अमूल्य रत्न की प्राप्ति कैसे होगी?

जीवन के अमूल्य तत्त्व (रत्न) क्या हैं? इसकी प्राप्ति हमलोग कैसे कर सकते हैं। इन अमूल्य तत्त्व से हो सकता है हमारा उद्धार।

अमूल्य रत्न की प्राप्ति कैसे होगी?
Amulya Ratna

ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय

अमूल्य रत्न की प्राप्ति कैसे होगी?

गम्भीर पूर्वक विचार करना चाहिए।

सुनने-सुनाने से कभी तृप्ति नहीं होगी और न ही शत्रु मन का दमन होगा। ८ शत्रु मन ही विषयों में रमण करता है। ‘‘मित्र मन भगवत् कृपा रूपी आनन्द में रमण करता है।’’ और न ही अहंकार की जड़े ही नष्ट होगी। इसलिये करने और कराने की परम आवश्यकता है। मनुष्य का जीवन और मनुष्य जीवन की घड़िया सदा के लिये नहीं हैं और यह संसार की चकाचौंध शीघ्र ही समाप्त हो जायेगी। इन सबका स्वामी प्रबन्ध कर्त्ता बाहरी दिखावे से, ऊपरी रमणीयता से, नाच-गाने से, झूमने, तालियों की थपकियों से, प्रसन्न होने वाला नहीं है। वह तो खुश प्रसन्न होता है।

जो करे हमारी आस, उसका करता हूँ सर्वनाश।

इस पर भी जो छोड़ता नहीं है मेरी आस।

फिर उसका मैं बन जाता हूँ दासानुदास।।

बस सच्ची प्रभु भक्ति का यही स्वरूप है। प्राचीन काल के अनेक प्रभु-भक्तों के ऐसे ही प्रमाण है। जरा सोचे हम कि संसार में किस कीमत पर सत्य को छोड़कर असत्य में जी रहे हैं। गिना-गिनाया दिन, घण्टे मिनट मिले हैं, फिर मोह-ममता का नाता, यह शरीर की रौनक, सुन्दर भवन, धन-दौलत, घर-परिवार, समाज सबसे सदा के लिये नाता समाप्त हो जायेगा। फिर इन सबके संग्रह-भोग में, जो पापकर्म होते हैं, उनको भोगने के लिये श्री गीता अ०१६ श्लोक २० की यात्रा करनी पड़ती है।

दुर्लभ मानव तन प्राप्त हुआ है- ॐ आनन्दमय प्रभु पिता जी के स्मरण चिन्तन करते हुये, उनके विधान के अनुकूल धर्म-कर्मों कर, अन्त में उनके स्वरूप को प्राप्त करने के लिये। श्री गीता अ०८ श्लोक ५। आखिर इस संसार में किसके लिये और किस बल शक्ति से जी रहे हैं। यदि संसार में धन-जन-विद्या, मान-बड़ाई के सुख के लिये जी रहे हैं तो यह बिलकुल अज्ञानता है, मूर्खता है। श्री गीता अ०५ श्लोक २२।

क्योंकि मानव जीवन के निर्माता ॐ आनन्दमय भगवान की श्री गीता अ०९ श्लोक ३३ में चेतावनी और आज्ञा भी है कि संसार नाशवान, अनित्य, दु:खरूप है। इस विषय को श्री गीता अ०१५ के श्लोक २-४ में विस्तार पूर्वक समझाया है। इसीलिये गीता अ०३ श्लोक १६ भगवत् विधान की आज्ञाओं से न चलने वाले इन्द्रिय भोगों में रमण करने को मोघं पार्थ सा जीवति कथन किया है। भगवान ने १८ अ० तक के ६२ वें श्लोक तक ज्ञान दिया, फिर कह दिया, अब तेरी जैसी इच्छा हो कर। ज्ञानवान् भक्त ने कहा मैं आपकी आज्ञा पालन करूँगा बस फिर ज्ञान नहीं दिया। इसके बाद फिर सुनने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।

ख्याल करें काँटों की सुन्दरता पुष्प में है, पुष्प की सुन्दरता से बालक, बृद्ध, युवा, नर-नारी पुष्प लेने जाते हैं। हाँ, यदि पुष्प को न तोड़कर, काँटों पर हाथ मार दिया, काँटों को पकड़ लिया फिर तो अत्यन्त वेदना के साथ खून बह जायेगा। इसी प्रकार इस संसार के प्रेमी-पदार्थों की धन, जन-विद्या, मान-सम्मान की सुन्दरता ॐ आनन्दमय भगवान के स्वरूप से है। यदि उनमें प्रभु के स्वरूप की भावना न कर उसको भोगो का साधन समझकर पकड़ लिया फिर तो अत्यन्त दु:ख कष्ट के साथ दिमाग का अत्यन्त पौष्टिक तत्त्व खून की तरह बह जायेगा। इसीलिये ॐ आनन्दमय प्रभु-पिता का आदेश का आठवाँ मंत्र है किहे प्यारे प्रेमियों मेरे ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय नाम-रूप को मत भूलो, मुझे सर्वत्र सब रूपों में और अपने हृदय दिमाग में मानो। बस इसको मानने से ही तृप्ति है। श्री गीता अ०६/३०। ॐ शान्तिमय