल इतिहास अजर अमर हुआ।।

जाना है सबको जो जन्मे जायेंगे सब एक दिन।

जब तक मेरी जिन्दगानी, प्रेम गीत अमर हुआ।।

तुम जहाँ भी जन्म लो प्रभु भक्ति सतत् मिले तुम्हें।

तुमको यह आशीष आत्म प्रणीत स्वत: मुखर हुआ।।

हे प्रभो जग जीव सब तब कृपा भक्ति वरण करें।

जीव तेरा अंश भ्रम वश भटकता अशरण हुआ।।

तव कृपा से जीव तेरी चरण शरण गहे प्रभो।

ऐसा दो वरदान सबको ‘प्रभामाल’ विनत हुआ।।

हमजोली बिना होली

यह मेरे जीवन की होली, पहली पहली बिन हमजोली।

सूना सूना लगे जमाना, स्मृतियों का है भरा खजाना।

क्या बोलूँ क्या बने तराना, सोच-सोच अब मन बहलाना।

स्मृतियाँ ही बस आज सहेली।।

होली की योजना बनाना, खुश होकर त्यौहार मनाना।

मिल-जुल कर पकवान सजाना, हँसी-खुशी खाना और खिलाना।

होली अब लगती ज्यों गोली।।

होली पर नव काव्य बनाना, गाकर तत्क्षण उन्हें सुनाना।

सुन खुश हो सन्तोष जताना, या सुधार करके मुस्काना।

लगता अब आयी अब बोली।।

होली पर हुड़दंग मचाना, हथकण्डे छिप छिपा दिखाना।

रंग अबीर गुलाल लगाना, उपटन से फिर स्वत: छुड़ाना।

अब किससे होली की ठिठोली।।

जीवन का चिर सत्य सुहाना, चोला नव चिर बाद्य पुराना।

प्रकृति नटी का ताना बाना, अकेले आना अकेले जाना।

युग-युग की अनबुझी पहेली।।

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पहले और अब

जब मैं अपने बचपन की ओर दृष्टिपात करता हूँ तो उस समय की धार्मिक, सामाजिक, और राजनैतिक गतिविधियों पर कुछ कहने का मन करता है। भारतवर्ष में स्वतन्त्रता के पूर्व और उसके बाद भी इन गतिविधियों में जमीन आसमान का अन्तर मुझे दिखाई देता है। जहाँ तक धार्मिक गतिविधियों की बात हैं, पहले प्रत्येक गाँव अपने आप में लगभग पूर्ण थे। जन साधारण में शिक्षित लोग बहुत कम थे। जो शिक्षित थे भी, वे गॉव से दूर जीवन यापन के लिये चले जाते थे। किन्तु दशहरा, दीपावली, होली आदि पर्वो पर इनका गाँव आना प्रायः सुनिश्चित रहता था। प्रत्येक गाँव में एक दो छोटे मोटे देवालय बने हुये थे, जहाँ हनुमान अथवा शिव जी की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित थीं। कहीं कहीं जहाँ सम्पन्न लोग थे वहाँ दुर्गा, काली, राम दरबार अथवा राधाकृष्ण की मूर्तियाँ भी स्थापित थी। जहाँ विशेष पर्वों पर सीमित दायरे में विभिन्न प्रकार के आयोजन होते थे, और सब लोग सक्रिय रूप से उसमें भाग लेते थे। सबके अन्दर श्रद्धा और प्रेम था। पढ़े लिखे लोगों के प्रति आदर भाव था। अनपढ़ लोग भी श्रद्धा पूर्वक एवम् उत्सुकता से इन आयोजनों का आनन्द लेते थे। तब न लाउडस्पीकर थे, न विद्युत प्रकाश, न आडम्बर। मात्र दीपक और मोमबत्तियों के प्रकाश में ही रामनवमी और जन्माष्टमी आदि मनायी जाती थी। दीपावली पर देवालयों में घी के दीपक जलाये जाते थे, और प्रत्येक घर में चौराहे पर, चबूतरे पर, गोशाला में तथा घूरे पर भी दीपक रखा जाता था। अधिकांश मकान प्रायः कच्चे थे, उन्हें गोबर से और पीली मिट्टी से लीप कर तथा उस पर चूना और गेरू से सजाया जाता था। तुलसी का चौरा पर भी लीप पोत कर दीपक जला कर पूजा की जाती थी। होली के अवसरपर केवल गुलाबी और बासन्ती रगों का ही प्रयोग होता था। लोग सीधे साधे सरल स्वभाव से आनन्द लेते और अपनी हैसियत के अनुसार पकवान आदि बनाते थे। जब तक दूसरे वर्ष का त्यौहार नहीं आ जाता था, तब तक पूर्व पूर्व वर्षों के विशेषताओं की चर्चा चला कर लोग आनन्दित होते थे। किन्तु बाद में क्रमशः इन सभी कार्यक्रमों में विकार आते गये। श्रद्धा और आस्था की जगह दिखावट की होड़ सी लग गयी। सरलता ने कुटिलता का रूप ग्रहण कर लिया है। तथा प्रत्येक क्रिया कलाप में राग द्वेष पनपने लगा। पहले अभाव में आनन्द की अनुभूति होती थी। किन्तु भौतिकता के आक्रमण से आपसी राग द्वेष दिनों दिन बढ़ने लगा। और आज की स्थिति ऐसी हो गयी है कि तीज त्यौहार आस्था और विश्वास तथा प्रेरणा के केन्द्र न रह कर मात्र किसी तरह परम्परा के निर्वाह का केन्द्र बनते जा रहे हैं। यही नहीं अब इन आयोजनों में अपसंस्कृति ने जन्म ले लिया है। हुल्लड़ बाजी, अश्लीलता और उछृंखलता ने इन आयोजनों में जड़ें जमा ली हैं। जिसमें सभ्य लोगों का सक्रिय होना अब सम्भव नहीं रह गया है। ओछी अमर्यादित संस्कृति और तमाम विकृतियों ने इन आयोजनों में डेरा जमा लिया है। जिससे शांन्ति और आनन्द का लोप होता जा रहा है। यद्यपि आनन्द का प्राकट्य और संन्तोष की प्राप्ति व्यक्ति के अपने संस्कारों से बँधी है। इसे किसी प्रकार के नियम से बाध्य किया जाना सम्भव नहीं है। विशेष कर विभिन्न आयु वर्ग के लोगों, विभिन्न पद और प्रभुता के लोगों और धनी और गरीब के बीच शान्ति व आनन्द के लिये किसी भी प्रकार की नियम का लादना सम्भव भी नहीं है। एक विशेष वर्ग जिसे नैतिक समझेगा, दूसरे वर्ग के लिए वहीं अनैतिक आचरण होगा। यह सब सम्भावना बनी रहेगी। और यह प्रवृति विशेषकर कुछ नवयुवकों में पाश्चात्य दर्शन से मिश्रित हो कर दिनों दिन बढ़ती जा रही है। जिसका जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुभव किया जा सकता है। पहले अभाव में आनन्द की अनुभूति होती थी। किन्तु भौतिकता के आक्रमण से रागद्वेष और दिखावे का वातावरण चारो ओर बढ़ता जा रहा है। आज की स्थिति ऐसी हो गयी है कि विभिन्न तीज त्यौहार, आस्था, विश्वास तथा प्रेरणा के केन्द्र न रह कर, किसी तरह मात्र परम्परा के निर्वाह का केन्द्र बनते जा रहे हैं। अब तो भौतिकता के दानव ने सहत्राबाहु की तरह अपनी भुजाओं को चतुर्दिक पैâला रखा है, जिससे प्रभावित हो कर लोग प्रदूषण की परवाह किये बिना चकाचौध की जिन्दगी जीना ज्यादा पसन्द करने लगे हैं। लाउडस्पीकरों का भयंकर शोर, सीमा के बाहर जा कर, विद्युत छटाओं की होड़, प्रायः हर प्रकार के आयोजनों में प्रभावशाली होती जा रही है। खान पान में भी अब पवित्रता और शुद्धता न रह कर विकृति ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया है। अश्लील गाने, अश्लील नृत्य तथा बड़े छोटों का ध्यान रखे बिना, अश्लील, अमर्यादित बात व्यवहार के कारण समाज दिनों दिन विकृत होता जा रहा है। इनमें सक्रियता से भाग लेने वाले इन विकृतियों से अनभिज्ञ नहीं है, फिर भी आश्चर्य होता है कि इनमें होड़ सी मची हुई है। ऐसा महसूस होता है कि समाज में जो जितना ही विकृति पैâलाने का प्रयास कर रहा है, वह उतना ही कद्रदान माना जाने लगा है। इस प्रकार की प्रथायें और परम्परायें दिनों दिन बढ़ती ही जा रही हैं, और इसको सीमाबद्ध करना असम्भव नहीं, तो मुश्किल जरूर लग रहा है।

सामाजिक रूप से हमारे बचपन में निर्धनता, अशिक्षा अपने चरम सीमा पर थ्ाी। प्रायः प्रत्येक गाँव में एक दो सम्पन्न और शिष्ट परिवारों के अलावा शेष सारा गाँव प्रजा वर्ग और मजदूर वर्ग के लोग थे। किन्तु सब में सन्तोष और सदाचार विद्यमान था। जो लोग शोषण, अत्याचार और सूदखोरी अथवा शराबी पना से पीड़ित थे, उन्हें समाज में प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त थी। वर्ण और आश्रम व्यवस्था में गाँव की संस्कृति सम्यक रूप से संचालित थी। प्रत्येक वर्ग के लोग एक दूसरे वर्ग पर आश्रित थे। जन्म से ले कर मृत्यु तक के संस्कारों में किसी न किसी रूप में सभी वर्गों का बिना सहयोग पाये संस्कार पूरे नहीं हो पाते थे। पूरा गाँव का समाज एक परिवार के रूप में व्यवहार करता था, और एक दूसरे की सहायता करने को तत्पर  रहता था। अभिशाप मय जीवन होते हुये भी विभिन्न वर्गों में किसी प्रकार की कटुता नहीं थी। समाज में सब का अपना अपना स्थान सुरक्षित था, और इस प्रकार पूरे गाँव का समाज तदनुसार अपना कार्य व्यवहार निभाता था। जिनके पास जमीन थी, वे सुखी तो थे ही, किन्तु जिनके पास जमीन नहीं थी वे प्रजा वर्ग के लोग यद्यपि अभाव ग्रस्त थे, मजदूरों के लिए मजदूरी ही उनके जीवन का आधार था। ऐसे अभावग्रस्त परिवारों के प्रायः प्रत्येक सदस्य छोटे से लेकर बड़े तक परिश्रम कर के अपना जीवन यापन करते थे। उस समय गाँवों में अधिकांश लोगों के पास न तो अपनी जमीन थी, न अपना आवास और न भोजन और कपड़ें की ही समुचित व्यवस्था थी। किन्तु फिर भी वे संतुष्ट थे, और गाँव के श्रेष्ठ सम्पन्न लोग उनके दुःख सुख में उनका सहयोग करने में पीछे नहीं रहते थे। विशेष कर हमारे गाँव में जो गंगा और जरगो नदी के दोआब में बसा है, इस तरह के बारह गाँव दोवाबा में बसे हैं। जहाँ प्रत्येक वर्ष बाढ़ का प्रकोप रहता है। अधिकांश मकान चूँकि छप्पर और मिट्टी के बने थे, बाढ़ में गिर जाते थे, और उन्हें नये सिरे से प्रायः प्रत्येक वर्ष सरकारी अनुदान से नवनिर्माण करना पड़ता था। छप्परों में अकसर आग भी लग जाया करती थी, जिससे मोहल्ले का मोहल्ला खाक बन जाता था। हमारे गाँव में मेरा परिवार ऐसा लगता है कि गाँव में सबसे पहले आया होगा। क्योंकि सबसे ऊँची जमीन पर हमारा ही घर है। १९४८ और १९७१ तथा १९७६ की बाढ़ों में जब कि गाँव की प्रत्येक गली में बाढ़ का पानी आ गया था, किन्तु हमारे घर से चारो ओर मात्र पन्द्रह बीस परिवार ही बाढ़ के प्रकोप से बच पाये थे। हमारे घर से चारों ओर लगभग पचास मीटर दूर ही बाढ़ का पानी आ पाया था। बाढ़ और आग के प्रकोप से लोग तबाह हो जाते थे और गरीबी में आटा गीला की कहावत प्रायः प्रत्येक वर्ष चरितार्थ हो जाती थी। इन प्राकृतिक प्रकोपों के अलावा उस समय महामारी का प्रकोप भी रहता था। प्रायः प्रत्येक गाँव में हैजा, प्लेग और चेचक से लोग पीड़ित हो जाते थे। प्लेग आने पर लोग गाँव छोड़ कर खेतों में झोपड़ी डाल कर रहते थे। तब रोग निवारण की भी उतनी सुविधायें नहीं थी, जिससे जन हानि प्रायः हर साल होती रहती थी। जो कुछ सरकारी अनुदान और सहायता प्राप्त होती थी, वह भी विलम्ब से और ऊँट के मुँह में जीरा के बराबर ही सामान्य लोगों को लाभ हो पाता था। जिनकी पहँुच अधिकारियों तक होती थी, वे ही इसका अधिकांश लाभ उठा लेते थे। बहुत सा सामान तो ब्लैक से बाजार में पहुँच जाता था। आग, बाढ़ और इन छूत की बीमारियों से जन जीवन बेहाल रहता था। बाढ़ में तो चूंकि बाढ़ धीरे-धीरे आती थी, इस लिए लोग पकी अथवा अधपकी फसल को काट लेते थे, और उसे सुरक्षित स्थानों पर पहुँचा देते थे। किन्तु जब आग लगती थी तो घण्टे आधे घण्टे में ही सब कुछ स्वाहा हो जाता था। हवा के रूख के अनुसार अधिंकाश घर भष्मीभूत हो जाते थे। उस समय फायरबिग्रेड आदि तो थे नहीं, लोग कुएँ, तालाब अथवा नदियों से पानी भर भर कर आग बुझाने का प्रयास करते थे। लोगों को अपने घर की चिन्ता ज्यादा रहती थी। फूस के छप्परों पर आग लगते ही लोग अपने अपने छप्परों पर प्रर्याप्त पानी छिड़क देते थे, और जैसे ही कोई जलती हुई चिन्गारी गिरती थी, उसे तुरन्त बुझा देते थे। किन्तु आग लगे घर के आस पास के लोगों का बचाव करना जल्दी सम्भव नहीं होता था। ऐसे अवसरों पर कुछ लोग मंत्र पढ़ कर, अथवा तान्त्रिक दृष्टि से ढेला फेंक कर आग बुझाने का प्रयास करते थे। किन्तु इसका कितना प्रभाव पड़ता था ये तो वही जाने। किन्तु गाँवों में एकता और सहयोग की इतनी प्रबल भावना होती थी, कि सब लोग मिल जुल कर यथा साध्य सहायता करते थे। कई बार तो ऐसा हुआ कि कुएँ में भी पानी नही रह गया और दूर दूर से पानी ला कर लोगों ने परिश्रम पूर्वक आग पर काबू पाने का प्रयास किया। ऐसे समय में शत्रु मित्र का भेद भुला कर सभी लोग सहयोग करते थे। मुझे भी कई बार आग की इन विभीषिकाओं में सहयोगी बनने का अवसर प्राप्त हुआ था। एकाध बार तो मैं बड़े सकंट में पड़ गया था। हमारे पटिदारी में एक घर में आग लग गयी थी, वे आभूषणों का बक्सा भूसे में छिपा कर रखे थे, और उसी को खोजने में जब मैं उनका सहयोग कर रहा था उसी समय उनका छप्पर हमारे सिर पर जलता हुआ आ कर गिर गया। पैर में भी जलते हुये भूसे से छाले पड़ गये थे। मेरे पटिदार ने मुझ पर विश्वास कर के उस आभूषणों के गहन्ो खोजने में सहयोग माँगा सो मैंने दिया भी। किन्तु मेरे सिर हाथ और पैर बुरी तरह झुलस गये थे। मैं केवल जाघिंया पहने हुये था और जब आग बुझा कर मैं घर पहुँचा तो उसी दिन संयोग से मेरे ससुराल से चौथ ले कर कुछ मेहमान आये हुये थे। जब मैं हाथ मलता हुआ घर पहुँचा तो मेहमानों को देख कर कुछ झिझक हुई। माँ ने तुरन्त गरी का तेल और कपूर इत्यादि लगा कर मेरा उपचार किया और फिर मैं अतिथियों के खातिरदारी में लग गया। चूंकि ऐसी घटनायें गाँव में प्रायः होती थीं, जिसमें थोड़ा बहुत जल जाना स्वभाविक होता था। अतः इस प्रकार के जलन के कारण कुछ खास परेशानी नहीं होती थी, और दो चार दिन में सब सामान्य हो जाता था। बाढ़ आने पर गाँव के लोग प्रातः और सायं नाव पर बैठ कर दूसरे गाँवों में जो ऊँचाई पर बसे थे वहाँ पर नित्य क्रिया के लिए जाते थे, और रास्ते में वृक्षों पर लिपटे साँपों, गिलहरियों, चूहों, बिल्लियों तथा कुत्तों को छप्परों पर से चिल्लाने और दुःख भरी आँखों से सहायता की याचना करने का दृष्य बड़ा मार्मिक लगता था। किन्तु सुरक्षा की दृष्टि से नाव पर बैठे यात्रियों की जिन्दगी को खतरे में नहीं डाला जा सकता था। क्योंकि उनको बचाने में साँप व बिछुओं के भी नाव पर आ जाने की सम्भावना रहती थी। और इस प्रकार भय के वातावरण में नाव के डूब जाने का डर रहता था। अतः इन पीड़ित जीवों के लिये भाव रहते हुये भी कोई सहायता नहीं पहुँचाई जा पाती थी। हमारे गाँव में आग से बचाव के लिये डुग्गी बजा कर लोगों को सावधान किया जाता था कि कोई राह चलते बीड़ी, सिगरेट न पीये। हुक्का भी घर के बाहर चबूतरे पर पीये। भोजन बनाने के बाद आग बुझा दिया जाये। आग को सुरक्षित रखने के लिये आग को राख से ढ़क कर आँगन में रखा जाये। इस प्रकार लोगों को सावधानी बरतने के लिये सूचना दी जाती थी। परम्परा अनुसार हमारे घर में होली की आग को साल भर जीवित रखा जाता था। वह कभी भी बुझने नहीं पाती थी। और तब दिया-सलाई आदि की परम्परा न होने के कारण प्रायः पटिदारी के लोग मेरे घर से आग ले जा कर अपने घर चूल्हे जलाते थे। इन सारी सावधानियों के बाद भी किसी एक की गलती से मोहल्ले का मोहल्ला और गाँव का गाँव आग की विभीषिका से पीड़ित होने को बाध्य होता था। कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि अन्न व वस्त्र के साथ साथ अनेक पशु भी इस अग्नि के ज्वाला में असावधानी के कारण जल जाते थे, जो दृश्य बड़ा ही पीड़ा दायक होता था। जिस घर का सब कुछ आग में जल जाता था, उनके पास रोने के लिए आँसू भी नहीं रहते थे, वह दुःख पीड़ित नेत्रों से अपने घर को निहारता था। ऐसे दृश्य और ऐसे कष्ट को सहन करना वही समझ सकता है, जिसके ऊँपर यह बिपत्ति आ पड़ी हो।

बाढ़ के दिनों में तो हम बच्चे बहुत आनन्द लेते थे। जरगो नदी में जब तक जरगो बंधा नहीं बँधा था, तब तक बड़ा स्वच्छ और निर्मल जल बारहो मास बहता रहता था। नदी के तलहटी में कीचड़ का नामो निशान नहीं रहता था। मोटी बालू की परत तलहटी में रहती थी। हम लोग नदी में स्नान कर के ही तैरना सीख लिये थे। जब पानी बढ़ने लगता था, तो हम लोगों को घर वाले नदी में नहाने से मना करते थे। हम बच्चे दौड़ दौड़ कर घण्टे दो घण्टे बाद घर वालों को सूचित करते थे कि अब कगार के बराबर पानी हो गया है। अब अमुक व्यक्ति के खेत में पानी रेगने लगा है। अमुक व्यक्ति का खेत डूब गया है। अमुक दिशा का सिवान डूब गया है। और शौच के लिये अमुक के खेत में ही जाया जा सकता है। यह सब दिशा निर्देश हम बच्चे आनन्द लेते हुये एक दूसरे को देते थे। पानी की धारा में एक दूसरे लड़कों का हाथ पकड़ कर हम लोग घेरा बना लेते थे, और घर की महिलाओं को सुरक्षित शौच के लिए जाने और सुरक्षित लौटने की व्यवस्था करते थे। और फिर जब पूरे गाँव में बाढ़ का पानी घिर जाता था, तो नाव पर बैठ कर दो तीन किलोमीटर दूर गाँव में नाव से जाना पड़ता था। ऐसे वातावरण में हम बच्चे भय मिश्रित आनन्द लेते थे। कभी कभी तो ऐसा भी हुआ कि पानी की तेज धारा के कारण और पानी की गहराई को न समझ पाने के कारण मल्लाहों का नाव पर से नियत्रंण वेकाबू में हो गया और नाव बह चली और इस बहती हुई नाव को किसी पेड़ की डाली पकड़ कर काबू में किया गया। इस तरह के खतरे और विषैले जीव जन्तुओं के नाव पर चढ़आने का भय बराबर लगा रहता था। एक बार का दृश्य तो मेरी आँखों में आज भी स्पष्ट है कि बाढ़ की तेज धारा में पड़ा एक बबूल का छोटा वृक्ष तेज धारा के कारण बराबर हिलता रहता था और उसी बबूल पर एक डाल पर एक बिल्ली, कई चूहे, गिलहरी और नेवले आदि डाल को पकड़ कर बैठे हुये थे और उसी पर एक बड़ा सा साँप भी लिपटा हुआ था। एक दूसरे के शत्रु मृत्यु भय के इस वातावरण में शत्रुभाव को भूल जैसे सहयोगी और सहायक बने हुये थे। प्रत्येक जीव को अपनी अपनी जान के लाले पड़े हुये थे। बाढ़ के दिनों में सरकारी अधिकारी बाढ़ की विभीषका का अनुमान लगाने और बाढ़ पीड़ितों को सहयोग में मिट्टी का तेल, दिया सलाई मोमबत्ती और चना चबेना बाँटने के लिये स्टीमर से आते थे। बाढ़ के बाद का दृश्य तो और भी भयानक होता था। चारों ओर कीचड़, सड़ी फसलों की दुर्गंन्ध, कीटे-मकोड़ें और मच्छर बीमारियों का प्रकोप, गिरे घरों का निर्माण की समस्या प्रायः प्रत्येक वर्ष मुँह बाये खड़ी रहती थी। किन्तु एक जो बड़ी प्रेरणा दायक थी कि इन सारे कष्टों और मुसीबतों के बीच पीड़ित लोग संन्तोष का जीवन जीते थे। ईश्वरीय विधान में उनका अटूट विश्वास था। ऐसी विकट से विकट परिस्थिति में भी जहाँ न खाने का ठिकाना था, न रहने का ठिकाना था, न पहनने का ठिकाना था, फिर भी गाँव के लोग अपूर्व साहस पूर्वक इस पीड़ा को सहन करते थे। यह उनका सन्तोष ही था जो उन्हें कष्टमय जीवन जीने के लिये साहस दिये रहता था।

