कुम्भ का महत्व, पौराणिक कथाएं और चार स्थल Importance of Aquarius, mythological stories of Aquarius

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कुम्भ का महत्व, पौराणिक कथाएं और चार स्थल  Importance of Aquarius, mythological stories of Aquarius
Kumbh Mela Aur Uski Pauranik Kathayen by Nand Lal Singh

कुम्भ का महत्व, कुम्भ की पौराणिक कथाएं, कुम्भ के चार स्थल

Importance of Aquarius, mythological stories of Aquarius

कुम्भ के पर्व का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष पर और अर्द्ध-कुम्भ का आयोजन प्रत्येक 6 वर्ष पर किया जाता है। लेकिन अब शासन द्वारा प्रत्येक 12 वर्ष पर पड़ने वाले कुम्भ को महाकुंभ की संज्ञा दी है और वहीं प्रत्येक 6 वर्ष पर आयोजित होने वाले अर्द्ध-कुम्भ को अब कुम्भ की संज्ञा दी गयी है। और इस तरह से अब महाकुम्भ और कुंभ के नाम से इसे जाना जायेगा।

कुम्भ पर्व के आयोजन के संदर्भ में पुराणों में तीन अलग-अलग कथाएं प्रचलित हैं, जिसका वर्णन हम नीचे करने जा रहे हैं। कुम्भ पर्व के आयोजन की पूरी कहानी और कथा समझने के लिए आप तीनों कथाएं अवश्य पढ़ें, ताकि आपको सही जानकारी मिल सके।

कुम्भ की प्रथम कथा- प्रथम कथा के अनुसार, प्रजापति दक्ष की दो पुत्रियों दिति और अदिति का विवाह ऋषि कश्यप के साथ हुआ था। जिसमें दक्ष की एक पत्नि अदिति से देवों की उत्पत्ति मानी जाती है और दूसरी पत्नि दिति से दैत्यों की उत्पत्ति मानी जाती है। इस प्रकार अदिति और दिति दोनों सगी बहनें थी, जिनसे देवों और दैत्यों की उत्पत्ति हुई। देव और दैत्य एक ही पिता की संतान होने के कारण दोनों ने एक बार यह संकल्प लिया कि वे दोनों अपनी-अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके समुद्र में छिपे हुए बहुत सी विभूतियों का निकालेंगे और उसका उपभोग करेंगें। समुद्र में छिपे विभिन्न विभूतियों का निकलाने का सिर्फ एक ही उपाय था और वह था समुद्र मंथन। फिर देव और दैत्य दोनों मिलकर समुद्र मंथन किया जिसमें से कुल चौदह रत्न की प्राप्ति हुई। इन चौदह रत्नों में सबसे प्रमुख था अमृत-कलश। अमृत-कलश जिसको भी मिल जाता वे अमर हो जाते, फिर उन्हें कोई मार नहीं सकता था। इसलिए इसे प्राप्त करने के लिए देवों और दैत्यों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। क्योंकि उस अमृत कलश को अमर होने के लिए हर कोई पीना चाहता था। फिर इंद्र ने जब देखा स्थिति बिगड़ती जा रही है और दैत्य भारी पड़ रहे हैं तो इन्द्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और पिता द्वारा संकेत मिलते ही जयंत अमृत-कलश लेकर भाग गये। जयंत को अमृत कलश लेकर भागते देख, दैत्यों ने जयंत का पीछा किया। जयंत का पीछे करते-करते देवों और दैत्यों में 12 दिनों तक संघर्ष होता रहा। इस संघर्ष के दौरान अमृत कलश को सुरक्षित रखने में वृहस्पति, सूर्य और चन्द्रमा ने बहुत सहायता की। इन देवताओं में वृहस्पति देव ने अमृत-कलश को दैत्यों के पास जाने से बचाया, सूर्य देव ने अमृत-कलश को फूटने से बचाया और चन्द्र देव ने इसे छलकने से बचाया। इन देवों द्वारा अमृत-कलश की इतनी सुरक्षा के बावजूद देवों और दैत्यों के बीच मची घमासान छीना-झपटी और उथल-पुथल के दौरान अमृत कलश से चार बूँदे छलक ही गयी और ये चार बूँदें अलग-अलग स्थानों पर आ गिरीं। ये चार बूँदों में पहली बूँद गिरी गंगा के तट हरिद्वार में, दूसरी बूँद गिरी त्रिवेणी प्रयागराज संगम में, तीसरी बूँद गिरी क्षिप्रा के तट पर उज्जैन में और चौथी बूँदी गिरी गोदावरी के तट पर नासिक में। इन्हीं चार बूँदों के इन चार स्थानों पर गिरने से ये स्थान भी अमर हो गये और इस प्रकार इन चारों स्थानों पर इसी समय से अमृत प्राप्ति की कामना से कुम्भ पर्व का आयोजन किया जाने लगा।

