Us Paar
hindi poetry by Arvind Kumar Verma
उस-पार
लेखक
अरविन्द कुमार वर्मा
Title : Us-Paar
(Verse Free Hindi Poetry)
Author : Arvind Kumar Verma
ISBN- 978-81-955210-3-6
Published by : 'Lok Parlok', 105-F/4, Sadiyabad, Prayagraj (U.P.), India. [email protected] Website- www.lokparlok.in, Mob.- 9839873793
Printed by : Vishnu Art Press, Zeero Road, Prayagraj, U.P.
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Edition: First (2022)
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समर्पण
स्मृति शेष
पूजनीया माता एवं पिता को
प्राक्कथन
मन निर्मल चित्त शान्त था, प्रकृति सर्जना में तन्मयता से लीन थी। नैसर्गिक सौन्दर्य का अप्रतिम प्रवाह मन्द-मन्द, मधुर-मधुर प्रवाहित हो रहा था। झरनों से कल-कल का राग निनादित हो रहा था। प्रकृति तरंगो की वाद्यवीणा के सुर, भावव्यंजना को सुमधुर बना रही थी, कर्णप्रिय ध्वनियों का अह्लद नाद मृदुल सुरों में गुंञ्जायमान हो रहा था। योगी बड़े तन्मयता से योग साधना में रत था। चैतन्य थी इन्द्रियाँ, लगी थी दृष्टि, विस्तारित गगन के शून्य में, अन्तर में उद्वेलित हो रही थी, भावनाओं की सुखानुभूति।
शान्ति के सघन कुञ्जों में दिव्य लोकों का परावर्तित प्रकाश स्वप्निल उजास भर रहा था, दिग्दिंगत तक ज्योत्सना का अभिनीत प्रवाह सृजन की भावभूमि को प्राण-प्रतिस्थापित कर रहा था, वहीं दिव्य-लोकों से सत्य का चितेरा रसवन्ती वर्षा से अभिसिंचित कर रहा था। ऐसे में योगी को ‘उस पार’ के कौतूहल जानने का मर्म उसके अन्तर में संवेदित हो गया और उस दिव्यानुभूति के दिव्य दर्शन की मनोकामना हेतु कठिन साधनारत हो गया। योगी निष्काम साधना और जप-तप से दिव्य शक्ति संचित करके सूक्ष्म शरीर धारण कर अनन्त की यात्रा में निकल पड़ता है। जहाँ वह मृत्युलोक एवं स्वर्गलोक का भ्रमण करता है।
योगी जीव के जन्म-मरण, सुख-दुख तथा कर्मों के आधार पर निर्धारित दण्ड और विधि-विधानों के रहस्य जानने की कोशिश करता है। आत्मा अजर अमर व अविनासी है वहीं योगी पुनर्जन्म और मोक्ष के रहस्यों के प्रति आशावान बना रहता है और उस परम शक्ति से साक्षात्कार करके उस तेज में समाहित होकर जन्म और मृत्यु के बन्धन से छुटकारा प्राप्त कर लेता है।
कविता के द्वारा कवि ने योगी के माध्यम से ईश्वरीय शक्ति को सार्थकता प्रदान करने की कोशिश की है एवं मानव को अच्छे कर्म करने को प्रेरित करने का सार्थक संदेश भी दिया है।
आशा है सुधी पाठकगण एवं काव्य प्रेमी ‘उस-पार’ काव्य-संग्रह का रसास्वादन करते हुए आनन्दित होंगे एवं अपने बहुमूल्य सुझावों से मुझे मार्गदर्शन करने की कृपा करेंगे।
उस पार काव्य-संग्रह के लिए मैं आभारी हूँ परम आदरणीय पं. केशरीनाथ त्रिपाठी, मत्स्येन्द्र शुक्ल, श्याम विद्यार्थी, रमेश द्विवेदी, सुरेन्द्र नूतन, डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय, देवीचरण वर्मा ‘‘दिव्यांश’’ जिनका आशीर्वाद मुझे निरंतर मिलता रहा है। मैं शिवशरण सिंह चौहान अंशुमाली जी का विशेष आभारी हूँ जिन्होंने काव्य समीक्षा एवं बहुमूल्य सुझाओं से मुझे पथ-प्रदर्शित किया है।
मैं अक्षयवट साहित्य एवं संस्कृति अकादमी से जुड़े अनेकानेक साहित्यकार अजय पाण्डेय, गिरिजेश श्रीवास्तव बन्धु, शैलेष गुप्त ‘वीर’ बादल प्रयागवासी, अशोक स्नेही, श्रीराम मिश्र, तलब जौनपुरी, डॉ. वीरेन्द्र तिवारी शैलेन्द्र जय, रविनन्दन सिंह, केशव सक्सेना, जयंत मिश्रा, नन्दलाल सिंह, बब्बन सिंह, दयाशंकर पाण्डेय, राजाराम शुक्ल, डॉ. के.सी. श्रीवास्तव, कृष्णेश्वर डिंगर, अमरनाथ श्रीवास्तव एवं कवियत्री डॉ. स्नेहलता वर्मा, कुसुम श्रीवास्तव, निशी सक्सेना, कविता उपाध्याय आदि के साथ उनकी उपस्थिति से काव्य चिंतन व साहित्यिक संगोष्ठियों में काव्य सृजन का पथ प्रसस्त हुआ।
मैं आभार व्यक्त करना चाहता हूँ फतेहपुर जनपद के अनेकानेक साहित्यकारों का जिनका मुझे निरंतर सहयोग प्राप्त होता रहा है।
मैं कृतज्ञ हूँ ‘लोक-परलोक प्रकाशन’ का जिनके अथक प्रयास से यह काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ। अन्त में मैं आभार प्रकट करता हूँ पत्नी श्रीमती मंजुलता वर्मा, पुत्री शिखा वर्मा एवं पुत्र आशीष वर्मा का जिनके उत्साह वर्धन व सहयोग के कारण ही मैं कवित्व साधना का दायित्व पूर्ण कर सका।
–अरविन्द कुमार वर्मा
पुरोवाक
‘उस-पार’ विद्वान लेखक अरविन्द कुमार वर्मा की अध्यात्मपरक सर्जना है जिसकी विचार वीथी में यह कथ्य है कि मानव-शरीर अन्य सभी शरीरों से श्रेष्ठ और परम दुर्लभ है एवं वह जीव को भगवान की विशेष कृपा से जन्म-मृत्युरूप संसार समुद्र से तरने के लिये ही मिलता है। ऐसे शरीर को पाकर भी जो मनुष्य अपने कर्म समूह ईश्वर-पूजा के लिये समर्पण नहीं करते हैं और कामोपभोग को ही जीवन का ध्येय मान कर विषयों की आसक्ति के यथेच्छ उपभोग में ही लगे रहते हैं वे आत्मा की हत्या करने वाले होते हैं, और मरने के बाद बार-बार कूकर-शूकर, कीट-पतंग आदि योनियों से होते हुए नरकों में भटकना पड़ता है। इसी तथ्य के साथ ‘उस-पार’ का योगी मुक्ति की खोज में अनन्त की यात्रा कर नर्क की यंत्रणा और स्वर्ग का परमानन्द के कार्य-कारण और करण क्या है? की गवेषणा करता है। श्री अरविन्द कुमार वर्मा वस्तुत: विज्ञान के छात्र रह रेलवे में वरिष्ठ-सेक्सन ईंजीनियर पद से कार्य-मुक्त हो इस कृति का प्रणयन किया है। जीवन के इस पड़ाव में नेत्रों की वीथिका ने जो कुछ देखा, पढ़ा, चिन्तन किया और उसकी परिणति क्या होती है? क्या अधम कार्य से नर्क प्राप्त होता है? अथवा धर्मपरक जीवन से स्वर्ग का सुख मिलता है। आपने योगी को मृत्युलोक से नर्क-स्वर्ग के अन्वेषण के लिये प्रेरित किया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने इसकी विवेचना की है–
य: शास्त्रविधि मुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवा प्रोतिन सुखं न परां गतिम् ।।
(अध्याय- १६ श्लोक-२३)
अर्थात् – जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से वर्तता है वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है न परमगति को तथा न सुख को ही प्राप्त होता है।
इस भावभूमि को लिखने के बाद अब मुझे सामर्थ्य नहीं है कि मैं इस सर्जना के श्रेय-प्रेय को आगे बढ़ाऊँ; इसके लिये मैं लेखनी को गतिमान देने वाली माँ सरस्वती को प्रणाम करना चाहूँगा–
‘‘इदं कविभ्य: पूर्वोभ्यो नमोवाकं प्रशास्महे।
वन्देमहि च तां वाणीममृतामात्मन: कलाम् ।।१।।’’
–‘‘उत्तरचरितम् महाकवि भवभूति’’
अर्थात् – हम अपने पर्वूज कवियों (वाल्मीकि, व्यास, भास आदि) को प्रणाम करते हैं। पुन: ब्रह्मा की अंशभूता तथा अमृत के समान रस आस्वाद कराने वाली उस वाणी की अर्थात् सरस्वती देवी की स्तुति करते हैं।
