जीवन पथ ।। Jeewan Path, Life Path

अजय कुमार पाण्डेय की उत्कृष्ट रचनाओं का संग्रह है- जीवन पथ

जीवन पथ ।। Jeewan Path, Life Path
Ajay Kumar Pandey Ki Kavitaye

जीवन-पथ

(कविता-संग्रह)

लेखक- अजय कुमार पाण्डेय

प्रकाशक

लोक परलोक प्रकाशन, प्रयागराज,

मो0-9839873793

एक घड़ी सा (Ek Ghadi Sa)

“Jeewan Path” Poem by Ajay Kumar Pandey

टिक टिक करता एक घड़ी सा

बधे परिध में हाँफ रहा हूँ।

स्वांस स्वांस की डोर बाध कर

जीवन का पथ नाप रहा हूँ।।

एक विन्दु से सृजन शुरु है, उसी विन्दु पर मिटना भी।

चलना ही सिद्धान्त यहाँ है वही समय की गणना भी।।

भले थके हैं पाँव – मगर

नई राह ही खोज रहा हूँ।

किससे पूछूँ लक्ष्य यहाँ क्या

पल पल पलछिन सोच रहा हूँ।।

परिभाषित है सूत्र यहाँ सब हर रिस्तों का पैमाना भी।

अपना है जो दोस्त यहाँ पर वही यहाँ पर दुश्मन भी।।

पतवार लिये हाथ में अपने

नदी नाव से तैर रहा हूँ।

बहती धारा पास किनारा

लहरों से ही काँप रहा हूँ।।

विखरे विखरे तत्व पास में धूसरित मझधर भी।

नाच रही है पतंग डोर संग अन्तहीन यह अम्बर भी।।

सघन कुहासा सर्द रात में

थाह तिमिर की नाप रहा हूँ

साँझ ढले बोझ लिये वंजारा सा

एक ठिकाना ढूँढ रहा हूँ।।

वैरागी सा मुक्ति बोध है, प्रतिपल जीने की अभिलाषा भी।

अपना नहीं यहाँ सब नश्वर हम बदल रहे परिभाषा भी।।

मकड़ी जैसा जाल बनाता

अपने को ही बांध रहा हूँ।

कैसे छूटू मकड़ जाल से

इस उलझन में उलझ रहा हूँ।

शून्य गगन है दूर क्षितिज यह सबका कही धरातल भी।

घोर तिमिर की निशा भले हो, छिपी भोर की हलचल भी।।

है किसी हाथ में डोर हमारी

बनी गुजरिया नाच रहा हूँ।

अदृश्य चेतना मेरी त्रज्या

बधे परिध में हाँफ रहा हूँ।।

चादर तिमिर की (Chadar Timir Ki)

बड़ी खूब सूरत प्रकृति यह धरा की

हटा दी है चादर जो तुमने तिमिर की

खगकुल का कलरव तिनको की खोली

ऊषा की लाली ये शबनम की झोली

आमों की बगिया कोयल की बोली

अम्बर में उड़ती ये नभचर की टोली।

मदिर मन्द बहती हवायें शिशिर की

हटा दी है चादर जो तुमने तिमिर की।

पनघट की हलचल गागर की टनटन

भौरों की गुनगुन ये तितली की थिरकन

फूलों की कलियों की नटखट ठिठोली

धरती के आगन में ये सजती रंगोली।

लगती है भाषा स्नेहिल शिविर की।

हटा दी है चादर जो तुमने तिमिर की।

हँसती फिजाये ये महकी – हवायें

काटों की डालों से लिपटी लतायें

सिक्ता संग वहती ये सरिता की धारा

लहरों से उलझा यह प्रतिपल किनारा।

सर्जना की हकीकत ये जीवन डगर की

हटा दी है चादर जो तुमने तिमिर की।

तारों की झिलमिल में भटकी वो गलियाँ

कुहांसो में उलझी थी सपनों की दुनियाँ

अंजान लगती थी सारी – दिशायें

अंधेरे से लड़ती सुलगती सिखायें।

लगती है बातें सब बीते विवर की

हटा दी है चादर जो तुमने तिमिर की।

अपना भारत (Apna Bharat)