मेरा गाँव

बरगद की छाँव मेरा गाँव अब उजड़ गया।

सुदृढ़ राष्ट्र नाव किस भँवर में बह बिखर गया।

न जिन्दगी का मूल्य है न धर्म कर्म ध्येय है।

न श्रेय है, न प्रेय है, मोह अप्रमेय है।

मनुष्य पशु की योनि में न भेद अब रहा कोई,

भोग, नींद, भय, मिथुन, की रीति नीति नित नई।

गाँव की न आम्रकुंज, पुष्प वाटिका रही।

न कहकहे चौपाल के न पनघटों की चुहुल रही।

हाय मेरे गाँव का अतीत कहाँ खो गया।

रूप गुण स्वभाव गया नाम मात्र रह गया।

गोधूलि ब्रह्म काल की असत् लगें कहावतें।

नदी नहर कछार खेत बाग की शरारतें।

नहीं है अब वो भोलापन नहीं श्रमिक का पुष्ट तन।

ऐसा लोकतंत्र गाँव भर का मन बिगड़ गया।

न अब अतिथि वरिष्ठ पूज्य संत हित हैं भाव।

वह अर्थ का अनर्थ सतत भोग रोग में निरत।

वाह्य शत्रु आये लूटपाट कर चले गये।

धर्म जाति पर प्रभाव राज्य तक बदल गये।

संकटग्रस्त राष्ट्र बहुत उथल पुथल कर गये।

बदला इतिहास संग भूगोल भी बदल गये।

पर हमारे गाँव, गाँव ही रहे न कुछ घटा।

आँधियाँ अनेक पर मिटी न गाँव की छटा।

अपने लोकतंत्र ने ही गाँव को नरक किया।

समृद्धि स्वर्ण पात्र ने स्वयं ही गरल भर दिया।

युगों से वर्ण आश्रमी परम्परा का भाव था।

पूरक थे एक दूसरे के आदर चिर सद्भाव था।

गाँव सब हमारे जाति धर्म पंथ में बंटे।

नेह के जो नाते सभी आज कल कटे-कटे।

राजनीति का कलह चुनाव तन्त्र का जहर।

घुन सा खोखला किये हमारे गाँव प्रति पहर।

परमपिता हितार्थ जो प्राण अपना दे रहे।

आज अपने स्वार्थ हेतु विष के बीज बो रहे।

अब नहीं सिद्धान्त मात्र जाति-पाति गोत्र है।

भाई सगा स्वार्थ में बाधक तो परम शत्रु है।

जाति, धर्म, वर्ग, संग था समत्व भाव भी।

सूत्रवत थे एक सब अलगाव पर लगाव भी।

जाति धर्म शीलता थी गाँव की शालीनता।

पारम्परिक परिवेष पर पारस्परिक स्वाधीनता।

हमारे गाँव घर अटूट नातों रिश्तों से बँधे।

एक से सम्बन्ध यदि तो गाँव भर के सब सगे।

अब न वह उल्लास है अब न वह मिठास है।

अब न दूध, छाछ, रस भरा हुआ गिलास है।

रीति है न नीति है न धर्म न कर्म है।

बातें बस बड़ी बड़ी न प्रीति है न शर्म है।

समृद्धि उचित है मगर समृद्धि में है दोष भी।

करो उपाय गाँव हो सम्पन्न पर निर्दोष भी।

हों समृद्ध गाँव किन्तु गाँव ही रहे मगर।

आधुनिकता नाम पर नगर की न लगे नजर।

यही हमारी सांस्कृतिक परम्परा स्वधर्म है।

यही हमारी सभ्यता चिर दर्शनों का मर्म है।

उचित स्वलक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग भी उचित रहे।

लोक में समृद्धि संग परलोक पंथ निरबहे।

मेरी गतिविधियाँ

साहित्यिक गतिविधि –

विद्यालय के इन क्रिया कलापों के अलावा मैं डॉ० रामकुमार वर्मा द्वारा स्थापित ‘‘ऋतुराज’’ संस्था का भी सक्रिय सदस्य बन गया। जिसकी नियमित बैठकें ‘‘मधुवन’’ में उनके आवास, जो प्रयाग स्टेशन के पास था, तथा जिसकी बैठकें प्रत्येक शनिवार को शाम को होती थीं। जिसके माध्यम से एकांकी नाटकों के लेखन एवम मंचन का कार्यक्रम होता था, जिसमें मैं सक्रियता से भाग लेने लगा। उसी क्रम में नियमित रूप से काव्य गोष्ठियों का भी आयोजन होता था। जिसमें एक नियम बन गया था, प्रत्येक सप्ताह नयी लिखी हुई कवितायें ही प्रस्तुत की जायेंगी जिससे सभी सदस्यों में बड़ा उत्साह और उत्कंठा बनी रहती थी। इन गोष्ठियों में वैâलाश कल्पित, राजेन्द्र मिश्र, मैं तथा अवधेश अवस्थी नियमित रूप से उपस्थित रहते थे। इस प्रकार ७० के दशक के बाद मैने अनेक रचनायें प्रस्तुत की। उसी काल में ‘‘जय किसान’’ नाम से मैने एकांकी भी लिखा जिसकी डॉ० रामकुमार वर्मा ने बड़ी प्रशंसा की और मुझे पुरस्कृत भी किया था। १९६९ में मैंने एक उपन्यास ‘‘अवगुंठन की ऊँचाइयां’’ भी लिखा जिसे उत्तर प्रदेश के सहकारिता विभाग ने पुरस्कृत भी किया।

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मेरे आवास पर होने वाली गोष्ठियों में पं. पद्मकान्त मालवीय, सोहन लाल द्ववेद्वी, उमाकान्त मालवीय, अंजनी कुमार दृगेश, नौबतराय पथिक, शकुन्तला शिरोठिया, विद्यावती कोकिल, महेन्द्र कुमार नीलम, ब्रह्मानन्द श्रीवास्तव, भोलानाथ गहमरी, राजेन्द्र मिश्र और श्रीधर शास्त्री आदि आते रहे। अब भी प्रतिवर्ष तुलसी जयन्ती पर, एवं मेरे जन्मदिन ८ जनवरी को मेरे आवास पर गोष्ठियाँ होती हैं जिसमें ‘युग-भारती’ एवं ‘वैचारिकी’ के अनेक सदस्य जैसे कृष्णेश्वर डिंगर, शिवराम उपाध्याय, राजाराम शुक्ल, हीरालाल पाण्डेय, वैâलाश नाथ पाण्डेय, देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ‘देवेश’, सुरेन्द्र नाथ ‘नूतन’, दयाशंकर पाण्डेय, डा. संत कुमार, विवेक सत्यांशु, श्रीराम मिश्र ‘तलब जौनपुरी’, शिवमूर्ति सिंह, डॉ. रामकिशोर शर्मा, जय प्रकाश ‘प्रकाश’, रमेश द्विवेद्वी, शम्भू नाथ तिवारी, चिरकुट तथा अनगढ़ आदि पधारते हैं।

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जहाँ तक साहित्यिक गतिविधियों का सवाल है मैं सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा, बृजेश्वर वर्मा, डा. रामकुमार वर्मा, डा. जगदीश गुप्त, डा. माता बदल जायसवाल आदि के सम्पर्क में रहा। उमाकान्त मालवीय अंजनी कुमार दृगेश, सोहन लाल द्विवेदी, पद्मकान्त मालवीय, शकुन्तला सिरोठिया एवं डा. शिवगोपाल मिश्र जी के सम्पर्क में मैं विशेष रूप से रहा हूँ। पिताजी के साथ सम्पर्कों के कारण रघुपति सहाय फिराक एवं इलाचन्द्र जोशी जी से भी मिल चुका हूँ। फिराक साहब के साथ तो कई गोष्ठियों में भी भाग लेने का सौभाग्य रहा है। इस तरह आध्यात्मिक और साहित्यिक गतिविधियों में प्रयाग में मेरी सक्रियता बनी रही है। 

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यद्यपि यह शाश्वत सत्य है कि ईश्वरीय चेतना एवम् तद्प्रेरक पे्ररणा ही समस्त ब्रह्मण्ड में अनादि काल से प्रत्येक जड़ चेतन की प्रेरणा शक्ति रही है, तथा भविष्य में भी सदा सर्वदा रहेगी। किन्तु मोह और अज्ञान से ग्रसित जीव उस परम सत्ता को अपने क्रिया कलापों के लिए महत्व न दे कर स्वयम् को ही कर्ताधर्ता समझता है। जब कि यह तथ्य के सर्वथा विपरीत है। जीव ईश्वरीय सत्ता का अनुभव करे, यह एक बहुत बड़ी बात होती है। विशेष कर विपरीत परिस्थितियों में भी यदि किसी जीव के हाथ सफलता हासिल होती है, तो निश्चय ही इसे प्रभु का प्रसाद मानना चाहिऐ। मेरा यह आन्तरिक विश्वास न जाने कब से मेरे अन्तर हृदय में विद्यमान है। इसी लिए मैं अपनी सभी उपलब्धियों को ईश्वर का कृपा प्रसाद ही मानता आया हूँ।

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 मेरे पिता जी अपनी परिस्थितियों से बाध्य हो कर, जो जीवन पथ अपनाये उस पर वे अक्सर कहा करते थे। ‘‘बेगर्स वैâन नॉट बी चूजर्स’’ यह बात तो मुझे बाद में पता चली, किन्तु मेरे जीवन में भी जो एक बीज से वृक्ष बनने की प्रक्रिया के रूप में जितनी उपलब्धियां हुई है, वे मात्र मेरे पुरुषार्थ से सम्भव नहीं थीं, और इसी लिए ईश्वरीय सत्ता पर मेरी गहरी आस्था बनी हुई है। मेरी जो उपलब्ध्यिां हैं, जो सुख, शान्ति, सन्तोष और सामाजिक सम्मान मुझे प्राप्त हुआ है, यह ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हुआ है। क्योंकि मेरे अन्दर के अनेक विकार जो जीव को मार्गच्युत कर देते हैं, और व्यक्ति लक्ष्य से भटक जाता है, ऐसा मेरे साथ होते होते भी नहीं हुआ। यह बिना ईश्वर की कृपा से सम्भव नहीं था। मेरे अन्दर के सारे विकार क्रमशः मंद से मंदतर होते चले जा रहे हैं। यह मेरा सौभाग्य रहा है। मेरा जो भी विचार बनता है, मैं बड़े साहस और दृढ़ता पूर्वक उनका पालन करता आया हूँ और संयोग से समाज के बड़े से बड़े लोग अन्ततोगत्वा मुझसे सहमत हो जाते थे। महाविद्यालय के कार्यकाल में तथा अवकाश प्राप्ति के पश्चात् भी अनेक ऐसे अवसर आये जब अपने से हर दृष्टि से वरिष्ठ लोगों के बीच अपना दृढ़ मन्तव्य व्यक्त किया और वह व्यवहारिक रूप से सर्वमान्य हुआ। चाहे भले ही व्यक्तियों के मात्सर्य दुर्गुण के कारण भले ही मेरे पीठ के पीछे जो भी चर्चायें हुई हों, जिसकी मैं सम्भावना और कल्पना ही कर सकता हूँ, प्रत्यक्ष रूप से मेरे कार्यव्यवहार पर इन सबका रंच मात्र भी असर नहीं हुआ।

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महाविद्यालय में अन्य अध्यापकों के राग द्वेष और विरोध के बावजूद ‘दुग्ध विज्ञान परिषद’ की स्थापना, तथा इसके क्रियाकलापों से विद्यार्थियों के कल्याण को महत्व देना, ‘युगभारती संस्था’ के माध्यम से  कवियों और शायरों को एक मंच पर बुला कर गंगा-जमुनी संस्कृति का संकल्प लेना, छात्रावास अधीक्षक के रूप में उद्दण्ड छात्रों के विरूद्ध निर्भयता पूर्वक अनुशासनात्मक कार्यवाहियाँ करना, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की मूर्ति की स्थापना करना, और उनका अनावरण कराना, मेडिकल चौराहे पर अवस्थित भारत के लोक प्रतिष्ठित प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की प्रतिमा निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाना, अपने विभाग का एक भव्य भवन निर्माण करवाने में योजना की प्रस्तुति करण करना, एवम् उसे कार्य रूप में परिणित करवाना, अनेक अध्यापकों और विद्यार्थियों का विरोध प्राप्त कर के भी परीक्षाओं में ईमानदारी से अनुशासन का परिपालन तथा गलत कार्यो का विरोध करना, कानुपर विश्वविद्यालय में विभिन्न समितियों बोर्ड आफ स्टडीज, एकेडेमिक कौन्सिल एवम् एक्स्वयूटिव कौन्सिल में सक्रियता पूर्वक कार्य करना, यू० पी० बोर्ड में सत्रह वर्ष तक कृषि संकाय का कन्वीनर रहना, व्यवसायिक शिक्षा में समिति का सदस्य होना, उत्तर प्रदेश के प्रायः सभी विश्वविद्यालयों यथा गोरखपुर, पूर्वाचल, यू०पी० कालेज, नैनी, इलाहाबाद, कानुपर, बुन्देलखण्ड, मेरठ, आगरा, रूहेल खण्ड आदि में परीक्षक बनना तथा आई० ई० आर० टी में दस वर्षो तक पी० डी० आर० डी० एम० को पढ़ाना, अपने पी० एच डी० शोध कार्य को पूरा करना आदि आदि। यह सब विस्तार से बतलाने का तात्पर्य यह है कि कहीं न कहीं से मेरे अन्दर के दृढ़ संस्कार और ईश्वर की कृपा निश्चय ही सहायक बनी रही। कभी कभी तो जान की बाजी लगा कर मै ईमानदारी पूर्वक अनुशासन का पालन करता था। विशेष कर परीक्षाओं के समय उड़ाका दलों का सक्रिय सहयोग करना, अराजक स्थितियों में भी निडर हो कर अपने कार्य को दृढ़ता पूर्वक करना, यह सब शिक्षा की समग्र दृष्टि से लाभ के हेतु ही करता रहा। बहुत से अध्यापक और विद्यार्थी अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए गलत कामों की जान बूझ कर उपेक्षा कर के अच्छे बने रहते थे। किन्तु इससे नकल को प्रोत्साहन मिलता था। और अच्छे विद्यार्थियों का इससे नुकसान होता था। गलत लोग तो परिस्थितियों का लाभ उठा कर अच्छे अकं प्राप्त कर लेते थे और ईमानदार छात्रों का भविष्य चौपट हो जाता था। एक समय तो ऐसा आया कि अराजकता इस हद तक पैâल गयी कि अराजक छात्र पुस्तकालय की लगभग सारी की सारी पुस्तकों को फाड़ फाड़ कर नकल करने के लिए उनका उपयोग करने लगे थे। नकल करने के अनेक तरीके निकाल लिये गये थे। हाथों पर लिखना, डेस्क पर लिखना, छोटी-छोटी परचियाँ बना कर लिखना, अगल बगल के छात्रों से झाँक कर पूछना, धमकी दे कर अच्छे छात्रों की उत्तर पुस्तिकायें जबरदस्ती ले कर नकल करना, जूतों, मोजों, लगोटों तथा पैन्ट कमीज में नकल सामग्री को छिपाना, लड़कियों द्वारा अपने आचलों पर नकल सामग्री लिखना, अथवा गुप्तअंगों में छिपा कर नकल सामग्री रखना, पकड़े जाने पर नकल सामग्री को निगल जाना, इत्यादि अनेक साधन गलत लोग अपनाते थे। कुछ ही अध्यापक ईमानदारी से अपना कार्य ऐसी परिस्थितियों में कर पाते थे। इन विपरीत परिस्थितियों में मेरे साथ भी ऐसी एकाध घटनायें हुई जिससे मुझे बाध्य हो कर इन अनुशासनिक पदों से हट जाना पड़ा।

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हुआ यह था कि उड़ाका दल द्वारा पकड़े गये नकलची छात्र की उत्तर पुस्तिका किसी गलत अध्यापक के सहयोग से सील होने के दौरान उसमें से नकल सामग्री हटवाली गयी और उस दिन के नकलची लड़कों के सूची में से भी उसका नाम निकलवा दिया गया था। चूंकि यह घटना मुझसे भी सम्बंधित थी। अतः जब दूसरे या तीसरे दिन मुझे इस तथ्य का पता चला तो मैने प्राचार्य से इसकी शिकायत की। स्वयंम् उस लड़के ने ही अपनी वाहवाही में अपनी इस गलती और छल को अन्य लड़कों से कह दिया था, तथा जो शेष लड़के पकड़े गये थे, उन लड़कों ने आ कर मुझे बतलाया तो मैने प्राचार्य से इस पर कठोर कार्यवाही करने के लिए निवेदन किया। यह बात जब अन्य अध्यापकों को पता चला तो बड़ा बवाल मचा किन्तु अन्ततः मामले को दबा दिया गया। क्योंकि इसमें एक वरिष्ट अध्यापक की भी दुरभि सन्धि थी। किन्तु मेरा मन इस पैâसले को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ कि एक लड़का छोड़ दिया जाये और वाकी लड़कों को अपराधी समझकर दण्डित किया जाये, यह न्याय के सर्वथा विपरीत था। यदि माफ करना था तो सभी छात्रों को छमा दान देना चाहिए था। किन्तु जब ऐसा नहीं हुआ तो मैं ने बाध्य हो कर अतिरिक्त पारिश्रमिक वाले इस पद से अपना नाता तोड़ लिया। हो सकता है कि इससे कुछ गलत लड़के और गलत कार्य में सहयोग देने वाले कुछ अध्यापक प्रसन्न हुये होंगे किन्तु अच्छे विद्यार्थियों और आम विद्यार्थियों के लाभ को देख कर मैं अपने निर्णय पर सन्तुष्ट था। उस समय के विश्वविद्यालय के नियमों के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त ऐसे अतिरिक्त कार्यो के करने की बाध्यता नहीं थी। यद्यपि मुझे ज्ञात था कि अर्थ प्राप्ति के लिऐ इन परीक्षाओं में अनेक प्रकार से छात्रों का शोषण करने के लिए परीक्षा केन्द्र से ले कर विश्वविद्यालय स्तर तक पूरा एक जाल पैâला हुआ है। उचित अनुचित का ध्यान रखे बिना अनेक लोग इस जाल को चलाने और उसमें छात्रों को फँसाने में सक्रिय रहते हैं, और अनेक विद्यार्थी इसका लाभ भी उठा रहे हैं। इस प्रकार के गलत कार्यो में अनेक अवांछित लोग उâपर से नीचे तक आर्थिक लाभ कमाने में व्यस्त हैं। तब मैं क्यों केवल अपने विद्यालय और विश्वविद्यालय को ही दोष दूँ। जब कि सारा समाज यहाँ तक की सरकारी और सामाजिक विविध विभागों और उप विभागों में इस प्रकार के गलत कार्य करने वाले संलग्न है। सम्पूर्ण राष्ट्र ही नहीं, वरन सारा विश्व इस प्रकार के आवांछनीय क्रिया कलापों के माध्यम से अर्थसंग्रह कर बेलगाम लाभ उठाते हुये अनेक प्रकार के अनैतिक तरीकों से अपनी अपनी पेटियाँ भर रहे है। कर्मचारी, अधिकारी, नेता, डॉक्टर, इंजिनीयर और यहाँ तक की न्यायाधीश भी इस दुराग्रह के अंग बन गये हैं। यहाँ तक की सेना में भी इस प्रकार के दोष और दुर्गुण अक्सर सुनने में आ रहे हैं। भौतिकता के भूख भूत ने जीव मात्र के सिर पर सवार हो कर शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और अनाचार में संलग्न कर लिया है, तो किसको किसको दोष दिया जाये। कंचन और कामिनी का वर्चस्व सारे मानवता को प्रदूषित कर चुका है। कम होने की बजाय यह दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में किसी व्यक्ति का बचे रह पाना असम्भव सा हो गया है। ऐसी परिस्थिति में सिवाय ईश्वर की कृपा पाने में और अपने को इस मकड़ जाल से बचाये रखने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं रह गया है। ऐसी ही विपरीत परिस्थितियों में सन्त औ महात्मा समाज सुधार के लिए ईश्वर की सत्ता की स्वीकृति पर सदा सर्वदा से बल देते आये हैं। जिन लोगों के ऊपर ऐसी सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में कम से कम छीटे पड़े हैं, वे निश्चय ही भाग्यशाली है। तभी तो कहा गया है, कि पानी में रह कर मगर से बैर कर के कब तक बचा रहा जा सकता है।

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महाविद्यालय के कार्यकाल के दिनों में एकाध और ऐसे अप्रत्यासित अवसर मुझे सुलभ हुये, जो मैं निश्चित रूप से ईश्वर की कृपा प्रसाद ही मानता हूँ। एक बार तत्कालीन प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री चन्द्र भान गुप्त जी मेरे महाविद्यालय में दीक्षान्त समारोह देने के लिए मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किये गये। प्रबन्ध समिति और विद्यालय परिवार में इस बात की चर्चा चली कि विद्यालय का वार्षिक विवरण मंच से उनके समक्ष कौन पढ़े? कायस्थ पाठशाला ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ० प्यारे लाल श्रीवास्तव ने प्रबन्ध समिति के किसी सदस्य से न पढ़वाकर प्राचार्य के माथे इस भार को डाल दिया। शायद प्राचार्य और प्रबन्ध समिति में आपसी मतभेद के कारण ऐसा हुआ। प्राचार्य जी अपने लिये स्वागत भाषण पढ़ने का मन बना लिये थे। अतः वार्षिक विवरण पढ़ने के लिए कुछ वरिष्ट अध्यापकों को बुला कर उनकी परीक्षा ली गई। विवरण का प्रारूप इन सभी अध्यापकों से बारी बारी से पढ़वाया गया। अग्रेंजी और हिन्दी में मिश्रित भाषा में लिखा यह प्रारूप सब ने अपने अपने ढंग में पढ़ा, जिसमें मुझसे कई वरिष्ठ अध्यापकों के साथ मैं भी था। सभी अध्यापक चाहते थे कि मुझे यह सुअवसर प्राप्त हो। किन्तु सब अपनी कमजोरियों को भी जानते थे। प्राचार्य एवम् अन्य अध्यापकों की दृष्टि में वे इच्छुक अध्यापक उतने सुयोग्य साबित नहीं हुये, जितना मुझे प्राचार्य और अन्य अध्यापकों ने सराहा। बात प्रबन्ध समिति तक पहँुची और प्रबन्ध समिति में भी मेरी तथा सबकी पेशी हुई। वहाँ भी मेरा सौभाग्य था कि सब ने एक राय से मुझे ही सुयोग्य चुना और ईश्वर की कृपा से मंच से इस ढंग से अपने पर सौंपे गये इस महत्वपूर्ण कार्य का निर्वाह मैने बखूवी किया कि स्वयम् मुख्य मंत्री जी ने मंच से ही मुझे शाबासी दी कि ‘बड़ा अच्छा विवरण पढ़े हो।’ मुख्यमंत्री की यह शाबासी वहाँ उपस्थित अपार श्रोताओं तक भी दूरभाष के माध्यम से सुनाई दी, और कार्यक्रम के बाद अनेक वरिष्ट अधिकारियों और जनता के लोगों ने मेरे इस सफल कार्यवहन के लिए मुझे बधाई दी। मैं गद्गद था। इसके बाद तो महाविद्यालय में जितने भी इस प्रकार के विशेष कार्यक्रम हुये जैसे-मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह के आगमन पर, चाहे गेंदा सिंह के आगमन पर, अथवा केन्द्रीय कृषि मंत्री जगजीवन राम या स्वयम् प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के चार बार महाविद्यालय में पधारने पर तथा प्रत्येक स्वतन्त्रता दिवस तथा गणतन्त्र दिवस के अवसर पर मंच संचालन का भार जब तक मैं विद्यालय में कार्यरत था, मुझे ही करने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा। कवि सम्मेलन, मुशायरा, अथवा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम के अवसर पर भी यहाँ तक कि वार्षिक खेल कूद के सुअवसर पर भी विद्यार्थियों का उत्साह वर्धन करने के लिए कमेन्ट्री करने का भार मुझे ही सौभाग्य से करना पड़ता था।

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इस सम्बन्ध में मुझे एक और घटना याद आती है। आकाशवाणी इलाहाबाद से सबसे पहले १९६३ में मुझे पंचायत घर कार्यक्रम में एक वार्ता प्रसारित करने के लिए राष्ट्रपति की ओर से आमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। मैने उस वार्ता को पहले पहल जब प्रसारित किया तो तत्कालीन आकाशवाणी निर्देशक श्री केशव चन्द वर्मा जी ने मेरी बड़ी प्रशन्सा की और मुझे अक्स्ार आकाशवाणी के पंचायत घर कार्यव्रâम अथवा पनघट कार्यक्रम में वार्ता प्रसारित करने का सुअवसर प्राप्त होता रहा। जहाँ से मैने सौ से भी अधिक वार्तायें सफलता पूर्वक प्रसारित की। इसके अलावा मेरी कवितायें भी आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हुईं। जिससे किसानों और आम जनों को नयी नयी सूचनायें प्राप्त होती रहीं। प्रयाग में अपने इस प्रकार सक्रियता पूर्वक कार्य निर्वहन के लिये मैं निश्चय ही परमपिता परमात्मा के प्रति आभारी हूँं। माँ भारती की कृपा मेरे ऊपर आजीवन बनी रही है और अब भी बनी हुई है। महाविद्यालय की इन उपलब्धियों के अलावा प्रयाग में मेरी जो साहित्यिक, सांस्कृतिक , राजनैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में जिस प्रकार मैं अपनी क्षमता का अपने स्वभाव के अनुकूल सतत् सद्उपयोग करता रहा हूँ, और इन सभी कार्यो में मेरे सभी सहयोगियों और सहभागियों का सदा सद्भाव प्राप्त होता रहा, यह सब ईश्वर की कृपा ही रही है।

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सहयोगी मुद्रण एवं प्रकाशन सहकारी समिति –