अब मैं प्रतिपाद्य विषय की ओर अपनी वर्ण तूलिका चलाता हूँ, जहाँ मुझे कृतिकार से अन्तर्भावों में पाँच लघु प्रखण्ड दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम- प्रकृति, द्वितीय- चिन्तन, तृतीय- नरक, चतुर्थ- स्वर्ग और पंचम- पश्चाताप की भावभूमि छन्दों में निरूपित की गई है।
कवि के लघु प्रबन्ध-काव्य में प्रबोधन की शैली प्रतिपादित की गई है जिसमें ज्ञान, जागरण, जिज्ञासा, चिन्तन एवं निष्कर्ष श्लाघनीय विषय हैं। छंदों की संख्या १८२ है जहाँ कवि का योगी धरा से गगन फिर नरक, स्वर्ग की खोज के लिए सूक्ष्म शरीर के साथ गिरि गह्वर को पार करता हुआ अपने गन्तव्य तक जाता है। वह चिन्तन की विचारवीथी में विद्वान् पाठक को सोचने के लिये विवश करता है कि सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, जन्म-मृत्यु की पराकाष्ठा क्या है? क्या मनुष्य के कर्म उत्तरदायी हैं, देखें एक उद्धरण–
‘काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।
अर्थात– लक्ष्मण जी ने निषाद से कहा कि- कोई किसी को सुख-दु:ख देने वाला नहीं है। सब अपने ही किये हुये कर्म का फल भोगते हैं।
–रामचरित मानस अयोध्याकाण्ड ९१/२
‘उस-पार’ शब्द का अर्थ है धरा की परिधि के उस पार सृष्टा परमेश्वर का असीम संसार कैसा है? सर्वात्मा, सर्वाधार और सर्वव्यापी ईश्वर के जगत् में- अणु से अणुतर और महान से महत्तर का स्वरूप क्या है? इसकी खोज ही ‘उस-पार’ सर्जना का स्वरूप है। कृतिकार ने सम्यक् विचार मंथन से यह निष्कर्ष निकाला कि इस कार्य की गवेषणा को किसी योगी द्वारा ही निष्पन्न किया जा सकता है। देखे पातञ्जलयोगदर्शन सूत्र–
अथ योगानुशासनम् (समाधि छंद-१,१)
अर्थात् अथ योगानुशासन, योग शिक्षा से योग साधना सम्पादित की जाती है।
लेखक ने योग साधना से एक योगी के द्वारा योगदर्शन को आधार बनाया है। योगी की खोज के लिये प्रकृति के शिल्प सौंदर्य को प्रधानता दी है जिसमें उत्तुंग शिखर, हिमवान उपत्यका, नीलाभ-व्योम, शैल, प्रपात से कवि भावों को लयात्मकता दी है, देखें प्रथम छंद–
‘‘दुर्गम उस हिमवान प्रान्त में
हिमाच्छादित, गगन चूमते शैल शिखर
नीलाभ-व्योम के उस नीरव एकान्त में
उन्मुक्त पंख-पसारे उड़ते नभचर।
–उस-पार- प्रथम छंद
श्री वर्मा जी उदात्त प्रकृति के लेखक हैं जिनकी रचनायें अनुभूतिगम्य सत्य एवं अध्यात्म की ओर इंगित करती हैं, वस्तुत: लेखक को मैं बहुत पास से जानता हूँ वह एक साधक हैं, उनकी साधना ही ‘उस-पार’ की अन्वेषक है। एक योगी की खोज में अपनी लेखनी को आगे बढ़ाते हैं–
उसी सुरम्य के पावन निर्जन तट पर
एक पड़ी थी शिला सुसज्जित
था सरिता का सानिंध्य निकट पर
आती जाती, उफनाती लहरों से अविचलित।
–उस-पार, छंद-१३
शब्दों में माधुर्य और लय कविता देवी की कृपा है।
प्रकृति का यथार्थ सटीक चित्रण प्रकृति की सुरम्यता सौंदर्य एवं शब्दों का लालित्य लेखक के प्रकृति प्रेम को प्रतिदर्शित करता है।
सर्जनाकार इन पंक्तियों में अपने योगी का उद्भव करता है जो काव्य-पथ का प्रधान पात्र है एवं एकाकी ही काव्य का संबल है और लेखक के साथ नाभिनालबद्ध है। देखे काव्यांश–
उसी शिला पर आ बैठा
एक योगी निश्छल तपोव्रती
मोह विरत हो अति प्रसन्न
निष्काम साधना में डटा हठी।
(उस पार छंद-१६)
योगी साधना में रत हो जाता है, जप-तप उसकी दिनचर्या है, दिव्य ज्ञान की खोज में समाधि की ओर अग्रसर होता है। योगी मौनव्रती है। वह प्राणायाम में अविरल तत्पर है। योगी समाधिस्थ है। काव्यांश का सार तत्त्व इस श्लोक में प्रतिदर्शित है–
‘‘परमाणुपरममहत्त्वातन्तोऽस्म वशीकार: ।।४०।।
(समाधिपद-१, श्लोक-४०) (पतंजलि योगदर्शन)
अर्थात्- अभ्यास करते-करते योगी का चित्त भलीभाँति स्थिति की योग्यता प्राप्त कर लेता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थों एवं महान् पदार्थों तक जहाँ चाहे अपने को स्थिर कर सकता है। उसका चित्त पर पूर्ण अधिकार हो जाता है।
इसी तारतम्यता में विद्वान कवि की पंक्तियाँ पढ़ें–
‘‘मौनवृती के सौम्यचिंत्तन में
विह्वल ममता उमड़ रही थी
अगणित द्वंद्वों के समाधिष्ठ मंथन में
उत्सुकता झलक रही थी।’’ (छंद-१९)
योगी चिन्तन में व्यस्त है। उसके सामने अनेकों यक्षप्रश्न उभर कर आते हैं कि यह सृष्टि कहाँ से संचालित है? कौन इस सृष्टि को संचेतना देता है। योगी का ज्ञान गहन और गम्य है। वह आत्मज्ञान से परिपूर्ण है। इस मोदिनी (धरा) के उस पार क्या है? उसके अन्वेषण का प्रतिपाद्य विषय है। इस सन्दर्भ में लेखक के विचार काव्यांश रूप में–
प्रश्नों के अम्बार लिये वह चाह रहा अवलोकन को
जल, थल, नभ समग्र सृष्टि के जीवन को
महाविनाश के उस क्रूर काल से परिचित होना
धरा-व्योम के उस पार रहस्यों से अनुभूतित होना।
(छंद- २४)
समाधिस्थ योगी की ऋतम्भरा प्रश्न है जहाँ संशय और भ्रम का लेश भी नहीं रहता है। वह अपने प्रश्नों की खोज के उस पार जाना चाहता है। इस कारण वह उर्ध्वगमन के लिये तत्पर है। वह समाधि के अष्टाङ्ग गुणों का ज्ञाता हो चुका है। देखें योग के आठ अंग–
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,
धारणा ध्यानं समाधयोऽस्तावङ्गवर्नि ।
पतंजलि योग- (समाधि पद-२, श्लोक २९)
इस संदर्भ में विद्वान कवि की पंक्तियाँ–
योग मुखी मुद्रा में रमकर
योगशक्ति का वह करता अनुशीलन
ऋतुओं का उन्माद भयंकर
पर तटस्थ बना है तन-मन।
(‘उस-पार’ छंद-२९)
योगी समाधिस्थ है। योग के आठ नियम- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान-समाधि के आधार पर योगी निर्वाण समाधि से सिद्ध है। उसका सूक्ष्म शरीर ‘उस-पार’ की यात्रा के लिये उद्यत होकर उर्ध्वगमन के लिये निकल पड़ा है। इस सन्दर्भ में विद्वान कवि का काव्यांश–
मन अन्तर चलती सतत साधना
उर्ध्वगमन का पथ दिखलाती
*
हर बाधाओं को तोड़ यशस्वी
संधानों का रूख करता जाता
*
मन इन्द्रिय संयम साथ लिये
निर्विघ्न बढ़ रहा गन्तव्य दिशा में।
*
जरा मरण का भय जिसे न किंचित
उर्ध्वगमन में रत तपी निर्भीक।
(काव्यांश ‘उस-पार’, छंद- ३३, ३४, ३६, ३९ तथा ४२)
श्री अरविन्द कुमार वर्मा ने अपने साधक योगी के माध्यम से नरक-स्वर्ग का श्लाध्य अन्वेषण किया है। इस वैदुष्य पूर्ण गवेषणा के लिये लेखक प्रशंसनीय है। व्यंजित योगी योगाग्नि शरीर/सूक्ष्म शरीर के द्वारा उर्ध्वगमन में रत है। वह आगे बढ़ता हुआ दीर्घवलय को पार करता है, मृत्युलोक में प्रदार्पण कर जाता है। देखें काव्यांश–
अहा यही है मृत्युलोक, पापात्माओं का दृश्यलोक
यम के गण तटस्थ यहाँ पर, अधर्म कर्म के सारे शस्त्र यहाँ।
(‘उस-पार’ छंद-५४)
चित्रगुप्त कर्मधर्म के अवलोकन में उद्यत हैं, उनके पास प्रत्येक व्यक्ति की जीवनी का लेखा जोखा प्रस्तुत है। धर्माधिकारी का तेजस्वी मुखमण्डल, हाथों में गदा, नीलनयन और कानन-कुण्डल की दिव्यता गांभीर्य मुद्रा के साथ प्रतिभासित है। अधर्म कर्मी यातनायें भोग रहे हैं। चित्रगुप्त भगवान् के निर्देशानुसार वे दण्डित हो रहे हैं। योगी का सूक्ष्म शरीर सत्यान्वेषण के दृश्य प्रस्तुत कर रहा है। लेखक ने नरक का वीभत्स दृश्य इस प्रकार सन्दर्भित किया है–
