क्रान्तियज्ञ : Krantiyagya by Dr. Prabhakar Dwivedi 'Prabhamal'

Dr. Prabhakar Dwivedi ji dwara rachit prabandh kavya 'Krantiyagya' Amar Sahid Chandrashekhar Aajad ke sampurn jeewan ka mahakavya hai.

क्रान्तियज्ञ : Krantiyagya by Dr. Prabhakar Dwivedi 'Prabhamal'
Krantiyagya book image

क्रान्ति यज्ञ

अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद

की

जीवन गाथा

डॉ. प्रभाकर द्विवेदी प्रभामाल

आलोक प्रकाशन

इलाहाबाद

Krantiyagya by Dr. Prabhakar Dwivedi ‘Prabhamal’

ISBN : 81-902597-8-4

 

Rs. 200

संस्करण- प्रथम 2005

मुद्रक- एडवांस क्रियेटिव सर्विसेज, इलाहाबाद

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क्रान्तियज्ञ

पूज्य पिता स्व. श्री हरिशंकर द्विवेदी जी

को सादर समर्पित है

जो काशी विद्यापीठ, वाराणसी में

अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद

के सहपाठी रहे थे

 

पुरोवाचन

डॉ. प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल द्वारा प्रणीत ‘क्रान्तियज्ञ शीर्षक कृति का पारायण कर चुका हूँ। चन्द्रशेखर आजाद को केन्द्र में रखकर इससे पूर्व भी गद्य एवं पद्यबद्ध कई कृतियाँ आ चुकी हैं। फलत: परवर्ती कृतिकार को उनसे उत्कृष्ट भाव, भाषा और भंगिमा के साथ काव्योचित विविध उपादानों के अनुसार अभिव्यक्ति देनी चाहिए थी।

प्रस्तुत कृति में कृतिकार ने स्तोतव्य यज्ञ पुरुष के जीवन और स्वातंत्र्यलाभ के लिए अपेक्षित संघर्ष से जुड़े बलिदानी साथियों और स्मरणीय घटनाओं का ब्यौरेवार उल्लेख किया है। लक्ष्य प्राप्ति के अनुरूप आचार और विचार का विवरण कृति में विद्यमान है। नायक की राष्ट्र के प्रति अगाघ आस्था, निष्ठा उसके अनुरूप क्रियाकलापों में प्रतिफलित है। राष्ट्र एक उदात्त सांस्कृतिक अवधारणा है। भारत की राष्ट्रीयता एक महाद्विपीय भाव है। भारतीय संस्कृति प्रकृति में अन्तर्हित दिव्यत्व के उन्मेष के लिए किए जाने वाले संस्कार विशेष का पर्याय है। देवत्व के प्रति उन्मुख होकर त्यागपूर्वक कर्म सम्पादन ही सम्यक् कृति या संस्कृति है। वह उच्चतम चिन्तन का मूर्त रूप है। कृतिकार ने इन सब विचारों को नायक द्वारा किए जाने वाले आत्म चिन्तन में उभारने का भरपूर प्रयास किया है।

राष्ट्र भारत की भूमि में उसे मातृत्व बुद्धि है। अत: वह एक आततायी के रक्तिम पंजों को जो उसकी छाती पर चकड़न बनकर पड़े हैं, कैसे सहन कर सकता है? वह क्रान्ति का मार्ग पकड़ता है, गाँधी की अंहिसा के मार्ग से हटकर। उसके लिए क्रान्ति यज्ञ है। देवता को लक्ष्य कर किया गया त्याग ही यज्ञ है। इस यज्ञाग्नि में नायक अपने साथियों के साथ स्वयं को होम कर देता है। ऐसी सात्त्विक क्रिया व्यर्थ नही जाती। उसकी समय आने पर वासन्तिक परिणति होती है, और हुई है। बलिदानी वृत्ति बंध्या नहीं होती।

प्रस्तुत कृति कृतिकार की आस्था का मूर्तिमान रूप है। मैं उसकी आस्था और निष्ठा की प्रशंसा करता हूँ। काव्योचित सर्वांगीण प्रस्तुति के लिए अभी उसे बहुत अधिक व्युत्पत्ति और अभ्यास करना है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि वह आहार्य प्रतिभा से इस दिशा में सक्रिय होकर सफलता प्राप्त करेगा।

हिन्दी दिवस- 14 सितम्बर 2004

आचार्य डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी

सभापति- हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद

पूर्व अध्यक्ष- हिन्दी विभाग विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)

क्रान्तियज्ञ

डॉ. प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’ जी द्वारा रचित प्रबंध काव्य ‘क्रान्तियज्ञ’ अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद के सम्पूर्ण जीवन का महाकाव्य है। शताब्दियों से गुलाम भारत माँ को मुक्त कराने में जिन वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उनका जीवन और चरित्र भारतीयों के लिए स्मरणीय तथा वन्दनीय है। स्वतंत्र भारत में आज जहाँ क्षेत्रीयता, संकीर्ण जातीयता, पारिवारिकता एवं वैयक्तिक हितों की सीमाओं में बन्द राजनीतिक चेतना घुट रही है; आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अनाचार, दुराचार के कारण आम आदमी का जीवन दूभर होता जा रहा है, ऐसे समय में उन वीरों का ध्यान आना स्वाभाविक है, जिन्होंने राष्ट्रहित को व्यक्ति हित की तुलना में उत्कृष्टतर समझा। वरिष्ठ कवि ‘प्रभामाल’ जी ने चन्द्रशेखऱ आजाद के जीवन के बिखरे सूत्रों को खोजकर अपनी कल्पना शक्ति के सहारे उन्हें निबद्ध करके काव्य का व्यापक आयाम प्रदान किया है। ‘क्रान्तियज्ञ’ को यज्ञ का सांगरूपक प्रदान करते हुए सोलह अध्यायों का नामकरण यज्ञ की प्रक्रिया के विविध सोपानों के आधार पर किया गया है संकल्प, स्वस्तिवाचन, पुण्याहवाचन, अरणिमंथन, अग्निप्रदीपन, समिधाधान, जल प्रसेचन, आज्याहुतियाँ, मन्त्राहुतियाँ, पूर्णाहुति, वसोर्धारा, आरती, क्षमा प्रार्थना, साष्टांग नमस्कार, पुष्पांजलि तथा प्रदक्षिणा।

इन शीर्षकों की जीवन चरित्र के विविध प्रसंगों के साथ प्राय: पूरी तरह से संगति यद्यपि नहीं बैठती है। फिर भी ऐसा लगता है कि कवि ने अमर शहीद के षोडषोपचार पूजन के सात्विक भाव को समाहित करने के उद्देश्य से यज्ञ प्रक्रिया का विभाजन काव्य के नाम के अनुरूप किया है, जो सात्विक होने के साथ ही साथ निश्चय ही स्तुत्य भी है। काव्य का प्रस्तुतीकरण भाषा-भाव शैली की दृष्टि से प्रभावशाली है। नायक के व्यक्तित्व को विशिष्टता प्रदान करने के निमित्त कवि ने अनेक स्थलों पर आध्यात्मिकता एवं सामाजिक समरसता का उच्च आदर्श काव्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है। जो निश्चय ही आज के युग के परिप्रेक्ष्य में, विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा प्रदायक है।

काव्य ने स्वतंत्रता प्राप्ति में शस्त्र एवं शास्त्र की समन्वित भूमिका मानी है जो सर्वथा उचित है।

किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के बीज बचपन में ही पड़ जाते हैं, उसके भविष्य के रूपरेखा वर्तमान में ही बन जाती है। आजाद को भी बचपन की रूपरेखा वर्तमान में ही बन जाती है। आजाद को भी बचपन में ही जोखिम भरे खेल पसन्द आते हैं। चन्द्रशेखऱ में ऋषि परम्परा के चिन्तन के अनुरूप उत्कृष्ट गुणों का विकास विशेष रूप से हुआ, जिसके परिणामस्वरूप अन्तत: उसने अपने प्राणों की बलि देश हित में दे दी। कवि ने अनेक अन्य शहीदों के साहसिक कर्मों पर भी प्रकाश डाला है। काव्य में छन्द तथा लय का निर्वाह भली प्रकार हुआ है। भाषा तत्सम प्रधान है। आज जहाँ कवि गण छोटे छोटे अनुभवों को लघु कविताओं में व्यक्त करने में संलग्न हैं, वही प्रभामाल जी ने इतने बड़े काव्य का सृजन जिस धैर्य एवं मनोयोग से किया है, वह सराहनीय है। मेरा विश्वास है कि यह काव्य अध्येताओं में देश भक्ति का भाव जगाएगा तथा अमर शहीदों के योगदान के प्रति श्रद्धावनत करेगा।

डॉ. रामकिशोर शर्मा

आचार्य, हिन्दी विभाग

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

भूमिका

वर्ष 1978 में प्रयाग में अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद की शहादत वर्षगाँठ बड़े धूमधाम से मनायी जा रही थी, जिसमें उत्तर भारत के अनेक क्रान्तिकारियों का जमघट था। सभी क्रान्तिकारियों को इलाहाबाद जंक्शन स्टेशन के पास स्थित ‘गुलाब मैसाँ होटल में ठहराया गया था। बहुत दिनों से मेरे मन में क्रान्तिकारियों के जीवन चरित्र पर कुछ लिखने की इच्छा थी। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के योगदान को प्रदर्शित करते हुए मैंने इससे पूर्व कई रचनाएँ लिखी भी थी। विशेष रूप से अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद का जीवन चरित्र लिखने का संकल्प मेरी मनोभूमि में बीज रूप में जड़ें जमा चुका था। इस सम्बन्ध में क्रान्तिकारियों के प्रत्यक्ष संस्मरण प्राप्त करने के उद्देश्य से मैं ‘गुलाब मैसाँ गया। कई क्रान्तिकारियों से भेंट हुई, जिनमें रामकृष्ण खत्री, सुशीला दीदी, यशपाल, मन्मथनाथ गुप्त, बाबा पृथ्वी सिंह आजाद आदि प्रमुख थे। उनसे मैंने अपना मन्तव्य बतलाया। अपनी वीर रस से ओतप्रोत कुछ रचनाएँ भी सुनाईं। सबने प्रशंसा की तथा मेरे संकल्प के अनुरूप अपने संस्मरण भी सुनाए तथा मुझे उसे काव्य रूप में परिणत करने के लिए भी प्रोत्साहित किया। अत: संकल्पित मन के साथ मैंने कार्य को सुचारु रूप से आगे बढ़ाने का प्रयास प्रारम्भ किया। पूर्व में प्रकाशित अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लेखों, पुस्तकों एवं काव्यों के साथ-साथ, संस्मरणों को भी लिपिबद्ध किया और ऐतिहासिकता को ध्यान में रखते हुए उन्हें क्रमबद्ध कर काव्य रूप में परिणत करने का कार्य प्रारम्भ किया। इस तरह लगभग छ:  महीने की तपस्या से यह क्रान्तियज्ञ कृति तैयार हो गयी। आमंत्रित कवियों एवं आलोचकों के समक्ष इसका वाचन भी कई बार हुआ तथा सबके भावों को समेट कर यथास्थान संशोधन भी किया गया। इसके प्रकाशन में अनेक व्यवधान समय-समय पर उपस्थित हुए, जिसका विवरण देना मैं मर्यादा की दृष्टि से उचित नहीं समझता हूँ, किन्तु अपरिहार्य कारणों से यह पुस्तक दो दशकों से भी अधिक समय तक प्रकाशित नहीं हो सकी। अन्तत: हारकर मुझे स्वयं ही इस अमूल्य ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु तत्पर होना पड़ा। इस प्रकार यह ग्रन्थ अब आपके समक्ष प्रस्तुत है।

जहाँ तक चन्द्रशेखर आजाद के जीवन चरित्र को क्रान्तियज्ञ नाम देने का भाव है, मेरा यह निश्चित मत है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी जी के अहिंसक आन्दोलन का जितना योगदान है, उससे किसी भी मायने में रंचमात्र भी कम योगदान क्रान्तिकारियों का नहीं रहा है। अंग्रेजों को जब अनुभव हुआ कि उनका सामान्य जन-जीवन अब खतरे से खाली नहीं है, भारतीय युवा अनेक प्रकार के अत्याचारों को झेलकर भी अपने साहस और शौर्य से सशस्त्र क्रान्ति द्वारा आजादी के लिए प्रयास दिनों दिन द्विगुणित करते जा रहे हैं, तभी अंग्रेज अपना बोरिया बिस्तर बाँधने को तैयार हुए। इस क्रान्तियज्ञ में चन्द्रशेखर आजाद का नेतृत्व सदा बढ़ चढ़कर रहा। जीवन भर अनेक अभावों को झेलकर भी, उन्होंने अपूर्व साहस, शौर्य एवं धैर्य का परिचय दिया जो भारत की सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान है, धरोहर है। चन्द्रशेखर आजाद के जीवन पर पुस्तक लिखने में मैंने उनके चरित्र में और निखार लाने के लिए कई स्थानों पर उनके चिन्तन-मनन पर भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता को उद्भासित करते हुए कल्पना का भी सहारा लिया है, जिससे भावी पीढ़ी उनके आदर्श जीवन चरित्र से प्रेरणा ग्रहण कर सके।

इस पुस्तक की रचना एवं चिंतन प्रक्रिया में मेरी पत्नी श्रीमती मालती द्विवेदी एवं पुत्र देवव्रत द्विवेदी का सक्रिय योगदान रहा है। बहू श्रीमती प्रतिभा द्विवेदी ने इसका आद्योपान्त वाचन कर प्रूफ संशोधन में सक्रिय योगदान दिया है। मैं इन सबका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।

अन्त में उन सभी कवि मित्रों एवं शुभचिन्तकों का मैं हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने पुस्तक के वाचन के लिए अपना अमूल्य समय निकालकर अपने बहुमूल्य सुझावों से मुझे उपकृत किया।

अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद के पचहत्तरवें बलिदान दिवस पर यह कृति पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।

27 फरवरी, 2005

डॉ. प्रभाकर द्विवेदी प्रभामाल’

अध्यात्म कुटीर, 439 ए, वासुकी खुर्द, दारागंज, इलाहाबाद-211006

अनुक्रमणिका

  1. संकल्प 2.स्वस्ति वाचन 3.पुण्याह वाचन 4.अरणि मंथन 5.अग्नि प्रदीपन 6.समिधाधान 7.जलप्रसेचन 8.आज्याहुतियाँ 9.मंत्राहुतियाँ 10.पूर्णाहुति 11.वसोर्धारा 12.आरती 13.क्षमा प्रार्थना 14.साष्टांग नमस्कार 15.पुष्पाञ्जलि 16.प्रदक्षिणा 17.विसर्जन

 

संकल्प

नारायण से समारम्भ, जग जम्बू द्वीपी भारतवर्ष।

भरतखण्ड, आर्यावर्तस्थल, कल्प, मनवन्तर, युगक्रम वर्ष।।

धर्मक्षेत्र चिर, परम्परागत, कर्मपूर्व संकल्प, विमर्श।

लक्ष्य परम पुरुषार्थ, कर्म निष्काम, यज्ञ, तप, दान, सहर्ष।।

सत्य धर्म से बढ़कर कोई धर्म नहीं, सद्शास्त्र प्रमाण।

श्रुति सम्मत सद्धर्म अहिंसा, से हो, जीवनमात्र कल्याण।।

परमधर्म परहित, स्वराष्ट्रहित, सहर्ष अर्पण तन, मन, प्राण।

महापुरुष वे कहलाते जिनके आचार विचार समान।

अमर कथा यह उस शहीद की, जिसका वीरोचित बलिदान।

क्रान्तियज्ञ की आहुति बनकर, स्वतंत्रता का बना निदान।।

आजीवन स्वलक्ष्यहित तत्पर रहा, निडर निज पथ, गतिमान।

कोटि कोटि जन, क्रान्तियज्ञ में कूदे, सुन जिसका आह्वान।।

जिन वीरों से भारत-भाल समुन्नत, मातृभूमि सम्मान।

शौर्य, धैर्य, साहस, अनुशासन, क्रान्तिमार्ग, चिर गौरव गान।।

जिनकी आहुतियों से निर्मित, दृढ़तम स्वतंत्रता-सोपान।

वीर सपूतों की शुचि गाथा, सुनकर गर्वित, तन, मन, प्राण।।

एक ओर गाँधी की सत्य, अहिंसा का दृढ़ अस्त्र, महान।

तथा दूसरी ओर क्रान्ति-पथ पथिकों का सार्थक अभियान।।

जन जन में जनक्रान्ति ज्वाल जल उठा, जग पड़ा हिन्दुस्तान।

शास्त्र शस्त्र के समन्वयन से, सफल समर स्वतंत्रता, प्रमाण।।

अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद की, यह अनुपम गाथा।

तथा साथ कुछ समकालीन शहीदों की, शुचि उपगाथा।।

राष्ट्र धर्महित जिन वीरों ने किया, सहर्ष परम बलिदान।

क्रान्तियज्ञ आहुति बन पाये, अमर कीर्ति, अक्षय सम्मान।।

स्वस्ति वाचन

सरस्वती-वन्दना

जो पराशक्ति पश्यन्ति से मध्यमा

वैखरी बन, चराचर प्रकाशित करे।

तत्व चेतन सनातन, है सर्वज्ञ जो,

सच्चिदानन्दमय, कार्य कारण परे।।

ज्ञान चिर ज्योति से, आवरण, मल व विक्षेप

का घोर अज्ञान तम जो हरे।

वह परब्रह्म की शक्ति, माँ शारदा,

कवि हृदय बुद्धि घट भाव रस से भरे।।

 

सत्य शिव स्वामिनी, राग रस भामिनी,

निज प्रभा से हरे, अज्ञता यामिनी।

ग्रन्थ, माला, सुमन, वीणा कर धारिणी,

पोषिणी, तोषिणी शक्ति आह्लादिनी।।

सुर असुर वन्दिनी, पात्र चिर संगिनी,

भोगिनी, योगिनी, सर्व ऋद्धि, सिद्धिनी।

आत्म कल्याणिनी, भक्त उद्धारिणी,

दास पर कर कृपा मातु वरदायिनी।।

 

शब्द का अर्थ ले, शब्द को अर्थ दे,

भाव अव्यक्त को, सरस अभिव्यक्ति दे।

आदि श्री नन्दिनी, अज प्रिया प्रेरिणी,

मूढ़ को गूढ़ सद्ज्ञान, रस-सिद्धि दे।।

भाव-रस से भरा द्वार पर जन खड़ा,

दीन पर हो दयादृष्टि माँ शारदे।

धर्म दे, अर्थ दे, काम दे, मुक्ति दे,

माँ, प्रभामाल’ सँग सबको निज भक्ति दे।।

 

पुण्याह वाचन

भारत - भारती

प्रभु इस पावन भरत भूमि में पैदा हों जन सार्थक 
आत्म ज्ञान परिपूर्ण सुधी जन, श्रुति पथ के संरक्षक ।। 
शासक , वीर , चतुर न्यायी हों कर्मठ सब नर - नारी । 
सत्य , अहिंसा परहित रत , तप , दान , यज्ञ , अधिकारी । 
समयोचित हो वृष्टि , अन्न , फल , फूल , बहुल वन , उपवन । 
त्रिविध ताप से रहित , धर्म , निज कर्म , निरत , सब सज्जन ।। 
 
वृषभ , कृषि कुशल , उत्तम गौवें , विपुल दुग्ध , घृत दायी । 
अश्व वायु से वेगवान , सब पशु , खग , कृमि , सुखदायी ।। 
ग्राम नगर सब , सुख सुविधा सम्पन्न , स्वस्थ सब प्राणी । 
रहित विकार , वरिष्ठ सुधी जन , सन्मार्गी , कल्याणी ।। 
मानवता से वारत प्रति पल , प्राणिमात्र संरक्षक । 
मर्यादित पथ राम - श्याम - शिव - भरत - भीष्म - अरि - भक्षक ।। 
महिलायें न रहें अबलाये , देवी रूप दिखायें । 
गंगा सी पावन , दुर्गा सी , शक्ति स्रोत बन जायें ।। 
जननी वे , जग की जड़ता कर दूर , स्फूर्ति , गति लायें । 
करुणा , प्रेम , दया सेवा प्रतिमूर्ति , प्रभा फैलायें ।। 
युवजन , ब्रह्मचर्य रत , सुन्दर , स्वस्थ , यम , नियम , पालक । 
 
विद्या , बुद्धि , विवेक , बल - निरत , श्रेय , प्रेय , प्रतिपालक ।। 
 
शान्ति मार्ग के प्रथम पुजारी , समय पड़े पर शोले । 
 
दुष्ट दलन हित , शिव सा ताण्डव , हर - हर बम बम बोलें ।। 
 
प्रभु फिर लौटा दे भारत का , अतीत गौरव सारा । 
 
जगत गुरु , सोने की चिड़िया , फिर हो राष्ट्र हमारा ।। 
 
सतयुग का तप तेज पुनः , त्रेता मर्यादा पावन । 
 
द्वापर दान , नाम जप कलि , फिर भारत स्वर्ग सुहावन ।।
 
 
अरणि मंथन 
 
सीताराम न झुकना सीखे
 सीताराम तिवारी , कट्टर सनातनी , वैष्णव आचार । 
 
यज्ञ , दान , तप , सेवा , संयम , सत्य , शील , शुचि , सद्व्यवहार ।। 
 
धर्मनिष्ठ , कर्तव्यपरायण , सज्जन , सरल , आत्म - अभिमान । 
 
घोर विपन्नावस्था यद्यपि , आगत का स्वागत , सम्मान ।। 
 
पूर्वज कानपुर जनपद के , किन्तु परिस्थितिवश तज गाँव । 
 
सीताराम बसे जा , ग्राम " बदरका " में , जनपद उन्नाव ।। 
 
अभी बदरका ग्राम वास का , बीता था बस , कुछ ही काल । 
 
व्याह हेतु प्रस्ताव बहुत से आये , आखिर सके न टाल ।। 
 
व्याह रचाया धूमधाम से , यथाशक्ति उत्सव ससुराल । 
 
किन्तु विदाई हित विवाद में भड़क उठी क्रोधाग्नि कराल ।। 
 
सीताराम न झुकना सीखे , जागा उनका सुप्त अहम् । 
 
बात बात में बात बढ़ी , लौटे , परित्याग नई दुल्हन ।। 
 
आया नव प्रस्ताव शीघ , आनन - फानन में व्याह हुआ । 
 
विधि विधान वश नई बहू ने , नहीं अधिक दिन साथ दिया ।। 
 
हुई स्वर्गवासी पत्नी दूसरी , तुरन्त तृतीय विवाह । 
 
ग्राम . चन्द्रमन खेड़ा " की , जगरानी देवी से सोत्साह ।। 
 
जगरानी अति उत्तम गृहिणी , परम सरल , गुण कर्म व्रती । 
 
पति परायणा पत्नी पावन , प्रेममयी , बहु पुत्रवती ।। 
 
पाँच पुत्र रत्नों की माता , ममता , करुणा इन्दुमती । 
 
अमर शहीद चन्द्रशेखर की जननी भारत भारती ।।

सीताराम का उपवन उजड़ा 
सम्वत् उन्नीस सौ छप्पन की , अनावृष्टि से पूर्ण विपन्न ।
सीताराम बदरका " तजकर " अलीराजपुर " बसे प्रसन्न ।।  
आपदुद्धर्म विवश गृह त्यागा , नई जगह सब नव परिवेष । 
रहने खाने की न व्यवस्था , विपन्नता से व्यथा विशेष ।। 
पूर्व सुपरिचित सज्जन सुहृद , हजारी लाल के सदसुप्रयास । 
सीताराम को सुलभ हुई . नौकरी तथा समुचित आवास ।। 
किन्तु आदिवासी उत्पातों से . मन उनका खिन्न हुआ । 
स्वाभिमान बस त्याग नौकरी , ग्राम " भाँवरा " वास नया ।। 
सहयोगी बन पशुपालन का काम कुछ दिनों अपनाया । 
मध्य प्रदेशी जिला झावुआ , ग्राम भाँवरा मन भाया । 
विध्य क्षेत्र वर , शुचि , सुरम्य स्थल , वन , पर्वत , सरिता , प्रिय गाँव । 
सीताराम बस गये जाकर , देख सुखद , शुभ सुन्दर ठाँव ।। 
पत्नी को भाँवरा ' बुलाया , त्याग पुरातन , नवल प्रवास । 
प्रथम पुत्र सुखदेव गोद में , बना " भाँवरा " सुखप्रद वास ।। 
मिली नौकरी उन्हें बाग रक्षक की , कुछ दिन बाद वहाँ । 
श्रम पूजा , सर्वत्र सब समय , चाह जहाँ , है , राह वहाँ ।। 
बात धनी , मानव उदार , धार्मिक , सहिष्णु , सद्गुण आगार । 
चुना गाँव ने मुखिया उनको , देख सभी सँग सद्व्यवहार ।। 
सुख , संतोष , शान्ति मय जीवन , नवल प्रेम पल्लव , परिवार । 
सुखदेवोपरान्त जन्मे , सुत क्रमशः तीन , नियति अनुसार ।। 
सुख सुविधा में बिहँस रहा था , दम्पति का सौभाग्य विमल । 
वर्तमान का मात्र वरण , विस्मृत अतीत , आगामी कल ।। 
विधि विडम्बना , बस सहसा पर , गिरा बज , उल्टी गति काल । 
एक एक कर तीनों शिशु क्रमशः हो गये , काल के गाल ।। 
सीताराम का उपवन उजड़ा , साहस धैर्य न पर खोए । 
जगरानी को ढाढ़स देते , फल मिलता , जो हम बोए ।। 
पत्नी को मिथ्या प्रपंच , जग सत्य , बता देते संतोष । 
सुख दुःख , हानि लाभ , यश अपयश , जन्म मृत्यु , विधिबस , गुण दोष ।। 
इश्वर पर विश्वास अटल , सद्कर्म , सदा , सद्भाव सप्रेम ।। 
प्रभु का स्मरण , मात्र जीवन का सार , सतत् श्रद्धा , दृढ़ नेम । 
दुःख पीड़ित जननी जगरानी , भक्ति भाव , जपती प्रभुनाम । 
प्राणि मात्र के परम हितैषी , दया सिन्धु , प्रभु करुणाधाम ।।

अग्नि प्रदीपन 
प्रकट हुआ भारत कुल भूषण 
जगरानी की सफल साधना, दीनबन्धु ने सुनी पुकार । 
उदित सुभग दिन , भाग्य सितारा , आई उपवन , नई बहार ।। 
महक उठी फिर वंश वाटिका , चहक उठा ऑगन , घर द्वार । 
प्रगट हुआ , भारत कुल भूषण , दमक उठा समस्त संसार ।। 
पुण्य सुदिवस , जुलाई तेइस , सन् उन्नीस सौ छ :, शुचिवार । 
जगरानी ने जन्म दिया , गौरव सपूत , बिरला संसार ।। 
पुत्र पाँचवाँ पाकर जननी , भूल गई सब , दुःख पिछला । 
नवल अतिथि आगमन पुण्यफल , कोटिगुना हो स्वतः मिला ।। 
जगा भाग्य जगरानी का , फिर मनोवांछित रत्न मिला । 
विपन्नता के कंटकमय , तरुपर , गुलाब शिशु पुष्प , खिला ।। 
देख देख दुर्बल तन शिशु का , चिन्तित रहती जगरानी । 
अति अभाव से ग्रसित गृहस्थी , कहाँ सुलभ घृत अछवानी
शिशु के रंच रुग्णता भ्रम से , आशंकित माँ अकुलाती । 
दूध जली थी , अतः छाछ भी , फूंक फूंक ही , पी पाती ।। 
पिछले दुःख की स्मृतियाँ बरबस , अश्रुधार बन जाती थीं । 
पूर्व व्यथा , प्रतिपल भय , शंका , के दुःस्वप्न जगाती थीं ।। 
ईश्वर पर अटूट आस्था थी , अन्य विकल्प न था कुछ भी । 
दुःखियों का बस वही सहारा , फलदाता शुभ , अशुभ सभी ।। 
यथासाथ्य सब उचित व्यवस्था , करती लालन , पालन , प्यार । 
क्षण भर भी निज नयनों से , रखती न दूर , मातृत्व दुलार ।। 
जगरानी की भक्ति भावना , फलित हुई , भगवान कृपा । 
पूर्ण कुपोषित शिशु , पर सहसा स्वास्थ्य , रूप , सुन्दर चमका ।। 
होनहार विरवे का पत्ता , चिकना हुआ , समय अनुसार । 
तेजस्वी तन , हृष्ट - पुष्ट , दम्पति उपवन में , नई बहार ।। 
नज़र न लगे किसी की . इस हित , नित्य , भाल , काजल टीका । 
यथासाध्य श्रृंगार नवल नित , चंदा भी लगता फीका ।।

आया नामकरण का शुभ दिन 
आया नामकरण का शुभ दिन , किया पुरोहित ने सुविचार । 
नाम चन्द्रशेखर " रक्खा , गणना पंचांग गणित अनुसार ।। 
शिव का यह पर्याय नाम , शिशु , शिव सा पर कल्याणी हो । 
स्वयं गरल पी जन गण रक्षक , सेवक तन मन वाणी हो ।। 
सद् कर्मों से अपने कायम , ऐसी श्रेष्ठ मिसाल करे । 
जननी जनक सुयश जग फैले , जन्मभूमि का दुःख हरे ।। 
सीताराम पिता जिसके , माता जिसकी जगरानी जी । 
जगत पिता माता का शिशु शेखर , निश्चय कल्याणी ही ।। 
आशीर्वाद पुरोहित का सुन , दम्पति पुलकित , आह्लादित । 
भक्ति भाव से किए प्रभु स्मरण , " वचन सत्य हों तव पंडित ।। ' ' 
लाड़ प्यार में शिशुपन बीता , बचपन विविध , बाल हुड़दंग । 
अल्प आयु में , संस्कार यज्ञोपवीत का सहित उमंग ।। 
पढ़ने लिखने की न व्यवस्था , सुख सुविधा का नहीं सवाल । 
गाँव गली निर्द्वन्द्व मटरगश्ती , दुलार में बीता काल ।।

माँ आँचल भारत माँ आँचल 
शेखर जब कुछ बड़ा हुआ . बालका संग , नित खेल नवीन । 
ऊयमबाजी उठापटक और लुका छिपी में परम प्रवीण । 
टोलीका नेता बनना , अधिकारी बन , देना आदेश। 
अपने से सशक्त से टक्कर लेने में आनन्द विशेष ।। 
गुल्ली , उन्डा , दौड़ , कबड्डी , कूडी , कुश्ती , डन्ड बैठक । 
नाल गदा , मुग्दर , कसरत , योगासन , विविध यथेष्ट , अथक ।। 
दल बन्दी कर , मारपीट , फिर , पुलिस धर पकड़ नाटक न्याय । 
प्रबल शत्रु पर धावा कैसे , मिल सब सहचर , रचें उपाय ।। 
बात बढे तब करें शिकायत , पंडित जी से , व्यक्ति अनेक । 
शेखर पर अंकुश रखिए पंडित जी , वह करता अतिरेक ।। 
शेखर की करतूतें सुन सुन आग बबूला सीताराम । 
पत्नी से क्रोधित हो बोले - ' शेखर करे मुझे बदनाम ।। 
गली गली , घर घर से शिकचा , करता रोज , विविध उत्पात । 
तुम तो उसको रोक न पाती , सुननी पड़ती मुझको बात ।। 
आज उसे दण्डित करके ही , दम लूँगा , थी आँखें लाल । 
हाथ पैर तोदूंगा उसके , खींयूँगा मैं उसकी खाल ।।
पति को क्रोधित देख छिपायी माँ शेखर को घर अन्दर । 
परिचित थी , पति के स्वभाव से , सुमन , सुकोमल क्षण - पत्थर ।। 
विनय प्रेम से आ समक्ष बोली - ' बालक क्षमा करें । 
पुत्र आपका ही है आखिर अपना बचपन याद करें ।। 
पत्नी की स्मित अनुनय रसमय , सुनकर सीताराम प्रशान्त । 
क्षण में सब उलझनें दूर हों , यदि पति - पत्नी हों संभ्रान्त ।। 
उसके बाद पिता जब भी हों , क्रोधित , उस पर , पड़े न मार । 
शेखर जा छिपता , माँ की आँचल छाया में , सहित दुलार ।। 
माँ आँचल में छिपकर शेखर , बने अभय , आनन्द विशेष । 
दम्पति भी आनन्द मग्न , अति सूक्ष्म बीज , भावी परिवेश ।। 
माँ आँचल , भारत - माँ आँचल , परम सुरक्षित , सुखमय वास । 
शेखर के भावी जीवन में , पाया होगा क्रमिक विकास । 
वय से अधिक , विवेक , शौर्य की , सब करतूतें शेखर की । 
क्रान्ति - बीज पल्लवन हेतु , चिर उर्वर मिट्टी , भारत की ।।

बम बारूद बनाना सीखे 
हुडदंगो में बचपन बीता , किशोरपन - पथ बढ़े कदम । 
नव उत्पातों , घातक खेलों में , रुचि लेने का उपक्रम ।। 
दियासलाई जला , उँगलियाँ लो पर रख , हँसते तत्काल । 
सभी तीलियाँ साथ जलाकर , मशाल लौ से , विविध कमाल ।। 
अक्सर जल जाते , परन्तु हँस हँस , बढ़ चढ , खतरों का काम । 
घातक खेलों में घायल पर , कभी दर्द का लिया न नाम ।। 
दर्द भूल आनन्दित हो , कुछ और नया करने की होड़ । 
बम बारूद बनाना सीखे , जीवन में आया नव मोड़ ।। 
पैसों की पर कमी , मुफ्त बम हेतु , रसायन मिले कहाँ । 
फल बेचें , बारूद खरीदें , मित्रों सँग , छिप , यहाँ वहाँ ।। 
किशोर वय की , अपरिपक्वता , भटकन अटपट दिशा कदम । 
आँच पड़ी निज स्वाभिमान पर , दुःखित दीन , प्रतिक्रिया चरम ।। 
जिस उपवन के रक्षक मेरे पिता , हमारा दृढ़ निश्चय । 
फल खाऊँ या बेचूँ , अपना ही सब कुछ , कहते निर्भय ।। 
ज्ञात हुई जब करतूतें , निज सुत की सीताराम को । 
आगबबूला हुए क्रोध से , ठेस लगी , निज आन को ।। 
रक्षक वे कर्तव्यनिष्ठ , ईमान , दीन के थे पक्के । 
उनका ही सुत चोर दुष्ट , अपमान अन्यतम सह न सके ।। 
निर्ममता से लगे मारने , शेखर को , अधमरा किया । 
गई बचाने जगरानी , उनको भी धक्का जोर दिया ।। 
लिया नहीं वेतन बदले में , मालिक से उस माह का । 
स्वामिभक्ति सँग स्वाभिमान दृढ़ , व्यक्ति न सीताराम सा ।।
यही पिता के हाथों से , पहली और अन्तिम , मार रही । 
शेखर को स्थिति असहनीय , है मार नहीं , उपचार सही || 
अहंकार अवगुण होता है , स्वाभिमान सद्वृत्ति विशेष । 
अहंकार से अधःपतन क्रम , स्वाभिमान से कीर्ति अशेष ।। 
स्वाभिमान का सदुपयोग , तन , मन से श्रेष्ठ विचारों से । 
जाति , धर्म , कुल , मातृभूमि मानवता प्रति व्यवहारों से ।। 
स्वाभिमान के सदुपयोग से , महापुरुष बन जाते हैं । 
अक्षय कीर्ति प्राप्त कर जग में , निज स्वलक्ष्य को पाते है ।। 
जीव मात्र है एक तत्वगत , देशकाल बाधित , व्यवहार । 
स्वयं हेतु जो रीति अपेक्षित , परहित वह , आचार विचार ।।

गुरुवर यह गलती क्यों कर
शिक्षित हों , सुखदेव व शेखर , सीताराम की आकांक्षा । 
सौंप मनोहर लाल त्रिवेदी को , अपना मन्तव्य रखा ।। 
परम्परागत गुरु निज गृह में ही तब ज्ञान प्रदान करें । 
खान - पान निःशुल्क , शिष्य , भिक्षाटन से , व्यय वहन करें ।। 
परम्परागत शैली में , इस भाँति , ज्ञानपथ बढ़े कदम । 
दोनों भाई गुरु सेवा में , तत्पर करते वान्छित श्रम ।। 
शिक्षक परम सुयोग्य , ज्ञान - रवि , अनुशासन प्रिय , पर निर्मम । 
रंच भूल पर , क्रोध भयंकर , दंड प्रहार करें हरदम ।। 
विद्याभ्यास के क्रम में करते , बहुधा गुरु जी , बेंत प्रयोग । 
गलती पर निर्मम हो मारे , किन्तु एक दिन उल्टा योग ।। 
स्वयं त्रिवेदी जी से गलती हुई , एक दिन , भूल सुधार । 
किया चन्द्रशेखर ने तत्क्षण , किन्तु साथ ही , तर्क - प्रहार ।। 
गलती पर क्यों बेंत शिष्य पर , यह क्या न्यायोचित गुरुवर
नहीं पूर्ण कोई भी जग में , गुरुवर यह गलती क्यों कर
हर मनुष्य से गलती हो सकती है , यह अति स्वाभाविक । 
विद्यार्थी निर्ममता से पीटे जायें , क्या यह तार्किक
यह अति अनुचित सहसा छड़ी छीन कर तोड़ा , फेंका दूर । 
शिष्य आपका ही हूँ गुरुवर क्षमा करें यदि किया कसूर ।। 
सहसा गुरु जी सन्न रह गये , क्षणिक ग्लानि मनभ्रान्ति हुई । 
किन्तु शिष्य के न्याय तर्क से , शीघ्र आत्मिक शान्ति हुई ।। 
शेखर का उदण्ड कृत्य , सुन , सीताराम हुए क्रोधित । 
किन्तु त्रिवेदी ने समझाया सहज न्याय गुण , स्वाभाविक ।।
नहीं मात्र यह प्रतिक्रिया , प्रतिवाद नहीं , यह मन की आग । 
समय पड़े अवगुण , गुण बनता , अमृत , बन जाता , विष नाग ।। 
शेखर का अन्तर्मन निर्मल , साहस , न्याय , समत्व , निडर । 
गुरु का धर्म बनाना सद्गुण का , सिंचन कर , दृढ़ तरुवर ।। 
पाकर ऐसा शिष्य आज मैं , धन्य हुआ , मेरा विश्वास । 
भारत का भविष्य निर्माता , बने यशस्वी ज्यों आकाश ।। 
जहाँ छत्रछाया हो ऐसे गुरु की , क्षमाशील , गुण धाम । 
निश्चय ही कल्याण वहाँ ' , कह पिता - पुत्र ने किया प्रणाम ।।

समिधाधान 
बम बारूद परीक्षण , शिक्षण 
मनोकामना पंडित जी की , शेखर हो , उद्भट विद्वान । 
धर्म , संस्कृति , चतुर्वेद , षड्दर्शन का , आचार्य महान ।। 
पर प्रवृत्तियों , सब शेखर की , थीं विपरीत , प्रबल संस्कार । 
पढ़ने से चंचल रहता मन , तत्पर पाने को हथियार ।। 
बहुधा गुरु से बना बहाना , छिपकर , जंगल में जाकर । 
यथा योजना , ऊधनबाजी , यहाँ साथियों सँग , मिल कर ।। 
तीर - कमान , निशानेबाजी , डाकू , थानेदार के खेल । 
बम - बारूद - परीक्षण , शिक्षण साहस , धैर्य , बढ़ाना मेल ।। 
बचपन से स्वभावगत अभिरुचि , हृष्ट पुष्ट तन बल की चाह । 
अनुशासन प्रिय शौर्य संयमित , स्वतंत्र जीवन , हित उत्साह ।। 
घर में पिंजरे के पक्षी सा , विवश बना था , बंधन युक्त । 
सद्यः उक्ति न कोई दिखती , मिले उसे जीवन उन्मुक्त ।। 
शेखर की अध्ययन अरुचि को , परख मनोहर लाल ने । 
उसे दिलादी चौकीदारी वृत्ति , अलीपुर राज में ।। 
नौकर बन जीवनयापन शेखर , स्वभाव के था प्रतिकूल । 
अफसर के आगे सलाम नित , ' जी हुजूर ' कहना न कबूल ।। 
बड़ा मानसिक कष्ट , कुछ दिनों , किसी तरह निर्वाह किया । 
खिसक ऐन मौकों पर बहुधा , आये ग्रह सब टाल दिया ।। 
सहयोगी समझाते - ' शेखर नहीं तुम्हारी अच्छी चाल । 
कही नौकरी छूट न जाये , यही रहा यदि , तेरा हाल ।।
शेखर कहता- भाव न बदले . छूटे यह नौकरी भले । 
कल यदि हो छूटनी , आज ही , छूट जाय तो , मुक्ति मिले ।। 
ऐसी चौकीदारी मेरे स्वाभिमान के है प्रतिकूल । 
इससे अच्छा भूखा मरना , परतन्त्रता न मुझे कबूल ।।
नाम मात्र की चौकीदारी , जंगल में एकान्त जहाँ । 
घंटों स्वतंत्र जीवनयापन , चिन्तन , मनन , प्रयास वहाँ ।। 
नव यौवन , उत्साह सजग , बढ़ते शेखर के सुदृढ़ कदम । 
तन मन था , परिपक्व हो रहा , जिज्ञासा जागृति का क्रम ।। 
पनप रही थी , उग्र भावना , गौरव देश , जाति , अभिमान । 
परतन्त्रता भीरुता , जड़ता , के विरुद्ध उठते तूफान ।। 
तोड़ सभी कृत्रिम सीमाएँ , गाँव , गोत्र , गुरु , गेह की । 
स्वतन्त्र जीवनयापन सपना , तोड़ बेड़ियाँ नेह की ।। 
विधिनिषेध मय जीवन , बन्धन , कुन्ठा ग्रसित , कलाप सभी । 
घिसी पिटी जिन्दगी , यन्त्रवत , क्या इन सबसे मुक्ति कभी
देश , धर्म , दर्शन , संस्कृति सभ्यता , हेतु अति जिज्ञासा । 
श्रम साधन , सम्पन्न राष्ट्र . परतन्त्र आज भूखा प्यासा ।। 
कैसे स्वयं स्वतन्त्र बनूं कैसे स्वदेश भी , हो स्वाधीन । 
स्वतन्त्रता गौरव गाथा सुन , उत्साहित खग , पंख विहीन ।। 
प्रबल भावना थी जैसी , शेखर को वह संयोग मिला । 
भाग्य सरोवर में मन चाहा , पंकज ऋतु अनुकूल खिला ।। 
जो रोगी को भावे वह ही , वैद्य बतावे युक्ति सही । 
शेखर के जीवन में भी , चरितार्थ हुई , लोकोक्ति वही ।।

पग पग धन्धे महानगर में
' अलीराजपुर ' में आता , मोतियाँ बेचने वाला एक । 
युवक बड़ा ही मिलनसार , वाचाल बहुत , गुण कर्म , अनेक ।। 
महानगर बम्बई निवासी , युवक आधुनिक , सभ्य , चतुर । 
कारीगर अतिकुशल , शिष्ट , प्रिय , सौम्य , बात , व्यवहार , मधुर ।। 
शेखर से बहुधा वह मिलकर , रुचिकर बातें , सद्व्यवहार । 
भावी बस मन बदला उनका , बतला नगर , स्वप्न संसार ।। 
शेखर की नव किशोर अभिरुचि , परख नगर प्रति , नई ललक । 
स्वतन्त्र पक्षी बन उड़ने की पुलक , जगत की मिले झलक ।। 
बातें बढ़ा चढ़ा शेखर को , किया गाँव गृह के प्रतिकूल । 
सुना - सुना रोचक कहानियाँ , भरा नगर अभिरुचि अनुकूल ।। 
शेखर ने पूछा - ' प्रबन्ध रहने खाने का क्या होगा
मिले काम - धन्धा कोई तब ही मेरा जाना होगा ।।
मोती वाले ने बतलाया - ' बहुत बड़ा बम्बई नगर । 
लाखों लोग वहाँ रहते , रहने खाने की नहीं फिकर ।। 
पग - पग धन्धे महानगर में , करने वाले मिले नहीं । 
मनचाही नौकरी मिलेगी , तुझको निश्चय जाते ही ।।
मोती वाले से आश्वासन , मधुर प्राप्त कर , मन में ठान । 
निर्धारित दिन चुपके से , शेखर ने किया साथ प्रस्थान ।। 
ज्ञात हुई जब सारी बातें , माँ को वजघात लगा । 
पश्चाताप पिता को भारी , भाग्य , प्रबल , विश्वास जगा । 
शेखर का मिलना मुश्किल अब , चले गये सँग सब उत्पात । 
अब न शिकायत कोई करता बिसरे दुर्गुण , गुण की बात ।।
जग जीवन की यह विशेषता , वर्तमान का , कम सम्मान । 
अतीत का विकृत भी स्वर्णिम , अनुपलब्ध का अतिगुणगान । 
कलाकार कवि , क्रान्ति - पथिक , जीवन व्यतीत करते लाचार । 
जब जर्जर तन मन सम्मोहक पुरस्कार , आदर सत्कार ।। 
यदि सक्रिय जीवन में , सद्गुण का , सम्यक सार्थक , सम्मान । 
विषम परिस्थितियों हित , निश्चय , तब मिल जाये , सहज निदान ।।