भूखण्ड नहीं यह भारत अपना

सपनों का एक नन्दन है।

महकी महकी यहाँ दिशायें

फूलों का यह उपवन है।।

सुबह सबेरे सूरज किरणें वातायन तक आती हैं।

बहती बहती मन्द हवायें मधुरिम गीत सुनाती है।

हिमवन की पिघल शिलायें सरिता बनकर बहती है।

सागर की लहरे उठती रेतों पर कविता लिखती है।

लगता चिड़ियों का कलरव

सरगम का स्पन्दन है।

हीर कनी सी ओस बूँद लगती नभ की उल्कायें।

पुष्प थाल सी सजी सजाई पुष्पाच्छादित लतिकायें।

मन्द मदिर मलयज जैसे धीरे धीरे चँवर डुलाये।

स्वर्णिम लगती पथ में बिखरी रज कणिकायें।

भाव प्रखर शान्त निलय

क्षीर सिन्धु का गर्जन है।

नई सर्जना प्रतिपल होती परिवर्तन की परम्परा।

स्नेहिल प्यारी छाँव लिये खड़ी द्वार पर ऋतुम्भरा।

नव सुमनों की सजा रंगोली प्रतिपल हंसती वसुन्धरा।

जीवन का विस्तार यहाँ सृजन भरी है रश्मिधरा।

तितली के पंखों की थिरकन

भ्रमर गान का गुन्जन है।

लहराता रहता पगतल में सागर अथाह।

ऋतुएं आती भरती सबमें नव उछाह।

अन्तस में बहता हर पल अमृत प्रवाह।

जीवन का मूल श्रोत आलोकित है तिमिर स्याह।

स्वर्ग धरा यह कर्म भूमि

धर्म ज्ञान का आगन है।

प्रेम अहिंसा शान्ति राह जन मन की यहाँ निशानी है।

शब्द शब्द में छुपा यहाँ बेढव अजब कहानी है।

मंदिर मसजिद गुरूद्वारों में बन्धुत्व भाव की बानी है।

जीवन दर्शन का मूल सुनाती स्वासों में गुरुवानी है।

हर पल स्वागत देवों सा

आगत का अभिनन्दन है।

भूखण्ड नहीं यह भारत अपना

सपनों का एक नन्दन है।

नीरवता के आँगन में (Neeravata Ke Aangan Mein)

किसे ढूढती निशा अकेली नीरवता के आंगन में।

सिन्दूरी अभिलाषा देकर छिप गई संध्या दूर गगन में।

गाकर गीत मधुरता के शान्त हुआ चिड़ियों का कलरव।

बैठ डाल थके पखेरू सुना रहे हैं अपना अनुभव।

याद संजायें बहती नदिया निस्तब्ध हुये रेतों के तट।

लौट पड़ी पनहारिन देखो छोड़कर सूना पनघट।

जुगनू की चिनगारी लेकर सूने सूने शान्त विजन में।

किसे ढूढती.......

लेकर प्रीत पतंगों की दीपशिखा भी उलझ रही।

कौन बताये जीवन का पथ विरह प्रेम में सुलग रही।

बंजारे के बिरह गीत दूर दिशायें सुना रही।

अमराई की नीरसता में मंजरियाँ भी सिसक रही।

तारों की बारात साथ ले सपने संग संजाये मन में।

किसे ढूँढती............