कुम्भ की दूसरी कथा- इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा जो अपने अधिक क्रोध के लिए व्यख्यात थे। लेकिन एक बार देवराज इंद्र से किसी बात को लेकर प्रसन्न हो गये और उनको एक दिव्यमाला भेंट की। लेकिन देवराज इंद्र अपने घमण्ड में चूर होकर उस दिव्यमाला को अपने न पहनकर अपने ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और उस ऐरावत ने उस दिव्यमाला को अपने सूड़ से निकालकर अपने पैरों तले कुचल दिया। इस घटना से महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधित हुए और इसे अपना अपमान समझकर इंद्र को शाप दे दिया। महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण सारे संसार में हाहाकार मच गया। सारे देव और दैत्य भारी संकट में पड़ गये। इस संकट से निकलने के लिए देवों और दैत्यों ने मिलकर समुद्र-मंथन करने का निश्चय किया। समुद्र-मंथन से अमृत-कलश की प्राप्ति हुई, लेकिन यह अमृत-कलश नागलोक में था। नागलोक में कोई नहीं जा सकता था सिवाय गरुड़ के। इसलिए गरुड़ को अमृत-कलश लाने के लिए नागलोक भेजा गया। गरुड़ देव को नागलोक से अमृत-कलश लाते समय हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में अमृत-कलश को रखना पड़ा और तभी से ये चारो स्थान महान तीर्थ-स्थल बन गये और यहाँ पर कुम्भ का आयोजन किया जाने लगा, इस तरह से ये चारो स्थान कुम्भ-स्थल के नाम से विख्यात हो गये।

कुम्भ की तीसरी कथा- तीसरी कथा के अनुसार प्रजापति कश्यप की दो पत्नियां थी- विनता और कद्रू। इन दोनों में एक बार एक बात को लेकर विवाद हो गया कि सूर्य के अश्व काले हैं या सफेद। इन दोनों के बीच विवाद इतना बढ़ा कि दोनों में शर्त लग गयी कि जो हारेगी उसे उसकी दासी बनना पड़ेगा। रानी कद्रू ने शर्त जीतने के लिए अपने पुत्र नागराज वासुकि की सहायता ली और नागराज वासुकि की सहायता से सुर्य के सफेद अश्व को काला कर दिया, जिसके कारण विनता शर्त हार गयी। विनता ने कद्रू से आग्रह किया कि वे मुझे अपने दासीत्व से मुक्त कर दे। फिर कद्रू ने दासित्व से मुक्त करने के लिए उसके सामने एक और शर्त रखी कि यदि वे नागलोक में रखे अमृत-कलश को लाकर उसे दे दे तो वह उसके दासित्व से मुक्त हो सकती है। विनता ने इसके लिए अपने पुत्र गरुड़ को अमृत-कलश लाने के लिए नागलोक भेज दिया। गरुड़ अपनी माता को दासित्व से मुक्ति दिलाने के लिए अमृत-कलश लाने के लिए नागलोक चले गये। जब गरुड़ दे नागलोक से अमृत-कलश लेकर आ रहे थे तो उस अमृत कलश को पाने के लिए देवराज इंद्र ने उन पर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष में अमृत-कलश से चार बूँदे छलककर अलग-अलग चार जगहों पर गिर गयीं। जिन चार जगहों पर ये बूँदे गिरी उनका नाम था हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक। तभी से इन स्थानों पर कुम्भ का आयोजन होने लगा।