हुआ प्रयत्न सफल हरि इच्छा 
त्याग भाँवरा गाँव , रेल से , जा पहुँचे बम्बई नगर । 
महानगर में आने का , शेखर का रहा , प्रथम अवसर ।। 
देख रहे थे , विस्मय , अति कौतूहल से , वे सुभग नगर । 
पक्की चौड़ी सड़कों पर , प्रतिपल , बग्गी , कारें , मोटर ।। 
गगन चूमते भवन , बाग , उपवन , सुन्दर , पादप तरुवर । 
नारी , पुरुष विविध परिधान , सुसज्जित ठाटबाट सुन्दर ।। 
सुन्दर सजी दुकान , विविध सामान , बड़ा आकर्षक रूप । 
शेखर अति आश्चर्य चकित हो , देख रहे थे , नगर अनूप ।। 
शोर - शराबा , भीड़ - भाड़ , हो चकित निहारे इधर - उधर । 
मोती वाले का सँग , छूटा , अनजानी सब , दिशा डगर ।। 
पल भर को कुछ व्यथित , सहज हो , निर्भय चले नगर पथ पर । 
चलते - चलते जा पहुँचे वे , जहाँ हिलोरें ले सागर ।। 
वातावरण वहाँ का प्यारा , देख हुआ कुछ मन हलका । 
किन्तु थके थे , चिन्ता भी थी , योग न था , भोजन जल का ।। 
शान्त किया क्षुधाग्नि को किन्चित , देख पौसरा , जल पीकर । 
जल - जहाज को रंगने वाले , मजदूरों पर पड़ी नजर ।। 
कौतूहल बस निकट गये , कुछ बातचीत , कर , दुआ सलाम । 
प्रगट किए मन्तव्य - ' मुझे भी मिल सकता है क्या कुछ काम ' ? 
आवश्यकता जननी है निश्चय ही आविष्कारों की । 
स्वयं प्रयास सफल सार्थक , आसरा अन्य सहारों की ।। 
कर्मवती के लिए मात्र , निज लक्ष्य , स्पष्ट दिखलाई दे । 
तत्पर हो जो कदम बढ़ाते , निश्चय सफल सदा हों वे ।।
शेखर के सामने समस्या , रहने खाने की तत्काल। 
हुआ प्रयत्न सफल , हरि इच्छा , दृढव्रती का यह हा हाल।। 
था व्यक्तित्व प्रभावित करने वाला , सरल , बात व्यवहार । 
जहाज में रंगसाजी की , मिल गई नौकरी , नित्य पगार ।। 
गँवई का शेखर , नगरी में बसा , काम नव , साथ नया । 
भूल गये माँ , बाप , मित्र , गुरु , परिजन , प्रकृति - विहार गया ।। 
साथी श्रमिकों ने , शेखर के , रहने का भी किया प्रबन्ध । 
खानपान में रूढ़िवादिता , छुआछूत , भारी प्रतिबन्ध ।। 
कट्टरपन के कारण कुछ दिन , चना चबैना पर बीता । 
पगार के पैसों से वांछित , बरतन , राशन , लिए जुटा ।।

नगर सभ्यता प्रति आकर्षण 
पाक कला का रंच मात्र भी , शेखर को था ज्ञान नहीं । 
अधिक दिनों तक रूढ़िवादिता , कट्टरता , निभ सकी नहीं ।। 
मजबूरी में छुआछूत सब , आडम्बर का , भेद मिटा । 
होटल , भोजन सुलभ न झंझट , मटरगस्त जीवन प्रगटा ।। 
संस्कार , परहेज , परिस्थितियों बस , बरबस छूट गये । 
नगर सभ्यता प्रति आकर्षण , ठाट बाट अति , नित्य नये ।। 
साथी दुर्व्यसनी पर शेखर , किसी दुर्व्यसन में न पड़े । 
मदिरा माँस , चरस , गाँजा , सिगरेट , बीडी से , नहीं जुड़े ।। 
श्रमिकों की निर्धनता , यद्यपि है प्रचन्ड , अभिशाप स्वयं । 
उस पर भी बहुतों में दुर्गुण , दुर्व्यसनों की , मार न कम ।। 
शेखर को बम्बई नगर की , व्यस्त जिंदगी अति भायी । 
पर नीरस मशीन सी हलचल , बन्धन से बढ़ दुःखदाई ।। 
अधिक दिनों तक , चहल पहल कोलाहल बाँध न सका उन्हें । 
काशी के अनुभवी श्रमिक ने , दिखलाया सद्मार्ग उन्हें ।। 
'
यौवनपथ , पग अभी तुम्हारा , बेटे तुम कुलीन संतान । 
अभी सामने जीवन सारा , बनो श्रेष्ठ शिक्षित इन्सान ।। 
विपन्नता में हम श्रमिकों का , जीवन बीता , रक्त बहा । 
मिला कभी सुख - चैन न हमको , मात्र यन्त्रवत , कार्य यहाँ ।। 
बतलाकर काशी की महिमा , चिर अतीत गौरव , इतिहास । 
प्रगट किया शेखर मानस में , भारत - चिर - सांस्कृतिक प्रकाश ।। 
नर जीवन का मर्म , लक्ष्य , पथ , पौराणिक , ऐतिहासिक कथ्य । 
सुना सुनाकर , नित्य दिया , मानसिक रोगहित , औषधि पथ्य ।। 
गौरव गाथा सुन उचटा मन , भवितव्यता , यथा निर्णय । 
बैठ बनारस की गाड़ी में बोले - ' बम भोले की जय ' ।। 

जल प्रसेचन
विश्वनाथ की नगरी काशी 
बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी , अन्नपूर्णा धाम । 
अबुध अज्ञ जन को दिखलाती , पंथ , लक्ष्य , निज , चिर विश्राम ।। 
काशी तीन लोक से न्यारी , जग प्रसिद्ध , प्रिय नगर , उदार । 
प्राणि मात्र कल्याणाकांक्षी , वसुधा जीव मात्र , परिवार ।। 
गुरु , गोविन्द , गऊ , गायत्री , गंगा , गरिमा का चिरगान । 
पंडित , मूढ , सभी करते , सादर साधन सब , यथा विधान ।। 
विश्वनाथ की नगरी काशी , अतिप्राचीन , परम विख्यात । 
पावन - अर्ध चन्द्र गंगा तट , दर्शनीय अति , जहाँ प्रभात ।। 
बाबा विश्वनाथ अन्नपूर्णा , आदि विश्वेश्वर , बड़ा गणेश । 
पग - पग पर अगणित देवालय , पंच कोश , परिक्रमा प्रदेश ।। 
संकट मोचन मृत्युन्जय संकठा , कालभैरव , दुर्गा । 
जगन्नाथ , काली , चंडी , शीतला , ढुंढि , शनि , नौदुर्गा ।। 
भारत के हर प्रान्त , क्षेत्र के , सिद्ध , प्रसिद्ध संत देवादि । 
आश्रम , देवालय निर्मित सब , धर्म , पंथ , भाषा केन्द्रादि ।। 
भारत माता मंदिर पावन , राष्ट्रवाद का दे संदेश । 
विद्यापीठ , संस्कृत विद्यालय , पांडित्य - प्रकाण्ड - प्रदेश ।। 
सारनाथ का बौद्ध , क्षेत्र , तुलसी , कबीर , रैदास स्थली । 
जैन , मुगल , सिख , राधास्वामी , विविध पंथ से , पली फली ।। 
मणिकार्णिका श्मशान घाट , चिर हरिश्चन्द्र का घाट प्रसिद्ध । 
कभी नहीं बुझती चिताग्नि हैं , जहाँ विचरते साधक सिद्ध ।। 
गंगा - मार्जन , अर्चन , पूजन , यज्ञ , श्राद्ध , तर्पण , तप , दान । 
षोडश संस्कार सब विधिवत , कर्मकाण्ड का यहाँ निदान ।।
काशी में मरने वालों को , शिव जी करते मुक्ति प्रदान । 
एक - एक से बढ़ काशी के घाट , सिद्ध देवता , महान ।। 
प्रचलित है लोकोक्ति यहाँ , कोई भी भूखा नहीं रहे । 
अन्नपूर्णा कृपा , सभी प्राणी नित ही परितृप्त रहें ।। 
महामना की प्रतिभा , पौरुष , पुण्यों का प्रत्यक्ष प्रमाण । 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय गौरव शिक्षा केन्द्र महान ।। 
अनुपम विद्याध्ययन केन्द्र , संस्कृति , संगीत , कला , विज्ञान । 
कृषि - तकनीकी , अधुनातन - औषधि - विज्ञान , ज्वलन्त प्रमाण ।। 
शक्ति , भक्ति , कर्मठता , समता , सादा जीवन उच्च विचार । 
सदा तुष्ट जनजीवन सक्रिय , कभी न व्यग्र , दुःखी लाचार ।। 
निज - निज कर्म निरत सब जन , उर रन्च उद्वेग , न राग , न द्वेष । 
महाकाल नाटक सुपात्र , संलग्न कर्म निज विधा - विशेष ।। 
काशी के विद्वत् समाज की विशिष्टता प्रसिद्ध संसार ।। 
धर्म , कर्म , संस्कृति , दर्शन , अध्यात्म , श्रेष्ठ आचार विचार ।। 
भौतिक , आध्यात्मिक समृद्धि का , काशी है अक्षय भंडार । 
यथा पिन्ड - बह्माण्ड तथावत , भूमण्डल का काशी सार ।। 
जगजननी , जाह्नवी जहाँ स्थिर , शाश्वत , शिवरस प्रणय प्रवाह । 
गंगा विश्वनाथ बाबा की , अभिन्न आद्याशक्ति अथाह ।। 
शक्ति पीठ विन्ध्याचल से चल , काशी विश्वनाथ का स्पर्श । 
पाने को उत्तराभिमुख हो , सत्वर वेग - प्रवाह प्रहर्ष ।। 
हर - हर महादेव शम्भो स्वर , ताल मस्त , थिरकत गंगा । 
काशी विश्वनाथ गंगे ' , स्थिर अंकपाश बाँधत गंगा ।। 
घाट - घाट शुचि स्पर्श प्राप्त कर , भाव जगत डूबत गंगा । 
सर्पाकार त्रिपुण्ड चन्द्र , गलहार , समान सजत गंगा ।। 
गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा का प्रबल प्रवाह । 
सुस्थिर शान्त मात्र काशी में , शिवा - शम्भु का प्रणय अथाह ।।
अस्सी घाट से राजघाट तक , धनुषाकार बसी काशी । 
ओंकारेश्वर , विश्वेश्वर , केदारेश्वर , त्रिशूल वासी । 
काशी सब तीर्थो की नगरी , सभी तीर्थ गंगा में लीन । 
अस्सी , वरुणा , रुद्र , धर्मनद , गौरी आदि , तीर्थ प्राचीन।। 
तीन शतक दशक से अधिक , घाट प्रसिद्ध रुचिर विख्यात। 
राजघाट से अस्सी घाट तक पटे , अनेक घाट अज्ञात ।। 
वैदिक युग से काशी का , धार्मिक आध्यात्मिक संस्कृति रूप । 
आदि युगीन नगर , अविदित इतिहास . किन्तु जगविदित स्वरूप ।। 
विविध , विश्व प्राचीन नगर , संस्कृति सभ्यता , मिटी . गति काल । 
काशी आदि काल से अब तक , अविछिन्न , जग नहीं मिसाल ।। 
काशी का इतिहास वस्तुतः मानवता का चिर इतिहास । 
मूलाधार नगर संस्कृति , सभ्यता , धर्म का आदि विकास ।। 
सुदृढ नींव पर , आधारित चिर नगर , अद्यतन दृढ़ प्राचीन । 
झेले विविध आक्रमण , झंझावत , पर रंच विकार , न पीर ।। 
काशी की मान्यता , यहाँ हो , संस्कृतियों का नहीं विनाश । 
भारत क्या सम्पूर्ण विश्व की , संस्कृतियों का यहाँ प्रवास ।। 
विविध धर्म , पंथों के प्रवर्तकों की , काशी कार्यथली । 
अति प्राचीन , अद्यतन भी , सभ्यता दृष्टिगत बुरी , भली । 
भाषा- भाषी विविध यहाँ पर , मिल - जुल करते , वार्तालाप ।। 
एक दूसरे के प्रति आदर , अति उदार मन क्रियाकलाप ।। 
तमिल , तेलगू , कन्नड , मलयी , असमी , उड़िया , नेपाली । 
उर्दू , पश्तो , पंजाबी , गुजराती , मराठी , बंगाली ।। 
धर्म , पंथ , संस्कृति का संगम , भाषा - भाषी , विविध निवास । 
लघु भारत का दर्शन अनुपम , मिश्रित संस्कृति - सभ्य - विकास । 
दक्षिण भारत की संस्कृति प्रगटित , हनुमान घाट के पास । 
सोनारपुरा , केदारघाट बंगाली , बहुजन करें निवास ।।
मानस मन्दिर , मीरघाट , मारवाड़ी संस्कृति का वर्चस्व । 
ब्रह्मनाल व गाय घाट में , पंजाबी संस्कृति के दृश्य ।। 
दूध विनायक में नेपाली , महाराष्ट्रियन . दुर्गा घाट । 
गुजराती बसते चौखम्भा , अगस्तकुण्ड - सँग रामधाट ।। 
छित्तूपुर का . काश्मीर - सिक्किम - हरियाणा - बहुल स्वरूप । 
पश्चिमार्ध में बिहार - उत्तर - मध्य क्षेत्र का मिश्रित रूप ।। 
मदन जैत - अलईपुर , रेवड़ी , दालमंडी , चौक , नई सड़क । 
मुस्लिम बहुल क्षेत्र पर , संस्कृति , ठेठ बनारस बहुल अदब ।। 
मूल निवासी कम , अधिकांश यहाँ आव्रजक , आगन्तुक । 
परम्परायें अपनी - अपनी , बनारसी पहले , फिर कुछ ।। 
काशी , वाराणसी , बनारस , कहते इसको महाश्मशान । 
अविमुक्त संग , आनन्द कानन , इसका ऐतिहासिक संज्ञान ।। 
इह लौकिक - पारलौकिक कथा पुराण , तिलिस्मों का यह क्षेत्र । 
काल चक्र की , गतिविधियों की धुरी , महाकाल का नेत्र ।। 
विविध मान्यताओं विश्वासों , सहित अंधविश्वास अनेक । 
परम्परा , रूढ़ियों , वर्जनाओं , स्वीकृतियों का , गढ़ नेक ।। 
निर्धन , धनी , भिखारी , दानी , पंडा , साधु , पुजारी , भीड़ । 
झक्की , ओझा , भंग - गजेड़ी , फक्कड़ फकीर , कबीर , जुगीड़ ।। 
सबका जमघट यहाँ अनवरत , अपना दल - बल अपना ठाँव । 
अपनी अपनी मस्ती , बस्ती , बन्धन रहित प्रभाव , स्वभाव ।। 
पाँच - पाँच प्रख्यात विश्वविद्यालय , प्रस्थित यहाँ विशेष । 
हिन्दू - विद्यापीठ - संस्कृत - अरबी , बौद्ध विशद परिवेश ।। 
विद्या , कला , साधना , कौशल का काशी अनुपम संगम । 
तत्वदर्शियों , मनीषियों , दार्शनिकों का जमघट हरदम ।। 
धर्म - कर्म सँग , राजनीति का गढ़ यह नगर , जगत विख्यात। 
अति प्राचीनकाल से अब तक , रहस्यमय महिमा अज्ञात ।। 
बड़ा विलक्षण नगर , विश्व भर में प्रसिद्ध , इसकी विविधा । 
इसीलिए , पर्यटक जगत भर के पाते निज रुचि सुविधा ।। 
काशी नगर अकेला जग में जिसको यह विशिष्ट सम्मान ।। 
भक्का - मदीना , रोग , यरूसलम ' , कहते काबाए- हिन्दुस्तान। 
इसका कण - कण हीरा - मोती , इसका रज - रज है , पारस ।। 
जीव मात्र का मुक्ति प्रदाता , जग में केवल नगर बनारस ।। 
काशी विश्वनाथ का ज्योतिर्लिङ्ग , प्रसिद्ध प्रभाव , स्वभाव । 
नौ दुर्गा , नौ गौरी , चौसठ योगिनियों का , यहाँ जमाव ।। 
द्वादश नहीं चतुर्दश शिवलिंग सँग द्वादश आदित्य मन्दिर । 
छप्पन विनायकों सँग भैरव , दण्ड पाणि के , स्थल शुचि चिर ।। 
मरणासन्न जीव पा जाते मुक्ति सहज , सब करें निवास । 
मरण अगर अन्यत्र , भस्म , शव , काशी यदि छूटे , भव पाश ।। 
सहज मुक्ति का वरण करें , जग जीव जहाँ , प्रियनगर महान । 
लोक सँग परलोक सिद्धि दे , काशी - करवट - तीर्थ प्रधान ।। 
धर्म , पंथ , मत , सम्प्रदाय उप वर्ग क्षेत्र , भाषा , कुल जाति । 
अद्भुत है समभाव , समन्वय , सब में , यह काशी की ख्याति ।। 
रॉड , साँड़ सीढ़ी , सन्यासी , व्यथा सुनाते , जन नादान । 
जिनकों नहीं दृष्टिगोचर हों , काशी के आदर्श महान ।। 
ऐसी गरिमा मंडित काशी में , शेखर का शुभागमन । 
यथा नाम , गुण , तथा हेतु , शिव वरदहस्त , शुभ वातायन ।। 
काशी की चिर परम्परा , धनवान , धार्मिक , दानीजन । 
चला रहे धर्मार्थ संस्थाएँ , द्विज छात्रों हित , तन धन ।। 
रहने खाने की सब सुविधा , आवश्यक वस्त्राभूषण । 
ग्रन्थ आदि निःशुल्क , सुलभ सब , गुरु सेवा बस , सहित लगन । 
विद्या की नगरी काशी में , संस्कारी ब्राह्मण शेखर । 
विद्याध्यन हेतु तत्पर हो गया , पूर्ण दृढ़ निश्चय कर ।। 
शेखर ऐसी शुभ संस्था का , आश्रय लिया . अपूर्व लगन । 
रट डाला ' सिद्धान्त कौमुदी ' अमरकोश ' आनन फानन ।। 
संस्कृत भाषा . भारतीय संस्कृति की . अमर धरोहर जो । 
धर्म - ज्ञान - विज्ञान प्रकाशक , सुलभ हुई , सो शेखर को ।। 
काशी की अद्भुत महिमा , गंगा नहान शंकर पूजन । 
रामायण भागवत कथा श्रुति , स्मृति , सद्ज्ञान सुलभ , सज्जन ।। 
शेखर को सत्संग प्रिय लगा , श्रद्धा बढ़ी कथाओं में । 
रस लेते यद्यपि सब रस में , अधिक वीर गाथाओं में ।। 
कजली , विरहा , चइता , आल्हा , लोकगीत के आयोजन । 
आकर्षित करते , शेखर को , उत्प्रेरित आनन्दित , मन ।। 
राम - रास - लीला , नौटंकी , यहाँ वहाँ नित ही थी धूम । 
शेखर का भावुक किशोर मन , देख देख जाता था झूम ।। 
बहुधा जा मणिकार्णिका घाट , देखे घंटों अंतिम संस्कार । 
क्षण भंगुर तन , चिन्तन , ' कर्मयोग से ही , जीवन उद्धार ।। 
सभा राजनैतिक जुलूस , भाषण , नारेबाजी , जयकार
फड़काती , शेखर की बाँहें , स्वतन्त्रता हित , सुन ललकार ।। 
नित्य अखाड़े में कसरत , कुश्ती , पंजा , अजमाना जोर । 
बने शक्तिशाली आकांक्षा , शोषित जग निर्धन , कमजोर ।। 
इसी भाँति बीते कुछ दिन , स्वाध्याय शक्ति संचय , सोत्साह । 
संयम , धैर्य , विवेकवान् निज लक्ष्य बनाते वांछित राह ।।

देवासुर संग्राम , सतत क्रम 
हुए व्यवस्थित जब , शखर तब , पूज्य पिता को पत्र लिखा । 
पत्र प्राप्त कर , पिता प्रफुल्लित . बीती उनकी , पूर्व व्यथा ।। 
कुशलक्षेम का पत्र प्राप्त कर.हुए सभी परिजन , सन्तुष्ट । 
आशीर्वाद , प्रार्थना शेखर , प्राप्त करें , शुभ , सभी अभीष्ट ।। 
आशावान जनक जननी , शेखर का सुनकर , मंगल हाल । 
होगी दूर विपन्नास्था , निश्चय सहाय होगा , लाल ।। 
हम सबकी प्रभु यही प्रार्थना , शेखर बने गुणी , विद्वान । 
अर्जित करे अर्थ यश अक्षय , देश , जाति हित , त्याग , महान ।। 
शेखर का जीवन सीमित , रहा , केवल हित , कुल , परिवार । 
निज परिजन से बढ़ कर उनको , जन्मभूमि , भारत से प्यार ।। 
आशीर्वाद पिता परिजन का , संचित कर्मों के अनुसार । 
शेखर के प्रारब्ध प्रगट , पुरुषार्थ , यथा चिन्तन , व्यवहार ।। 
लोक , वेद की मर्यादा में , जब जब असन्तुलन होता । 
तब तब महापुरुष प्रगटित हो , देशकाल पीड़ा हरता ।। 
युग युग का यह अटल सत्य , जब मानवता पर अत्याचार । 
सृष्टि संतुलन बिगड़े , तब होता , विभूतियों का अवतार ।। 
ईश्वर अंश जीव जगगति , सब है परमात्मा , के आधीन । 
जड़ चेतन , परतन्त्र , नाचते , माया विवश , नहीं स्वाधीन ।। 
सत , रज , तम , गुण मय , सारा जग , पूर्ण संतुलित व्यष्टि समष्टि । 
दैव आसुरी , वृत्ति , गुण , अगुण , पुण्य , पापमय , सारी सृष्टि ।। 
देवासुर संग्राम सतत क्रम , काल , कर्म गुण तथा स्वभाव । 
ईश्वर निज इच्छा लीलारत , आंशिक , पूर्ण स्वभाव , प्रभाव ।। 
परम स्वतन्त्र , ब्रह्म स्वेच्छा से , ईश्वर बन , निज माया रूप । 
अथवा , अंशरूप जीवात्मा , माध्यम से क्रीड़ा अनुरूप ।। 
व्यष्टि , समष्टि , सृष्टि , गति सारी कठपुतली बस सूत्राधार । 
यथा पिन्ड ब्रह्माण्ड गति वही नेति नेति अनन्त विस्तार ।। 
उद्भव पालन , प्रलय , सृष्टि क्रम सतत , नियन्ता के अनुसार । 
जन्म , कर्म , प्रारब्ध जगे , शेखर के अनुपम , यद् - संस्कार ।। 
मोह ग्रसित , मानव यदि समझे , सृष्टि , सत्य निश्चय कल्याण । 
छुद्र , अधोगति मार्ग त्याग , वह , वरण करे , आदर्श महान ।। 
जीव जगत , अधिकांश स्वार्थरत , मिथ्या लोभ , मोह , अभिमान । 
शेखर से विरले कुछ प्राणी , परहित पथ पर , चलें सुजान ।।

आज्याहुतियाँ 
गोरों का शासन समाप्त हो 
गाँधी जी के , असहयोग आन्दोलन की सुनकर ललकार । 
कमर कस लिए भारतीय , करने को मातृभूमि उद्धार ।।
गोरों का शासन समाप्त हो , असहयोग है , सार्थक मंत्र । 
काँग्रेसी प्रस्ताव हुआ स्वीकृत , भारत हो शीघ्र स्वतंत्र ।। 
असहयोग आन्दोलन की . जन - जन चिनगारी , बनकर आग । 
गाँधी की आँधी से भभकी , फैल गई , भारत प्रतिभाग ।। 
अध्यापक , अधिवक्ता , अभियन्ता , अधिकारी आदि प्रवर । 
कृषक , श्रमिक , सब त्याग कर्म निज , राष्ट्रधर्म हित , सब तत्पर ।। 
कोटि बाहु पग , शक्ति पुन्ज बन , बढ़े वीर , भारत सन्तान । 
एक एक से बढ़कर त्यागी , कर्मठ , दानी , धीर महान ।। 
भारत की गौरव नगरी , काशी चिनगारी धधकी । 
संस्कृत कालेज के धरने से , असहयोग ज्वाला भभकी ।। 
नेताओं के आह्वान पर , असहयोग का जन - तूफान । 
काशी में भी प्रबल ज्वार सी , जाग उठी भारती महान ।। 
शेखर जैसे बढ़ते पादप को , वांछित जल , वायु , प्रकाश । 
स्वभावतः सब प्राप्त लगा होने , वट - वृक्ष बढ़ा आकाश ।। 
नित्य पुस्तकालय में जा , शेखर का नियम , पढ़ें अखबार । 
राष्ट्रीय गतिविधि में , रुचि लेने का , उनका बना विचार ।। 
सदा साथियों के सँग बहसें , उत्तम , मध्य , निकृष्ट , निदान । 
चिन्तन , मनन , अध्ययन अभिरुचि , मिटने लगा , जड़त्व अज्ञान ।। 
गंगा तट पर बैठ निहारें , लहरों की चंचल हलचल । 
सतत त्वरित गति जल की कहती , मानव तू भी बढ़ता चल ।। 
देख पक्षियों को नभ में उड़तें स्वच्छन्द भरें , वे आह । 
तुच्छ जीव का स्वतन्त्र विचरण भारत अब भी भटका राह ।। 
कभी कहीं एकान्त रात्रि में बैठ , मौन गम्भीर , विचार । 
परतन्त्रता बेड़ियाँ टूट , कैसे हो , भारत उद्धार ?
गाँधी जी का असहयोग आन्दोलन , क्या सार्थक हथियार
मात्र अहिंसक आन्दोलन से . क्या भारत का बेड़ा पार । 
गिनती के अंग्रेजी शासक , कोटिक भारत जन लाचार । 
एक साथ उठ खडे अगर हा , पल मे हो भारत उद्धार।। 
सम्भव कैसे बँधी , एकता - सूत्र , सभी भारत सन्तान । 
कोटि बाहु पग बने सुदृढ तन , एक , लक्ष्य हित , तन , मन , प्राण ।। 
धर्म , जाति , भाषा , क्षेत्रों , की , लधु दीवारों की जंजीर । 
हम आपस में लड़ते आये , सदा यही , इतिहास नजीर ।। 
ऊँच - नीच , निर्धन - धनवानों का विशाल अन्तर , जब तक । 
सम्भव नहीं , बने भारत माँ सुदृढ़ सूत्रवत रजु , तब तक ।। 
सभी विषमताओं का जब तक होगा , सम्यक अन्त , नहीं । 
शोषण अत्याचार विविध , उत्पीड़न होंगे , बन्द नहीं ।। 
जाति , धर्म , कुल , सम्प्रदाय के झगड़े यद्यपि हैं अगणित । 
किन्तु विकटतम विग्रह का कारण , निश्चय ही , है आर्थिक ।। 
अर्थ भेद के कारण , शोषक , शोषित वर्ग , विश्व में , व्याप्त । 
इस विभेद का अन्त अगर , सब भेद स्वतः , हो जाय समाप्त ।। 
अंग्रेजों ने व्यापारी बन , भारत में कर लिया , प्रवेश । 
कूटनीति , छल , बल कर , बन्दरबाट , लूटते , भारत देश ।। 
जमा लिए जड़ , पहले उँगली पकड़ी , फिर पहुँचा पकड़े । 
भिक्षुक से आये , हम सबको आज , बेड़ियों में जकड़े ।। 
जैसे भी हो , इन्हें हमारा देश छोड़ जाना होगा । 
साम , दाम , से अगर न माने , दण्ड , भेद , करना होगा ।। 
प्यारी मातृभूमि हम सबकी , परदेशी का यहाँ न काम । 
भगा न लूँ जब तक इन सबको , मन को नहीं मिले विश्राम ।। 
अतः आज संकल्प हमारा , मातृभूमि हित तन , मन , प्राण । 
न्योछावर है , कटे दासता बेड़ी , हो भारत का ब्राण ।। 
है ईश्वर प्रण रखना , क्रान्तियज्ञ पूर्ण हो , दो वरदान । 
आहुतियाँ देने को तत्पर हों भारत जन , यह आहवान ।। 
दिन भर शुभ चिन्तन में बीता , सुखद स्वप्न में रात्रि निशेष । 
प्रातः परम प्रफुल्लित था मन , कारण , निश्चय वरद विशेष ।।

शिव ताण्डव के बन प्रतीक 
नेताओं के आवाहन पर , भारत भर के नर - नारी । 
कूद पड़े , सब असहयोग आन्दोलन में , उमंग भारी ।। 
विद्यार्थी क्यों पीछे रहते , छोड़ चले कुछ विद्यालय । 
गली - गली में गूंज उठा , नारा- भारत माता की जय '।। 
अंग्रेजों तुम भारत छोडो ' , ' हिन्दुस्तान हमारा है ।
लाल किले पर फहरायेगा ध्वजा तिरंगा प्यारा है ।। 
आया पुण्य . सुभग , गौरव दिन , क्रान्ति वीर शेखर नन , प्राण । 
हुआ प्रकाशित , जागा भारत गौरव , त्याग , शौर्य , बलिदान ।। 
निकल पड़ा बाँका किशोर , साहसी वीर , नेतृत्व प्रधान । 
लिए किशोरों की टोली , आजादी आकांक्षी बलवान ।। 
असहयोग आन्दोलन प्रेरित , कर्मव्रती , योगी , निष्काम । 
जन्मभूमि हित बाँध कफन , सिर , कूदा , स्वतन्त्रता संग्राम ।। 
बढ़ चली किशोरों की टोली , दस दिशा व्याप्त जय , जय ध्वनि थी । 
गम्भीर गगन भेदी नारों से , धरती ध्वनित , प्रकम्पित थी ।। 
'
हिन्दुस्तान जिन्दाबाद ' , ' भारत माता की जय ' नाद ।
अंग्रेजों तुम भारत छोड़ो ' ' देश हमारा हो आजाद ' ।। 
आजादी के मतवालों , बालकों , किशोरों की टोली । 
मुख मण्डल पर तेज , शौर्य , दो दर्जन मात्र , बड़ी भोली ।। 
शेखर उस टोली का नेता , तेज , ओज , निर्भय अनुपम । 
नगर बनारस , मुख्य मार्ग , पर , मतवालों के बढ़े कदम ।। 
मुख पर साहस , शौर्य , धैर्य दृढ़ , संकल्पित मन , मत्त मतंग । 
चिन्ता नहीं , दमन उत्पीड़न की , अरिजन सब , सहसा दंग ।। 
देख रहे आश्चर्यचकित , सब , नगर निवासी , बालक वीर । 
देख जोश , उत्साह सभी में , टूटेगी भारत जंजीर ।। 
असहयोग आन्दोलन की , चिनगारी अब , शोला बनकर । 
लगी जलाने अंग्रेजी साम्राज्य , ब्रिटिश कॉपे थर - थर ।। 
अंग्रेजों की कुटिल नीति , यद्यपि , आजादी दीवाने । 
शिव ताण्डव के बन प्रतीक , निकले स्वतन्त्रता परवाने ।।

बढ़ चला किशोर दल 
बढ़ चला किशोर दल । लक्ष्य पथ , कदम अटल ।। 
विविध नाम , रूप , संग । विविध वेष , चले संग ।। 
फटे हाल , सँग , कुलीन । लक्ष्य हित , लगन नवीन ।। 
धर्म , जाति , कुल विभेद । लक्ष्य में , न रंच भेद ।। 
भूल धर्म , पंथ जाति । युक्त सुदृढ़ रज्जु भाँति ।। 
लक्ष्य पथ , बढ़े कदम । किसी में न , जोश कम ।। 
सब किशोर , अल्प आयु । तेज तीव्र , अग्नि वायु ।। 
सिंह शेर से , युवक । शत्रु स्यार , को सबक ।। 
गाँधी जी का आह्वान । एक जुट गीता , कुरान ।। 
देश दुर्दशा , व्यथित । क्रान्ति अग्नि , प्रज्ज्वलित ।। 
सहेगें न अत्याचार । शोषण , दमन , दुराचार ।। 
बाहु , पग में जोश था । मन , हृदय में रोष था ।। 
कर कदम , कृपाण से । नेत्र , अग्नि - बाण से ।। 
सिंह से दहाड़ते । वज्र से, पहाड़ से ।।
शौर्य , सिंधु से गम्भीर । बढ़ चले स्वलक्ष्य वीर ।। 
क्रान्तियज्ञ जिन्दाबाद । जयति हिन्द का निनाद ।। 
गाँधी गोखले की जय । बोलते सभी अभय ।। 
शेखर के साथ - साथ । अनुशासन बद्ध हाथ ।। 
संगठित , सुशैन्य सम । बढ़ रहे , सधे कदम ।। 
एक लक्ष्य , एक पंथ । ब्रिटिश राज्य का , हो अन्त ।। 
भारत माता की जय । अंग्रेजी राज्य क्षय ।। 
हम न रुकेंगे कभी । हम न झुकेंगे कभी ।। 
एक सूत्र हम सभी । लाख जुडेंगे अभी ।। 
मातृभूमि के लिए। राष्ट्र ध्वजा के लिए ।। 
धर्म , संस्कृति हितार्थ । त्याग कर , समस्त स्वार्थ ।। 
देश सेवा की लगन । निकल पड़े , करके प्रण ।। 
राष्ट्र को जगायेंगे । गोरी को भगायेंगे ।। 
अपना देश हो स्वतन्त्र । हो विनष्ट राजतन्त्र ।। 
हम स्वराज्य पायेंगे । हम सुराज लायेंगे ।। 
लोकतन्त्र का निनाद । समाजवाद , समत्ववाद ।। 
सब विभेद , त्याग कर । श्रम , कौशल , अपनाकर ।। 
भोजन , कपड़ा , मकान । शिक्षा , आरोग्य दान ।। 
यथा साध्य , सब समान । लक्ष्य , उच्चतम महान ।। 
राष्ट्र को उठायेंगे । सब समृद्धि लायेंगे ।। 
जगद् गुरु , पुनश्च देश । प्राणि मात्र , को न क्लेश ।। 
धर्म जय , अधर्म क्षय । कुशल कर्म की विजय ।। 
एक कुल वसुन्धरा । राष्ट्र चिर परम्परा ।। 
जग का कल्याण हो । श्रेष्ठ , सत्य , ज्ञान हो ।। 
जागो भारत महान । कर्म में निहित निदान ।। 
कर्म ही पूजा उत्कृष्ट । भारत जन को अभीष्ट ।। 
कर्म , भक्ति , योग ज्ञान । वरद प्रभु कृपा निधान ।। 
सत्य , प्रिय , अहिंसा पथ । परहित सेवा का व्रत ।। 
धर्म , चिर परम , महान । लोकसंग्रह , मोक्ष , ज्ञान ।। 
यज्ञ , दान , तप , सुकर्म । अहं , मोह , रहित धर्म ।। 
जीव मात्र के हितार्थ । कर्म , श्रेष्ठ , त्याग स्वार्थ ।। 
तन मन , जीवन , सहर्ष । त्याग धरणि , भाम , अर्थ ।। 
लोक के हितार्थ कर्म मर्म , सार , परम धर्म ।। 
इस प्रण का परिपालन । इस पथ पर , पग चालन ।। 
धर्म सनातन महान । सुलभ कर , करुणानिधान ।। 
श्रद्धा विश्वास हमें। अर्पित सब , कर्म तुम्हें ।। 
रखना भारत की लाज । चिनगारी बनी आग ।। 
जलें दुष्प्रवृत्तियाँ । बढ़े सद्प्रवृत्तियाँ ।। 
जग भर भारत प्रकाश । दानवता का विनाश ।। 
हमें । विजय का दो वरद दान । भारत फिर हो महान ।। 
जय भारत जय , जन - मन । जय स्वतन्त्रता , प्रियगण ।। 
दश दिशि , प्रति पग , प्रतिक्षण । जय जय प्रतिध्वनि , कण कण ।। 
बदे जा रहे किशोर । जय , जय , नभ - धरा शोर ।। 

भारत माता के वीर लाल 
कर में न किसी के अस्त्र - शस्त्र । 
सबके सर पर था , कफन वस्त्र ।। 
निज लक्ष्य , पंथ पर , सधे कदम । 
सब आत्म बली , उत्साह न कम ।। 
कम्पन , गर्जन घन घटा , गगन । 
भूधर डगमग , स्थिर , रवि , स्यन्दन ।। 
लख तेज , शौर्य , सुर , स्वर्ग , मगन । 
आशीष भाव , सुरवृक्ष सुमन ।। 
ये बाल नहीं , विकराल काल । 
भारत माता के , वीर लाल ।। 
कोमल प्रसून , पर दृढ़ कृपाण । 
अरि अहंकार , हित अमुघ बाण ।। 
बढ़ चले लक्ष्य , पथ , सिंह शावक । 
भारत माँ का , ऊँचा मस्तक ।। 
उर में उत्साह , अपूर्व जोश । 
करते जय, जय का , वज्र घोष ।। 
इनसे जो भी टकरायेगा । 
वह चूर - चूर हो जायेगा ।। 
चिर शौर्य , धैर्य के , ये प्रतीक । 
है सत्य , शील की , सदा जीत ।। 
ये बल , विवेक , दम , अश्व चढ़े । 
परहित पथ पर , भी कदम बढ़े ।। 
ये क्षमा , कृपा , सम , रज्जु जुड़े । 
दानी , विज्ञानी , बुधिक बड़े ।। 
है ईश भजन , इनका स्व - कर्म । 
वैराग्य पूर्ण संतोष धर्म ।। 
ये अमल , अचल , मन , अस्त्र मजे । 
यम , नियम , तथा सम , शस्त्र सजे ।। 
पूजा गुरु , विप्र , कवच , रक्षक । 
सब विजय साज , अरिदल भक्षक ।। 
निश्चय ही इनकी होगी , जय । 
है धर्म रथी की , सदा विजय ।।

आजादी का अलख जगाने 
एक लक्ष्य था . एक ध्येय था , एक मार्ग था , एक सफर । 
एक भावना सूत्र बँधे थे , अगणित भारत नारी नर ।। 
आजादी का अलख जगाने , चला जलूस किशोरों का । 
बन विराट तन जगा देश , दिल लगा कॉपने गोरों का ।। 
शेखर पल - पल हाँक लगाता , बढ़े चलो , साथी निर्भय । 
जोर जोर से एक साथ , बोलो - ' भारत माता की जय ।। 
जयहिन्द ' ' जय भारत माता ' वन्देमातरम ' का सिंह नाद । 
कण कण से प्रति ध्वनित , प्रकम्पित , जनता का उमड़ा सैलाब ।। 
गूंज उठा स्वर , जय जय का . हिल उठा गगन , भू काँप उठी । 
जय निनाद सुन चेतन तो क्या , पत्थर पिघले , भाप उठी ।। 
देश प्रेमियों का सीना , दूना बढ़ कर उत्साह हुआ । 
किन्तु कायरों , गद्दारों का , वक्ष फटा , दस फाँक हुआ ।। 
डरपोकों ने डरकर , निज , खिड़की दरवाजे , बन्द किए । 
ब्रिटिश पिटठुओं का ताना - ' मच्छर - पतंग क्या युद्ध किए
ये किशोर क्या टिक पायेंगे , लाठी और बन्दूक समक्ष । 
भागेगें सब पुलिस देखकर , जेल यातना , विपदा कक्ष ।। 
फुरसत कहाँ सुनें टीका टिप्पणी , बने जो दीवाने । 
सदा शमा पर जलते आये , युग - युग से हैं परवाने ।। 
कदम मिलाकर सस्वर गाते , राष्ट्रगीत , करते जयकार । 
बढ़ा जा रहा था , किशोर दल , अद्भुत थी उमंग , ललकार ।। 
आ पहुँची एक पुलिस की टुकड़ी , कुत्तों सी सूंघती मही । 
तितर बितर , कुछ कायर डरकर , वीर युवक , सब डटे वहीं ।। 
देख पुलिस की टुकड़ी को , पुरजोर , गगन भेदी जयनाद । 
शौर्य , धैर्य रोमांचक चेहरा , रंच न भय , चिन्ता , , विशाद ।। 
टोली को ली घेर पुलिस ने , हाथों में हथकड़ी पड़ी । 
खुशी - खुशी चल पड़े वीर सब , पग - पग पर थी , भीड़ बड़ी ।। 
बंदी बना , पुलिस किशोर दल को , थाने ले गई , तुरन्त । 
खाना पूर्ति किया , विधिवत सब , मजिस्टेट के समक्ष , अन्त ।।

नाम मेरा आजाद 
मजिस्ट्रेट के समक्ष , सीना तान खड़ , सब बालक वीर । 
लगा पूछने , पहले शेखर नेता से , वह प्रश्न अधीर । 
क्या है नाम तुम्हारा बालक ? ' बिना हिचक बोले शेखर
नाम मेरा आजाद ' पूर्ण गरिमा मंडित था , प्रति उत्तर ।। 
पिता नाम क्या ? पूछा क्रोधित , गरज कड़कती सी , आवाज । 
निडर पुन- बोला शेखर - ' श्री पिता नाम भी है , आजाद ।। 
ऊपर से नीचे तक घूरा मजिस्ट्रेट ने शेखर को । 
उद्दण्ड घमण्डी यह अपमानित करे , अदालत को ।। 
'
कहाँ तुम्हारा घर ' ? वह आग बबूला होकर चिल्लाया । 
'
भारत मेरा घर ' बोला शेखर , निर्भीक , न घबराया ।। 
खाक हुआ जल भुनकर अफसर , शेखर के सुनकर उत्तर । 
कौन कठोर दण्ड दूं इसको , लगा सोचने कर सर धर ।। 
बालक अति उद्दण्ड , किन्तु नाबालिग , उचित न कारावास । 
खीझ सुनाया , पन्द्रह बेंत सजा , शेखर , को ब्रिटिश - खवास । 
रंच भी विचलित हुआ न शेखर , सुनकर ऐसी सजा कठोर । 
'
भारत माता की जय ' बोला , साहस , शक्ति , लगा पुरजोर ।। 
अन्य बालकों को पहली गलती कह , सबको छोड़ दिया । 
नेता शेखर अलग - थलग हो , कूटनीति रच , फोड़ दिया ।। 
पुलिस ले चली , जेल हथकड़ी लगी लगाने , उसको घेर । 
छलक पड़ा विद्रोह , तड़क बोला , क्यों करते , अब अन्धेर ।। 
सजा मिली जो मुझको मारो बेंत , पुलिस सुन हुई अवाक् । 
जेल पहुँच मारने लगा , जेलर , शेखर को बेंत सटाक ।। 
पड़ने लगीं सटासट बेतें साट पीठ , उधड़ी चमड़ी । 
बेंत मार से पीठ छिल गई , गर्म रक्त धारा उमड़ी ।। 
बेंते पड़ती रहीं , न शेखर किंचित आह , कराह किया । 
'
भारत माता की जय ' , का प्रति बेंत मार पर , नाद किया ।। 
चकित भाव विह्वल दर्शक दल , अटल खड़ा शेखर नाहर । 
साहस देख सराहा सबने , दुःख से मूर्छित कुछ कायर ।। 
पन्द्रह बेतें पड़ीं , पीठ पर , ' जय भारत माँ ' , कह झेला । 
शोणित प्लावित पीठ , बोल ' जयहिन्द ' , बिहँस घर ओर चला ।।

धन्य कोख जगरानी की 
रहते थे आजाद ज्ञानवापी में , विश्वनाथ दरबार । 
क्षण में व्यापी खबर नगर भर , लगी भीड शेखर के द्वार। 
साहस शौर्य धैर्य गाथा सुन , जन जन दर्शन लालायित । 
देख दुर्दशा , निर्दयता , क्रूरता . छुद्रता भी , लज्जित ।। 
जन - जन का था श्राप - भाव अंग्रेजो का लख अत्याचार।। 
अब न बचेगी गोरी पल्टन , अब न चलेगी यह सरकार । 
एक - एक इन रक्त बूंद से , प्रगटेगी कालिका कराल ।। 
निश्चय ही अब अन्त निकट , जो अंग्रेजी साम्राज्य विशाल । 
लेप लगा , दी दवा किसी ने , वस्त्र , अंग कर , प्रक्षालित । 
किया सिकाई , पीड़ा क्रमशः शमित हुई , हिय आह्लादित ।। 
हुआ नागरिक अभिनन्दन का निर्णय , भीड़ विपुल , जयनाद । 
आजादी के दीवाने का , उस दिन नाम पड़ा ' आजाद ।। 
पत्र - पत्रिकाओं में शेखर के अदम्य साहस की धूम । 
जनता ने सर आँखों पर बैठाया , उसका मस्तक चूम ।। 
अभिनन्दन मे शौर्य , धैर्य , साहस - परिपूर्ण , किया भाषण । 
जीवन भर आजाद रहेगें , यह संकल्प किया तत्क्षण । 
अब न दुबारा इन हाथों में , कभी हथकड़ी का दुर्योग ।। 
मरते दम तक आजादी के , लिए सतत् तन - मन उपयोग । 
जब तक तन में प्राण , सदा भारत माता हित , हर बलिदान । 
यही मेरा संकल्प आज से , निकल पड़ा हूँ सीना तान । 
धन्य कोख जगरानी की , जिसने शेखर को जन्माया ।। 
सीताराम धन्य , भारत - कुल - दीप , साहसी सुत पाया ।। 
भारत की पावन मिट्टी की , चिर सुगन्ध पोषक पहचान । 
युग - युग से पैदा होते आये , शेखर से , वीर महान ।। 
शेखर का आवास , ज्ञानवापी का , विश्वनाथ परिसर । 
युवकों का प्रेरणास्रोत बन गया , तभी से तीर्थ प्रवर ।। 
हर हर महादेव की जयध्वनि , शंख घड़ी , घण्टों का नाद । 
साथ साथ ' भारत माँ की जय ' , ' जय - गाँधी ' , ' जय - जय आजाद ' ।।