अब तो राजनीति से मेरा वैराग्य सा हो गया है। मैने राजनीति में सक्रियता से भाग लेना छोड़ कर अपने को केवल साहित्यिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्रियाकलापों तक ही सीमित कर प्रसन्नता और सन्तोष होता है। किन्तु राजनीति और राजनीतिज्ञों पर मेरे चिन्तन और विचारों के प्रगटी करण में कोई कमी नहीं आयी है। अपनी कविताओं और लेखों के माध्यम से मेरे भाव प्रकट हो ही जाते हैं। मैने बहुत लिखा है। गद्य,पद्य, नाटक, उपन्यास, यात्राविवरण, पत्र लेखन में हजारों पृष्ठ लिखे हुये पड़े है, जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। इन सबके लिए अर्थ चाहिये। मुझे याद आ रहा है साठ और सत्तर के दशक का वह काल जब हमारे साथी हमारे अन्य मित्रों में भी लिखने का उत्साह था और छपने और छपाने का, किन्तु जिस प्रकाशक से हम लोग बात करते, वह नकारात्मक शब्दों में हम लोगों से बात करता और हतोत्साहित करता । तमाम प्रकाशकों से हम लोग मिले और सबका सीधा सा उत्तर मिलता कि हम लोग प्रकाशन का व्यवसाय करते हैं और व्यवसायिक दृष्टि से कोई पुस्तक कोर्स में लगने में सक्षम न हो तब तक हम प्रकाशन नहीं कर पायेंगे। क्योंकि ऐसी कोई सम्भावना नहीं बनती थी, मेरे जैसे अनेक सहयोगी मित्र थे, जो हिन्दी विभाग से सम्बन्धित नहीं थे, किन्तु रचनाधर्मिता उनमें थी। अतः हम लोगों ने आपस में मिल कर एक ‘‘सहयोगी मुद्रण एवम् प्रकाशन सहकारी समिति’’ का गठन किया। तथा उसका रजिस्टे्रसन भी करवा लिया।  इस संस्था का मैं पहले कोषाध्यक्ष चुनाव प्रक्रिया में चुना गया था। इस प्रकाशन के माध्यम से कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई। प्रारम्भ में एक बार इस संस्था ने निर्णय लिया लाटरी द्वारा जिसका नाम निकलेगा उसकी रचना पहले प्रकाशित की जायेगी। संयोग से प्रथम लाटरी में मेरे नाम के पक्ष में मेरे प्रबन्ध काव्य ‘चन्द्रशेखर आजाद’ जो बाद में ‘क्रान्ति यज्ञ’ नाम से प्रकाशित हुआ, के सम्बन्ध में लाटरी निकल गयी। किन्तु जैसा कि मानव का स्वार्थी स्वभाव होता है, सभी सदस्यों के अन्दर यह भावना रही होगी की लाटरी मेरे नाम से निकल जाये। किन्तु जब लाटरी मेरे नाम से निकली, तो सभी निराश हो गये और पहले के संकल्प को उलट कर एक दूसरा संकल्प लिया गया, कि एक ऐसी पुस्तक प्रकाशित हो जिसमें सभी सदस्यों की कुछ रचनायें सम्मिलित रूप से प्रकाशित हो, मुझे इस व्यवहार पर भारी निराशा हुई। पूर्व निर्णय को अपने स्वार्थ में पलट देने से मुझे भारी क्लेश हुआ। किन्तु दूसरा प्रस्ताव कि सभी की रचनाएं सम्मिलित रूप से प्रकाशित कीजायें तो इसमें किसी को क्या एतराज हो सकता था। यह निर्णय पहले लेना चाहिए था। किन्तु इस निर्णय से चन्द्रशेखर आजाद के प्रकाशन का कार्य जो सातवें दशक में ही हो जाना चाहिये था, वह बाधित हो गया। सभी कवियों की रचनाओं को ले कर ‘‘काव्यकलश’’ नाम से जो संकलन प्रकाशित हुआ वह भी संस्था के ऊपर एक बोझ साबित हो गया। क्योंकि उसके विक्रय की समस्या समक्ष, खड़ी हो गयी। इसमें कई सदस्य बेईमानी तक कर गये। उन्होंने बेचने के लिए पुस्तकें तो ले ली किन्तु कभी भी उसका हिसाब नहीं दिया। मेरे बाद चुने गये कोषाध्यक्ष संस्था को मृतपाय बना दिये। जब मैं संस्था का कोषाध्यक्ष था तो प्रायः हर महीने बैठकें और गोष्ठियाँ होती और प्रत्येक सदस्य को संस्था की गतिविधियों का संज्ञान रहता था। जो भी आय होती वह पहले बैंक में जमा होती और कोई भी भुगतान सचिव और कोषाध्यक्ष के हस्ताक्षर से ही होता था। जब संस्था प्रस्ताव पारित करती थी, तब क्रास चेक के द्वारा भुगतान किया जाता था। किन्तु मेरे बाद इस व्यवस्था में लापरवाही होने लगी। वर्षों तक कोई बैठक नहीं हुई और अब तो देखता हूँ की लगभग एक दशक से भी अधिक समय से कोई भी बैठक नहीं हुई।  मैने इस अव्यवस्था पर अपना विरोध प्रकट किया किन्तु मेरी आवाज नक्कारखाने में तूती मात्र बन कर रह गयी। बैंक में कितना पैसा है, इन वर्षों में कितना आय व्यय हुआ, केवल सचिव के, अन्य किसी भी पदाधिकारी को ज्ञात नहीं। अब तो इसकी कोई चर्चा भी नहीं करता। एकाध पदाधिकारी को छोड़ कर संस्था में क्या हो रहा है, इसका किसी को पता नहीं। संस्था के संविधान के अनुसार नियत समय के बाद सामान्य सभा द्वारा नये पदाधिकारियों का चुनाव किया जाना चाहिये। वह भी नहीं हो रहा। जब भी इस बात की याद सचिव को दिलाई जाती है, तो आश्वासन दिया जाता है, कि शीघ्र ही बैठक होगी किन्तु वह शीघ्र दिन, एक दशक से भी अधिक वर्ष बीत गया आज तक नहीं आया। अब तो संस्था का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता। यह सब जान बूझ कर असंवैधानिक रूप से लोगों को धोखा दिया जा रहा है। इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ जैसा की सुनने में आता है अनेक सहकारी समितियों में परिव्याप्त है। मैं केवल सहकारी समितियों तक ही क्यों अपने को सीमित करूँ, मात्र कुछ ईमानदार और राष्ट्र भक्त धर्मपरायण व्यक्तियों को छोड़ कर लगभग सारा राष्ट्र इसी प्रकार की गैर संवैधानिक अवांक्षनीय क्रियाकलापों में लिप्त हो कर राष्ट्र और समाज का शोषण कर रहा है। वैâसे इस प्रवृत्ति पर अकुंश लगे इस पर ध्यान देना अत्यावश्यक है। सब कुछ हरि इच्छा के आधीन है।

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आध्यात्मिक गतिविधि –

इन साहित्यिक क्रिया कलापों के अलावा मैं प्रयाग के ‘‘चिन्मय मिशन’’,‘‘पारिवारिक मानस सतसंग’’, ‘‘गीता सत्संग मण्डल’’, ‘‘थियोसाफिकल सोसाइटी’’ का भी सक्रिय सदस्य बन गया। जिससे मेरी आध्यात्मिक अभिरुचि तथा ज्ञान की वृद्धि  होने लगी।

चिन्मय मिशन में –

 रविवार का दिन मेरे लिए बहुत व्यस्त रहता था। उस दिन चिन्मय मिशन का कार्यक्रम शिव स्वरूप अग्रवाल के आवास २७, टैगोर टाउन में प्रातः ठीक ७ से ९ बजें तक होता था। इस संस्था में चिन्मय मिशन के सस्थापक स्वामी चिन्मयानन्द की पुस्तकें तथा शंकराचार्य विरचित, विवेक चूड़ा मणि, भज गोविन्दम्, दृगदृश्य विवेक, दक्षिणामूर्ति स्तोत्र, तथा रमण महर्षि की उपदेशसारम् तथा श्रीमद्भगवत् गीता का अध्ययन होता था। इसके अलावा भजन और ध्यान भी कराया जाता था। समय समय पर स्वामी चिन्मयानन्द जी स्वयम् अथवा उनके शिष्य गण आ कर ज्ञान यज्ञ भी करते रहते थे, जिससे सभी सदस्यों का समुचित ज्ञान वर्द्धन होता रहता था। चूंकि आध्यात्मिक ग्रथों के प्रति मेरा रुझान पहले से ही था, अतः चिन्मय मिशन में मैं एक सुयोग्य प्रवक्ता के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। चिन्मय मिशन की ज्यादातर पुस्तकें अग्रेजी और संस्कृत भाषा में थीं, अतः मैंने कुछ पुस्तकों का हिन्दी पद्यानुवाद भी किया। इन सभी गुणों के कारण मुझे चिन्मय मिशन के बंम्बई के पवई आश्रम में चिन्मय प्रचारक की ट्रेनिग के लिए कार्यकारिणी के सदस्यों ने मेरा नाम प्रस्तावित किया। जहाँ मैं चालिस दिनों तक रह कर वहाँ की गतिविधियों का प्रशिक्षण प्राप्त कर प्रयाग की गतिविधियों में भी यथा योग्य योगदान दिया। बम्बई जाते वक्त मैं अपनी पत्नी को भी साथ लेता गया था। वहीं हमारे साथ ही हमारे छोटे भाई के साले अमरनाथ मिश्र जिनका घरेलू नाम होसिला भी है, वे भी अपनी पत्नी के साथ साथ गये थे। होसिला इलाहाबाद में ही लेखपाल और बाद में कानूनगो के रूप में अवकाश प्राप्त किये हैं। वे प्रयाग में ही बस गये हैं। उन्होंने अपने कई पारिवारिकों और रिश्तेदारों को पढ़ाया लिखाया और नौकरी भी दिलाई। उनका और हमारा सम्बन्ध बड़ा प्रगाढ़ बना हुआ है। अभी हाल ही में उन्होंने एक अच्छी कम्पनी में नौकरी करना भी प्रारम्भ कर दिया है।

बंम्बई में मेरी एक साली माधुरी भी रहती थी। जो वहाँ एक हाईस्कूल में अध्यापिका थी। किन्तु वह जहाँ रह रही थी, वहाँ मात्र एक कमरे में ही सारी व्यवस्था थी। उनका स्वयम् चार आदमियों का परिवार और हम लोग भी चार आदमी पहुँच गये, अतः मैने वहाँ रहना उचित नहीं समझा और पवई आश्रम में ही मुझे सर्वसुविधा सम्पन्न दो कमरे प्राप्त हो गये। मेरी पत्नी और साले वहाँ लगभग एक सप्ताह रहे और बम्बई तथा नासिक आदि घूम कर प्रयाग लौट आये। मैं वहाँ आश्रम में ही रहा गया। 

बम्बई में चिन्मय मिशन का पवई आश्रम एक ऊँची पहाड़ी पर पवई झील और पवई गार्डन के मध्य स्थित है जहाँ एक भव्य विशाल शिव मंदिर का निर्माण किया गया है। आश्रम में छात्रावास तथा अन्य आवासीय बस्तियाँ, प्रशासन भवन, भोजनालय, पुस्तकालय, आदि सर्वसुविधा सम्पन्न ढंग से निर्मित किये गये हैं। स्वामी चिन्मयानन्द जी का विश्रामालय जिसे चिन्मयकुटी कहते है, वह किसी भी पाँच सितारा होटल से कम सुविधाओं से सम्पन्न नहीं है। दूर दूर तक चारो ओर वनस्पतियाँ, फूलों के बाग, लतायें तथा ऊँची चार दीवारियों के बीच यह आश्रम पूर्ण रूप से सुरक्षित बना है। मुख्य द्वार पर २४ घण्टे पहरा रहता है। यहाँ की आधुनिक व्यवस्था बड़ा ही मनोहारी दृश्य उपस्थित करता है। थोड़ी ही दूर पर पवाईलेक के अलावा बिहार लेक भी है, जिसमें पर्यटक नियमित रूप से नौका विहार करते रहते है। पवई पार्क बम्बई का एक प्रसिद्ध पार्क है जिसमें अक्सर फिल्मों की सूटिंग होती रहती है। चिन्मय मिशन के इसी आश्रम में स्वामी चिन्मया नन्द जी के प्रयास से १९६२ में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई थी।

जहाँ तक आश्रम की व्यवस्था का प्रश्न है। वहाँ ठीक चार बजे घंटा बजता है और वहाँ के सभी ब्रह्मचारी और आवासी नित्य क्रिया में लग जाते हैं। चार से साढ़े पॉच बजे के बीच नित्य क्रिया से निवृत हो साढ़े पाँच बजें सभी शिव मंदिर में पहँुच जाते है। वहाँ आधा घण्टा वेद पाठ एवम् आधा घण्टा योगासन और ध्यान कराया जाता है। साढ़े छः बजे भोजन शाला में काफी मिलती है। सात से आठ तक संस्कृत शिक्षा, आठ से साढ़े आठ जल पान, साढ़े आठ से साढ़े ग्यारह, विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन अलग अलग ब्रह्मचारियों द्वारा, साढ़े ग्यारह बजें स्वामी चिन्मयानन्द अथवा उनके न रहने पर स्वामी पुरूषोत्तमा नन्द या किसी वरिष्ठ संन्यासी का प्रवचन होता था। एक बजे घंटी लगते ही भोजन शाला में भोजन फिर विश्राम। साढ़े तीन बजे काफी और चार से साढ़े पाँच तक पुनः किसी पुस्तक का अध्ययन, छः बजे आरती और आठ बजे रात भोजन और विश्राम। कभी कभी नौ से दस के बीच गोष्ठियाँ भी होती थीं। जिसमें प्रतिभा का आकलन किया जाता था। स्वामी चिन्मयानन्द चूँकि बहुत व्यस्त व्यक्ति थे, बहुधा देश विदेश में घूमते रहते थे। उनकी अनुपस्थिति में भी सारा कार्यक्रम यथावत चलता रहता था। जब मैं वहाँ चालिस दिनों तक रहा, तो चालिस दिनों के बीच वे मुश्किल से ४ या ५ दिनों तक ही उपलब्ध हो पाये थे किन्तु जब भी आते थे उनकी सुविधा को ध्यान में रख कर तदनुसार कार्यक्रम बनाया जाता था। और वो आश्रम वासियों का ज्ञान वर्द्धन करते थे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व, विद्वत्ता, धारा प्रवाह अग्रेजी में दिया गया उनका प्रवचन, सबको मोहित कर लेता था। जब स्वामी जी आश्रम में रहते थे, तो आश्रम का अनुशासन देखते बनता था। भोजन के समय दोपहर और रात्रि में सभी आश्रम वासी पंक्तिवध हो कर भोजन प्राप्त करते थे। इस बीच गीताके पंद्रहवें अध्याय का सस्वर वाचन होता रहता था। सब लोग अपनी भोजन की थाल, गिलास, कटोरी इत्यादि स्वयम् लेकर भोजन प्राप्त करते थे। और अपनी आवश्यकता अनुसार भोजन प्राप्त कर स्थायी बनी हुई मेजों पर बैठ जाते थे। आवश्यक होने पर पुनः कोई खाद्य पदार्थ जा कर प्राप्त कर लेते थे। भोजन में चावल,दाल, रोटी, सब्जी के अलावा साभर और रसम तथा छाछ निश्चित रूप से दिया जाता था। साथ में फल और मिष्ठान भी रहता था। कभी कभी विशेष यजमान के द्वारा आश्रम में भेंट किया गया, विशेष पकवान भी मिलता था। प्रातः काल के जलपान में साढ़े छः बजे के काफी के पश्चात् आठ बजे जलपान में प्रायः दक्षिण भारतीय व्यजंन विशेष कर इडली, डोसा, उत्पम, बड़ा, तथा कभी कभी आलू की कचौडियाँ और उपमा मिलता था। उत्तर भारत के जलपान में कभी कभी पकौड़ियाँ, नमकीन पराठे अथवा पूड़ी सब्जी दी जाती थी। जो लोग व्रत रहते थे, उनके लिए पर्याप्त फल व दूध की व्यवस्था रहती थी। रात के भोजन के पश्चात् जो लोग दूध पीना चाहते थे, उन्हें दूध भी मिलता था। इस प्रकार पवाई के उस आश्रम में खान पान और रहने की उच्चकोटि की निःशुल्क व्यवस्था थी। जहाँ मैं चालीस दिनों तक रह कर प्रायः देश के प्रत्येक क्षेत्र से आये प्रशिक्षणार्थियों के साथ निश्चित रूप से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में सफल हुआ था। प्रशिक्षण के अन्तिम दिन स्वामी चिन्मयानन्द जी ने प्रत्येक प्रशिक्षणार्थी को गीता की एक पुस्तक, एक तुलसी की माला तथा गोमुख दे कर सबके सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया था। वहाँ की एक परम्परा मुझे बड़ी अच्छी लगी थी, कि दोपहर और रात्रि के भोजन के पहले जहाँ गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ सस्वर होता था, उसके साथ ही साथ सभी आगन्तुकों के भोजन लेकर बैठ जाने के बाद इच्छुक लोगों द्वारा श्लोकों का वाचन भी होता था। जिससे लोगों को एक दूसरे के श्लोकों को सुन कर याद करने में सुविधा होती थी तथा भोजन के पूर्व एक सात्विक वातावरण भी बन जाता था। भोजन के पश्चात् सभी लोग अपना बर्तन स्वयम् धोते थे। जिसके धोने के लिए समुचित व्यवस्था थी। विम से बर्तन माँज कर तथा उसे अच्छी प्रकार धो कर यथा स्थान बर्तन रखा जाता था। श्लोक वाचन में मैं प्रायः सक्रिय रूप से भाग लेता था। जिसकी वजह से मैं स्वामी चिन्मया नन्द जी के निगाह में आ गया था। वे जब भी उपस्थित रहते तो मेरा नाम ले कर श्लोक वाचन हेतु प्रोत्साहित करते। प्रशिक्षण के दौरान मेरी सक्रियता और लगाव से सभी ब्रह्मचारी मुझसे प्रभावित थे। स्वामी चिन्मयानन्द जी के अलावा उस समय वहाँ के स्थायी आचार्य स्वामी पुरूषोत्तमा नन्द जी भी मुझे अक्सर मंच पर बुला कर अन्य प्रशिक्षणार्थियों को प्रशिक्षण देने हेतु आमंत्रित करते थे। एक अध्यापक होने के नाते मुझे बिना झिझक के इस प्रकार के कार्यक्रमों में भाग लेने में आनन्द आता था। मुझे प्रशिक्षणार्थी होते हुये भी प्रशिक्षण देने का कार्य स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो गया था। पवई आश्रम से प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् मैं प्रयाग आ कर यहाँ के चिन्मय मिशन में भी पवई के कार्यक्रमों के अनुसार कार्यक्रम करने लगा था तथा कई ज्ञान यज्ञ भी कराये। इसके पहले प्रयाग में इस प्रकार के कार्यक्रमों की सुविधा सुलभ नहीं थी। बाद में तो चिन्मय मिशन की तरफ से प्रशिक्षित ब्रह्मचारी आ कर नियमित रूप से यहीं रहने लगे थे और चिन्मय मिशन का स्थायी रूप से एक आश्रम बन गया था। आश्रम की स्थापना में यहीं के एक धनाढ्य अभियन्ता श्री नन्दकिशोर अग्रवाल का विशेष योगदान रहा। उन्होंने अपने सुपुत्र नवीन किशोर अग्रवाल की स्मृति में, जो स्वयम् भी एक कुशल अभियन्ता थे, किन्तु दुर्भाग्य से उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गयी थी। अतः उनकी स्मृति में उनके बड़े भाई कान्ति किशोर अग्रवाल ने रसूलाबाद में पहले से खरीदे गये, एक वृहद प्लाट को चिन्मय मिशन को दान में दे दिया। नवीन किशोर अग्रवाल की स्मृति को अक्षुण बनाये रखने के लिए इस आश्रम का नाम ‘‘चिन्मय नवीन सेवा आश्रम’’ रखा गया। यहाँ बाद में अनेक निर्माण कराये गये। ब्रह्मचारियों की सुविधा को ध्यान में रख कर सारी व्यवस्था उपयुक्त ढंग से की गयी। इस आश्रम में नियमित रूप से एक ब्रह्मचारी श्री विवेक चैतन्य जी पहले पहल आ कर रहने लगे और यही ब्रह्मचारी बाद में सन्यासी तेजोमयानन्द के नाम से केन्द्रीय चिन्मय मिशन के सर्वेसर्वा प्रधान बन गये थे। स्वामी चिन्मयानन्द के स्वर्गवासी होने के पश्चात् वे ही चिन्मय मिशन के प्रमुख अधिकारी के रूप में काम करने लगे थे। इसी तरह एक दूसरे ब्रह्मचारी जो प्रयाग में पहले पहल आये थे, वे सुबोधानन्द के नाम से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला आश्रम के अधिकारी बनाये गये। जो उत्तर भारत के हिन्दी क्षेत्र के आश्रमों की देख भाल करते हैं। 

चिन्मय मिशन के दक्षिण भारत के साथ साथ उत्तर भारत में भी प्रायः प्रत्येक प्रांत में आश्रम खुल गये हैं। यही नहीं विदेशों में भी इनकी शाखायें अनेक देशों में खुल गयी हैं। जहाँ चिन्मय मिशन के प्रशिक्षित ब्रह्मचारी एवम् संयासी स्थाई रूप से रह कर भारतीय धर्म, दर्शन, और वैदिक विज्ञान का प्रचार प्रसार कर रहे है। दक्षिण भारत में कई बहुत ही समृद्ध आश्रम स्थापित हो चुके है, जिनकी भव्यता और क्रिया कलाप विश्वविदित है। इस समय चिन्मय मिशन के लगभग चार सौ आश्रम देश विदेश में स्थापित हो कर ब्रह्मचारियों के प्रशिक्षण एवम् गीता, रामायण, उपनिषद और भारतीय संस्कृति का ज्ञान प्रसार करने में सहयोग दे रहे हैं। इन आश्रमों के कार्यक्रमों में आम लोग काफी अभिरुचि लेते हैं। चिन्मय मिशन के ब्रह्मचारियों को पवई आश्रम में ढाई वर्ष का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है, और तत्पश्चात विभिन्न आश्रमों में कार्य करने के लिए भेजा जाता है। इन आश्रमों का व्यय स्थानीय संस्थायें उठातीं हैं। इन आश्रमों के ब्रह्मचारी जब प्रर्याप्त अनुभव प्राप्त कर लेते है, तो उन्हें संन्यासी बना दिया जाता है। ब्रह्मचारी के रूप में वे पीत वस्त्र धारण करते है, तथा संन्यासी हो जाने पर उन्हें गेरूआ वस्त्र दिया जाता है। इन आश्रमों में रहने वाले ब्रह्मचारी और संन्यासी सार्वजनिक ज्ञान यज्ञ कर के उससे उपार्जित आय का ७५ प्रतिशत आय केन्द्रीय  चिन्मय मिशन ट्रस्ट को भेजते हैं, तथा २५ प्रतिशत स्थानीय आश्रम के क्रिया कलापों में व्यय किया जाता है। इस प्रकार इन आश्रमों का संचालन होता है। और आम लोगों में भारतीय धर्म और संस्कृत का ज्ञान प्रसार नियमित रूप से हो रहा है। चिन्मय मिशन आज एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सर्वसुविधा सम्पन्न एक उच्च कोटि की संस्था के रूप में विख्यात हो गया है। इस संस्था के द्वारा केवल धर्म और संस्कृति का ही प्रचार प्रसार नहीं हो रहा है, बल्कि देश के अनेक भागों में अनेक इंजिनियरिंग एवमं मेडिकल कालेज, विशाल समृद्ध पुस्तकालय, पर्यटन केन्द्र तथा पितामह सदन आदि स्थापित किये जा चुके है, जिनकी सेवाओं से राष्ट्र का और मानवता का कल्याण हो रहा है। मेरा यह सौभाग्य रहा है कि मैं इस विश्व विख्यात संस्था से सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहा हूँ। यह मेरे लिए एक गौरव की बात है। 

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थियोसाफिकल सोसाइटी –

थियोसोफिकल सोसायटी की प्रयाग शाखा भी अपना एक विशिष्ट इतिहास अपने अन्दर समेटे हुये है। इस लाज की स्थापना स्वयम् मैडम ब्लेबेडस्की ने आ कर १७ अक्तूबर १९०३ में की थी। जिसका शताब्दि समारोह बड़े धूम धाम के साथ कई विशिष्ट कार्यक्रमों को आयोजित कर के मनाया गया था। आनन्द लाज जो इस संस्था का नाम है इससे अनेक विशिष्ट थियोसाफिस्ट जुड़े हैं। पहले इस संस्था का कार्यालय ऐलन गंज में था। बाद में इलाहाबाद विश्व विद्यालय के प्रोफेसर डॉ० तैमिनी ने बालसन चौराहे के पास लाउदर रोड़ पर अपने पुरूषार्थ से एक जमीन का टुकड़ा खरीदा और कई विशिष्ट जनों के साथ जिसमें पंडित मोती लाल नेहरू का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है, प्रयाग की आनन्द लाज शाखा की स्थापना की। इस संस्था से प्रभावित हो कर ही पं० मोती लाल नेहरू ने अपने आवास का नाम भी आनन्द भवन के नाम से निर्मित कराया। जिस समय आनन्द लाज के भवन का निर्माण हो रहा था, उस समय आनन्द भवन में ही थियोसोफिकल सोसाइटी की साप्ताहिक बैठकें होती थीं। पं० मोती लाल नेहरू उस समय सोसायटी के अध्यक्ष थे और उनसे प्रभावित हो कर जवाहर लाल के शिक्षक मिस्टर बु्रक्स भी इस सोसायटी से जुड़ गये। और बाद में उन्हीं की प्रेरणा से पंडित जवाहर लाल नेहरू भी अपनी बहन विजयलक्षमी पंडित के साथ इस संस्था के सदस्य बन गये। बाद में इन्दिरागाँधी भी इस संस्था से कई वर्षो तक जुड़ी रहीं। आनन्द लाज थियोसोफिकल सोसायटी से उस समय के अनेक गणमान्य व्यक्तियों, पदाधिकारियों, इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनेक जजों और विश्वविद्यालय के शिक्षक और अनेक अधिकारी भी इस संस्था से जुड़े रहे और सक्रिय रूप से इसमें भाग लेते रहे। जब मैं इस संस्था से जुड़ा तो उस समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीस पंडित महेश नारायण शुक्ल इसके अध्यक्ष थे। उनके बाद यूपी बोर्ड़ के सचिव श्री बी० एन० स्वरूप जी भी इसके अध्यक्ष रहे। उनके बाद इनकम टैक्स के कमिशनर श्री एच० यन० सिन्हा अध्यक्ष हुऐ। मैं जस्टिस शुक्ल की प्रेरणा से आनन्द लाल का सदस्य बना और कुछ वर्षो के बाद मैं कार्यकारिणी और आनन्द बाल मंदिर की प्रबन्ध समिति का सदस्य भी बन गया। उसके बाद तो लगभग मुझे सभी पदों पर रह कर आनन्द लाज की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा। पहले उप सचिव, फिर प्रबन्धक, फिर कोषाध्यक्ष, फिर सचिव, फिर उपाध्यक्ष और अन्ततः इस महान संस्था का अध्यक्ष पद भी प्राप्त करने का सौभाग्य मेरा रहा है। इतना ही नहीं इसके बाद मुझे पूरे उत्तर प्रदेश का फेडरेशन सेक्रेट्री चुन लिया गया और इस प्रकार भारतीय केन्द्रीय शाखा अडयार की कार्यकारिणी समिति में भी पदेन कार्य करने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ। इसके बाद भी मुझे थियोसोफिकल सोसायटी का राष्ट्रीय प्रवक्ता होने के लिए संतुति किया गया। किन्तु चूंकि मैं प्रयाग की अनेक संस्थाओं से जुड़ा था और महाविद्यालय के क्रिया कलाप में भी मेरा सक्रिय योगदान था, अतः इन व्यस्तताओं के कारण तथा परिवार से अलग रह कर दूर दूर के क्षेत्रों में यात्रा करने की मेरी प्रवृत्ति न होने के कारण मैं इस सुअवसर का लाभ उठाने का साहस नहीं उठा पाया और मैने इसके लिए मना कर दिया।