पैर जमाये वक्षस्थल पर
अंग नोचते भूखे श्वान
गर्म सलाखों से दागे
रह-रह जीव तड़पते
(‘उस-पार’ छंद-६७-६८)
यमलोक का यही परिदृश्य श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेखित है–
‘‘जीव तश्चान्त्राम्युद्धार: श्वागृध्रैर्यमयादने।
सर्पवृश्चिकदंशा धैर्दशन्दिश्चात्म वैशज्ञम् ।।
(श्रीमद्भागवत पुराण प्रधान खण्ड तृतीय स्कन्ध)
अर्थात्- यमपुरी में कुत्तों अथवा गिद्धों द्वारा जीते जी आँत खींची जा रही है। साँप विच्छू आदि डसने वाले डंस आदि से अथवा डंक मारने वाले जीवों से शरीर को पीड़ा पहुँचाई जाती है।
विद्वान, लेखक ने अपने तपस्वी के दृष्टिपात परिदृश्यों को श्रीमद्भागवत पुराण से साम्य स्थापित किया है। यह आपका सूक्ष्म विवेचन अत्यन्त श्लाघ्य है। साथ ही आपके छंद ६७ का शब्द-चित्रांकन ‘‘आदिपन स्वागात्राणं’ श्रीमद्भागवत पुराण से श्लोक २५ का सटीक दृश्यांकन है। इसी संदर्भ में सर्जनाकार ने अपनी लेखनी को आगे बढ़ाया है–
पाप कर्म के सारे पाथेय यहीं पर
भयाक्रान्त गुजरते पापी गण।।
(‘उस-पार’ छंद- ७३)
कई चक्र यातनाओं को लाँघ अति विकल
शुद्ध आत्माओं के दल सँवर रहे।
(‘उस-पार’, छन्द- ७७)
इस प्रकार नरक की यातनाओं को भोगने के बाद शुद्ध आत्मायें मृत्युलोक में मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं। छंद ७७ की भावभूमि दृश्य नरक यातना की अन्तिम परिणति की ओर ले जाता है जहाँ से व्यक्ति मृत्युलोक की यात्रा कर और भोगों को भोगकर मृत्युलोक में जीवात्मा के रूप में जन्म लेता है। देखें श्रीमद्भागवतगीता का श्लोक–
‘‘अधस्तान्तरलोकस्य यावतीयार्तनादय:’’
अध्याय-३०-३४/२
अर्थात् - शूकर- कूकरादि योनियों के जितने कष्ट हैं, उन सबको क्रम से भोग कर शुद्ध होकर के मनुष्य योनि में जन्म लेता है।
योगी के सूक्ष्म शरीर की यात्रा के परिदृश्य आगे के छन्दों में प्रस्तुत है। इस काव्यादर्श की यथार्थ दृष्टि के लिए कवि की रागात्मक कविता अत्यन्त श्लाघनीय है। जिसके लिये कवि की लघुकृति विजयस्थल की ओर प्रस्थान करती है। श्री वर्मा जी का एकान्त जीवन उनकी चिन्तनशाला की ओर संकेत करता हुआ, वह साधुवाद के पात्र हैं–
‘‘मेरा एकान्त ही
मेरा विजय स्थल है।’’
(सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
कवि का अगला सोपान स्वर्ग लोक की ओर प्रस्थान करता है। शुभ कर्मों की परिणति ही है देवलोक की अभिराम यात्रा जहाँ योगी का सूक्ष्म शरीर अनेकानेक विवरों में विर्वतन करता है। सुरधाम की ओर अग्रसर है। देखे योगी के सूक्ष्म शरीर की यात्रा–
‘‘देवभूमि को प्रस्थान यहीं से
देव-देव के गुणगान यही से’’ (छन्द-८४)
सुरलोक में पदार्पण करते ही वहाँ का परिदृश्य इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि सभी स्वर्ग लोकों की भाषा मृदुवाणी से ओत-प्रोत है। जड़-चेतन सुरीली तानों से झंकिृत है चतुर्दिक देवत्व की अभिव्यंजना का जीवन-दर्शन स्फुरित है। देखें कवि की भावाभिव्यक्ति–
अरुणिम आभा से अभिरंजित
आलोक प्रशस्त हर सीमायें
सुरमुई धुनों के सुर से सज्जित
दिग्दिगन्त तक देवत्व प्रेम की भाषायें। (छन्द-८८)
मलयानिल की मनमोद उमंगें
अन्तरमन को हर्षाती। (छन्द-१११)
सुरपुर पुण्यात्माओं का लोक है। स्वर्ग लोक में प्रस्थान करने वालों के सन्दर्भ में भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है–
अद्वैष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुणा एव च।
निर्ममो निरहज्रर: समदु: दुखसुख: क्षमी।।
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़ निश्चय:।
मध्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:।।
अध्याय-१२, श्लोक- १३-१४
अर्थात् - जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव रहित स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता अहंकार से रहित है, सुख दु:खों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है- जो योगी निरन्तर संतुष्ट है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है, मन बुद्धि को मुझमें ऐसा व्यक्ति स्वर्ग में वास करने का अधिकारी है, उस सुरपुर में व्यक्ति निम्न प्रकार से जीवन व्यतीत करता है। देखें विद्वान कवि की पंक्तियाँ–
रंग-विरंगे परिधानों में सजी दिशायें प्रकृति मग्न
वात्सल्य लिए मुस्कानों में अथाह प्रेम अधीर-निमग्न
लेखक ने अन्तिम छंदों में (छंद संख्या ६४, १७४ से १७९) में प्रायश्चित प्रारूपों को अपनाया है, देखें पंक्तियाँ–
अब इन्हीं पलों का प्रायश्चित
करने को यहाँ हौसला भरता
इस नर्क लोक की थाह अनिश्चित
संशय की सीमाओं का संत्रास लिए गुजरता। (छंद-६४)
लेख का आशय है कि प्रायश्चित करने से पापों, तापों का पूर्णत: शमन हो जाता है। संतों की संगति उनके उपदेश और कर्म के अनुपालन से व्यक्ति के पापों का शमन हो जाता है और वह ईश्वर के लोक की प्राप्ति करता है।
देखें लंकिनी ने हनुमान जी से कहा–
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।
(सुन्दरकाण्ड दोहा-१४)
अर्थात् हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े में रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते हैं, जो क्षण मात्र के सत्सङ्ग से होता है।
दूसरा दृष्टान्त देखें– जिसमें पश्चाताप की भूमिका शिखर को स्पर्श करती है जहाँ विभीषण अपने भ्राता रावण से कहता है–
काम-क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुवीरहिं भजहु भजहिं जेहि संत।
(रामचरित्र मानस सुन्दरकाण्ड दोहा-३८)
कृति सर्जक श्री अरविन्द कुमार वर्मा ने अपने ६ छंदों में प्रायश्चित की भावभूमि प्रस्तुत की है उनके छंद के आशय से विद्वान पाठक गहन-गंभीर विषय की दुरूहता का विश्लेषण कर लेंगे ‘अंशुमाली’ आशान्वित है।
अन्त में मेरी वर्ण तूलिका श्री वर्मा जी के सन्दर्भ में कहती है कि– 'Man is what he makes him self'' (विचारक मात्र का कथन) व्यक्ति अपने आपको बनाता है उसकी भावनाओं की परिणति है उनकी रचनायें। आपकी सभी रचनाओं– सृजन की छाँव (२००५), पतझड़ का टूटता मौन (२०१०) एवं सोनपरी (२०१३) की भावभूमि उनके व्यक्तित्व का प्रेषण हैं, साथ ही ‘उस-पार’ चिन्तन शाला की पृष्ठभूमि में आगम (शास्त्र) नियम (वेद) तथा योग शास्त्र का समन्वयन है जिसमें दर्शन के शिखर को अति संक्षिप्तता के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह लघु प्रबन्धकाव्य अन्त: संस्कार अथवा आत्म संवेदन; अभिव्यञ्जना; आनुषंगिक आनन्द और अभिव्यक्ति का प्रस्तुतीकरण करता हुआ चार चरणों को प्रथम (संवेदन ग्रहण) द्वितीय (विचार ग्रहण) तृतीय (भाव ग्रहण) तथा चतुर्थ (सहज ज्ञान ग्रहण) का विश्लेषण करता है। उस-पार मनोविश्लेषण के आधार पर श्लाघ्य कृति है। मैं समझता हूँ यहाँ ईश्वर का गुणाक्षर न्याय प्रच्छल है, श्री वर्मा जी की यह सर्जना ईश्वर की कृपा पर आधारित है, महाकवि तुलसीदास ने भी इसी सन्दर्भ में कहा है–
