दु:खों का नाश करने के लिए भगवान के पाँच आदेश- श्री गीता

जीवन में बहुत से दु:ख हैं, उनका नाश करने के लिए प्रभु पिताजी ने पाँच आदेश दिये हैं, जिसका पालन करने से हमारे समस्त दु:खों का नाश सरलता से हो जाता है।

दु:खों का नाश करने के लिए भगवान के पाँच आदेश- श्री गीता
Dukhon ka Nash- Anand Kiran ji Bhagwan

ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय

दु:खों का नाश करने के लिए भगवान के पाँच आदेश- श्री गीता

-परमपूज्य श्री आनन्द किरन जी

भगवन्! श्री गीता अ० ६ श्लोक १७ में श्री महापुरूष भगवान ने दु:खों का नाश करने के लिये पाँच आदेश दिये हैं

१- युक्त योग का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।

२- युक्त आहार का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।

३- युक्त विहार का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।

४- युक्त कर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।

५- युक्त सोने का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।

पहला आदेश- इनमें से प्रथम आदेश की महत्ता पर साधारण विवेचना किया गया था। अब शेष चार आदेशों की आवश्यकता का भी प्रतिपादन किया जायेगा।

दूसरा आदेश- दु:खों का नाश करने के लिये दूसरा आदेश श्री महापुरूष भगवान ने दिया कि ‘‘युक्त आहार बोधस्य’’ अभिप्राय यह है कि अन्न, फल, शाक, दूध, औषध आदि पदार्थ किस प्रकार, कितनी मात्रा में और किस मौसम में, किस आयु में किस प्रकार के श्रम में वैâसे सेवन करें इसका ज्ञान भी ज्ञानवानों द्वारा प्राप्त करते रहना चाहिये। चिकित्सा विषयक ज्ञान बहुत बड़ा है अत: इस बात की आवश्यकता नहीं कि सब कोई इसे अध्ययन करें। हाँ जिनके पास यह ज्ञान है उनसे सेवा लेते रहना चाहिये।

तीसरा आदेश- अ० ६/१७ में श्री महापुरूष भगवान ने तीसरा आदेश दिया है ‘‘युक्त विहार बोधस्य’’। हमारे शरीर में जो नौ द्वार हैं उनके साथ हमें वैâसा व्यवहार करना चाहिये इसे भी जानने की आवश्यकता है। हमारे शरीर के नौ द्वारों में प्रमुख द्वार हमारा मुख है। मुख के द्वारा कई प्रकार के कर्म किये जाते हैं। जिनमें से एक कर्म है वाणी द्वारा शब्द उच्चारण करना। मनुष्य को वाणी किस प्रकार उच्चारण करना चाहिये, इसके लिये श्री गीता अ० १७/१५ में श्री महापुरूष भगवान ने बतलाया है:

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च यत् ।

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङम्यं तप उच्यते।।१७/१५।।

यदि हम अपनी वाणी इस विधान के अनुसार उच्चारण करने का अभ्यास नहीं करेंगे तो हमारी वाणी भगवत् विधान के विरूद्ध उच्चारण होगी। वाणी के व्यवहार में इतना प्रभाव है कि राज विधान के विरूद्ध दो चार तामसी वाक्य उच्चारण करने से उपस्थित सभा के लाखों मनुष्य शत्रु हो सकते हैं। अत: यदि नौ द्वारों के व्यवहार का ज्ञान प्राप्त नहीं किया गया तो दु:खों का नाश नहीं अपितु विकास होगा।

चौथा आदेश- भगवन्! इस १७ वें श्लोक में चौथा आदेश है

युक्त कर्म बोधस्य’’। ॐ आनन्दमय प्रभु पिता ने मनुष्य का शरीर ही ऐसा रचा है कि यह जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त एक क्षण  भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। परन्तु वह यदि उन कर्मों को भगवत् विधान के अनुकूल करने का अभ्यास करता है तब तो वे कर्म भगवत् आनन्द-शक्तियुक्त भगवत् पद दायक होते हैं और यदि उन कर्मों को भगवत् अनुकूल करने का अभ्यास नहीं करता तो वे स्वाभाविक ही भगवत् विधान के प्रतिकूल होते रहते हैं। समाधान के लिये श्री गीता अ० ३/५ में ज्ञान दिया है।