थियोसोफिकल सोसायटी के विभिन्न पदों पर कार्य करते हुये, मेरा यह अनुभव हुआ कि यह संस्था नाम के लिए तो अन्तर्राष्ट्रीय हैं, और इसके सिद्धान्त भी उच्च कोटि के हैं, किन्तु व्यवहार में इसके क्रियाकलाप बहुत ही सीमित दायरे में चल रहे हैं। आम जनता के लिए तो सम्भवतः इस संस्था से कोई लाभ नहीं प्राप्त हो रहा है। यही नहीं कुछ को छोड़ कर शेष लोग अपने को सिद्धान्त वादी मानते रहने के कारण, दूसरे धर्मो और सम्प्रदायों के प्रति व्यवहारतः प्रेम और सद्भाव का वातावरण न हो कर उपेक्षा की दृष्टि ही रहती है। सिद्धान्तः माना और कहा तो यही जाता है कि थियोसोफिकल सोसायटी सबके साथ प्रेम और समत्व का भाव रखती है, और किसी के ऊपर सिद्धान्त लादे नहीं जाते। किन्तु व्यवहार में सोसायटी के संस्थापकों और इससे सम्बद्ध विशिष्ट व्यक्तियों के क्रिया कलापों को ही वरीयता दी जाती है, जो इसके मौलिक सिद्धान्त के सर्वदा विपरीत है। यही नहीं भारतीय धर्म और दर्शन से अनेक श्लोकों और सिद्धान्तों का अनुवाद कर के मौलिक लेखक के नामों की उपेक्षा कर के, उसे अपना सिद्धान्त बताने की प्रवृति भी जोर पकड़ती जा रही है, जो सिद्धान्ततः एक अनैतिक कार्य है। मुझे ऐसा आभास होता है कि थियोसोफिकल सोसायटी, जिसे ब्रह्मविद्या समाज कहते है, आज से कुछ वर्ष पूर्व ब्रह्मविद्या के सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने में जिस ऊँचाई पर पहुँच चुकी थी, उससे अब पतन की ओर उसकी गति हो गयी है। अनेक देशों में और भारत में भी पूर्व सदस्यों द्वारा त्याग और सेवा की भावना से प्राप्त सम्पदा को ले कर विभिन्न सदस्य और पदाधिकारी आपस में लड़ने झगड़ने और मुकदमें बाजी में सलग्न हो गये हैं। इस संस्था के प्रति नवयुवकों का आकर्षण प्रायः नगण्य सा है। जो भी सोसाइटियाँ हैं उनके क्रिया कलाप भी बहुत सीमित क्षेत्र में रह गये हैं। साप्ताहिक बैठकों में भी उपस्थिति नगण्य सी हो गयी है। कई लाजों में तो प्रायः किसी अधिकारी द्वारा निरीक्षण के दौरान विनियोजित कर के बैठकें आयोजित की जाती हैं। कभी कभी तो जो सदस्य नहीं होते उन्हें भी बुला कर भीड़ जुटा ली जाती है। ब्रह्मविद्या समाज के प्रति यह बहुत ही विघटन की प्रवृति है। मुझे तो ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में यह संस्था स्वयम् एक पंथ के रूप में कार्य करते करते मृत प्राय सी हो जायेगी।

इस संस्था के सिद्धान्त और संस्थापकों के आदर्श और व्यवहार काश आज के सदस्य अपने मौलिक रूप में बरकरार रख पाते, तो यह संस्था निश्चय ही मानवता के लिए ही नहीं, बल्कि जीव मात्र के कल्याण के लिए एक आदर्श संस्था होती। ब्रह्मविद्या का कोई सार्टकट रास्ता नहीं है। केवल अध्ययन और भाषण बाजी से तथा सीमित मात्रा में सेवा कार्य का दिखावा कर के, ब्रह्मविद्या की ऊचाई तो नहीं, बल्कि निम्न स्थिति को भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह विद्या प्रकरण पद्धति पर नहीं, बल्कि पूर्व रूपेण प्रक्रिया पद्धति पर आधारित है। परम सत्य का दर्शन करने के लिए मात्र सिद्धान्तों की बातें करने से काम नहीं चलेगा। बल्कि उन सिद्धान्तों को अपने व्यवहारिक जीवन में दृढता से उतारना आवश्यक है। जो क्रमबद्ध तरीके से व्यक्ति को अपने अन्तः करण के स्वयम् के शोधन एवम् परिमार्जन के मार्ग पर चल कर पूर्ण निर्मलता से प्राप्त करना आवश्यक है। मल, आवरण, और विक्षेप के कारण ही, जीव जो स्वयम् सत्य स्वरूप है, वह ब्रह्मस्वरूप होते हुये भी अपने ही स्वरूप का दर्शन प्राप्त नहीं कर पाता। और जब तक यह निर्मलता हमारे अपने ही जीवन में नहीं आयेगी तब तक सत्य की प्राप्ति असम्भव है। यह संस्था सिद्धान्त रूप से सत्य को मानती है, किन्तु व्यवहार में इस उच्चतम स्थिति को प्राप्त करने के लिए शायद कहीं भी कोई भी प्रयास नहीं हो रहा है। यहाँ तक कि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अधिवेशनों में भी बातें बड़े जोर शोर से की जाती हैं, जिसमें केवल अपने अहंकार का प्रदर्शन मात्र होता है। ब्रह्मविद्या की उस उच्च स्थिति को प्राप्त करने का कोई भी प्रयास नहीं होता, और जब तक ऐसा सत्य प्रयास सच्चे मन व लगन से नहीं होगा, तब तक ब्रह्मविद्या समाज अपने लक्ष्य से दूर दूर ही रहेगा।

यह सब बातें मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ, और इसी लिए शायद मेरा लगाव अब इस संस्था से कम होता जा रहा है। राम की शरण प्राप्त करने से  आन्तरिक सुख, शान्ति, सन्तोष की अनुभूति होती है। ब्रह्म ही सत्य है। उस ब्रह्मत्व को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है। सत्य ही चेतन है। तथा चेतन ही आनन्द है। जहाँ कहीं भी जीव को आनन्द की अनुभूति हो, चाहे जिस देश, काल, परिस्थिति में, वह स्थिति उस व्यक्ति के लिए उतनी ही अधिक ब्रह्म के निकट होगी। जीवात्मा अमर है। जीवन अनेक योनियों में भटक कर अनुभव प्राप्त करता है। तथा अनुभव की परिपक्वता मनुष्य योनि में आ कर होती है। मनुष्य योनि प्राप्त करना उस परम सत्य सत्ता या ब्रह्म की कृपा पर आधारित है। उस कृपा को वैâसे प्राप्त किया जाये, मनुष्य को मनुष्य जीवन प्राप्त करने के बाद, इसी दिशा में सद्कार्य करते हुए अग्रसर होना चाहिए। इसके लिए उस ब्रह्म सत्ता द्वारा ही दिये गये उपकरणों अर्थात मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार का सतत् उसी को प्राप्त करने के लिए, उसी के चिन्तन में रह कर प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये। यह सम्भावना बनना भी उस सत्ता की कृपा पर निर्भर है। विश्व के सभी धर्मोें, पंथों तथा सम्प्रदायों में अपनी अपनी धार्मिक परम्पराओं के अनुसार देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप साधना की पद्धतियाँ प्रचलित हैं। किन्तु अधिकांश साधक और सामान्य जन मात्र बाहरी आडम्बरों में लिप्त रह कर साधनों की इति श्री समझ लेते है। जबकि प्रत्येक साधना का तात्विक अर्थ अपने मन पर नियंत्रण कर, मन को निर्मल करने से सम्बंधित है। मनुष्य के मन में जन्म जनमान्तर से कलुष भरा हुआ है। इस कलुष को निकाले बिना साधना की सफलता सम्भव नहीं है। मन भी दो स्तरों का है। एक वाह्य मन और दूसरा अन्तर मन। अन्तर मन में ही अनेक जीवनों के संस्कार कोषागार की तरह संरक्षित है। अतः इस अन्तर मन को पूर्ण रूप से खाली कर के ही नयें भाव और विचारों को तथा संस्कारों को उसमें भरा जा सकता है। मन के खाली होने पर अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के अनुभव समय और वातावरण के अनुसार पाने और प्रकट होने की सम्भावना बनी रहेगी। अतः आवश्यक है, प्रयास पूर्वक उपयुक्त साधना के माध्यम से इस अन्तर मन कों पूर्ण रूप से खाली किया जाये। जब मन पूरी तरह से निष्कलुष और निर्मल हो जायेगा तभी उसमें आत्म तत्व अथवा परमात्म तत्व का साक्षात् दर्शन सम्भव हो पायेगा।

जीव का  स्वयम् का स्वभाव संचिदानन्द स्वरूप है। मनुष्य योनि में ही उचित साधन कर के इस परम तत्व आत्म दर्शन का साक्षात्कार किया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि केवल मनुष्य ही इस अवस्था को प्राप्त हो सकते है। मनुष्य योनि प्राप्त व्यक्ति ही अपने अच्छे या बुरे संस्कारों के कारण विशेष कर मृत्यु काल, में अपने चिन्तन के अनुरूप विविध पशु, वनस्पति अथवा भूत योनियों को प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु उनमें भी उनके पूर्व जन्मों के संस्कार यथावत संरक्षित रहते है। इस तरह अन्य योनियों में भी यथाअनुकुल वातावरण प्राप्त कर अथवा विशिष्ट संत अथवा ईश्वर के सानिध्य से, उनमें भी तत्काल आत्मसाक्षात्कार अथवा भवितव्यता के अनुसार भावना शुद्ध होने पर परमात्मा के साक्षात्कार की सम्भावना सम्भव है। इस लिए भी मनुष्य को सतत् सत्य प्रयास तो करना ही चाहिये, किन्तु इन सद् प्रयासों का रंच मात्र भी अहंकार अपने अन्दर विकसित नहीं होने देना चाहिये। अन्यथा अहंकार का कलुष, संस्कार के रूप में विकसित हो जायेगा और व्यक्ति लक्ष्य से विचलित हो जायेगा। मनुष्य में जन्म जन्मान्तर के संस्कार अच्छे और बुरे दोनों संरक्षित है। संस्कारों का फल दाता ईश्वर हमारे अनन्त संस्कारों में से किसी विशेष संस्कारों को चुन कर हमें कौन सी योनि में भेजेगा, यह उसकी कृपा पर निर्भर है। यह उसी के हाथ में है। नियम यह है की हमारे अन्दर जन्म जन्मान्तर से संरक्षित संस्कारों का भोग जब तक जीवात्मा नहीं कर लेता तब तक वह वासना के रूप में बनी रह जाती है। परमात्मा हमारे कल्याण के लिय ही उन संरक्षित वासनाओं का क्षरण करने के उद्देश्य से जीव को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार विभिन्न योनियों और वातावरण में भेजता है। जिससे हमारी वासनायें समाप्त हो जायें। और जब जीवात्मा विभिन्न योनियों में भटक कर उसके सुख दुख प्राप्त कर प्रायश्चित भाव से अपने से श्रेष्ठ योनि मनुष्य योनि प्राप्त करने हेतु ईश्वर से प्रार्थना करती है, तब ईश्वर कृपा पूर्वक उस जीवात्मा को मनुष्य योनि के मार्ग पर आगे बढ़ा कर उसको वासना रहित करने का एक सुअवसर प्रदान करता है। किन्तु मनुष्य योनि प्राप्त कर भी यदि जीवात्मा इस सुअवसर का लाभ न उठा कर अपने को राजसी और तामसी वृत्तियों में पँâसा कर अधोगति में जाने का मार्ग प्रशस्त करता है, और इस दुर्भाग्य के कारण जीवात्मा को पुनः अनन्त काल तक चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है। मनुष्य योनि ही कर्म योनि है। बाकी सभी योनिया भोग योनियाँ हैं। अतः मनुष्य योनि प्राप्त कर के जो जीवात्मा अपने को ऊर्ध्वगित के मार्ग पर अग्रसर नहीं करते है, तो यह उसका दुर्भाग्य है। इस लिए मनुष्य योनि प्राप्त ऊर्ध्व के पश्चात् यह अति आवश्यक है, कि मनुष्य को कोई भी शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक चिन्तन भी ऐसा नहीं करना चाहिए जो उसे अधोगति की तरफ ले जाये।

यह सम्भावना रहती है कि मनुष्य योनि में साधक एक जन्म में ही अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर ले, किन्तु ईश्वरीय सिद्धान्त में इस तथ्य की गारंटी है कि मनुष्य योनि प्राप्त जीवात्मा अपने एक जीवन में साधन पथ पर जितना आगे बढ़ती है, उसका यह साधन फल सुरक्षित रहता है, और उसे पुनः पुनः मनुष्य योनि की प्राप्ति होती रहती है। और इस तरह अपने पूर्व पूर्व के साधन के फल स्वरूप मनुष्य उच्च से उच्चतम साधकों के कुल में जन्म ले कर अन्ततोगत्वा परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, जो मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। अतः मनुष्य को चाहिए कि सदा सर्वदा सतत् प्रयास कर के उस परम पिता की कृपा प्राप्त करने हेतु अपने शरीर, मन, और बुद्धि को केवल उसी के चिन्तन मनन में लगाये। मन पूर्व के संस्कारों के अनुसार विचलित होगा, इधर उधर जायेगा, उसे प्रयास पूर्वक रोक कर परमात्म चिन्तन में लगाने का सतत् प्रयास करते रहना चाहिए। मनुष्य के हाथ में यही साधन पद्धति श्रेयस्कर है। अतः मनुष्य योनि प्राप्त कर साधकों को इसी पथ पर आगे बढ़ कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहिए।

ज्ञान की यह सब बातें मैने जान बूझ कर जीवन दर्शन की बातें अपने हृदय को संतोष प्रदान करने के उद्देश्य से विस्तार पूर्वक प्रकट कर दिया है। इससे यदि कोई मनुष्य लाभान्वित होता है, तो यह उसका सौभाग्य है। इसमें मेरा अपना भी स्वार्थ ही है, बाणी और व्यवहार की महत्ता में, किन्तु आन्तरिक भाव ईश्वरीय सत्ता के अधिक समीप होना है। मैने अपने अन्तर मन को प्रक्षालित करने की दृष्टिकोण से अपने भावों को विस्तार दिया है। यदि कोई मनुष्य इन भावों से रंच मात्र भी लाभान्वित होगा अथवा लाभान्वित होने का प्रयास भी करेगा, तो मैं अपने इस अभिव्यक्ति को सार्थक समझूँगा। थियोसाफिकल सोसाइटी में मैं प्रायः सभी पदों पर - कार्यकारिणी सदस्य, प्रबन्धसमिति सदस्य, विद्यालय प्रबन्धसमिति सदस्य, उप मंत्री, सचिव, उपाध्यक्ष, अध्यक्ष, तथा फेडरेशन सचिव के पद पर भी रहा। यही नहीं भारत की केन्द्रीय समिति का भी पदेन सदस्य रहा। इस प्रकार इस संस्था के माध्यम से मुझे प्रदेश और देश के विभिन्न सोसाइटियों में जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ।

मेरा थियोसाफिकल सोसाइटी में जुड़ने का भी संजोग अचानक ही हुआ। मैं अपने शोध कार्य के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय नित्य जाता था। मार्ग में २७ लाउडर रोड़ पर थियोसाफिकल सोसाइटी का प्रयाग का आनन्द लाज स्थित था। पहले मैं इसको कोई क्रिश्चियन संस्था समझता था। अतः देख कर भी उपेक्षा करता था। किन्तु एक दिन ऐसा संयोग बना कि मेरे पिता जी दिल्ली से आये हुये थे, उनके एक मित्र श्री राम भारतीय जो सेवा समित विद्यामंदिर के प्रबन्धक थे, उनसे मिलने पिता जी के साथ गया। वे बहुत ही आधुनिक परिवेश वाले व्यक्ति थे। मेरे बारे में परिचय प्राप्त करने के बाद उन्होंने मुझे सूचित किया कि जिस आवास में मैं रह रहा हूँ, उसका नाम करण ‘‘सेवा निकुंज’’ मेरे पिता जी ने ही किया है। वे एक उच्च अधिकारी थे। किन्तु पंडित मदनमोहन मालवीय एवम् हृदय नारायण कुजरू के आग्रह को स्वीकार कर के प्रयाग की सेवा समिति विद्या मंदिर की सेवा करने का भार ग्रहण कर लिया था। बात चीत में वे बड़े शालीन और विनम्र थे। वे मेरे पिता जी का बहुत आदर करते थे। उनकी पत्नी राजस्थान में किसी विद्यालय की प्राचार्या थीं। उन्हीं के द्वारा बात चीत के दौरान यह पता चला कि वे थियोसाफिकल सोसाइटी के सचिव हैं, तथा प्रत्येक रविवार को वहाँ जाते हैं। उन्होंने मुझे भी प्रेरित किया की तुम भी सदस्य बन जाओ और इस तरह मैं थियोसाफी के प्रति आकर्षित हुआ और सदस्य बन गया।

चिन्मय मिशन के अलावा मेरी अभिरुचि थियोसोफिकल सोसाइटी की तरफ भी बढ़ती गयी। जैसा की मैं पहले बतला चुका हूँ, इस संस्था को मैं अज्ञानता वश क्रिश्चियन संस्था समझता था किन्तु श्री राम भारतीय एवम् ततकालीन आनन्द लाज के अध्यक्ष न्यायमूर्ति महेशनारायण शुक्ल की कृपा से जब मैं इस संस्था से जुड़ गया तो मुझे आभास हुआ कि यह संस्था भी चिन्मय मिशन की तरह ही मेरी भावनाओं और विचारों के अनुरूप है। यह संस्था अपने आदर्श के अनुसार सम्पूर्ण मानवता ही नहीं, बल्कि जीव मात्र के कल्याण के लिए सिद्धान्ततः  सक्रिय है। भले ही व्यवहारिक रूप से वह इसमें सफल न हो पाई हो। यह संस्था धर्म , जाति, वर्ग, क्षेत्र, भाषा, और लिंग से उâपर उठ कर सबके प्रति भ्रातृ भाव और प्रेम का संदेश देने के लिए संकल्प, प्रेरणा और व्यवहार आधारित क्रियाकलापों को अपनाई हुई है। यह सब जान कर और यहाँ के भव्य भवन और पुस्तकालय को देख कर मैं प्रभावित हुआ था। फिर इसका सक्रिय सदस्य बन कर इस संस्था से जुड़ गया। मुझे लगा यह संस्था तो मेरे हृदय की बात करती है। इस संस्था के तीन प्रमुख सिद्धान्तों विभिन्न धर्मो के आपसी अहंकार और कट्टरता से उâपर उठ कर सभी धर्मो के प्रति आदर भाव रखना, उनका तुलनात्मक अध्ययन कर वेâ धर्म, दर्शन और विज्ञान के मूल तत्वों और तत्वसार की खोज करना तथा मनुष्य और प्रकृति के अन्दर छिपी आन्तरिक शक्तियों की खोज करना और मनुष्य में उनका विकास कर के स्वार्थ से उâपर उठ कर जीव मात्र के कल्याण के लिए उन शक्तियों का सदुपयोग करना, इस संस्था की विशिष्टता रही है। जब मैं इस संस्था से जुड़ गया तो प्रत्येक रविवार को नियमित रूप से मैं वहाँ जाने लगा और विभिन्न धर्मों के प्रवचन कर्ताओं और लेखकों द्वारा धर्म दर्शन और विज्ञान के विषयों पर अपना ज्ञान वर्धन करने लगा। प्रयाग के आनन्द लाज में पुस्तकालय के अन्दर सभी धर्मों की अमूल्य पुस्तकें विद्यमान हैं। मैने उनका अध्ययन किया और इस प्रकार तुलनात्मक रूप से विभिन्न धर्मों और दर्शनों का ज्ञान मुझे मिलता रहा। भारत वर्ष में चेन्नई के अडयार नामक स्थान पर इस संस्था का अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालय स्थित है। तथा भारत का कार्यालय काशी में स्थापित है। जब मैं काशी में रहता था तो बहुधा समाचार पत्रों में ‘काशी तत्व सभा’ का नाम प्रकाशित होता था। तब मैं इस संस्था के क्रियाकलापों के बारे में अनभिज्ञ था। किन्तु जब मैं इस संस्था से जुड़ गया तो मुझे पता चला कि बनारस के कामाख्या मोहल्ले में स्थित भारतीय थियोसोफिकल सोसाइटी का प्रधान कार्यालय है जो ‘काशी तत्व सभा’ के नाम से जाना जाता है। मेरा सौभाग्य था कि बनारस में प्रत्येक वर्ष आयोजित होने वाले भारतीय सम्मेलन में मैं प्रतिवर्ष जाने लगा। वहाँ लगभग एक हफ्ते का वार्षिक अधिवेशन अक्तूबर महीने में दुर्गा पूजा अवकाश के समय आयोजित होता था। वर्षों से यह परम्परा चल रही है। इस अधिवेशन में देश भर के सभी भागों के थियोसोफिस्ट भाग लेने आते हैं। और संस्था के किसी ख्याति प्राप्त थियोसोफिस्ट के निर्देशन में थियोसोफी से सम्बन्धित किसी विशेष पुस्तक का विस्तृत अध्ययन होता है। अधिवेशन में इस आश्रम में रहने की उचित व्यवस्था रहती है तथा भोजन आदि भी उचित मूल्य पर उपलब्ध होता है। नगर के मध्य में थियोसोफिकल सोसाइटी का यह विस्तृत प्रांगण बहुत ही भव्य और ऐतिहासिक है। यहाँ का प्राकृतिक वातावरण बहुत प्रेणादायक और शान्त है, यही रह कर थियोसोफिकल सोसाइटी की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अध्यक्षा डॉ० श्रीमती एनीबेसेन्ट आजीवन इस संस्था के प्रचार प्रसार में संलग्न रहीं। डॉ० एनीबेसेन्ट अपने समय की अभूतपूर्व वक्ता थीं। जिनके व्याख्यान को सुनने के लिए तत्कालीन अनेक नेता महात्मा गांधी, पं० मदनमोहन मालवीय, पं० जहावाहर लाल नेहरू आदि इनसे प्रेरणा प्राप्त करते थे। डॉ० एनीबेसेन्ट एक स्कॉटिश की पत्नी होते हुऐ भी अपनी अन्तः प्रेरणा से वे थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका एक रूसी महिला मादाम ब्लेवेटसकी एवम् एक अमेरिकन राष्ट्र्रवादी कर्नल आलकाट के सम्पर्क में आयीं और उन दोनों से गुप्त विद्या का प्रशिक्षण प्राप्त कर के, उनके िंदवगत होने के बाद थियोसोफिकल सोसाइटी की अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी और उन्होंने घूम घूम कर थियोसाफिकल सोसाइटी का प्रचार किया। थियोसाफिकल सोसाइटी वास्तव में भारतीय वैदिक धर्म अर्थात ब्रह्मविद्या का ही नाम है। एक अग्रेज महिला होते हुए भी डॉ० एनीबेसेन्ट भारत में आकर और काशी को अपना मुख्यालय बना कर सारे विश्व में थियोसाफी का प्रचार प्रसार किया। इस संस्था को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान करने में डाँ० एनीबेसेन्ट का अमूल्य योगदान रहा है। एक अग्रेज महिला होते हुऐ भी भारत आने के बाद उन्होंने अग्रेजों के विरूद्ध भी भारत की स्वतन्त्रता के लिए डट कर लोहा लिया। वे दो बार काग्रेस की अध्यक्ष बनीं। उन्होंने व्रिटिश वाइसराय के विरुद्ध होमरूल आन्दोलन का शुभआरम्भ किया। जिसके लिए वे जेल भी गयीं। किन्तु राजनीति के क्षेत्र में गांधी जी से उनका मदभेद हो गया। जब गांधी जी ने असहयोग आन्दोल चलाया और सारे भारत वासियों से आह्वान किया कि सभी सरकारी कर्मचारी, वकील, अध्यापक, विद्यार्थी, किसान, मजदूर सभी अपने अपने कार्य छोड़ कर सभी असहयोग आन्दोलन में शामिल हों तो यह बात एनीबेसेन्ट को पसन्द नहीं आयी। उन्होंने कहा कि इस प्रकार का आन्दोलन भारत के भविष्य की दृष्टि से उचित नहीं होगा। क्योंकि कानून का उलंघन कर के उसके दुष्परिणाम की प्रवृति बन जाने के कारण स्वतन्त्र भारत में भी यह प्रवृत्ति बनी रहेगी। इस मतभेद के कारण उन्होंने काग्रेस से इस्तीफा दे दिया। गांधी जी उस समय इनके तर्कों को स्वीकार नहीं किये जिसका दुष्परिणाम निश्चय ही स्वतन्त्र भारत में देश के प्रत्येक क्षेत्र में छोटी छोटी बातों को ले कर आन्दोलन और आमरण अनसन के रूप से सर्वत्र दिखाई दे रहा है जो राष्ट्र की प्रगति और निर्माण में बहुधा बाधक बनता जा रहा है। डॉ० एनीबेसेन्ट ने काग्रेस से भले ही त्याग पत्र दे दिया किन्तु राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में अभूत पूर्व रूप से सक्रिय रहीं। विशेष कर शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान महत्वपूर्ण है। बनारस में उन्होंने सेन्ट्र्रलहिन्दू कालेज की स्थापना की और जब पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बनाने का संकल्प लिया तो नियमानुसार  इसके लिए एक आधार भूत संस्था की आवश्यकता हुई। उस समय एनीबेसेन्ट ने सेन्ट्र्रल हिन्दू कालेज को सहर्ष मालवीय जी को समर्पित कर ाfदया और इस  प्रकार काशी हिन्दू विश्व विद्यालय की स्थापना सम्भव हो सकी। काशी में ही उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के लिए बेसेन्ट कालेज की स्थापना की। काशी के साथ साथ देश के अनेक क्षेत्रों में उन्होंने अनेक विद्यालय, महाविद्यालय और तकनीकी संस्थान खोले। वरनाक्यूलर शिक्षा पद्धति डॉ० एनीबेसेन्ट की ही देन है। समाज सुधार के क्षेत्र में वर्ण व्यवस्था से उâपर उठ कर उन्होंने सभी के लिए शिक्षा के द्वार खोले। एनीबेसेन्ट का एक विशिष्ट योगदान भारत में स्काउटिंग की शिक्षा के प्रचार प्रसार में रहा है। लार्डबेडेनपावेल जिन्होंने इग्लैण्ड में स्काउटिग की शिक्षा का प्रावधान किया उन्होंने प्रारम्भ में भारतीयों के लिए स्काउटिंग शिक्षा निषिद्ध कर दिया, किन्तु एनीबेसेन्ट ने उनका विरोध कर के भारत में भी स्काउटिंग शिक्षा की नींव रखी। यही नहीं उन्होंने इससे भी आगे बढ़ कर लड़कियों के लिए गाइड के नाम से इसका विस्तार किया। और इसका नाम ‘भारतस्काउटएन्डगाइड’ रखा। विज्ञान के प्रचार प्रसार में भी इनका अभूतपूर्व योगदान रहा है। प्रयाग में १९१३ में स्थापित विज्ञान परिषद की भी वे अध्यक्ष रह चुकी हैं। उनके जीवन काल में राष्ट्र के वैज्ञानिक सोच में एक विशेष प्रेरणादायक कार्यक्रम का शुभ आरम्भ हुआ। उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के पूर्व ही सांइस काग्रेंस के नाम से एक संस्था की स्थापना की, जिसमें देश भर के विशिष्ट वैज्ञानिक एक मंच पर एकत्रित हो कर राष्ट्र के विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए योजना बद्ध तरीके से काम करने लगे। यह संस्था आज भी सक्रिय रूप से कार्यरत है। डॉ० एनीबेसेन्ट भारत को अपनी दूसरी जन्म भूमि कहती थीं। एक अग्रेज महिला होते हुऐ भी, उन्होंने भारतीय परम्परा के अनुसार साड़ी पहनना प्रारम्भ किया जो बिलकुल सफेद रंग की रहती थी। और सारा जीवन उच्चतम आदर्शो के अनुसार अपना जीवन बिताती थीं। खान पान भी उनका बिल्कुल सात्विक था और भारतीय परम्परा के अनुसार वे पीढ़े पर बैठ कर भोजन करती थीं। भारत की सांस्कृतिक परम्परा को पूर्णतः अपने जीवन में उतारा था। डॉ० एनीबेसेन्ट सभी प्रकार के भेद भावों, कट्टरता और छूआ छूत की विरोधी थी। जीव मात्र के प्रति प्रेम उनका आदर्श था। राष्ट्र के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और शैक्षिक क्षेत्र में आधारभूत आदर्श चिन्तन और व्यवहार उनके जीवन का लक्ष्य रहा है। जिसमें वे बहुत सीमा तक सफल भी रहीं। आज भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व में थियोसोफिलक सोसाइटी की जो परम्परा चल रही है, वह डाँ० बेसेन्ट की ही देन है। उन्होंने अनेक भारतीय ग्रन्थों के साथ साथ गीता का अग्रेजी भाषा में अनुवाद किया, जिससे विदेशी भी भारतीय धर्म और संस्कृत से अवगत हुये।