कुम्भ कब-कब और कहाँ-कहाँ होता है

When and where does Aquarius happen

कुम्भ के चार स्थल

हरिद्वार कुम्भ- हरिद्वार में कुम्भ का आयोजन तब होता है जब कुम्भ राशि का वृहस्पति हो और मेष राशि में सूर्य-संक्रांति होता है। यह समय चैत्र या वैशाख महिने में होता है। इसका उल्लेख पुराणों में कुछ इस तरह से मिलता है-

कुम्भराशिं गते जीवे तथा मेषे गते रवौ ।

हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्तिवर्जनम् ।।

हरिद्वार भारतवर्ष के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित है, जहाँ माँ गंगा हिमालय से निकलकर दुर्गम पहाड़ों से गुजरते हुए मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार के हरि की पैड़ी पर गंगा का प्रवाह बहुत तीव्र होता है और यहीं पर इस कुम्भ का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष पर किया जाता है।

प्रयागराज कुम्भ- प्रयागराज भारतवर्ष के उत्तरप्रदेश राज्य में स्थित है, यहाँ पर कुम्भ का आयोजन माघ महिने में किया जाता है जो अंग्रेजी महिने को देखें तो यह जनवरी-फरवरी माह में पड़ता है। यह कुम्भ प्रयागराज संगम पर आयोजित होता है, जहाँ गंगा-यमुना-सरस्वती नदियाँ आपस में मिलती हैं। प्रयागराज कुम्भ की महत्ता का वर्णन श्रीरामचरितमानस में कुछ इस तरह से किया गया है-

माघ मकरगत रवि जब होई । तीरथ पतिहिं आव सब कोई ।।

देव-दनुज किन्नर नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी ।।

पूजहिं माधव पद जल जाता । परसि अछैवट हरषहिं गाता ।।

भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिवर मन भावन ।।

तहां होइ मुनि रिसय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा ।।

प्रयागराज तीर्थ को सभी तीर्थों में प्रमुख तीर्थराज के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इसकी कई मायने में अधिक प्रासंगिकता है। पौराणिक कथानुसार एक बार जब सभी तार्थों को तुला के एक पलड़े पर रखा गया और दूसरे पलड़े पर प्रयागराज को रखा गया तो भी प्रयागराज का पलड़ा भारी पड़ गया। तभी से प्रयागराज को तीर्थराज के नाम से जाना जाने लगा।

उज्जैन कुम्भ- उज्जैन भारत के मध्यप्रदेश राज्य में पड़ता है, यहाँ पर क्षिप्रा नदी के तट पर कुम्भ का पर्व होता है जहाँ महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग भी विराजमान हैं। उज्जैन में कुम्भ का आयोजन तब होता है जब मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में वृहस्पति होता है। यह पावन योग वैशाख महिने के पूर्णिमा को पड़ता है, जिसके कारण इसी वैशाखी पुर्णिमा को यहाँ पर कुम्भ का आयोजन होता है। इस सम्बन्ध में पुराणों में कुछ तरह से वर्णन आता है-

मेषराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ ।

पौर्णिमायां भवेत्कुम्भ: उज्जयिन्यां सुखप्रद: ।।

नासिक कुम्भ- नासिक महाराष्ट्र राज्य में स्थित है। यहाँ पर पवित्र गोदावरी नदी के तट पर इस कुम्भ का आयोजन होता है। यहाँ पर कुम्भ तब लगता है जब सूर्य, चन्द्रमा और वृहस्पति तीनों सिंह राशि में होते हैं। यह शुभ योग भादों (भाद्रपद) महिने की अमावस्या को आता है। इसलिए प्रत्येक 12 वर्ष पर भादों की अमावस्या के अवसर पर यहाँ कुम्भ का पर्व मनाया जाता है। इसके सम्बन्ध में पुराणों में कुछ इस तरह से उल्लेख मिलता है-

सिंहराशिं गते सूर्ये सिंहरासौ बृहस्पतौ ।

गोदावर्यां भवेत्कुम्भो भुक्तिमुक्तिप्रदायक: ।।

-by Nand Lal Singh “Shashwat”