गुजरती है जिन्दगी 'Gujarati hai Jindagi' Hindi Kahani

अजय कुमार पाण्डेय द्वारा लिखित हिन्दी कहानी- गुजरती है जिन्दगी

गुजरती है जिन्दगी  'Gujarati hai Jindagi' Hindi Kahani
Gujarati hai Jindagi by Ajay Kumar Pandey

गु़जरती है जिन्दगी (Gujarati Hai Jindagi)

-‘Gugarati hai Jindagi’ Hindi Kahani by Ajay Kumar Pandey

पाण्डेय जी को आप जानते हैं?

कौन पाण्डेय जी

अरे वही जो मंच पर बैठे हैं

परिचय नहीं है

परिचय तो मेरा भी नहीं है लेकिन मिश्रा जी बता रहे थे

कौन मिश्रा जी

अरे वही जो मंच पर बैठे हैं

क्या म़जाक करते हो मैं तो उनको भी नहीं जानता

मैं मिश्रा जी को जानता हूँ जौनपुर के रहने वाले हैं ग़जलकार हैं उनकी किताब भी निकली है मैंने उनको पढ़ा है। एक दिन ऐसे ही मैं किसी काम से दिल्ली जा रहा था रास्ते में ट्रेन पर मिश्रा जी से मुला़कात हो गई थी। धीरे-धीरे परिचय हुआ। वहीं रास्ते में मिश्राजी ने कई रोचक घटना सुनाई उसी में पाण्डेय जी का जिक्र आया। पाण्डेय जी मिश्राजी के बड़े घनिष्ट मित्र हैं। दोनों एक ही मोहल्ले में रहते हैं। कहीं कवि सम्मेलन आदि में जाना हुआ तो साथ-साथ ही जाते। वैसे भी दोनों व्यक्ति सेवा से मुक्त हो चुके हैं। कोई काम नहीं रह गया है। सुबह-शाम रो़ज ही मिल जाते हैं।

मिश्रा जी ने बताया कि पाण्डेय जी बड़े ही रोचक, सरल, निश्छल स्वभाव के व्यक्ति हैं। एक दिन का किस्सा सुनाया कि

जेठ का महीना था सुबह ही सुबह पाण्डेय जी मेरे घर पर आ गये। गेट खोला अन्दर आये दरवा़जे पर बेल बजा दिया। मैंने बाहर देखा अँधेरे के साथ उजाला हो रहा था। मैं शीघ्र ही दरवा़जा खोला तो देखा पाण्डेय जी! मैंने उत्सुकतावश पूछा- पाण्डेय जी इतने सबेरे सब कुशल तो है न?

पाण्डेय जी ने कहा– ‘‘सब ठीक है, अभी तुम सो रहे हो घूमने नहीं चलोगे?’’

क्यों नहीं वह तो रो़ज ही करता हूँ।

अच्छा कपड़ा पहन लो आज परेड की तऱफ चलेंगे। उधर से तिमुहानी पर सब्जियाँ लेते हुये आयेंगे।

वैसे मुझे सब्जी नहीं लेना था फिर भी कपड़ा पहनकर पाण्डेय जी के साथ चल दिया।

परेड हमारे घर से तीन किलोमीटर पर था हम लोग रो़ज बाँध पर गंगा किनारे घूमते थे। सूरज निकलते-निकलते वापस आ जाते थे, परन्तु आज पाण्डेय जी के साथ परेड ग्राउण्ड पर चला गया। जाने में कोई परेशानी नहीं हुई। मौसम भोर का था पूरी प्रकृति अलसाई-सी सुन्दर लग रही थी। जाते-जाते ही थकान लग गई। पाण्डेय जी को तिमुहानी से सब्जी खरीदनी थी। परेड से एक किलोमीटर दूर था। उनके साथ वापसी में सब्जी खरीदने के लिये चले गये। एक घण्टे बाद सब्जी की दुकान लगी खरीदते-खरीदते आठ बज गया हम लोग साढ़े चार बजे निकले थे, देर होती ही जा रही थी। जब पाण्डेय जी सब्जी आदि खरीद लिये तो एक झोला हमें थमा दिया। मेरी स्थिति पहले से ही थकान के मारे बेहाल थी उस पर दस किलो का झोला। पाण्डेय जी पर मुझे बड़ी गुस्सा लग रही थी, नहीं रहा गया तो मैंने कहा– ‘‘पाण्डेय जी एक ठेलिया लेकर आना था कितनी परेशानी हो रही है?’’