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक।
होई घुनाक्षर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।
(राम चरित्र मानस, उत्तरखण्ड दोहा-११८ख)
अर्थात ज्ञान कहने समझने में कठिन और साधने में कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोग वश) कदाचित यह ज्ञान भी हो जाय, तो फिर उसको बनाये रखने में अनेकों विघ्न हैं।
श्री वर्मा जी को मण्डल रेल प्रबन्धक इलाहाबाद (प्रयागराज) ने समर्पित सेवाओं के लिए वर्ष १९८९, १९९१, १९९४, १९९७, १९९९, २००४, २००८ में विशिष्ट सेवा सम्मान एवं वरिष्ठ मंडल अभियन्ता उ०म० रेलवे द्वारा शीर्ष सेवा पदक प्रदत्त किया गया। ‘पतझड़ का टूटता मौन’ सर्जना पर रेलवे बोर्ड द्वारा मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से अलंकिृत किया गया।
अन्त में मेरी संस्था ‘शान्तिनिकेतन मानव कल्याण समिति फतेहपुर’ (साहित्य प्रभाग) से यशस्वी साहित्यकार श्री अरविन्द कुमार वर्मा को गजानन माधव मुक्ति बोध साहित्य सम्मान प्रदान किया गया और शाल प्रतीक चिह्न भेंटकर अलंकिृत किया गया।
यह परिवार जो अपनों के लिए समर्पित हो अपनों की व्यवस्था कार्य पद्धति, साहित्य सर्जना के पथ में बाधक न बनता हो, यह भाग्यशाली परिवार अपने मुखिया को धरा से गगन की ओर उठता हुआ गगन मण्डल का ध्रुवतारा बना देता है जो भावी पीढ़ी एवं भूले भटकों का मार्ग दर्शन करता हुआ युग-युगान्तर तक अमर हो जाता है।
आज्ञाकारी पुत्र इ० अरविन्द कुमार वर्मा माता-पिता के पगचिह्नों पर चलकर अपने कर्त्तव्य पद का दायित्व निर्वहन करते रहे हैं। आज यह यशस्वी पुत्र साहित्य पुरोधा वनकर उनका नाम प्रकाशित कर रहा है। आपकी जीवन संगिनी श्रीमती मंजुलता ने पति को भगवान का स्वरूप मानकर अगर चंदन पुष्प से पूजकर उनके साहित्यिक पथ में समर्पित रहीं आज वही जीवन परिमल साहित्यिक यात्रा में यशस्वी साहित्यकार वन कर उभरे हैं। यह श्रेय श्रीमती मंजुलता को जाता है।
बेटी शिखा एवं पुत्र आशीष अपने पिता की साहित्यिक साधना में समिधा बनकर यश की धूम्र में आहुतियाँ दे रहे हैं। यह सुवासित ध्रूम साहित्यिक पटल पर अपने पिता को यशस्वी बना रही है। मैं ऐसे परिवार को आशीर्वाद प्रदान कर उनके गिलहरी प्रयास को अत्यन्त श्लाघ्य मानता हूँ और आशान्वित हूँ कि परिवार को गौरवान्वित करते रहेंगे।
मैं अपनी भूमिका को यही महान साहित्यकार सुमित्रा नन्दन पंत के गीत-गीतकार की कालजयी पंक्तियों के साथ आपको सम्मान प्रदान कर रहा हूँ, ईश्वर से प्रार्थना है कि श्री वर्मा जी शताधिक आयु प्रदान कर साहित्य की सेवा करते रहेंगे।
‘‘मैं न ध्वन्स करने आया हूँ
था मानव जीवन ही खण्डित
उसे पूर्ण पूर्णतम बनाने
आया हूँ कर नव संयोजित।’’
मंगलवार भवदीय
दि. ४ मई २०२१ शिव शरण सिंह चौहान ‘अंशुमाली’
दूरभाष-९२३६५८४६२५
उस-पार
एक सुखद स्वप्निल अभिव्यक्ति
अम्बर के नीचे निर्मल नीर से डबडबाई एक सुन्दर-सी झील प्रकृति के सौन्दर्य का दर्पण बनी, प्रतिबिम्बित करती जीवन का सत्य जिसे देखकर मन कुछ सोचने को विवश हो जाता है। झील के उगते हुए सूरज की सुनहली किरणों की छाया एक कमल की कली को स्वप्निल जीवन का साकार रूप प्रदान करती है जिसकी कल्पना उसने रात के अन्धेरे में किया होगा। परन्तु रात में खिली कुमुदिनी के सपनों का तिरोहित होना यह सत्य है। उस झील में सुबह का सूरज आता है और शाम को चला जाता है। उसी झील में चाँद भी आता और चला जाता है। यह अनवरत एक चक्र-सा चलता रहता है। परन्तु इस गति के साथ प्रकृति का जीवन चल रहा होता है और साथ में सृष्टि का स्पन्दन। रात में कमल की कली एक स्वप्न देखती है कि इस रात के बाद दिन का उजास आयेगा तो मैं अपना साकार जीवन देखूँगी जिसमें भौंरों का मधुर गुँजन, शीतल, मलय का स्पर्श मुझे असीम आनन्द देगा। वहीं रात में खिली कुमुदिनी यह सोचती होगी कि यह रूपहली चाँदनी रात कितनी मनमोहक आनन्ददायक है जो कल्पना से परे है। यह बिम्ब मानव को भी सोचने के लिए विवश करता है क्योंकि मानव एक विचारवान प्राणी है जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य की सोच निहित है। मानव अपना जीवन एक यात्रा के रूप में पूर्ण करता है और वह जीवन यात्रा एक जीव (प्राण) की होती है जो अव्यक्त है, स्वरूपहीन है उसे जब भौतिक तत्वों का कलेवर मिलता है तो वह रूप धारण करता है जिसमें मन, बुद्धि, विचार, भाव आदि जन्म लेते हैं। यह मानव की ही स्थिति नहीं है वरन पूरी प्रकृति की है लेकिन मानव प्रकृति की संरचना में एक श्रेष्ठ प्राणी है। जिसमें सोचने, समझने की सामर्थ अधिक है। जिसके कारण वर्तमान तो जीता ही है पर अतीत पर भी सोचता है और भविष्य की भी कल्पना करता है। उतना ही मानव जन्म-मृत्यु के परे भी सोचता है कि उस जीव की मृत्यु के बाद जीव के साथ क्या होता होगा यह भले ही कल्पना मात्र हो परन्तु उसमें कुछ तो सत्य होगा अर्थात जीवन की मृत्यु के उस-पार क्या होगा?
यह बात मैं कहना चाहता हूँ- कवि अरविन्द कुमार वर्मा की कृति ‘उस-पार’ के सन्दर्भ में जो प्रकृति के सौन्दर्य की एक सुन्दर अभिव्यक्ति है जिसमें कवि प्रकृति के सौन्दर्य के साथ ऐसे लोकों की कल्पनीय यात्रा करता है, जहाँ सब कुछ अव्यक्त होते हुए भी साकार सृजन परिलक्षित होता है। कवि के इस लघु प्रबन्ध काव्य का नायक एक योगी है जो सर्वगुणों से सम्पन्न होकर अपनी कठिन साधना से संयमित होकर तत्व-ज्ञान की खोज में ऊर्ध्वगमन करता है। योगी के माध्यम से कवि ने अविराम यात्रा करते हुए काव्य-चेतना के उत्कर्ष को छूने का प्रयत्न किया है, देखें कवि की इन पंक्तियों के माध्यम से प्रकृति-चित्रण-
बहता शीतल मंद समीर
तरंग ताल लिए मचलती सरिता
झरते हर-श्रृंगार पुष्प अधीर
थिरकती लय में ऋतु चंचलता
(‘उस-पार’ छंद सं०-१५)
रात्रि पहर रजत चाँदनी आ बिछती
प्रकृति झूमती अति पुलकित निर्जन भी
स्वप्निल सुधामयी किरणों से सजती
यह धरती, शैलशिखर, गगन भी
(‘उस-पार’ छंद सं०-१०)
मन मोहती बरबस ही
अनन्त राग की वीणा
प्रकृति झूमती उच्छवास सी
भर आँचल में करूणा
(‘उस-पार’ छंद सं०-५)
ऋतुएँ आती अपने आप
बनाये धैर्य भरा विश्वास
निभता मौन स्वरों में खास
प्रकृति का सारा सृजन क्रिया-कलाप
(‘उस-पार’ छन्द सं०-११९)
प्रकृति के इसी मनोरम स्थान में योगी, योग-साधना में रत है जो मन, इन्द्रियों को अपने संयम के साथ अधीन करके कठिन परिस्थितियों में अपना साहस नहीं खोता है और योग-शक्ति के माध्यम से अज्ञात लोकों का भ्रमण करता हुआ परम सत्य को पहचानने में सफल होता है, देखें पंक्तियाँ–
उसी शिला पर आ बैठा
एक योगी निश्छल तपोवृती
मोह विरत हो अति प्रसन्न