डॉ० बेसेन्ट की धर्म गुरू मैडम ब्लेवेडेस्की जो थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका रही हैं, वे तिब्बत में रह कर अनेक संतो के सम्पर्क में आयीं और यहाँ अनेक वर्षों तक साधना रत रह कर तथा ताल पत्रों पर उल्लिखित विविध बहुमूल्य धार्मिक सूत्रों का उन्होंने उन धर्म गुरूओं के माध्यम से अध्ययन किया। और भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक परम्परा से अत्यन्त प्रभावित हुई। उसी समय उनके अन्तर मन में यह प्रेरणा उत्पन्न हुई कि क्यों न इन अमूल्य धरोहरों को पाश्चात्य देशों में प्रचारित और प्रसारित किया जाये जिससे वे भी इस गुप्त ब्रह्मविद्या से लाभान्वित हो सके। इसी संकल्प के साथ उन्होंने अमेरिका के कर्नल आलकाट से मिल कर १७ अक्तूबर १८७५ में थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना की और आजीवन इस संस्था का भला करती रही। प्रारम्भ में इस संस्था का अन्तर्राष्टी्रय मुख्यालय अमेरिका में ही था। किन्तु उन्होंने स्वप्न कें माध्यम से प्राप्त अन्तः प्रेरणा के अनुसार इसका अन्तर्राष्टी्रय मुख्यालय भारत में स्थापित करने का निर्णय लिया। स्वप्न की प्रेरणा से तत्काल वे भारत आयीं और १८८३ के प्रारम्भ में पहले बम्बई में इसका मुख्यालय बनाया। किन्तु देश भ्रमण के क्रम में उन्हें तब के तमिलनाडु जो अब चेन्नई हो गया है, समुद्र और अडयार नदी के संगम पर स्थित भू भाग दैवी प्रेरणा से उन्हें भा गया और वहीं थियोसोफिकल सोसाइटी का अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय स्थापित हो गया।

प्रारम्भ में आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दया नन्द से जब उनकी भेंट हुई  तो आर्य समाज के आदर्शो के अनुरूप ही थियोसोफिकल सोसाइटी के क्रियाकलाप की कार्ययोजना स्वीकार कर ली गयी। किन्तु स्वामी दया नन्द जी ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि वेदों को इस संस्था का आधार भूत ग्रन्थ मान लिया जाये। जिस पर ब्लेबेडस्की की सहमति नहीं बन सकी। उनका कहना था कि वेदों के अलावा अन्य धर्मो के धर्म ग्रंथ भी उतने ही महत्वपूर्ण है, जितने कि वेद। अत: दोनों संस्थायें अलग अलग हो गयीं । थियोसोफिकल सोसाइटी वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, विविध दर्शनों, इतिहास और पुराण आदि को मान्यता तो देती है, किन्तु साथ ही दूसरे धर्म ग्रन्थों के भी सत्य को स्वीकार करती है। अतः थियोसोफिकल सोसाइटी सभी धर्म ग्रन्थों का अध्ययन और अनुशीलन कर के सत्य को जानने के लिए पूरी तरह से स्वतन्त्र संस्था बन गयी। किसी भी ज्ञान को किसी दूसरे पर जबर्दस्ती थोपने का भी सोसाइटी में व्यवहार नहीं है। सोसाइटी के प्रत्येक व्यक्ति को यह पूरी स्वतन्त्रा है कि अपने अध्य्ायन, मनन और चिन्तन के माध्यम से स्वतः प्रयास रत रह कर सत्य को जानने का प्रयास करे। थियोसोफिकल सोसाइटी का मार्ग दर्शक तत्व सत्य ही है। ‘‘सत्यान्नास्ति परोधर्मः’’ अर्थात् सत्य से बढ़ कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। इस सूत्र को अपनाने की प्रेरणा भी मैडम ब्लेबेडेस्की को बनारस में ही प्राप्त हुई। बनारस के काशी नरेश के किले में एक बार उन्हें आमंत्रित किया गया और वहाँ उन्हें दरबार हाल के द्वार पर ही यह श्लोक लिखा हुआ मिला। जिससे के बहुत प्रभावित हुई और इसे सोसाइटी के मोटो के रूप में अर्थात प्रतीक के चिन्ह के रूप में स्वीकार किया। सोसाइटी के प्रतीक चिन्ह में दो त्रिभुज हैं। एक ऊर्द्धवर्ती और दूसरा अधोवर्ती जिसके बीच में ईशाइयत का क्रास तथा उâपर मिश्र के धनुषाकार प्रतीक चिन्ह के साथ केन्द्र बिन्दु में एक गोला बनाया गया है। इसके चारों ओर गोलाई में महाकाल के प्रतीक के रूप में काल सर्प बना है। इस काल सर्प की पूँछ काल सर्प के मुख में है तथा उसके ऊपर स्वास्तिक का चिन्ह विपरीत दिशा में अंकित है। तथा सबसे उâपर ॐ लिखा हुआ है, तथा नीचे संस्कृत में ‘सत्यान्नास्ति परोधर्मः’ के साथ साथ अग्रेजी में ठऊप्ीा ग्े हद rात्ग्ुग्दह प्ग्ुप्ग्ी ूप्aह ूrल्ूप्'' अंकित है। इस प्रकार यह प्रतीक चिन्ह सारे विश्व में थियोसोफिकल सोसाइटी का प्रेरक बिन्दु बन गया है। अडयार के अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र में प्रवचन कक्ष में सभी देशों के राष्ट्रीय ध्वज लगाये गये हैं। समुद्र और आडयार नदी के संगम पर स्थित यह केन्द्र लगभग पाँच हजार एकड़ जमीन पर स्थापित है। ईश्वरीय प्रेरणा से प्रेरित हो कर बसाया गया यह केन्द्र बहुत ही प्रेरणादायक हैं। यहाँ घनघोर जंगल के बीच में अनेक सर्वसुविधा सम्पन्न भवन, विविध प्रतीक चिन्हों से पूरित बड़े ही सुसज्जित एवम् प्राकृतिक वातावरण के बीच बनाये गये है। पूर्व के सभी अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्षों की समाधियाँ भी यहाँ निर्मित है तथा देश विदेश की विविध वानस्पतिक प्रजातियों, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सदस्यों द्वारा लगाई गयी हैं। विविध प्रकार के पुष्पों से सुस्ज्जित बाग, पुष्प, लतायें, तरुवर तथा प्राकृतिक वनस्थली देख कर मन प्रसन्न हो जाता है। अडयार नदी और समुद्र का संगम प्रातः और शायम् काल बड़ा ही दर्शनीय होता है यहाँ प्रत्येक धर्म को मानने वाले मंदिर, मंस्जिद, गिरजाघर और गुरूद्वारे आदि बनाये गये है, तथा सभी धर्मों के प्रतीक चिन्हों से सुशोभित एक बड़ा सा हाल बना हुआ है। प्राकृतिक वातावरण को बनाये रखने के लिए ताड़ पत्र से बना हुआ, एक सुसज्जित स्टेडियम भी बना हुआ है जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठियाँ होती हैं। विविध ख्याति प्राप्त सदस्यों के नाम से अनेक कक्षों का निर्माण किया गया है। इसकी अपनी भोजनशाला भी है, जहाँ विशेष रूप से दक्षिण भारतीय व्यंजन सुलभ होते हैं। किन्तु विदेशी पर्यटकों के लिए उनकी रुचि के अनुसार भोजन और जल पान भी सुलभ कराया जाता है। वृक्षों की छाया में चटाइयों पर बैठ कर भोजन करने की यहाँ प्रथा है, जहाँ केले के पत्तों पर भोजन परोसा जाता है। वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर जो प्रायः दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में आयोजित होता है, अधिक भीड़ हो जाने पर कन्ट्रैक के आधार पर भोजन, जलपान की व्यवस्था की जाती है। विश्व के ही नहीं भारत के भी विभिन्न क्षेत्रों के लोग एक साथ खान पान का आनन्द उठाते है। सदस्यों के लिए न्यूनतम व्यय पर आधारित भोजन और आवास की सुविधा सुलभ रहती है। लगभग एक हप्ते तक चलने वाला वार्षिक अधिवेशन बड़ा ही ज्ञान वर्धक तथा एक दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करने का एक सुलभ साधन बन जाता है। इस संस्था का सदस्य बन कर मैं सामान्य सदस्य से केन्द्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बन कर इस संस्था में जुड़ा रहा। जैसा की मेरा बचपन से ही स्वभाव रहा है, इन दोनों संस्थाओं में समय के मूल्य को विशेष महत्व दिया जाता है। एक एक मिनट का ध्यान रखा जाता है। समय तथा संयम पालन करने में दृढ़ता की प्रेरणा मैंने इन दोनों संस्थाओं से प्राप्त की।

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संतों के सम्पर्क में

देवरहवा बाबा –

१९९० के कुम्भ के अवसर पर मैंने सपत्नीक तीन वर्ष तक कल्पवास किया। एक बार शिवरात्रि स्नान के पश्चात् मन में एकाएक प्रेरणा हुई कि देवरहवा बाबा से दीक्षा ली जाय। मैं सपत्नीक उनके समक्ष उपस्थित हुआ और अपना मंतव्य उनसे प्रगट किया। तो उन्होंने मेरा परिचय पूछा। मैंने संक्षेप में उन्हें जब अपने बारे में बाताया कि मैं सरार का दूबे हूँ, तो प्रसन्न होक बोले– गवँई की भाषा में कि ‘‘अरे हमहूँ सरार कऽ दूबे हइऽ। हम न तोहके दीक्षा देऽब तऽ के देही।’’ और उन्होंने प्रेमपूर्वक मेरे सिर का स्पर्श किया और दीक्षा के बाद नेत्रों में नेत्र डालकर जो दृष्टिपात किया वह आज भी मुझे प्रभावित करता है। उनकी मंत्र दीक्षा से मुझे अपूर्व शान्ति प्राप्त हुई।

स्वरूपानन्द सरस्वती– जगतगुरु शंकराचार्य से मै बचपन ही परिचित था। वे मेरे मामा के साले महादेवशास्त्री के शिष्य थे, तभी से उन्होंने पूज्य का पूज्य होने के नाते मामा के आदेश से सबसे पहले मुझे ठंडई पिलाया गया था।

रंग रामानुजाचार्य –

देवरहवा बाबा के अलावा गया श्राद्ध के पश्चात् मैंने श्रीमद््भागवत् सप्ताह की कथा स्वामी रंग रामानुजाचार्य जी से सुनी तथा उनसे सपत्नीक दीक्षा प्राप्त की। गुरुजी की हमारे ऊपर विशेष कृपा रहती है और जब भी उनके प्रयाग आने का सुयोग्ा मिलता है मैं उनके दर्शन कर कृतकृत्य होता हूँ। दीक्षा के बाद गुरु जी ने मुझे ‘भगवत्प्रपन्नाचार्य’ नाम दिया।

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी –

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी की भी मेरे ऊपर विशेष कृपा रही है। मैं बहुधा उनके आश्रम में जाता था और जहाँ कहीं भी उनके कार्यक्रम नगर में होते थे मैं उनमें सहर्ष भाग लेता था। हमारे साथ के साहित्यकार बन्धुओं ने विशेषकर वैâलाश कल्पित जी ने ‘‘हिंदी प्रतिष्ठापन मंच’’ की स्थापना की थी जिसके माध्यम से हम लोग नगर के विभिन्न मुहल्लों में जाकर और धरना देकर व्यापारियों और अधिकारियों को हिंदी में नामपट लिखने, हस्ताक्षर करने और हिंदी में ही लेखाजोखा और निमंत्रण पत्र आदि छापने की प्रेरणा देते। जिसमें प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी हमेशा हम लोगों के साथ कन्धे से कन्धे मिलाकर सहयोग और आशीर्वाद देते रहे।

सच्चा बाबा –

प्रयाग आने के बाद प्रारम्भ में ही मैं सच्चा बाबा आश्रम से जुड़ गया था और प्राय: अवकाश के दिनों में अक्सर वहाँ जाता था। सच्चा बाबा भी मुझे मान्यता देते और कई सेवाकार्य कराने की प्रेरणा देते। उनके विशेष यज्ञ में मैंने सक्रियता से भाग लिया था जिसमें मेरे मामा के साले काशी उर्द्धव पीठ के शंकराचार्य स्वामी महेश्वरानन्द जी मुख्य अतिथि होकर पधारे थे।

इसके अलावा मैं स्वामी शान्तानन्द, स्वामी विष्णुदेवानन्द एवं स्वामी वासुदेवानन्द जी का भी वरदहस्त प्राप्त करता रहा हूँ। वासुदेवानन्द जी की मेरे ऊपर विशेष कृपा रही है। स्वामी शारदानन्द जी का भी दर्शन किया है तथा श्रीराम शर्मा के अनेक यज्ञों में जैसे- लखनऊ, गोरखपुर, चित्रकूट एवं आवलखेड़ा के यज्ञों में मैं सपत्नीक भाग लेता रहा हूँ तथा हरिद्वार के भी आश्रम में मैं कई बार जा चुका हूँ।

हरिचैतन्य ब्रह्मचारी –

रामलीला के कार्यक्रमों में तथा राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेने के कारण चैतन्य ब्रह्मचारी जी से मेरा सम्पर्क हुआ और उन्होंने बड़ी कृपा पूर्वक अपना सहयोग सानिध्य और आशीर्वाद प्रदान किया। माघ मेले में इनके वैâम्प में होने वाली गोष्ठियों में मैं बहुधा भाग लेता हूँ।

स्वामी हरिहर जी महाराज के सानिध्य में –

मैं अपनी धार्मिक अभिरूचि के कारण दिल्ली वैंâट के एक संत स्वामी हरिहर जी महाराज के ‘‘गीतासत्संगमण्डल’’ से भी बहुत दिनों तक जुड़ा रहा। प्रतिवर्ष वे माघमेले में प्रशासन पंडाल के समीप ही एक छोटी सी कनात में प्रारम्भ में रहते थे। और कुछ इने गिने लोगों के बीच गीता की व्याख्या करते थे। जिनमें अधिकांश प्रशासन से जुड़े अधिकारी और कर्मचारी ही रहते थे। जिनका शाम का समय अवकाश में बीतता था। वे स्वामी जी के नियमित श्रोता थे। मैं भी स्वामी  जी की कृपा का पात्र बन गया था। गीता ज्ञान के सम्बन्ध में स्वामी चिन्मयानन्द जी के अलावा यदि मुझे किसी अन्य ने प्रभावित किया है, तो वे स्वामी हरिहर जी महाराज ही हैं। बाद में तो उनका विशाल पंडाल लगने लगा, जिसमें गीता के सम्बन्ध में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी होने लगे थे। दिल्ली और प्रयाग के ही नहीं, बल्कि देश और विदेशों के कई धनाढ्य भी जुड़ गये थे और गीता आश्रम एक सर्वसुविधा सम्पन्न संस्था बन गयी थी। इसका अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन प्रयाग के विशाल संगीत समिति हाल में सम्पन्न हुआ था। जिसकी गतिविधियों में उपाध्यक्ष की गरिमा मय पद के साथ मैने भी उस सम्मेलन में अपनी सक्रियता दिखलायी थी। उस समय एक बहुत उच्च कोटि की एक स्मारिका भी निकाली गयी थी। गीताआश्रम के हरिहर जी महाराज की प्रेरणा से मैने ‘‘गीताभाष्कर’’ नाम से  एक साप्ताहिक पत्रिका भी बहुत दिनों तक सम्पादित की थी। किन्तु महाविद्यालय के कार्यों के साथ इस कार्य के लिए जितना समय देना पड़ता था, उतना समय मैं सफलता पूर्वक नहीं दे सका और अनेक प्रकार के व्यवधानों के कारण कुछ दिनों के बाद इस पत्रिका का प्रकाशन बन्द कर दिया गया। स्वामी जी ने हमारी परेशानी को समझा और अन्य किसी सुपात्र का सहयोग न मिल पाने के कारण उन्होंने गीताभाष्कर का प्रकाशन प्रयाग से हटा कर दिल्ली ले जाना उचित समझा। उन्होंने मुझे बहुत प्रेरित किया कि तुम दिल्ली में रह कर आश्रम में इस कार्य को करों, किन्तु मेरी परिस्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं महाविद्यालय की एक अच्छी नौकरी छोड़ कर परिवार से अलग रह कर आश्रम की जिन्दगी व्यतीत करूँ, अतः मैने मना कर दिया। मेरे हाथ खीच लेने के बाद दिल्ली में भी यह प्रकाशन कुछ ही समय चल पाया और अन्ततः बन्द हो गया। स्वामी हरिहर जी महाराज एक व्यस्त संन्यासी थे। अक्सर देश विदेश में उनका कार्यक्रम रहता था, और उनके प्रत्यक्ष निर्देशन नियंत्रण और आर्थिक  असहयोग के कारण अन्ततः गीताभाष्कार का प्रकाशन मृतपाय हो गया। स्वामी जी माघ मेले के अलावा भी अक्सर प्रयाग आते रहते थे। और विभिन्न भक्तों के घर पर उनके कार्यक्रम होते रहते थे। किन्तु विशेष रूप से वे चन्द्रमोहन भार्गव के सिविल लाइंस स्थित बगले पर ठहरते थे। वहाँ चन्द्रमोहन जी की माँ श्रीमती विद्याभार्गव से उनका पुराना परिचय था, और उनकी बहू प्रमिला भार्गव स्वामी जी को बहुत मानती थी, अतः वहाँ उन्हें पारिवारिक सुख सुविधा प्राप्त होती थी, और बहुत दिनों तक उनका संत्सग वहाँ चलता था।

स्वामी जी से जब मैं पहले पहल मिला तो यह भी एक अदभुत घटन्ाा थी। उस दिन माघी पूर्णिमा थी। मेले के समापन का दिन था। मै संपत्नीक संगम स्नान के पश्चात अक्षयवट का दर्शन करने के लिए किले के पाताल लोक में दर्शन करके लौटने ही वाला था, कि किसी यात्री ने सूचित किया की आज असली अक्षयवट भी दर्शन के लिए खुला है। यह सुन कर मुझे उत्सुकता हुई और मैं सपत्नीक किले के दक्षिणी सीमा पर स्थित वास्तविक अक्षयवट का दर्शन करने के लिए निर्देशित मार्ग से प्रविष्ट हुआ। वहाँ मैंने देखा कि एक बहुत ही दिव्य व्यक्तित्व वाले संत अक्षयवट के नीचे बने चबूतरे पर विराजमान हैं, और उनके समक्ष यज्ञ शाला में कुछ भक्त गीता के श्लोकों के अनुसार आहुति डाल कर यज्ञ कर रहे है। पहली ही बार में उस संत का दिव्य राजऋषियों जैसा स्वरूप देख कर मैं प्रभावित हो गया। मैने उनके निकट जा कर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने मेरी ओर देख कर मेरा परिचय पूछा और बतलाने के बाद एक दिव्य मुस्कान के साथ उन्होंने मेरी पीठ पर थपकी दी और पूछा गीता प़ढ़ते हो, जब मैने विनम्र भाव से हामी भरी तो वे बड़े प्रसन्न हुये और एक गीता की पुस्तक मुझको दे कर बोले लो यज्ञ कराओं। मैं बड़े संकोच के साथ जब लाउडस्पीकर के समक्ष बैठ कर मंत्रों का उच्चारण करने लगा तो उनकी प्रसन्नता देखते बनती थी, और पास आ कर उन्होंने पुनः मेरी पीठ थपथपा कर शाबासी दी। यज्ञ समाप्त होने के पश्चात् उन्होंने विशेष कृपा कर के मुझे पर्याप्त प्रसाद दिया और बोले तुम शाम को रोज मेरी कुटिया में आया करो, और तब से प्रत्येक वर्ष जब भी मुझे समय मिलता उनके दिव्य आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उनके प्रवचनों का लाभ उठाने पहँुच जाया करता था। बाद में तो मैं उनके बहुत ही निकट के शिष्यों में स्थान पाने लगा था, और स्वामी जी जब भी प्रयाग आते, मुझे विशेष रूप से सूचना दी जाती और मैं उनके कार्यक्रमों में उपस्थित होने का मोह सम्वरण करने में संकोच का अनुभव नहीं करता था। उनका वह प्रथम दिव्य भव्य राजऋषियों जैसा व्यक्तित्व आज भी मेरी स्मृति में विद्यमान है। और अपने पूज्य गुरुवरों में मैं उनका भी नित्य स्मरण करता हूँ। उनका लम्बा स्वथ्य गोरा शरीर, लम्बे लम्बे घुघंराले बाल, बड़ी बड़ी रोबीली मूछें नित्य दाढ़ीr बनाने का उनका संयम, राजसी मिरजयी तथा पीताम्बर ओढ़ कर खड़ाऊ पर चलना मुझे बड़ा अच्छा लगता था। उनकी ओज पूर्ण वाणी, दिव्य मुस्कान, परिचित अपरिचित सब के प्रति प्रेम भाव बरसाने वाली उनकी निगाहें, गीता का अद्भुत ज्ञान, गीता पढ़ने और पढ़ाने का उनका अलग निराला व्यवहार तथा गीता की उत्कृष्ठ व्याख्या बरबस ही बड़े बड़े विद्वानों को आकर्षित कर लेती थीं। निश्चित रूप से वे पूर्व जन्म में कोई राजऋषि ही रहे होंगे, जो अपनी करुणा से ज्ञान का प्रकाश पैâलाने के लिये इस दिव्य स्वरूप में पुनः अवतरित हुये थे। जैसा कि वे बतलाते थे, सत्तर के दशक में वे पिछले चालीस वर्षों से अन्न और जल नहीं ग्रहण किये थे। केवल दूध और फल ही लेते थे। नित्य अनेक प्राणायाम करते थे। और ८६ वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी वे युवकों जैसा सक्रिय क्रियाकलाप और ओज पूर्ण प्रवचन दे कर प्रभावित करते थे। ८७वें वर्ष में उन्होंने अपने इस नश्वर शरीर को छोड़ा। अब तो उनकी स्मृति मात्र शेष है। उनके न रहने पर जैसा कि प्रत्येक संस्थाओं का होता है, आश्रम की गतिविधियाँ गलत रास्ते पर चली गयीं। यहाँ प्रयाग में कुछ दिनों तक तो उनका वैâम्प लगता था, किन्तु नाम मात्र के ही कुछ कार्यक्रम होते रहे। लोग उस आश्रम से लाभान्वित होने के चक्कर में ज्यादा रहने लगे, और कुछ दिनों के बाद उनका वैâम्प लगना भी बन्द हो गया। स्वामी जी के स्वर्गवासी होने के बाद गीता आश्रम से मैं प्रायः अलग हो गया था, और जब कभी जाता था, तो एक दूसरे की शिकायत ही सुनने को मिलती थी। अतः बाद में मैने वहाँ जाना भी बन्द कर दिया। पता नहीं दिल्ली का गीता आश्रम किस अवस्था में है, मुझे मालूम नहीं। मै वहाँ कभी गया नहीं, किन्तु गीताआश्रम के संस्थापक स्वामी हरिहर बाबा जी की दिव्य मूर्ति और उनके द्वारा प्रदत्त गीता ज्ञान मेरे हृदय को आज भी शान्ति, आनन्द और संतोष प्रदान करते रहते हैं।