काशी वियापीठ द्वार खुल गया 
शेखर अब ' आजाद ' नाम स . हुए दश भर में सरनाम। 
घर - घर में चर्चित सब उनक , साहस , शाय , धर्य , के काम ।। 
दैनिक समाचार पत्रों से , ज्ञात हुआ जब , विस्तृत हाल । 
प्रबल विरोध प्रगट जनता का , जगह - जगह धरना , हड़ताल ।। 
विशेषकर युवकों में , बदला लेने की , अति तीव्र लहर । 
समय - समय अनुकूल वायु पा , आन्दोलित हो , हिय सागर ।। 
काशी विद्यापीठ , राष्ट्रहित चिन्तन केन्द्र , विशिष्ट महान । 
जहाँ समर्पित भाव अनेकों , सेवारत उद्भट विद्वान ।। 
ख्याति प्राप्त चिन्तक , शासक , शिक्षक , विद्वान , प्रकाण्ड विशेष ।। 
धर्म , नीति , संस्कृति , सामाजिक , आर्थिक , राजनीति - उपदेश । 
राष्ट्रीयता प्रधान , वहाँ परिवेश , राष्ट्रहित की चर्चा ।। 
धुन सवार सब में , अंग्रेजों से डट लेने , को मोर्चा । 
बहुधा ही गणमान्य , राष्ट्र नेताओं का , आगमन उमंग ।। 
वाद विवाद , अध्ययन , शंका समाधान हित नित सत्संग । 
काशी विद्यापीठ के शिक्षक , विद्यार्थी , मिलकर सोत्साह ।। 
शेखर का स्वागत , अभिनन्दन किए जुटा जन सिन्धु अथाह । 
वहीं हुआ सबका शुभ निर्णय , शेखर के अध्ययन हितार्थ ।। 
काशी विद्यापीठ द्वार खुल गया , स्वयं सब परम कृतार्थ । 
मिला प्रवेश उन्हें तत्क्षण , अध्ययन हेतु अनुकूल लगन ।। 
गुरुजन - शिष्य सुयोग्य , सखा सब , खुला ज्ञान का वातायन ।। 
ज्ञान ध्यान की नगरी काशी , अद्भुत महिमा , शंभु - कृपा । 
सहज रमे आजाद , संस्कारी सत्संग , यथा सब पा ।। 
स्नान - ध्यान , संध्या , वन्दन.पूजन , अर्चन , योगासन । 
सहज यम , नियम , आसन , प्राणायाम , समाधि , यथा क्रम ।। 
मंत्र महामृत्युन्जय जपते , मृत्युन्जय मंदिर में । 
तन्त्र सूत्र अनुशीलन , अनुपालन , भैरव मंदिर में ।। 
मंगल को दुर्गा दर्शन , संकट मोचन में कीर्तन । 
प्रायः अन्नपूर्णा , विश्वनाथ दर्शन , प्रतिदिन ।। 
नियमित गंगा स्नान , संकठा , काली . पूजन - अर्चन । 
देवी संकट दूर करो भारत का , कर अरि - मर्दन ।। 
पंच कोश की परिक्रमा , तीर्थाटन पर भी जाते । 
जन - जन की श्रद्धा , आस्था के , चिन्तन में , खो जाते ।। 
यह अगाध श्रद्धा - सागर , फिर भी परतन्त्र धरा क्यों
कोटि बाहु , पग , स्वस्थ , सुदृढ़ , भारत मृतप्राय , पड़ा क्यों
आस्था से क्या स्वर्ग , मुक्ति , के कल्प वृक्ष ही उगते
ज्ञान रहित , विश्वास , लोकसंग्रह - पथ , व्यतिक्रम बनते ।। 
रूढ़ि हीनता , छुआछूत का , यहाँ रोग भारी है । 
जाति - पाँति , आडम्बर से , पीड़ित , सब नर नारी हैं ।। 
जीव मात्र जब एक पिता के पुत्र , शास्त्र कहते हैं । 
फिर क्यों मिथ्या भेदभाव सब , ऊँच - नीच नाते हैं
देवी - देवों का पूजन , पर तत्व न उनका जाने । 
तज उनके आदर्श , लक्ष्य , सब असत् पक्ष को मानें ।। 
देवों का देवत्व , तत्वगत , सत्य , वरण , तो निश्चय । 
भारत का हो भला , साथ पनपे , मानवता किसलय ।। 
विविध स्वरूप शास्त्र सिखलाते , अनेक में एकत्व । 
नाम , रूप , अगणित , विशिष्ट , गुण , सत्य , एक ही तत्व ।। 
भारत के सब देव - देवियों के , गुण , रूप , विशिष्ट । 
युद्ध प्रतीक , शस्त्र धारण सँग , शान्ति प्रतीक अभीष्ट ।। 
शास्त्र - शस्त्र का सहज समन्वय , भारत का आदर्श । 
प्रथम शान्ति का सदुपयोग , यदि युद्ध , वरेण्य सहर्ष ।। 
शास्त्र - शस्त्र - सतुलन - प्रतीकात्मक , देवियाँ , देव जय । 
हम उनके सेवक अनुचर , फिर क्यों न करें वैसा तब
संस्कृति का संकेत , शास्त्र सँग शस्त्र , शान्ति - सहयोगी । 
मात्र एक से असन्तुलन , जगहित , दोनों उपयोगी ।। 
सत्य , अहिंसा , असहयोग आन्दोलन , तब ही सार्थक । 
लक्ष्य हेतु उपयोग शस्त्र का साथ , विजय का द्योतक ।। 
राणा , शिवा , लक्ष्मी की चिर अग्नि न बुझने पाये । 
युवजन आहुति बनें क्रान्ति , यज्ञाग्नि ज्वाल भड़काये ।। 
फिर से हो शिव का ताण्डव , चिर क्षीर - सिन्धु का मन्थन । 
महिषासुर मर्दिनी जागरण , निश्चय तब अरि - मर्दन ।। 
शक्ति संग , शिव का आराधन , चिर आदर्श हमारा । 
जय दुर्गे , जय महाकाल का , गूंजे फिर , चिर - नारा ।। 
क्यों न शक्ति का बनूं पुजारी , उर की चिर अभिलाषा । 
जो स्वभावगत सार्थक कर लूँ , वह निज धर्म - पिपासा ।। 
यह संतुलन बनेगा जब , निष्क्रियता मुख मोड़ेगी । 
भारत जननी त्वरित तभी , दासता फंद तोड़ेगी ।। 
पढ़ने से मन लगा उचटने , त्याग पाठ्यक्रम , चिन्तन । 
क्रान्ति युद्ध - विप्लव , शस्त्रास्त्र - विनिमन - ग्रन्थ अध्ययन ।। 
रही भावना जैसी , शेखर को वैसा परिवेश मिला । 
असहयोग के सँग काशी में , क्रान्ति ज्वार , सहसा निकला ।।

हिन्दुस्तानी रिपब्लिकन एशोसियेशन 
गुप्त रूप से लगे संगठन करने , अधिक उछाह भरे । 
क्रान्ति मार्ग से ही भारत उद्धार , शीघ्र चिर पंथ वरे ।। 
अण्डमान से हो विमुक्त , लौटे भारत , शचीन्द्र सान्याल । 
किये क्रान्तिदल स्थापित , उन दिनों काशी में , केन्द्र विशाल ।। 
सुरेश भट्टाचार्य बने दल के प्रधान , दल का विस्तार । 
काशी शाखा के प्रधान बन गये , क्षेम सिंह जी सरदार ।। 
नाम रखा ' कल्याण आश्रम ' गुप्त - क्रान्तिकारी मंडल । 
लक्ष्य राष्ट्र उद्धार , शचीन्द्र भी बने , क्षेम सिंह के संबल ।। 
कैसा होगा , राष्ट्र हमारा ? चिन्तन , मनन , उचित निर्णय । 
शोषण रहित , राष्ट्र पावन , सब निज - निज कर्म निरत निर्भय ।। 
सुदृढ केन्द्र आधीन , राज्य सब , निज शासन में पूर्ण स्वतन्त्र । 
बालिग मताधिकार , राज्य जनता द्वारा जनहित , जनतन्त्र ।। 
'
हिन्दुस्तानी रिपब्लिकन एशोसियेशन ' , नामक बसी संस्था । 
संविधान विस्तृत निर्मित सब , जनहित के अनुकूल यथा । 
काशी में संगठन के कर्ता - धर्ता , बने शचीन्द्र सान्याल । 
राजेन्द्र लाहिड़ी , रवीन्द्र मोहन , आजाद - आदि , संगठन विशाल । 
क्रान्ति संगठन के प्रति आकर्षित , अतिशय युवकों का दिल । 
शाहजहाँपुर में दलनेता बने , राम प्रसाद बिस्मिल ।। 
जगह - जगह खुल गई संगठन शाखायें , युवजन का जाल । 
अशफाक उल्लाह , रोशन सिंह , दामोदर सेठ , भूपेन्द्र सान्याल ।। 

दल में अति कठोर अनुशासन 
राम कृष्ण खत्री सँग , मन्मथनाथ गुप्त भी बने सदस्य। 
क्रान्तिकारियों का जत्था बन गया , सुदृढ , अतिगुप्त रहस्य।। 
अद्भुत , अति कठोर अनुशासन , एक लक्ष्यहित सभी जुड़े । 
कार्य कुशलता , सूझ - बूझ में , थे आजाद बड़े तगड़े।। 
दल सदस्यता , चयन प्रक्रिया , कठिन , विशेष , भक्ति सद्भाव। 
राष्ट्र भावना . शक्ति परख , तब हा सदस्य का कर चुनाव ।। 
थे आजाद परीक्षक अति . प्रवीण , छल छद्म यथा तद्भाव । 
विविध रीतियों से वे परखें साहस , शौर्य , धैर्य , सद्भाव ।। 
प्रस्तुत उदाहरण से प्रगटित , चयन प्रक्रिया धैर्य , विवेक । 
रामकृष्ण खत्री का हुआ चुनाव , यथा कर यत्न अनेक ।। 
रामकृष्ण खत्री , विरक्त स्वामी थे , " नाम गोविन्द प्रकाश " । 
परम तुष्ट पर क्रान्तिकारियों का , भी वे पाये विश्वास ।। 
स्वामी थे अस्वस्थ , बहुत दिन , से दुर्बल , अति लेटे खाट। 
निपट अकेले चिन्तनरत जब , तभी द्वार के , खुले कपाट ।। 
हुए प्रविष्ट युवक दो सहसा , परिचित एक , उपेन्द्रानन्द । 
युवक दूसरा तेजस्वी , साक्षात् वीर रस का ज्यों छन्द ।। 
हृष्ट - पुष्ट अति , पूर्ण अपरिचित , परिचय दिए . उपेन्द्रानन्द । 
मित्र हमारा गाँधीवादी , सेवा मे पाता आनन्द ।। 
मृदु मुस्कान सहित अभिवादन कर , बोला वह युवक सप्रेम । 
मित्र वचन को अतिशयोक्ति ही , समझें स्वामी , प्रगटित प्रेम ।। 
मैं केवल अदना सा सेवक , गाँधी कहाँ , कहाँ शैतान । 
मेरे जैसे छुद्र जीव से , गाँधीवादी हों बदनाम ।। 
स्वामी उपेन्द्रानन्द से जाना , आपकी अस्वस्थता का हाल । 
स्वभावतः सेवा करने का , अतः मिला अवसर , फिलहाल ।। 
स्वामी जी आज्ञा दें मुझको , मैं लेता सेवा का भार । 
करने लगे सुश्रुषा . सेवा , उस दिन से घन्टे दो चार ।। 
वांछित सुश्रुषा सवा पाकर , शीघ्र स्वस्थ , गोविन्दप्रकाश । 
देख आचरण , सयम , सेवा , सेवक पर ममता , विश्वास ।। 
अक्सर राजनीति पर बातें , कैसे उग्रराष्ट्रवादी विचार भारत आजाद
कौन मार्ग समयोचित , उत्तम , उग्रवाद . या गाँधीवाद
उग्रराष्ट्रवादी विचार वाले, प्रसिद्ध गोविन्दप्रकाश । 
सेवक गाँधी भक्त , पात्र पटु परिचय यथा , तथा नट खास ।। 
स्वामी कहते - ' अग्रेजों को अल्टीमेटम के अब बाद । 
असहयोग को वापस लेकर , गाँधी किए शक्ति बर्बाद ।। 
स्वामी की बातें गाँधी के विरोध में सुन गाँधी - भक्त । 
हँसता बड़े अनोखे ढंग से नहीं प्रगट , रहस्य उस वक्त ।। 
जन भावना जगी थी जो , उस असहयोग आन्दोलन से । 
क्रान्ति शक्ति यदि सँग जुड़ती , निश्चय स्वतन्त्रता बन्धन से ।। 
सेवक कहता - ' गाँधी जी हैं सत्य , अहिंसा , व्रत धारी । 
कैसे अनुमोदन करते , विपरीत सभी क्रम , थे जारी ।। 
अनुशासन के वे पक्के , युवकों में , जोश खरोश बड़ा । 
बहुधा अवमानना करें नेताओं हित बनते रोड़ा ।। 
द्वन्द्व युद्ध में शक्ति तभी सार्थक , जब युग संतुलन समान । 
यत्र तत्र हिंसा लूटों से , भारत - ऊर्जा , जन , धन हानि ।। 
इसीलिए गाँधी ने , असहयोग आन्दोलन , स्थगित किया । 
नहीं समाप्त , पुनः सम्भावित , यथा सुअवसर तथा क्रिया ।। 
इसी तरह की बहसें प्रतिदिन , पक्ष , विपक्ष , प्रबल अपना । 
भारत हो स्वतन्त्र चाहे जैसे भी , जन जन का सपना ।। 
बीते कुछ दिन , एक दिवस उद्विग्न बहुत थे , स्वामी जी । 
गहरी उधेड़बुन , बेचैनी , जोश - खरोश , जवानों सी ।। 
कहने लगे पूछने पर अपनी मनस्थिति का सच हाल । 
उत्कट इच्छा बनूँ क्रान्ति दल का कर्ता , धर्ता तत्काल । 
सुनकर हँसा व्यंग से सेवक - उचित किस तरह अन्तर भाव । 
ज्ञान , विराग , भक्ति , जनसेवा , स्वामीपन का सहज स्वभाव ।।
इच्छा शक्ति प्रवल , दृढ निश्चय , यदि तो मैं कुछ करु उपाय । 
क्रान्ति पथिक कुछ परिचित मेरे , यदि चाहे तो बनू सहाय ।। 
पहले कुछ अध्ययन मनन कर , पहचान निज आत्मस्वरूप । 
क्रान्तिकारिता , प्राण हथेली पर रखने का नाम व रूप।। 
सेवक लाने लगा तभी से क्रान्तिकारिता पर साहित्य । 
'
बन्दी जीवन ' गैरी बाल्डी ' मैजिनी आदि , सत्य जीवन कृत्य ।। 
रौलट विवरण सहित विविध , षडयन्त्रों की प्रिय सार्थक उक्ति । 
परिपक्वता बढ़ी पढ़ पढ़कर , क्रान्ति मार्ग से भारत मुक्ति ।। 
सहसा एक दिवस पूछे स्वामी - ' तव मित्र जो बना सहाय । 
रह अदृश्य जो देता पुस्तक मिले मुझे क्या नही उपाय
क्रान्ति पथी यदि यहाँ न आये , मिलूँ कहीं मन आकांक्षा । 
परखे मुझे जिस तरह चाहे . क्रान्ति मार्ग मम दृढ़ इच्छा ।। 
सेवक बोला ' मिलवा दूंगा , धैर्य धरें , आने दें वक्त । 
क्रान्तिपंथ से मुझे वितृष्णा , मैं तो कट्टर गाँधी भक्त ।। 
मेरा यह सौभाग्य कि करते , क्रान्तिपथी मुझ पर विश्वास । 
गलती रंच हुई यदि मुझसे , जीवन - मृत्यु का प्रतिपल त्रास ।। 
पहले आप करें दृढ़ निश्चय , तन , मन , धन , विचार , व्यवहार । 
सब सुयोग स्वयमेव मिलेगा , नेत्र , कर्ण , कर , उन्हें हजार ।। 
दल का अटल नियम , सदस्य बनने पर , पुनः निकास नहीं । 
अतः समझकर कदम उठायें , पुनः त्याग , सम्भाव्य नहीं ।। 
अच्छा हो यदि कांग्रेसी बन , सत्य , अहिंसा अपनायें । 
क्रान्ति पथी बन , व्यर्थ न जीवन भर , दर - दर ठोकर खायें ।। 
आगबबूला स्वामी जी सुन , व्यंग उक्ति , प्रिय सेवक की । 
क्रोधित बोले- क्या मैं बुजदिल , तुम ही लगते हो सनकी ।। 
हृदय भाव हो गया प्रकट , सेवक संतुष्ट हुआ , तत्क्षण । 
बोला - ' अच्छा देलूँगा मैं , क्रान्ति मार्ग जब लगी लगन ।। 
इतना कहकर चला गया , सेवक तुरन्त , बीते कुछ दिन । 
आया नहीं , कौन यह सेवक चिन्ता भारी , सेवक बिन ।। 
क्या शेखर ही मेरा सेवक ? तन , मन वाणी , सद्व्यवहार । 
देखा नही स्वरूप . गुण वही , जिसकी चर्चा , प्रति घर द्वार ।। 
बहुत दिनों से शेखर से मिलने की मेरी आकांक्षा । 
वीर बॉकुरा , काशी जिसकी , क्रीड़ा भूमि , बनी स्वेच्छा ।। 
इसी भाँति बीते कुछ दिन , सहसा सेवक , प्रगटित एक शाम । 
यह माउजर पिस्तौल कहाँ से पाये ? लेकर चूम लिए । 
साँकल चढा , निकाला झोले से , रोमांचक वस्तु ललाम ।। 
अति प्रसन्नता अश्रुपूर्ण दृग , सेवक को हिय , लगा लिए ।। 
स्वामी जी , अतिरेक न वांछित , तुम्हें सौंपने को लाया । 
आज परीक्षा सफल हुई . जैसा सोचा , वैसा पाया ।। 
मुस्काये स्वामी सगर्व , कह - ' अब दुराव , बेकार तमाम । 
मूर्ख न मैं , आजाद छिपे रुस्तम , तुम को , शत कोटि प्रणाम ।। 
मुस्काये आजाद - करें क्या सभी कार्य संस्था के गुप्त । 
पल में सब गड़बड़ हो जाये , यदि न सजग , पग , चुस्त दुरुस्त ।। 
अदभुत रही संगठन क्षमता , अनुपम अथक , प्रयत्न हजार । 
तन , मन , धन से दल सेवा हित , थे आजाद सदा तैयार ।। 
उनके बलबूते दल का नित , सतत् सशक्त गठन , विस्तार । 
अगणित युवक , देशहित नित ही , प्राण न्यौछावर को तैयार ।। 
नहीं व्यक्तिगत आकांक्षा कोई , बस ध्येय देश उद्धार । 
क्रान्ति मार्ग से ही स्वतन्त्रता , सम्भव शीघ , अटूट विचार ।। 
शेखर के सम्पर्क में आकर , हुए प्रभावित , युवक अनेक । 
बने क्रान्ति पथ के अनुयायी , जागा उनका , आत्म विवेक ।। 
सब निःस्वार्थभाव निज पथ दृढ़ लक्ष्य हेतु करके प्रस्थान । 
हुए समर्पित मातृभूमि हित तज तन , मन , धन , कुल प्रतिमान ।। 
बल कौशल , पौरुष , प्रतिभा में , थे आजाद , अनन्य , अनूप । 
प्राण हथेली पर ले चलते , मातृभूमि के वीर सपूत ।। 
मातृभूमि को मुक्त कराने , को स्वेच्छा से ले बीड़ा । 
हुए अग्रसर युवक यशस्वी , लक्ष्य हेतु संतत पीड़ा ।। 
कैसे शीघ्र कटे माँ बेड़ी ? कैसे मातृभूमि उद्धार
चिन्ता यही सताती प्रतिपल , सीमित साधन , शत्रु अपार ।।

जहाँ चाह हैराह वहाँ 
अर्थ बिना अपंग सब गतिविधि , धन - साधन सापार प्राण । 
आयसोत क्या हो ? कैसे हो लक्ष्य सिद्धि साधन कल्याण।। 
बूंद - बूंद से घट भरने की , उक्ति प्रमाणिक अपरिहार्य ।। 
जब तक जन जागरण न होगा , सफल नहीं , दल ध्येय , सुकार्य । 
ध्येय पूर्ति हित भारत भर में , पर्चा आवाहन का गुप्त । 
छपकर बॅटा , सभी केन्द्रों में , जागे युवक अनेक , प्रसुप्त ।। 
परचे से प्रेरणा प्राप्त कर , क्रान्ति ज्वार उमड़ा तत्काल । 
दबी हुई चिनगारी भड़की , अग्नि प्रज्ज्वलित हुई कराल ।। 
विशेषतः पंजाब प्रान्त के युवा शक्ति की , नहीं मिसाल । 
भगत सिंह , सुखदेव , भगवती , राजगुरु , जयदेव , यशपाल ।। 
क्रान्तियज्ञ में कूद पड़े , युवजन अनेक , सब वीर सपूत । 
जन जन में , जागरण , जोश , विश्वास , क्रान्ति पथ , नवल , अभूत ।। 
गुप्त पत्र व्यवहार , अस्त्र , धन , साधन का , आदान - प्रदान । 
आदेशों पर अमल अटल , विश्वासघात का मृत्यु निदान ।। 
गुप्त संगठन में अपूर्व अनुशासन , बाधक अर्थ अभाव । 
कार्य विशद् योजना तथ्यगत , सीमित अर्थ , कठिन बर्ताव ।। 
दल की आर्थिक स्थिति से चिन्तित , दल सदस्य सब नहीं उपाय । 
बैठक हुई वरिष्ठ जनों की , निर्णय कठिन , जो अर्थ प्रदाय ।। 
हुए उपस्थित गुप्त समिति में , गुप्त स्थल आजाद , सचिन । 
बिस्मिल , अशफाक , रोशन , मन्मथ , खत्री , राजेन्द्र , योगेश , प्रवीण ।। 
हुआ विचार विमर्श , नहीं जब , अल्पदान से , चलता काम । 
एक मात्र धावा विकल्प , अब , लक्ष्य हितार्थ , सुफल परिणाम ।। 
शंकाओं का हुआ निवारण , कार्य अरुचिकर , मार्ग न अन्य । 
आपद्धर्म , प्राण न्यौछावर , राष्ट्र हेतु , पुरुषार्थ , अनन्य ।। 
क्रान्ति मार्ग जब कदम बढ़ाया , खतरों से तब डरना क्या
लक्ष्य सिद्धि , बस ध्येय हमारा , तब जीना , या मरना , क्या
जहाँ चाह है राह वहाँ , साहस में निहित , सफलता है । 
सम्भव बने असम्भव सब , यह शौर्य , धैर्य में क्षमता है ।। 
विषय प्रवर्तन किया प्रथम आजाद ने , विस्तृत जिसका सार । 
तत्वरूप में प्रस्तुत , जिस पर निर्णय पूर्व विमर्श - विचार ।।

जिनके श्रम कौशल साहस से 
मूल रूप से भारत वैदिक संस्कृति , धर्म - सभ्यता सार । 
वर्णाश्रम - आधारित - जीवन पद्धति , अति उदात्त , संस्कार ।। 
समता सहिष्णुता , ऋजुता , अम.सादा जीवन , उच्च विचार । 
श्रद्धा आस्थामय जीवनक्रम , राग द्वेष से रहित , उदार ।। 
किन्तु काल क्रम के थपेड़ से , भारत का आदर्श महान । 
हुआ विलुप्त , सुप्त जीवन , संस्कृति , सभ्यता , बनी निष्प्राण ।। 
आज विषमता , व्याप्त हर दिशा , ऊँच नीच का , भेद अपार । 
सहसबाहु से भुजा पसारे , विघटन , शोषण , अत्याचार ।। 
एक ओर राजे , महाराजे , जमींदार , शठ , साहूकार । 
स्वार्थ सिद्धि के लिए , मात्र फैलाये प्रबल , कार्य व्यापार ।। 
देशद्रोही , दुष्कर्मी , दानव , करते , मानवता दोहन । 
स्वार्थी , भ्रष्ट , दुराचारी , कर रहे कोष , निज भण्डारण ।। 
भ्रष्टाचार जहाँ पलता , पद प्रभुता , धन , परदे , पीछे । 
मानवता श्रृंगार जहाँ कुत्सित दानवता नित लूटे ।। 
मात्र बदौलत दौलत , कुछ शठ , मुटठी में ले , देश लगाम । 
राष्ट्र भाग्य रथ नचा रहे , निज स्वार्थ सिद्धि हित , जन बदनाम ।। 
पाप कमाई को हथियाकर , दुष्ट स्वर्ग सुख भोग रहे । 
देश धर्म की उन्हें न चिन्ता , पातक - निशा , विमोह रहे ।। 
किन्तु दूसरी ओर घोर , निर्धनता , अकर्मता , अज्ञान । 
जहाँ जानवर से भी बदतर , जीवन जीता है , इन्सान ।। 
धरती ही जिनका बिस्तर , अम्बर ही जिनका , मात्र वितान । 
भूखे नंगे , गृह विहीन , रोगी , लाखों भारत संतान ।। 
जिनके श्रम , कौशल , साहस से , सब सुख - सुविधा का संसार । 
फिर भी अति विपन्न वे कृषक , श्रमिक सहते , दुख , अत्याचार ।। 
ऋतुओं की हर मार झेलकर , परहितरत , नित करते प्रमा बाँझ घरा को उर्वर करते . सहजीवन के हर व्यतिक्रम । 
पशु है ही श्रमिक , कृषक भारत के भूखे , नंगे , अज्ञानी ।। 
निपट निरक्षर , सहते सब अन्याय मूक , पर - कल्याणी । 
से भी बदतर जीवन , जीने को बाध्य , व्यथित चुपचाप ।। 
शोधक अत्याचारी करते . दानवता का नंगा नाच । 
न्याय धर्म की माँग यही है , श्रम को मिले . उचित सम्मान ।। 
सुख सुविधा , अधिकार यथोचित , मानव मन हित , स्वस्थ निदान । 
शोषण , अत्याचार , पाप , व्यभिचार , सर्प फन फैलाये मानव को दानव विषधर डॅस रहे , शत्रु निज के साये ।। 
हैं ऐसे अनेक रजवाड़े जमींदार और साहूकार । 
जिनके कुत्सित कर्मो की गणना करना भी अति दुश्वार । 
अंग्रेजों के पिट्ठू बनकर करते शोषण अत्याचार । 
बलात्कारी , व्यभिचारी , दुर्गुण आगार ।। 
ऐसे कुकर्मियों को प्रश्रय , पद , प्रभुता , प्रलोभ भरमार । 
भ्रष्टाचारी ' राजा ' , ' राय बहादुर ' , ' रायसाहब ' पदवी देती सरकार ।। 
राजा , जमींदार , धनिकों की , अतिकुत्सित परम्परा चलन । 
पति से पहले प्रथम मिलन , उनसे ही बाध्य नयी दुल्हन ।। 
साहूकारों के कुकर्म की , गणना नहीं अनेक स्वरूप । 
एक बार जो फँसा जाल में , आजीवन अंधतम कूप ।। 
कभी मूलधन से न मुक्ति , बस मात्र सूद बढ़ बने पहाड़ । 
गहना , पशुधन , बाग , बगीचा , गृह गृहिणी फिर निजतन हाड़ ।। 
पुश्त - पुश्त तक शोषण अत्याचार , अनैतिकता , व्यभिचार । 
पेट काटकर दीन हीन की , पेटी भरते साहूकार ।। 
जमींदार के नाम खेत सब , उनका ही उस पर अधिकार । 
छीने खेत अकारण एकाएक बैल , हल हो बेकार ।। 53 क्रान्तियज्ञ
इन सबको है हमें मिटाना , शान्ति न सक्षम , अब बरजोर । 
शाश्वत सत्य शो शाठ्यम् पथ , नहीं सुधरते आदमखोरा । 
अतः स्वलक्ष्य सिद्धि , हित पहले शोषक धनिकों पर पाया । 
काम न चले अगर लूटें सरकारी धन बिन पछतावा ।। 
दुष्टों से प्रतिकार , साथ ही , दानवता से छूटे पिण्ड । 
भारत माँ की सेवा सार्थक , ब्रिटिश हुकूमत को भी दण्ड ।। 
अतः राष्ट्र हित में जनहित में , शोषक से बदला तत्काल । 
सद्यः न्याय धर्म सम्मत यह , पथ आवश्यक आपद् - काल ।। 
लेना है सरकार से टक्कर , अतः लक्ष्य से डिगें नही । 
लक्ष्य सिद्धि निश्चय ही होगी , कदम बढे यदि , रुकें नहीं ।। 
सुन शेखर की तार्किक बातें . सबके चेहरों पर मुस्कान । 
सबने दी सगर्व स्वीकृति , अनुमोदन स्वर , भुज , सीना तान ।। 
दल की दृढ़ आचार संहिता हित , शेखर का उचित निदेश । 
शोषक सेठों , साहूकारों पर धावा हो प्रथम , सँदेश ।। 
अत्याचारी , व्यभिचारी अधिकारी , राष्ट्रप्रेम से हीन । 
राष्ट्रधर्म जन सेवाहित , उनसे बदला , धन , उनका छीन ।। 
धावा धन के लिए मात्र , कम से कम , शस्त्र शक्ति उपयोग । 
नारी , बालक रोगी , वृद्ध अपंग पर शक्ति का नहीं प्रयोग । 
सबने दी सहमति . अनुमोदन , बनी योजनायें , तत्काल ।। 
शठे शाठ्यम समाचरण हित , कदम बढ़ाये , भारत लाल ।। 
धावों की विस्तृत सुयोजना , बिस्मिल का नेतृत्व प्रधान । 
गुप्त सूत्र होते प्रयुक्त थे ' सो वरिन्डा जो है ज्ञान ' ।। 
'
ज्ञानी ' , ' भक्त ' , निपुण , सहयोगी , परमनिपुण , ' योगी ' , ' अवधूत । 
ध्येय उचित , हित कर्म दोष क्या ? परहित पुण्य , सुयोग्य सपूत ।। 
यथा साध्य सब तैयारी कर , किये ग्राम , गृह , तिथि , निर्णय । 
हुए सफल अभियान विविध सब , बढ़ा कोष , पथ कंटक मय ।। 54 क्रान्तियज्ञ

पहला धावा जिला फतेहपुर 
गाँवों के सेठों पर धावों का , कुछ चला सफल अभियान । 
गिद्ध दृष्टि सरकारी उन पर पड़े , न शीघ्र , यही अनुमान ।। 
पहला धावा जिला फतेहपुर में , असफल था . प्रथम प्रयास । 
बिस्मिल का नेतृत्व दुबारा सफल , बढ़ा साहस , विश्वास ।। 
धावा जनपद प्रतापगढ़ में . सूदखोर एक , सेठ के घर । 
किया हवाई फायर , भय दिखलाया , पर गृहणियों , निडर ।। 
सेठानियाँ दिलेर , देखकर , लुटते , निज धन , आभूषण । 
झपट पड़ीं , हिम्मत से दल पर , छीना झपटी की कुछ क्षण ।। 
एक सेठानी ने झटपट छीना , माउजर राजेन्द्र का । 
अति विनम राजेन्द्र कहे - ' अम्मा माउजर देकर भाग जा ।। 
'
अम्मा के बच्चे बतलाती , तुमको ' सेठानी तगड़ी । 
लिपट गई राजेन्द्र से कसकर , कमर कलाई वह पकड़ी ।। 
राजेन्द्र शान्त हो खड़े रहे , किन्चित न , छुड़ाने का प्रयास । 
सेठानी से पुनश्च बोले- क्या नहीं मृत्यु का तुमको त्रास
अनुनय कर अनसुनी , गालियाँ देती रही , अनेक , निडर । 
चिल्ला कर गुहार भी , सँग ही , पकड़ी रही , कमर कसकर ।। 
सब अनुनय - विनय गया निष्फल , सेठानी ने छोड़ा न उन्हें । 
राजेन्द्र भी निष्क्रिय शान्त खड़े , भय पकड़े जाने का न उन्हें ।। 
सर्वोपरि दल सिद्धान्तों का , परिपालन , राजेन्द्र को अभीष्ट । 
व्यवहार अशिष्ट न , क्रूर , कर्म , अपशब्द , , नारी पर कुदृष्टि ।। 
अभियान सफल कर सब लौटे , राजेन्द्र कहाँ , पूछे बिस्मिल । 
घर में जा देखा दृश्य अजब , राजेन्द्र खड़े असहाय , शिथिल ।। क्रान्तियज्ञ 55
बिस्मिल ने कस घूसा मारा , छूटे राजेन्द्र छूटी माउजर । 
सेठानी भयाक्रान्त भागी , तब आये सब , घर के बाहर ।। 
इस तरह नहीं संकट में सिद्धान्तों का पालन , उचित कर्म । 
सिद्धान्तों सँग व्यवहार समन्वय , सद्विवेक सार्थक , स्वधर्म ।। 
अपने से नारी पर न वार , पर नारी यदि दीवार बने । 
नारी नारीत्व त्याग कर यदि , अनुचित पथ गहे , कटार बने ।। 
तब उचित नहीं रहना प्रशान्त , सद्लक्ष्य हेतु , कुछ दण्ड उचित । 
भारत माता सर्वोपरि है , उसकी सेवा स्वधर्म निश्चित ।। 
'
यह कह बिस्मिल ने समझाया , राजेन्द्र को धर्म , कर्म , आपद् । 
आजाद कहे- ' सिद्धान्त परीक्षा संकट में ही , मेरा मत ।। '

अतुलधनी एक गद्दीधारी 
सुन आजाद वचन प्रसन्न सब , धर्म कर्म , संयम , सिद्धान्त । 
संकल्पित मन राग द्वेष से रहित , लक्ष्य पथ , सजग , प्रशान्त ।। 
कभी पुलिस बर्दी में धावा , कभी साधु संतो का दल । 
कभी बनें सरकारी अफसर , अदल - बदल कर , कल - बल - छल ।। 
धावों से सम्पदा बढ़ी तब , बढ़ा यथा , दल का भी काम । 
पर निज लक्ष्य प्राप्ति में धन की , कभी अभी थी , काम तमाम ।। 
रामकृष्ण खत्री ने एक दिन , रक्खा एक सुझाव नया । 
अतुल धनी एक गद्दी धारी , महन्थ की पाने की दया ।। 
खत्री पहले एक उदासीन साधुदल के थे प्रमुख सदस्य । 
गद्दीधारी महंत के थे , विश्वासी वे , शिष्य अनन्य ।। 
उनका था सुझाव , यदि दल की स्वीकृति , शिष्य बने कोई । 
मृत्यु कगार महंत , सम्पदा हाथ लगे . यह उक्ति नई ।। 
दल निदेश अनुसार शीघ , आजाद शिष्यता ग्रहण किए । 
यद्यपि रुचि प्रतिकूल कार्य , पर दलहित स्वीकृति , त्वरित दिए ।। 
गद्दीधारी महंत गाजीपुर का , खत्री किए उपाय । 
चेला बन आजाद सीखने लगे , सधुकड़ी - क्रम - समुदाय ।। 
शेखर से स्वच्छन्द व्यक्ति से . साधु चरित्र न थे , सम्भव । 
शीघ्र ऊबकर पत्र लिखे आ मुक्त करो , यह बाधा भव ।। 
मन्मथनाथ संग आये खत्री , एकान्त सुने सब हाल । 
डण्ड बैठकें नियमित , खाता माल , नहीं महंत का काल ।। 
मुझपर अति कठोर अनुशासन , कभी नहीं कुछ मन अनुसार । 
नित्य क्रिया , गुरुमुखी ज्ञान हित , नित्य , प्रताड़न , पड़ती मार ।। 
स्वास्थ्य नित्य प्रति गिरता जाता , यहाँ अपंग , बना लाचार । 
मिले सम्पदा शीघ्र न सम्भव , लगे निरर्थक , यह व्यापार ।। 
देख दशा आजाद की , उनका सुन मन्तव्य हुआ निर्णय । 
शीघ्र मुक्त हो जाओ बचकर , उचित प्रयास करो निर्भय ।। 
ऊब चुके थे साधुपने से , पल था युग सम , बीत रहा । 
त्याग एक दिन महंत का मठ , फिर काशी का मार्ग गहा ।। क्रान्तियज्ञ 57

काकोरी का काण्ड सुनिश्चय 
धावे विविध ग्राम सेठों पर , सफल कई . पर लाभ नगण्या 
जन चर्चा से दल बदनामी , निर्णय हुआ , मार्ग अब अन्य ।। 
धावा अब से रेल बैंक पर , भारत जन , धन सरकारी । 
एक तीर से दो शिकार , दल कोष वृद्धि , जन सुखकारी ।। 
मिले सहानुभूति जनता की , दमनवृत्ति का , जब प्रतिकार । 
दल का ध्येय सफल , धन संचय , तथा क्रान्ति का स्वतः प्रचार ।। 
उन्नीस सौ पचीस तक , दल का , प्रादेशिक संगठन विशाल । 
क्रान्तिकारिता का गढ़ दृढ , संयुक्त प्रान्त का , ऊँचा भाल ।। 
गुप्त सूचना मिली , जर्मनी से चालान चला तत्काल । 
नकद रकम दे पड़े छुड़ाना , कलकत्ता से , शस्त्र सम्हाल ।। 
एतदर्थ आवश्यक धन की बने , व्यवस्था ज्यों तत्काल । 
काकोरी का काण्ड सुनिश्चय , कार्य कठिन , उद्देश्य विशाल ।। 
काकोरी जैसे काण्डों में थे , आजाद सदा अगुआ । 
शौर्य , धैर्य , निर्भयता , पटुता से ' क्विक सिलवर ' नाम हुआ । 
जितनी ही हो , खतरनाक योजना तुरन्त प्रथम तैयार ।। 
देख सुअवसर कहें जोश में - ' शेर माँस खाया हूँ यार ।। 
काकोरी काण्ड की सफलता , हेतु हुई , दल की बैठक । 
हुआ विचार विमर्श , ' मोर्चा क्या अब ही , अति आवश्यक
अभी संगठन सुदृढ़ न इतना , नहीं चुनौती , का , औचित्य । 
बने आँख किरकरी , दमन सरकारी , जन , धन , विघटन कृत्य ।। 
था आजाद का मत - धन हित यदि सम्भव , अभी न अन्य उपाय । 
कब तक करें प्रतीक्षा , आया शस्त्र , छुड़ाया कैसे जाय
शस्त्र - हीन दल शक्ति रहित है , शक्ति बिना , कब क्रान्ति सफल । 
प्राप्त सुअवसर , आज अनिर्णय से , दल का अभियान विफल ।। 
नहीं विकल्प अन्य जब कोई , काकोरी का काण्ड विशेष । 
सफल करें , दृढ़ निश्चय से हम , पूर्ण हमारा हो , उद्देश्य ।। 
हुआ अन्ततः निर्णय दल का , सर्वमान्य , निर्देश यथा । 
काकोरी में चेन खींचकर , लूट योजना बनी तथा ।। 58 क्रान्तियज्ञ

काकोरी का काण्ड सफल 
यथा योजना बढ़े वीर सब , वेश बदल रख , रख उपनाम । 
जान हथेली पर . दृढ़ निश्चय , मातृभूमि हित तन , धन धाम ।। 
नौ अगस्त सन उन्नीस सौ पच्चीस की , वह ऐतिहासिक शाम । 
क्रान्तिकारियों ने , काकोरी काण्ड को , दिया सफल अंजाम ।। 
छोटा सा काकोरी स्टेशन , भीड़ भाड़ का नाम नहीं । 
मध्यम श्रेणी टिकट माँग सुन , बाबू को विश्वास नहीं ।। 
मध्यम श्रेणी तीन लखनऊ टिकट , माँग , एकाएकी । 
सुन आश्चर्य चकित बाबू ने , घूरा , गुन्जाइश , शक की ।। 
ताड़ लिया शचीन्द्र ने फौरन , मुड पीछे मुख , रखा रूमाल । 
टिकटें ले . तुरन्त बतलाया , राजेन्द्र , अशफाक , को सब हाल ।। 
गाड़ी आने पर तीनों जन , इन्टर डिब्बे हुए सवार । 
शेष अन्य तृतीय श्रेणी , डिब्बे में बैठे , हो तैयार ।। 
सन्ध्या विगत अँधेरा व्यापा , गाड़ी ने जब , गति पकड़ी । 
चीख पड़े शचीन्द्र एकाएक - जेवर बक्स कहाँ लाहिड़ी ।। 
लगे लाहिड़ी बक्स खोजने , अशफाक चट बोले - भाई । 
काकोरी में छूट गया बक्सा , अब भारी कठिनाई ।। 
सुन तुरन्त राजेन्द्र , शचिन ने , उठकर त्वरित बढ़ाकर हाथ । 
खींच दिया जन्जीर लपककर , गाड़ी रुकी , चीख के साथ ।। 
गाड़ी से उतरे दोनों तत्काल , गार्ड - दिशि को प्रस्थान । 
गार्ड प्रश्न - ' किसने खींची जंजीर ? कहा- हमने श्रीमान ।। 
काकोरी में जेवर का संदूक रह गया , इस कारण । 
गाड़ी को रोकना जरूरी था , लाना है आभूषण ।।
रखा खजाना गार्ड वान में , पल में दोनों पहुँचे पास । 
किया हवाई फायर सुनकर , उड़े गार्ड केहोश हवास ।। 
कहा तड़ककर - ' कोई यात्री , अभी न नीचे आयगा । 
लूट रहे सरकारी धन , बाधक , निज जान गवाँयेगा ।। 
गार्ड हुआ हक्का बक्का , वह लगा दिखाने . हरा प्रकाश । 
झपट दूर फेंका शचीन्द्र ने - क्या जीवन का , तुम्हें न त्रास
गार्ड हुआ भयभीत , विनीत अति , हाथ जोड़ गिड़गिड़ा कहा
मेरी जान बख्श दो बाबू ' ' अच्छा चुप हो , लेट यहाँ ।। 
सुन आदेश गिरा वह भू पर , कुन्दा मार , बल्ब फोड़ा । 
घोर अँधेरा हुआ , गिराया बाक्स , हथौड़ों से तोड़ा ।। 
तोड़ रहे अशफाक बक्स थे , अन्य बने थे , सहयोगी । 
कुछ कठोर पहरेदारी में , अति भयभीत , भुक्त भोगी ।। 
गाड़ी में तेरह सशस्त्र रक्षक सँग था मेजर गोरा । यूँ
 न कोई कर पाया , ऐसा था सटीक , भयप्रद पहरा ।। 
 
एक अनाम , मूर्ख यात्री , दुर्भाग्य से उतर पड़ा बाहर । 
 
समझ न पाया अवसर का रुख , तुरंत मरा अचूक फायर ।। 
 
स्तम्भित चुप बैठे सब यात्री , यथा स्थान , बिन हिले - डुले । 
 
बिस्मिल का नेतृत्व यथोचित , अशफाक के , श्रम बिन्दु फले ।। 
 
टूट गई इस्पात तिजोरी , थैले - कोष , हुए बाहर । 
 
इसी बीच एक गाड़ी आई क्षण भर विस्मय , किन्तु निडर ।। 
 
छुक छुक करती , चली गई वह रुकी , , हुआ रंच व्यवधान । 
 
गठरी बाँध चलो जल्दी सुनकर आदेश तुरत प्रस्थान ।। 
 
बख्शी को रख गार्ड पास , ले कोष -बैग सब दल , तत्काल । 
 
बढ़ा पूर्व निर्दिष्ट दिशा में , बख्शी गार्ड को , रहे सम्हाल ।। क्रान्तियज्ञ 60
बोले - ' तुमने मुझको देखा , पहचाना , चेहरा सप्रयास । 
क्यों न खत्म कर दूँ तुमको मैं , हो समाप्त , मेरा सब त्रास ।। 
काँप उठा रोआँ - रोआँ , अति गार्ड दशा , दयनीय हुई । 
कहा गिड़गिड़ा पैर पकड़ , ' साक्षी ईश्वर यदि चूक हुई ।। 
कभी आपको पहचानूँगा नहीं , अन्तरात्मा आवाज । 
'
सुन बख्शी को दया , बख्श दी जान , गार्ड तब मुक्त विषाद ।। 
काकोरी के बीहड़ वन में , एकत्रित हो , थैला खोल । 
नोट निकाल जलाये थैले , चले लखनऊ ओर , सटोल ।। 
जा पहुँचे गन्तव्य चौक में , बैठ बिताई निशि एक बाग । 
काकोरी का काण्ड सफल , गोरी सत्ता को , नहीं सुराग ।।