निष्काम साधना में डटा हठी
(‘उस-पार’ छंद-१६)
योगमुखी मुद्रा में रमकर
योग शक्ति का वह करता अनुशीलन
ऋतुओं का उन्माद भयंकर
पर तटस्थ बना है तन-मन
(‘उस-पार’ छंद सं०-२९)
सुदूर किसी अज्ञात लोक से
आ टकराती कानों में ध्वनित तरंगें
मृदु भावों के अन्तर मंथन से
चैतन्य होती समृद्ध उमंगे
(‘उस-पार’ छंद सं०-४०)
कवि प्रकृति के माध्यम से विचार एवं कल्पना दोनों ही सम्प्रेषित करता है, बिम्ब पाठक को उसके मन के अनुरूप चिंतन करने को विवश करते हैं जैसा भी उसे अच्छा लगे वैसा ही वह अपनी कल्पना का संसार बनाये। उस-पार क्या होगा, प्रकृति कैसी होगी, जीवन कैसा होगा, उसे किन-किन परिस्थितियों का सामना करना होगा। इस प्रकार अनेक भाव उत्पन्न होते हैं। कुछ भाव दुखद तो कुछ भाव सुखद भी। ‘उस-पार’ काव्य रचना में मृत्युलोक व स्वर्गलोक के विचरण में योगी की यही सोच परिलक्षित होती है।
कवि अरविन्द कुमार वर्मा की यह काव्य रचना मानव के वर्तमान एवं भविष्य के आगे की कल्पना है, जहाँ मानव-जीवन खत्म होता है उसके आगे जीव रूपी मानव की जो यात्रा शुरू होती है उसमें मानव रूपी जीवन के दौरान जिन कर्मों का फल मिलता है उसकी स्वप्निल अभिव्यक्ति है। कवि की शैली उसकी अपनी शैली है वह किसी का अनुकरण नहीं करता जो कुछ कहना है उसे सहज ही कहने का प्रयास किया है। काव्य रचना पढ़ने में निरंतरता बनी रहती है एवं योग साधना रत होकर मन ऊर्ध्वगमन करने लगता है। प्रकृति साकार रूप में थिरकती हुई प्रतीत होती है। बिम्बों के चित्रण में मन रमता हुआ प्रतीत होता है। अन्तत: कवि उस परम सत्ता से साक्षातकार करानें में समर्थ होता है।
योग साधना की इस अनमोल कृति के लिए अरविन्द कुमार वर्मा साधुवाद के पात्र हैं। यह कृति पाठकों के मन को मोह लेगी। यह मेरा अपना मत है। कवि को मेरी ढेर सारी शुभ कामनाएँ।
–अजय पाण्डेय
उस पार
दुर्गम उस हिमवान प्रान्त में
हिमाच्छादित, गगन चूमते शैल शिखर
नीलाभ-व्योम के उस नीरव एकान्त में
उन्मुक्त पंख-पसारे उड़ते नभचर ।।०१।।
धवल स्वर्ण मेखला रंजित शैल शृंग
प्रतिध्वनित हो रहे हिम खण्ड-खण्ड
उषा के पंचम सुर में कूल तरंगित
पवन झकोरों से ध्वनि प्रकंपित ।।०२।।
चीड़ अरू देवदार के अपार वृक्ष लहराते
नत अवनत ढालों में हरित आवरण भरमाते
हर्षद अम्बर मध्य मेघ घहराते
दिव्य देवनाद के स्वर आकर्षण बन जाते ।।०३।।
रवि की युग्म किरणों से
सज जातीं धवल दिशाएं
कंचन-सी बिखरी आभा से
सुखानुभूति की बढ़ जाती आशाएं ।।०४।।
मन-मोहती बरबस ही
अनन्त राग की वीणा
प्रकृति झूमती उच्छवास सी
भर आँचल में करुणा ।।०५।।
निश-दिन सुरभित रंगों के
सतरंगी इन्द्रधनुष आ सजते
कलरव की ध्वनित तरंगों में
अदृश्य राग के नुपूर बजते ।।०६।।
आ जाते उन्मुक्त सघन के सुखमय बादल
गरज बरस सुधा रस धार बहाते
मधुरस पान किये झूमते किशलय दल
विविध रंग में परिमल मुस्कुराते ।।०७।।
उसी धरा में दिव्य शान्तिमय लेटे प्रस्तर
रिसता झरनों का जल, उठते, टप-टप के स्वर
सरिता बहती मथ-मथ, मचल-मचल
आतप धरती में अभिसिंचित होता जल ।।०८।।
नत अवनत वादी के दृश्य विहंगम
सुखद शान्ति प्रवाहित होती हृदयांगम
हरित आवरण ओढ़े शीतल छाया के मधुवन
मधुर-कूक कोयल की, गहराती सुरधुन ।।०९।।
रात्रि प्रहर रजत चाँदनी आ विछती
प्रकृति झूमती, अति पुलकित निर्जन भी
स्वप्निल सुधामयी किरणों से सजती
यह धरती, शैल शिखर, गगन भी ।।१०।।
हर्षद ध्वनित अम्बर अति शीतल
हिम शिखरों में मलय पवन का अपघर्षण
दमकती मेघ मध्य दामिनी अति उज्जवल
दिव्य देवनाद के स्वर सा आकर्षण ।।११।।
रजत वनस्थली के उस एकान्तवास में
झरती तुषार लगती हीरक मणि मुक्ता सी
स्थिर हो कर हिमखण्डों के गहन पास में
स्नेह भरी श्वेत कनी दिखती लजिता सी ।।१२।।
उसी सुरम्य के पावन निर्जन तट पर
एक पड़ी थी शिला सुसज्जित
था सरिता का सानिध्य निकट पर
आती जाती उफनाती लहरों से अविचलित ।।१३।।
चन्द्र किरणों की सुधा रश्मियां
सुखद ज्योत्सना विखरा जातीं
उस शिला-खण्ड के कण-कण को
शीतलता से सहला जाती ।।१४।।
बहता शीतल मंद समीर
तरंग-ताल लिए मचलती सरिता
झरते हर-शृंगार पुष्प-अधीर
थिरकती लय में ऋतु-चंचलता ।।१५।।
उसी शिला पर आ बैठा
एक योगी निश्छल तपोवृत्ती
मोह विरत हो अति प्रसन्न
निष्काम साधना में डटा हठी ।।१६।।
नख से शिख तक ध्यान मग्न
मुखमंडल गर्वोन्वत अति-प्रसन्न
दिव्य आत्मीयता से अंतरंग तरंगित
रोम-रोम करुणा से सिंचित ।।१७।।
जप-तप संबल से अह्लादित
दिव्य ज्ञान का वह सत्यार्थी
चैतन्य हृदय, सत्कर्मों से सुवासित
अन्तर में ज्योति जलाए, पुरुषार्थी ।।१८।।
मौनव्रती के सौम्य चिंतन में
विह्वल ममता उमड़ रही थी
अगणित द्वन्द्वों के समाधिष्ठ मंथन में
उत्सुकता झलक रही थी ।।१९।।
अति व्यस्त अर्न्तद्वन्द्व में
अहो ! संचालित यह शृष्टि वैâसे?
ध्रुव अटल सत्य से
अपरिचित हूँ होगी पुष्टि कैसे? ।।२०।।
उस पार कोई संचेतना
या ज्योति का पुञ्ज खण्ड
क्यों छटपटाती है आत्मा
संचालित कहां से ब्रह्माण्ड? ।।२१।।
जीवन मृत्यु, अटल है निश्चित
किसकी अनुकम्पा, कौन कराता प्रायश्चित
क्या होता पुण्य गुणों का अभिनन्दन
या पापों के अवगुणों का अवलोक? ।।२२।।
वह कौन पुञ्ज है समस्त आत्माओं का चिराग
प्रदीप्तमान धरा, नभ सबमें किसका है अधिकार
संचरित कैसे जड़ चेतन, जगत में, कण-कण की माया
देता कौन समग्र सृष्टि को, अविचल अपनी छाया? ।।२३।।
प्रश्नों के अम्बार लिए वह चाह रहा अवलोकन को
जल थल नभ समग्र सृष्टि के जीवन को
महाविनाश के उस क्रूर काल से भी परिचित होना
धरा व्योम के उस पार रहस्यों से अनुभूतित होना ।।२४।।
योग शक्ति के विश्वास से
चक्षु खुल गए सब ज्ञान के
अब ऊर्ध्व गमन की आश से
पथ दिख रहे सब ईमान के ।।२५
अन्दर-अन्दर चलती सतत साधना
त्रिगुण शक्ति का लिए ध्येय निरंतर
प्रमुदित मन मृदुल चित्र में, सुखद कामना
रसानुभूति भी छूने को आत्म शिखर ।।२६।।
इच्छाओं का चक्रव्यूह तोड़कर
मोह विरत को मन उल्लासित
अन्तर-प्रवाह में आत्मानुभूति जोड़कर
कवि हृदय सा तत्पर अभिलाषित ।।२७।।
अन्तर-दृष्टि आलौकिक चिन्तन को
शून्य सघन तक ले जाती
चैतन्य सृष्टि मय, ध्वनित स्वरों की
विह्वलता मन को गतिशील बनाती ।।२८
योगमुखी मुद्रा में रमकर
योग शक्ति का वह करता अनुशीलन
ऋतुओं का उन्माद भयंकर
पर तटस्थ बना है तन-मन ।।२९।।
दिव्य दृष्टि से जीवन का सत्य जानने को
योगी अद्भुत पथ पर उत्सुक था
कर्म धर्म के दण्ड जानने को
अब किया उसी पथ का रुख था ।।३०।।
प्रदीप्त पुञ्ज के उद्भव से
रजनी का आँचल शोभित था
ज्ञान-मर्म के वैभव से
पथ दिखता आलोकित था ।।३१।।
स्याह रंग में भद्र कालिमा
घने तिमिर से आच्छादित
गहन मौन में सकल साधना
समग्र सृष्टि भी मर्यादित ।।३२।।
मन अन्तर चलती सतत साधना
ऊर्ध्वगमन का पथ दिखलाती
परमतत्व की सुधीव कामना
अवलम्बित पथ दर्शाती ।।३३।।
अति आतुर मन मोद तपस्वी
सूक्ष्म पथों पर बढ़ता जाता
हर बाधाओं को तोड़ यशस्वी
