भगवान के आज्ञाकारी रहने वाले प्रिय-भक्त के लक्षण

निष्कामी और आत्मसंयमी होने की आज्ञा, ज्ञानवान बनने के लिये ज्ञानयोग का साधन, "करिष्ये वचनं तव" का अर्थ

भगवान के आज्ञाकारी रहने वाले प्रिय-भक्त के लक्षण
bhakta ke Lakshan

ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय

भगवान के आज्ञाकारी अखण्ड-विधान के प्रिय-भक्त के लक्षण

चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआ बेपरवाह।

जिसको कछु न चाहिये, वही शहनशाह।।

यह ज्ञानवानों की परमहितकारी सत्य-वाणी है।

ॐ आनन्दमय भगवान के अखण्ड-विधान के आज्ञाकारी भक्त की सम्पूर्ण चाह-इच्छायें समाप्त रहती हैं। उसके अन्त:करण में एक आनन्दमय भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा रहती ही नहीं। वह आत्म-सन्तुष्ट रहता है, श्री गीता अ०२ श्लोक ५५। वह सदा सर्व संकल्प सन्यासी ही रहता है, श्री गीता अ०६ श्लोक ४,५। ऐसे ही ॐ आनन्दमय भगवान के आज्ञाकारी भक्त के लिये आगे श्लोक ५ में भगवान उसके कर्त्तव्य का निरूपण करते हैं।

श्री गीता अ०६ के ५ श्लोक के अनुसार अपने कर्त्तव्य का श्लोक ६ में पालन कर आगे श्लोक ७,,९ में उसके फल का और महत्व का कथन किया है। फिर वह श्री गीता अ०१८ श्लोक ५४ के अनुसार सदा ब्रह्मभूत प्रसन्न-आत्मा न शोचति न काँक्षति रहता है। परन्तु आज्ञाकारिता के अखण्ड विधान के त्यागी स्वेच्छाचारी नारी-नरों के अन्दर सदा चाह-कामनाओं की धरायें बहती रहती हैं। वह कभी निर्भय, निश्चिन्त, सम-शान्त, प्रसन्न नहीं रहता। श्री गीता अ०१६ श्लोक १२ एवं और भी विस्तार पूर्वक श्लोक १३ से १८ तक में अनेकों उनके ममता-अहंकार पूर्वक उनके मनोरथों का कथन कर उनको आसुरी प्रकृति कहकर महान अपवित्र नरकों में गिरते रहते हैं। कथन किया है। आसुरी प्रकृति वालों के प्रधान लक्षण है, काम-क्रोध-लोभ।

काम, क्रोध, लोभ के परायण स्वेच्छाचारी नारी नर जन्म होने के पश्चात् अबोध बच्चों के अन्त:करण में चाह-चिन्ता की खेती के बीज होते रहते हैं। नाशवान, क्षणभंगुर, सुख-रहित संसार में श्रेष्ठ, बुद्धिमान, ज्ञानवान, सन्माननीय, पद-प्रतिष्ठित, अध्यक्ष, मालिक, स्वामी जी बनने के हजारों मार्ग हैं, परन्तु सभी भयंम, शोकम-विषादम् वाले ही है। श्री गीता अ०३ श्लोक ३२, अ०९ श्लोक १२। इसीलिये भगवत आदेश है। ‘‘निष्कामी और आत्मसंयमी होने की आज्ञा’’ परन्तु,

ॐ आनन्दमय प्रभु पिता जी के आज्ञाकारी, अखण्ड-विधान में श्रेष्ठ, बुद्धिमान, ज्ञानवान, पद, प्रतिष्ठित सम्मानीय बनाने के लिये श्री गीता-शास्त्र में कर्मयोग से योग द्वारा श्री गीता अ०२ श्लोक ४७ से ५१ तक में कथन किया है, और भक्ति-योग से बनने के लिये अध्याय १२ श्लोक १३ से १९ तक कथन किया है।

ज्ञानवान बनने के लिये श्री गीता अ०१३ में ७ से ११ तक ज्ञानयोग का साधन कथन किया है। और सम्पूर्ण दु:खों से मुक्त होने के लिये श्री गीता अ०१८ के ६६ वें श्लोक में कथन किया है। एवं अब अन्त में सम्पूर्ण चाह, कामना, चिन्ताओं से सदा के लिये मुक्त होकर ॐ आनन्दमय परमात्मा का परम-प्रिय बनकर अनायमय परम-पद प्राप्त करने के लिये हजारों साधनों में केवल एक ही साधन करने की परम आवश्यकता है। वह है श्री गीता अ०१८ का ७३वाँ श्लोक।

‘‘करिष्ये वचनं तव’’

करिष्ये वचनं तव को धारण करने की शक्ति प्रदान करने वाले श्री मंत्र के प्रति आदेश है कि हे प्रेमियों ! मेरे ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय नाम-रूप को मत भूलो.......।

आज्ञाकारिता के अखण्ड-विधान की जगमगाती अखण्ड ज्योति जलाने वाला गुणविद्या का प्रथम पाठ

श्री गीता अध्याय १३ श्लोक ७।

इस श्लोक में ज्ञान की प्राप्ति में नौ गुणों का कथन कर सर्वप्रथम श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव करने का आदेश दिया है।

श्री सच्ची प्रेम भक्ति के २१ मंत्र श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव करने वाले हैं। एवं श्री गुण-विद्या का प्रथम पाठ भी श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव करता है। श्रेष्ठता के त्यागी निष्कामी-आज्ञाकारी-श्रेष्ठ बुद्धिमान होने पर भी अपने को श्रेष्ठ-बुद्धिमान घोषित नहीं करते। परन्तु एकामी-स्वेच्छाचारी, कनिष्ठ, बुद्धिहीन होने पर भी अपने को श्रेष्ठ, बुद्धिमान घोषित करता है। इस प्रकार अपने को श्रेष्ठ, बुद्धिमान घोषित करने वाले को नकली बनावटी, कपटी, वेश-भूषा, छल की वाणी का एवं अनेकों अपने को सर्वश्रेष्ठ प्रसिद्ध करने के लिये स्वान करने पड़ते हैं। परन्तु इसका ऊपरी स्वान भविष्य में सर्वनाश का कारण बन जाता है। श्री गीता अ०९ श्लोक १२।

ऐसे भगवत-विधान के त्यागी स्वेच्छाचारी मनुष्यों के प्रति श्री गीता शास्त्र में श्री भगवान ने अ०३ श्लोक १६ में कथन किया है कि जो अखण्ड विधान के विपरीत चलता है वह व्यर्थ ही जीता है। ॐ शान्तिमय