गोरी सत्ता हिली , चुनौती 
काकोरी के पास सनसनीखेज डकैती का सम्वाद । 
सत्ता छपा सुर्खियों में , प्रातः संरकरणों में , तब बढ़ा विवाद ।। 
गोरी हिली . चुनौती , अंग्रेजी सरकार को । 
काकोरी का काण्ड , प्रज्ज्वलित किया , क्रान्ति - यज्ञाग्नि को ।। 
गुप्तचरों का जाल बिछ गया , हर नुक्कड़ चौराहों पर । 
जुर्मी पकड़े जायँ , हेतु छापे , सम्भाव्य पनाहों पर । 
साम , दाम , भय , भेद , मुखबिरी के भय से , दल तितर - बितर ।। 
गये सभी अज्ञातवास में , जहाँ बन पड़ा , इधर - उधर । 
देखी जब गम्भीर परिस्थिति , छिपा , साथियों से आजाद ।। 
जन्मभूमि भाँवरा हेतु . प्रस्थान किया , मय हर्ष - विषाद । 
गये भाँवरा हेतु मगर भाँवरा न जा , काशी की पुलिस 
जाल फैला पग - पग पर , पा न सका पर , उनकी थाह । 
पकड़े गये बहुत से साथी , पर आजाद न आये हाथ । 
पुलिस से बढ़ छल , बल सक्रियता , जन बल भी था , उनके साथ ।। 
नगर , गाँव , सब प्रमुख जगह पर , बस , ट्रेनों में चित्र अनेक । 
विपुल इनाम घोषणा लेकिन , टूटा कभी न शेखर टेक ।। 
काशी में हर ओर पुलिस का जाल , नहीं सम्भव छिपना । 
झट झाँसी की ओर चल पड़े गाँव , विपिन जाना , अपना ।। राह ।। 
झाँसी में पहले से दल का , सुदृढ़ संगठन , गुप्त महान । 
राजकीय शाला शिक्षक थे , नेता विषय , कला विज्ञान ।। 
शिक्षक रुद्र नारायण सिंह के.साथ टिके आजाद , प्रवीण । 
गिद्ध दृष्टि से बचें पुलिस के अतः नाम , पद , वेश नवीन ।। 62 क्रान्तियज्ञ
कुछ दिन जंगल में ही बीते , भूख प्यास की नहीं फिकर । 
शौर्य , धैर्य , साहस , सम्बल , झाँसी पहुँचे छिप इधर - उधर ।। 
नहीं हारते हिम्मत मरते दम तक , धीर वीर इन्सान । 
लक्ष्य हेतु तत्पर रहते हैं तन , मन , धन , करते कुरबान ।। 
मास्टर साहब के सुझाव पर , कुछ दिन तक मोटर चालन । 
रहे सीखते ड्राइवर के सँग , शीघ्र सुचालक बने , लगन ।। 
झाँसी में भी खुफिया दल का , जाल बिछा था , पर शेखर । 
सदा रहे निर्द्वन्द्व घूमते , पर सतर्क भी , यद् अवसर ।। 
नियमित कसरत , मोटर चालन , कार्य संगठन , शस्त्र प्रयोग । 
क्रान्ति हेतु आवश्यक , सब संसाधन , सुविधा हित उद्योग ।। 
सदा साथ रहनेवाले भी , जान न पाये , उनका भेद । 
जग नाटक सुपात्रता के , आजाद एक , दृष्टान्त विशेष ।। 
पुनः अधिक दिन बस्ती में रहना , असुरक्षित अतः सुझाव । 
मास्टर जी का , जंगल में उपयुक्त स्थान पर , गुप्त ठिकाँव ।।

बुन्देले वीरों की धरती 
जग प्रसिद्ध बुन्देलखण्ड की , पावन धरती , पुण्य प्रदेश 
युग युग का इतिहास छिपाये , पग पग विविध , अतीत अवशेष ।। 
अति प्राचीन आदिवासी स्थल , धर्म , सभ्यता , संस्कृति , प्राण । 
कण - कण से इसके प्रतिबिम्बित , संरक्षित , चिर कीर्ति , महान ।। 
ऋषि मुनियों की तपस्थली . शुचि , विन्ध्य प्रशस्त , पठार , वितान । 
चित्रकूट , पावन , मन्दाकिनि , क्षिप्रा , शुचि नर्मदा , महान ।। 
महाकाल का गढ़ विशेष , शिव - शक्ति पीठ के , केन्द्र वरिष्ठ । 
जहाँ साधना रत साधक , यति , तन्त्र मंत्र , विधि , यंत्र , विशिष्ट ।। 
बुन्दे ले वीरों की धरती , झाँसी का प्रसिद्ध इतिहास ।
 लक्ष्मीबाई का रण - प्रांगण , खुजराहो का कला विलास ।। 
 
आन बान पर मर मिटने , वाले वीरों का क्षेत्र विशेष । 
 
शौर्य , धैर्य , सौन्दर्य , कला , संगीत , प्रेम - परिपूर्ण प्रदेश ।। 
 
सद्गृहस्थ , साधक , सन्यासी , सिद्ध , विमुक्त , विमुख , अभिमुख । 
 
जान जाय पर शान न जाये , खारों में रहने का सुख ।। 
 
जंगल , खार , नदी , नाले , घाटियाँ , पहाड़ दुर्ग , खण्डहर । 
 
बागी , त्यागी , क्रान्ति - पथिक , हित क्षेत्र , सुरक्षित , रंच न डर ।। 
 
ऐसा ही सुरम्य संरक्षित , क्षेत्र विशेष देख , आजाद । 
 
बोले रुद्रनारायण जी से .- ' यहीं बने आश्रम उस्ताद ।। 
 '
साधुवेश तातार नदी तट , बियावान , ओरछा - विपिन । 
 
हनूमान की मड़िया से लग , बनी झोपड़ी बीते दिन ।। 
 
हिंसक पशु जंगल निर्जन , सुविधा विहीन , एकान्त निवास । 
 
सुख की नींद , किन्तु सोते आजाद , ब्रह्मचारी , बिन त्रास ।। 64 क्रान्तियज्ञ
यहाँ ब्रह्मचारी असुरक्षित ' सुनकर कहते , हँस आजाद । 
'
सब जीवों में एक आत्मा ' , हिंसक जीव , नहीं अपवाद ।। 
हरि इच्छा के बिना न पत्ता हिलता , यह अटूट विश्वास । 
जैसी होगी , प्रभु की मरजी , वह ही होगा , मिथ्या त्रास ।। 
सुन आस्थामय वाणी , जागा जन मन में , श्रद्धा विश्वास । 
पर प्रसिद्धि से भेद प्रगट भय , बदल बदल कर , नवल निवास ।। 
एक बार युवकों की बनी योजना , करें बराह शिकार । 
उनके साथ ब्रह्मचारी भी , जाने को बरबस तैयार ।। 
पूछा जब माहौर ने स्वामी वहाँ आपका , क्या है काम
प्रतिउत्तर तुरन्त - सूकर का हम कर देंगे काम तमाम ।। 
हमको भी बन्दूक एक दो , तब देखो , मेरा संधान । 
'
हँसे ठठा , माहौर प्रथम पर , दिए अस्त्र , अभिरुचि अनुमान ।। 
घुसे सभी बीहड़ जंगल में , छिपे सुलभ , जगहों पर सब । 
साधू जी को अलग बिठाया - देखें क्या कथनी - करतब ।। 
आया एक जंगली सूकर , बड़ा भंयकर , अति खूखार । 
सबने साथ चलाई गोली , किन्तु सभी का खाली वार ।। 
झपट पड़ा सूकर गुस्से में , गुर्रा कर , करता ध्वनि घोर । 
तभी सटीक निशाना घातक , बन्द किया , सूकर का शोर ।। 
घुर घुर ध्वनि कर , चक्कर खाकर , सूकर गिरा , मरा तत्क्षण । 
साधू जी की गोली से , सहसा प्रशान्त , बन का प्रांगण ।। 
काल स्वयं प्रत्यक्ष खड़ा था , नहीं सुरक्षित कोई ठौर । 
जान बचाकर सबकी सहसा , आज ब्रह्मचारी , सिरमौर ।। 
लौटे सब जंगल से खुश हो , साधू जी के प्रति सम्मान । 
महाराज यदि साथ न होते , निश्चय सबकी , जाती जान ।। ' क्रान्तियज्ञ 65
एक दिवस एकान्त प्राप्त कर , साधू से पूछे माहौर । 
महाराज क्या कोरे साधू ? मुझको तो लगते कुछ और ।। 
है रहस्य कुछ अवश्य मुझको , बतला दें , सब कुछ , अब आप । 
साधू जी बोले - न भेद कुछ , व्यर्थ न मुझसे , करो प्रलाप ।। 
हम तो मात्र ब्रह्मचारी हैं , नहीं भेद मेरा , कुछ अन्य । 
रुद्रसिंह ने प्रगट किया रहस्य - ' आजाद सपूत अनन्य ।। 
यथा समय मास्टर साहब ने प्रकट किया , रहस्य सोद्देश्य । 
परिचय दे विश्वास बढ़ाया , एक पंथ के , दो गणवेश ।। 
दोनों मिले गले गद्गद् हिय , एक एक मिलकर , ग्यारह । 
दल संगठन सुदृढ़ करने को , संकल्पित मन , पौ - बारह ।। 
इसी तरह की , अन्य विविध , घटनायें साहस शौर्य प्रधान । 
धैर्य , वीरता , गुप्त संगठन , कार्य प्रगति की हैं प्रतिमान ।।

खलिया धाना के नरेश 
खलियाधाना के नरेश , श्री खलक सिंह जू देव महान । 
राष्ट्रवाद के प्रबल प्रशंसक , पोषक , संरक्षक , सरनाम ।। 
परिचय उनसे मास्टर जी का , करें अगर सोद्देश्य प्रयास । 
झाँसी दल हित मिलें अस्त्र , उनसे कुछ . सबको था विश्वास ।। 
क्रान्तिकारियों के प्रति भी था , खलक सिंह का प्रेम अपार । 
मुलाकात राजा से शीघ्र करें , आजाद का बना विचार ।। 
बना कार्यक्रम रुद्रमास्टर के , माध्यम , सब गुप्त रहस्य । 
राजा के बन अतिथि विशिष्ट मिले प्रातः संगठन सदस्य । 
राजा कोठी प्रांगण सुन्दर , बाग , राजसी ठाट , विशेष ।। 
मास्टर के सँग आये , अतिथि अपरिचित , सज धज , सुन्दर वेश । 
राजा ने आगे बढ़ स्वागत किया , यथोचित , भाव प्रधान । 
स्वयं पास बैठा आदर से , राजकीय स्वागत सम्मान ।। 
चर्चा चली निशानेबाजी की , सबने निज - निज अभ्यास । 
बढ़ा चढ़ाकर कहा , स्वयं आजाद को , अपने पर विश्वास ।। 
दरबारी क्यों पीछे रहते , तुरंत परीक्षा की ली ठान । 
ले बन्दूक हुए तत्पर आजाद , किन्तु नृप , परम सुजान ।। 
सम्मानित नव अतिथि हमारा , निश्चय सब विधि , कला प्रवीण । 
उचित नहीं पर प्रथम मिलन हो इनकी , कोई तौहीन ।। 
राजा बोले गुरु से पहले , शिष्य माहौर करें संधान । 
यदि वे असफल हों तब ही , गुरु की वारी का , उचित विधान ।। 
सफल हुए भगवान दास , दरबारी बैठे मुँह लटका । 
खलक सिंह का उचित तर्क आजाद भेद तब खुल न सका ।। क्रान्तियज्ञ 67

देर रात तक जमी गोष्ठी 
फिर भोजन संगीत गोष्ठी , कुन्दन लाल , गीत उस्ताद । 
मुशी अजमेरी कविवर भी , चला दादरा , ठुमरी नाद ।। 
परकीया के हाव भाव से , ओत - प्रोत गाने सुनकर । 
गजल , गीत , श्रृंगाररस प्रमुख सुन , माहौर के उर में डर ।। 
प्रणय गीत सुन सदा क्रोध से , झिड़क दूर हटते आजाद । 
आज यहाँ अति शान्त मगन अति , अवसर , यथा , तथा , अपवाद ।। 
हाव - भाव सुरताल प्रदर्शन यथा सुअवसर संगत् दाद । 
देख भाव अनुराग , बड़े आश्चर्य चकित , गायक उस्ताद । 
प्रथम गीत , संगीत , पुनः कविता अनेक रस , कथा पुराण ।। 
सुन आजाद हृदय से हर्षित , काव्य - वीर रस युत- आख्यान ।। 
देर रात तक जमी गोष्ठी , खान पान का विविध विधान । 
मुंशी जी ने पूछा- पंडित जी बतलावें निज अनुमान ।। 
कैसी रही गोष्ठी ' सुन आजाद कहें निज मन का भाव । 
श्रृंगारिक सुरताल न रुचिकर , मुझे वीररस का अति चाव ।। 
उत्साहित अति मुंशी जी , फिर काव्य वीर रस , युक्त प्रवाह । 
चला देर तक , आनन्दित अति , थे आजाद भरे उत्साह ।। 
मुंशी जी की कवितायें प्रिय , बहुधा गाते थे आजाद । 
कभी जोश में आ कहते - ' माहौर कहाँ मेरा उस्ताद ।। 
'
रुद्रनारायण सिंह प्रवीण अति , चित्रकार और छायाकार । 
आजाद का चित्र खींचने की इच्छा , परन्तु इन्कार हर बार ।। 
किन्तु एक दिन स्नान बाद , तहमद बाँधे , निकले आजाद । 
मास्टर बोले - ' इसी रूप में , चित्र खींच लेने दो , आज ।। 
मन की गति , स्वीकृति दे दी , उत्साहित हो , बोले तत्क्षण । 
'
मूंछ ऐठतें हुए चित्र खींचो ' , खिंच गया चित्र फौरन ।। 68 क्रान्तियज्ञ

सहसा एक दिवस आजाद , हुए झाँसी से भी , गायब । 
नहीं पता कब ? कहाँ गये वे ? प्रगट रहस्य , ज्ञान , शायद ।। 
यद्यपि छिन्न भिन्न दल गतिविधि , काकोरी अभियान के बाद । 
गिरफ्तारियाँ हुई बहुत , आजाद परन्तु , रहे आजाद ।। 
प्राण हथेली पर ले घूमें छद्म वेश में , यहाँ - वहाँ । 
खुफिया पुलिस की मोर्चाबन्दी प्रबल , परन्तु न थाह कहाँ
करते रहे संगठन दल का सुदृढ़ यथावत , गुप्त प्रचार । 
पुलिस आँख में धूल झोंक घूमते , कठिन था , पाना पार ।। 
उनका था तकिया कलाम - ' सर कटे राष्ट्रहित नहीं मलाल । 
शक्ति काटने वाले के , कर में पर कितनी ? अहम सवाल ।।

झाँसी से आजाद कानपुर 
झाँसी से आजाद कानपुर , हेतु किए सहसा प्रस्थान । 
प्राप्त हुआ था उन्हें गुप्त संदेश , संगठन कार्य महान ।। 
कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी , का पत्र ' प्रताप '  
राष्ट्रवाद से ओत प्रोत , वाणी निर्भीक , स्वतन्त्र कलाप ।। 
कोटि राष्ट्र नवयुवक प्रेरणा , पाते पढ़ उनका आह्वान । 
स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर होने को , प्रतिक्षण कुरबान ।। 
विद्यार्थी जी अति जनप्रिय , प्रेरणास्रोत , आश्रयदाता । 
क्रान्तिकारियों की गतिविधियों से , उनका विशेष नाता ।। 
वक्रदृष्टि थी गोरों की , उन पर , उनके दैनिक पर भी । 
किन्तु न कोई चारा चलता , सत्यराह , सँग जनता भी ।। 
झाँसी से आजाद , कानपुर आये , विद्यार्थी के पास । 
दोनों मिलकर बने चतुर्भुज , क्रान्तियज्ञ हित नवल प्रयास ।। 
रहने लगे कानपुर में , आजाद , गुप्त सब कार्य प्रसार । 
एक - एक मिल ग्यारह होकर , बड़े , क्रान्तिपथ , ध्येय अनुसार ।। 
कानपुर सा महानगर , जन - जन में स्वतन्त्रता अनुराग । 
विद्यार्थी , आजाद सा नेता , पाकर बढ़ी , क्रान्तियज्ञाग ।।

मंत्राहुतियाँ 
भगत सिंह अतिशय उत्साही 
उन्हीं दिनों में भगत सिंह , लाहौरी कर्मठ , वीर युवक । 
लिखे पत्र विद्यार्थी जी को , थी ' प्रताप ' सेवा , सुललक ।। 
धीर , वीर , उत्साही जन की , कभी उपेक्षा नहीं , ' प्रताप '  
स्वागत कर विचार का तत्क्षण , आने का भेजा सम्वाद ।। 
"
हिन्दुस्तानी प्रजातन्त्र दल ' का परचा , पहुँचा लाहौर । 
प्रेरित हो उससे अनेक , युवजन चल पड़े , क्रान्ति की ओर ।। 
मिली प्रेरणा भगत सिंह को , मिलन हेतु प्रस्तुत , प्रस्ताव । 
कैसे मिले राष्ट्रधारा में , करूँ कार्य कुछ , बने मिसाल ।। 
'
नौजवान भारत - दल , का , संगठन किए . युवजन पंजाब । 
किन्तु कार्य आगे न बढ़ा था , प्रबल क्रान्ति का , उनका ख्वाब ।। 
दल संगठन सूत्र जयचन्द्र के हाथ , मात्र बस , बात , विचार । 
कार्य न कोई जौहर दिखलाने का , पर उत्साह , अपार ।। 
भगत सिंह अतिशय उत्साही , पिता , किशन सिंह जी सरदार । 
चाह रहे थे , भगत सिंह तज राजनीति , देखें , घरबार ।। 
अंकुश नित्य बढ़ा जाता था , बंधन तोड़ , मुक्ति की चाह । 
चिंगारी अन्ततः प्रज्ज्वलित , बाँध तोड़ चल पड़ा प्रवाह ।।
कानपुर सँग दिल्ली से सम्पर्क , तुरन्त , निदेश अनुसार । 
पिजड़ा छोड़ उड़ गया पंक्षी , त्याग चला गृह , कुल , परिवार ।। 
भगत सिंह लाहौर से चलकर , दिल्ली आ पहुंचे तत्काल । 
'
अर्जुन ' नामक पत्र से हो , संलग्न , लगे फैलाने जाल ।। 
किन्तु अधूरा रहा ध्येय , ' अर्जुन ' का हुआ . प्रकाशन बन्द । 
विद्यार्थी के आमंत्रण पर , दूर हुआ सब अन्तर्द्वन्द्व ।। 
आशा औ उत्साह दोगुना , कानपुर प्रस्थान , तुरन्त । 
सह सम्पादक कार्य सम्हाला , पत्र प्रताप नाम ' बलवन्त ।। 71 क्रान्तियज्ञ
आये जब आजाद , देख विद्यार्थी पास , अजनबी एक । 
तेजस्वी नवयुवक छरहरा , गोरा , बदन , विलक्षण वेश ।। 
लम्बा कद , कुछ छोटी आँखें , केश बड़े , सिर पर पगडी । 
लुंगी , लम्बा कोट , ठेठ सरदार , वक्ष , बाहें तगड़ी ।। 
देख रहे थे चकित तभी विद्यार्थी जी की , पड़ी नजर । 
कहे ' आइये पंडित जी ' सुन , भगत सिंह की , दृष्टि उधर ।।
व्याकुल थे जिससे मिलने को , प्रिय बलवन्त , मिलो आजाद ।
पूर्ण हुई कामना तुम्हारी , प्रबल प्रेम का , पुण्य प्रसाद ।।
विद्यार्थी का उक्त कथन सुन , प्रत्याकर्षण प्रेम प्रवाह । 
गद् गद् हिय बलवन्त मिले - कह , ' क्रान्तिदेव के आजाद ' ।। 
अद्भुत शुभ संयोग क्रान्ति के , दो दीवानों का संगम । 
अनुपम , अतुलित कोटि गुणित हो , बढ़ा क्रान्ति - सरिता उद्गम ।। 
'
खूब मिले हम दोनों , मुझको , तुम जैसों की रही तलाश । 
गद् गद् हिय , रोमांच अश्रुपूरित सुनेत्र , बोले आजाद ।। 
विद्यार्थी जी बोले ' अब तक एक चक्र मय , क्रान्ति धुरी । 
दोनों चक्र जुड़े सम गति अब , निश्चित विजय की निकट घड़ी ।। 
सुन बोले बलवन्त - चक्र हम दोनों , आप है , सुदृढ़ धुरी । 
स्वयं प्रताप ' सारथी , लेखन ध्वजा , राष्ट्र जन , मन प्रहरी ।। 
रथ की सुदृढ़ धुरी , सुचक्र संतुलित , सारथी , कुशल प्रताप । 
जन गण का सहयोग , ध्वजा शुचि , सफल क्रान्ति - रथ , क्रियाकलाप ।। 
हँसे उक्ति सुन विद्यार्थी , आजाद कहे - ' सब शाश्वत सत्य । 
सुदृढ़ सुरथ , सारथी चतुर यदि , निश्चय विजय , प्राप्त गन्तव्य ।। 
क्षण में घुल मिल गये , एक मन , प्राण हुआ ज्यों परिचित पूर्व । 
क्रान्ति - सरित के मर्यादित तट , अन्योन्याश्रित , मिलन अपूर्व ।।

चले संग आजाद , भगत 
काकोरी षड्यन्त्र बाद , अशफाक उल्ला , बन्दी बनकर । 
रहे लखनऊ जेल , उन्हें बंदी बनने का , रंच न डर ।। 
किन्तु परवरिश हो कैसे , परिवार की , यह चिन्ता भारी ।। 
सुनते ही आजाद , किए आर्थिक सहायता , तैयारी । 
चले संग आजाद , भगत , पूछते जाँचते , बच छिपकर ।। 
शाहजहाँपुर में , अशफाकउल्ला के घर , पहुँचे दुपहर । 
अग्रज उनके , रियासतउल्ला , खाना खाने में थे लिप्त ।। 
कुंडी खटकी , खोला किवाड़ , बाहर दो खड़े , अपरिचित व्यक्ति । 
देख रियासत को परिचय ले , सौंप रुपये , उनके हाथ । 
बोले - ' ये रुपये आपको , भेजें है भाई अशफाक ।। 
'
इतना कह दोनों चल पड़े तुरन्त न अन्य , बात व्यवहार । 
खड़े रियासत रहे देखते , बहती रही , अश्रु की धार । 
याद पड़ी अशफाक की बातें , मिले पूर्व में , जब जा जेल । 
धन प्रबन्ध सब हो जायेगा , मत कर चिन्ता , विधि गति खेल ।।

पहुँची गाड़ी जहाँसघन वन 
जब तक रहा फरारी जीवन , मोटर , रेल या पद यात्रा । 
दल का अनुशासन कठोर , गतिविधि का , रंच न चले पता ।। 
सावधान हर ओर से रहकर , कथा , कहानी , गीत , संगीत । 
हँसी मजाक , यथारुचि , वार्तालाप , परस्पर प्रेम पुनीत ।। 
एक बार आजाद , राजगुरु , भगवान दास , गीतकार महान । 
चले जा रहे थे गाड़ी में , झाँसी था , गन्तव्य स्थान ।। 
समय कटे संदेह रहित , इसलिए , समझकर , उचित निदान । 
आजाद ने कहा माहौर से - ' प्रियवर छेड़ो रसमय , मीठी तान ।। 
'
सुनते ही आदेश लगे , माहौर सुनाने गीत सस्वर । 
आजाद राजगुरु का प्रोत्साहन , दाद , तालियाँ यद् - अवसर ।। 
गाने में सब मस्त तभी , बुन्देलखंड , सीमा अन्दर । 
पहुँची गाड़ी जहाँ सघन वन , नदी , खार , पर्वत , कन्दर ।। 
देख प्रकृति का वैभव अनुपम , राजगुरु , बोले सहसा । 
'
गुरिल्ला रणहित यह क्षेत्र , परम उपयुक्त लगे , दुर्ग जैसा ।। 
जानबूझ आजाद सुनी , अनसुनी किए , बातें उनकी । 
कहा डपट - बाधक न बनों , गाने में कर , बातें सनकी ।। 
में राजगुरु फिर , बोले -शिवा जी ऐसा स्थल । 
चुने हुए थे युद्ध हेतु , इसलिए विजय पाये , प्रतिपल ।।

सुन बेवक्त की बातें , झल्लाकर आजाद दिए , तब डाट । 
'
तेरी तेरे शिवा की ऐसी तैसी , चुपकर मूर्ख चपाट ।। 
'
आशय समझ , राजगुरु लज्जित , सहज शान्त , गायन तल्लीन । 
कटी राह सकुशल झाँसी में , समझाये , आजाद प्रवीण ।। 
राजगुरु से स्नेह से बोले - ' तुमको , शिवाजी को अपशब्द । 
कहा क्रोध में , ध्यान न देना , तेरे इस अविवेक से स्तब्ध ।। 
अपने धुन ' क्षण भर रुक पुनश्च बोले - ' निश्चय यह क्षेत्र है , अभयारण्य । 
यथा समय उपयोग करेंगे , हम निश्चय यह क्षेत्र सुरम्य ।। 

 

नहीं अभी तक गिरफ्तार आजाद 
काकोरी षड्यन्त्र के कैदी , छूटें कैसे ? सतत् प्रयास । 
किन्तु मुखबिरों के कारण , अब तक न पूर्ण हो पाई आस ।। 
जब भी कैदी जेल के बाहर निकले जाने हेतु अदालत ।
 उन्हें छुडालें बनी योजना , सब विपरीत परिस्थिति अवगत ।। 
 
जनता से सहयोग न किन्चित , सभी दमन - भय से पीड़ित । 
 
कार्यान्वयन सफल हो कैसे ? थे आजाद आदि चिन्तित ।। 
जयचन्द्र ने लाहौर से भेजे , यद्यपि कुछ उत्साही वीर । 
कार्य किन्तु हो सका न सम्भव , मन की मन में रह गई पीर ।। 
काकोरी का चला मुकदमा , अठारह माह तक , तब निर्णय । 
कुछ गवाह बन छूटे , कुछ कारण अज्ञात से , पात्र - सदय ।।
चौबीस अभियुक्तों में से , आजाद , शचीन्द्र , सान्याल , अशफाक । 
नहीं अभी तक गिरफ्तार , हो सके पुलिस को बड़ा विषाद ।। 
दामोदर , शिवचरण लाल , अस्वस्थ अतः वे छूट गये । 
वीरभद्र भी छूटे , किस कारण से ? तथ्य न ज्ञात हुए ।। 
कत्ल , डकैती , राजद्रोह की साजिश , युद्ध सम्राट विरुद्ध । 
विविध दफा में , चला मुकदमा - नाटक , शासक - शासित युद्ध ।। 
पण्डित जगत नारायण मुल्ला , थे सरकारी अधिवक्ता । 
अभियुक्तों के वकील थे , गोविन्द्र बल्लभपंत , चन्द्र भानु गुप्ता ।। 
पकड़े गये शचीन्द्र व अशफाक , जो थे अब तक बने फरार । 
चला मुकदमा अलग से उनका , जब दोनों हो गये गिरफ्तार ।। 
बिस्मिल , रोशन , अशफाक , लाहिड़ी , चारों को फाँसी की सजा । 
शचीन्द्र को काला पानी , मन्मथ को चौदह वर्ष सजा ।। 
पाँच को दस साल , तीन को सात साल , अन्य तीन को , पाँच पाँच वर्ष । 
सजा हुई मनमाने ढंग से , गये वीर सब , जेल सहर्ष ।।
 पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का , महाकाव्य सा प्रिय संदेश । 
 
कारागार से बाहर आया , सुन सुवचन अति व्याकुल देश ।।
 ' मिट गया जब मिटने वाला , फिर सलाम आया तो क्या
 
दिल की बरबादी के बाद , उनका पयाम आया तो क्या
 
सागर सा उमड़ा विरोध , हिल उठी केन्द्र की असेम्बली । 
 
हुए लाट मजबूर अतः फाँसी की तिथि , दो बार टली ।। 
 
फाँसी तिथि टलते रहने से , आशा थी शायद बच जाँय । 
 
किन्तु क्रूर दिन आ ही पहुँचा , नहीं वीर बच पाये , हाय ।। 
 
जन - हस्ताक्षर , कोटि प्रार्थनापत्र , न उन्हें बचा पाये । 
 
ब्रिटिश राज की दमन नीति , दानवता के बढ़ते साये ।।

सर्वप्रथम राजेन्द्र लाहिड़ी 
सर्वप्रथम राजेन्द्र लाहिड़ी को , गोंडा की जेल में । 
फाँसी हुई दिसम्बर सत्रह , उन्नीस सौ , सत्ताइस में ।। 
मृत्यु पूर्व राजेन्द्र लाहिड़ी , ने मित्रों को पत्र लिखा । 
निज संस्कृति अनुगूंज छिपी , जिसमें परिलक्षित आत्मव्यथा ।। 
बलिवेदी स्वराष्ट्र की आतुर , पाने को मेरा बलिदान । 
मैं सहर्ष तैयार खड़ा हूँ , अंतिम सबको मेरा प्रणाम ।। 
मृत्यु नहीं , यह नई दिशा , नवजीवन का यह , है प्रारम्भ । 
व्यर्थ न मृत्यु हमारी जायेगी , होगा जड़ता का अंत ।। 
यूँद बूंद से मेरे पैदा होगे , कोटिक बलिदानी । 
बदलेगा इतिहास , मृत्यु नवजीवन हित है कुरबानी ।। 
'
फाँसी के दिन राजेन्द्र लाहिड़ी , ब्रह्ममुहूर्त में उठ बैठे । 
नियमित स्नान , ध्यान , पूजन , से , हो निवृत्त यह वचन कहे ।। 
'
मैं तैयार हूँ ले चलिए अब , स्वयं हाथ करके पीछे । 
लगवा लिया हथकड़ी हँसकर , अफसर ने पूछा उनसे ।। 
'
नित्य क्रिया सब विधिवत क्यों कर ? ज्ञात तुम्हें होगी फाँसी । 
सुन सगर्व लाहिड़ी कहे - ' यह आज और आवश्यक थी ।। 
हम हिन्दू हैं , पुनर्जन्म में , हम सबका , अटूट विश्वास । 
जन्म मरण बन्धन अनादि , निज राष्ट्र भक्ति , चिर मुक्ति - प्रकाश ।। 
कार्य अधूरा छोड़ रहा जो , पुनर्जन्म लेकर , तत्काल । 
पूर्ण करूँगा निश्चय , आस्था , अतः मृत्यु भय का , न सवाल ।। क्रान्तियज्ञ 77
बड़ी कृपा प्रभु की मुझपर है , नहीं बुढ़ापे का झंझट । 
मृत्यु युवावस्था में , यौवन पुनः शीघ्र , फिर क्रान्ति सुभट ।। 
बच जाने पर , प्रथम बुढ़ापा , मृत्यु , जन्म फिर , बहुत विलम्ब । 
मातृभूमि की बेड़ी कटने में , अब देरी कम से कम ।। 
'
सुन आश्चर्य चकित था अफसर , मृत्यु वरण का , यह उल्लास । 
मन में भय चिन्तन अन्तर मन साम्राज्यवाद का निश्चय नाश ।। 
फाँसी फन्दा खेल खेल में , झेल रहे , युवजन जिस देश । 
नहीं गुलाम बना रह सकता , भारत जैसा देश विशेष ।। 
अंग्रेजी साम्राज्यवाद का , सूरज अस्ताचल की ओर । 
भारत की स्वतन्त्रता निश्चित , क्रान्ति ज्वार की प्रबल हिलोर ।। 
'
फाँसी के तख्ते पर चढ़कर , पुनः प्रार्थना , फिर आह्वान । 
व्यर्थ न जाती कभी शहादत , मातृभूमि हित हर बलिदान ।। 
अपने हाथ से चोंगा पहना , फन्दा गले लगाया वीर । 
बोला तब जल्लाद से ' खींचो ' , गूंजा - ' जय श्रीराम ' गम्भीर ।।

पंडित राम प्रसाद जी बिस्मिल 
पंडित राम प्रसाद जी बिस्मिल , गोरखपुर की जेल में । 
फाँसी फन्दा झूल गये , हँसते गाते . ज्यों खेल में ।। 
निज जननी को पत्र लिखा , जो मातृभूमि हित , चिर संदेश । 
उन्नीस दिसम्बर उन्नीस सौ , सत्ताइस , वीरोचित परिवेश ।। 
मिलने गये जेल में , उनसे , माता पिता , सगे भाई । 
निकल सेल से देख स्वपरिजन , आँखें उनकी भर आई ।। 
माँ ने पूछा - ' राम तुम्हारी आँखों में , आँसू क्यों कर
कोख हमारी हुई धन्य है , तुमसा वीर पुत्र पाकर ।। 
बिस्मिल बोले - ' माँ मेरी कमजोरी के ये अश्रु नहीं । 
ये गौरव , खुशियों के आँसू , इससे बढ़ क्या हर्ष कहीं
जननी विह्वल हो बिस्मिल को , लिपटायी उर प्रीति से । 
जन्म भूमि की गोद में सोना , लाल मेरे , चिर शान्ति से ।। 
भोजन स्वयं बनाते बिस्मिल , अपना , नियमित जेल में । 
अंतिम दिवस खिलाया , खाया , स्वयं बाँटकर , प्रेम से ।। 
सबने कौर खिलाया , सबको , भेद - भाव सब , भूलकर । 
उत्सव की खुशियाँ बिखेर कर , नृत्य गान , अति , झूमकर ।। 
'
सरफरोशी की तमन्ना , का गायन दे दे कर ताल । 
जय भारत ' ' जय भारत माता , ' जय शहीद जय भारत लाल ।।
जय भारत के प्रजातन्त्र की नारा लगा , सभी निर्भय । 
विदा हुए पुरजोर लगा नारा ' - भारत माता की जय ।। 
क्रान्तियज्ञ हो सफल तथा ' जय हिन्द ' वन्दे मातरम् का घोष । 
करते , फाँसी घर के पथ पर , यथा निकट , बढ़ता था जोश ।। 
'
मालिक तेरी रजा रहे , और तू ही तू रहे । 
बाकी न मैं रहूँ , न मेरी आरजू रहे ।। 
जब तक कि तन में जान , रगों में लहू रहे । 
तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे ।। ' 79 क्रान्तियज्ञ
यह प्रिय गाना गाते , हँसते , जा पहुँचे फाँसी घर पास । 
सुनकर गौरव गान हुआ , कण - कण , कृतकृत्य धरा , आकाश ।। 
हँस पूछा अधिकारी ने - 
'
अन्तिम इच्छा क्या है विस्मिला साम्राज्यवाद का सर्वनाश हो , शीघ , यही , मुराद तहदिल । 
हँसते हँसते झूल गये , फाँसी का फन्दा , स्वयं पहन । 
गीता को ले हाथ माथ धर , अन्तिम , जय श्रीकृष्ण , कथन ।। 
क्षण में ही जल्लाद ने , रस्सी खींची , झूला , निश्चल तन । 
अमर आत्मा विश्वासी चिर , पल छोडा जग बन्धन ।। 
लाल हुआ , आकाश रक्त सा , चिड़ियों का चह , चह क्रन्दन । 
ऐसे अमर शहीदों का , युग युग तक कोटि , कोटि , वन्दन । 
पहले लाश नहीं देने की आज्ञा हुई , मगर जननी ।। 
बोली - लूँगी लाश न चल पायेगी , उनकी मनमानी । 
नहीं मिली यदि लाश , लाल की , यहीं उठेगी , मेरी लाश । 
जननी के जिद के आगे , आखिर उतरा , अफसरी लिबास ।। 
सौंपी लाश पुलिस ने माँ को , चला जलूस लिए टिकठी । 
लाखों की थी भीड़ , बीच उर्दू बाजार में , सभा जुटी ।। 
माँ की आज्ञा हुई मंच पर ही टिकठी को खड़ा किया । 
प्रिय शहीद के शव को जीवित , जन नायक , सम्मान दिया ।। 
देश भक्ति से पूर्ण दिया भाषण , शहीद माँ का आह्वान । 
नहीं पास मेरे अब कुछ भी , छोटे बेटे का , बलिदान ।। 
मातृभूमि की सेवा हित , इसको अर्पित करती , तत्काल । 
जनता ने जयकार किया , ' जननी तू धन्य , धन्य तव लाल ।। 
धरा , अग्नि , जल , पवन , गगन से प्रतिपल आती सी , आवाज । 
अंत निकट साम्राज्यवाद का , अब न रहेगा गोरा राज ।। 
जन जन ने अपने नेता को , दी श्रद्धांजलि , ' कुछ यही । 
कर गुणगाना स्मृतियाँ लेकर चले गये सब , होठों पर प्रिय शहीद गान ।। 
आरजू नहीं है आरजू रख दे कोई जरा सी खाके वतन कफना

ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी 
उन्नीस दिसम्बर , उन्नीस सौ सत्ताइस को , रोशन सिंह वीर । 
फाँसी फंदा झूल गये , बन गये प्रेरणास्रोत , नजीर ।। 
ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी , हुई इलाहाबाद में । 
लिखा मित्र को पत्र , प्रेरणास्पद , स्वधर्म गुणगान में ।। 
'
शास्त्र मान्यता धर्मयुद्ध में , जो करते न्यौछावर प्राण । 
उनको मिलती मुक्ति , वीर गति योग , ज्ञान तप , भक्त्ति , समान ।। 
अति प्रिय उनकी उक्ति - ' जिन्दगी जिन्दादिली का नाम । 
जिन्दादिली न जीवन में यदि . वह जीवन है मरण समान ।। 
गये अदालत में सुनने , निज सजा , सभी , उत्सुकता अति । 
रोशन अंग्रेजी से थे अनभिज्ञ , अतएव असुविधा अत्ति ।। 
रोज - रोज बातें होती , फाँसी या कैद सजा , किसको
प्रोत्साहन , हतोत्साहन मय मजाक , नित्य जिसको , तिसको ।। 
निर्णय के दिन साथ सभी थे , फाँसी सुन , उत्साह अपार । 
कैद सजा , काले पानी जिसको , निज को , निज का धिक्कार ।। 
आई रोशन की बारी , जब , बोला जज अंग्रेजी में । 
समझ न पाये वे , मजाक में , धिक्कारे सब , शेखी में ।। 
यद्यपि था विश्वास नहीं , पर मन मसोस , कुछ क्षण टाला । 
पूछा रामप्रसाद से - ' जज ने बकर - बकर क्या , बक डाला
फाँसी की सुन सजा हुए खुश , उछल पड़े , बोले - ' तुम राम । 
जाते रहे अकेले , अब सँग मातृभूमि को , करें प्रणाम ।। 
'
पुण्य त्रिवेणी संगम का , पावन जल सो अल्लाह ईश्वर । 
गंगा - यमुनी संस्कृति , चिर संदेश दे धवल श्याम लहर ।। 
गूंज उठी जय ध्वनि , प्रतिध्वनि फिर धरा - जलाग्नि पवन , अम्बर । 
जय बजरंग बली , जय दुर्गे , जय शिवशंकर अंतिम स्वर ।। 
फाँसी फंदा झूल गये , हँसते - हँसते रोशन सिंह वीर । 
जन्मभूमि हित जीवन अर्पित , विरलों की ऐसी तकदीर ।। 
राष्ट्रधर्म हित शहीद बनकर , रोशन सिंह हो गये अमर । 
उनका यह बलिदान प्रेरणाप्रद , प्रतिदिन , प्रतिग्राम , नगर ।। 

झूल गये फाँसी फन्दा अशफाक उल्ला 
अशफाकउल्ला ने अन्तिम , इच्छानुसार , बनवाया सूट । 
पहन उसे , चूमा , काले फाँसी चोगें को , दुल्हन रूप ।। 
फैजाबाद की जेल में हँसते , गाते , फाँसी तख्त चढ़े । 
कन्धे पर ले कुरानपाक लवैक कहे , व कलाम पढे ।। 
फाँसी तख्ते का कर चुम्बन , हाथ उठाकर , कहा सलाम । 
नहीं हाथ इन्सानी खू से रंगे मेरे , झूठा इल्जाम ।। 
पाप घड़ा भर गया है इनका , कार्य इरादे , सब नापाक । 
आज नही कल को निश्चय ही खुदा के घर , मेरा इन्साफ ।। 
'
तंग आकर हम भी उनके . जुल्म के बेदाद से । 
चल दिए सूएअदम जिन्दाने फैजाबाद से ।। 
'
झूल गये फाँसी फंदा , अशफाक उल्ला गा गीत निडर । 
उन्नीस दिसम्बर उन्नीस , सौ सत्ताइस की , तारीख अमर ।। 
चले रियासत लाश साथ ले , शाहजहाँपुर हित , चढ़ रेल । 
बालामऊ में रुकी रेल तब , सज्जन आये , एक अकेल ।। 
सूट बूट में गार्ड रूप में , सजे , लाल बत्ती लेकर । 
शहीद को हमको दिखलाओ आँखों से आँसू झर झर ।। 
कफन हटाकर , तीन बार कर , परिक्रमा , बोले तत्काल । 
'
प्रिय शहीद अलविदा तुम्हें , तुम अमर हो गये , भारत लाल ।। 
अशफाक उल्ला , आज तुम्हारा , सहयोगी अति , भरा विषाद । 
पूर्ण करेगा कार्य अधूरा , भारत होगा शीघ्र आजाद ।। क्रान्तियज्ञ 82
कफन ढाँककर , हाथ जोड़ , फिर , लौटा तुरत , विलम्ब न रंच । 
'
यह संसार , प्रकाश पुन्ज के , समक्ष , केवल नाटक मंच ।। 
'
सोचे समझें . कहें , रियासतउल्ला कुछ , इसके पेश्तर । 
गायब हुए . अँधेरे में , आजाद , हृदय पर , धर पत्थर ।। 
साथी , क्रान्ति - पथी , सुयोग्यतम वीर , बाँकुरा , भारत लाल । 
अर्थी पर पुष्पांजलि अंतिम का , न सुयोग अधम गति काल ।। 
अमर हुए अशफाक , लाहिड़ी , बिस्मिल , सँग , रोशन सिंह वीर । 
फाँसी फंदा झूल गये , हँसते गाते , भारत के वीर ।। 
काकोरी षडयन्त्र अनूठा , युवाशक्ति के लिए नजीर । 
देश धर्म हित , प्राण न्यौछावर , करने को , उद्यत सब वीर ।। 
काकोरी के बलिदानों से , यद्यपि , क्रान्तियज्ञ अवरुद्ध । 
जन आक्रोश न दब पाया , मन , युवजन का था , दमन विरुद्ध ।। 
यद्यपि अस्त - व्यस्त सी कुछ दिन , क्रान्तियज्ञ की , चिनगारी । 
पर आजाद जलाये रक्खे , क्रान्ति - ज्योति , जन , मन प्यारी ।। 
गुप्त रूप से क्रान्तिकारियों का , विचार - विनिमय जारी । 
करें संगठन सुदृढ़ , हेतु इस , गुप्त रूप , सब तैयारी ।।

फिरोजपुर जनपद का खंडहर 
आठ दिसम्बर सन् अट्ठाइस , प्रमुख क्रान्तिकारी संगम । 
फिरोजपुर , जनपद का खंडहर , दृढ़ता , निर्भयता का , क्रम ।। 
प्रमुख क्रान्तिकारी सब मिल , केन्द्रीय समिति का किये गठन । 
सात सदस्य , श्रेष्ठ इसके , आजाद , भगत , फणीन्द्र , कुन्दन ।। 
शिव शर्मा , सुखदेव , विजय , मिल , क्रान्तियज्ञ पथ , दृढ़ निश्चय । 
'
हिन्दुस्तानी - समाजवादी - प्रजातान्त्रिक - सैन्य , उदय ।।
इन्डियन - सोसलिस्टिक - रिपब्लिकन - आर्मी ' अंग्रेजी में इसका नाम । 
सूत्र रूप में इंसोरिआ , या ' हिसप्रस ' नाम , हुआ सरनाम ।। 
कलकत्ता , लाहौर , सहारनपुर , में , बम निर्माण की ठान । 
गुप्त कारखाने आगरा में , यथायोजना , कार्य - वितान ।। 
सार्वजनिक महत्व के जो , मामले मात्र , उनमें ही हाथ । 
जनता में हो असंतोष , तब ही जनता दे , सकती साथ ।। 
इस निर्णय के साथ हुए , सक्रिय , सब , निज , निज , क्षेत्र विशेष । 
हर सदस्य कर्तव्य करे , पालन , जो भी , अध्यक्षादेश ।।