सन्धानों का रुख करता जाता ।।३४।।
जगमगी ज्योति के कमल नयन
पढ़ते दूरस्थ व्योम में मंत्रों की भाषा
अकल्पनीय खुलते वातायन
प्रतिध्वनियों में भी बंधती आशा ।।३५।।
मन की गति का विश्वास लिए
वह गतिमान हुआ अन्तरिक्ष दिशा में
मन इन्द्रिय संयम साथ लिए
निर्विघ्न बढ़ रहा गन्तव्य दिशा में ।।३६।।
दृढ़निश्चय के संवल से
दिव्य गुह्वा में बढ़ता जाता
घटाटोप अन्धेरे में
संचित योगशक्ति से साहस पाता ।।३७।।
आतुर मन की प्रबल प्रीति से
बढ़ता जाता योग विहंगम
प्रेमातुर मन की रसानुभूति से
घटता जाता अन्तर-तम ।।३८।।
अखिल भुवन के अनन्य पथों में
सुर-सरगम के उद्घोषित नाद
सघन ऋचाओं के संवादित अर्थों में
बढ़ जाती प्रत्याशा ।।३९
सुदूर किसी अज्ञात लोक से
आ टकराती कानों में ध्वनित तरंगें
मृदु भावों के अर्न्तमंथन से
चैतन्य होती सर्मद्ध उमंगें ।।४०।।
दिव्य दिशा के दिव्य पथों में
बढ़ता जाता योगाग्नि शरीर लिए योगी
संसय विहीन उन्मुक्त पलों में
गतिज धैर्य धारण किए निरोगी ।।४१।।
आत्मबल से संयमित
आत्म शक्ति का वह प्रतीक
जरामरण का भय जिसे न किंचित
अर्ध्वगमन में रत तपी निर्भीक ।।४१।।
परम तत्व का सत्य खोजने को आतुर
उर में शान्ति लिए वह श्रद्धानत
दिव्य लोकों में गमन कर रहा
स्फूर्ति लिए अज्ञात पथों में नत-अवनत ।।४२।।
घनें अन्धकार के घटाटोप में
अवलम्बित अलख निगाहें
अनन्त क्षणों के महालोप में
अविराम बनी हैं यात्राएं ।।४३।।
दिव्य जगत का करुणोदय
अन्तर में रस घोल रहा
चिर-मिलन प्रतिक्षित संतृप्त हृदय
उद्गारों के पट खोल रहा ।।४५।।
समय चक्र को पंख लग गए
क्षण में युग अनेक सरक गए
बाधाओं के सब द्वार खुल गये
अन्तर के घट महक गये ।।४६।।
अब मधुर राग झरनों का
गूँज रही नगमों की सुन्दर भाषा
कानों में विहग राग कलरव का
चिन्तन में बंधती आशा ।।४७।।
अति परवलय दीर्घ कक्षाओं में
तन मन ऊर्ध्व गतिज संधान लिए
मनश्चिंतन की उत्कर्ष विधाओं में
संयम वैविध्य विधान लिए ।।४८।।
अर्न्तद्वन्द्वों में मौन मंत्रणा
जब उद्भाषित हो जाती
योगी की योग चेतना
अन्तर में पोषित हो जाती ।।४९।।
नीरव सुरंग के उस महा छोर पर
दे दीप्यमान भुवन दिखा
योगी मन ही मन भाव-विभोर
तभी सहज पथ का द्वार खुला ।।५०।।
पाकर ज्योतित पथ
अन्धकार सीमान्त हुआ
दृश्याभिराम आभाओं से
मन विभोर विश्रान्त हुआ ।।५१।।
कर्म-धर्म के दो पाथेय यहीं से
खुलते स्वर्ग लोक व मृत्युलोक को
तटस्थ बना था योगी अपने निहित ध्येय से
ज्ञान चक्षु से अवलोकन को महालोक को ।।५२।।
अहा यही है मृत्युलोक
पापात्माओं का दृश्यलोक
यम के गण तटस्थ यहाँ,
अधर्म कर्म के सारे शस्त्र यहाँ ।।५३।।
क्षण में होता लेखा-जोखा
यम गणों का चलता मोटा सोटा
अपार जीव समूह-मध्य गणकों का उद्घोष
दुष्ट दानव प्रवृत्ति पर होता आक्रोश ।।५४
गणनात्मक हर सूक्ष्म दृष्टि से
चित्रगुप्त करते अवलोकन
कर्म-धर्म के हर निस्तारण पर
श्रवणों का ध्यान मग्न चिंतन ।।५५।।
कितना अद्भुत यह संसार
न्यान-नीति के विविध खुले हैं द्वार
नाना विधि न्यायोचित व्यवहार
दण्ड नियामक श्रृंखलाओं के विस्तार ।।५६।।
कर्म-धर्म की गणनाओं का
प्रतिफल झलक रहा था
याची की परिणित चिन्ताओं का
श्रापित विश्वास कसक रहा था ।।५७।।
होते सत्य तुला पर जीव अवलोकित
विधि विधान के दण्ड भयानक
अति भय के कंपित मन पर क्षोभित
कलुष वेदना के दु:खद विस्तार यथावत ।।५८।।
कानन कुण्डल तन तेजवान
हाथ गदा हृदय अति गम्भीर
मुख मण्डल तेजस्वी ओजवान
सुलोचन नील नयन अभिराम ।।५९।।
हैं यहीं धर्माधिकारी, उपस्थित द्वारपाल
कुमकुम सुशोभित मस्तक, जटाधारी
सैन्यदल बल, रूप भयंकर विकराल
तन मन इन्द्रियों से विजित ब्रह्मचारी ।।६०।।
सभा मध्य मंचस्थ न्यायविद
मणि मुक्ता धारण किये विविध आभूषण
धर्मराज सभा मध्य सुशोभित
स्वर्ण सुसज्जित सुन्दर सिंहासन ।।।६१।।
अधर्म कर्मी को धिक्कार यहाँ
पापीजन यातनाएं भोग रहे
न्याय नीति के डर से हाहाकार यहाँ
उद््घोषणाओं के स्वर आक्रोश भरे ।।६२।।
पश्चाताप भरे लमहों में
पापात्माएं करती विलाप
प्रायश्चित के एकान्त क्षणों में
रुग्ण स्वरों का आलाप ।।६३।।
अब इन्हीं पलों का प्रायश्चित
करने को, लिए हौसला भरता
इस नर्कलोक की थाह अनिश्चित
संयम की सीमाओं का संत्रास लिए गुजरता ।।६४।।
आकुलता के इन कठिन क्षणों में
अनुगूँजों में स्वर-हाहाकार
दण्ड नियामक सुदृढ़आँकणों में
जीव नहीं कर पाता प्रतिकार ।।६५।।
करुण वेदना की परिणति से
चीखें दिशि अनन्त तक जातीं
यमदूतों के सफल नियंत्रण से
पापात्मायें रीति निभातीं ।।६६।।
बड़वानल सी अग्नि भयंकर
असिपत्र नरक भी विद्यमान
पैर जमाये वक्षस्थल पर
अंग नोचते भूखे श्वान ।।६७।।
क्रोधाग्नि भरे-आखों में
प्रलयंकारी सिंह गरजते
गर्म सलाखों से दागे
रह-रह जीव तड़पते ।।६८।।
पश्चाताप भरे लमहों में, बीते अहंकार का दृश्य झलकता
भदान्ध-भोग के लिप्त पलों का साक्षात, अवलोकन होता
बहुत कठिन है डगर यहाँ की अभिषापित मन मन्थन करता
कंकाल तंत्र में बढ़ती सिहरन, जीव रह रह क्रन्दन करता ।।६९।।
झर-झर कर बिछ जाती तुषार
कंपायमान ठिठुरन भी बढ़ जाती
जीव हाँफता मन पर लेकर मलिन भार
अनायास ही दिल की धड़कन बढ़ जाती ।।७०।।
उस नरक भूमि में रमणीक मनोहर वन
हिमाच्छादित उतंग शैल शिखर
अति दुस्कर, कंटक पथ, कुञ्ज सघन
हर पल झरती तुषार झर-झर ।।७१।।
हुँकार भरे कठिन दण्ड के विकराल दूत
जीवों के अंग विच्छेदित करता काल सूत्र
जीव विलखते करते प्रायश्चित
दुष्ट पापियों को फल मिलते निश्चित ।।७२।।
पाप कर्म के सारे पाथेय यहीं पर
भयाक्रांत गुजरते पापीगण
मुक्ति भाव के केवल ध्येय यहीं पर
अग्नि पथों पर रखते विवश कदम ।।७३।।
जन्म-मरण के इस क्रमाचक्र में
तिल-तिल घुट-घुट विलख रहे हैं जीव
स्वर्गलोक अरु मृत्युलोक के इसी फर्क में
मृत्युलोक में दारुण दुख के दृश्य सजीव ।।७४।।
अधर्मी जीवों का धिक्कार यहाँ
पापों की परिणति का हाहाकार यहाँ
डरे-डरे जीव, दुखद भोग विस्तार यहाँ
खड़े हुए हैं पशु शावक खुंखार यहाँ ।।७५।।
जीव सोचता अब मुक्त हुआ
घोर यातना के चंगुल से
तभी ब्रह्म राक्षसों का दल क्षुब्ध हुआ
जो रीति निभाते ढुलमुल से ।।७६।।
प्रतिभागी नरक कुण्डों से निकल-निकल
चरणवद्ध होकर गुजर रहे
कई चक्र यातनाओं से लाँघ अति विकल
शुद्ध आत्माओं के दल संवर रहे ।।७७।।
मृत्युलोक के इस अदृश्य जगत पर
योगी अब तक था दृष्टि लगाए
शेष एक अब भी पथ था जिस पर
जाने को मन-अन्तर में आश जगाए ।।७८।।
आ लगी दृष्टि उस कौतुहल पर
जहाँ हो रहा था चिंतन कर्मों का
जाता ध्यान सभी का वजते सत्य विगुल पर
जयकारा लगता सास्वत धर्मों का ।।७९।।
रमणीक सुखद, नन्दन नानाविधि वन्दनवार
चन्दन तरु सुगन्ध सुवासित सजे मणिमुक्ताद्वार
आलोकित ज्योत्सना करती प्रकृति श्रृंगार
दिगदिगन्त तक दिखता संयमित लोकाचार ।।८०।।
अरुणिम आभा से अभिरंजित
आलोक सृजन का स्वर्णिम सुहाग
धवल प्रभा से अभिनन्दित
सुयश लोक का चंचरीक राग ।।८१।।