पाण्डेय जी मुस्कुराते हुए कहने लगे– ‘‘अरे मिसिर कुछ व्यायाम करना चाहिये।’’

मैं पहले से ही परेशान था पाण्डेय जी की बात अच्छी नहीं लग रही थी। हम दोनों सब्जी खरीद कर कुछ दूर ही बढ़े थे कि तिवारी जी ने पाण्डेय जी को देखकर अभिवादन  किया कहा– ‘‘पाण्डेय जी घर चल रहे हो क्या?’’ पाण्डेय जी ने कहा– ‘‘हाँ, इधर सब्जी खरीदने आये थे चलना तो है।’’ आईये पीछे बैठ जाइये उधर ही चल रहा हूँ।

पाण्डेय जी ने मेरे हाथ से झोला लिये तपाक से तिवारी जी के स्कूटर पर पीछे बैठ कर चल दिये।

मैं अकेला उन्हें दूर तक निहारता रहा।

भला तुम्हीं बताओ यह वैâसी दोस्ती है?

मैं मिश्रा जी की बात पर कोई प्रतिक्रिया करता कि मिश्रा जी कहने लगे यही नहीं एक दिन

शाम को मैं और पाण्डेय जी बाँध पर से टहल कर लौट रहे थे कि रास्ते में एक ठेलिया वाला आलू लादे दिख गया। पाण्डेय जी मुझसे कहने लगे मिसिर जी घर पर आलू नहीं है, पड़ाईन कह रही थीलौटते समय आलू लेते आना, चलो ले लेते हैं।

मुझे नहीं ़जरूरत है मैंने कहा

पाण्डेय जी आलू वाले से मोलभाव करने लगे।

आलू वाले ने कहा चालीस का  पाँच किलो देंगे।

पाण्डेय जी कोई भी सामान लेते हैं तो बड़ा मोलभाव करते हैं।

पाण्डेय जी ने कहा मुझे दो किलो की आवश्यकता है। पैतीस रुपये के भाव से दो, आलू वाले ने कहा मुझे परता नहीं है, पाँच किलो से कम नहीं दूँगा। अगर पाँच किलो लेंगे तो फिर पैतीस का दोगे। पाण्डेय जी ने कहा। चलो नहीं मानते तो दे देता हूँ। आलू वाले ने कहा।

आलू वाले ने पाँच किलो तौल दिया, परन्तु पाण्डेय जी के पास उतने पैसे नहीं थे मेरी तरफ मु़खातिब होते हुये। कहने लगे मिसिर आधा तुम ले लो आधा मैं ले लेता हूँ। आलू है कोई जहर तो है नहीं काम ही आयेगा। नहीं चाहते हुए मैंने पचास का नोट निकाल कर दे दिया। दुकान वाले ने पैतीस रुपये काट कर पन्द्रह रुपये हमें वापस कर दिया। वह पाँच किलो आलू भी आधा-आधा करके दो जगह कर दिया। आलू वाला चला गया। पाण्डेय जी ने जेब में टटोला तो उनके पास सत्रह रुपये निकले।  उन्होंने वह हमें दे दिया। अब तुम्ही बताओ मुझे लग गया न आठ आने का चूना ! यह है हमारे पाण्डेय जी। अब आप को क्या बताऊँ पाण्डेय जी की कहानी एक दिन पाण्डेय जी सब्जी मण्डी से मेरे साथ गु़जर रहे थे। गर्मी का मौसम था मण्डी में खूब भीड़ थी पाण्डेय जी ने एक खीरा वाले को देखा तो कहने लगे- मिसिर खीरा ले लिया जाय इसका सलाद बड़ा अच्छा होता है। मैं न चाहते हुये भी उनका अनुकरण करता रहा।

पाण्डेय जी मोलभाव में माहिर थे। खीरा वाला दस रुपये में सात खीरा दे रहा था। पाण्डेय जी ने कहा- दस का अगर दस दो तो मैं बीस रुपये का लूँगा।

खीरा वाला पहले न नुकुर किया फिर तैयार हो गया। पाण्डेय जी अपना झोला खीरा वाले के पास दे दिया खीरावाला झोले में खीरा भर दिया और बीस रुपये ले लिया।

पाण्डेय जी घर पर आ गये अपनी बहू को झोला देते कहने लगे- बहू आज खीरा का़फी लाये हैं उसका सलाद बनाना, कई दिन चलेगा।

बहू ने भी अच्छा बाबू कह कर सभी सब्जी प्रिâज में रख दिया।

दो दिन तो खाना के साथ पाण्डेय जी को सलाद मिला, परन्तु तीसरे दिन सलाद नहीं बना तो पाण्डेय जी ने बहू से पूछा- क्या हुआ बहू आज सलाद नहीं बना?

बाबू जी खीरा तो खत्म हो गया, बहू ने कहा।

क्यों? खीरा तो बीस था।

नहीं बाबू जी खीरा तो केवल बारह था। बाकी नेनुआ था। ऐसे हैं पाण्डे जी । बहुत चालाक बनते हैं न ।

चूना लगा गया न खीरावाला ।

वैसे हमारे पाण्डेय जी बड़े नेक दिल, बड़े ही सज्जन हैं। हमारे मोहल्ले में एक सेवामुक्त ज़ज साहब रहते हैं, वे भी शाम को टहलते मिल जाते हैं। उनसे हम लोगों की बड़ी दोस्ती है। एक दिन उनके घर पर कोई आदमी तीस किलो का पका कद्दू दे गया उस कद्दू को देख कर जज साहब बहुत परेशान हुये कि इसका क्या किया जाय। दो-चार दिन सोचते रहे। उन्हें न जाने क्या सूझा। उस तीस किलो के कद्दू को पाण्डे जी के यहाँ भेजवा दिया।

पाण्डे जी उस कद्दू को देखकर परेशान शाम को कहने लगे– ‘‘अरे मिसिर जज साहब एक कद्दू तीस किलो का हमारे यहाँ भेजवा दिये हैं, क्या किया जाय?