साइमन वापस जाओ नारा 
भारत में शासन सुधार हो , क्या ? कितना और कहाँ कहाँ
उन्नीस सौ अट्ठाइस में , साइमन कमीशन , आगमन यहाँ ।। 
काँग्रेस सहित अनेक दलों का , रोष , कमीशन का प्रतिरोध । 
'
साइमन वापस जाओ , नारा , भारत भर में , प्रखर विरोध ।। 
'
हि.स.प्र.स. " ने भी , दृढ़ निश्चय कर , किया विरोध , कमीशन का । 
बीस अक्टूबर अट्ठाइस को , कमीशन जब , लाहौर पहुँचा ।। 
जन - सागर उमड़ा , सड़कों पर , साइमन का विरोध , अति घोर । 
लाला लाजपत राय का था , नेतृत्व , प्रबुद्ध नगर , लाहौर ।। 
दृष्टि जहाँ तक जाती , भीड़ चतुर्दिक , ले काले झन्डे । 
'
साइमन वापस जाओ ' नारा , पुलिस सतर्क , लिए डन्डे ।। 
किया मार्ग अवरुद्ध , साइमन को , न पाँव रखने का , स्थान । 
खड़े रह गये , स्टेशन पर ही , नहीं वे कर पाये , प्रस्थान ।। 
पुलिस अधीक्षक ' स्टाफ ' ने तत्क्षण , लाठी चार्ज का , हुक्म दिया । 
लगी निहत्थों पर , लाठी वर्षा होने , पर , पथ न दिया ।। 
डटे रहे , सब लोग लाठियों की वर्षा के , बीच भी । 
बर्बरता का नग्न नृत्य , पर जन समुद्र का , जोश भी ।। 
सान्डर्स ' पुलिस का अफसर जालिम , लाला जी का वृद्ध शरीर । 
मारा लाठी , छतरी टूटी , सिर , कन्धों , पर , चोट गम्भीर ।। 
घेर लिया , लाला को युवकों ने , जन पर्वत , अटल खड़ा । 
रुकी न जालिम की हरकत , वह बर्बर राक्षस , टूट पड़ा ।। 
लाला स्थिति को भाँप , प्रदर्शन स्थगन हितार्थ , दिए आदेश । 
घायल , रक्त से लथपथ लाला , अति वीभत्स , करुण परिवेश ।। 
मोरी दरवाजे पर सभा जुटी , उस शाम , लाजपत राय । 
दिए चुनौती , ब्रिटिश हुकूमत को , यद्यपि घायल , कृशकाय ।। 
'
जो सरकार , निहत्थी जनता पर , करती , बर्बर हमले । 
वह सरकार न बच पायेगी , जोर जुल्म - जितना कर ले ।। 
आज चुनौती मेरी सुनले , ब्रिटिश मदान्ध , क्रूर सरकार । 
तेरे काफिन कील बनेंगे , जितने लाठी किए प्रहार ।। 
'
सभा विसर्जित हुई , किन्तु युवकों में बर्बरता पर क्रोध । 
लाला भीष्म पितामह जैसे , सर शय्या पर , पड़े सबोध ।। 
बूढ़ा सिंह , स्वस्थ क्या होता ? चोटों ने ढा दिया कहर । 
उन पर हुए , कातिलाने हमले का , घातक हुआ असर ।। 
हुए स्वर्गवासी लाला अन्ततः नवम्बर सत्रह को । 
डूबा भारत शोक सिन्धु में , वीर प्राप्त दुर्लभ गति को ।।

लाला जी के हत्यारे से 
वृद्ध सिह का गर्जन अतिम , बढ़ा राष्ट्र गौरव . सम्मान । 
परहित में दे प्राण , अमर , पंजाब केशरी'वीर महान ।। 
युवकों में प्रतिशोध की ज्वाला , भड़क उठी , भारत भर में । 
लालाजी की मृत्यु का बदला , का संकल्प लिया कुछ ने ।। 
जयगोपाल की जिम्मेदारी , सान्डर्स की , लेने की टोह । 
लाला जी के हत्यारे , सान्डर्स . दुष्ट पर , सबका कोह ।। 
चार व्यक्तियों का दल हुआ , नियुक्त , करें जो काम तमाम । 
आजाद , भगतसिंह , राजगुरु सँग , जयगोपाल , वीर सरनाम ।। 
लाला जी के हत्यारे से , बदला लेने की मन ठान । 
'
हिन्दुस्तानी - समाजवादी - प्रजातन्त्र सेना ' , मैदान ।। 
चन्द्रशेखर आजाद , जिन्हें सब साथी , कहते भाई जी । 
उस सेना के थे प्रधान , यह अनुपम , क्रान्ति लड़ाई थी ।। 
यथायोजना , क्रान्ति दूत सब जा पहुँचे , लाहौर नगर । 
लाला जी के हत्यारे पापी जे.पी. सान्डर्स के घर ।। 
हुआ वक्त आजाद माउजर को सम्हाल , मैग्जीने दो । 
जेबों में भर बोले - ' वक्त हुआ शेरों पिस्तौलें लो ।। 
'
सेनापति की आज्ञा सुन , बलवन्त पिस्तौल , साइकिल , सम्हाल । 
आजाद संग डी . ए वी . कालेज आये , सब बन , सान्डर्स काल ।। 
जयगोपाल , संग मोर्चे पर राजगुरु पहुंचे पहले । 
यथायोजना , मिले साथ , बलवन्त , आजाद नहले - दहले ।। 87 क्रान्तियज्ञ
जे.पी. सान्डर्स , यथा समय , मोटर साइकिल पर हुआ सवार । 
जैसे ही वह बाहर निकला , सहसा मिला उसे प्रतिकार ।। 
राजगुरु ने बिना चूक सिर में सटीक एक वार किया । 
साथ - साथ बलवन्त ने भी , फायर सिर , कन्धे , चार किया ।। 
लहूलुहान , गिरा सान्डर्स शठ से शठ , सा व्यवहार हुआ । 
अत्याचारी के कुकर्म का , यथायोग्य , सत्कार हुआ ।। 
प्राण - पखेरू उड़े तुरत , ऐसा सटीक था वार किया । 
लाला जी के हत्यारे से , वीरों ने प्रतिशोध लिया ।। 
हत्यारे की हत्या , जुल्मी , अत्याचारी से , बदला । 
अंग्रेजों को शोक , राष्ट्रभक्तों को सुख , संतोष मिला ।।

सान्डर्स को सुरधाम भेजकर 
सान्डर्स को सुरधाम भेजकर , क्रान्ति वीर , योजनानुसार । 
बैठ साइकिलों पर लौटे , आजाद लिए . दल रक्षा भार । 
सान्डर्स को गिरते देखा जब , एक सिपाही लहूलुहाना 
गोली की आवाज सुना , चिल्लाया , दौड़े तीन जवान ।। 
भगत सिंह ने फौरन मुड़कर , गोली मारी , फर्न पर । 
बाल - बाल बच गया , भाग्यवश , मुह क बल , भू पर गिरकर ।। 
अन्य सिपाही भागे सरपट , पर चन्दन सिंह , मूर्ख जवान । 
झपटा , झटपट राजगुरु पर , एक ठाँय में निकली जान ।। 
खबरदार आजाद ने किया , कहा ' भाग जाओ बचकर । 
मूर्ख मर्म को समझ न पाया , जान गँवाया खुद फँसकर । 
लाला जी की मृत्यु का बदला लिए वीर डटकर सोत्साह । 
मिला ईंट का जवाब पत्थर से , प्रिय क्रान्तिशक्ति , की राह ।। 
भारत भर में , इस घटना की हुई , विशद चर्चा घर घर । 
रातो रात चढ़े योद्धा सब , जनता के सिर , आँखों पर ।। 
घटना के दूसरे दिवस ही , पर्चे लाल , बँटे तत्काल । 
हिसप्रस ' का उद्देश्य , संगठन , कार्य आदि सब , विस्तृत हाल ।। 
'
गोरी सत्ता सावधान ' , ' इन्कलाब जिन्दाबाद ।
'
अत्याचारी सावधान , ' ' भारत अब होगा आजाद ।। 
पर्चे की बातें पढ़ सुन , गोरी सत्ता थर्राई फिर । 
भारत भर में इस प्रसंग ने , क्रान्ति अग्नि भड़काई फिर ।। 
पागल हुई पुलिस पंजाबी , बड़ी चुनौती , हि.स.प्र.स. की । 
गुप्तचरों का जाल बिछ गया , पकड़ , तलाशी , घर घर की ।। 
दल के लोग , सुरक्षित रहकर , मिले मतंग निवास , उस शाम । 
सबका दृढ़ निर्णय तुरन्त , लाहौर में उचित न अब , विश्राम ।। 
गोपी चन्द्र के घर , यशपाल , सुखदेव के सँग , दुर्गा भाभी । 
छिपी भगवती की प्रिय पत्नी , धीर वीर , क्रान्तिवादी ।। 
मेम साज सज दुर्गा भाभी , साहब साज , भगत सिंह साज । 
राजगुरु , उनके नौकर बन , कलकत्ता प्रस्थित , कर काज ।। 89 क्रान्तियज्ञ

पूर्ण सुरक्षित नगर आगरा 
गुप्तचरों का जाल बिछा था , पग - पग , किन्तु न , बॉका बाल । 
क्रान्ति पथिक चल पड़े सुरक्षित , सजग , पूर्ण , सुनियोजित चाल।। 
साहब मेम , साथ जब पूछे कौन ? कहाँ जाना उनको । 
हुए पार निर्विघ्न , न शंका , रंच मात्र , गुप्तचर दल को ।। 
उसी ट्रेन में बने महात्मा , ओढ़ रामनामी दुपटा । 
चले गये आजाद सुरक्षित , निज गन्तव्य , बिना खटका । 
गुप्त रूप से बीते कुछ दिन , इधर उधर सब , सजग , सतर्क । 
आपस का सम्पर्क , क्रान्ति योजना , ध्येय में , रंच न फर्क ।। 
बना आगरा केन्द्र क्रान्ति का , बम का खुला कारखाना । 
दो मकान ले विविध मुहल्लों में , बुन कर ताना बाना ।। 
सुखदेव , कुन्दन लाल , निपुण अति , करते थे , बम का निर्माण । 
बम के खोल अलग बनते थे , पूर्ण सुरक्षित , काम तमाम ।। 
क्रान्ति सदस्यों के मिलने का , गुप्त केन्द्र , आगरा निवास । 
साहित्यिक सम्मिलन बहाने , क्रान्ति मार्ग हित , गतिविधि खास ।। 
पूर्ण सुरक्षित नगर आगरा , यमुना , चम्बल , बीहड़ , पास । 
सदा बागियों को जो देता रहा , सुरक्षित , सुखप्रद वास ।। 
दिल्ली और पंजाब निकट अति , शीघ्र सभी , गतिविधि का ज्ञान । 
कलकत्ता , बम्बई चतुर्दिक , आवागमन , सुलभ आसान ।। 
प्रमुख पर्यटन केन्द्र अतः नित नये नये , लोगों की भीड़ । 
वेष बदल , दल गुप्त कार्य हित , आगरा परम , सुरक्षित नीड़ ।। 

पुरुषों सँग नारियाँ भी दल में 
भारत के कोने कोने में , नवल क्रान्ति उद्घोष हुआ । 
पुरुषों सँग नारियाँ भी दल में आईं , दूना जोश हुआ ।। 
गली , गाँव हर नगर , डगर में , मातृशक्ति में , उमड़ा जोश । 
लगी जगाने कायर पुरुषों को , चूड़ी पहना , सहरोष ।। 
युवकों को चूड़ी दे कहतीं , -लो चूड़ी , तुम घर बैठो । 
हम नारियाँ चली समरांगण , तुम अब चूल्हा , चक्की लो ।। 
ऐसे ही आजाद से एकदिन , दिल्ली के एक गुप्त निवास । 
हृष्ट पुष्ट तन , फिर भी घर में , छिपा देख , गतिविधि , अज्ञात ।। 
एक बालिका ने सहसा , चूड़ी देकर , आजाद को । 
कहा - ' कापुरूष चूड़ी पहनो , नारि समर्पित राष्ट्र को ।।
सुन बातें बतलाया , उसकी माँ ने - ' ये शेखर आजाद ।
लज्जित हुई बालिका सुनकर , ग्लानि , मानसिक , क्षमा , विषाद ।। 
बोली गर्व सहित तब लड़की - ' तुम जब इतने बलशाली । 
क्यों कायर से घर में बैठे , उठो बनो बजरंग बली ।। 
सुन बोले आजाद गर्व से , भगिनी तेरी बात सही । 
क्रान्ति युद्ध में मातृशक्ति के , योगदान की , घड़ी यही ।। 
तुम जैसी ललनायें , आगे बढ़ीं , अतः विश्वास प्रबल । 
क्रान्तियज्ञ प्रज्ज्वलित , प्रखरतम , होगा , राष्ट्रोद्देश्य सफल ।। 
थे आजाद संयमी , नियमी , मन , इन्द्रिय निग्रह पर जोर । 
पुरुष जाति की कमजोरी से परिचित , दल के नियम कठोर ।। 
नारी चर्चा , कभी न पहले , दल में , नारी , नहीं सदस्य । 
नारी से सम्पर्क निषिद्ध अति , नारी से डर , खुले रहस्य ।। 
ब्रह्मचर्य , अनुशासन कसरत , उनकी नित्य क्रिया का अंग । 
वर्जित सब श्रृंगारिक गतिविधि , मात्र वीर रस , युक्त प्रसंग ।। 
भगत सिंह पर उन्हें नाज अति , वीरोचित , सुवेश , व्यवहार । 
सदा वीरतामय उद्बोधन , वीरोचित गतिविधि से प्यार ।।
नारिवर्ग से , घृणा न उनको , नारी प्रति समुचित सम्मान । 
पर नारी प्रति , पुरुषों की , कमजोरी से वे अति सावधान ।। 
अति आवश्यक जहाँ , वहाँ , माँ , बहन , बटियो , का व्यवहार । 
नहीं कभी अनुचित आकर्षण , मात्र , सामयिक , शिष्टाचार ।। 
अति कठोर , संयम , अनुशासन , परिपालन का पूर्व निदेश । 
जब आवश्यक हुआ अन्ततः निर्णय दल में , नारि प्रवेश ।। 
अनुभव से जब ज्ञान हुआ , नारी न मात्र दुर्बल , अबला । 
वह समर्थ , अनुचित प्रतिरोधी , दुष्ट - दमन - सक्षम , सबला ।। 
अनुशासन , संयम , श्रद्धा , विश्वास प्रेम की वह प्रतिमूर्ति । 
सीता , सावित्री , राधा , दुर्गा , काली , लक्ष्मी सी कीर्ति ।। 
अर्धागिनी , सहचरी , सार्थक , अति उपयोगी , क्रान्ति सुमार्ग । 
अतः बना दल नियम , नारियाँ भी सदस्य हों , लक्ष्य हितार्थ ।। 
करके उचित चुनाव , प्रशिक्षण दें , आजाद स्वयं , सोत्साह । 
अति आत्मीय भाव नारी प्रति , क्रान्ति नहीं , निष्कन्टक राह ।। 
कुछ ही दिन में , पूर्ण प्रशिक्षित , हुई सुशीला दीदी , आदि । 
एक बार एक शरण स्थल में , रंच रसिक गति , बढ़ा विवाद ।। 
सुनते ही आजाद हो गये , आगबबूला , ले पिस्तौल । 
चले मारने रसिक को , दीदी रोक कहीं , मत करो मखौल ।। 
था संयोग समक्ष न रसिया , समझाने पर हुए , प्रशान्त । 
किन्तु निवास छोड़ने का , निर्णय तत्क्षण , जन असम्भ्रान्त ।। 
छोड़ चले सुख सुविधा सारी , पूर्ण सुरक्षित , वास स्थान । 
हर कीमत पर अनुशासन प्रिय , सहन नहीं नारी अपमान ।।

क्रान्ति पथिक जीवन कंटकमय 
संस्कारी ब्राह्मण शेखर का , खान - पान , शाकाहारी । 
सदा दूर मादक द्रव्यों से , जीवन सरल , सदाचारी ।। 
क्रान्ति पथिक जीवन कंटकमय , पूर्ण अनिश्चित , अनु - प्रतिकूल । 
बहुधा जल , भोजन अभाव में , चना , चबेना खा कंद मूल ।। 
रूढवादिता से भी व्यतिक्रम , बहुधा चकमा , स्वाँग यथा । 
खान - पान , व्यवहार , बात सब , नाट्य पात्र सा उचित तथा ।। 
भगत सिंह का संग , क्षत्रियोचित , दल खान - पान , संयम । 
बहुमत देख , असहमति अनुचित , त्यागे क्रमशः रूढ़ि नियम ।। 
कच्चा अन्डा सेवन करते , देख एक दिन भगवान दास । 
पूछे - पंडित जी यह क्या ? आजाद का प्रति उत्तर विश्वास ।। 
'
अन्डा तो शाकाहारी है , फल सा वैज्ञानिक निष्कर्ष । 
अन्डा फल तो , मुर्गी तरु ' , भगवानदास का , व्यंग सहर्ष ।। 
भगत सिंह का लगा ठहाका , मुस्काए , आजाद मधुर । 
बोले - ' अंडा मुझे खिलाते , उस पर व्यंग की , मिर्च प्रचुर ।।
सुन यह नोक - झोंक सब हर्षित , रेगिस्तान में , नखलिस्तान । 
इसी तरह के रोचक क्षण , जीवन - निशीथ में , प्रभा समान ।। 
घोर कष्टमय जीवन , प्राण हथेली पर , फिर भी मुस्कान । 
निर्मल हृदय , सरल आचरणों से , विपरीत वृत्ति , वरदान ।। 
खिचड़ी अक्सर खाते थे , आजाद , भगत सिंह , शरारतन । 
उसमें गोश्त के टुकड़े डालें , प्रतिक्रिया से , सभी मगन ।। 
गोश्त अलग कर खा लेते आजाद , वही खिचड़ी हँसकर । 
खिला रहे हो गोश्त , नास्तिक , नालायक , खिचड़ी कहकर ।। 
इसी तरह , सहिष्णु जीवन क्रम , खान पान , बातें रुचिकर । 
नहीं कहीं भी भेदभाव या , घृणा क्रोध , मद , या मत्सर ।। 
दैनिक नित्य क्रिया आजाद की , पाँच पाँच सौ , बैठक डंड । 
हरि आश्रित भोजन , निद्रा , विश्राम , छाँव या धूप , प्रचड ।। 
दैनिक पत्र अध्ययन नियमित , जग घटनाक्रम का , सद्ज्ञान । 
क्रान्तिकारिता की पुस्तक , विधिवत पढ़ने में , समुचित ध्यान ।। 
नये सदस्यों को पिस्तौल , चलाना सिखलाते , आजाद । 
बुन्देलखंड के बीहड़ में क्रमशः दो तीन को , लेकर साथ ।। 
जब भी होता सफल निशाना , पुरस्कार के , विविध प्रकार । 
अति प्रसन्न हो , प्रोत्साहन हित , लक्ष्य भेद , दुस्तर प्रतिवार ।। 
स्वयं चवन्नी फेक निशाना , कभी बाँध धागे में , फल । 
कमी नचा फल , विविध भाँति , दिखलाते , निज अचूक कौशल || 
यद्यपि झुझलाहट होती , दल के लोगों को , श्रम , अति घोर । 
क्रान्ति हेतु अभ्यास निरन्तर , आवश्यक सब , नियम कठोर ।। 
निश्छल , निर्मल सद्चरित्र व्यक्तित्व , प्रभावी , लगन महान । 
त्याग , प्रेम से सभी प्रभावित , अनुशासन सबको था , मान्य ।। 
उनका था आदेश , औरतों , बच्चों पर , न कभी भी वार । 
बुरी नजर यदि नारी पर , मेरी गोली का , प्रथम शिकार ।।

प्राणों से प्रिय स्वधर्म , संस्कृति 
सोते सोते जाग अचानक , जगा साथियों को तत्काल । 
करवाते अभ्यास योजना बद्ध . सुरक्षा अहम् सवाल ।। 
धन जनता की पुण्य धरोहर , नहीं व्यक्तिगत , व्यर्थ अपव्यय । 
रेल यात्रा अतः तीसरे दर्जे में था , दल का निर्णय ।। 
सफर सुरक्षा हित दोयम दर्जे में सुन मिथ्या प्रतिवाद । 
जनता का विश्वास प्राथमिक , अतः अमान्य , किए आजाद ।। 
जनता देती धन दल को , उसका भरपूर करें , उपयोग । 
फिजूलखर्ची से विश्वास डिगेगा , तब दल का , दुर्योग ।। 
महज एक दो जोड़े कपड़े , नहीं वृथा बनाव , श्रृंगार । 
विविध मनोरंजन साधन की छूट , किन्तु संयमानुसार ।। 
स्वास्थ्य , सुडौल , बदन मुख छवि , प्रिय , छद्म वेश लाला का धर । 
करते , सफर सदा निर्भय , भयभीत पुलिस अति , बुद्धि प्रखर ।। 
उनका सबसे अधिक जोर था , स्वस्थ शरीर , चरित्र महान । 
कहते- ' व्यक्ति चरित्रहीन यदि , खो देता , निज हित , सम्मान ।। 
ब्रह्मचर्य , सात्विक , भोजन , योगासन , नियमित प्राणायाम । 
निज चिन्तन तज परहित चिन्तन , लगन , लक्ष्यहित , तज धन धाम ।। 
कोमल कुसुम , कठोर बजवत , सम्यक मातृशक्ति सम्मान । 
सरल हृदय अनुशासन प्रिय योद्धा अजेय पुरुषार्थ महान ।। 
नारी की गरिमा से गर्वित , उनकी सुख सुविधा का , ध्यान । 
क्रोधित हो फटकार सुनाते , अगर अल्प , उनका अपमान ।। 
क्रान्ति - मार्ग कंटकमय , इस पर चलना आसान नहीं । 
बिना विचारे कदम बढ़ा यदि , निश्चय तब , कल्याण नहीं ।। 
जीवन की अंतिम सासों तक , हम लड़ते रह जाएँगे । 
आजाद करेंगे भारत या , हँसते हँसते , मर जाएँगे ।। 
दुश्मन की हर गोली का , जवाब देंगे , मरते दम तक । 
भारत हित अर्पित तन , मन , धन , भारत आजाद , नहीं जब तक ।। 
है मातृभूमि से प्यार हमें , भारत पर है अभिमान हमें । 
प्राणों से प्रिय स्वधर्म , संस्कृति , सभ्यता , राष्ट्र सम्मान हमें ।। क्रान्तियज्ञ 95

नहीं मुझे इतिहास की चिन्ता 
पूछा भगत सिंह ने एक दिन - पंडित जी बतलायें आप । 
कहाँ आपकी जन्मभूमि ? सम्बन्धी भाई प्रिय माँ - बाप ।। 
यदि भविष्य में कभी हुआ , आवश्यक , हम सब हैं अनजान । 
रहे नहीं , इतिहास अधूरा , शहीद का , सम्यक सम्मान ।। 
'
सुनकर , अति गम्भीर , गगन पर दृष्टि , टिका , बोले आजाद । 
नहीं मुझे इतिहास की चिन्ता , नहीं गाँव , घर कुल , सम्वाद ।। 
भारत मेरी जन्मभूमि , भारत जन सब , मेरे तन प्राण । 
मैं आजाद यही परिचय बस , आजादी का , लक्ष्य महान ।। 
नहीं नाम , यश अर्थ का भूखा , नहीं कामना , कोई अन्य । 
यह प्रसंग बस यहीं बन्द हो , भौतिकता का मूल्य , नगण्य ।। 
सुन सब शान्त , स्तब्ध , गौरवान्वित , हृदय भाव का सद्सम्मान । 
धूल , कुहासा , बदली , कभी न छिपा सकी है , सूर्य महान ।। 
खोजी पत्रकारिता , खुफिया पुलिस , कार्यवाही , विस्तृत । 
से प्रगटिक रहस्य सब , शेखर का कुल गोत्र , गाँव , मीत हित ।।

फेंके असेम्बली में बम 
" औद्योगिक विवाद एवं सार्वजनिक सुरक्षा कानून ' का जाल ।। 
अंग्रेजों ने दमन चक्र की , रची एक , कानूनी चाल । 
जनता की स्वतन्त्रता पर , प्रतिबन्ध अगर स्वीकृत कानून । 
इसीलिए भारत भर में , उमड़ा विधि के विपरीत जुनून । 
"
हिन्दुस्तानी - समाजवादी - प्रजातन्त्र सेना के लोग । 
निश्चय किए प्रबल विरोध का , असेम्बली में , क्रान्ति - प्रयोग ।। 
बौद्धिक तर्को से सदस्यगण , बिल का करें , प्रचण्ड विरोध । 
वाइसराय करें , जिस क्षण , कानूनी स्वीकृति , का उदघोष ।। 
उसी समय , इस दमन नीति का , करने हित , निज प्रगट , विरोध । 
फेकें असेम्बली में बम , दिल्ली में , करें क्रान्ति प्रतिरोध ।। 
बम फेंके आजाद , भगत सिंह , पहले यह , दल का निर्णय । 
किन्तु संगठन के भविष्य हित , बदला गया , पूर्व निर्णय ।। 
सेनापति आजाद सुरक्षित रहें सदा सेना के साथ । 
सेनापति से रहित , स्वयं सेना न बने , कमजोर , अनाथ ।। 
भगत सिंह , बटुकेश्वर दत्त सँग , करें कार्य , दो वीर प्रवीण । 
किया निरीक्षण सेनापति ने , कहा- " निकलना नहीं कठिन ।। 
मोटर का प्रबन्ध यदि हो तो , बच जाना निश्चय सम्भव । 
बम फेंकें , परचे बाँटें फिर बच निकलें करके विप्लव ।। 
भगत सिंह का निर्णय पर- " अनुचित होगा , यदि भागे हम । 
अच्छा होगा जनता को बलिदानी राह दिखावें हम ।। 
मात्र फेंक बम , यदि बच भागे , इसे अन्यथा , लेंगे लोग । 
नौजवान , बिगड़े दिमाग के , खूनी कह , कोसेंगे लोग ।। 
बचने की कोशिश न अतः , हम करें विरोध प्रबलतम डट । 
पकड़े जाँय , मुकदमा हो , निज नीति , रीति , हम करें स्पष्ट ।। 
यह बलिदान न व्यर्थ जायेगा , जनता में , जागृति , जनरोष । 
देश भक्ति की ज्वाला उमड़े , लक्ष्य सिद्धि का , मुझे भरोस ।। 
बम निर्मित कर यतीन्द्र नाथ , भेजे आगरा से , यथा निदेश । 
कानपुर के , राधा मोहन गोकुल ने दी , पिस्तौल विशेष ।। 

किया भगत ने प्रथम धमाका 
सबकी सहमति हुई , कमर कस , यथा योजना , सब तयार । 
उन्नीस सौ , उन्तीस की तिथि , अप्रैल आठ , बिल हेतु विचार ।। 
पक्ष - विपक्ष का हुआ वाद - प्रतिवाद , मात्र सब बौद्धिक खेल । 
स्वीकृति हुआ किन्तु बहुमत से , बिल सब स्वार्थ , स्वाँग बेमेल ।। 
इसी बीच दो युवक , सावधानी से , मुख्य द्वार कर , पार । 
जा बैठे दर्शक दीर्घा में , दिखे जहाँ से , दल सरकार ।। 
ज्यों ही ' सर शुस्टर ' बिल की , स्वीकृति की घोषणा हेतु उठे । 
वीर भगत सिंह , बटुकेश्वर दत्त , दो बलिदानी , साथ उठे ।। 
किया भगत ने प्रथम धमाका , असेम्बली में , बम को फेंक । 
बटुकेश्वर दत्त भी बम फेंके , धुंआ , तहलका , चीख अनेक ।। 
अन्धकार , अति घुटन चतुर्दिक , सदस्य भागे , इधर उधर । 
शुस्टर पर पिस्तौल चलाये , भगत सिंह , वह छिपा जिधर ।। 
दुबक छिपा वह मेज के नीचे , जहाँ न सम्भव गोली मार । 
कहर ढहा पर कसक रह गई , मरा न वह , नायक सरकार ।। 
अगर चाहते वीर राह थी , निकल वहाँ से सकते थे । 
संकल्पित मन डटे रहे वे , एक इन्च भी हटे न थे । 
हि.स.प्र.स. के घोषणा पत्र की , लाल पर्चियाँ , नीचे फेंक ।। 
जन जन को संदेश दिया , घोषणा पत्र निज , लक्ष्य , विवेक । 
प्रिय नारा पुरजोर लगाया- " इन्कलाब जिन्दाबाद । ” 
"
दुनिया के सब श्रमिक एक हों , सर्वनाश हो साम्राज्यवाद ।। " 
पुलिस ने आकर पकड़ा उनको , हँसते चले . युवक दो , वीर । 
कड़ी चौकसी के पहरे में , बन्दी , दिल्ली में , रणधीर ।। 
अति आहत आजाद हुए सुन , गिरफ्तार हो गये जवान । 
दोनों हाथ , कटे हों जैसे , पक्षी के दो पंख समान ।। 
दुःख में भी संतोष , गर्व , वीरों की कारगुजारी पर । 
और अधिक उत्साह लक्ष्यहित , तन , मन , धन , सब न्यौछावर ।। 98 क्रान्तियज्ञ
अस्त व्यस्त हो गया था , " हि.स.प्र.स. ' यद्यपि सान्डसे हत्या बाद । 
फिर भी निज उद्यम , साहस से पुनः संगठन रत , आजाद ।। 
यशपाल , सुखदेव , जयदेव आदिक , क्रान्ति वीर निज लक्ष्योन्मुख ।। 
विश्वस्तों में सुशीला , दुर्गा , शिववर्मा , मन्मथनाथ गुप्त । 
चिन्तित अति आजाद कि कैसे , भगत , बटुक को मुक्त करें । 
उनके बन्दी रहने से , दल में अपंगता , लक्ष्य परे ।। 
आशा थी दिल्ली में सजा सिद्ध कर भेजेंगे , लाहौर । 
उस अवसर पर छुड़ा सकें कैसे ? सबका चिन्तन इस ओर ।। 
पकड़े गये लाहौर में एक दिन , सुखदेव संग , किशोरी लाल । 
'
हि.स.प्र.स. के दो कर्मठ युवजन , खुफिया पुलिस की , सार्थक चाल ।। 
नित्य तलाशी घर घर में , धर पकड़ नित्य , आपदा , बला । 
सुन सुनकर आजाद दुःखित अति , विवश , अनु दृग , रुधे गला ।। 
बहुधा भरे गले से कहते - ' सेनापति का केवल काम । 
करे प्रशिक्षित वीरों को , जब स्नेह बढ़े , तो विधाता वाम ।। 
उन्हें मौत के करे हवाले , स्वयं सुस्त हो , बैठे मौन । 
'
शिव वर्मा से विह्वल होकर , कहते – ' सच्चा शहीद कौन
देख देखकर , भगत सिंह , बटुकेश्वर , की फोटो अक्सर । 
प्रगट हृदय की पीड़ा होती , आँखों से , आँसू झर झर ।। 
इसी बीच एकाएक एक दिन , सहारनपुर , बम फैक्टरी पर । 
छापा पड़ा पुलिस का , बचना मुश्किल , पहरा पग , पग पर ।। 
शिववर्मा जयदेव हुए बन्दी , सँग दस्तावेज अनेक । 
बम , बम टोपी तथा रिवाल्वर ढेर रसायन , यन्त्र विशेष ।।

लहूलुहान गिरे धरती पर 
जितनी ही विपदाएँ बढ़ती , उतना ही उत्साह अपार । 
दल का विघटन नित्य , जीर्णता , किन्तु सुदृढ़ अब भी आधार ।। 
छूटें भगत सिंह , बटुकेश्वर , दल को थी . चिन्ता भारी । 
बहाबलपुर के बंगले पर , एकत्रित दल के , नर नारी ।। 
सेनापति आजाद , भगवती , यशपाल , धनवन्तरि , वैशम्पायन । 
सुशीला देवी , दुर्गा भाभी , नवकार्य , योजना , नव प्रणयन ।। 
यथा योजना , बम परीक्षण , हित , रावी तट जंगल , सुनसान । 
वैशम्पायन , सुखदेव भगवती ने , सब साज , किया प्रस्थान ।। 
जैसे ही बम लेकर भगवती , परीक्षण हेतु , उठाये हाथ ।। 
दोषपूर्ण बम ट्रिगर , अतः विस्फोट , उड़ गये , दोनों हाथ । 
मुख से निकली चीख भंयकर , हुआ धमाका , अति भीषण ।। 
लहूलुहान गिरे धरती , पर , अंग - भंग क्षत - विक्षत तन ।। 
दौड़े वैशम्पायन तत्क्षण , दृश्य देख , ठंडा सब जोश । 
पानी की , की माँग किन्तु , पी सके न वे , हो गये बेहोश ।। 
सुखदेव ने कपड़ा गीला कर , मुख में डाला कुछ पानी । 
वैश्म्पायन ने धोती से घावों पर पटटी बाँधी ।। 
रक्तधार अनवरत , प्रवाहित , किंकर्तव्य विमूढ , अनाथ । 
खबर दिया आजाद को , आये फौरन डाक्टर को , ले साथ ।। 
किन्तु काल की गति अति न्यारी , किसको ? कब ? कैसे ? किस देश
अपने अंको में ले लेता , किस कारण ? किस वेश ? विशेष
हुई यथा सम्भव सुश्रुषा सब , किन्तु न बच पाया , वह वीर । 
अश्रुपूर्ण अन्तिम साँसें ले , बोला व्याकुल क्षीण शरीर ।। 
भगत सिंह , बटुकेश्वर को हम छुड़ा न पाये , दुःख भारी । 
मिली धूल में इस दुर्घटना से , हम सबकी तैयारी ।। 
देशवासियों मुझे क्षमा करना , अनजाने चूक महान । 
मातृभूमि को देख न सका स्वतन्त्र , हाय , विधि कठिन विधान ।। 100 क्रान्तियज्ञ
देशवासियों , क्रान्तिकारियों , सबको अंतिम , मेरा प्रणाम । 
विहवल वाणी , अश्रुपूर्ण दृग क्रमशः प्राणशून्य , प्रभुधाम ।। 
कर्म कुशल , निर्भीक , परम विश्वासपात्र , का दुःखद निधन । 
आकस्मिक आपदा , किन्तु आजाद , शान्त आन्तरिक रुदन ।। 
विधि विधान अज्ञात अटल सब , हानि लाभ , सुख दुःख , धन - धाम । 
कर्म विपाक अबूझ पहेली , संचित कर्मों का परिणाम ।। 
दुःख में केवल धैर्य सहायक , चाहे जैसा , जीवन क्रम । 
कर्म जीव के हाथ , फल नहीं , जग - गति सब , माया विभ्रम ।। 
केवल ब्रह्म सत्य , जग मिथ्या , सत्य तत्व का , अनुसन्धान । 
परहित रत , देहाभिमान तज , कर्म , ब्रह्म चिन्तन , मन , प्राण ।। 
राष्ट्र धर्महित प्राणोत्सर्जन , करते वीर पुरुष जगधन्य । 
अमर कीर्ति , प्रेरणा प्रदायक , क्रान्तियज्ञ आहुती अनन्य ।।

दक्षिण में दल केन्द्र बने अब 
जोर जुल्म अत्याचारों का , चला हुआ था , ऐसा दौर । 
नित्य तलाशी , गिरफ्तारियाँ , अविश्वास , मुखबिर , सिरमौर ।। 
समस्त उत्तर भारत में , संगठन हेतु , संकट भारी । 
दल निर्णय अनुसार , नये दलकेन्द्र हेतु . सब तैयारी ।। 
दक्षिण में दल केन्द्र बने , अब उत्तर भारत , असुरक्षित । 
अतः क्रान्ति का मुख्य केन्द्र , बम्बई बन गया , अति रक्षित ।। 
पृथ्वीसिंह जी गदर पार्टी , के वरिष्ठ नेता कर्मठ । 
उन्हें दिया , नेतृत्व , बम्बई केन्द्र नवल . स्थिति बड़ी विकट ।। 
संदेशा आजाद का ले कर , धन्वन्तरि बम्बई गये । 
पृथ्वीसिंह से गुप्त मन्त्रणा कर , स्थिति सारी समझाये ।। 
एल्फ्रेड पार्क प्रयाग के अन्दर , पृथ्वीसिंह , आजाद मिलन । 
दल नेतृत्व भार लेकर , पृथ्वी सिंह का , बम्बई गमन ।। 
आजाद सचेत किए सबको , संकट कालीन घड़ी नाजुक । 
दल बने सुदृढ़ हो पूर्ण लक्ष्य , इस हेतु , सजगता आवश्यक ।। 
नगर बम्बई , मेरा पूर्व सुपरिचित , अति कर्मठ , सब लोग । 
वीर मराठों की रणस्थली , क्रान्ति कार्यहित , सभी सुयोग ।। 
पृथ्वीसिंह सा क्रान्ति - युग - पुरुष , का नेतृत्व प्राप्त कर आज । 
हुआ क्रान्ति संगठन , सबल अति , लक्ष्य सिद्धि हित , सुदृढ समाज ।। 102 क्रान्तियज्ञ

भगत सिंह बटुकेश्वर के हित 
भगत सिंह , बटुकेश्वर दत्त पर , चला मुकदमा , गोल - मटोल । 
बिगड़े बने अनेकों मुखबिर , उलट पलट इतिहास . भूगोल ।। 
ढोंग , न्याय , कानून , राज का , लाखों का व्यय , विविध , अनर्थ । 
विशेष ट्रिबुनल , श्रेष्ठ न्यायविद , समय अर्थ , श्रम , बुद्धि व्यय , व्यर्थ ।। 
बनी सुरक्षा समिति अनेकों , रिश्तों नातों का जमघट । 
जुटते नित्य कार्यकर्ता , जनता , नेता , जा जेल फाटक ।। 
अन्य बहुत से बन्दी भी , रहते थे ' ब्रिस्टल जेल में । 
पुलिस लारियों में भर लाती . नित्य अदालत खेल में ।। 
भगत सिंह , बटुकेश्वर के हित , बृहद सुरक्षा का विस्तार । 
सत्ता को विप्लव का भय , अति , अतः अदालत कारागार ।। 
बन्द कोठरी से न्यायालय परिसर लाये जाते वीर । 
उनके दर्शन को लालायित , बाहर जनता , खड़ी अधीर ।। 
आते ही वे इन्कलाब का , नारा लगा , लगा , पुरजोर । 
निज आगमन सूचना देते , दिग दिगन्त का , दिल झक झोर ।। 
बाहर एकत्रित जनता भी , दुहराती , नारे ललकार । 
पुनः जोश से भगत सिंह , बटुकेश्वर करते . सिंह दहाड़ ।। 
बम पिस्तौल न लाते इन्कलाब , प्रतिफल का , किन्तु महत्व । 
इन्कलाब के अस्त्र तेज विचार होते जब साम चढ़े सत्य ।। 
भगत सिंह का तर्क अदालत में , गूंजा दहली सरकार । 
मन में अधिकारी सब , अति भयभीत , श्रवण कर , श्रेष्ठ विचार ।। 
ट्रिबुनल के विरोध में अक्सर , भूख हड़ताल के चलते दौर । 
मनमानी सरकार निरंकुश पूर्वाग्रही न करती गौर ।। 
हुआ फैसला नौ अक्टूबर को , फाँसी की हुई सजा । 
आजाद दुखित दल , देश क्षुभित , प्रतिशोध ज्वार हित , बिगुल बजा ।। 
एक मुकदमे में फाँसी पर अन्य मुकदमे थे , अवशेष । 
आरोपित षडयन्त्र विविध के , अभी फैसले आने शेष ।। 
राय वकीलों की थी - ' यदि षडयन्त्री कोई साधारण । 
नव अभियुक्त फरार अभी तक , पेश अदालत हो फौरन ।। 
काम बने , खिंच जाय मुकदमा , कुछ लम्बा , तब निश्चय ही । 
फाँसी भी टल जाना सम्भव , समय मिले , समझौते की ।। 
यथा सुझाव हुईं प्रस्तुत , इस हेतु सुशीला दीदी , स्वयं । 
आजाद से आज्ञा लेने को , वे गई इलाहाबाद , फौरन ।।

किया निवेदन गाँधी जी से 
किन्तु नहीं स्वीकार किया , आजाद ने . यह प्रस्ताव विशेष । 
सुशीला और दुर्गा भाभी से . भेजा गाँधी को संदेश ।। 
किया निवेदन गाँधी जी से , ' किसी तरह , फाँसी टालें । 
वाइसराय से बातें करके , सभी मुकदमे हटवालें ।। 
यदि ऐसा सम्भव हो पाये , हम हि.स.प.स. ' के सदस्य सभी । 
स्वीकारें नेतृत्व आपका , क्रान्ति - मार्ग कर , स्थगित अभी ।। 
प्रगट किया मन्तव्य , विवश हो , समझें उचित , करें वैसा । 
इर्विन से सशर्त वार्ता , गाँधी ने उचित नहीं समझा ।। 
यद्यपि अन्य सभी नेता थे . समझौते के पक्ष में । 
सिद्धान्तों पर अटल खड़े थे , गाँधी मात्र विपक्ष में ।। 
गाँधी जी सिद्धान्त रूप में , हरदम कहते , बात स्पष्ट । 
'
देश , काल के विधि - विधान अनुसार , सहर्ष सजा , सब कष्ट ।। 
अनुचित का प्रतिरोध , उल्लंघन विधि का , वीरोचित व्यवहार । 
शासन का फैसला भुगतने को , सहर्ष , सब विधि तैयार ।। 
सत्य , अहिंसा मार्ग हमारा , हम असत्य से , डरें नहीं । 
निर्भय होकर सहें दमन सब , पर असत्य पथ , चलें नहीं ।। 
डटकर हर अत्याचारों , अन्यायों का , प्रतिरोध करें । 
किन्तु अहिंसक मार्ग न त्यागें , उत्पीड़न से नहीं डरें ।। 
सतत् प्रयास हुआ नेताओं का , वैधानिक , नैतिक भी । 
झुकी न पर सरकार , हुई बेकार वार्ता , उक्ति सभी ।। 
ऐसा था विश्वास , इशारा इर्विन का भी था , इस ओर । 
यदि गाँधी अनुरोध करें तो , सम्भव समझौते की भोर ।। क्रान्तियज्ञ 105
गाँधी जी पर बार बार , डाला दबाव नेताओ ने । 
पर सिद्धान्त प्राण से भी प्रिय , गाँधी की शिक्षाओं में ।। 
अतः दिया संदेश - दुःखी , पर शर्त तुम्हारी , अस्वीकार । 
सिद्धान्तों के लिए करोड़ों , बलिदानों हित , हम तैयार ।। 
गाँधी का प्रति उत्तर सुन आजाद हुए क्षण भर को क्षुब्ध । 
किन्तु अहिंसक वीर वचन सुन , बदले भाव विरुद्ध ।। 
क्षण शेखर को प्रिय दल साथी के , प्राणों का था , मोह बड़ा । 
किन्तु ' मोह मुग्दर ' गाँधी का , गीता ज्ञान , पड़ा तगड़ा ।। 
कर्म मात्र करते रहना , फल की कामना , न उचित कभी । 
सतत सत्य पथ , ध्येय उचित कर्म हित न हो अकर्मता , कभी ।। 
सत्य लक्ष्य हित , सत्य पंथ भी , यह गाँधी का कर्म निदेश । 
असत् मार्ग यदि , लक्ष्य सिद्धि हित , सहर्ष तद् फल भोग , विशेष ।। 
संचित संग , क्रियमाण कर्म , प्रारब्ध सभी , क्रमबद्ध अचूक । 
कर्म मात्र जड़ , प्रभु फल दाता , कर्म उदधि , भव पतन , अमूक ।। 
कर्म , कर्म फल , यह क्रम अविरल , फल पर क्षणिक , करे गतिरोध । 
अनासक्त , ईश्वर अर्पित सब कर्म , कर्म फल सात्विक शोध ।। 
ऐसी यदि , अखण्ड बन पाये वृत्ति , मुक्ति का मार्ग खुले । 
अथवा , ईश्वर में अनन्य हो भक्ति , यथा मति , गति विरले ।। 
फलदाता भगवान , कर्म कर्ता , भोक्ता भ्रम बस , इन्सान । 
माया का जंजाल सृष्टि क्रम , सारा कर्म - विपाक , विधान ।। 
ईश्वर मात्र सत्य , जग मिथ्या , नाटक सभी , प्रकाश समक्ष । 
यथा पात्र , तद्रूप निभाना , नाट्य निदेशक , परमाध्यक्ष ।। 106 क्रान्तियज्ञ

पूणाहुति 
बंदी हो आजाद हेतु इस 
बंदी हो आजाद हेतु इस , पुलिस संगठन , बना विशेष । 
काशी , झाँसी , कानपुर दिल्ली में , खुफिया , अगणित वेश ।। 
ऐसे अधिकारी नियुक्त जो . शेखर को पहचान सकें । 
पर आँखों में धूल झोंक , आजाद अभय , अभियान डटे ।। 
यदि पुलिस की टुकड़ी डाल - डाल , वे पात - पात लुक छिप जाते । 
सुन साहस , शौर्य , लक्ष्य - भेदन , अधिकारी उनसे , घबड़ाते ।। 
गमन योजना प्रथम प्रचारित करते , परिवर्तित दिन , काल । 
पुलिस मुखबिरी , पीछा असफल , बहुधा यह आजाद - कमाल ।। 
छद्म योजना , छद्म वेश , सब छद्म कार्यक्रम , छद्म सफर । 
पथ में गाड़ी रोक तलाशी , कर मल पछताते अफसर ।। 
हैं अनेक ऐसी घटनायें , उनके साहस , शौर्य की । 
कुछ उदाहरण से प्रगटित , उनकी प्रत्युत्पन्न मति , धैर्य भी ।। 
एक बार आजाद चले . दिल्ली से सँग कुछ साथी अन्य । 
प्रातः गाड़ी रुकी एकाएक , स्टेशन छोटा , बीच अरण्य ।। 
गाड़ी को घेरा सशस्त्र जत्थे ने , सत्वर चारो ओर । 
पुलिस अधीक्षक शंभुनाथ सँग , टीकाराम , अफसर , सिरमौर ।। 
घूर रहे हर व्यक्ति को , हाथों में , पिस्तौल , लिए तत्पर । 
अधिकारी , आजाद को पहचाने जो , सक्रिय फाटक पर ।। 
क्षण में खतरा भाँप , कुली को उठा , सभी असवाब तुरन्त । 
आगे स्वयं पृष्ठ सब साथी , सतर्कता अति . अगर भिड़न्त ।। 
बायें कर में टिकट , दाहिना कर पाकेट में , मय - पिस्तौल । 
दृष्टि चतुर्दिक सजग , भय रहित , फाटक पर , अद्भुत माहौल ।। 
पहने थे आजाद उस समय , पैट कोट सिर पर , नव हैट । 
पुलिस वेश में साथी सब , आदाब अर्ज , निकला आखेट ।। 107 क्रान्तियज्ञ