यशोगान के स्वर गूँजते समस्त दिशाओं में
विविध हवन कुण्डों में होता पूजन
धूर्म सुवासित घुलमिल बहती विशुद्ध हवाओं में
मृदुल स्वरों में होता आहुति का अनन्य समर्पण ।।८२।।
शुभकर्म फलों का कर अवलोकन
गण करते मस्तक लोचन
सभा-मध्य देव और गन्दर्भों का मंचन
धारण किये स्वच्छ वसन ।।८३।।
देवभूमि को प्रस्थान यहीं से
देव-देव का गुणगान यहीं से
सुगम पथ अभिराम यहीं से
गौरान्वित मुस्कान यहीं से ।।८४।।
भरा हुआ अधरों में साहस
सब बोल रहे हैं मृदुभाषा
यहाँ न कोई दुख से आहत
न कोई व्याकुल-प्यासा ।।८५।।
सरगम की मीठी तानें
जड़-चेतन में झंकृत थी
निर्जन की रसवन्ती मुस्कानें
विविध स्वरूपों में पुलकित थी ।।८६।।
कहीं घनें तिमिर से आच्छादित
भद्र कालिमा घनी भूत थी
कहीं गहन मौन का घना आवरण
अदृश्य चेतना भी वशीभूत थी ।।८७।।
अरुणिम आभा से अभिरंजित
आलोक प्रशस्त हर सीमायें
सुरमुई धुनों के सुरों से सज्जित
दिगदिगन्त तक देवत्व प्रेम की भाषायें ।।८८।।
कितना अद्भुत यह संसार
उमड़ रहा चतुर्दिक आनन्द अपार
शंकाओं के बन्द यहाँ सब द्वार
योगी गतिमान निरंतर उस पार ।।८९।।
उजले-उजले तारकगण
निर्जन को करते ज्योर्तिमान
होते पल्लव पुलकित तृण-तृण
जब शशिकिरणें करती विश्राम ।।९०।।
सुख पोषित उस लोक भुवन में
बहती नित्य सुधा की धार
जड़-चेतन समस्त सघन में
रह-रह होता स्पन्दन विस्तार ।।९१।।
उमड़ रहीं हैं तरु लतिकाएं
नील-नभ आँचल छूने को
रसातृप्त भरी कुसुम कलिकाएं
मधुप मुग्धरत मधु पीने को ।।९२।।
गौरव प्रतीक निश्छल मन मोहनी
निश्छल भाव लिए खड़ी प्रस्तर प्रतिमाएं
चंचला नयन, सौम्य रूप, विह्वल योगिनी
जीवन्त भाव मुद्रा में भंगिमाएं ।।९३।।
सघन ज्योति विचरण करती कुञ्जों में
दिप-दिप करती शोभायमान पुञ्जों में
सुखद परिवेश समाहित सृष्टि मनोरम
मलयानिल सुख पोषित उद्गम ।।९४।।
हौले-हौले गूँज रहा संगीत
मकरंदों की अद्भुत प्रीति
सुरभित जीवन आशातीत
गुंजित भ्रमरों के मधुगीत ।।९५।।
दिशाओं से सजी सुनहरी प्रात
नहीं यहाँ शंकाओं की बात
भरमाते सहज मधुप गुञ्जार
लुभाते तरु पल्लव वन्दनवार ।।९६।।
नवल कोपलों से झोक रहा
सतरंगी मधुभाषी बसन्त
चारु चमन में टाँक रहा
मलयानिल के माधुर्य मकरन्द ।।९७।।
मनोज मुखों से टपक रहा
रसानुभूति का स्पन्दन
संत्रप्त नेह निधि लेकर सरक रहा
अंचल-अंचल मधुमाता वन्दन ।।९८।।
भीने-भीने रस तृप्त भरे
पवन झकोरे हर्षाते
गुम्फित डालों के स्नेहिल
हरित पात लहराते ।।९९।।
प्रकृति चेतना की चैतन्यता पर
धुल रहा मधुप राग का गुञ्जन
किल्लोल समाहित वैविधता पर
आलोकित रवि पुञ्जों का नर्तन ।।१००।।
नवल लतिकाएं कुसुमित
सम्मोहन को उतरी लाली
मणि-फणियों की नव निधि
ज्योतित करती तरुवर की डाली ।।१०१।।
मधुरस झरते पुष्प अधर
जड़ता में स्पन्दन भरकर
बहता सुस्मित पवन मंथर
हर डाल-डाल मधुमाती ।।१०२।।
झरते हर श्रृंगार पुष्प अधीर
थिरकती विह्वल चंचलता
अकुलाता शीतल मंद समीर
प्राण पुलकित करती शीतलता ।।१०३।।
वशीभूत मादक सुगन्ध
मनमोदित कर हर्षाती
दिव्य राग भरते विहंग
स्वप्निल सुषमा शर्माती ।।१०४।।
डाल-डाल पर मधुमाता वंसत
पवन झकोरों से तरु लहराते
मधुपान किए अलि स्वतंत्र
गुञ्जारित गीतों के राग सुनाते ।।१०५।।
नवल लतिका कुसुमाच्छादित
गुम्फित विहंसती मृदु कलियां
सघन छांव की सुषमाच्छादित
अलि-मुग्ध कुञ्ज मंजरियां ।।१०६।।
पराग भरे कुसुमादित कुञ्जों में
सरस रस डूबी केसर सुगन्ध
रसधार भरे मधुरस रन्ध्रों में
वशीभूत अलसाये लिपटे मतंग ।।१०७।।
चारुल पुष्प अधर, तरुवर, लतिकायें
सतह भूमि से उठ सीना तानें
मादक सुगन्ध छोड़ती कलिकायें
चहुँओर विखेरे रसवन्ती मुस्काने ।।१०८।।
भीने-भीने मृदुकोषों में भर जाता
रसानुभूति का मृदु अर्चन
आते मौसम सुखमय हो जाता
गुञ्जायमन मधुवन में गुँञ्जन ।।१०९।।
चैतन्यमयी रश्मिल आभा निखर नेह
रसात्प्त रसना को सहलाती
सिरहित होती तरंग स्नेह की
गुम्फित तरू डाली बल खाती ।।११०।।
सरित मनमोदक उच्छवास तरंगें
तरल शीतलता भर लातीं
मलयानिल की मनमोद उमंगें
अन्तर मन को हर्षाती ।।१११।।
गन्धर्वों के ललित स्वरों में
गूँज रही थी मंगलाचार की ध्वनियाँ
चिर सुन्दर मुदित अधरों में
प्रवाहमान जीवन्त भाव की निधियां ।।११२।।
उस पार जहाँ स्वच्छंद वसा संसार
रूप रस गन्ध लिए भरमार
रचनाओं के शिल्प सुघड़ मनोहार
कण-कण में चेतनता का विस्तार ।।११३।।
सजे थे हीरक, मणि, मुक्ता, से द्वार
समस्त सृष्टि को सहलाती मंद बयार
सतत साधना-रत लोकाचार
सुस्मित सघन चेतना, आनन्द अपार ।।११४।।
अगणित लोकों के संदेश
दृश्य हो रहे इस देश
मनोवांछित पूरा परिवेश
मनोरथ होते हर अवशेष ।।११५।।
क्षितिज व्योम में शोभित
उतरी हिम शिखरों पर लाली
पुलक-मुदित तरुणाई में गुम्फित
झूम उठी तरुवर की डाली ।।११६।।
चम-चम चमक रही थी
मणि शोभित संरचनाएं
ज्योत्सना से दमक रही थी
दिग-दिगन्त की आभायें ।।११७।।
खगकुल भी स्वछंद भाव से
मधुर स्वरों में चहक रहे थे
शावक-मृग निर्द्वन्द्व भाव से
कानन-कानन टहल रहे थे ।।११८।।
ऋतुएं आती अपने आप
बनाये धैर्य भरा विश्वास
निभता मौन स्वरों में खास
प्रकृति का सारा सृजन क्रिया-कलाप ।।११९।।
अष्टसिद्धि नवनिधि भरमाती शाम
निरख कर अद्भुत सुख के धाम
मृदुल-चित्र में भर देती मुस्कान
प्रकृति-पुलक हो जाती अर्न्तध्यान ।।१२०।।
बहु आयामी ललित कला की शिल्प गुफाएं
सुदूर सुसज्जित गन्तव्य पथों तक जातीं
वट वृक्षों की असंख्य शृंखलाएं
घनी छाँव का अहसास कराती ।।१२१।।
उन्मुक्त हुए सव मन के संशय
मन ही मन सुख-सागर लहराता
अह्लादित अब अनुबन्ध हृदय
उस ज्योति-पथ को मन भरमाता ।।१२२।।
आजात परिन्दे लाँघ रहे
नीलगगन की परिसीमाएं
साहस के पग नाम रहे
वृहद व्योम की सीमाएं ।।१२३।।
सजे थे आभाओं के द्वार
लुभाते मन को वन्दनवार
झंकृत था ध्वनि विस्तार
सृजन वात्सल्य भरा आभार ।।१२४।।
योगमाया से जगत नियंत्रित
ब्रह्म ले रहा कल्प तरु छाँव
विधि विधान सब अदृश्य नियंत्रित
बड़भागी के थिरक रहे थे पाँव ।।१२५।।
झरनों से झरती निर्मल धारायें
पीयूष बहाए जल कल-कल
मन लाँघ रहा सुरभित सीमायें
फैला वैभव का विस्तृत आँचल ।१२६।।
धुल रही मधुरता कण्ठ स्वरों में
संसार सुशोभित वहाँ अनवरत
नूपुर वजते स्वयंवरो में
अप्सराएं थिरकती मदमस्त ।।१२७।।
दिव्यातिदिव्य मनोहर कुञ्जों में
पुष्पाच्छादित सुन्दर गौहवर वन
सरस रसीली मुग्ध धुनों में
होता ऋतुराज आगमन ।।१२८।।
रंग विरंगे परिधानों में
सजी दिशायें ओढ़े प्रकृति वसन
वात्सल्य लिए मुस्कानों में
अथाह प्रेम अधीर-निमग्न ।।१२९।।
तरु लता, विहंसतीं नव कलियाँ
तरुण पवन प्रवाह में इठलाती
अनन्य स्वरों की मधुर बोलियाँ
अनुरागी मन को हर्षाती ।।१३०।।
दूर-दूर तक पथ वितान पर
सुचि कान्ति विखरती जाती
गुंजित भ्रमर-गान ध्यान पर
अकुलाहट बढ़ती जाती १३१।।
भीने-भीने रस तृप्त भरे
मादक झोंके इतराते
मलय पवन के उद्गम से
आ मन उल्लासित कर जाते ।।१३२।।
पुरवा के झीने अभिनव