दे रहा कौन ज्योतिसना को सुन्दर नवल उजेरा।

अन्धकार के घोर निविड में बैठा कौन चितेरा।

खींच रहा है जीवन रेखा दिखता नले भले अन्धेरा।

ऊषा के आँचल पर ताक रहा वह सुखद सवेरा।

सपना लेगा साकार रूप फिर कोरे कोरे मन दर्पन।

किसे ढूँढती निशा अकेली नीरवता के आगन में।।

चलना दूर तुझको (Chalana Dur Tujhako)

नींद में उलझे हुये जो स्वप्न तेरे त्याग उनको,

जंगलों को पार करना उठ जाग चलना दूर तुझको।

तारे तिरोहित हो गये अवसान है यह तिमिर का,

झिल मिलाती ललिमा जो आगमन है भोर का,

देख ले तू सुमन डाली हो रहे श्रृंगार को।

उठ जाग चलना दूर तुझको।।

हिमकनी सी ओर बूँदे झर रहा है प्रात रिमझिम,

मन्द मलयज वह रही ज रहा संगीत मधुरिम,

आ रही है सुवह सुन्दर दे रही है प्यार सबको।

ओझल अभी गन्तव्य तेरा है पथिक तू दूर पथ का,

चलना तुझे केवल अकेले जोहता तू साथ किसका,

अब तुझे है आश किसकी दे रहा आवाज किसको।

उठ जाग चलना दूर तुझको।।

कोई नई पथ रोक सकता बढ़ते हुये आलोक का,

होता नहीं है समय साथी बोझ बीते शोक का,

पार करना है अभी कंटकों के द्वार तुझको।

उठ जाग चलना दूर तुझको।।

वक्त के संग मिट जायेगा प्रात का परिदृश्य सारा,

बढ़ चले हैं पग दिवस के नाप लेगा आकाश सारा,

मोह छोड़ो इस छटा का कर रही जो भ्रमित तुझको।

उठ जाग चलना दूर तुझको।।

प्रात (Prat)

झूम कर जागी विजन में बीत रागी बल्लरी।

मणिक माला पहन संग में मुस्कुराती मंज्जरी।।

दे रहा है कौन चुपके पाँव को एक नई थिरकन।

मन्द मलयज साथ लेकर आ रहा है प्रात नूतन।।

 

चाँदनी विछड़ी गगन में ढल गई वह यामनी।

सुप्त तारों में जगी फिर राग की मधु रागनी।।

चेतना की व्यंजना में अंकुरित हो नव सृजन।

कलरव जगाता नीड का हँसने लगा वह प्रात नूतन।।

 

हंसने लगी कुसुमित लतायें खिल गई सुमन डाली।

आलोक की नव रश्मियाँ ले आ गये फिर अंशु माली।

समय का रूप बदला हो गया वह फिर सनातन।

स्वप्न को साकार करने आ गया लो प्रात नूतन।।

 

नीद से जागो जरा तुम देख लो नव प्रात को।

धूल के हर कणों को दे रहा सौगात जो।।

कैकटस की डाल पर भी हँसने लगा फिर नव सुमन।

चलो कर्म को आयाम दो कह रहा है प्रात नूतन।।

चिता जल रही है (Chita Jal Rahi Hai)

प्रतीची का आंगन सिंदूरी हुआ है।

सूरज की अपनी चमक ढल रही है।।

लिये साथ जीवन की लम्बी कहानी।

एक तन्हा अकेले चिता जल रही है।।

रेतों के टीले बहती जल धारा।

निस्तब्ध निर्जन नदी का किनारा।

उठती ये लपटे धधकते ये शोले।

राख बनते ये तन के फफोले।।

ठहरती ढुरकती ओझल विजन में,

मदिर मन्द केवल हवा चल रही है।

     प्रति पल बदलता मिथक जिन्दगी का।

     नही रुक रहा है सफर कारवाँ का।

     ढक कर दिया था जगत ने जो आदर।

     जला सबसे पहले कफन का वह चादर।।

दवे पाँव चुपके से सूने गगन में,

दूर संध्या से नभ में निशा मिल रही है।।

     अपनी थी खुशबू अपनी निशानी।

     अपना था रुतवा अपनी कहानी।।

     नहीं साथ कोई अपनों का मेला।

     दिखता विवस दूर सबसे अकेला।।

मिलना विछुड़ना आना ये जाना।

हर पल ग़जब की कथा चल रही है।।

खो गया वह (Kho Gaya Vah)