देखरौद आजाद रूप 
एक अन्य अवसर पर भी वे , बचे युक्ति दृढ़ साहस से । 
कुशल योजना , अनुभव से , कर्तव्य परायण , छल - बल से ।। 
कानपुर के मालरोड पर , एक बार आजाद के साथ । 
टहल रहे थे , सहयोगी कुछ , सहसा परिचित अफसर पास ।। 
घूर घूर कर देख सभी को , तुरत हो गया , वह काफूर । 
पुनः लौटकर और पास से , घूरा सबको फिर भरपूर ।। 
काशीराम ने बतलाया - ' यह , इस्पेक्टर , विश्वेश्वर सिंह । 
हम सबको पहचान गया है , कुछ गड़बड़झाला मुमकिन ।। 
सुन बोले आजाद निडर हो - होशियार हो , आने दो । 
अबकी मजा चखायेंगे , बचकर न उसे अब जाने दो ।। 
'
आया फिर विश्वेश्वर सिंह , पहुँचा जैसे आजाद निकट । 
सिंह दहाड़ किए - ' पकड़ो गीदड़ के बच्चे को झटपट ।। 
'
देख रौद्र आजाद रूप , वह डर कर , भाग गया सरपट । 
नौ दो ग्यारह हुआ , आँख से ओझल , सुन ललकार डपट ।। 
दिन का समय , भीड़ सड़कों पर , फिर यह अद्भुत साहस , शौर्य । 
बचने का उपाय नामुमकिन , छिपने का न , ठिकाना - ठौर ।। 
फिर ऐसे अदम्य आक्रामक कार्य योजना का औचित्य । 
समझ न पाये साथी , जब पूछे आजाद से रहस्य कृत्य ।। 
'
यदि गोली चल जाती , भारी संकट में पड़ते हम लोग । 
शुभ संयोग , स्वयं विश्वेश्वर , भाग गया , न बना दुर्योग ।। 
सुन हँसकर आजाद कहे - तुम सब हो , अब भी अनुभवहीन । 
हम सब बचकर भाग निकलते , इन गोरों की साइकिल छीन ।। 
अवसर के अनुसार कार्य योजना , सविधि , सद्मति , तत्काल । 
कर्म शक्ति भर , प्रभु आश्रित फल , भय चिन्ता , का नहीं सवाल ।। 108 क्रान्तियज्ञ

क्रान्ति पथिक बढ़ चले डगर पर 
एक बार आजाद प्रयाग से कानपुर हित हो तैयार । 
शाल ओढ़कर निकले , किन्तु असुविधा , रखें कहाँ हथियार ।। 
तुरन्त कोट बाजार से लेकर आये , स्टेशन , सज - धज कर । 
गाड़ी में सामान सुरक्षित , रख सब बैठे , सीटों पर ।। 
जैसे ही गाड़ी ने सीटी दी , चलने को थी तत्पर । 
पुलिस का सशस्त्र दल आया . डिब्बे में ऐन वक्त पर ।। 
समय न डिब्बा परिवर्तन का , अतः सभी रह शान्त , सतर्क । 
चले निडर निज नगर डगर पर , नयन , नयन , निर्णयन - विमर्श ।। 
कानपुर स्टेशन जब आया , वैशम्पायन बाहर देख । 
बोले - पूर्ण सजग हो भैया , प्लेटफार्म पर पुलिस अनेक ।। 
पंक्तिबद्ध सब खड़े हाथ में बन्दूकें भी हैं सबके । 
'
सुन बोले आजाद - खड़े सब निज अधिकारी स्वागत में ।। 
पर सतर्कता आवश्यक , अवसर यदि बने , बनो शोले । 
कहा ' कुली को दे सामान आओ सँग - सँग सीना खोले ।। 
यदि संघर्ष अवश्यंभावी , पीठ से पीठ , मिला लड़ना । 
क्रान्ति पथिक बढ़ चले डगर पर , तब मरने से क्या डरना । 
गाड़ी रुकते ही उतरे आजाद , कुली को दे सामान । 
बिन बाधा बाहर आये सब , भय मनुष्य का शत्रु महान ।। 
कुली बाद में आकर बोला - ' बेहद पूछताछ बाबू । 
किसका यह सामान ? कहाँ वे ? जाने क्यों बन्धन लागू ।। 
पैसे दे उसको तुरन्त , सब चले वहाँ से बेखटके । 
है प्लेटफार्म पर पुलिस का पहरा , पर आखेट गया बच के ।। क्रान्तियज्ञ 109

जिस साम्राज्य न सूरज डूबे 
कानपुर स्टेशन पर ही एक बार आया अवसर । 
उतरे जब आजाद ट्रेन से , देखा खड़ा एक गुप्तचर ।। 
पूर्ण सुपरिचित बचकर निकल भागना , सम्भव नहीं वहाँ । 
ऐसा समझ आजाद शीघ्र जा पहुंचे वह था खड़ा जहाँ ।। 
रखकर उसके कन्धे पर , निज हाथ , प्रेम से , वे बोले । 
तुम अपना कर्तव्य करो , मैं अपना , क्यों पिस्तौल चले
मेरे चक्कर में मत पड़ना , तुम्हें हमारी नेक सलाह । 
कहकर सत्वर बाहर आये , खड़ा गुप्तचर , बुत सा , राह ।। 
ऐसा भय था व्याप्त , नाम सुनते ही , पुलिस काँप उठती । 
जिस साम्राज्य न सूरज डूबे प्रबल शक्ति , उनसे डरती ।। 
पुलिस गुप्तचर , अधिकारी , आजाद नाम सुन सब भयभीत । 
उनके शौर्य , धैर्य , साहस के आगे , सम्भव किसकी जीत ।। 
साथी सब मजाक में कहते - ' भैया तुम इतने मोटे । 
पड़े हथकड़ी ही छोटी यदि , आप कभी पकड़े जाते ।। 
आजाद तमक उत्तर देते , गौरवान्वित मुख छवि , ऊँचा भाल । 
'
पकड़े मुझे हथकड़ी डाले , नहीं कोई माई का लाल ।। 
सम्भव अब न पकड़ना मुझको , एक बार प्रारम्भिक भूल । 
टुकडे टुकड़े कर डालूँगा तन , मन मेरा वज , त्रिशूल ।। 
एक बार लग चुकी हथकड़ी , अब तो आज असम्भव है । 
जीते जी न पुलिस पकड़ेगी , शव पकड़े यह सम्भव है ।। 
भरी हुई पिस्तौल पास जब पकड़े पुलिस मजाल नहीं । 
मातृभूमि की सेवाहित , प्राणों का मुझे मलाल नहीं ।। 110 क्रान्तियज्ञ

नहीं बँदरिया नाच नाचना 
नहीं बंदरिया नाच नाचना , मुझे अदालत बाँधे हाथ । 
मेरे माउजर , मैगजीन में सोलह गोली जब तक साथ ।। 
पन्द्रह दुश्मन को भूनेंगी , सोलहवीं मन प्राण हरे । 
'
कहते गर्व सहित शेखर , पिस्तौल नली कनपटी धरे ।। 
हँसी मजाक के क्षण में एक दिन , साथी ने पूछा - ' आजाद । 
एकाएक अगर सहयोगी , कोई करदे , विश्वासघात ।। 
हो मुखबिरी , पुलिस से घिर घायल हों , मरे न हों बेहोश । 
पकड़े पुलिस हथकड़ी डाले , बन्दी हों , तब आवे होश ।। 
फिर तो वही अदालतबाजी , नाटकीय निर्णय , फाँसी । 
किया दूसरा मित्र व्यंग - चाहिए इन्हें दो , दो रस्सी ।। 
एक गले के लिए दूसरी भारी भरकम पेट हितार्थ । 
मात्र गले से प्राण न निकले , असली प्राण का पेट मे वास ।। 
'
हँस बोले आजाद - ' हथकड़ी बेड़ी तुम्हें मुबारक हो । 
मेरा प्यारा माउजर सब कुछ , प्रण - रक्षक , प्राण - घातक जो ।। 
मुझको शौक न फाँसी की , रस्सी तुम सबके गले पड़े । 
जब बमतुल बुखारा पास मेरे , नहीं जन्मा कोई , जो हमें पकड़े ।। 
जब तक सँग माउजर में गोली , नहीं पकड़ में आऊँगा । 
यह ही , यथा राह अपनाऊँगा ।। मेरा रक्षक , भक्षक , 111 क्रान्तियज्ञ

मातृभूमि सेवा वरीयता प्रथम 
जननी जनक की , आर्थिक स्थिति दयनीय , दुःखित चिन्तित , आजाद । 
किन्तु देश , दल के समक्ष , सब नगण्य , मित्र , पर दुःखी , विषाद ।। 
गणेश शंकर विद्यार्थी , अति दयावान , सुनकर सब हाल । 
दो सौ रुपये दिए , बुला आजाद को , पिता हेतु तत्काल ।। 
किन्तु पिता को नहीं भेजकर , दलहित , व्यय कर डाले , धन । 
विद्यार्थी को ज्ञात हुआ तब , उनका हुआ खिन्न अति , मन ।। 
विद्यार्थी से मिले दुबारा , जब आजाद तो वे पूछे । 
'
क्यों न रुपये भेजे , पिता हितार्थ , अन्यथा क्यों सोचे
मुखर हुई गम्भीर हँसी , आजाद का प्रति उत्तर , तत्काल । 
'
मातृभूमि सेवा वरीयता प्रथम , व्यक्ति का बाद , सवाल ।। 
गुलाम , निर्धन , देश करोड़ों , नर - नारी , भूखों मरते । 
पिता के जैसे जाने कितनें , गृह - विहीन नंगे रहते ।। 
मुझको ही फिर वरीयता क्यों ? दलहित आवश्यक गोली । 
बूँद बूँद से है भरना आवश्यक , आज , क्रान्ति - झोली ।। 
माता - पिता अभाव ग्रस्त हैं , नहीं देश की , कोई हानि । 
घोर विपन्नावस्था में भी जीवित हैं , अनेक इन्सान ।। 
लगा रहे प्राणों की बाजी मातृभूमि , करने को मुक्त । 
सब कुछ त्याग , क्रान्ति - दल साथी , भूखे रहें , नहीं उपयुक्त ।। 
इतना कह , आजाद चल दिए , विद्यार्थी जी , हतप्रभ , मूक । 
मातृभूमि प्रति प्रेम अनोखा , धन्य धन्य तुम वीर सपूत ।। 
व्यथा कथा सुन , तब नवीन ने , सूचित किए बिना आजाद । 
शीघ्र मनोहर लाल के हाथों , भेजा समुचित धन , सम्बाद ।। 112 क्रान्तियज्ञ

दल सेवारत स्वदेश प्रेमी 
पता चला आजाद को जब , वे क्रोधित हुए मनोहर पर । 
करते चोट हमारे सिद्धान्तों पर , बड़ी कृपा मुझ पर ।। 
व्यंग - बाण से विचलित यद्यपि हँसकर दिए , बात को टाल । 
दल सेवारत स्वदेश प्रेमी , से गौरवान्वित , भारत - भाल ।। 
परिजन प्रति अनुराग हृदय का , भाव प्रगट होता अक्सर । 
स्थिति से चिन्तित भी , पर मिथ्या प्रेम , विमोह , न रत्ती भर ।। 
परवस जीवन , शूल हृदय में , चुभता रहता , बारम्बार । 
वैशम्पायन से कहते , मन व्यथा , मिलन कैसे एक बार
यद्यपि जननी - जनक से बढ़कर भारत माता से , अति प्यार । 
कभी कभी अति भावुक क्षण में , करते प्रगट हृदय उद्गार ।। 
होता प्रगट भाव हिय का , अनुराग स्मृति पटल का , उच्छवास । 
पश्चाताप , मानसिक पीड़ा , प्रगटित , मध्य दीर्घ निश्वास ।। 
सहसा निज पर क्षोभ प्रगट कर कहते - ' सब भ्रम , मोह अनर्थ । 
मातृभूमि के आगे , व्यक्ति की चिन्ता , मिथ्या , बिल्कुल व्यर्थ ।। 
किसी कुटुम्ब विशेष हेतु , जन - धन उपयोग न उचित कभी । 
व्यक्ति विशेष से बढ़कर मातृभूमि सेवा , सहयोग सभी ।। 
कोटि कोटि परिवार देश के , भूखे नंगे , रहित निवास । 
मेरे माता - पिता की केवल , क्यों सहायता , यह कुप्रयास ।। 
स्वार्थी , देश द्रोहरत , शोषक , जो अपनी , भरते झोली । 
भार रूप वे भारत पर , उनसे शोषित जनता भोली ।। 113 क्रान्तियज्ञ
संकट में सबसे आगे रह , करते दल के कार्य निडर । 
मर मिटने पर तत्पर सब सहयोगी , एक इशारे पर ।। 
निष्क्रिय बैठे रहना उनको , कभी न लगता था अच्छा । 
प्रोत्साहन सक्रियता हित , निष्क्रियता पर उनको गुस्सा ।। 
नया वस्त्र जब जहाँ पहनते , वहीं पुराना तज चल दें । 
किन्तु कोट अति फटा पुराना , जल्दी नहीं बदलते थे ।। 
कभी न ऐसा हुआ कि खायें स्वयं , न पूछे साथी को । 
सहयोगी को , सम्यक सुविधा प्रथम , अन्त सेनापति को ।। 
सबसे सद्व्यवहार , प्यार , आदर , सुख सुविधा का , अति , ख्याल । 
राष्ट्र प्रेम की डोर बँधे थे , क्रान्ति - वीर , सब , भारत लाल ।।

था आजाद का मौलिक चिन्तन 
आजाद सतत् मौलिक चिन्तनरत राष्ट्रधर्म , गौरव , गुणगान । 
अति प्राचीन सभ्यता , संस्कृति , प्यारा भारत देश महान ।। 
बहुधा बैठ साथियों के सँग , करते प्रगट हृदय उद्गार । 
भारत के अतीत गौरव का कैसे हो सद्यः उद्धार ।। 
गंगा जमुना पोषित . शुचि संस्कृति हिमगिरि सा . सुयश महान । 
काश्मीर - केशर - सौरभ प्रिय , ब्रह्मपुत्र का , कल - कल गान ।। 
अति प्राचीन सिन्धुघाटी की श्रेष्ठ सभ्यता का , गौरव । 
बंगभूमि पंजाब , मराठा , राजपूत , रण श्रम - सौष्ठव ।। 
रामकृष्ण , शिव , महावीर , गौतम , शंकर , आचार्य , अनेक । 
नानक , तुलसी , तुकाराम से संत किए दृढ़ राष्ट्र विवेक ।। 
लगे जहाँ बुलन्द नारा - हो धर्म की जय , अधर्म का नाश । 
सद्भावना प्राणियों में सब , विश्व कल्याण , हितार्थ , उल्लास ।। 
वसुन्धरा परिवार एक प्रिय , विश्व - बन्धुता का संदेश । 
जीव मात्र प्रति करुणा , सेवा , सत्य , अहिंसा मय , परिवेश ।। 
आर्य - द्रविड़ संस्कृति का संगम , गंगा - कावेरी , शुभ क्षेत्र । 
पुरातत्व , चिर वास्तुकला - वैभव विलोक , खुल जाते नेत्र । 
विन्ध्य , हिमालय , दुर्ग नील गिरि , उदयाचल , अस्ताचल कीर्ति ।। 
विविध कला कौशल कृतियों के केन्द्र देख हिय में अति स्फूर्ति । 
वीर मराठों की यश गाथा , बुन्देलों का गौरव गान । 
कभी न रण में पीठ दिखाया सुभट धनी , वर राजस्थान ।। 
नृत्य कला , संगीत गीत प्रिय , वीणा वंशी शंख , मूंदग । 
बंग , उड़ीसा , असम , आन्ध , कर्नाटक , केरल , तमिल , दबंग ।। 
मथुरा , काशी , पुरी , अयोध्या , चित्रकूट , प्रयाग , मलिनाथ । 
रामेश्वर , कालेश्वर , तिरुपति , वैद्यनाथ , द्वारिका , सुनाथ ।। 
पग - पग पर अगणित देवालय , मस्जिद , गिरजा , गुरुद्वारे । 
श्रद्धा - आस्था विश्वासों के , केन्द्र विविध , शुचि , अति न्यारे ।। क्रान्तियज्ञ 115
पाँव पखारे जिसका सागर , विपुल सघन , वन , पर्वत , खोह । 
सरित , सरोवर , झरने , उपवन , वन , वाटिका , बाग , मनमोह ।। 
भाषा , भोजन वेश विविध , सब , रीति , गीत , उत्सव , त्योहार । 
भावसूत्र में बँधे सुदृढ , सब . धर्म पंथ में हार्दिक प्यार ।। 
ऋषियों की चिर परम्परा का निश्चय यह प्रभाव विस्तार । 
लक्ष्य अभ्युदय , निःश्रेयस सँग , प्रेयस से भी , वांछित प्यार ।। 
यह अतीत का गौरव , आंशिक , कैसे अब स्वराष्ट्र कल्याण
हटे गुलानी , मिटे गरीबी , रोग - अशिक्षा , अध - अज्ञान ।। 
संकल्पित हम राष्ट्र लक्ष्य हित , आज नहीं तो कल निश्चय । 
होगी सफल साधना हम सबकी , गीता कृष्णार्जुन जय ।। 
मौलिक चिन्तक , प्रतिभा प्रबुद्ध , आजाद , साहसी , दृढव्रती । 
शाश्वत संस्कृति के उद्बोधक , अति विशिष्ट , उनकी मति , गति ।। 
अन्तरीप से मानसरोवर , बर्मा से अफगानिस्तान । 
भारत माँ का सहज प्राकृतिक , चिर स्वरूप , संस्कृति गतिमान ।। 
पुण्य भूमि भारत माता की , धर्म , सभ्यता , अति प्राचीन । 
युग युग में आक्रमण अनेकों , पर अमूल्य निधि , चिर अविछिन्न ।। 
दृढ़ , अटूट बन्धन संस्कृति का , भाव जगत , एकता सुदृढ़ । 
देव भूमि ऋषियों , संतो , की भारत जन , उनसे न उऋण ।। 
उनका स्वप्न बने भारत विशाल , चिर शक्ति केन्द्र , अनुपम । 
प्रजातान्त्रिक - समाजवादी - सर्व धर्म - समभाव - सुगम ।। 
ऊँच नीच , निर्धन धनवानों का , विभेद हो , कम से कम । 
धर्म पंथ , भाषा , अनेक , पर राष्ट्र एकता का संगम ।। 
सब में राष्ट्र प्रेम की धारा , मातृभूमि हित , तन , मन , धन । 
सभी श्रम कुशल , कर्मठ , उत्साही , प्रेमी , सहयोगी जन ।। 
सभी सुखी , सम्पन्न , नहीं जन शोषण , अत्याचार , दमन । 
हो उपभोग , यथा रुचि सम्यक , उससे बढ़कर उत्पादन ।। 
सुविधायें सबको समान हो , विश्व बन्धुता , उद्बोधन । 
सब शिक्षित , सब गुणी , विवेकी , प्राणि मात्र प्रेमी , सज्जन ।। 116 क्रान्तियज्ञ
प्राणि मात्र की सेवा का व्रत , प्रकृति सम्पदा , सरंक्षण । 
जन सेवा सच्ची प्रभु सेवा , जीव मात्र प्रति प्रेम वरण ।। 
भोजन , वस्त्र यथेष्ट सभी को , स्वच्छ , सुखद , सम्यक आवास । 
अनासक्ति पूर्वक समृद्धि सब , भौतिकता - आधुनिक - विकास ।। 
पर्यावरण प्रदूषण के प्रति भी , उनका चिन्तन , आदर्श । 
वायु , भूमि , जल आदि प्रदूषण सँग , वैचारिक शुद्धि सहर्ष ।। 
भौतिक सुख सुविधा सबको पर सादा जीवन , उच्च विचार । 
यह आदर्श राष्ट्र का शाश्वत , जिससे जीव - मात्र उद्धार ।। 
कर्म प्रधान सृष्टि की गतिविधि , ईश्वर जीव जगत का सार । 
सर्वोपरि सत्ता का सत्य , अकाट्य , सुदृढ़ अध्यात्म विचार ।। 
देश काल के गुण विभाग जो , भी यद् तद् सब जन भाई । 
धर्म , पंथ भाषा , लिंगादिक वर्ग भेद सब , अस्थाई ।। 
सबका , सबसे प्रेम परस्पर , आदर अनुशासन का भाव । 
सदाचार का संरक्षण हो , दुराचार का पूर्ण अभाव ।। 
दुर्वृत्तियाँ दूर हों सबकी , सद्वृत्तियों का सतत प्रकाश । 
साहस , निर्भयता , वीरोचित , कर्मठ जीवन - फल - सन्यास ।। 
ईश्वर पर अटूट आस्था हो , दैवीगुण सम्पन्न सभी । 
जन्मभूमि सेवा सँग जीवमात्र सेवा ही भक्ति सही ।। 
सब में सज्जनता , साहस , सदबुद्धि स्वदेश प्रेम , सम्मान । 
दिव्य प्रकाश पुनः फैलाये धरती पर , यह देश महान ।। 
जागे धर्म , कर्म प्रति आस्था , जड़ता तोड़े हिन्दुस्तान । 
हो स्वतन्त्र भारत तब निश्चय , पाये फिर अतीत सम्मान ।। '

सालिगराम क्रान्ति सैनिक 
' हि.स.प्र.स. के सक्रिय सदस्य थे , गजानन सदाशिव पोद्दार । 
पुलिस पड़ी थी उनके पीछे मुखबिर के सन्देश अनुसार ।। 
कानपुर के डी . ए . बी . कालेज के , होस्टल का चक्कर । 
लगा रही थी नित्य , बिछे थे , पुलिस गुप्तचर , इधर - उधर ।। 
एक योजना को कार्यान्वित , करने के निश्चय अनुसार । 
सालिगराम शुक्ला सँग , सुरेन्द्र नाथ पान्डेय , होकर तैयार ।। 
चले साइकिल ले प्रातः ही , जब सोया , अधिकांश नगर । 
भरी हुई पिस्तौल साथ में , सम्भावित मुठभेड़ अगर ।। 
पर सुरेन्द्र की साइकिल हुई खराब , लाल इमली के पास ।। 
सालिकराम ने कहा - बदल साइकिल लाते जा , छात्रावास । 
निश्चय अनुसार पहुँचना , उन्हें कचहरी , चौक जहाँ ।। 
मिलना था आजाद व वैशम्पायन से , निश्चित समय वहाँ । 
कालेज के नुक्कड़ पर खड़े रहे , सुरेन्द्र साइकिल लेकर ।। 
सालिकराम बिगड़ी साइकिल ले , लौटे छात्रावास जिधर । 
कुछ ही देर बाद सहसा , गोलियाँ छूटने की आवाज ।। 
साथ साथ ही ' बचना , बचना ' गूंजी वीरोचित आवाज ।। 
चिड़ियाँ चीख उठी वृक्षों पर , चिहुक , जागरण , भय घर - घर । 
शोर चतुर्दिक , हलचल , भगदड़ , डरकर छिपना , इधर - उधर ।। 
सालिगराम फँस गये , पुलिस के घेरे में , मुखबिरी सफल । 
किन्तु न विचलित हुआ वीर वह , डटकर लड़ता रहा , अटल ।। 
घायल कर डाला दो अफसर , हुआ पुलिस दल , तितर - बितर । 
किन्तु एक के पीछे , पड़े अनेक , अस्त्र - सज्जित , अफसर ।। 118 क्रान्तियज्ञ

गोली वर्षा के आगे , कब तक लड़ता , हो गया शहीद । 
स्वतन्त्रता अनुरागी से थी , इसी वीर गति की उम्मीद ।। 
गोली की आवाज को सुन , आजाद का , सत्य हुआ , अनुमान । 
भीड़ में छिप वैशम्पायन सँग , जाकर देखा , वीर महान ।। 
खम्भे से थी टिकी साइकिल , टिफिन कैरियर , झोला खास । 
बीच सड़क पर फैली बाँहें , रंजित रक्त , पड़ी थी लाश ।। 
सालिगराम क्रान्ति सैनिक , हो गया शहीद , दुःखित आजाद । 
दूर - दूर से ही प्रणाम अंतिम श्रद्धांजलि , अश्रु - विषाद ।। 
जिस मिट्टी में जन्म लिया , उस हित निज प्राण दिया , हँसकर । 
मरते दम भी दल वालों को किया सुरक्षित चिल्लाकर ।। 
मातृभूमि हित जीवन देकर , सालिगराम हो गये , अमर । 
युवकों के प्रेरणा स्रोत युग - युग तक , क्रान्ति - शहीद , प्रवर ।। 
रक्षक छात्रावास , मौन , दुःख , सहमा सा , ' आक्जिलरी फोर्स । 
बीच सड़क पर प्राप्त वीर गति , वृक्ष दुःखित , पतझड़ , दृग ओस ।।

दल का निर्णय हुआ अन्ततः 
कैलाशपति भी पकड़ गये , दिल्ली में , अपने ही घर पर । 
प्रतिरोध न रंच , बचाव नहीं , यद्यपि था पास में रिवाल्वर ।। 
आघात नित्य आजाद को , निज दल विघटन सुन कर बहुत दुःखित । 
सुदृढ दुर्ग दल का ढहता सा . क्रान्ति अग्नि बुझ रही त्वरित ।। 
मुखबिर बन कैलाशपति , पकड़वा दिए . धनवन्तरि को । 
प्रतिदिन अप्रिय घटनायें , सुन क्रोध घृणा , अतिशय उनको ।। 
वीरभद्र की गतिविधि से , संदेह सभी को था , उस पर । 
मैत्री गुप्तचरों से उसकी , कतराना हर मौकों पर ।। 
दल का निर्णय हुआ अन्ततः , वीरभद्र का काम तमाम । 
कल प्रातः यशपाल करें , सँग में , आजाद , पूर्ण निःकाम ।। 
यथा योजना दोनों गंगाघाट , ' मेमोरियल वेल ' पहुँचे । 
वीरभद्र को ढूँढ़ा बहुत , न मिला किन्तु , तब वे चिहुँके ।। 
आया क्यों न यहाँ वह ? क्या उसको सब हाल हो गया ज्ञात
अविश्वास किस पर , उल्लंघन , कैसे खुला भेद अज्ञात
निर्णय का परिपालन बाधित , मुखबिर कौन ? कौन प्रतिबद्ध
ऐसा गुप्त रहस्य , प्रगट हो गया , स्वयं अपने पर क्षुब्ध ।। 
दुविधा से निश्चित निर्णय लेना था , कठिन , अनिर्णय पाप । 
द्वन्द्व मोह अति , उहापोह स्थिति , दुस्तर आजाद को , अति संताप ।। 
दल की बैठक बुला , हुआ निर्णय , केन्द्रीय समिति हो , भंग । 
बाँट दिया धन , शस्त्र सभी को , अलग अलग अब , लड़ना जंग ।। 
दल के सभी सदस्यों को , आजाद का निर्देशन अंतिम । 
'
यथाशक्ति अपने विवेक से , करें क्रान्ति , सेनापति बिन ।। 
जो सहायता मुझसे सम्भव , दूंगा यथासाध्य , भरपूर । 
भारत स्वतन्त्रता , एक सूत्रवत , पास , या दूर ।। 
किस पर अब विश्वास करूँ , है बड़ी अनिर्णय की , स्थिति आज । 
अपने पर ही क्षोभ हो रहा , आखिर कैसे , प्रगटित राज ? क्रान्तियज्ञ120
गुप्त योजना विफल हो गई , आज परिस्थिति बस , गति काल । 
वीरभद्र को दण्ड क्यों निष्फल ? मैं ही दोषी , या यशपाल
यदि मुखबिर है वीरभद्र , फिर दल सदस्य क्यों ? यह अनुचित । 
ऐसे दल द्रोही के कारण , क्रान्ति अशक्त , विवश , विघटित ।। 
अतः आज से दल का निर्णय , सब सेनापति , सब सैनिक । 
अपने कार्यों में स्वतन्त्र सब , एक ध्येयहित , पथ स्वैच्छिक ।। 
'
इतना कह आजाद सभी से मिल , बोझिल मन , भरे विषाद । 
कटु निर्णय , चल पड़े अकेले , अब विवाद क्या ? क्या सम्वाद
मन में उनके था कचोट अति , क्रोध क्षोभ , दल विघटन पर । 
कैसे दल संगठन बढ़े फिर ? चिन्तन बोझ , बड़ा मन पर ।। 
समझौता असह्य अंग्रेजों से , वे परदेशी शासक । 
गोली ही जबाव उनका , जो कुटिल , राष्ट्रद्रोही शोषक ।। 
समझौते की बात एक बस कहते , सबसे , वे अक्सर । 
'
चले जॉय , अंग्रेज छोड़कर देश , बाँध बोरिया - बिस्तर ।। 
मातृभूमि हो स्वतन्त्र , परदेशी भागे , स्वदेश - शासन । 
प्रजातान्त्रिक - समाजवादी - सर्व धर्म - सम अनुशासन ।। 
व्यापारी बन आये जो , छल बल से , बने कुटिल शासक । 
उनका सब धन , भारत जन धन , भागें शीघ्र , राष्ट्र - शोषक ।। 
जान बचाना चाह रहे यदि , शीघ्र सभी , स्वदेश भागें । 
अब यहाँ न उनकी चल पायेगी , हम भारतवासी जागे ।। 
यदि अब भी उनकी रुकी , , कूटनीति चालें तो निश्चय ही । 
हम क्रान्तिकारियों के हाथों मरने पर , उनकी कब्र यहीं । '

यही हमारी हार्दिक इच्छा 
कानपुर के चुन्नीगंज , मुहल्ले में रहते आजाद । 
प्रकाशवती तथा यशपाल भी साथ अभय , तज हर्ष विषाद ।। 
दोनों को पिस्तौल निशाना , सिखलाते वे , तकिए पर । 
नियमित कसरत , दण्ड बैठकें , स्वास्थ्य हेतु संयम हितकर ।। 
प्रकाशवती दुबली थी , उसको कहते ' दुइँया वीर । 
वह आजाद को ' मोटे भझ्या ' , नहले पर दहले , का तीर ।। 
हँसी खुशी का सहज सुखद , परिवेश , सरल अति , रहन - सहन । 
थे यशपाल विनोदी , मुँहफट , पारिवारिक , निर्भय जीवन ।। 
एक बार यशपाल मजाक किए- ' भै या घबराओ मत । 
समझौता आशा अंग्रेजों कांग्रेस में सौ प्रतिशत ।। 
नाम तुम्हारा खूब हुआ है , तुम हो स्वस्थ , चुस्त , शस्त्रज्ञ । 
फरार होने की न जरूरत , होगी , सफल हुआ क्रान्तियज्ञ ।। 
निश्चय निज सुयोग्यता के बल , अफसर पुलिस बनेंगे आप । 
तब मुझको भी एक सिपाही , बनवा देना माई - बाप ।। 
हँस बोले आजाद - ' नहीं मुझको पद , प्रभुता का अरमान । 
मातृभूमि की सेवा करते करते , हो जाऊँ कुरबान ।। 
यही हमारी हार्दिक इच्छा , पर यदि अवसर , जब अधिकार । 
तुम जैसे स्वदेश - प्रेमी - वर - क्रान्ति वीर को , प्रमुख प्रभार ।। 
इसी तरह परिहास - हास में , बीत रही , जिन्दगी फरार । 
अति विपरीत परिस्थितियाँ सब , नहीं सुअवसर , था प्रतिकार ।। 
उथल पुथल अति दिल दिमाग में पर न काल गति थी , अनुकूल । 
निष्क्रियता असह्य , परबसता , किन्तु हृदय में चुभते शूल ।। 122 क्रान्तियज्ञ
दल साथी अधिकांश , हुए थे गिरफ्तार , या हुए शहीद । 
बचे हुओं के पीछे पुलिस पड़ी थी , किससे क्या उम्मीद
चारो ओर से कसता फन्दा , अफसर , मुखबिर , पुलिस जवान । 
जिन्दा या मुर्दा पकड़ें आजाद को , सरकारी फरमान ।। 
कैसे क्रान्ति करें हम , तोड़ें भारत माता की जंजीर । 
अंग्रेजों की हटे हुकूमत , भारत की , बदले तकदीर ।। 
कानपुर , झाँसी , व आगरा में , खतरा अति , जन सम्पर्क । 
रहे सुरक्षित दल गतिविधि , इस हेतु आजाद , विशेष सतर्क ।। 
किया विचार साथियों से , जो थे , उनके अति , विश्वसनीय । 
सहमत सब , मुख्यालय बदले , रहे सुरक्षित , दल दृढ़ नींव ।।

बना प्रयाग नया मुख्यालय 
लाभालाभ विचार अन्ततः , दल का केन्द्र प्रयाग बना । 
केन्द्र विविध गतिविधियों का , सम्पर्क सूत्र , सहयोग घना ।। 
विविध कार्यालय , न्यायालय , मुख्य , नगर अति , जटिल सघन । 
धार्मिक , साहित्यिक , सामाजिक , राजनैतिक सांस्कृतिक , व्यसन ।। 
तीर्थराज , गंगा , यमुना , संगम , नित ही , नव आगन्तुक । 
राष्ट्रवाद के पोषक , बहुसंख्यक जन , क्रान्ति - पन्थ उन्मुख ।। 
विपुल बाग बाजार विविध विस्तृत अनेक वर शिक्षा केन्द्र । 
भाषा , वेश , समन्वित सब विधि , पूर्ण सुरक्षित तीर्थ - नरेन्द्र । 
यातायात के समुचित साधन , चतुर्दिशाओं से सम्बद्ध ।। 
हर गतिविधि का ज्ञान , प्रसारण , दल गतिविधि , सब ही कटिबद्ध ।। 
बना प्रयाग नया मुख्यालय , नव उत्साह , नया विश्वास । 
टूटे सब सम्पर्क जुड़ गये , क्रान्तियज्ञ हित नवल प्रयास ।। 
प्रयाग के कटरा बाजार में , लक्ष्मी दीदी का आवास । 
बना सुरक्षित दल मुख्यालय , बढ़ी शीघ्र गतिविधि , बिन त्रास ।। 
प्रमुख केन्द्र व्यवसाय , धर्म , संस्कृति , सभ्यता , प्रेम परिवेश । 
शिक्षक , विद्यार्थी , व्यवसायी , अधिकारी , आवास विशेष ।। 
घना विशेष क्षेत्र कटरे का टेढ़ी - मेढ़ी गलियाँ व्यूह । 
छात्रावास अनेक चतुर्दिक , क्रान्तियज्ञ हित शक्ति - समूह ।। 
विशद विश्वविद्यालय प्रांगण , जनपद मुख्यालय , विख्यात । 
निकट पुलिस मुख्यालय , कटरा रक्षित , सैन्य - क्षेत्र - प्रख्यात ।। 
लक्ष्मी दीदी का पति , कर्मठ , क्रान्तिकारियों का साथी । 
हुआ शहीद क्रान्ति ज्वाला में , पत्नी लक्ष्मी , निःस्वार्थी ।। 124 क्रान्तियज्ञ
पति ने मरते मरते पत्नी को सौंपा दल सेवा भार । 
पति की अंतिम इच्छा जैसी , दलहित सौंप दिया , घर - द्वार ।। 
क्रान्तिकारियों की समुचित , सेवा तत्पर , दल रक्षा , भार । 
वेश बदलकर भेद संकलन , सफल , गुप्तचर , का व्यवहार ।। 
युवकों से सम्पर्क , संगठन हित सहायता , कार्य विचार । 
कूटनीति में चतुर , चुस्त लक्ष्मी , दलहित उपकार हजार ।। 
कभी भिखारिन , कभी गँवारिन , पागल कभी , शिष्ट नारी । 
अवसर के अनुसार बात , व्यवहार , चतुर नाटक - कारी ।। 
वह आजाद की अति विश्वासी , करती दल के कार्य , निडर । 
दल संगठन कार्य व्यवहारों में , सहयोगी , बुद्धि प्रखर ।।

ऐसी पत्नी की आकांक्षा 
दल साथी जब भी करते , जीवन साथी चुनने की बात । 
उत्तर में आजाद प्रगट करते , तुरन्त मन का प्रतिवाद ।। 
निश्चय ही पूर्णता पुरुष की , जब उत्तम नारी का साथ । 
उत्तमता , निज निज स्वभाव - सापेक्ष , न दिखता कोई हाथ ।। 
मैं न प्रेम रस का भूखा , चिन्ता न वंश की , जग - परिवार । 
जीवन का उद्देश्य एक बस , भारतमाता का उद्धार ।। 
ऐसी पत्नी की आकांक्षा , भर भर राइफल में गोली । 
दे मुझको , मैं साध निशाना , खेलूँ शत्रु संग होली ।। 
इसी तरह लड़ते लड़ते हम दम्पति , साथ शहीद बनें । 
जन्मभूमि हित जीवन देकर , काल चक्र के गीत बनें ।। 
यही तमन्ना पूरी करने को मैं , अब तक हूँ जिन्दा । 
अवसर अभी न बन पाया , इसलिए बहुत मैं शर्मिन्दा ।। 
हो संघर्ष समक्ष शत्रु के , चुन चुनकर मैं मारूँ शाट । 
अंतिम गोली बचे पास जब , तन त्यागें निज भेद ललाट ।। 
दुश्मन की हर गोली का , सामना कर सकूँ सीना तान । 
आजाद जन्म , आजाद मरण , आजादी को , अंतिम सम्मान ।। 
जब तक कर में रहे माउजर , करूँ शत्रु का मैं संहार । 
फिर अपने ही हाथों काया , शान्त करूँ , निज , गोली मार ।। 
तन , मन , मातृभूमि का , हँसकर उसकी गोदी में सोऊँ । 
पुनर्जन्म ले , फिर माँ सेवा , शपथ , बीज शुचि फिर बोऊँ ।।

नहीं हास परिहास का अवसर 
एक बार माहौर , विजय सिन्हा , वैशम्पायन , आजाद । 
काव्य तथा संगीत गोष्ठी जमी , तभी कुछ बढ़ा , विवाद ।। 
मौज में आ माहौर ने छेड़ा , जानबूझ , श्रृंगारिक गीत । 
सुन आजाद झिड़क कर बोले'- यह रस , क्रान्ति - लक्ष्य , विपरीत ।। 
नहीं हास - परिहास का अवसर , हमको क्रान्तियज्ञ की प्यास । 
मातृभूमि हित मृत्यु वरण की , वीर - रसामृत - औषधि खास ।। 
मन्मथशर ' की जगह कहो - पिस्तौल , राइफल बम लेकर । 
प्रणयराग क्यों कर गाते , जब आज वीर - रस का अवसर ।। 
'
हिय में लगी प्रेम की प्यास ' बदलकर कहो - लगी थी नाट । 
ऐसा राग अलापो , सुनकर , अरिदल का हिय जाये फाट ।। 
है विश्वास मुझे निश्चय ही आयेगा ऐसा अवसर । 
लड़ते लड़ते शहीद बनना , सब विधि हितकर , श्रेयष्कर ।। 
परमेश्वर से यही प्रार्थना स्वप्न हमारा हो , पूरा । 
मातृभूमि होगी स्वतन्त्र , इस पथ से कहता , मन मेरा ।। 
सुन वीरोचित बातें , संकल्पित मन , स्वप्न , आत्मविश्वास । 
सब मित्रों ने अनुमोदन , आजाद का किया , सहित हुलास ।। 
इसी तरह उपहास - हास क्षण , होते निर्णय भी , गम्भीर । 
उनके एक इशारे पर , तन मन न्योछावर करते वीर ।।

जब तक उन्हें न मार भगाऊँ 
गोल मेज परिषद के प्रति , आशान्वित अति , दल के , सब लोग । 
समझौते की आशा यद्यपि , रीति , नीति से बहुधा क्षोभ ।। 
नित्य , अध्ययन , विचार - विनिमय , समझौते की शर्तों पर । 
क्रान्ति वीर का निष्क्रिय जीवन , असुरक्षित , यदि सड़कों पर ।। 
समझौते की शर्तों पर , आजाद को उद्वेलन भारी । 
समझौता साम्राज्यवादियों से क्यों ? वे अत्याचारी ।। 
समझौते के मैं न पक्ष में , जीवन भर लड़ना मुझको । 
जब तक उन्हें न मार भगाऊँ , नहीं चैन तब तक दिल को ।। 
शक्ति - संचयन हेतु , विदेशी सहायता , मुझको स्वीकार । 
अंग्रेजों से लड़ने की तैयारी , अब सरहद के पार ।। 
जब तक रक्त रगों में , हिय में धड़कन , प्राणों का संचार । 
सतत क्रान्ति - पथ - व्रती , न जब तक , भारत माता का उद्धार ।। 
गाँधी सत्य , अहिंसावादी , काँग्रेस के सेनानी । 
काँग्रेसी समझौतावादी , सब गाँधी की मनमानी ।। 
अंग्रेजों की कुटिल नीति के आगे झुकना उचित नहीं । 
मुझे अहिंसा से स्वतन्त्रता , सम्भव लगती निकट नहीं ।। 
निर्भयता , बलिदान , त्याग , सत्याग्रह , पथगामी गाँधी । 
अर्थ स्वावलम्बन - समता - एकता - अहिंसा - रत - गाँधी ।। 
जाति - पाँति धर्मों - पंथों का भेद , मिटाते हैं गाँधी । 
अपनी भाषा , अपनी संस्कृति पर गर्व कराते हैं गाँधी ।। 
यह सब उचित , किन्तु शोषक - शासक में संधि कहाँ का न्याय
उनकी शतों पर समझौता , भारत - जन के प्रति अन्याय ।। 128 क्रान्तियज्ञ
शोषक , अत्याचारी शासक का , शस्त्रों से ही प्रतिकार । 
अन्य नीतियाँ व्यर्थ , शस्त्र - भाषा से ही भारत उद्धार ।। 
मेरा यह विश्वास अटल है , शस्त्र - शास्त्र , सँग सँग , सार्थक । 
मात्र अहिंसा से न शत्रु पर विजय , बिना भय , प्रीति वृथक ।। 
हिंसा और अहिंसा दोनों निश्चय होंगे , प्रतिपूरक । 
दोनों का महत्व जीवन में , व्यक्ति , राष्ट्र या , विश्व विशद ।। 
स्वतन्त्रता के संरक्षण हित , शक्ति संतुलन , आवश्यक । 
शान्ति पथिक भारत , जब शक्ति समृद्ध स्वयं तब जग - रक्षक ।। 
बिना युद्ध के शान्ति अल्पकालिक क्रान्ति है अतः अपरिहार्य । । 
जगजीवन दो पग , गति कारक , कारण एक , दूसरा कार्य ।।

द्वैत विश्व का शाश्वत दर्शन 
द्वैत , विश्व का शाश्वत दर्शन , सभी विलोम प्रकृति , सार्थक । 
सभी देव देवियाँ , राष्ट्र के , शास्त्र - शस्त्र समता , पोषक ।। 
चतुर्भुजी , बहुभुजी सभी प्रतिमाओं का प्रतीक संदेश । 
आधे हाथों , अस्त्र - शस्त्र आधे में , शान्ति - प्रतीक विशेष ।। 
सत , रज , तम गुण की रचना , उद्भव , पालन , लय क्रियाकलाप । 
सत प्रतीक सुर , दुर्बल पड़ते , जब रज , तम का मेल मिलाप ।। 
सत , रज मिलें , तभी हो , तम की हार , असुरता मिटे , जड़त्व । 
शठता का शठता से ही प्रतिरोध , सभी शास्त्रों का सत्य ।। 
अथवा ईश्वर की सहायता पाकर सुर को , विजय विहान । 
सत , माया से परे , ईश से जुड़ , बन जाती शक्ति महान ।। 
कभी न ऐसा हुआ अहिंसा या हिंसा , बस एक निदान । 
दोनों का महत्व जीवन में , दोनों ही कारक कल्याण ।। 
सत्य अहिंसा पथ गाँधी का हमें न मान्य मगर स्वीकार । 
त्वरित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु है , शस्त्र क्रान्ति सार्थक , अनिवार्य ।।

नेहरू से आजाद मिले 
दल अति दुर्दिन में परबसता , अर्थ कठिनता , राह न अन्य । 
मात्र जवाहर लाल से आशा , तहित तत्पर , कार्य नगण्य ।। 
सतत प्रयास , अन्ततः सार्थक हुआ , मिलन का बना संयोग । 
नेहरू से आजाद का मिलना , पाना , यथासाध्य , सहयोग ।। 
नेहरू से आजाद मिले , एकान्त कक्ष , आनन्द भवन । 
क्रान्ति - शान्ति - मार्गी , प्रतिनिधियों का , यह गुप्त , अपूर्व मिलन ।। 
अतीत में आजाद मिले थे , मोतीलाल से , आश्वासन । 
पर न सहायक बन पाये , इस बीच ही उनका स्वर्ग गमन ।। 
अतः उसी क्रम में नेहरू से , मिलने का सुप्रयास सफल । 
अर्थाभाव में , काम न कुछ बन पाता , था , संकट में दल ।। 
जब नेहरू से मिलन हुआ आजाद का , हृदय खोल बातें । 
सिद्धान्तों , नीतियों की गति विपरीत , एक लक्ष्य नाते ।। 
गोल मेज परिषद गतिविधि , प्रतिफल सम्भाव्य , विचार , सुझाव । 
हि.स.प्र.स. का संकट तात्कालिक , सहायता , वांछित , सद्भाव ।। 
शस्त्र - शास्त्र का उचित समन्वय , कैसे भारत का उद्धार । 
स्वतन्त्र भारत शासन पद्धति , रक्षा , विकास का आधार ।।