उपवन-उपवन डोल रहे
सृजित चाह के मृदु पल्लव
कलुषित बन्धन खोल रहे ।।१३३।।
थी झंकिृत समस्त दिशायें
वीणा की भावात्मक लय में
मनमीत बनी मस्त हवाएं
स्वर झूमते सुरभित किशलय में ।।१३४।।
प्रतिक्षण मन्द वयार
कुञ्ज-कुञ्ज मधुमाती
तपो भूमि के पावन तट पर
सरिताऐं उफनाती ।।१३५।।
हर दिन हर पल साँझ सबेरे
ध्वनित ऋचाओं के नूपुर बजते
वृक्ष वट वृक्ष की छाँव तले
ऋषिगण मौन मंत्रणा करते ।।१३६।।
दिव्य राग में गाते विहंग
स्वप्निल सुषमा शर्माती
वशीभूत मादक सुगन्ध
सघन कुञ्ज से आती ।।१३७।।
नवल लतिका कुसुम लदी
गुम्पित पुष्प मंजरी मल्लिकायें
सम्मोहित कुन्तल छाँव सजी
झूम रही तरू शाखायें ।।१३८।।
कुञ्ज-कुञ्ज हर वीथि-विथि में
सरस रस डूबी केशर सुगन्ध
बेला हर श्रृंगार की कली-कली में
घनाच्छादित लजवन्ती मकरन्द ।।१३९।।
मन मोदक युक्त सभी दिशायें
वैभव पूरित श्रृंगार किये
स्पन्दित उमंग की उच्छवास हवायें
सुरभित जीवन-विस्तार लिये ।।१४०।।
जगमग-जगमग तारक गण
फूट रही ज्योति ज्वालायें
झिलमिल-झिलमिल आलोक किरण
अविकम्पित दीप शिखायें ।।१४१।।
प्रतिक्षण मधुमाता बसन्त
सतरंगी श्रृंगार टाँक रहा
भीना-भीना मधु सुशान्त
नीलाम्बर से झाँक रहा ।।१४२।।
अगणित जल धाराओं में बंटकर
पीयूष जल निर्मल तैर रहा
भू रज के कण-कण को निमग्न कर
अतृप्त जड़-चेतन में फैल रहा ।।१४३।।
मरुस्थल में दमक रहे
सिकता कण बहुरंग बिरंगे
उठ-उठ गिर-गिर सरक रहे
आशान्वित कीट पतिंगे ।।१४४।।
निस्तब्ध मौन के प्रांगण में
आतप बादल घहराते
निर्लिप्त भाव से अर्पण में
स्नेहिल आसव लुढ़काते ।।१४५।।
प्रकाश पुञ्ज समीप जब डोलता पवन
झिलमिलाती गन्तव्य की दूरियाँ
नैराष्य के पास पहुँचती सुर-धुन
प्रदीप्तमान होती धवल रश्मियाँ ।।१४६।।
चैतन्य प्रवाह के अथाह सागर में
उठ- गिर लहराती आशायें
मन के चिर मंजु मुकुर में
सजती मणि रश्मिल आभायें ।।१४७।।
मन्थर प्रवाह में प्रमुदित अविचल
व्याकुल होती अंतस्थल सीमा
मन मंथन होता अति चंचल
प्रेम प्रवाहित होता धीमा-धीमा ।।१४८।।
वीणा के सुर तरल कण्ठ से
सुख कंपन वन झरते
वेदों के व्यक्त मंत्र से
सुचि सुन्दर शब्द निखरते ।।१४९।।
धवल रश्मियाँ उतर व्योम से
कण-कण में प्रतिबिम्बित हो जाती
विहंस-विहंस कर दिव्य प्रेममय
जगमग हीरक-सी भरमाती ।।१५०।।
अनुगूँजों के उन्माद नाद को
ऋतुएं आकर सहलाती
जल मुक्तायें ताण्डवी निनाद को
निर्वाध झकोरो से नहलाती ।।१५१।।
यशोगान के इस ज्ञान लोक में
वहती नित्य सुधा की धारा
विधि विधान के सघन लोक में
अभिनन्दित कोलाहल सारा ।।१५२।।
मर्याादित पथ सीमाओं में
पुञ्ज प्रकाश उतरता
सुरभित धवल लतिकाओं में
व्योंमालोक विखरता ।।१५३।।
करूण बिम्ब की सुगठित प्रतिमायें
ज्योत्सना-सहज, मृदु मुस्कान लिए
अनुराग भरे नयनों की भावभंगिमायें
आकर्षण के मनोभाव प्रतिमान लिये ।।१५४।।
आभाओं के दिशि अनन्त में
निखर रहीं धूमिल छायायें
शिखरों के निर्नितांत में
मुखर हो रहीं आभायें ।।१५५।।
दिव्य लोक के सतपथ पर
थम गए कदम मन विश्रांत हुआ
ज्योति पथ के दृश्य विहंगम पर
निर्मल मन अभिराम हुआ ।।१५६।।
प्रदीप्त पुञ्ज का शैशव स्वरूप
रजनी के आँचल में पुलकित था
जड़ चेतन का अस्तित्व स्वरूप
शिशु स्वरूप में प्रमुदित था ।।१५७।।
अनन्त रंगों का ओढ़ आवरण
भद्र कालिमा घनीभूत थी
दूर-दूर तक रश्मि किरण
जगमग-जगमग फली भूत थीं ।।१५८।।
घने तिमिर से आच्छादित
गहन मौन का घना आवरण
इन्द्र धनुष सा परिलक्षित
विविध रंग में कांति मनोरम ।।१५९।।
अरूणिम आभा से अभिरंजित
आलोक प्रसस्थ पथ सीमायें
कांति किरण रश्मिल शोभित
दिग् दिगंत की आभायें ।।१६०।।
जल-प्रवाह झिलमिल-झिलमिल
मंथर गति से बहता जाता
दुग्ध तरंगों सा हिल-मिल जल
वसुधा का हृदय कुञ्ज अकुलाता ।।१६१।।
हिम किरीट से भाल शुशोभित
शिखरों पर मणि सी सुन्दर संरचनाएं
सान्ध्य गगन का राग अलौकिक
स्वर्णिम आदित्य स्वप्न-सी ज्योत्सनाएं ।।१६२।।
प्रकृति चेतना के नवचेतन मन पर
खेल रहे रवि किरणों के घेरे
किल्लोल भरे शैशव मधुबन पर
डोल रहे पवन झकोरे ।।१६३।।
हरित आवरण से प्रकृति सुशोभित
रम्य मधुर मधुवन में नाचते मयूर मतवाले
कल-कल सरित प्रवाह प्रवाहित
जीवनोल्लास भरे खग मृग वृन्द निराले ।।१६४।।
वैâसी तपोभूमि यह दिव्यलोक
हर लोकों से अलग अछूता
देव-गन्धर्वों का यह स्वर्गलोक
मंगल पावन परम पुनीता ।।१६५।।
निश्छल, प्रतिफलित सुख-संसार यहाँ
दृश्याभिराम अगणित अंबार यहाँ
सकल मनोरथ के सब आसार यहाँ
राग द्वेष से मुक्त ब्यवहार यहाँ ।।१६६।।
दूर क्षितिज के अनन्त व्योम तक
एकाकी घने तिमिर का घना प्रसार
दिग-दिगन्त के द्रवित व्योम तक
प्रतिभाषित शून्य सघन में निर्विकार ।।१६७।।
आत्ममिलन की गहराई में
ज्योतित-पथ जब-जब दिखता
राग-सुरों की शहनाई में
मध्यम-मध्यम बजता रहता ।।१६८।।
मध्य गगन के उदित पथों से
आती जाती स्वर्णिम आभायें
उतरा करती सज्जित यानों से
सौभाग्यवती मनमोहनी अप्सरायें ।।१६९।।
दिव्य लोक के इस तपोभूमि में
रह-रह अमृत कलश छलक रहा
स्वप्न-लोक से दिखते देवभूमि में
पुञ्ज प्रकाश झलक रहा ।।१७०।।
कोटि-कोटि सूर्यों का प्रकाश
रजत रश्मियों का समावेश
जन-जन में भरता उल्लास
देदीप्यमान रश्मियों का प्रवेश ।।१७१।।
बिम्ब-सा आवृत देदीप्यमान विशाल
आत्मीयता का तेज-पुञ्ज आभा का थाल
सच्चिदानन्द स्वरूप विलक्षण तेजस्वी भाल
आदित्य स्वप्न सा योगी का अन्तरंग निहाल ।।१७२।।
शशि तन-सी छवि अति सुन्दर
मुख सतदल कमल समान
ब्रह्म ज्योतित स्वरूप सुन्दर
नील नयन सुखद अभिराम ।।१७३।।
कुछ पल प्रायश्चित करने को
धैर्य भरा संबल साथ लिए
मन अधीर कुछ कहने को
उर में अटल विश्वास लिए ।।१७४।।
अंतस में उद्वेलित विछलता
स्वाँसों में स्नेहिल प्रवाह
चिर-प्रतीक्षित संचित भाउकता
करुणा पुलकित विकल चाह ।।१७५।।
रोम-रोम चेतना तन्तु में नव विचार
स्फूर्ति लिए भावनामृत करुण संसार
अन्तर उद्वेलित शब्द ले रहे आकार
खुलते जाते प्रमुदित मन के अनन्त द्वार ।।१७६।।
पश्चाताप भरे आँसू नयनों में
अन्तर में छलके रहे उद्गार
शीश झुका प्रभु के चरणों में
विस्त्रित भाव उमड़ रहे साकार ।।१७७।।
विनम्र भावना नम्र निवेदन विसुद्ध चेतना से अंगीकार
सत् चित ज्ञान आनन्दित ध्यान सुमधुर विचार
योगी याचक मुद्रा में करता प्रायश्चित
पार लौकिक सत्य चिंतन की करता अस्तुति बारम्बार ।।१७८।।
योगी करता प्रायश्चित
पूर्व जन्म के सारे
अब तो हित मेरे कर दो
रक्षित खड़ा तुम्हारे द्वारे ।।१७९।।
मूल स्वरूप में समावेशित
सम्मोहन सम्प्रेषित ज्योत्सना
विश्व स्वरूप में प्रतिबिम्बित
विशुद्ध श्रद्धा समर्पित चेतना ।।१८०।।
सफल हुआ मनोरथ पूर्ण हुई कामना
दिव्य ज्योति में ज्योति विलीन हुई
अश्रु पूरित उद्गारों की सजल याचना।
क्षण में संसय विहीन हुई ।।१८१।।
हे नाथ चराचर जगत तुम्हारा
तुम ही हो इसके रखवाले।
सत्य-कर्म का हो ध्येय हमारा
आशीष हमें दो मुरली वाले ।।१८२।।
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