पारिवारिक मानस सत्संग में-

गीता आश्रम के अलावा मै ‘‘पारिवारिक मानस सतसंग’’ से भी कई वर्षों तक जुड़ा रहा। यह सत्संग रविवार के दिन साप्ताहिक होता था। जिसमें नियमित वक्ताओं के अलावा प्रयाग पधारे अच्छे संत भी आमंत्रित किये जाते थे। यह सत्संग पार्क रोड़ पर स्थित केशर भवन में, जिसमें उस समय नगर सेठ श्री लोकमणिलाल, जो एक इंजिनियर थे, और प्रयाग में ही नहीं बल्कि पूरे देश में आलू रखने के लिए कोल्डस्टोर बनाने वाले पहले व्यक्ति थे। वे बड़े भक्त थे, उनकी पत्नी और बहू डा. कृष्णागुप्ता भी जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रीडर थीं, इन आयोजनों में सहयोग देती थीं। गर्मी के दिनों में चारों ओर खस की टटरी लगा कर उसमें सत्संग कराते थे। माघ मेले में भी उनका भव्य वैâम्प लगता था, तथा वे अनेक प्रकार के व्यवसाय अपने आवास में तथा अन्य स्थानों पर करते थे। उनके आवास में कपड़े की सिलाई के साथ साथ एक बहुत ही उच्च कोटि की डेरी भी थी, जिसमें कई संकर गायें वे पाले हुये थे, तथा दूध से मक्खन और घी इत्यादि भी बनवाते थे। उनका पुस्तकालय भी आधुनिक कृषि और डेरी से सम्बन्धित पत्रिकाओं से परिपूर्ण था जिसे वे अक्सर मुझे पढ़ने को देते थे। और डेरी के बारे में राय मशविरा भी करते थे। उन्होंने बाद में इंग्लिस मीडियम से दो इण्टर मीडिएट कालेज भी एक रसूला बाद में तथा दूसरा फाफामऊ में खोला। प्रारम्भ में उन्होंने मुझे प्रबन्धक के रूप में रखने का प्रस्ताव किया, किन्तु मैं विद्यालय में व्यस्त होने के कारण अधिक समय नहीं दे पाता था, अतः बाद में उन्होंने मेरे मित्र जो चिन्मय मिशन से जुड़े थे, और मेरे यहाँ साप्ताहिक गोष्ठियों में आते थे, मेरे सुझाव पर उन्होंने डॉ० दीक्षित को प्रबन्धक का कार्यभार सौपा, और वे जब तक जीवित रहे इस कार्य का बखूबी निर्वाह करते रहे। अब तो उस केशर भवन को विश्व हिन्दू परिषद के लोगों ने प्राप्त कर लिया है। अतः पारिवारिक मानस सत्संग से भी इस तरह से मेरा नाता टूट गया। सेठ लोकमणिलाल बड़े ही विनम्र और उदार व्यक्ति थे। उनकी मंशा थी इलाहाबाद में एक विशाल डेरी स्थापित करने की। किन्तु यह योजना उनके साथ ही समाप्त हो गयी। सेठ जी बड़े दानवीर थे। वे प्रयाग की अनेक संस्थाओं को उदारता पूर्वक दान देते थे। चिन्मय मिशन में भी उन्होंने प्रायः अर्थ दान किया है। इसके अलावा विज्ञान परिषद के सभा कक्ष के लिए निर्माण में भी उनका महत्वूर्ण योगदान रहा है।

वराँव कोठी में –

इसके अलावा टैगोर टाउन में स्थित राजा बराव की कोठी में आयोजित सत्संग में भी मैं भाग लेता था। उनके बंगले का हाल बहुत बड़ा था जिसमें झाड़ फानूस एवं उनके पूर्वजों के तैल चित्र तथा बड़े-बड़े दर्पण लगे हुए थे। जब भी उनके यहाँ सत्संग होने की योजना बनती मेरे प्रात: भ्रमण के समय राजा और रानी दोनों मुझसे मिलकर विशेष अनुरोध कर मुझे सत्संग के लिए बुलाते थे।

अखिल भारतीय लोक सेवक समिति –

सत्संग के इन क्रियाकलापों के अलावा मैने सेवा की भावना से एक ‘‘अखिल भारतीय लोक सेवक समिति’’ की भी स्थापना की थी। इसमें मेरे पूर्व विद्यार्थियों और वर्तमान विद्यार्थियों के अलावा अन्य विद्यालय के सक्रिय सहयोगियों से सहयोग ले कर नगर में आयोजित होने वाले दशहरा और मोहर्रम के जलूसों में, माघ मेले में, विभिन्न स्नान पर्वो में, सेवक के रूप में कार्य करने के लिए, अंजान व्यक्तियों के मार्ग दर्शन, वृद्धों और अपंगो को स्नान करना, दीन दुखियों के अल्पाहार और भोजन की व्यवस्था, तथा भूले भटकों को शिविर में पहँुचाने का कार्य इस संस्था के माध्यम से लोक सेवक करते थे। इन सब कार्यों को करने के लिए विभिन्न संतो, मठाधीशों और नगर के सम्भ्रान्त लोगों से आर्थिक सहयोग प्राप्त किया जाता था। लोक सेवक सेवा कार्य करने के पश्चात् विभिन्न पंडालों में भोजन और जल पान प्राप्त करते थे। किन्तु यह संस्था भी पाँच छः साल तक ही सूचारु रूप से काम कर पायी और जब इसमे ंविकृति आयी और कुछ सदस्य स्वार्थ परता और अर्थ लोलुपता के चक्कर में ज्यादा रहने लगे और मेरे पास भी न तो इतना समय था, और न साधन कि मैं उन पर नियंत्रण रख सकूँ अतः दूसरे इच्छुक पदाधिकारियों को कार्यभार सौंप कर मैं इस संस्था से अलग सा हो गया। बाद में यह संस्था निष्क्रिय हो गयी। इस तरह महाविद्यालय के अध्यापन कार्य में किसी भी प्रकार का व्यवधान डाले अथवा अवहेलना और अनुशासन के विपरीत कार्य न करते हुये मैं इन कई संस्थाओं से जुड़ा रहा और सक्रियता पूर्वक उनमें कार्यरत रहा। किन्तु बाद में इन सबसे निवृत हो कर मैने अपनी साहित्यिक गतिविधि की ओर पहले से अधिक सक्रियता दिखलाई और ईश्वर की कृपा से अनेक अनुवाद और मौलिक ग्रथों की रचना कर सका।

डॉ० रामकुमार वर्मा के द्वारा स्थापित ‘‘ऋतुराज’’ संस्था के कार्यकाल में साठ-सत्तर के दशक में और उसके बाद भी मैंने बहुत कुछ लिखा। मेरी अनेक कवितायें अनेक पत्र पत्रिकाओं और दैनिक में प्रकाशित होती रहीं। मैने अपने महाविद्यालय की पत्रिका में तो कई वर्षों तक सहसम्पादक और सम्पादक रहा। जिसमें मेरे लेख, कहानियाँ, चुटकुले, एकांकीनाटक, तथा सम्पादकीय टिप्पणियाँ आदि दो दशकों तक प्रकाशित होती रहीं। उन्ही दिनों मैने ‘‘मानस नवनीत’’, श्रीमद्भागवतगीता का पद्यानुवाद, रणभेरी, जय किसान, अवगुंठन की ऊँचाईयाँ जो उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत भी हुई और जिसे मैने गर्मी की छुट्टियों में मात्र एक माह में पूरा किया था। इसी समय मैने अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद के सम्पूर्ण जीवन चरित्र को प्रकाशित करने वाला महत्वपूर्ण प्रबन्ध काव्य ‘‘क्रान्तियज्ञ’’ लिखा। इसके अलावा नारद भक्ति सूत्र, उपदेश सार, दृग्दृष्यविवेक पुस्तकों का पद्यानुवाद भी किया। दक्षिणामूर्तिस्तोत्र का भी सरल हिन्दी में गीत के रूप में पद्यानुवाद किया। इन्हीं दिनों एक संत और तेल और गैस आयोग के वरिष्ट अधिकारी द्वारा अंग्रेजी में लिखी हुई पुस्तक ‘‘स्ट्र्रक्चर आफ द सोल’’ का हिन्दी में अनुवाद किया। इसी प्रकार थियोसाफी की अंग्रेजी की पुस्तक ‘‘थियोसाफी द डिवाइन विजडम’’ का भी हिन्दी में अनुवाद किया। चिन्मय मिशन और गीता संत्संग मण्डल की गतिविधियों के सम्पादन में भी मेरा सक्रिय योगदान रहा है। अंग्रेजी और हिन्दी की अनेक पत्र्ा और पत्रिकाओं में मेरे अनेक लेख प्रकाशित होते रहे है। प्रयाग से निकलने वाले प्रतियोगिता पीयूष में मेरा एक तकनीकी इंटरव्यू भी छपा था। आकाशवाणी में मेरी पंचायत घर और पनघट में सौ से भी अधिक वार्ताएँ प्रसारित हुईं तथा कुछ कविताएँ भी प्रसारित हुई हैं।

विद्यालय से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् कुछ दिनों तक मेरी लेखन की गतिविधि मंद हो गयी थी। आकाशवाणी में भी अब मेरी वार्तायें कम ही हो पाती हैं। वहाँ अब सिफारिसे चलने लगी हैं, और मैं अपने स्वभाव के अनुसार मक्खन बाजी से दूर ही रहता हूँ। दूरदर्शन से भी अब मेरी दूरी बढ़ गयी है। बहुत ही सीमित अवसरों पर ही दूरदर्शन की कृपा मेरे ऊपर हुई है। वहाँ का माया जाल भी बड़ा लाग लपेट पूर्ण है। अतः मेरी इसमें अभिरुचि नहीं रह गयी है। साहित्यिक क्षेत्र में पहले मैं बहुत सक्रिय था। दूर दूर तक कवि गोष्ठियों में जाता था, किन्तु अब धीरे धीरे शारीरिक वाध्यता के कारण मैने अपना हाथ खीच लिया है। अब तो नगर में भी सुविधापूर्ण परिस्थितियों में ही मैं जा पाता हूूँ। हर जगह मेरे स्वभाव के प्रतिकूल वातावरण बन गया है। अतः अब मैं निष्क्रिय सा हो गया हूँ।

मेरी राजनैतिक गतिविधियाँ

राजनीति के क्षेत्र में स्वतंत्रता के पूर्व मैंने सबसे पहले अपने चाचा परमहंस दूबे के १९४२ में आन्दोलन के दौरान जेल जाने के क्रम में परिवार के अन्य लड़कों के साथ मैं भी झण्डा लेकर जलूस में शामिल हुआ था स्वतंत्रता दिवस के शुभ अवसर पर पी.डी.एन.डी. कालेज और कचहरी में भी झण्डा रोहण में मैंने भाग लिया। तथा अपने साथियों के साथ चुनार के गिरजाघर में लगे झण्डे को उखाड़ लिया गया और उसे अपने गाँव के महावीर जी के मंदिर पर लाकर उड़ाया गया और जयकारा हुई। राज्य पुनर्गठन होने के क्रम में पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त की शिवशंकरी धाम में हुई सभा में भी मैंने भाग लिया जहाँ पँचेवरा के ओमकार नाथ उपाध्याय ने उनकी उतारी गई माला निलामी में सौ रुपये में खरीदा था। पंडित कमलापति त्रिपाठी जी तो मेर पिताजी के सहपाठी ही थे। अत: उनके प्रति मेरा विशेष लगाव था और उनकी सभाओं में मैं बहुधा भाग लेता था। चौधरी चरण सिंह जी से भी मैं काफी प्रभावित था और उनकी कई सभाओं में मैंने विशेषकर चुनाव के दिनों में भाग लिया था। चौधरी साहब मुझे मान्यता देते थे। १९५५ में चुर्क, चुनार रेलवे के उद्घाटन के अवसर पर पंडित जवाहर लाल नेहरू के द्वारा दी गई सभा में मैंने अपने साथियों के साथ भाग लिया था।

पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिल्ली में १९५० में लालकिले से उनका प्रथम दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, तथा २६जनवरी १९५१ को गणतन्त्र दिवस के अवसर पर पिता जी के इशारे पर उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम करने पर पीठ पर थपकी प्राप्त करने का सुयोग मिला था। १९५० में ही पिलानी में भी उनके दर्शन हुये थे। तथा १९५५-५६ में काशीहिन्दू विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में आचार्य नरेन्द्रदेव के साथ पंडित जवाहर लाल नेहरू का भाषण सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। प्रयाग आने पर तो प्रायः प्रत्येक वर्ष नेहरू जी से एक श्रोता के रूप में जुड़ा रहा हूँ। १९६५ में उनके प्रयाग के कायस्थ पाठशाला के मैदान से उनके अन्तिम भाषण का भी साक्षी रहा हूँ। उसके बाद लाल बहादुर शास्त्री जी के भाषण सुनने और महाविद्यालय में उनके क्रियाकलापों में मेरी निकटता रही है। उनकी धर्म पत्नी श्री मती ललिता शास्त्री द्वारा राजेन्द्र छात्रावास में राजेन्द्र बाबू की मूर्ति के अनावरण का मैं संचालक होने के नाते निकट का सहयोगी रहा हूँ। लाल बहादुर शास्त्री के भारत भूमि में अन्तिम भाषण सुनने का भी सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। बाद में इन्दिरा जी के कार्यकाल में उनके प्रयाग आगमन पर उनसे निकट सम्बन्ध स्थापित करने के सुअवसर प्राप्त हुये। इसके पूर्व इन्दिरा जी जब प्रयाग में पहले पहल मुझसे मिलीं तो वह लाल बहादुर शास्त्री सेतु के आधार शिला रखने का सुअवसर था। वे मेरे बिलकुल बगल में तत्कालीन मेयर श्री बैजनाथ कपूर के साथ बैठी थीं। मुझे याद है कि इमरजेन्सी के जमाने में एक बार उस दुबली पतली क्षीण काया वाली महिला द्वारा कुछ सज्जनों के बीच में बैठ कर तत्कालीन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुल पति आर० के० नेहरू के जार्जटाउन स्थित आवास पर इमरजेन्सी के सम्बन्ध में पश्चाताप के रूप में प्रकट किये गये भाव आज भी मुझे याद है। इमरजेन्सी के दिनों में वह कठोर अनुशासन को पालन करने वाली महिला जो अपने विरोधियों के प्रति दोषी और निर्दोषी सभी प्रकार के व्यक्तियों का पूरी कठोरता से दमन करने वाली वह क्षीण काय महिला उस दिन वहाँ उपस्थित मात्र एक दर्जन लोगों के बीच अपने अश्रु पूरित नेत्रों से पश्चाताप प्रकट कर रही थीं। उनका वह कथन आखिर मैं क्या करती, इतना बड़ा देश, इतना अच्छा गौरव पूर्ण अतीत और आज भी इतने अच्छे अच्छे नेता, शिक्षाविद, प्रकाशक और समाजसेवक भरे पड़े हैं, वह चन्द स्वार्थी लोगों के कारण इतना अनुशासन हीन हो गया था, कि शासन चलाना मेरे लिये कठिन हो गया था। मुझे बाध्य हो कर राष्ट्र धर्म के पालन के लिए मजबूर होकर राष्ट्र को सद्मार्ग पर लाने के लिए मुझे यह कड़वी दवा पिलानी पड़ी, इसके अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था। मैने संविधान के विपरीत कोई Dााचरण नहीं किया। इमरजेन्सी मैने सविंधान के अनुरूप ही लगाया है। इसके पूर्व मैने अनेक उपाय कर के जब देख लिया कि सवैंधानिक गतिविधियों में भी मीनमेष निकाल कर कुछ लोग सार्वजनिक अच्छे क्रियाकलापों में भी बाधा डाल कर अथवा अपने स्वार्थ के लिये उसका दुरूपयोग करने में संलग्न हैं, तो मुझे राष्ट्र को ठीक दिशा में ले जाने के लिए इसके अलावा मुझे कोई अन्य मार्ग नहीं सूझा। मुझे मालूम है कि स्थानीय स्तर पर निर्दोष लोग भी इसकी परिधि में आ कर सजा भोग रहे हैं, इसके लिए मुझे खेद है, किन्तु मैं राष्ट्र की दृष्टि से सोचती और कार्य करती हूँ। व्यक्ति और व्यक्ति की दृष्टि से नहीं। आज नहीं तो कल इमरजेन्सी एक न एक दिन तो मुझे हटानी ही है। यह तो राष्ट्र की चेतना के परिमार्जन के लिए मेरा एक लघु प्रयास मात्र है। मेरा इसमें कोई स्वार्थ नहीं है। कोई राग या द्वेष नहीं है। काश देशवासी मेरी इस भावना को समझ पाते और अपने आँचल से मेरी पीड़ा के इन आसुओं को पोछ पाते।

उस वक्त स्वर्गीय डॉ० आर० के० नेहरू जी के आवास पर उनके निधन पर शोक प्रकट करने गयी इन्दिरा जी की इस प्रकार की अन्तरमन की यह स्वीकारोक्ति और प्रायश्चित का भाव सोच कर कभी कभी मैं भ्रमित सा रह जाता हूँ। एकान्त में इस प्रकार का भाव प्रदर्शन और राजनैतिक निर्णय लेने में यह कठोरता आखिर दोनों में सत्य क्या है, क्या वाणी और व्यवहार अन्तरद्वन्दों से परिपूर्ण है। अथवा इमरजेन्सी लगाने का सुझाव देने वाले अधिकारियों के कारण जल्दबाजी में निर्णय तो ले लिया गया किन्तु बाद में राष्ट्र के जागरूप लोगों के भाव व्यवहार और विरोध को देख कर उन्हें भी कहीं न कहीं अपनी गलती का आभास हो गया था। कारण चाहे जो भी हो, किन्तु विशेष कर इमरजेन्सी के दिनों में और उसके बाद भी बहुत दिनों तक देश में प्रत्येक क्षेत्र में जो संयम और अनुशासन का वातावरण बन गया था, बहुतों के मुख से उसकी प्रशंसा सुनने को मिलती रही, और मेरा स्वयम् का भी अपना भी यही अनुभव था। ‘बिन भय होय न प्रीति’ का प्रत्यक्ष दृष्टांत सर्वत्र दिखलाई पड़ रहा था। किन्तु इसके साथ ही साथ जो लोग राजनीति में सक्रिय थे, अथवा उनके अनुमोदक थे, तथा इमरजेन्सी के कारण पीड़ित थे, वे लोग तो स्वभाविक रूप से इमरजेन्सी की निन्दा करते थे, जिसे अनुचित भी नहीं कहा जा सकता। किन्तु यह भी सही है कि आम जनता इमरजेन्सी से खुश थी। शासन और प्रशासन की बहुत सी कमिया उन दिनों समाप्त सी हो गयी थी। यातायात के सभी साधन समय से और सुचारू ढंग से चल रहे थे। अधिकारियों द्वारा जनता के कार्य शीघ्रता से निपटाये जा रहे थे। प्राथमिक पाठशाला से ले कर विश्व विद्यालय तक शिक्षण प्रशिक्षण और परीक्षा का काम समय से और सुचारू ढंग से होने लगा था। देश में अराजकता, उदण्डता और अत्याचार समाप्त सा हो गया था। देश उत्पादन के पथ पर तीव्र गति से आगे बढ़ने लगा था। चारों ओर शान्ति और सन्तोष का वातावरण था। ऐ सब लाभ प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे थे। किन्तु फिर भी मेरा ऐसा चिन्तन है कि चाहे तत्कालीन संविधान के अनुसार संविधान सम्मत एमरर्जेन्सी भले ही लगायी गयी हो किन्तु इस प्रकार का संवैधानिक अधिकार के दुरूपयोग की भी किसी भी गलत प्रशासक के द्वारा कारण बनने की प्रबल सम्भावना है। अतः इमरजेन्सी के बाद इस प्रकार का संविधान बदल दिया गया। और अब ऐसा संविधान बन गया है कि किसी भी शासन अथवा प्रशासन द्वारा इस प्रकार का वांछित अथवा अवांछित प्रतिरोध रूपी शासन का लगाया जाना सर्वथा असम्भव तो नहीं किन्तु कठिन अवश्य हो गया है। जो भारत राष्ट्र के हित में है।

इन्दिरा जी के समय में और उसके बाद राजीव जी के शासन काल तक मैं कांग्रेस का सक्रिय सदस्य न होते हुये भी, कांग्रेस जनों के क्रियाकलापों में अधिक रुचि लेता रहा। मैं राजीव गांधी के करीब तो नहीं आया किन्तु एक बार उनके प्रयाग आगमन पर इलाहाबाद के  के०पी० ग्राउण्ड पर कुछ अति विशिष्ट लोगों के साथ मुझे भी उनका स्वागत करने और हाथ मिलाने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। एक मैकेनिक होने के नाते सम्भवतः उनकी हथेली मेरी हथेली की अपेक्षा काफी सख्त थी। जब मैने इसका अनुभव किया और राजीव जी से कहा कि आप की हथेली एक मैकेनिक्स की हथेली है, तो वे मुस्कुराकर धन्यवाद देते हुये आगे बढ़ गये। उस सभा में मैने स्वरचित एक राष्ट्रगीत भी प्रस्तुत किया था। उस समय स्वर्गीय केदार नाथ मानवीय जी जो मेरे प्रशंसक व मेरे मित्र थे, तथा प्रयाग नगर कांग्रेस के अध्यक्ष थे, वे उस समय मंच पर उपस्थित थे। मैं के०पी० कालेज के मुख्य गेट से न जा कर कुलभास्कर आश्रम के छोटे गेट से जो मेरे आवास के नजदीक होने के कारण जब जाने लगा तो सुरक्षा कर्मियों ने मुझे जाने से रोक लिया। मालवीय जी ने जब मुझे देखा तो मंच से ही लाउडसपीकर से सुरक्षाकर्मियों से आदेशके स्वर में कहा कि द्विवेदी जी को रोकिये मत उन्हें आने दीजिये। और फिर तो मैं जैसे किसी वी.आई.पी. की तरह अधिकारियों के सलामी के बीच मंच तक बिना किसी रोक टोक के पहँुच गया था। और वहाँ के कार्यक्रम में सक्रिय रूप से भाग लिया था।