कमाते कमाते यही भर गया वह।

दौलत है उसकी कहाँ खो गया वह।।

गरीबों की रोटी चुराई थी उसने।

लोगों को कितना सताया था उसने।

जल थल को अपना समझता था वह।।

झुका दूँगा अम्बर सजाया था सपना।

बहुत नाम लिखा था पत्थर पर अपना।

अधूरे है सपने कहाँ सो गया वह।।

     मिटा दूँगा अपने कर्मों का लेखा।

     हथेली पर उसने खीची थी रेखा।

     बुलावा है उसका कहाँ छिप गया वह।।

अपना न कोई नहीं साथ मेला।

शमशान में है वह लेटा अकेला।

जलती चिता से नहीं उठ रहा था।।

     बड़ा नाज रखता था कमाई है उसकी।

     धूल खाती पड़ी है हवेली यह उसकी।

     देखा है उसको अकेला गया वह।।

जरूरत से ज्यादा कमाया था उसने।

गुफाओं में दौलत छिपाया था उसने।

दौलत पड़ी है नहीं ले जा सका वह।।

     बनता था दुनिया में सबका वह नेता।

     समझता था अपने को हरदम विजेता।

     मच्छर सा देखो यही मर गया वह।।

     खून पीकर यहीं मिट गया वह।।

नीरसता (Neerasata)

निगाहें ये गुमसुम सी ढूढती गगन।

सुधियों में खो गया है प्यार का चमन।।

उतर रही थी चाँदनी करके वह श्रृंगार।

साख से बिछड़ रहे थे फूल हर श्रृंगार।।

     यादों में सपनों सी स्वाँस की छुअन।

     निगाहें ये गुमसुम-सी ढूँढती गगन।।

ऊषा की लाली संग किरणों का हास।

विकल दिखी राहों में अनचाही प्यास।।

     पुरयन के पातों पर विखरे ज्यो हिमकन।

     निगाहें ये गुमसुम सी ढूँढती गगन।।

आँधी में ढहती यह टीलों की रेत।

निर्जन में मिलते ज्यों संशय के प्रेत।।

     बीध गई टीस लिये होठ की तपन।

     निगाहें ये गुमसुम सी ढूँढती गगन।।

जीवन की आशा का सूना सादर्पण।

मन की चंचलता में भावों का अर्चन।।

     व्याकुल यह व्यथित दिखा विरही सा मन।

     निगाहें ये गुमसुम सी ढूंढती गगन।।

भले दिखे कोमलता पाथर सी निष्ठुर।

बीजों की ही गोदी में रहता है अंकुर।।

     सर्द इन हवाओं ने क्यों छू लिया वदन?

            निगाहें ये गुमसुम सी ढूँढती गगन।।

हिमखण्डों में रहती है नीर की जलन।

नीरसता में बसती है प्रीत की लगन।।

     धवल हुआ चादर सा धरती का तन।

     निगाहें ये गुमसुम सी ढूँढती गगन।।

कभी सोचिये तो (Kabhi Sochiye To)

चाहत तुम्हारी तुम्हारा है सपना।

माना कि जीवन तुम्हारा है अपना।।

सुख भोग सारे तुम्हारे लिये हैं।

कभी सोचते हो यह किसलिये हैं।।

चाँद तारे सितारे धरा यह गगन।

कलियों का सुमनों का सुन्दर चमन।।

आलोक किरणों का तुम्हारे लिये हैं।

कभी सोचते......।।

पाकर के तन मन हुये हो मगन।

मदिर मन्द बहती यह महकी पवन।।

साधन ये सारे तुम्हारे लिये हैं।

कभी सोचते.......।।

प्रीत की प्यार की लिखती ये कविता।

उड़ते ये बादल झरनों की सरिता।।

प्यास तेरी बुझे नीर तेरे लिये है।

कभी सोचते......।।

रिस्तों की डोरी यह ममता की छाया।

रंग रूप यौवन यह प्यारी सी काया।।

स्वाँसों की सरगम तुम्हारे लिये हैं।

कभी सोचते हो........।।

कभी सोचिये तो क्यों पाया है तुमने?