भगवत् अनुकूल कर्म क्या है इसका ज्ञान यद्यपि गीता में स्थान-स्थान पर दिया है, तथापि सुगमता पूर्वक समझने के लिये श्री विश्वशान्ति ग्रन्थ आदर्श हैं।

smileyअत: दु:खों का नाश करने के लिये तन द्वारा किसकी और कैसे सेवा करनी चाहिये इसका ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है।

युक्त कर्म बोधस्य का एक अर्थ तो तन द्वारा सेवा करने का ज्ञान प्राप्त करना है और दूसरा अर्थ है धन द्वारा सेवा करने का ज्ञान प्राप्त करना है अर्थात् आर्थिक आय-व्यय करने का ज्ञान प्राप्त करना है। इस विषय में सर्वोत्तम विधान तो यह है कि भगवत् पदाधीश के आदेशानुसार आय-व्यय किया जाय परन्तु यह परम श्रद्धा का विषय है। दूसरी संख्या में आय करने में राज का आदेश मान लिया जाय और व्यय में भगवत् आदेश मान लिया जाय। इससे नीचे श्रेणी है कि राज्य के आदेशानुसार व्यय करें परन्तु इसका फल दु:खम और अशम: होगा। इससे नीचे जो राज्य विधान के विरूद्ध आय करना है उसके लिये तो कहना ही क्या है। उसके परिणाम स्वरूप का जीवन महादु:खमय-अशान्तिमय होने का विधान है।

आय-व्यय के विषय में भगवत् विधान तो यही है कि कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (अ० २ श्लोक ४७) परन्तु वर्तमान में किस मनुष्य को किस प्रकार आय-व्यय करनी चाहिये इसका ज्ञान भी ज्ञानवानों से प्राप्त करते रहना चाहिये।

पाँचवा आदेश- भगवन्! अ० ६ के १७ वें श्लोक में श्री महापुरूष भगवान ने पाँचवा आदेश दिया है ‘‘युक्त स्वप्नोबोधस्य’’ शयन के विषय में भी मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है कि उसे कितना सोना चाहिये, किस समय सोना चाहिये और वैâसे सोना चाहिये। क्योंकि सोने के विषय में भी विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के विभिन्न विचार हैं। तामसी मनुष्यों का विचार होता है कि सोने के विषय में क्या ज्ञान प्राप्त करना है। गद्दा लगाया और सोया। तामसी मनुष्यों को श्री प्रभु जी अति अशान्त रखते हैं इसलिये वे कहते हैं कि उठो तो लूटो, ठगो, मारो, खाओ अन्यथा दु:खों का नाश करने के लिये सोते रहो। राजसी मनुष्य कहते हैं कि दु:खों का नाश करने के लिये खूब धन, सन्तान तैयार करो सोना छोड़ दिया जाय। परन्तु इससे उनके दु:खों का नाश नहीं विकास होता है। अत: सोने के विषय में भी ज्ञानवानों से ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।

भगवन्! अ० ६/१७ में दिये हुये पाँच आदेशों पर मनन विचार करने से यदि यह शंका हो जाय कि क्या युक्त आहार करने पर हमारा शरीर सदा निरोग रहेगा? क्या युक्त विहार करने से हमारे शरीर के नौ द्वार हमारे आज्ञाकारी हो जायेंगे? क्या ॐ आनन्दमय भगवान के विधान अनुसार देह और अर्थ द्वारा समाज की सेवा करने से समाज और अर्थ हमारे आज्ञाकारी हो जायेंगे? इस शंका के समाधान में श्री महापुुरूष भगवान ने इस श्लोक में यह तो पहले ही कह दिया है कि ऐसा करने से तुम्हारे सब दु:खों का नाश हो जायेगा। परन्तु यह शरीर और समाज पूर्णतया आज्ञाकारी होंगे कि नहीं इसके लिये चेष्टस्य शब्द का प्रयोग किया। अभिप्राय यह है कि मनुष्य को अहंता, ममता, आसक्ति, कामना से रहित होकर चेष्टा करनी चाहिये। ॐ आनन्दमय भगवान के भक्त शरीर पर और धन-जन पर अपनी अहंता, ममता नहीं रखते। इसलिये उनके लिये धन-जन को आज्ञाकारी बनाने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। अत: युक्त योग, युक्त आहार, युक्त विहार, युक्त कर्म और युक्त सोने का बोध प्राप्त कर लेने पर सारे दु:खों का नाश तो हो जाता है परन्तु यह शरीर और धन-जन सर्वथा आज्ञाकारी होने सम्भव नहीं।