कुलभास्कर महाविद्यालय में कार्यरत रहते हुय्ो, मैने चौधरी चरण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में विद्यालय में उनका भी स्वागत किया था। और जब वे कांग्रेस से रूठ कर भारतीय लोक दल बना कर राजनीति में सक्रिय थे, तब भी मैं उनका प्रशंसक बना रहा। उनकी अनुशासन प्रियता और ईमानदारी से मैं प्रभावित था। चौधरी चरण सिंह जब जब इलाहाबाद आये मैं उनसे मिला और मेरा उनसे घनिष्ट परिचय हो गया। वे मुझे प्रोफेसर साहब कह कर बुलाने लगे थे। इलाहाबाद में मेरे एक मित्र सर्वसुख सिंह जो कर्नलगंज इण्टर में अध्यापक थे, वे हेमवती नन्दन बहुगुणा जी को हरा कर प्रदेश के शिक्षा मंत्री बने थे। उनके चुनाव में मैं मेजा, बारा और करछना के प्रायः प्रत्येक गाँव में घूमा था और चुनाव प्रचार किया था। इन चुनाव में कई बार चौधरी चरण सिंह के साथ भी गया। उनके साथ जहाँ कहीं भी जाता था, वे प्रायः मुझे पहले बोलने के लिए कहते थे। जब हमारे विद्यालय के मेरे मित्र ब्रह्मदिन सिंह भालोद से लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए चौधरी चरण सिंह की कृपा से टिकट प्राप्त कर लिये और गंगा पार के फूलपुर क्षेत्र से चुनाव लड़े और विजयी हुये, उनके चुनाव प्रचार में भी मैं चौधरी चरण सिंह के साथ अपने मित्र के पक्ष में चुनाव प्रचार करने के लिए गंगा पार के कई गाँवों में गया था। किन्तु एक छोटी की घटना ने चौधरी चरण सिंह के प्रति मेरी आस्था को डिगा दिया। जब मेरे समक्ष ही उन्होंने कुछ ऐसी बातें कही जो मेरी भावना के विपरीत थीं। यह मुझे अच्छा नहीं लगा और मैने चौधरी साहब को टोक दिया और सिद्धान्तः उनके कथन से अपना मतभेद प्रकट किया। किन्तु वे नेता गिरी के अहंकार के कारण अपने दृष्टि कोण पर जोर देने लगे, तो मुझे सहसा निर्णय लेते हुये और अपना विरोध प्रकट करते हुये मैने मार्ग में ही उनका साथ छोड़ दिया और बड़ी कठिनता से साधन प्राप्त कर अपने आवास पर लौट आया। उसके बाद कई बार चौधरी साहब ने अपने संदेश वाहकों के माध्यम से मुझे बुलवाया और मेरी नाराजगी के शमन का प्रयास किया, किन्तु मुझे राजनीतिज्ञों की स्वार्थ पूर्ण चालबाजियों का अनुभव हो गया था। अतः मैं अपने स्वभावानुसार पुनः इस जंजाल में फँसना उचित नहीं समझा।

कांग्रेस के अपने साथियों में मैं इलाहाबाद के तत्कालीन वरिष्ट नेता हेमवती नन्दन बहुगुणा एवम डॉ० राजेन्द्र कुमारी बाजपेयी को बहुत आदर भाव से देखता था। बहुगुणा जी यद्यपि एक बार चुनाव हार गये थे, और उस हार में मैं भी उसके विरोध में सक्रिय था, किन्तु व्यक्तिगत रूप से उनके प्रति मेरे आदर में कोई कमी नहीं थी। चौधरी चरण सिंह से दूरी बढ़ जाने के बाद मैं बहुगुणा जी के काफी करीब आ गया था। और बाद के लोक सभा चुनाव में तो उन्होंने मुझे अपने केन्द्रीय चुनाव कार्यालय का सक्रिय कार्यकर्ता बना लिया था। और मुझ पर पूरा विश्वास करने लगे थे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन परिसर कार्यालय जहाँ आज राजर्षि टण्डन मंडपम् हैं वही उनका कार्यालय था। मैं तब वहींr पास ही में साहित्य सामेलन के ठीक सामने राधेश्याम अग्रवाल जो तब जानसन गंज में यू०पी० साइकिल कम्पनी के प्रोपराइटर थे, मैं उन्हीं के मकान में १०० रूपये मासिक किराये पर प्रथम तल पर रह रहा था। यह मकान सुरक्षित तथा सभी सुविधासम्पन्न था। रात लगभग १२ बजे तक मैं कार्यालय में काम करता था। बहुगुणा जी क्षेत्र से दौरा कर के देर रात लौट कर आते और हम जैसे कुछ चुने हुये लोगों के बीच बैठ कर अपने अब तक के अनुभव और भविष्य की योजना पर विचार विमर्श करते, मैं जिसका संक्षिप्त विवरण समाचार पत्र को भेजता कार्यालय के मेरे सहयोगी अधिकारी दास बाबू और रामनगीना तिवारी भी थे। उस चुनाव में बहुगुणा जी विजयी हुये थे और केन्द्रीय मंत्रि परिषद की शोभा बढ़ाये थे। मैं अपने स्वभाव को क्या कहूँ, इतने अच्छे अच्छे लोगों के बीच रह कर भी मैने कभी भी कोई राजनैतिक या आर्थिक लाभ कमाने की कभी भी कोशिश नहीं की। बहुगुणा जी जब भी इलाहाबाद आते तो मुझसे कहते तुम दिल्ली क्यों नहीं आते हो। मै क्या जवाब देता, जब मेरी कोई अकांक्षा ही नहीं थी, तो क्या करने दिल्ली जाता।

ठीक यही भाव और वाणी बाद के वर्षों में डॉ० राजेन्द्र कुमारी वाजपेयी केन्द्रीय मंत्री हुई तो वे भी यही शिकायत की।  एक बार संजोग से मैं दिल्ली गया था तो उन्होंने बड़े प्रेम से  मुझे अपने आवास पर ले गयी थीं। और काफी देर तक प्रयाग के बारे में और मेरे बारे में चर्चा करती रहीं। मैं राजेन्द्री जी के सम्पर्क मैं १९६५ में ही आ गया था। जब वे आर्यकन्या इण्टर कालेज में प्राचार्या थीं। मैं अपनी बड़ी लड़की वन्दना को उस विद्यालय में प्रवेश दिलाने के लिए जब मैं उनसे मिला तो वे बड़ी प्रसन्नता से मुझसे मिली और यह जान कर खुश हुई कि मैं उनके आवास के पास ही रहता हूँ। यह जान कर वे और भी प्रसन्न हुई और वे मुझे काफी जानने और मानने लगी थीं। मै उस वक्त बाईके बाग में पार्क के पास जहाँ एक छोटा सा शिव मंदिर है, पंडित जगरदेवपाण्डेय के आवास ६६ बाईके बाग में रहता था। वहाँ से कुछ कदमों की दूरी पर ही डॉ० बाजपेयी का आवास था। तो वहाँ मैं अक्सर आया जाया करता था। १९७०-७१ में जब वे विधान सभा की सदस्य चुनी गयी तथा उत्तर प्रदेश सरकार में लोकलसेल्फ गवर्नमेंट और स्वाथ्य मंत्री बनी थीं, तो उनके साहित्यसम्मेलन द्वारा किये गये स्वागत समारोह में मैने काफी सक्रिय भूमिका अदा की थी। आज का चन्द्रलोक सिलेमाहाल जहाँ बना है, वह पहले बग्गा का मकान था। जिसे मुट्ठी गंज के सेठराजाराज जैसवाल ने खरीद लिया था। उसी आवास में स्वागत समारोह आयोजित करने का निर्णय लिया गया। और मुझे इस सम्बन्ध में जैसवाल जी से मिलने के लिए कहा गया। मैं जैसवाल से मिला और उन्होंने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक सभी सुविधा प्रदान करने की स्वीकृत प्रदान की। उस स्वागत समारोह में मैने राजेन्द्री जी के स्वागत में एक स्वागत गीत भी लिखा था। जिसे छपवाकर सम्मेलन वालों ने सभा में वितरित किया था। उस समय से लेकर उनके स्वर्गवासी होने तक मैं राजेन्द्री जी के काफी करीब बना रहा। मै उन्हें दीदी कहता और वे मुझे द्विवेदी भैया कहतीं। राजेन्द्री जी ने ही अपने सद्प्रयास से छात्रावास में राजेन्द्र प्रसाद की मूर्ति लगवाने के लिए उस समय ११हजार रूपये का सहयोग दिया था। छात्रावास में अथवा महाविद्यालय में जब कभी कोई विशेष कार्यक्रम होता, तो राजेन्द्री दीदी बड़ी सक्रियता से भाग लेती थीं। एकाध बार मुझे उनके साथ लखनऊ जाने और उन्हीं के आवास पर ठहरने का भी सुयोग मिला था। वे उस समय भारत और पाकिस्तान के बीच हुये हाकी मैच में भी मुझे ले कर स्टेडियम गयी थीं। राजेन्द्री जी जब दिल्ली में केन्द्रीय मंत्रि मंण्डल में शामिल हो गयीं अथवा जब पाण्डेचेरी की राज्यपाल नियुक्त हो गयीं तो उनसे मेरी दूरी बढ़ती गयी। उनके बाद प्रयाग में उनके सुपुत्र अशोक बजपेयी राजनीति में सक्रिय हुये और उनकी पत्नी रंजना बाजपेयी भी काफी सक्रिय बनी, किन्तु इन लोगों से मेरी निकटता नहीं बढ़ पायी। रंजना बाजपेयी की सहायता मैने उनके चुनाव में किया किन्तु उनके चमचों के कारण मेरी उनसे नहीं निभ पाई और दूरी बड़ती ही गयी। रंजना के पिता न्यायमूर्ति महेश नरायण शुक्ल से हमारी काफी करीबी रही है, इस लिए मै रंजना को प्यार करता था। किन्तु इन दोनों के कार्यव्यवहार मेरे स्वभाव के सर्वथा विपरीत थे। एकाध बार तो मुझे खुल कर इन दोनों का विरोध करना पड़ा।

हुआ यह था कि बाजपेयी को चुनाव लड़ने का टिकट न मिल कर सरोज दुबे को मिल गया था। अशोक बाजपेयी इसका विरोध करने लगे किन्तु जब उâपर से निर्णय हो गया था, तो यहाँ क्षेत्रीय स्तर पर मिल जुल कर कार्य करना चाहिए था। मुझसे भी सरोज दुबे का विरोध करने के लिए जब कहा गया तो मैने इसका विरोध किया इन्हीं विरोधों के कारण खीझ कर सरोज दुबे कांग्रेस से अलग हो गयीं थीं और दूसरी पार्टी के सहयोग से सांसद चुन ली गयीं। इसी प्रकार का विरोध व्यवहार बाजपेयी परिवार बहुगुणा परिवार से भी करता रहा। जिसका नतीजा हुआ कि वे हमेशा हारते रहे।  इसी प्रकार की राजनीति के कारण एक समय ऐसा भी आया था जब इन्दिरा जी और बहुगुणा जी में भी दूरियाँ बढ़ गयी थीं और प्रयाग की राजनीति एक विशेष घृणित दिशा की ओर बढ़ गयी थी। इन परिस्थितियों में अपने स्वभाव के कारण कांग्रेस के लोगो से दूर ही होता चला गया।

कांग्रेस के नेताओं में विश्वनाथ प्रताप सिंह से भी मेरी काफी निकटता थी।  अपने चुनाव के दौरान वे एक विशेष बैठक कर के हमारे साथ के कुछ अध्यापक सहयोगियों के साथ अपना विश्वाशपात्र बना कर एक अलग से कार हम लोगों को दिये थे जिससे हम लोग घूम घूम कर क्षेत्र के अन्य नेताओं की गतिविधियों का निरीक्षण कर के सहीवस्तु स्थिति से उन्हें अवगत कराते थे। वे चुनाव में विजयी हुये और बाद में तो वो प्रधानमंत्री का पद भी सुुशोभित किये। किन्तु बाद में उनकी मण्डल राजनीति के कारण उनसे मेरा विरोध हो गया और तत्सम्बन्ध में मैने अपना मन्तव्य प्रकट करते हुये एक लम्बा पत्र भी उनको लिखा था, तथा उनके प्रयाग आगमन पर प्रत्यक्ष विरोध भी किया था। किन्तु वे अपने सिद्धान्त पर कायम रहे और तब से मैने उनसे भी अपना नाता तोड़ लिया था।

कांग्रेस के प्रति सद्भाव के कारण अमिताभ बच्चन के चुनाव में भी मैने सक्रिय भाग लिया था। उनका चुनाव कार्यालय चूंकि मेरे विद्यालय के काफी नजदीक पार्क रोड पर स्थित था, मुझे जब भी अवसर मिलता, मैं चुनाव कार्यालय पहुँच जाता वहाँ अमिताभ बच्चन के पिता प्रसिद्ध कवि डॉ० हरिवंशराय बच्चन से मैं मिला। बच्चन जी को सबसे पहले मैने १९५०-५१ में पिलानी में काव्य पाठ करते हुये देखा था। उसके बाद १९५६ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी एक बार उनकी मधुशाला सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उस दशक में बच्चन जी की बड़ी पूछ थी। वे सफेद चूड़ी दार पजामा और काली शेरवानी तथा चश्मा पहनते थे और बड़े बड़े घुघराले बाल के कारण उनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक लगता था। जहाँ कही भी जाते श्रोता गण मधुशाला मधुशाला की आवाज लगा कर उन्हें मधुशाला सुनाने के लिए प्रेरित करते और बच्चन जी बड़े रस मय और सुरीली आवाज में मधुशाला की रूबाइयाँ सुनाते। इलाहाबाद में जब मैं उनके सम्पर्क में आया तो चुनाव कार्यालय के बगले के लान में दोपहरी की गुनगुनी धूप में मैं अपनी रचनायें उन्हें सुनाता था। एक दिन मैने अमिताभ बच्चन की प्रशन्सा में एक गीत लिखा, तो बच्चन जी ने अमिताभ बच्चन को बुला कर उनसे मेरा परिचय करवाया और उस कविता को उनकी पत्नी जया बच्चन ने पढ़ कर अपने पर्स में रख लिया और दूसरे दिन उसको छपवाकर मेरे जाने पर एक बंडल मुझे धन्यवाद के साथ थमा गयी। मैने उन कविताओं को कार्यकर्ताओं में बाँटा और अमिताभबच्चन के चौक में आयोजित सभा में लाखों लोगों की भीड़ के बीच मैंने अमिताभ बच्चन के सम्मान में उस रचना को सुनाया। जिसकी बड़ी प्रशंसा हुई। इस निकटता के कारण मैने हरिवशंराय बच्चन की दो चार चुनाव सभायें भी आयोजित कराई। चौक में जब मैने अपनी कविता सुनाई जिसके बोल थे-‘‘मेरा अमिताभ यथा नाम तथा गुण वाला । प्रकाशपुंज अँधेरे को मिटाने वाला।’’ इसको सुन कर अमिताब बच्चन बड़े खुश हुये, और मंच से उठ कर मुझे गले लगा लिया था। अमिताब बच्चन के चुनाव में पता नहीं क्यों मैं कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गया था, जो मेरे स्वभाव के प्रतिकूल था। सम्भवतः यह हरिवंशराय बच्चन के प्यार और अमिताभ बच्चन के व्यक्तित्व के कारण था। दूसरा कारण सम्भवतः मेरे आवास से अमिताभ बच्चन के चुनाव कार्यालय की नजदीकी जहाँ मैं जब भी अवसर मिलता, दिन में कई बार और देर रात तक आया जाया करता था। इन सब विवरणों को विस्तार से देने का मेरा प्रयोजन मात्र इतना है कि उन दिनों राजनिति ने मेरा कुछ अधिक ही लगाव हो गया था। किन्तु अपने स्वभाव के कारण आन्तरिक रूप से मैं राजनीतिज्ञों के अभिनय प्रधान व्यक्तित्व से अन्दर कुछ बाहर कुछ से मैं कभी भी सन्तुष्ट नहीं रहता था। बाद के दिनों में तो मुझे सभी पार्टियों के अनैतिक आचरणों और आपसी उठा पटक को देख कर मेरे जैसे सीधे स्वभाव वाले व्यक्ति को राजनीति से अलग रहना ही उचित जान पड़ा। किन्तु कभी कभार बीच बीच में कभी किसी विशेष नेता के आग्रह पर मैं मिलने चला जाता था। आनन्द भवन के कार्यक्रमों में मैं अक्सर भाग लेता था। सोनिया गांधी अथवा राजीव गांधी के आगमन पर कुछ सक्रियता बढ़ जाती थी। सलमान खुर्शीद के संगम क्षेत्र में आगमन पर मैने एक गीत उनकी प्रशंसा में लिखा और पढ़ा था। यह स्वागत समारोह स्वामी हरि चैतन्य ब्रह्मचारी जी ने आयोजित किया था। कांग्रेस के प्रति मेरा विशेष लगाव सम्भवतः मेरे पिता जी के कारण था। जो कांग्रेस के आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिये थे। किन्तु स्वाभाविक रूप से मेरा सम्बन्ध अन्य दलों के नेताओं से भी था। इलाहाबाद आगमन के पूर्व वर्षों में जनसंघ के नेता रामगोपाल संड के चुनाव में मैने सक्रियता से प्रचार किया था। समाजवादी पार्टी के विधायक छुन्ननगुरू को मै विशेष आदर देता था, और कांग्रेस के आग्रह करने पर भी मैं उनका विरोध नहीं करता था। छुन्ननगुरू एक बार मेरे आग्रह पर हमारे विद्यालय में भी एक समाजवादी मंत्री को ले कर आये थे। बाद में उनके स्वर्गवासी होने पर उन्हीं के क्षेत्र से खड़े होने वाले पंडित केशरी नाथ त्रिपाठी को मैं बड़ा आदर देता था, और अपने स्वयम् तो दूरी की वजह से समय न देकर अपने विद्यार्थी नेताओं को उनकी ओर से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता था। पंडित केशरी नाथ जी एक कवि होने के नाते भी मुझे जानते और मानते भी रहे हैं।

डॉ० मुरली मनोहर जोशी जी तो जब से मैं प्रयाग आया तभी से मुझसे परिचित हो गये थे। वे मेरे महाविद्यालय में अक्सर अनेक कार्यक्रमों में भाग लेने आते थे। मेरी एकाध  रचनाओं से प्रभावित हो कर उन्होंने स्वयम् मांग कर पांचजन्य में छपने के लिए भेजा था। विज्ञान परिषद में भी उनका सक्रिय योगदान रहा है। विज्ञान परिषद भी उनका प्रशंसक रहा है और उन्हें सम्मानित किया है। डॉ० जोशी से मेरा सम्पर्क लगातार बना रहा है। एक सुलझे हुये राजनीतिज्ञ, उच्च कोटि के वैज्ञानिक, संगठन कर्ता तथा भारतीय धर्म और संस्कृति के अनन्य समर्थक के रूप में मैं उनका प्रशंसक रहा हूँ। और जब भी मुझे अवसर प्राप्त हुआ, मैं अपने मनोभाव और उद्गार उनकी प्रशंसा में प्रकट करता रहा। उन्होंने बाद में बड़ी कृपा पूर्वक मेरे प्रबन्ध काव्य-‘‘क्रान्तियज्ञ’’ का विमोचन भी किया था। मै अक्सर उनके जन्म दिन पर उनके आवास पर जाता रहा हूँ। इनके अलावा डॉ० नरेन्द्र कुमार सिंह गौड़ जो उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री रह चुके हैं, वे तिरवा में मेरे विद्यार्थी थे, और प्रयाग आगमन के पश्चात् उनसे मेरी निकटता बनी रही। विश्वविद्यालय महाविद्यालय अध्यापक संघ के आंदोलनों में हम दोनों कन्धे से कन्धा मिला कर सक्रिय रहे हैं। उनके प्रत्येक चुनाव में मै यथा साध्य सहयोग करता रहा हूँ। राजनीत में मैं कभी भी किसी विशेष दल से बँधा हुआ रहना पसन्द नहीं करता था। एक अध्यापक होने के नाते जब भी कोई अध्यापक, चाहे किसी भी दल से चुनाव लड़ता था, तो उसके प्रति मेरी आन्तरिक सहानुभूति दल बन्दी से ऊपर उठ कर बनी रहती थी। सम्भवतः यही कारण रहा कि मैं राजनीति में आगे नहीं बढ़ पाया और न किसी पद या जिम्मेदारी अथवा लाभ की प्राप्ति सम्भव हुई।

राजनीति के क्षेत्र में जैसा की मैं पहले भी बता चुका हूँ, १९४२ के आन्दोलन में हम लोग किस प्रकार स्वतन्त्रता संग्राम में जुड़े रहे, स्वतन्त्रता दिवस का उल्लास, गाँधी जी के मृत्यु का शोक, गणतन्त्र दिवस के समारोह का उत्साह, सब कुछ हमारी आँखों के सामने आज भी स्पष्ट है। प्रयाग में गाँधी जी के अवशेषों का संगम में प्रवाहित होने का आँखों देखा हाल आकाश वाणी से पहले पहल मैने अपने गाँव पर ही सुना था, जिसके लिये विशेष रूप से पटना से रेडियो लाया गया था। एक विवाह में हमारे गाँव में सबसे पहले लाउडस्पीकर और ग्रामों फोन देखने और सुनने का सुअवसर हमारे बचपन में ही मुझे प्राप्त हो गया था। बाइस्कोप और कठपुतली का नाच दिखाने वाले तब गाँव में फेरी लगाने वाले आते थे। हींग बेचने वाले लम्बे तगडे अफगानी बड़े साफा पाजामा और कुर्ता पहने, तथा बगल में कटार लटकायें जब आते थे, तो हम बच्चे भय के कारण उनको दूर दूर से ही देखने का प्रयास करते। फसल के दिनों में भिखमंगों और जोगियों का आना जाना विशेष रूप से होता था। वैसे तो साल भर ही वे आते जाते थे, जो करताल, एकतारा अथवा सारगीं बजा बजा कर गली गली में घर घर घूम कर भिक्षा मांगते थे। उन दिनों में नट विद्या में प्रवीण कुछ नट, चौराहों और नुक्कड़ों पर घूम घूम कर सर्कस के अपने कर्तब दिखाते। बन्दर और भालू नचाने वाले भी अक्सर कमाने के लिये आते थे। मुझे भी भालू के ऊँपर बैठने का और उसकी पूँâक से निरोग होने का सौभाग्य एक बार माँ ने दिलवाया था। जादू करने वाले भी अक्सर आते थे, जिनके खुले आम किये गये जादू के प्रयोग आज भी आश्चर्य चकित से लगते है। वे वैâसे ऐसा करते थे यह अब भी समझ में नहीं आता। खुले आम चारों ओर दर्शकों की भीड़ के बीच अपने सहयोगी का हाथ पैर रस्सियों से बाँध कर और जाल में बन्द कर के ऊँपर से चादर से ढ़क दिया जाता था और ऊँपर से तलवार भोंक कर खून लगा तलवार जनता को दिखाया जाता था। और तत्पश्चात चादर को हटाने पर उस जाल में हाथ पैर बधे बच्चे का कहीं अता पता नहीं रहता था। और जब सहयोगी पूछता था कि तुम कहाँ चले गये, तो पास के पेड़ की डाल पर से दूसरा सहयोगी कहता था ‘मैं यहाँ हूँ।’ आवाज स्पष्ट आती थी किन्तु वहाँ कोई दिखाई नहीं देता था। फिर उसी प्रकार जाल में पहले से निकाले हुये उस दूसरे सहयोगी के कपड़े को उसी प्रकार जाल बाँध कर चादर से ढ़क दिया जाता था। और फिर जब चादर हटाई जाती थी। तो वह सहयोगी अपने कपड़े पहने हुये सुरक्षित उसी प्रकार हाथ पैर बँधा हुआ जाल में बँधा हुआ चादर हटाने पर स्वस्थ्य हँसता हुआ बाहर निकल आता था। यह वैâसे होता था। आज भी समझ में नहीं आता। लोगों का ऐसा कहना है कि वे मदारी नजरबन्द कर देते थे और जैसा वे चाहते थे वैसा सबको दिखालाई देता था। जो भी हो यह प्रत्यक्ष मेरे जीवन का बचपन का अनुभव है। जिसका मेरे मन बुद्धि पर अब भी जबरदस्त प्रभाव है। आज कल के जादूगर तो तमाम तामझाम के बीच उपकरणों की सहायता ले कर जादू के खेल दिखाते है। जो अविश्वसनीय तो लगते है, किन्तु जादूगर जैसा स्वयम् कहते है कि सब हाथ के सफाई का खेल ही जादू है। विद्युत प्रकाश, पर्दा, मनोवैज्ञानिक प्रभाव के द्वारा आजकल के जादू के खेल दिखाये जाते है। किन्तु मेरे बचपन का वह जादू वैâसे होता था, यह समझ में नहीं आता। उन दिनों विवाह उत्सव आदि में नाचने वाली नर्तकियाँ और भाँड़ के खेल अक्सर सम्पन्न लोग अपने साथ ले जाते थे। बारात में दूसरे दिन बड़हार भी रखा जाता था। और दिन में जलपान के बाद तथा देर रात तक भाँड़ मंण्डली अपने प्रहसन प्रधान कौशल एवम् नाटकीयता से घराती और बराती सबका मनोरंजन करते थे। तवाइफे नाच गा कर सबका मन बहलाती थींr। ब्राह्मणों के बारातों में शास्त्रार्थ की परम्परा प्रचलित थी। बाराती और घराती दोनों तरफ के विद्वान किसी प्रश्न को ले कर उस पर संस्कृत भाषा में तर्क विर्तक करते थे, और कभी कभी तो पक्ष और विपक्ष आपस में झगड़ से जाते थे। कोई भी पक्ष अपनी हार स्वीकार करने को तैयार नहीं होता था। बड़हार के दिन खिचड़ी और भात के अवसर पर घराती के दरवाजे पर भी तबायफों के नृत्य का आयोजन होता था। बाद में तो बिजली जनरेटर से पैदा होने लगी तो लाउडस्पीकर, के साथ नौटकिंयों ने बारातों में अपनी जगह बना ली और कहीं कहीं नाटंक मंण्डलियाँ और सिनेमा प्रदर्शन की परम्परा चल पड़ी। अब तो मात्र एक दिन में ही विवाह हो जाने का व्यवहार चल पड़ा है, जो घराती और बराती दोनों की दृष्टि से लाभदायक है।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय नेताओं में तथा आम जनता में भी राष्ट्रनिर्माण के प्रति अभूतपूर्व जोश था। किन्तु साथ ही साथ अनेक समस्याएँ भी खड़ी हो गयी। गाँधी जी के जिद्द के कारण पाकिस्तान को समझौते के अनुसार करोड़ों रूपये तुरन्त लौटाने पड़ गये। जिसका अनेक लोगों ने विरोध भी किया किन्तु गाँधी जी के जिद्द के आगे किसी की भी नहीं चली। और कहा तो ऐसा जाता है कि उसी आक्रोश से पीड़ित हो कर नाथूराम गोड़से ने गाँधी जी को अपनी गोली का शिकार बनाया। नया राष्ट्र अपने पैरो पर खड़ा होने के प्रयास में ही था कि करोड़ो शरणार्थियों की सुरक्षा उनको बसाने और देख भाल करने में ही राष्ट्र का अधिकांश धन और बल व्यय होने लगा। बँटवारे की आग ने करोड़ों की सम्पत्ति स्वाहा कर दी। अनेक परिवारों की युवतियाँ दंगाईयों द्वारा जबर्दस्ती अपनी भूख का शिकार बनायी गयीं। और उन्हें तथा अनेक युवकों युवतियों एवम बच्चों को सरेआम कतलेआम कर के मार डाला गया। जो बच कर भारतीय सीमा में प्रवेश कर पाये उनकी समस्यायें भयंकर राष्ट्रीय आपदा के रूप में आ कर खड़ी हो गयी। मुझे याद है कि चुनार के किले में भी ऐसे अभाव ग्रस्त रोते बिलखते शरणाथियों के रहने का प्रबन्ध किया गया था। उनका सब कुछ लुट गया था। मात्र शरीर पर पड़े कपड़ों के अलावा और कुछ भी न बचा था। एकाध ही खुशहाल शरणार्थी थे जो बेचारे किसी तरह कुछ धन के साथ इन शरणार्थी शिविरों में बच कर आ पाये थे। शरणार्थी आस पास के गाँवों में भिक्षाटन के लिऐ आते थे। मेरे गाँव में भी अनेक शरणार्थी सहायता हेतु आते थे। देखने में जो सम्पन्न परिवार के लगते थे। लेकिन आज असहाय हो दूसरों से सहायता के लिये हाथ आगे पैâलाते हुये फिर रहे थे। ऐसे शरणार्थियों के परिवार मेरे गाँव में जब भी आते थे, गाँव के लोग यथा सम्भव अन्न, धन और वस्त्र से उनकी सहायता करते थे। मैने अपनी आँखों से देखा है कि क्या पुरूष क्या महिलायें सब अपने अपने वस्त्र उतार कर नगें हो कर नदी में स्नान करते थे और पुनः उन्हीं कपड़ों को पहन कर चले जाते थे। यह क्रम महीनों तक चलता रहा। किन्तु धीरे-धीरे सरकारी और सामाजिक सहायता से यह क्रम बन्द हुआ। पंजाब के जीवट वाले लोग महिलायें और पुरुष दोनों अपने बुद्धि बल और पुरुषार्थ से खेल तमासों, गाने एवम् नृत्य आदि के माध्यम से मेलों में अपनी जरूरत की आय कर लेते थे। कुछ दिनों बाद ठेलों पर घूम घूम कर फल सब्जी और विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री बना कर बेचने लगे थे और बाद में छोटी मोटी दूकानें और नौकरियाँ तथा अनेक प्रकार के व्यवसाय छोटी पूजी से प्रारम्भ कर के धीरे-धीरे सम्पन्न होने लगे और कुछ ही दिनों बाद स्थिति यह हो गयी कि इन पुरुषार्थी शरणार्थी पंजाबियों ने सारे देश के कोने कोने में बस कर धीरे धीरे सम्पन्न और शिक्षित हो कर अपनी स्थित को मजबूत कर लिया। यहाँ तक की स्थायी निवासियों की अपेक्षा भी ऐ शरणार्थी सम्पन्न हो गये। कभी कभी जब वे पहले की सम्पन्नता और बँटवारे के दिनों में उन पर बीती आपदाओं की घटनायें सुनाते थे तो हृदय करुणा से भर जाता था। और कुछ ही दिनों के बाद अपने आत्मबल से और परिश्रम के द्वारा ये शरणार्थी खुशहाली का जीवन व्यतीत करने लगे। पंजाबी धर्म और संस्कृति की छाप सारे देश के निवासियों को प्रेरणा प्रदान करती है। जब मैं पिलानी में पढ़ता था, वहाँ भी कुछ शरणार्थी बिरला जी की कृपा से निशुल्क शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। मेरा एक साथी रो रो कर अपने ऊपर बीती व्यथा को सुनाता था कि हम लोगों के सामने हमारी सात बहने आतंकियों से बचने के लिऐ कुएँ में कूद गयी थीं। और हमारे पिता और चाचा को उन दंगाइयों ने खंजर मार कर मौत के घाट उतार दिया था। यह सब सुन कर हम लोगों की आँखों से भी आँसू बहने लगते थे। सीमा के लोग न जाने कितने आक्रमण का शिकार हो चुके हैं। इतिहास इसका गवाह है और शायद इन्हीं आपदाओं के कारण ही उनमें शौर्य,धैर्य तथा परिश्रम करने की भावना विद्यमान है।