शक्ति संतुलन का महत्व अति 
मिलते ही आजाद ने पूछा- ' पंडित जी बतलावें आप । 
यदि समझौता हुआ सफल , हि.स.प्र.स. का हित , अथवा , संताप ।। 
शान्तिपूर्ण जीवन हम सब का , अथवा शत्रुभाव , व्यवहार । 
वही प्रतारण , जेल सजा , सिर पर इनाम , फाँसी का द्वार ।। 
शान्ति चाहते हैं हम सब भी , राष्ट्र धर्म सेवा की चाह । 
कटु अनुभव से सीखा हमने , सार्थक क्रान्ति , कठिन पर राह ।। 
लक्ष्य हेतु यह दृढ़ विचार है , नहीं अहिंसा मात्र उपाय । 
स्वतन्त्रता के पूर्व , बाद भी , शास्त्र - शस्त्र सँग , सतत सहाय ।। 
विविध स्वरूप क्रान्ति के , देशी या परदेशी जब सरकार । 
सतत स्वरूप बदलता इसका , कारण - कार्य यथा अनुसार ।। 
जब तक है अज्ञान , अशिक्षा , राष्ट्रप्रेम की कमी , तथा । 
धन , संगठन , शक्ति , सीमित , निश्चय तब तक यह , राह , वृथा ।। 
शक्ति संतुलन का महत्व अति , हम अति सीमित , शत्रु विशाल । 
रंच लाभ पर देशद्रोह , संगठनद्रोह की , विविध मिसाल ।। 
कैसे लड़ें , कहाँ तक जूझें , अपने ही जब धोखेबाज । 
एक एक मिल ग्यारह , ग्यारह एक बने कब , क्या अन्दाज
साहस , धैर्य , संगठन , जन - बल , इन सबका , महत्व निश्चय । 
मात्र इन्हीं से लक्ष्य न पूरा , नहीं प्रीति सम्भव , बिन भय ।। 
शस्त्र - क्रान्ति का महत्व अब भी , आगे भी इसका उपयोग । 
शान्ति , क्रान्ति दो चक्र राष्ट्ररथ , दोनों का संतुलित प्रयोग ।। 
सम्भव है आतंकवाद से , सम्भावित सब लाभ न हो । 
शस्त्र - शास्त्र का उचित समन्वय , सदा लाभप्रद , हर युग को ।। 132 क्रान्तियज्ञ

जननी जन्मभूमि प्रिय मेरी 
सुन आजाद विचार हुए नेहरू प्रसन्न , रुख , गति , मति देख ।। 
क्रान्तिकारिता हुई अहिंसक , परबसता बस या अतिरेक । 
निश्चय तुम आतंकवाद की , भाषा अब बोलते नहीं ।। 
पर अब भी फासिस्टवाद की , मनोवृत्ति तो नहीं कहीं
नेहरू का आक्षेप अचानक , सुनकर दुःखी हुए आजाद ।। 
राष्ट्रभक्ति हित क्रान्ति नहीं फाजिस्म , सुन हमें बड़ा विषाद । ' ' 
शासक की जन दमन की पद्धति , वह फासिज्म कहाती है । 
हम जनहित के प्रबल पक्षधर , दुश्शासन प्रतिरोधी हैं ।। 
है फासिज्म विरोध , नहीं फासिज्म , हम दमन प्रतिरोधी । 
शोषण अत्याचार नहीं चुप सहते , डटकर प्रतिशोधी ।। 
जननी जन्मभूमि प्रिय मेरी , शासक परदेशी सरकार । 
छल बल से लूटें भारत , हम नहीं नपुंसक , दें प्रतिकार ।। 
केवल शान्ति मार्ग से भारत , हो आजाद , नहीं सम्भव । 
क्रान्ति , शान्ति की प्रतिपूरक , अति आवश्यक , मेरा अनुभव ।। 
तब ही शीघ्र स्वतंत्र देश , जब शस्त्र - शास्त्र का , साथ प्रयोग । 
विजय तभी , जब कृष्णार्जुन सँग , धनुष बाण सँग , शंख उद्घोष ।।

शठेशाठ्यम पथगामी हम 
नेहरू ने मन्तव्य प्रगट निज किया , परस्पर के प्रति , खेद । 
हुआ विचार विमर्श देर तक , मिटा न आपस का मतभेद ।। 
नेहरू के फासिज्म कथन पर , थे आजाद बहुत ही क्षुब्ध । 
अर्थ , शक्ति , साधन , सीमित , दल लक्ष्य शुद्ध , पर पथ अवरुद्ध ।। 
हि.स.प्र.स. समाजवादी संस्था , भारत सेवाहित , जन शक्ति । 
'
शठे शाठ्यम ' पथगामी हम , लक्ष्य मात्र , भारत की मुक्ति ।। 
हुआ विचार विमर्श , निवारण , भ्रम का , पर मिट सका न भेद । 
नेहरू से आर्थिक सहायता का न निवेदन , इसका खेद ।। 
प्रथम मिलन परिणति से विचलित , कैसे हो विचार संस्कार
अतः शीघ्र यशपाल को भेजा , सद्प्रस्तावित भाव उदार ।। 
हि.स.प्र.स , गतिविधि , लक्ष्य , बने सुस्पष्ट , समक्ष जवाहरलाल । 
पूर्वायोजित यथा समय , आनन्द भवन पहुँचे यशपाल ।। 
नेहरू से यशपाल कहे - ' यह विभ्रम आतंकवादी हम । 
राष्ट्र हेतु संघर्ष हमारा , राष्ट्रभक्ति में , रंच न कम ।। 
हम भारत जन , नहीं नपुंसक , फासिज्म पथ , गोरी सरकार । 
यथाशक्ति प्रतिरोध , दमन , शोषण का , सहें , न अत्याचार ।। 
हम समाजवादी तन , मन से किन्तु ' शठे शाठ्यम ' व्यवहार । 
मातृभूमि की मुक्ति हेतु हम , हरदम कफन बाँध तैयार ।।

भेज सकें तो रूस भेजदें 
स्पष्ट ध्येय का हुआ , निवारण - भ्रम , नेहरू संतुष्ट परम । 
अर्थ हेतु अनुरोध पर , किंन्चित चिन्तित , अर्थाभाव स्वयं ।। 
किन्तु कहे - कुछ दिन ठहरो , यद्यपि आंतक से मुझे घृणा । 
आकांक्षा है बनूँ सहायक , सिद्धान्तों का द्वन्द्व खड़ा ।। 
लक्ष्य शुद्ध सँग , पंथ शुद्ध हो , यह गाँधी ने , सिखलाया । 
हम अनुगामी उनके , पंथ विलग तुम सबको , है भाया ।। 
फिर भी बनूँ सहायक कैसे ? सोचूँगा कुछ समुचित युक्ति । 
सहायता आकांक्षा , अर्थाभाव विवश , पथ भारत मुक्ति ।। 
'
सुन हँसकर यशपाल कहे - नेहरू जी मत तोड़ें सिद्धान्त । 
भेज सकें तो रूस भेज दें हम सबको , जो सेवक क्रान्ति ।। 
नेहरू जी हँसकर बोले - ' यह सम्भव , अवसर आने दो । 
यहाँ सुरक्षित नहीं हो तुम सब , मिलो पुनः धन पाने को ।। 
'
नेहरू से संतुष्ट परम , सुन स्पष्ट वचन , सद्भाव , सुझाव । 
यथाशक्ति निश्चित सहायता , देने का स्वीकृत प्रस्ताव ।।

नेहरू जी संतुष्ट सहायक होंगे 
नेहरू जी संतुष्ट , सहायक होंगे , अति प्रसन्न , यशपाल । 
लौट , किया आजाद को सूचित , नेहरू का व्यक्तित्व विशाल ।। 
सुन संतोष हुआ आजाद को , पूर्व क्षोभ सब , शान्त हुआ । 
दृष्टिकोण को समझ प्रशंसक , भेदभाव का अंत हुआ ।। 
सोहन का भी अनुमोदन , आजाद शान्त , संतुष्ट विशेष । 
महापुरुष स्वभाव से निश्छल , पूर्वाग्रह या द्वन्द्व न लेश ।। 
दल विघटन मुखबिरी , पुलिस का जाल , निकटतम दिन प्रतिदिन । 
थे आजाद बहुत चिन्तित , अब बच पाना , लग रहा कठिन ।। 
किया साथियों ने उनसे अनुरोध रूस में करें प्रवास । 
यहाँ नहीं बचना सम्भव , अब जीवन यदि तो , सफल प्रयास ।। 
दल का सम्वर्धन , संचालन करें , सुरक्षित , रूस में बस । 
अपना अमूल्य जीवन खतरे में मत डालें , बने विवश ।। 
सुन साथियों की भयप्रद बातें , क्रोध , क्षोभ मन व्यग्र विकल । 
'
भारत की मिट्टी में जीने , मरने का प्रण ध्रुवम् , अटल ।।

आजादी का यज्ञ प्रज्ज्वलित 
बोले रोष सहित - ' न रूस मैं जाऊँगा , निर्णय मेरा । 
जन्मभूमि में आजादी का युद्ध , व्यर्थ भय ने घेरा ।। 
संकट का यह समय भाग जाऊँ मैं , बच ले तन , मन , प्राण । 
पीठ दिखाऊँ अरि को , यह कायरता , बेच राष्ट्र सम्मान ।। 
भारत भर में आजादी की , ज्वाला धधकी चारो ओर । 
अंतिम साँसों तक लड़ना कर्तव्य , कहाँ फिर , अवसर और
आजादी का यज्ञ प्रज्ज्वलित , आहुति दें हम वीर जवान । 
युग की माँग करें पूरी , निज शौर्य , धैर्य से कर बलिदान ।। 
ऐसा अनुपम अवसर , फिर मैं पीठ दिखाऊँ , यह दुर्भाग्य । 
मातृभूमि हित जीवन देने का , है आज सहज सौभाग्य ।। 
सेनापति की कायरता से , सेना का होगा , क्या हाल
छिन्न भिन्न संगठन शीघ्र तब , निश्चय पतन - क्रान्ति तत्काल ।। 
किन्तु नहीं मैं औरों को रोकूँगा , यह निर्णय मेरा । 
अगर उचित वे समझ रहे , तो जॉय रूस , डालें डेरा ।। 
किन्तु निवेदन उनसे मेरा , क्रान्ति सहायक बने रहें । 
मात्र प्राण संकट से बचने हेतु , न कायर - पंथ गहें ।। 
अस्त्र , शस्त्र , धन , शक्ति , क्रान्ति - सहयोग राह पर डटे रहें । 
आपद्धर्म विचार , सबल संगठन हेतु , सब दुःख सहें ।। 
जैसे भी हो शत्रु पक्ष दुर्बल , हो क्रान्ति - शक्ति विस्तार । 
जो जैसे बन सके सहायक , लें सहयोग , सभी साभार ।। 
यह कह , उठ आजाद तुरन्त एकान्तवास में चले गये । 
सहयोगी सब मूक बने , अपने चिन्तन में डूब गये ।। 
सुन आजाद का अन्तिम निर्णय , मातृभूमि का , त्याग नहीं । 
जीवन - मरण इसी मिट्टी में , कब कैसे ? परवाह नहीं ।। 
किन्तु साथ यह भी आकांक्षा , बनें प्रशिक्षित , दल साथी । 
बनें निपुण जा रूस प्रशिक्षण पायें , सैनिक - क्रान्ति -पथी ।। 
सेनापति का यह आश्वासन , यह विश्वास भरी बातें ।

सहयोगी संतुष्ट हुए अति , काश सफल सब हो पाते ।। 137 क्रान्तियज्ञ

शस्त्र - निशानाथा अचूक 
किन्तु हाय आकांक्षा उनकी , हुई न पूरी हुए शहीद । 
मुखबिर , शत्रु सैकड़ों , छल बल , वीर एक , सोया चिर नींद ।। 
क्रान्ति - संगठन संचालन में , पूर्ण निपुण आजाद , अजेय । 
शस्त्र निशाना था अचूक , सबकी प्रवीणता का , प्रिय ध्येय ।। 
धन साधन की कमी देश में , सम्भव नहीं प्रशिक्षण कार्य । 
चुने हुए कुछ लोगों को था , रूस भेजना , अति अनिवार्य ।। 
वैशम्पायन , सुरेन्द्र पान्डे , यशपाल रूस जायें निर्भय । 
प्रथम मार्च सन इकतिस को , रूस गमन हेतु दल का निर्णय ।। 
नेहरू ने भेजे पन्द्रह सौ रुपये , वायदे के अनुसार । 
रूस गमन हितार्थ साथी सब , हुए पूर्ण तत्पर , तैयार ।। 
ले सहायता राशि तुरंत , यशपाल गये , आजाद के पास । 
किन्तु कहा आजाद ने ' रक्खो रुपये तुम अपने ही पास ।। 
किन्तु पाँच सौ रुपये उनकी जेब में डाल दिए यशपाल । 
सेनापति असहाय अगर , सैनिक के सुख का नहीं सवाल ।। 
उस निशि बनती रही योजना , दल भविष्य की , नीति निदान । 
वीरों की यह भूमि पुनः कैसे पाये , खोया सम्मान
सन इकतीस , छब्बीस फरवरी , की वह कालरात्रि अंतिम । 
रही सिसकती , वीर सपूतों के , प्रारब्ध योग , गिन , गिन ।। 
उगा सूर्य फरवरी सताइस , शुक्रवार दिन , सहज विहान । 
गगन लालिमा , तेज प्रभा , गति कालचक्र , उद्भव , अवसान ।। 
थी बसन्त की मस्ती मादक , वीरोचित , मति , गति परिवेश । 
प्रखर पवन के झोंके , झुकते तरुवर दें , संदेश विशेष ।। 
वीर सपूतों आज तुम्हारा क्रान्तियज्ञ प्रज्ज्वलित प्रचण्ड । 
सहज प्रेरणा देगा युग - युग , पूर्णाहुति पा वीर बसन्त ।।

क्रान्ति - पथिक वह वीर बाँकुरा 
पवन प्रचन्ड , प्रखर रवि , पतझड़ , चील्ह चीख , मार्जार विलाप । 
श्वान रुदन , उलूक अनहोनी , सहसा , सब , विपरीत कलाप ।। 
देते सब संदेश सहज ही , जड़ - चेतन विधि गति , उत्पात । 
मूक जीव लघु , पर समर्थ अति , प्रकृति - ज्ञान - अज्ञान - प्रताप ।। 
आज तुम्हारा सेनापति , आजाद वीर गति पायेगा । 
राष्ट्र धर्म हित , जीवन दे , वह वीर अमर हो जायेगा ।। 
बिल्कुल ही प्रतिकूल परिस्थिति में आजाद , क्रान्ति का युद्ध । 
लड़ते रहे विगत दस वर्षों से , डटकर साम्राज्य विरुद्ध ।। 
क्रान्ति पथिक वह वीर बाँकुरा , विपत्ति में , पीछे न हटा । 
जितनी ही विपरीत परिस्थिति , उतना ही वह और डटा ।। 
भय , आलस्य न रंच कभी भी , कर्मवती , हँस , सदा लड़ा । 
संकट में टक्कर हित तत्पर , प्रथम पंक्ति में , सदा खड़ा ।। 
छः वर्षों से अधिक फरारी जीवन , सन् पच्चीस से । 
काकोरी - षडयन्त्र - दिवस पश्चात , सितम्बर छब्बिस से ।। 
सन् अटठाइस , सितम्बर सत्रह सान्डर्स - हत्याकाण्ड के बाद । 
उनका पीछा करता फाँसी फन्दा , घूम रहा , जल्लाद ।। 
भारत की एसेम्बली में बम , डाके , हत्या , जन - विद्रोह । 
विधि - विपरीत संगठन , अस्त्र - शस्त्र निर्माण , राष्ट्र - नृप - द्रोह ।। 
थे आजाद अनेकों साजिश , हत्या के , मुजरिम घोषित । 
विविध दफा में सजा सुनिश्चित , खड़े प्रतीक्षा में अगणित ।। क्रान्तियज्ञ 139
असफल रहा , किन्तु हर फन्दा , आजाद सदा आजाद रहे । 
यद्यपि उन्हें पकड़वाने को , पुरस्कार अम्बार रहे ।। 
लेकिन गृहभेदी से भय अति , मुखबिर बने अनेक सुमित्र । 
कल तक कंधा मिला लड़े जो , आज स्वार्थबस वे ही शत्रु ।। 
एक इशारे पर आजाद के , तन , मन , धन , देकर तैयार । 
वे ही दल - द्रोही मुखबिर बन , लिए पकड़वाने का भार ।। 
सम्बल , सहयोगी आजाद के , जो हर त्याग को थे तत्पर । 
बेच दिये ईमान , धर्म निज , मुखबिर , लोभ - ग्रसित - कायर ।।

राष्ट्र धर्म को भूले स्वार्थी 
कल तक क्रान्तियज्ञ साथी , अब कायर , दलद्रोही , स्वार्थी । 
पाने को पद , पैसा , प्रभुता बने देश - दल - जन - घाती ।। 
अविश्वास , निष्क्रियता , भय , भीरुता देख , जब दिया निकाल । 
वही दुष्ट विद्रोही बन , साम्राज्यवाद के बने दलाल ।। 
दल विघटन , दल सर्वनाश हित , उनके बर्बर क्रियाकलाप । 
कुपित , दुःखित , आजाद हृदय में , क्षोभ , देख सुन , उनका पाप ।। 
ऐसे ही कपूत से , भारत माँ की कोख , कलंकित आज । 
राष्ट्र धर्म को भूले स्वार्थी , दलद्रोही , जन - धोखेबाज ।। 
करते जो विश्वासघात , उनको संरक्षण उचित नहीं । 
विषधर का परिपोषण अनुचित , सर्वनाश ही मार्ग सही ।। 
विष वरूथ को जड़ से काटें , लघु विषधर भी बनते काल । 
शत्रु , रोग , पावक , अहि , लघु भी , सर्वनाश करते तत्काल ।। 
रंचमात्र भी क्षमा न उनको , जो संदिग्ध , अविश्वसनीय । 
अरि को क्षमा अधिक प्रतिघातक , नीति - सूत्र सब , अनुकरणीय ।। 
गलत निर्णयों का निश्चय , दुष्फल , भविष्य में पूर्ण सचेत । 
रंच चूक से दल पर संकट , सतत जागरण , सहित विवेक ।। 
किन्तु अटल विधि का विधान है , छूटा तीर , न आता हाथ । 
मुखबिर सफल , सबल , सक्रिय , अति , दल नेता अब , आज अनाथ ।। 
रूस गमन की तैयारी हित , सुरेन्द्र पाण्डेय सँग , यशपाल । 
चले चौक बाजार हेतु , आजाद भी साथ चले . गति काल ।। 
बोले वे - मुझको भी एल्फ्रेड पार्क में है , एक कार्य विशेष । 
इसी समय सुखदेव से मिल देना अति आवश्यक संदेश ।। 
चले साइकिलों पर चढ़ तीनों एल्फ्रेड पार्क में थे सुखदेव । 
तुम दोनों जाओ कह रुके वहाँ आजाद , यथा विधि लेख ।।

मुखबिर पूर्व सुपरिचित , वर्मा क्रोव 
देख रहा था , दूर खड़ा यह दृश्य , युवक गोरा , मुखबिर । 
जा पहुंचा विश्वेश्वर सिंह के पास , जो पुलिस के इन्स्पेक्टर ।। 
मुखबिर पूर्व सुपरिचित , ' वर्मा क्रोव नाम का विश्वसनीय । 
स्वागत कर जलपान कराया पूछा विस्तृत , जो कथनीय ।। 
बहुत दिनों पश्चात , आगमन , निश्चय कोई बात विशेष । 
युवक इशारे से बतलाया , दिया कान में कुछ संदेश ।। 
'
नहीं वक्त फौरन चलिए , कटरे से सभी चल पड़े चौक । 
शिकार एल्फ्रेड पार्क मे आया , पुरस्कार का मेरा हक ।। 
'
सच कहते हो , किन्तु नहीं विश्वास , तुम्हारी बातों का । 
कई बार हो किए परेशों , झूठी झूठी खबरें ला ।। 
'
इन्स्पेक्टर की बातें सुन , विश्वासपूर्वक , वह बोला । ‘ 
सत्य बात सुखदेव साथ , आजाद पार्क में वक्त भला ।। 
अगर वक्त चूके .अबकी , ऐसा अवसर न मिलेगा फिर । 
साथ साथ पकड़े जायेंगे हि.स.प्र.स. के सदस्य शातिर ।। 
एकाएक हुए गम्भीर , विश्वेश्वर बोले ' ठीक मगर । 
संदेशा यदि असत्य निकला , आकर लूँगा तेरी खबर ।। 
ऐसा मारूँगा जीवन भर याद रहे किससे पाला । 
'
उसे पकड़ कोठरी में डाला लगा दिया , बाहर ताला ।। 
चीख उठा वह मुखबिर दण्डित हो ऐसे अप्रत्याशित । 
'
मेरी सेवा का यह उत्तर , इन्स्पेक्टर साहब , अनुचित ।। 
पड़े रहो चुपचाप यहीं पर , भला तुम्हारा है इसमें । 
उचित या अनुचित फल पाना , जो लिखा , तुम्हारी किस्तम में ।। 
वह चिल्लाता रहा जोर से , लेकिन सुनने वाले मौन । 
नाट वाबर एस.पी के बँगले , विश्वेश्वर पहुँचे फौरन ।। 
मुखबिर का संदेशा दे , तत्काल किया सब बन्दोबस्त । 
दलद्रोही ने भंडा फोड़ा , गृह भेदी से हर युग त्रस्त ।। 142 क्रान्तियज्ञ

वीरभद्र क्यों यहाँ इस समय
एलोड पार्क में , सघन नीम तरु तले , सतर्क सुखदेव , आजाद । 
गुप्त मंत्रणारत , सहसा लख सड़क दृश्य , रह गये अवाक ।। 
देखा वीरभद्र को छिपकर खड़ा दुष्ट , उद्देश्य न नेक । 
वीरभद्र क्यों यहाँ इस समय ? शंकायें जग उठी अनेक ।। 
इसके पूर्व कि सोचें , समझें , मोटर आने की आवाज । 
पड़ी कान में , हो सतर्क अति , टोह लगाने का अन्दाज ।। 
पल में बाबर नाट की मोटर , आ एकाएक रुकी , समक्ष । 
'
कौन हो तुम सब ? बोला कड़क हाथ पिस्तौल , साध कर लक्ष्य ।। 
चारो ओर पुलिस का घेरा , गोली गूंज उठी तत्क्षण । 
छेद गई आजाद का जंघा , बिलख उठे , खग , तरु , तृण , कण ।। 
सावधान आजाद हो गये , पल में , निज पिस्तौल निकाल । 
मारा बाबर को पर कायर छिपा पार्श्व - गाड़ी , तत्काल ।। 
पर फायर बेकार नहीं था गया , हुआ टायर पंचर । 
किन्तु तभी गोली घातक , आजाद के सीने के अन्दर ।। 
लहू लुहान हुए शेखर , था धैर्य , विवेक , शौर्य , अनुपम । 
आदेश दिया- ' सुखदेव बचो , भागो , है समय बहुत अब कम ।। 
सुखदेव को दे आदेश , अकेले इमली , नीम तरु ओट लिए । 
घायल गम्भीर किन्तु , फायर , कर , दोनों हाथ से , घात किए ।। 
आजाद की माउजर गोली ने बाबर की कलाई को तोड़ा । 
पिस्तौल गिरी , भागा सरपट , मोटर में छिपा , हिम्मत छोड़ा ।। 143 क्रान्तियज्ञ
तुम भाग न पाओगे , बाबर कायर ' गरजी ' माउजर ' तत्क्षण । 
था लगा निशाना अति सटीक , हो गया चूर मोटर इन्जन ।। 
प्राण बचाकर भागा बाबर , छिपा पेड़ के पीछे जा । 
चुन चुनकर आजाद शत्रु को प्रतिपल देते रहे सजा ।। 
चारो ओर पुलिस का घेरा , निकट आ रहा था , प्रतिक्षण । 
किन्तु निडर आजाद अकेले निभा रहे थे अपना प्रण ।।

वन्डरफुल आजाद वीर तुम 
खोज रही आजाद की आँखें , छिपा ' नाट बाबर किस ओर । 
प्राण बचा भागा क्यों गीदड़ ? आ समक्ष कायर सिरमौर ।। 
ब्रिटिश राज का प्रतिनिधि , पिट्दू दुबके कहाँ सामने आ । 
तुम अनेक मैं निपट अकेला , अस्त्र शस्त्र फिर भी डरता ।। 
सुनकर भी ललकार , भयातुर बाबर , कायर छिपा रहा । 
कालरूप आजाद अतः वह , पेड़ ओट ले , बचा रहा ।। 
चारो ओर से गोली वर्षा , पर लड़ते आजाद रहे । 
देख सिपाही हिन्दुस्तानी उनसे बचन , सखेद कहे ।। 
हिन्दुस्तानी सिपाहियों तुम , क्यों करते हो , यह अन्धेर । 
अपने भाई पर ही गोली , राष्ट्र धर्म तज , बने दिलेर ।। 
मैं भारत की आजादी के लिए बना हूँ , क्रान्ति - पथी । 
शत्रु पक्ष के पोषक तुम सब , मूर्ख , आत्मघाती , स्वार्थी ।। 
मारो मुझे भले तुम गोली , मैं तो तुम्हें न मारूँगा । 
भाई के प्रति सहज समादर , तुम्हें न प्रतिउत्तर दूंगा ।। 
तभी दाहिनी ओर सुपरिचित झाड़ी ऊपर , सिर निकला । 
यह तो विश्वेश्वर सिंह एस . पी . शुभ अवसर ले लूं बदला ।। 
गाली भी दे रहा मूर्ख , साम्राज्यवाद का यह पिस्सू । 
अच्छा बच्चा अब तूं भी ले गरजी माउजर डिणू - डियूँ ।। 
गाली देने वाला जबड़ा , चूर हुआ लुढ़का भू पर । 
मात्र एक गोली की गुरुता , वाह , वाह , जनपथ जन - स्वर ।। 
वन्डरफुल आजाद वीर तुम , किन्तु न बच पाओगे अब । 
गुप्तचरों के इन्स्पेक्टर जनरल का स्वर , डरते हम कब ? ' क्रान्तियज्ञ 145
गरज उठे आजाद किन्तु माउजर में , बची एक गोली । 
घायल , वीर रक्त रंजित पर , बुद्धि , विवेक निडर बोली ।। 
हुआ स्मरण , अपना प्रण तत्क्षण , जीवित नहीं पुलिस पकड़े । 
तुरत कनपटी लगा माउजर , बिना हिचक , गोली छोड़े ।। 
'
जय श्रीराम ' सुघोष ठाँय आवाज , माउजर शान्त हुआ । 
निज प्रण - रक्षक , निज माउजर से , स्वयं वीर गति प्राप्त हुआ ।। 
क्रान्ति - वीर आजाद निभाए , पूर्ण धैर्य से , प्रण अपना । 
मरते दम तक लड़े शत्रु से , किए पूर्ण , जीवन सपना ।। 
ऐसे बलिदानी का जीना , जीना है , मरना , मरना । 
भूमि पुत्र तुम अमर हो गए , अमर शहीदों में गणना ।।

क्रान्ति मसीहा निभा गया प्रण 
मुखड़े पर था तेज , मूंछ पर ताव , हाथ में थी , माउजर । 
साहस , शौर्य , सतर्क भाव , अब भी दमके शव चेहरे पर ।। 
मुख मण्डल पर गर्म , रक्त की धार , कनपटी से बहकर । 
मस्तक पर रोली सी बहकर , लगातार गिरती भू पर ।। 
वक्षस्थल , जंघा , पहले से ही था छलनी , रक्त , फुहार । 
वीरोचित होली का बाना , वस्त्र रक्तमय , दिव्य श्रृंगार ।। 
जीवन भर आजाद रहा , ' आजाद ' नाम बन गया , यथार्थ । 
जन्मभूमि हित शहीद बनकर , किया लोक - सार्थक परमार्थ ।। 
क्रान्ति मसीहा निभा गया प्रण , बन्धन मुक्त हुआ , तन - प्राण । 
युग - युग तक प्रेरणा प्रदायक , क्रान्ति - मसीहा का गुणगान ।। 
हुए शहीद परन्तु पुलिस अब भी सतर्क , अति थी भयभीत । 
सम्भावित अभिनय का भय अति , सावधान रह गई समीप ।। 
गोरे अफसर , वृक्ष ओट ले , करते रहे , घात पर घात । 
थे आजाद शहीद हो गये , शव पर व्यर्थ , प्रबल , प्रति - घात ।। 
निर्दयता का नग्न नृत्य , अब भी गोरों के उर में डर । 
अब भी था विश्वास न उनको , यद्यपि निश्चल , शव भू पर ।। 
कई गोलियाँ , पग से सिर तक , बाल पकड़ , झकझोरा खूब । 
हुआ मृत्यु का पूर्ण सुनिश्चय , तब सब गये , खुशी में डूब ।। 
इमली नीम के पत्ते , रंजित - रक्त , विछे ज्यों , लाल गुलाब । 
शिव शेखर अस्तित्व हीन , पर शव - शेखर का प्रगट प्रभाव ।। 147 क्रान्तियज्ञ
परम दिव्य निष्प्राण देह , तरु - नीम - तले , बैठा ऐसे । 
योद्धा कोई युद्ध भूमि में , थक , विश्राम करे जैसे ।। 
बैठ वृक्ष नीचे ज्यों योगी , परहित योगाभ्यास करे । 
मानवता मर्यादा रक्षा हित , जप , तप , मख , दान करे ।। 
कर्मव्रती खोले वक्षस्थल , प्राणदान कर , दे उपदेश । 
करो कर्म निष्काम , भय रहित , मातृभूमि हित , चिर संदेश ।। 
भक्त पड़ा भगवान चरण में तन , मन , धन , कर अर्पण , प्राण । 
माया विवश , जीव जग भटके , प्रभु करना , सबका कल्याण ।।

वीर पुत्र तुम अमर हो गये 
मातृभूमि हित प्राप्त वीर गति . देवदूत स्वागत सब साज । 
लिए विभान खड़े आग्रह रत योद्धा स्वर्ग पधारो आज ।। 
अभिमन्यु सा धिरा शत्रु से . रंच न चिंता , भय , शंका । 
सिद्धान्तों हित प्राण न्योछावर , बजा गया , गौरव - डंका ।। 
सहसा जुड़े हुए दोनों कर , मस्तक आ लुढ़का , भूपर । 
मातृभूमि को सादर नमन किया , ज्यों तज , जग - आडम्बर ।। 
भाव जगत में भारत माँ का , प्रगट बोलता दिव्य - स्वरूप । 
वीर पुत्र तुम अमर हो गये , चिर भारत गौरव अनुरूप ।। 
तुम जैसे सपूत जिस माँ की , गोदी में , न रहे परतन्त्र । 
दिखा गये तुम मार्ग श्रेयकर , निश्चय भारत , शीघ्र स्वतंत्र ।। 
तेरे रक्त बूँद से अगणित , वीर यहाँ होंगे पैदा । 
मातृभूमि की बलिबेदी पर , प्राणोत्सर्ग - हितार्थ सदा ।। 
पुण्य धरा यह , जहाँ वीर आजाद , वीर गति पाये तुम । 
क्रान्ति मसीहा , अमर शहीदों में , चिर नाम लिखाये तुम ।। 
एलोड पार्क भविष्य में होगा , चन्द्रशेखर आजाद उद्यान । 
अमर शहीदों की गाथाओं का , ज्वलन्त यह तीर्थ , महान ।। 
राष्ट्र , धर्म , मानव सेवा , सँग प्राणिमात्र हित चिन्तन केन्द्र । 
शोषण , अत्याचार , भ्रष्ट आचार , आदि गज हेतु , मृगेन्द्र ।। 
निर्भयता संयम , सेवा , अनुशासन , वाणी , कर्म , विवेक । 
मानव मूल्यों से संस्कारित होंगे इस थल , युवक अनेक ।। 
क्रान्तियज्ञ का बीज वृक्ष बन , दे सबको , छाया , विश्राम । 
देकर आशीर्वाद प्रगट , फिर सहसा हो गईं , अन्तरध्यान ।। 
भारत माँ का शुभाशीष शुचि , निश्चय होगा . पूर्ण तमाम । 
तीर्थराज की पुण्य धरा को , जन जन का शत कोटि प्रणाम ।। 149 क्रान्तियज्ञ

वसोर्धारा 
भीड़ सिन्धु उमड़ा पल भर में 
क्षण में दिशा - दिशा शोकाकुल , वायु वेग से दुःखद सँदेश । 
फैला नगर , गली , घर - घर में , दुःख सागर में , डूबा देश ।। 
जनसागर उमड़ा पल भर में , क्रान्ति - देव के , दर्शन हेतु । 
किन्तु पुलिस का पहरा भारी , कौन ? कहाँ ? क्या ? सके न देख ।। 
क्रोध , क्षोभ , जन - जन मन में , मर्माहत , हतप्रभ , दर्शक । 
कानाफूसी , बढ़ा शोरगुल , कौन बुझ गया कुलदीपक
एक दूसरे से बतलाते , पहचाने क्या नहीं अभी
क्रान्ति शिरोमणि हैं आजाद ये , स्तब्ध , दुःखित सुन , हुए सभी ।। 
क्या आजाद वीर गति पाये ? सच क्या वे हो गये शहीद
अभी - अभी तो आते देखा , सोये कैसे , चिर , सुख नींद ।। 
जितने जन , मुख उतनी बातें , जितने नेत्र , बाहु , पग , दिल । 
उतने विविध भाव प्रगटित सब , शोकाकुल , विह्वल बोझिल ।। 
सिसकी , आह , अश्रुधारा , क्रम , व्याकुलता , विरोध स्वर , क्रोध । 
पुलिस लगी हर सम्भव कोशिश करने , बढ़ते देख विरोध ।। 
कहीं प्रयास न हो शव लेने का , मर्माहत , युवजन - ज्वार । 
जन - जन का यह क्षोभ , क्रोध ले , राष्ट्रद्रोहियों से प्रतिकार ।। 
तितर - बितर हो भीड़ , हेतु इस , अधिकारी आदेश दिये । 
बर्बर नर्तन देख पुलिस का , हटी भीड , मन क्षोभ लिए ।। 
घर घर में चर्चाएँ अगणित , शोक सिंधु आकंठ नगर । 
गली - गली नुक्कड़ - नुक्कड़ पर , क्रोध , क्षोभ का जनसागर ।। 150 क्रान्तियज्ञ
जिसने जहाँ सुना , भागा वह , गया जहाँ शहीद निष्प्राण । 
किन्तु पास तक पहुँच न पाते , जालिम पुलिस बनी हैवान ।। 
बड़े बड़ों के छक्के छूटे . नाम से जिसके सब भयभीत । 
कुछ पल पहले तक सक्रिय चिर , शान्ति सो रहा , वह मनमीत ।। 
नीग वृक्ष के पत्ते झर , झर , गिर चरणों पर , करें प्रणाम । 
प्रखर धूप में चेहरा चमके दिव्यदेह का , चिर विश्राम ।। 
मंद पवन की शीतल थपकी , पशु पक्षी का दुःख कुहराम । 
नश्वर तन था पड़ा भूमि पर , जीव वीर गति , पथ श्रीधाम ।। 
ट्रक आया एक क्रान्ति देव के , शव को , बरबस , घसीट कर । 
सबके आगे निर्दयतापूर्वक लादा उसके ऊपर । 
पशुवत् दुर्व्यवहार बेरहमी , बर्बरता , कायर - अविवेक । 
यह अन्धेरगर्दी , जड़ जनता , विमूढ कायर , रहित विवेक ।। 
भारी भीड़ की कानाफूसी , मात्र दबी जबान , प्रतिवाद । 
मारो , ' मरो न संकल्पित गन , नहीं किसी का नृसिंह - नाद ।। 
आगबबूला हुआ न कोई , शहीद का , समक्ष अपमान । 
नहीं किसी ने किया माँग , वीरोचित देने को सम्मान ।। 
रही देखती भीड़ मूक बन , ट्रक दृग ओझल , हुआ तुरंत । 
कैसी यह बिडम्बना विधि की ? क्रान्तिदेव का ऐसा अन्त ।। 
क्यों न कोई बाँका आगे बढ़ विरोध कर , हो गया शहीद
ऐसे जड़वत जन समुद्र से , विप्लव , क्रान्ति की व्यर्थ उम्मीद ।। 
शद तो है निर्जीव उसे , अपमानित करो , या दो सम्मान । 
किन्तु कर्म क्या मिट पायेगें ? युग युग तक , प्रतिपल गुणगान ।। 
पूर्ण सार्थक जीवन उनका , मातृभूमि हित , बने शहीद । 
मर कर भी वे अमर हो गये , युग हित बने , प्रेरणा गीत ।। 151 क्रान्तियज्ञ
मात्र अकेले पुलिस दल प्रबल , किया अन्त तक , डट प्रतिरोध । 
मरण वरण कर , स्वयं अन्त में ब्रिटिश पुलिस अति , कुटिल . अबोध ।। 
क्रान्तियज्ञ को पुनः प्रज्ज्वलित . किया , स्वयं की आहुति दे । 
बुझती ज्वाला भभक उठी . भारत के जन मन में , फिर से ।। 
ब्रिटिश पुलिस भयभीत सशंकित , चुपके छिपकर , किया प्रयास । 
खाना पूर्ति , पंचनामा पोस्टमार्टम , आदि , बीच संत्रास ।। 
हुई शाम जब बढ़ा अँधेरा , पूर्ण सुरक्षा , अति सुनसान । 
अंतिम क्रिया , किया चुपके से . घाट रसूलाबाद श्मशान ।। 
आदर , श्रद्धा , संस्कार से रहित , जल हुआ , राख शरीर । 
चिता ज्वाल में भस्म सुभग तन , साक्षी पावन , गंगा - नीर ।। 
गंगा की लहरें व्याकुल अति . पाने को , वह भस्म पुनीत । 
पवन देव बन गये सहायक , लहर लहर , समयोचित गीत ।। 
वीर पुत्र का भस्म प्राप्त कर , गौरवान्वित , गंगा - आँचल । 
पंच भूत मिल गये सत्वनिज , गंग - तरंग , पवन , चंचल ।। 
भाव रूप से बिखर गया , भारत भर में , चिर - बीज पुनीत । 
आत्मा अमर , तत्व निज निज में , ऋषि परम्परा का , चिर - गीत ।। 
युग - युग हित , यह धरती पावन , वीरोचित , संदेश महान । 
पुनर्जन्म , चिर , सत्य प्रमाणित , नहीं व्यर्थ जाता बलिदान ।। 
दैनिक समाचार माध्यम से , विदित जगत को , दुःखद सँदेश । 
अति आकुल , व्याकुल भारत जन , विवरण सुन , सब , हार्दिक क्लेश ।। 152 क्रान्तियज्ञ

आरती सारे देश में विरोध , धरना 
स्वाभिमान जागा भारत जन का , हिय में अपूर्व आक्रोश । 
यद्यपि सब सन्तप्त , शहादत से , फिर भी , सब में नव जोश ।। 
सारे देश मे विरोध , धरना , हड़तालें जलूस . डटकर । 
लेने को साम्राज्यवाद से , फिर से , निर्णायक टक्कर ।। 
हिली नीव साम्राज्यवाद की , गिरा कँगूरा , शासन लुंज । 
गोरों की बर्बरता की , भारत से लंदन तक अनुगूंज ।। 
एल्फ्रेड पार्क , शहादत - स्थल पर , भारी भीड़ , दुःखी व्याकुल । 
श्रद्धान्जलि हित जन हिलोर से , ब्रिटिश जनों के हिय में शूल ।। 
धन्य हुआ पावन तरुवर स्थल , जहाँ वीर था हुआ शहीद । 
श्रद्धान्जलि पुष्पों का पर्वत बना , जहाँ अन्तिम चिर नींद ।। 
इमली , नीम के पत्ते बिखरे , जिन पर पड़े रक्त छींटे । 
भाव विभोर भीड़ ने रत्न , अमूल्य समझकर , सब लूटे ।। 
रक्त सनी पावन मिट्टी भी , चुटकी - चुटकी सब सिर , माथ । 
जन ने उसे अमूल्य धरोहर , समझ , रखा श्रद्धा के साथ ।। 
दर्शन , श्रद्धान्जलि का क्रम , अनवरत , अबाध , चला प्रतिपल । 
जनता के पूजन - अर्चन से , पावन - परम , शहादत - स्थल ।। 
सह न सकी सरकार विदेशी , शहीद प्रति यह , जन - सम्मान । 
जामुन , इमली , नीम पेड़ कटवाया , जिससे मिटे प्रमाण ।। 
मिटे शहादत - स्थल सबूत सब , ब्रिटिश पितुओं को संतोष । 
भारत के जनमानस की , द्विगुणित श्रद्धा , नव जोशखरोश ।। 153 क्रान्तियज्ञ
मिटा सकेगा कभी कोई क्या , स्वतन्त्रता इतिहास अमर
युग युग तक प्रेरणा प्रदायक , होंगे क्रान्ति - पथिक के स्वर ।। 
ऐसे वीर सपूत न मरते , मरकर भी वे अजर , अमर । 
कीर्ति ध्वजा फहराती युग - युग , सब भौतिक प्रतीक नश्वर ।। 
उनकी जीवन गाथा , सदियों तक संदेश सुनायेगी । 
अवसर पर प्रेरणा स्रोत बन , नव इतिहास रचायेगी ।। 
जब तक तीर्थ प्रयागराज , जब तक गंगा , जमुना धारा । 
सदा बसेगा भारत हिय में , जन मन आँखों का तारा ।। 
अमर हुआ आजाद नहीं मरते है , बलिदानी त्यागी । 
हुआ हृदय - सम्राट सभी का , क्रान्ति पथिक जन अनुरागी ।। 
परतन्त्रता , दमन , शोषण , वैषम्य , दलित पर अत्याचार । 
फूटेंगे विरोध स्वर तब तब , जब जब जग में भ्रष्टाचार ।। 
अतः आसुरी वृत्ति मार्गियों , मोह निशा न बनो अनजान । 
शाश्वत दैवी गुण - प्रतीक , शेखर सद्गुरु से सावधान ।। 
जनमानस इतिहास - पृष्ठ , आजाद - कथा , प्रत्यक्ष कटार । 
खड़ी दुर्जनों के समक्ष , प्रतिपल ले लेने को , प्रतिकार ।। 
जन सेवक , जनसेवा तज , तुम भूल न करना अत्याचार । 
हर युग का आजाद प्रगट हो , करेगा समयोचित सत्कार ।। 
तन , मन , इन्द्रिय , बुद्धि , अहम् , हिय भाव विविध प्रत्यक्ष , परोक्ष । 
सीमित काल या महाकाल में , निश्चय फलित , यथा गुणदोष ।। 
अतः धर्मपथ को अपनाकर , अर्थ , काम का सद् उपयोग । 
अंतिम लक्ष्य मोक्ष हित साधन , मानव - तन साधन शुभयोग ।। 
यदि चिर ज्ञात सत्य को तज जन अधम पंथ अपनाएगा । 
निश्चय ही कर प्राप्त अधोगति , कोटि योनि दुःख पाएगा ।। 154 क्रान्तियज्ञ