मिला है जो तुमको दिया है किसी ने।।

वह खड़ा पास तेरे सदा किसलिये है।

फिर हर कमी पर गिला किसलिये है।।?।।

गाँव मेरे तुम आना (Ganv Mere Tum Aana)

मेरे गाँव का कोना कोना लागे बड़ा सुहाना।

सोंधी महक तुम्हें गर भाये गाँव मेरे तुम आना।।

बड़े सबेरे ऊषा कान्ति ले रचती नई रंगोली।

धरा पैर में लगा महावर दिखती बड़ी नवेली।

खिले फूल पर भ्रमर ढूँढता अपना नया ठिकाना।।

सोंधी महक.........।।

बांध पगड़िया लिये कुदाली दिखे किसान की टोली।

बधें गले में बैल के घूँघरू बोल रहे है बोली।

कर्म हमारी पूजा अपनी प्रतिपल इसे निभाना।।

सोंधी महक..........।।

नई बघूटी धरे पोटली हाथ में लेकर पानी।

घूम घूम कर देख रही है अपनी खेत किसानी।

हँसते गाते खेत में अपने प्रेम बीज के बोना।।

सोंधी महक............।।

द्वार द्वार से होकर जाती खेतों तक पकडंडी।

अंगना अंगना दूध पके आग चढ़ी वह हंडी।

माखन मिसरी अइया देती अनुपम लगे खिलाना।।

सोंधी महक............।।

नीम पेड़ पर डाल पालना झूले संग सहेली।

कुटिया भी यूँ सुन्दर लागे जैसी सजी हवेली।

खेतों में हरियाली का यूं सागर सा लहराना।।

सोंधी महक.............।।

होली ईद दिवाली आती हर दिन है त्योहार यहाँ।

सम्मान मान देना सबको संस्कारित व्यवहार यहाँ।

सबको गले लगाकर शिकवे गिले भुलाना।।

सोंधी महक...........।।

शंख ध्वनि आजान सुनाती रहमत प्रीत दुआयें।

प्रेम भरा जन जीवन सबका हो गाती गीत दिशायें।

कौड़े पर ही निकले धर्म ज्ञान का मूल खजाना।।

सोंधी महक............।।

सच कहूँ (Sach Kahun)

नाव थी पतवार थी

साथ माझी भी था

आ गये इस पार

लेकिन सच कहूँ

मझधार पर धड़कन बहुत थी।

उपवन मिले बगीचे भी

फूल भी खार भी

आ गये पगडंडियों चल

पर सच कहूँ

राह में फिसलन बहुत थी।

गीत था संगीत था

राग के हर साज भी

गुनगुनाये तो बहुत

पर सच कहूँ

रात भर उलझन बहुत थी।

सिल सिला था-

रिस्तों का नातों का

अपने और पराये का

निभाये तो रिस्ते बहुत

लेकिन सच कहूँ

स्वार्थ की तड़पन बहुत थी।

चलता गया चलता गया

पल भर कहीं ठहरा नहीं

जिन्दगी हमने बसर की

पर सच कहूँ

हर मोड़ पर भटकन बहुत थी।

हर गिरे वह हंसे

देखकर मुश्किल हमारी

दौड़ कर आये उठाने भी

पर सच कहूँ

उनसे हमारी अनबन बहुत थी।

समाप्त