मेरा यह सौभाग्य रहा है कि स्वतन्त्रता के पश्चात् जब राष्ट्र का संविधान बनाने के लिये संविधान सभा का गंठन हुआ तो उसमें मेरे पिता जी का भी यदकिन्चित योगदान रहा है। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के आदेश को मान कर पिता जी कलकत्ता से अपने विद्यालय की नौकरी छोड़ कर और दिल्ली में आ कर संविधान सभा में कार्यरत हुये थे। मैने पिता जी के कारण ही २६ जनवरी १९५० को दिल्ली में गंणतन्त्र दिवस की पहली परेड़ देखी थी। और उसी वर्ष में चौथे स्वतन्त्रता दिवस के शुभ अवसर पर दिल्ली के लाल किले से भारत के प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू द्वारा झण्डा रोहण और उनके उद्बोधन का दृश्य भी देखने का सौभाग्य भी मुझे मिला था। १९५२ में पंचवर्षीय  योजनायें संविधान की संकल्पना के साथ प्रारम्भ हुई। पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि पर विशेष ध्यान दिया गया था। मुझे याद है कि चुनार और मेरे गाँव के बीच में जितनी भी परर्ती जमीनें और सड़कें थी, चाहे वह परेड ग्राउड हो, चाहे खेल का मैदान सब पर कृषि कार्य होने लगा था। दूसरी पंचवर्षीय योजना में उद्योग पर ज्यादा जोर दिया गया तथा अनेक वैज्ञानिक और तकनीकी केन्द्र स्थापित कर विकास हेतु आधार भूत संस्थाओं की स्थापना पर भी जोर दिया गया। जिससे प्रत्येक क्षेत्र में विकास को गति मिलने लगी। बिजली, सिचाई हेतु बाँध बनाये जाने लगे, बड़ी बड़ी शोध शालायें स्थापित होने लगीं। इस प्रकार तीसरी और चौथी पंचवर्षीय योजना में देश प्रगति के पथ पर काफी आगे बढ़ गया। किन्तु भारत की यह प्रगति हमारे पड़ोसियों से नहीं देखी गयी। और १९६२ में चीनी आक्रमण ने तथा १९६५ में पाकिस्तानी आक्रमण ने इस प्रगति के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर दी। इसी बीच देश के प्राण पं० जवाहर लाल नेहरू २७ मई १९६४ को स्वर्गवासी हो गये। उनके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने देश की कमान प्रधानमंत्री के रूप में सँभाली किन्तु ११ जनवरी १९६६ को शास्त्री जी के रूस में आकस्मिक निधन ने देश को पुनः करारा झ्ाटका दे दिया। उनके बाद १९६६ में इन्द्रिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी’ और देश की कमजोर होती छवि को उन्होंने उठाने का प्रयास किया। किन्तु तब तक देश की राजनीति आदर्शो और सेवा भाव पर आधारित न हो कर आपसी दल बन्दी और स्वार्थ परता पर आधारित राजनीति हो गयी थी। राजनीतिक दलों का आदर्श केवल नाम मात्र को ही रह गया था। इसी उठा पटक की राजनीति के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री को आपात् काल लगाने का दुःखद निर्णय लेना पड़ा था। आपात काल में निश्चित रूप से राष्ट्र नियंत्रित हो कर प्रगति के मार्ग पर तीव्र गति से आगे बढ़ने लगा था किन्तु राजनैतिक स्वार्थ परता के कारण आपात काल में  जो दल पीड़ित थे, उनमें राग द्वेष की अधिकता हो गयी अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों से टक्कर लेने की भावना प्रबलता से आगे बढ़ने लगी। राजनीति में यह राग द्वेष, राष्ट्र की सेवा करने का भाव परित्याग कर के आपसी स्वार्थ परता पर आधारित हो गयी। अन्तोगत्वा बाध्य हो कर परिस्थिति वश यद्यपि आपातकाल को समाप्त करना पड़ा, किन्तु उसी बीच १९७१ में बंगला देश के मुक्ति के संग्राम में भारत को पाकिस्तान से एक और युद्ध लड़ना पड़ा। इस युद्ध में भी भारत की जीत हुई और बंगला देश के रूप में पूर्व का पूरवी पाकिस्तान एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में उदित हुआ। इस युद्ध के कारण भी राष्ट्र की प्रगति पुनः अवरूद्ध हो गयी और इसके बाद आने वाले प्रधानमंत्रियों १९७६-७९ मुरार जी देशाई, १९८९-९० विश्वनाथ प्रताप सिंह, १९९०-९१ चन्द्रशेखर सिंह और १९९१ चरण सिंह। इनमें से कोई भी अपने पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और इस प्रकार राष्ट्र की प्रगति में अनेक रोड़े आते गये। यद्यपि योजना आयोग अपनी योजनायें बनाता रहा किन्तु आर्थिक कमजोरी के कारण उनका कार्यान्वयन बिलम्बित होता रहा। बाद में नरसिंहा राव ने १९९१ से १९९६ तक प्रधानमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया, किन्तु इसके लिये उन्हें बहुत ओछी राजनीति का सहारा लेना पड़ा। चौधरी चरण सिंह ने दल बदल की राजनीति का प्रारम्भ किया और उसके बाद की राजनीति में प्रायः प्रत्येक दल में आया राम, गया राम की राजनीति बढ़ती ही गयी। चौ. चरण सहिं तो संसद का मुँह तक नहीं देख पाये। कोई भी नेता निश्चिन्त हो कर देश को प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा पाया।

देश के धनी मानी लोग इन राजनेताओं को अपने वश में कर के कठपुतली की तरह उन्हें नचाते रहे और अनैतिक रूप से स्वयम् लाभान्वित हो कर सम्पन्न होते चले गये। किन्तु देश की आम जनता अधिकांश रूप से शोषित व पीड़ित का ही जीवन जीने को बाध्य थी।  इस राजनीति के उठा पटक के बीच देश में अराजकता बढ़ती गयी। क्षेत्र वाद और वर्ग वाद तथा सम्प्रदाय वाद जहाँ कहीं मौका मिला, अपने स्वार्थ में गलत रास्ते पर चलने से भी परहेज नहीं किया। जिसका परिणाम हुआ ३१ अक्तूबर १९८४ में इन्दिरागाँधी को आतताइयों के हाथों अपनी जान गवानी पड़ी। उसके बाद राजीवगांधी ने १९८७-१९८९ तक राष्ट्र की कमान सभाली किन्तु उन्हें भी विदेशी आंतकियों ने योजना बद्ध तरीके से ३१मई १९९१ में काल के गाल में अचानक ढकेल दिया। यह सब राष्ट्र की एकता और अखण्डता में बाधक तत्व के रूप में घटनायें होती रहीं। जिससे राष्ट्र को जिस गति से प्रगति करना चाहिये था, वह नहीं हो पाया। राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गाँधी २००४ में चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने के अन्तिम सीढ़ी तक आगे बढ़ीं किन्तु उन्होंने अपनी आत्मा की आवाज को ध्यान में रख कर प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद का परित्याग कर दिया, और इस निर्णय के पश्चात् एक सुयोग्य प्रशासक डॉ० मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने जो २००४-२००९ तथा २००९-२०१४ तक इस पद पर रहे और राष्ट्र प्रगति के मार्ग पर पुनः आगे बढ़ने लगा। नरसिंह राव के बाद १९९६ में अटलबिहारी बाजपेयी राष्ट्र के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने १९९६ से मात्र १३ दिन, १९९८ में १३ माह और उसके बाद १९९९ से २००५ तक  पूरे पाँच बरस तक राष्ट्र की बागडोर सँभाली और देश शांन्ति और सद्भाव के वातावरण में आगे बढ़ने लगा। इस बीच १९९६ में देवगौड़ा और १९९७ में आई. इन्द्र कुमार गुजराल भी प्रधानमंत्री बने। २००४ के चुनाव में उनका दल हार गया। इसके बाद के २००९ के चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं प्राप्त हुआ और जोड़ तोड़ की राजनीति से पुनः मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने रहे जो अगले चुनाव १९१४ तक नेतृत्व सभालते रहे। १९१४ के चुनाव में नरेन्द्र सिंह मोदी पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने।

इन सारी राजनैतिक उथल पुथल के बीच भी राष्ट्र प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ता रहा। सामान्य शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में बहुमुखी प्रगति होती रही। अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियों को हमने हासिल किया। हमारे देश के अनेक वैज्ञानिक, प्रशासक, अभियन्ता और चिकित्सक इत्यादि विश्व के कोने कोने में जा कर अपनी प्रतिभा से सब को चमत्कृत करते रहे। कृषि और उद्योग के क्षेत्र में भी राष्ट्र ने उल्लेखनीय प्रगति की। लोगों की आमदनी बढ़ जाने से और उपभोक्ता वस्तुओं पर अधिक ध्यान न देने से तथा इनके उत्पादन में अपेक्षा कृत कमी बने रहने के कारण मंहगाई दिनों दिन बढ़ती गयी, भारतीय सामानों के अलावा विदेशी उपभोग के सामग्रियों से भी भारत के बाजार पटने लगे किन्तु इन सब का असर यह हुआ कि गरीबी बढ़ती ही गयी तथा धनी और धनी होते चले गये। अटलबिहारी बाजपेयी के कार्यकाल में देश का गौरव जो पहले गिरा हुआ था वह कुछ हद तक अपने स्तर पर लौट आया किन्तु इस काल में कुछ ऐसी राजनैतिक घटनाऐं घटी जिससे राष्ट्र की छवि धूमिल भी हुई। राष्ट्रीय सम्पदा वâो स्वार्थी लोग मौका मिलते ही अपने लाभ का प्रयत्न करने लगे जिससे नाराज हो कर जनता ने अगले चुनाव में उनसे प्रधानमंत्री की कुर्सी छीन ली, जिसका लाभ काग्रेस को मिला और सोनिया गांधी त्याग का आदर्श उपस्थित कर के देश की सहानुभूति प्राप्त करने में सफल हुई। उनका यह त्याग एक ऐतिहासिक घटना हुई। मेरी समझ से यदि वे शपथ लेने के बाद प्रधानमंत्री पद त्याग करतीं तो यह और अच्छा ऐतिहासिक आदर्श बनता। मुझे याद है कि पं० जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में एक ‘‘कामराज योजना’’ बनी थी। जिसमें यह शर्त रख दी गयी थी कि कोई भी नेता दस वर्ष से अधिक अपने पद पर नहीं रहेगा। किन्तु इससे प्रधानमंत्री के पद को अछूता रखा गया था। इस योजना के कारण अनेक वरिष्ट नेता यहाँ तक की राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद भी  देश के चाहते हुये भी अपने पद से हट गये थे। किन्तु जवाहर लाल नेहरू और बाद में उनकी सुपुत्री इन्द्रिरा गांधी दस वर्षों से अधिक समय तक प्रधानमंत्री के पद पर आरूढ़ रहे, किन्तु अन्ततोगत्वा प्रकृति ने अथवा ईश्वरीय संविधान ने उनसे उनके पद को छोड़वा ही दिया। काश यह बात उन लोगों के दिमाग में पहले आ गयी होती और अन्य नेताओं की तरह उन्होेंने भी दस वर्ष के पश्चात् अपने पद छोड़ दिये होते, तो यह एक आदर्श परम्परा भारत की बन जाती और वे स्वयम् देवताओं की तरह पूजनीय बने रहते। किन्तु जैसा व्यक्ति अथवा राष्ट्र का प्रारब्ध होता है, उसी के अनुसार घटनायें भी घटित होती हैं। पद और प्रभुता का अंहकार  किसी को भी नहीं छोड़ता, किन्तु एक दिन सबको मिट्टी में मिल जाना है। यह सत्य लोग भूल जाते हैं। आज के राजनीतिज्ञ यदि राष्ट्रीय आदर्श की भावना से सेवारत रहेगे तो उनका भी भला होगा और राष्ट्र्र का भी। किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी प्रकार की पद लिप्तता आज के इस लोकतन्त्र के जमाने में किसी की भी बपौती नहीं बनी रह सकती। एक न एक दिन सबका पतन स्वाभाविक है। राष्ट्र के नेता यदि सादा जीवन और उच्च विचार की अवधारणा को अपना आदर्श बना कर जितनी राष्ट्र की सेवा करेंगे, उतनी ही तेजी से राष्ट्र आगे बढ़ेगा। किन्तु नेताओं की स्वार्थपरता इस मार्ग में आड़े आती रही है। ये सारी बातें मैने अपने जीवन में अनुभव के आधार पर एक शिक्षक होने के नाते कहीं है। इतना विस्तार देने का मेरा मन्तव्य मात्र इतना है कि इससे व्यक्तिगत जानकारी के साथ साथ समाज और राष्ट्र के बारे में भी सोचने और समझने का कुछ सुअवसर प्राप्त होगा। राष्ट्र के निर्माण और मानवता के निर्माण का भार राष्ट्र की भावी पीढ़ी पर है। वे इनसे शिक्षा ले कर यदि उसका सदुपयोग करेगे तो राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल बनेगा।

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मेरी दैनिक जीवनचर्या

मैने अपने जीवन में जिन विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किया है, उनका बहुत विस्त्रृत वर्णन तो मै नहीं कर रहा हूँ, मात्र कुछ आंशिक झाँकी के द्वारा अपने चिन्तन, मनन का भाव प्रकट कर रहा हूँ। जितनी भी मेरी स्मरण शक्ति ने इसमें सहयोग प्रदान किया है, वह सब आप के समक्ष है। अब तो लगभग आठवें दशक की सीढ़ी पर पैर रखने के करीब आ गया हूँ। गिरते हुये स्वास्थ्य के कारण मैने अपने को बहुत ही सीमित कार्यक्षेत्र में रहना प्रारम्भ कर दिया है। अपने दैनिक कार्यक्रम में मैं प्रातः साढ़े चार बजे जग जाता हूँ। बिस्तर छोड़ने के पहले कुछ जप और ध्यान करता हूँ। तत्पश्चात धरती माता को मंत्र के साथ प्रणाम कर के हाथ मँुह धो कर पेट भर जल पीता हूँ। इसके बाद अपने शयन कक्ष में और देवालय में झाडू लगाता हूँ, और तत्पश्चात नित्यक्रिया से निवृत्त हो थोड़ा भ्रमण और व्यायाम करता हॅू। तत्पश्चात सस्वर वैदिक मंत्रों का पाठ स्वस्तिवाचन और शान्ति पाठ तत्पश्चात नित्य बदल बदल कर एक उपनिषद का पाठ तथा किसी आचार्य की पुस्तिका का सस्वर वाचन करता हूँ। इसके साथ ही साथ मजीरे के साथ प्रत्येक दिन बदल बदल कर तीन या चार भजन गाता हूँ। इन सब में लगभग एक घण्टा समय लग जाता है। तत्पश्चात साढ़े छः से साढ़े आठ तक पूजन जप और ध्यान का कार्यक्रम सूर्य को अर्घ और कुछ यौगिक क्रियायें करता हूँ। इस तरह लगभग नौ बज जाते है। तब जलपान करता हूँ। इसके बाद समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का अध्ययन, गीता एवम विष्णु सहत्र नाम तथा योग वाशिष्ठ एवं विवेक चूड़ामणि का पाठ करता हूँ। अपनी रचनाओं का भी बारी-बारी से वाचन करता हूँ। डेढ़ बजे के करीब भोजन और तत्पश्चात थोड़ा विश्राम। इसके बाद जलपान के पश्चात पुनः भ्रमण करता हूँ। और फिर सायंकाल के सतसंग में प्रायः दो घण्टे बिताता हूँ। घर आ कर दूरदर्शन का आनन्द नौ बजे भोजन और फिर विश्राम। बिस्तर पर सोने के लिए जाने से पूर्व अपनी स्व रचित प्रार्थना का गृह देवालय में सस्वर गान करता हूँ। वह प्रार्थना है–

‘‘प्रभो, तव नाम, लीला, धाम, रूप का सतत् श्रवण, मनन।

सदा निर्गुण, सगुण रूपों का तेरे हो स्मरण, वन्दन।

तेरे अस्तित्व प्रति विश्वास, श्रद्धा, भक्ति हो भगवन।

दयानिधि दास हूँ तेरा, करूँ कीर्तन, सदा, अर्चन।

करुँणा सिंधु आत्मनिवेदनम् तव सतत् पद सेवन।।

दीनानाथ करो दया कि छूटे शीघ्र भव बन्धन।।

प्रभो तव नाम .......।।

यह मेरी दैनिक नित्य क्रिया है। इस बीच में कभी विज्ञान परिषद की बैठकों में, थियोसोफी के कार्यक्रमों में अथवा कवि गोष्ठियों में जाने पर तदनुसार नित्यक्रिया में कटौती होती रहती है। ईश्वर की कृपा से मुझे अपने मोहल्ले में भी आध्यात्मिक वातावरण मिल गया है। कभी कभी रात में जग कर भी जब मूड बनता है, कविता या कहानी लिखता रहता हूँ। मेरा सौभाग्य रहा है कि मेरे एक वरिष्ट मित्र जो प्रयाग की मनोविज्ञानशाला के अवकाश प्राप्त शिक्षक पंडित ओमप्रकाश तिवारी का सानिध्य मुझे प्राप्त हो गया। उनकी कृपा दृष्टि और आशीर्वचन से उन्होंने बड़ी कृपा कर के स्वतः अपना अमूल्य समय इस सम्पूर्ण रचना के लेखन के लिऐ स्वतः स्फॅूर्त प्रेरणा से दिया है। जिससे यह रचना आज प्रकाशन की दृष्टि से तैयार हो सकी है। उन्होंने अपनी स्वेच्छा से इस कार्य को सम्पन्न करने का कार्य किया और प्रति दिन प्रातः दो तीन घण्टे बैठ कर इसको लिखते रहे। तिवारी जी द्वारा लिखित लेख को उनके जाने के पश्चात् अध्ययन कर के उनका संशोधन करता हूूँ। शाम को राम कथा कुंज में भजन कीर्तन और प्रवचन का आनन्द लेता हूँ। रात्रि में सोने के पूर्व देवालय में स्वरचित प्रार्थना करने के  पश्चात् गीता के द्वादस और पंचदस अध्यायों का सोने के पश्चात् और सोने के पूर्व पाठ करने का मेरा दैनिक नियम है। पहले मैं जब कभी थियोसोफी, चिन्मय मिशन, पारिवारिक मानस सत्संग, अथवा गीता सत्संग में जाता था, अथवा अन्य किसी विशेष कार्यक्रम जैसे कवि गोष्ठी आदि में तो साइकिल से जाता था। बाद में मैने स्कूटर ले लिया और अपने व्यय पर इन संस्थाओं में जाता रहा। बाद में मैंने एक कार भी खरीद लिया जिस पर सभी पारिवारिकों ने चलाना भी सीख लिया। किन्तु इसका उपयोग कम ही हो पाता है। यही नहीं पिछले लगभग १८ वर्षों तक मैं श्री कान्त मिश्र एडवोकेट इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आवास पर रामचरित मानस का एवम् गीता का प्रवचन करता रहा था। किन्तु बाद में उनके यहाँ अव्यवस्था होने के कारण मुझे इस कार्य से विरत होना पड़ा। एकाध बार दुर्घटना ग्रस्त हो जाने के कारण मैने अब तो स्कूटर चलाना ही छोड़ दिया है। जब कभी कहीं जाना होता है तो सुपुत्र भइया जी का सहयोग लेना पड़ता है। अब मैने अपने को बिल्कुल सीमित दायरे में व्यवस्थित कर दिया है, और बहुत कम ही बाहरी कार्यक्रमों में जाता हूँ। यही मेरी दिनचार्य है। यही मेरे जीवन का आख्यान है जो निश्छल रूप से मैंने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। मैं इसके लिये ईश्वर को कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने मेरे मित्रों को प्रेरित कर इस कार्य को सम्पूर्ण करने में उनका सहयोग दिलवाया।

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मेरे पारिवारिक सुपुत्र देवव्रत, बहू प्रतिभा, पौत्रियाँ संस्कृति एवं प्रगति, तथा मेरी पुत्रियाँ वन्दना, वीना एवं साधना तथा दौहित्रियाँ प्रशस्ति, स्वस्ति एवं साक्षी तथा दामाद राजीव, हीरालाल व प्रदीप सब मेरा ख्याल रखते हैं। मेरे अनुज रत्नाकर एवं उनका पूरा परिवार तथा रेखा और सुधीर, सभी सम्बन्धीजन मेरा सदा ध्यान रखते हैं। इन सब मायने में मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ और परमपिता परमात्मा से इस विशेष कृपा के लिए सदा कोटिश: प्रणाम अर्पित करता रहता हूँ। पुन: धर्मपत्नी की पवित्र आत्मा का स्मरण करके यह कृति भी उन्हीं की स्मृति को समर्पित करता हूँ।

हरिः ॐ तत्सत