सोचो क्या किया जाय मैंने कहा।

मैं तो सोचता हूँ कि उसे काटकर अपने जान पहचान वालों के यहाँ दे दिया जाय।

नहीं यह अच्छा नहीं लग रहा है। एक तो वह आपका कद्दू नहीं है। जज साहब का है अगर बाटना ही होता तो वे न बटवा देते, फिर भी तुम क्यों बाटोगे, कद्दू के बाँटने की प्रसिद्धि तुम लोगे जज साहब को बुरा लगेगा, मैंने कहा।

तो फिर तुम्ही बताओ क्या किया जाय पाण्डे जी ने पूछा। मेरा मन तो यह कहता है कि दो दिन बाद नया साल लगने वाला है, उसी में मन्दिर पर कोई प्रोग्राम कर दिया जाय, उसी में अपने कवि मित्रों को बुलाकर एक गोष्ठी कर लिया जाय। मैंने कहा कद्दू का हलुवा बनाकर बाँटोगे पाण्डेजी चुटकी लेते हुये कहने लगे।

नहीं सब लोग चन्दा करके व्यवस्था कर लिया जाय। मैंने कहा- पाण्डेजी खाने-पीने और कविता के मामले में बहुत जल्दी तैयार हो जाते हैं।

शाम को मन्दिर पर मीटिंग बैठी और उस कद्दू के सदुपयोग में नये साल पर पूड़ी-सब्जी का प्रोग्राम फिर कवि-गोष्ठी, है न हमारे पाण्डेजी कितने अच्छे।

अब आप से क्या बतायें हमारे पाण्डेजी बहुत ही सीधे, सज्जन हैं। कब कहाँ क्या कह दें पता नहीं। यहाँ तक कि ये अपनी गलती तक बता देते हैं।

एक दिन हम लोग अपने कवि मित्र वर्मा जी के घर पर बैठे थे, उनकी पत्नी भी अच्छी कवयित्री हैं उनके शादी का पचासवीं वर्षगाँठ थी उन्होंने एक कवि गोष्ठी अपने घर पर रखी थी। पन्द्रह कवियों का जमावड़ा था। कविता के बाद खाने का भी प्रोग्राम था।

शाम को हम लोग इकट्ठा हुये कविता हुई भोजन करते समय मैंने थोड़ा छेड़ दिया- पाण्डेजी आप कब अपनी शादी की सालगिरह मनाते हैं।

बस पाण्डेजी का उद्गार सामने आ गया कहने लगे- मिश्रा जी आपसे क्या छुपा है, आप मेरी पत्नी का स्वभाव तो जानते ही हैं। यह तो वर्मा जी बड़े भाग्यशाली हैं जो कि दोनों जने कवि हैं नहीं तो इस तरह की दावत न मिलती। हमारे यहाँ तो मेरी पड़ाईन कविता का नाम सुनते ही चण्डी का रूप ले लेती हैं। डर के मारे मैं किसी कवि को घर पर नहीं बुलाता। जब आप से बात होने लगती है तो मेरी पड़ाईन किस प्रकार मुझे सम्बोधित करती हैं। जब आपके यहाँ आता हूँ तो कहती हैं- कविता हूँ.. चल दिहें। क्या बताये मिश्राजी सालगिरह क्या मनाये किसी तरह जीवन बीत जाय बस।

अरे पाण्डेजी मैंने म़जाक किया था आपने सीरियस ले लिया। मेरा मतलब आपको दु:खी करना नहीं था। नहीं, मिश्राजी दु:ख की बात नहीं है। जीवन संग भी भगवान कृपा से बनता है। होगा मेरा अपना कर्म उस समय पाण्डेजी के प्रति सभी लोग संवेदनापूर्ण बात करने लगे। मुझे अपने पर झेंप-सी आने लगी थी। मैंने क्या कह दिया परन्तु पाण्डेजी की सज्जनता थी वे कुछ छुपा नहीं पाते।

आपने देखा हमारे पाण्डेजी।

बात होते-होते इटावा आ गया। पाण्डेजी और मिश्राजी वहीं उतर गये। आज यहाँ देखा तो सारी बातें ता़जा हो गयीं।

आप यह सब मुझे क्यों बता रहें?

पता नहीं क्यों?

हो सकता है इन सब बातों का कोई मतलब न हो परन्तु ऐसे ही गु़जरती है जिन्दगी।

-Ajay Kumar Pandey Ki Hindi Kahaniya