क्षमा प्रार्थना 
माता आँख बिछाये रोती 
शेखर का सीमित जीवन क्रम , भारत का वह पुत्र महान । 
क्रान्तियज्ञ की पूर्ण आहुति बन , बना राष्ट्र जनजीवन प्राण ।। 
जननी - जनक को बचपन में तज सदा किया परदेश प्रवास । 
विपन्नता में जीवनयापन , भोजन - वस्त्र - रहित - आवास ।। 
पर अभाव का दुःख न किन्चित , स्वाभिमान हित , सदा सतर्क । 
हम सबसे विपन्न नरनारी जाने कितने ' , देता तर्क ।। 
माँ का प्यारा , कुल पोषक सुत , सदा परिस्थितियों से जूझ । 
मातृभूमि की सेवा हित , संकल्पित मन , विवेकमय सूझ ।। 
मातृ - मोह , यद्यपि दुःख भारी , दुःख , दरिद्रता का संत्रास । 
पर निज लक्ष्य सदा सर्वोपरि , क्रान्ति - पंथ - पोषक आजाद ।। 
मों की ममता का भूखा वह , पिता प्यार की प्यास अतृप्त । 
गाँव - गोत्र प्रति प्रेम असीमित , सब बन्धन से , किन्तु अलिप्त ।। 
महापुरुष की यह विशेषता , व्यष्टि मोह तज , वरण समष्टि । 
जितनी ही विशाल व्यापक , यह दृष्टि , महा मानवता सृष्टि ।। 
देश की आँखों का तारा जो , न्योछावर जन - जन तन - प्राण । 
एक इशारे पर जिसके , सब तत्पर , करने को बलिदान ।। 
ऐसे सुत आजाद हेतु माँ का वात्सल्य प्रेम भारी । 
खाना , पीना , रहना कैसे ? कब ? इसकी चिन्ता सारी ।। 
सुत सुखदेव , तथा पति सीताराम , गये क्रमशः सुरधाम । 
सारी अभिलाषा शेखर कुलदीपक एक , भविष्य तमाम ।। 155 क्रान्तियज्ञ
दीन , हीन जीवनयापन , आशा - दीपक केवल आजाद । 
आकर बने सहायक , रक्षक यथा सृष्टि गति , कुल आबाद ।। 
किन्तु न आशा पूर्ण हुई . तज छोटा ध्येय , बड़ा लेकर । 
जननी की सीमित ममता तज , मातृभूमि हित , न्योछावर ।। 
माता आँख बिछाये रोती , ' कौन बड़ा है , कार्य विशेष
एक बार भी आकर मिलता , इतना भी क्या समय न शेष
माता की ममता से बढ़कर , पुत्र हेतु क्या काम बड़ा
एक बार आकर माँ कहता , जाता चाहे खड़ा खड़ा ।। 
चुका गया लाड़ला उन्हीं का , जननी जन्मभूमि - ऋण भार । 
माँ को नहीं ज्ञात , माँ से बढ़ , मातृभूमि भारत से प्यार ।। 
माँ को खबर मिली , यह सुनकर - ' मेरा शेखर हुआ अमर । 
अंग्रेजों से लड़ते लड़ते छोड़ गया काया नश्वर ।। 
क्या सचमुच ही मेरा शेखर लड़ते लड़ते हुआ शहीद
नहीं हुआ विश्वास नहीं बहकाओ मुझको , नहीं उम्मीद ।। 
आयेगा मेरा शेखर , वह मरा नहीं है , जीवित है । 
मेरी कोख का राज दुलारा , निश्चय संकट पीड़ित है ।। 
पूजन , व्रत जप विधि - विधान से नित्य , मनौती , नव टोटका । 
अनामिका मध्यमा पैर , अंगुली में धागा बाँध रखा ।। 
कोई पूछे– ' यह क्यों अम्मा ? कहतीं - ' कुशल मनौती है । 
आयेगा शेखर मेरा , यह आस्था पूर्ण चुनौती है ।। 
'
करती रहीं प्रतीक्षा बीते दिन , पखवारे , मास , अनेक । 
हृदय - व्यथा दृगधारा बनती , पर ममता की , आशा शेष ।। 
कुल का दीपक , दिल का टुकड़ा , माँ की आँखों का तारा । 
एक बार आकर माँ कहता , छूटे तब यह तन - कारा ।। 156 क्रान्तियज्ञ
कहते लोग - ' तुम्हारा शेखर , लोहा ले अंग्रेजों से । 
छुड़ा गया छक्के उनके , निज , साहस , शौर्य , धैर्य , बल से ।। 
सुन सुन इधर उधर की बातें माँ का मन घबड़ाता था । 
सीधे सादे शेखर का स्वरूप स्मृति - पट पर आता था ।। 
कहती - ' गोरों के सँग सेना , पुलिस , तोप , बन्दूकें हैं । 
शेखर पिता - क्रोध से डर , मेरे आँचल में दुबके हैं ।। 
कैसे मानूँ मेरा बेटा , लड़ते लड़ते , हुआ शहीद । 
जिसने सुई न छुई कभी , उससे तलवारों की उम्मीद ।। 
तुम सब झूठे बहकाते हो ' - हिय कठोर रखती , कब तक । 
अनिष्ट भय आशंका , आँसू बन दृग - मग टपकें टपटप ।। 
दिन , दिन जर्जर होती काया , क्षीण , दृष्टि , बहरापन भी । 
आशा ज्योति हृदय में पर , जलती ही रही , अंत तक भी ।। 
कौन उन्हें समझाये कैसे दे विश्वास , शान्ति साहस । 
उनकी बिलख रही आत्मा को , बँधा सके कैसे ढाढ़स ।। 
किन्तु सत्य तो सत्य , उसे कब तक मिथ्यात्व बाँध सकता । 
अनिष्ट अटल विधि - गति सब , जीव बाध्य हो , सब सहता ।।
साष्टागनमस्कार माँ को भ्रमित कर रहे झूठे शेखर की इच्छानुसार ,

वैशम्पायन जब हुए विमुक्त । 
जेल से निकल भाँवरा माँ से मिले , यथा अवसर , उपयुक्त ।। 
माँ को भरमाया लोगो ने , माँ आया , तेरा शेखर । 
तुरंत हृदय से लगा दुलारा , ज्योतिहीन , ममता जर्जर ।। 
किन्तु नहीं विश्वास , टटोली तन , मन शंकित रह , चुपचाप । 
माँ की ममता भुला न पाती , पुत्र - प्रतीक , भाव , पदचाप ।। 
मौन हृदय से लगे रहे , वैशम्पायन , धड़कनें अशान्त । 
कोख में ढोने वाली माँ को , भला कभी किन्चित विभ्रान्ति ।। 
मिला न अवसर , समझायें- ' माँ तेरा शेखर हुआ शहीद । 
सुत - वियोग में दुःखिया माँ को , कब तक भ्रम तम की सुख नींद ।। 
तन टटोलते हुए पड़ा जब मुख पर , माँ का ममता हाथ । 
नहीं हमारे शेखर तुम , मुख पर उसके , माता का दाग ।। 
चोट निशान तुम्हारी दाईं आँख पास भी नहीं , सबूत । 
माँ को भ्रमित कर रहे झूठे . हटो , झटक कर कहा , कपूत ।। 
तुम मेरे शेखार बनकर मुझको धोखा देने आये । 
ज्योतिहीन हूँ , बधिर तो क्या ? माता न कभी धोखा खाये ।। 
नहीं रह सके , वैशम्पायन मौन , सत्य कटु , कहे तमाम । 
माँ मैं नहीं तुम्हारा शेखर , वैशम्पायन मेरा नाम ।। 
मैं शेखर का सहयोगी था , वे सच ही , हो गये शहीद । 
हम सबको मझधार छोड़ , असहाय , सो गये चिर सुख - नींद ।। 158 क्रान्तियज्ञ
सुनते ही कटु सत्य भाव , विह्वल हो ममता फूट पड़ी ।। 
अश्रुधार - दृग , कर - प्रहार - उर , करुणा - सरिता , उमड़ पड़ी । 
मेरा शेखर हुआ न्योछावर , धन्य , कोख , कुल , गृह , परिवार । 
जाति , देश सब धन्य , शुभ घड़ी , गौरव कृत्य प्रणाम हजार ।। 
मेरा बेटा मरा नहीं , नश्वर तन , वह हो गया शहीद । 
अमर आत्मा , अमर हुआ यश , दे दी प्रभु ने माँगी भीख ।। 
तुरंत छोड़ दी धागा पैरों का , जो बाँधा बरसों से । 
मुझे मिल गया मेरा बेटा , छाती ठण्डी , कर्मों से ।। 
तन नश्वर , विनष्ट निश्चय , शुभ कर्म , सुयश , जीवित रहते । 
महापुरुष निज कर्मों से , शाश्वत - स्वर्णाक्षर - लिपि , बनते ।। 
धन्य , धन्य , जगरानी माता , धन्य तुम्हारी कोख हुई । 
कीर्ति तुम्हारी दशदिशि फैले , प्रभा - प्रेरणास्रोत - मयी ।। 
तुम जैसी मातायें जब तक , साहस , शौर्य , धैर्य की आग । 
क्रान्तियज्ञ परिपूर्ण हुआ , शेखर का , मातृभूमि प्रति त्याग ।।

पुष्पान्जलि 
विश्वासघात किसका कुकृत्य 
विश्वासघात किसका कुकृत्य ? प्रश्नोत्तर पग पग नवल , नित्य ।। 
घटना कल्पित क्या , सत्य कथन ? आकलन विविध , विभ्रम - जन - मन ।। 
कुछ कहते वीरभद्र मुखबिर । सुखदेव की कायरता जाहिर ।। 
विश्वेश्वर सिंह का स्वयं कथन ? या वर्मा क्रोव का पुलिस वचन
जो लिखित प्रमाण , विपुल चर्चित । प्रत्यक्षदर्शियों के , अगणित ।। 
सब मिलकर बनते तथ्य प्राण । पाठक विवेक निज , निज प्रमाण ।। 
सब विस्तृत विवरण विविध तथ्य । औचित्य रखू पाठक समक्ष ।। 
पाठक विवेक निज , नीर - क्षीर । कर विलग करें , यद् मति , सुधीर ।।
वैशम्पायन का स्पष्ट कथन , है वीरभद्र विश्वासघाती । 
इनके माध्यम से बहुधा दल के . भेद पुलिस थी पा जाती ।। 
काकोरी षडयन्त्र में फँस , जब गिरफ्तार हो , जेल गये । 
सब भेद पुलिस को बतलाकर , वे मुखबिर बनकर छूट गये ।। 
एक बार यशपाल पर जब , दल विघटन का आरोप लगा । 
गोली मारें दल का निर्णय , तब वीरभद्र ने दिया भगा ।। 
किन्तु कथन यशपाल का - ' वैशम्पायन का विवरण अनुचित । 
आरोप मात्र , अनुमानाधारित , किन्तु पूर्णतः तथ्य - रहित ।। 
मैं आजाद का निकट का साथी , हि.स.प्र.स. केन्द्रीय समिति सदस्य । 
वैशम्पायन नहीं , अतः , सब विदित मुझे , दल - विविध - रहस्य ।। 
वैशम्पायन का विवरण है , मात्र परिस्थिति आधारित । 
किन्तु सत्य से परे , अतः , कर्तव्य - तथ्य हों सब प्रगटित ।। 
हो न कहीं इतिहास कलंकित , भ्रमित रहें , भारतवासी । 
नीर - क्षीर हो विलग , सत्य सुस्पष्ट , इसी का अभिलाषी ।। 
प्रामाणिक सब विवरण देकर , निज कर्तव्य करूँ निर्वाह । 
यथाज्ञात सब गुप्त तथ्य , क्रमबद्ध रूप रखने की चाह ।। 
वैशम्पायन गिरफ्तार हो गये , कानपुर में जिस दिन । 
मैं आजाद इलाहाबाद में , एक साथ ही थे , उस दिन ।। 
स्तब्ध हुए विश्वस्त मित्र को , खोकर , पर आजाद तुरन्त । 
कहे कि - साले सब जनखे हैं , पुलिस से घिरकर , बोलीबन्द ।। 
सिट्टी - पिट्टी गुम हो जाती , लड़ते नहीं , शस्त्र रखकर । 
वीर - पुत्र तो लोहा लेते , मृत्यु - वरण करते , उट कर ।। 
वीर सपूतों का लड़ कर मर जाना , निश्चय श्रेयस्कर । क्रान्तियज्ञ 161 
समय पड़े पर , आत्म समर्पण करते , निश्चय वे कायर ।। 
ऐसे कायर देशद्रोहियों से , जनशक्ति क्षीण होती । 
कथनी करनी के अन्तर से , क्रान्तियज्ञ , श्रद्धा खोती ।। 
हिय में साहस शौर्य नहीं तो , व्यर्थ क्रान्ति पथ , पग धरते । 
मिथ्याचारी ऐसे कायर , क्रान्तियज्ञ रोड़े बनते ।। 
गीता , गायत्री , गंगा , गो - माता , सेवक , भूमि महान । 
मरने से डरते न कभी , भारत के सच्चे वीर जवान ।। 
आत्मा अमर , देह नश्वर , फिर पुनर्जन्म का दृढ विश्वास । 
ब्रह्म सत्य , माया प्रपंच जग , अहं ब्रह्म का , आत्म प्रकाश ।। 
भावावेष में अभिव्यन्जन , मुख क्रोध , क्षोभ से , लाल हुआ । 
एक हाथ से रहित आज मैं , विधि गति से , यशपाल हुआ ।। 
अति विश्वासी , वैशम्पायन के प्रति भी , यह क्षोभ व खीझ । 
क्रान्ति - देव , आजाद हृदय की , व्यथा , वेदना स्वतः प्रतीक ।। 
वीरभद्र के प्रति , विश्वासघात - आरोप , मिथ्या , कुत्सित । 
अति गम्भीर अतः बतलाना , सत्य तथ्य सब , समयोचित ।। 
वैशम्पायन वीरभद को , कहते हैं विश्वासघाती । 
प्रामाणिक कुछ तथ्य से उसकी , गति , मति , प्रगटित हो जाती ।। 
वीरभद्र की , दल के प्रति , निष्ठा के , स्पष्ट प्रमाण , अनेक । 
पूर्व सूचना उन्हें किन्तु , विश्वासघात का , काम न एक ।। 
वाइसराय की ट्रेन के नीचे , बम विस्फोट की , तिथि , स्थल , नाम । 
ज्ञात उन्हें था , पूर्व एक दिन , किन्तु न विश्वासघात का काम ।। 
मिले हुए यदि पुलिस से होते , सब रहस्य को , बतलाकर । 
कर सकते योजना विफल थे , षडयन्त्र पूर्व ही , पकड़ा कर ।। 162 क्रान्तियज्ञ
वाइसराय की ट्रेन पर , बम विस्फोट से , गाँधी जी अति क्रुद्ध । 
लाहौर काँग्रेस में करवाया , स्वीकृत निन्दा प्रस्ताव - विरुद्ध ।। 
गाँधी जी ने ' यंग इडिंया में लेख लिखा , ' कल्ट आफ दी बम ।
किया प्रबलतम विरोध उसमें , अतः शान्त कब रहते हम
आजाद , भगवती , वीरभद्र , सब थे साथ लखनऊ में । 
सबने मिलकर लेख लिखा - ' फिलासफी आफ दि बम ' , प्रतिउत्तर में ।। 
लेख किया पसन्द आजाद ने , तुरत हमें आदेश दिया । 
यथा शीघ्र पहुँचायें , छपवा , घर - घर में , इसकी प्रतियाँ ।। 
छापे कौन ? हो वितरण कैसे ? बड़ी समस्या थी भारी । 
वीरभद्र को सौंपा जिम्मा , गुप्तरूप , सब तैयारी ।। 
छपा , बँटा सब लेख यथोचित , पुलिस न पाई रंच सबूत । 
वीरभद्र विश्वासघाती होता यदि , देता पुलिस को सारे सूत्र ।। 
वीरभद्र आजाद का अतिविश्वासपात्र , यह स्वतः प्रमाणित । 
यू.पी. का इन्जार्च बनाया , उसे देख सक्षम , अनुशासित ।। 
वीरभद्र ने केन्द्रीय समिति में , किया एक प्रस्तुत प्रस्ताव । 
केन्द्र प्रान्त के प्रमुख न सक्रिय भाग लें एक्शन में सद्भाव ।। 
करें संगठन कार्य सुदृढ़ , दलहित , रहकर एक्शन से दूर । 
गुप्त योजना निर्देशन , संगठन कार्य , क्षमता , भरपूर ।। 
किया अवस्थी सँग कैलाश ने , पूर्ण समर्थन , पर प्रस्ताव । 
हुआ न स्वीकृत , मैंने , भगवती व आजाद ने माना नहीं , सुझाव ।। 
वीरभद्र यदि पुलिस के मुखबिर होते , था सुन्दर अवसर । 
पकड़ा देते सभी सदस्यो को एक साथ , भेद देकर ।।
वीरभद्र के प्रति आजाद के मन में , क्रोध का , तब आरम्म । 
जब केन्द्रीय समिति ने , मुझको दिया , अचानक , प्राण का दण्ड ।। 
हुए नियुक्त जो साथी दल के , करने को , यह काम तमाम । 
असफल हुए , न पूर्ण योजना , खुला भेद , किसका लूँ नाम ।। 
जिस केन्द्रीय समिति में मुझको , प्राण दण्ड का हुआ निर्णय । 
वह अपूर्ण , स्पष्टीकरण न मुझसे , क्यों ? कैसे ? अज्ञात आशय ।। 
मुझ पर था आरोप , कि मैं आजाद को कहता , मूर्ख गँवार । 
दल का मुखिया बनने हित , दल विघटनरत , सबसे तकरार ।। 
दम्भी , आडम्बरी , चरित्र से हीन , विविध दल धन , साधन । 
का करता दुरुपयोग , भोगरत , नहीं मानता , अनुशासन ।। 
बैठक में केन्द्रीय समिति के , किए बिना सच , तहकीकात । 
प्राण दण्ड का उचित न निर्णय , वीरभद्र अवस्थी - विरोध स्वर ज्ञात ।। 
पर कुछ लोगों ने आजाद के , कान भर दिए थे , भरपूर । 
निश्छल , सरल हृदय आजाद , अन्ततः हो गये , अति मजबूर ।। 
भाँप न पाये कूटनीति , छल , निर्णय अंतिम , स्वाभाविक । 
आदेशात्मक स्वर आजाद का , मौन हुए , अवस्थी आदिक ।। 
मौन स्वयं स्वीकृति सूचक , निर्णय को , सर्वसम्मति मान । 
दिया यथा आदेश , तथा तैयारी कर , तद् हित , प्रस्थान ।। 
यथा सूचना मिला न गाइड , मुझे कानपुर स्टेशन पर । 
नगर से मैं अनभिज्ञ , जानता वीरभद्र का केवल घर ।। 
वीरभद्र सद्गुरूचरण पर , नगर कानपुर का , दायित्व । 
प्राणदण्ड योजना पूर्ण करने का , उनका था , औचित्य ।।
किन्तु समझ कर कूटनीति सब , वीरभद्र ने किया सचेत । 
अतः नहीं आदेश क्रियान्वित हुआ , मृत्यु का दिन , विधि लेख ।। 
सारा विवरण सुनकर , निश्चय हुआ , कि मैं मिलकर आजाद । 
दूर करूँ संदेह सुशीला दीदी , खियाली राम , के साथ ।। 
खतरा था , एकांत मिलन में , अत : साथ जाकर , मिलना । 
उचित समझ सँग गये सभी , आजाद का क्रोध हुआ दुगुना ।। 
अविश्वास आजाद का मेरे प्रति , भारी , भरने से कान । 
खूब हुई खुलकर सब बातें , पूरा दोनों का , अरमान ।। 
था सशस्त्र मैं भी , आजाद भी , दीदी गुप्ता , बीच बचाव । 
गरमागरमी खूब हुई पर , अन्त में शान्तिपूर्ण बर्ताव ।। 
तर्क सुशीला का , अकाट्य , ' मृत्युदण्ड का निर्णय जान । 
जिस सदस्य ने किया न , भण्डाफोड़ पुलिस से , तज ईमान ।। 
गया न शरण पुलिस के , और न छल से किया , घात तुमपर । 
साहस पूर्वक शरण तुम्हारे आया , खलनायक क्यों कर
दूर हुई शंका सब , मिटा भेद दोनों के बीच तुरन्त । 
प्रेमालिंगनबद्ध हुए पर , दल - छल - बल का , हुआ न अन्त ।। 
गलत सूचनायें क्यों कर दी ? निर्णय हुआ , गलत क्यों कर
हुआ न निर्णय का क्रियान्वयन , तुम भी क्यों आये बचकर
किसने दी सूचना तुम्हें , बतलाओं उसका नाम अभी
यह सब तो विश्वासघात की , पराकाष्ठा , क्षुद्र सभी ।। 
क्या ऐसे ही क्रान्ति संगठन का , चल पायेगा , व्यवहार
अविश्वास जब आपस में ही , तब कैसे अरि से प्रतिकार ?
मैंने समझाया आजाद को , शान्त रहें , तज सभी विरोध । 
दलहित , न्याय की रक्षा हित अब , शान्ति मात्र , सार्थक प्रतिरोध ।। 
तज विवेक , निज , धैर्य न खोवें , आप जानकर भी , सब बात । 
क्यों कर मुझसे नाम पूछते ? अब भी क्या कुछ है अज्ञात
यदि अब भी मैं दोषी , लें मेरा पिस्तौल , शूट कर दें । 
मेरा कुछ प्रतिरोध न होगा , सजा जो चाहें , सो दे दें ।। 
जगा विवेक हँसे आजाद , पकड़ कर हम सबको चूमे । 
विदा हुए हम सब प्रसन्न हो , भूल पूर्व के . सब सदमे ।। 
पर आजाद की मनःव्यथा , कुछ कम न हुई , विघटन अनुमान । 
अनुशासन ही जिनका जीवन , क्रान्ति संगठन तन , मन प्राण ।। 
अनुशासन आधार क्रान्ति का , घटा परस्पर का विश्वास । 
सम्भव कैसे क्रान्ति संगठन , आपस में जब , विश्वासघात .
किसी भाँति भी शान्ति न मिल पाई , मन उद्वेलित प्रतिपल । 
किया अन्ततः कड़वा निर्णय , जिससे सुदृढ़ रहे , सम्बल ।। 
एकाएक दल की केन्द्रीय समिति की बैठक बुला लिया । 
भंग किया केन्द्रीय समिति , प्रान्तीय को , सब अधिकार दिया । 
जो कुछ अस्त्र , शस्त्र , धन , साधन , बाँटा , प्रान्ताध्यक्षों को ।। 
मुझसे अब न निदेशन कोई , करो उचित जो , भी समझो ।। 
कितना ? कौन ? करेगा क्या ? सोहन यशपाल के प्रति विश्वास वे 
मरने , मिटने को आतुर पूर्ण करेगें , मेरी आस ।। 
मैं अपने अधिकारों में से देता , इनको , विशिष्ट भार । 
अस्त्र , शस्त्र आपूर्ति व वितरण , का इनको समस्त अधिकार ।।

प्रदक्षिणा 
वीरभद्र के प्रतिशंका आजाद को 
नगर कानपुर में मेरे सँग , रहते प्रभावती , आजाद । 
वीरभद्र भी आते जाते , मन में भय , कुन्ठा , अवसाद ।। 
गतिविधियाँ सामान्य , कार्य विधिवत , पर रागद्वेष , ग्रसित । 
सम्बन्धों के मौन , उपेक्षित भाव , त्रास से , सभी दुःखित ।। 
वीरभद्र के प्रति शंका , आजाद के मन में , अब भी , क्षोभ । 
अविश्वास प्रगटित अवसर पर , व्यवहारों में क्षण - क्षण क्रोध ।। 
मनमानापन , संदेहास्पद , कार्य सभी , विश्वास रहित । 
दूरी बढ़ती चली जा रही , भय कब अनहोनी हो घटित ।। 
दल की आर्थिक स्थिति की चिन्ता , पाने को उस पर काबू । 
मनी - एक्शन धावा की योजना , शीघ्र फिर हो , लागू ।। 
था आदेश आजाद का , वीरभद्र के नेतृत्व में , धावा । 
कानपुर में वीरभद्र हट गये , स्वयं करके छलावा ।। 
ऐन वक्त पर बना बहाना , वीरभद्र , गायब होते । 
कई बार बाधा पैदाकर , सब योजना , पलट देते ।। 
थी आजाद की नीति , कि वीरभद्र सक्रियता से लें भाग । 
साहस शौर्य की स्वयं परीक्षा दें , ढुलमुल गतिविधि को त्याग ।। 
एक्शन में लें भाग , फरार होने को , वे होंगे मजबूर । 
बाध्य हो दल का कार्य करेंगे , कायरता , संशय भी दूर ।। 
जब ऐसा संयोग न बन पाया , आजाद कानपुर , त्याग । 
बाध्य परिस्थिति से एकाएक , गुप्त रूप , जा बसे प्रयाग ।।
वैशम्पायन का संदेह कि , वीरभद्र बनकर , मुखबिर । 
दिए खबर , आजाद , शहीद हुए , इस हेतु , पुलिस से घिर ।। 
शंका की गुंजाइश , स्वाभाविक है , आपस का संशय । 
दूर न हो पाया था , व्याप्त परस्पर सब में कुंठा , भय ।। 
वीरभद्र ने भेद दिया होगा , जिससे शहीद आजाद । 
इस संदेह का कारण था , संयोग मात्र , पर स्वयं विवाद ।। 
हुए शहीद आजाद जिस दिवस , पूर्व एक दिन , उसके ही । 
कानपुर से वीरभद्र आये प्रयाग , यह तथ्य सही ।।

जान बचाने की थी चिन्ता 
रामचन्द्र मुसद्दी प्रमाण खुद , उनके रिश्ते की , बारात । 
चली कानपुर स्टेशन से , तब वीरभद्र भी , आये साथ ।। 
वीरभद्र को , वहाँ टहलते देख , संदिग्ध अवस्था में
इस गाड़ी से यदि चलना , बाराती बनकर , चले चलें ।। 
मान मुसद्दी का प्रस्ताव , सुरक्षित प्रयाग पहुँचे प्रातः । 
रुकते ही स्टेशन पर गाड़ी , उतर गये , चुपचाप स्वतः ।। 
सत्ताइस फरवरी की तिथि वह , जब आजाद शहीद हुए । 
हैं प्रत्यक्ष प्रमाण , कि उस दिन , वीरभद्र कटरा भी गये ।। 
वीरभद्र इन सब बातों को , करते हैं स्वीकार सही । 
भय - विषाद से ग्रसित परिस्थिति उनकी , जिससे मुक्ति नहीं ।। 
उनका है अपना बयान , जिस पर संशय है , स्वाभाविक । 
ऐसी स्थिति में सत्य क्या ? भ्रम क्या ? पक्ष विपक्ष ही , संभावित ।। 
दो सप्ताह पूर्व ही वैशम्पायन बन्दी हुए थे जब । 
वीरभद्र का कथन - ' उन्हें भय , पुलिस को देंगें रहस्य सब ।। 
स्वयं न बन्दी बने , भय अतः , वीरभद्र अक्सर एकाकी । 
कानपुर में इधर उधर घूमते छोड़ घर , सब साथी ।। 
अविश्वास दल के लोगों पर , नेता भी उनसे , नाराज । 
जान बचाने की थी चिन्ता , प्रिय कैसे लगती बारात
बिना कहे कुछ उतर पड़े वे , छिपते हुए गये कटरा । 
देखा होगा सुखदेव , आजाद ने , कथन में शंका नहीं जरा ।। 
वैशम्पायन कैद हो गये , अतः एक माध्यम निष्फल । 
कैसे हो आजाद से मिलना , सम्भावित माध्यम , सहगल ।। 169
परम हितैषी वे आजाद के . उन्हें ज्ञात होगा आवास । 
अतः उन्हीं से काम बनेगा , ऐसा स्वाभाविक विश्वास ।। 
आये थे इस हेतु , इलाहाबाद , किन्तु उनका , दुर्भाग्य । 
कालचक्र की गति बस हुए , कलंकित , उनका फूटा भाग्य ।। 
विधि विडम्बना वशीभूत , संयोग विवस , आया दुर्दिन । 
वीरभद्र पहुँचे प्रयाग , आजाद शहीद हुए . उसी दिन ।। 
ठीक शहादत समय , उद्यान निकट क्यों वीरभद्र पहुँचे
संयोग मात्र , या पूर्व सूचना गतिविधि , आजाद कहाँ रहते ।। 
समय स्थान की . सही जानकारी , केवल सुखदेव को । 
कोई बिचौलिया , या अन्य कोई , जो जान गया , सब भेद को ।। 
समय , स्थान का ज्ञान मात्र , सुखदेव को , इसका प्रगट प्रमाण । 
मैं , सुरेन्द्र , आजाद चले , कटरे से सँग , गन्तव्य अनजान ।। 
एल्फ्रेड पार्क के फाटक पर , सुखदेव जोहते , उन्हें मिले । 
आजाद उतर साइकिल से , फौरन , घुसे पार्क में , उनको ले ।। 
मुझमें औ सुखदेव में मतभेदों का ज्ञान , उन्हें निश्चय । 
सम्भवतः आजाद ने नहीं दिया , इसलिए पूर्व परिचय ।। 
किससे मिलना ? कहाँ ? किसलिए ? हम दोनों को , ज्ञात न भेद । 
मैं सुरेन्द्र सँग चौक गया , आजाद की गतिविधि से , मन खेद ।। 
लौटे दोनों जब चौक से तब देखा अति . भीड़ पुलिस भारी । 
समझ गये , कुछ अनहोनी हो गई , सुने घटना सारी ।। 
पुलिस से घिर आजाद लड़े , हो गये शहीद , मगर सुखदेव । 
भाग गये बचकर एकाकी , नेता को , संकट में देख ।। 
सुखदेव कथन - ' आजाद दिए आदेश भागने को मजबूर । 
'
अनुशासन ' या ' कपट कथन ' कायरता , जब संकट भरपूर ।। 170
देख सड़क की ओर कहा , आजाद ने - ' वीरभद्र जाता ।
सड़क शहीद स्थल की दूरी , देख कथन , मिथ्या लगता ।। 
सघन - लता - झंखाड़ - पेड़ व्यवधान अनेक , बृहद दूरी । 
निज बचाव के चिन्तन सब , पश्चात , रहस्य , क्या ? मजबूरी ।। 
कुछ लोगों का मत यह भी , वीरभद्र नहीं , मुखबिर सुखदेव । 
सम्भावित भेदिया पुलिस के , सत्य बात तो जानें देव ।। 
यह विवरण यशपाल का भी , संदेह , परिस्थिति पर , आश्रित । 
तथ्य नहीं प्रामाणिक सब कुछ , सम्भावित , स्थिति आधारित ।।

वीरभद्र , सुखदेव न मुखबिर 
अवकाश प्राप्त एक अधिकारी , यशपाल से बाद मिले , बोले । 
'
वीरभद्र सुखदेव न मुखबिर ' , पुलिस सूत्र कुछ वे खोले ।।
पुलिस रिकार्ड में दर्ज है जो कुछ , उसको मैंने देखा है । 
कार्पेन्ट्री स्कूल के , वर्मा उर्फ ' क्रोव ' , का उसमें लेखा है ।। 
वेतनभोगी पुलिस का मुखबिर , पाता जो कुछ , दल का राज । 
पुलिस को जा बतला देता सब , निज कुकृत्य पर , रंच न लाज ।। 
उसका परिचय था , सुखदेव के सहयोगी , परिचित से एक । 
उसके माध्यम ज्ञात पुलिस को , होती दल - गतिविधि , हर एक ।। 
क्रोव ने भेद दिया , विश्वेश्वर सिंह को , जा कोतवाली में । 
पुलिस प्रयास सफल सब निश्चित , लिखित प्रमाण , न जाली वे ।। 
एक अन्य विवरण भी कहता , नहीं सूचना थी , निश्चित । 
सिंहावलोकन लेख में , यह यशपाल के , द्वारा सब वर्णित ।। 
डालचन्द्र , खुफिया इंस्पेक्टर , विश्वेश्वर , रहते सँग थे । 
एक दूसरे के सहयोगी , प्रात भ्रमण , सँग करते थे ।। 
सत्ताइस फरवरी को प्रातः दोनों भ्रमण पर निकले जब । 
पार्क में स्थान विशेष पर नजरें , विश्वेश्वर सिंह , ठिठके तब ।। 
क्या है ? डालचन्द्र ने पूछा , विश्वेश्वर ने कहा , तुरन्त । 
नीम के नीचे स्थूल व्यक्ति आजाद लगे , जिस पर वारन्ट ।। 
इश्तहार से हुलिया मिलती , मैं हूँ परिचित , पहले से । 
उन्नीस सौ इक्कीस में इसके बनारस के , सत्याग्रह से ।। 
सत्याग्रह में गिरफ्तार हो , जब वह , हथकड़ी पहन चला । 
चूड़ी सी हथकड़ी थी ढीली , निकल गई , कोई बस न चला ।। 172 क्रान्तियज्ञ
मजिस्ट्रेट के आगे उसने , पूर्ण निडर हो , दिया जबाब । 
पन्द्रह बेंत सजा भोगी . निर्भय , तब नाम पड़ा ' आजाद ।। 
नाबालिग बालक कोमल तन , सहा शान्त हो , बेंत प्रहार । 
चमड़ी उधड़ी , रक्त बह चला , रंच नहीं , कराह , चीत्कार ।। 
भारत माता की जय ' ' वन्देमारतम , कह कह सहा , सजा । 
नजरों में चढ़ गया सभी के , गोरे अफसर गये लजा ।। 
प्रथम बार उस समय , बाद में , कानपुर में देखा जब । 
तब से बदला स्वरूप सारा , रंच न शंका , मुझको अब ।। 
निश्चय ही आजाद यही है , मैं रखता हूँ कड़ी नजर । 
तुम जाकर सब हाल कहो , आवें सशस्त्र फौरन बाबर ।। 
घटना की संध्या को बाबर नाट ने पुलिस रिपोर्ट लिखा । 
मुझको डालचन्द्र से , विश्वेश्वर सिंह का , संदेश मिला ।। 
एल्फ्रेड पार्क मे छिपा हुआ , आजाद के हुलिए का है , जवान । 
शीघ्र सशस्त्र पुलिस बल लेकर , आ घेरें , निर्दिष्ट स्थान ।। 
पाते ही संदेश , पहुँच घेरा डाला , पहले , फौरन । 
कार से उस स्थान पर पहुंचा , तुरत जहाँ का था , विवरण ।। 
दिखे नहीं विश्वेश्वर सिंह पर , वही नीम के नीचे दो । 
व्यक्ति बैठकर बातों में थे व्यस्त , न शंका , भय उनको ।। 
तुरत सामने गाड़ी , उनके रोक , हाथ , पिस्तौल सम्हाल । 
पूछा उनसे- कौन हो तुम ! सुन वह सर्तक , पिस्तौल निकाल ।। 
स्थूल व्यक्ति उठ तुरत निशाना साधा , जब तक मेरी ओर । 
मैंने तुरन्त चलाकर गोली तोड़ दी उसकी जाँघ की छोर ।। 
उसकी गोली लगी बाँह में मेरे , छूट गिरी , पिस्तौल । 
तुरत उठा पिस्तौल , मैं भागा , गाड़ी के पीछे , बल तौल ।। 173 क्रान्तियज्ञ 
स्थूल व्यक्ति तरु ओट में छिपकर , चला रहा , पल पल गोली । 
इसी बीच , दूसरी ओर से , सुन विश्वेश्वर की , बोली ।। 
साहस बढ़ा हमारा , विश्वेश्वर सिंह , मेरे साथ डटे । 
व्यक्ति दूसरा गायब हुआ कहाँ ? कब ? देख न , जान सके ।। 
स्थूल युवक की गोली से विश्वेश्वर का , जबड़ा टूटा । 
यद्यपि थी बन्दूक साथ , घायल वह अति , साहस छूटा ।। 
इसी बीच , एक अन्य पुलिस जवान ने मोर्चा लिया सम्हाल । 
साध निशाना , गोली मारा , शेखर की छाती , तत्काल ।। 
नाट बाबर का कथन वही गोली , असली , घातक आजाद । 
स्वयं शहीद हुए शेखर दर्शकगण कथन से , बढ़ा विवाद ।। 
भीड़ जुटी थी सड़कों पर , सब देख रहे थे यह मुठभेड़ । 
उनमें से अनेक साक्षी , प्रत्यक्ष , मूक पशु , पक्षी , पेड़ ।।

पर गोरी सरकार न मानी 
प्रत्यक्षदर्शियों का कहना , अति घायल यद्यपि थे आजाद । 
रख कनपटी माउजर किया ' जय भारत माँ ' ' जय श्रीराम ' नाद ।। 
निज प्रण के अनुसार , शहीद हुए , आजाद , पुलिस को क्षोभ । 
जनता का आँखों देखा विवरण , सुन प्रगटा उनका क्रोध ।। 
झाँसी , कानपुर , काशी से अधिकारी पहुँचे तत्काल । 
तब निश्चित पहचान हुई , आजाद की , ज्ञात हुआ , सब हाल ।। 
शव की माँग किया जनता ने , जब हो गई , पूर्ण पहचान । 
पुलिस की खानापूर्ति गुपचुपी , पोस्टमार्टम , पंच बयान ।। 
पर गोरी सरकार न मानी , शव को हटा दिया , चुपचाप । 
त्वरित रात्रि में करवा डाला , अग्नि - समर्पण - क्रियाकलाप ।। 
छपा दूसरे दिन दैनिक में फोटो , विवरण , पुलिस बयान । 
जनता के मन में था भारी क्षोभ , न पूर्ण हुआ , अरमान ।। 
सरकारी , या जन - जन के विवरण में , सत्य , क्या ? क्या मिथ्या
अपनी अपनी अहंतुष्टि , या मात्र भावनात्मक चिट्ठा ।। 
यशपाल के विवरण का , लल्लन व्यास भी , करते अनुमोदन । 
वीरभद्र या सुखदेव पर , शंका करना अति ओछापन ।। 
यद्यपि सुखदेव राज की कायरता पर , सबको भारी खेद । 
किन्तु मात्र कायर या मुखबिर भी ? इस पर दल में मतभेद ।। 
आवश्यक आदेश का पालन , या संकट में जाना भाग । 
उचित क्या ? अति आवश्यक था ऐसे में मार मार , तन त्याग ।। 
सुखदेव की ऐसी कायरता , प्रगटित हुई , अनेकों बार । 
घिरे पुलिस से साथी सँग , लाहौर बाग में , शालीमार ।। क्रान्तियज्ञ 175
लड़ते हुए पुलिस से हुआ शहीद , वीर जगदीश गुणवंत । 
पर सुखदेव ने आत्मसमर्पण किया , फेंक पिस्तौल तुरन्त ।। 
वीरभद्र के क्रियाकलापों पर भी शंका है भारी । 
पुलिस से उसका मेलजोल , बचने की घटनाएँ सारी ।। 
वीरभद्र पर अविश्वास , आजाद को भी था , अतः उसे । 
दण्डित करने का निर्णय , हो दल में अनुशासन जिससे ।।

बीता समय न भ्रम मिट पाया 
वीरभद्र का पुलिस अफसरों से मिलना जुलना जारी । 
इसीलिए बहुधा बच जाना , कायरता या मक्कारी ।। 
पकड़े गये कैलाशपति जब , मुखबिर बन , सब दिए बयान । 
वीरभद्र पकड़े न गये , था ज्ञात पुलिस को , निवास स्थान ।। 
श्रद्धानन्द - पार्क परिसर में , घर में रहते , वे स्वच्छन्द । 
नित्य सड़क बाजार घूमना , इधर - उधर जाना निर्द्वन्द्व ।। 
खुफिया पुलिस के इंस्पेक्टर पन्डित शम्भूनाथ वहाँ । 
पूर्ण सुरक्षित वीरभद्र , परिचय , सम्बन्ध सौहार्द जहाँ ।। 
बीता समय न भ्रम मिट पाया , वीरभद्र को भूले लोग । 
वीरभद्र अति व्यथित , पत्र लिख , व्यास से मिलने का अनुरोध ।। 
पत्र प्राप्त कर वीरभद्र का , व्यास ने भेजा प्रतिउत्तर । 
व्यग्र हूँ तुमसे मिलने को मैं स्वयं , तुम्हें जब भी अवसर ।। 
हुई भेंट जब व्यास से , वीरभद्र ने स्पष्टीकरण दिया । 
घटनाक्रम संयोग से मुझ पर , स्वाभाविक संदेह हुआ ।। 
डकैतियों का विरोध करना , यशपाल की हत्या से बचाव । 
नमक सत्याग्रह जेल गमन सब पूर्व नियोजित , कार्य - दुराव ।। 
निज विवेक से उचित व अनुचित का निर्णय , तज भेड़ - धसान । 
यह मेरी कमजोरी कहिए , या स्वतंत्र व्यक्तित्व महान ।। 
सुरेन्द्र पान्डेय आदि न जाने क्यों करते थे , मुझसे द्वेष
मुझ पर लांछन लगा अनेकों , किया भ्रमित , बदला परिवेश ।। 
भड़काया आजाद को इतना , हत्या हेतु हुए तैयार । 
मैं अजीब उलझन में , भारी भय , क्या कहूँ ? क्या करूँ ? विचार ।। 177 क्रान्तियज्ञ
सबसे छिपकर , भय से व्याकुल भटक रहा था इधर उधर । 
शुभचिन्तक यशपाल ने बतलाया , आजाद रुष्ट मुझ पर ।। 
मुझको अपने सद्विवेक पर , पूर्ण भरोसा था , अतएव । 
होगी दूर गलतफहमी सब , मिलने पर , गति जाने देव ।। 
मिलते ही तो मार न देंगे , मुझको उन पर दृढ़ विश्वास । 
पर विधि की बिडम्बना सर्वोपरि , न पूर्ण हो पाई आस ।। 
मैं रहता था कानपुर में , प्रयागवासी , तब आजाद । 
लिखा पत्र आजाद को , जिसमें विस्तृत विवरण , मन अवसाद ।। 
पत्र प्राप्त कर , अति विचलित आजाद , तुरंत लिए निर्णय । 
वैशम्पायन के सँग आकर , प्रयाग में मिल लो , निर्भय ।। 
किन्तु हो गये , गिरफ्तार वैशम्पायन दुर्भाग्य मेरा । 
इक्कीस फरवरी सन इकतिस से विपत्तियों ने फिर घेरा ।। 
शिव चरण लाल से सुन विवरण , मैं तत्क्षण ही , भूमिगत हुआ । 
मेरा आजाद से मिलने का , अतएव न सपना पूर्ण हुआ ।। 
पुलिस से छिप रहता यद्यपि , आजाद से मिलने की , अति चाह । 
बनी हुई थी मन में मेरे , ढूँढ़ रहा था वांछित राह ।। 
रहते हैं आजाद इलाहाबाद में कहाँ ? नहीं था , ज्ञान । 
'
चाँद ' के सम्पादक रामरिख मनहर से होगा ज्ञात स्थान ।। 
यही सोच छब्बीस फरवरी , को मैं चला कानपुर से । 
शाम को कैन्ट स्टेशन आया , छिपते हुए . पुलिस भय से ।। 
पर संयोग बना ऐसा , मिल गये मुसद्दी लाल वहाँ । 
बन बाराती प्रयाग उतरा , रहते थे आजाद जहाँ ।। 
पर ऐसा दुर्योग क्रूर , मिल सका न , हुए शहीद आजाद । 
सत्ताइस फरवरी का वह मनहूस दिवस , भारी अवसाद ।। 178 क्रान्तियज्ञ
वीर बाँकुरा लड़ा अकेले जूझ पुलिस से , हुआ शहीद । 
मर कर भी वह अमर हो गया , विरलों को यह , मृत्यु नसीब ।। 
उनसे मिलकर द्वेष दूर कर , दल का पुनः जीर्णोद्धार । 
करने की न तमन्ना पूरी हुई . विनष्ट हुआ आधार ।। 
दैव योग , मति भ्रम जन मन का , आपस का चिर राग - द्वेष । 
कारण प्रमुख सदा विघटन का , क्रान्ति , शान्ति , दल , देश - प्रदेश ।। 
मैं कलंक ग्रसित आज , आजाद वीरगति प्राप्त किए । 
सत्य मात्र भगवान जानता , आज वृथा तकरार किए ।। 
है इतिहास कलंकित होता , निराधार अफवाहों से । 
सदा नसीहत लेते आये , धीर वीर , विपदाओं से ।। 
किसका किसका बन्द करूँ मुँह ? सभी स्वजन , जनप्रिय गुणवान । 
साधारण शिष्टता न जिनमें , अपनों से अपना अपमान ।। 
कैसे करूँ प्रगट निश्छलता ? मैं जीवित प्रत्यक्ष प्रमाण । 
करूँ भरोसा अब मैं किस पर ? मात्र आसरा है भगवान ।। 
वीरभद्र का व्यास से मिलना , वीरभद्र का निज आख्यान । 
व्यास का वीरभद्र को , निर्दोषी ठहराने का फरमान ।। 
'
उपसंहार ' लेख में विस्तृत विवरण छप , सम्पूर्ण समक्ष । 
पाठक स्वयं करें , निर्णय , निज विवेक से , सच , पक्ष - विपक्ष ।। 
सुखदेव का छोड़ना अकेले , संकट में आजाद को । 
कायरता , अपराध भयंकर , मुखबिर चाहे , भले न हो ।। 
वीरभद्र का विरोध बहुधा , स्पष्टीकरण , कार्य के बाद । 
लांछन , तब बचाव की गति - मति , सत्य - झूठ का खुला विवाद ।। 
वर्मा क्रोव पुलिस का मुखबिर सुरेन्द्र यशपाल भी , लांछित लोग । 
दलबन्दी दुर्गन्ध , क्रान्ति - दल में भी , या केवल संयोग ।। क्रान्तियज्ञ 179

बाबर नाट का लिखित तथ्य सब , विश्वेश्वर सिंह का विवरण । 
प्रत्यक्षदर्शियों का अपना , सुस्पष्ट आस्था पूर्ण कथन ।। 
अपनी अपनी आस्था , श्रद्धा , अपना राग - द्वेष , विश्वास । 
घटनाओं के चक्रव्यूह के भेद दबे , उघड़े इतिहास ।। 
सत्य एक आजाद शहीद हुए , डट कर लड़ते लड़ते । 
साहस , शौर्य , निडरता , धीरज , सुन , हर वीर - भुजा फड़के ।। 
है विश्वास किया आजाद ने , पूरा अपना प्रण अन्तिम । 
किया अचूक वार वैरी पर , माउजर से गोली गिन - गिन ।। 
जीते जी न कभी पकड़े वे गये बना दुर्योग मगर । 
अन्तिम गोली से प्रण पूर्ण , किए वे , स्वयं चला माउजर ।। 
ऐसा दृढ संकल्प , भारती - संस्कृति का आदर्श महान । 
संकट काल में भी निश्चय ही , क्रिया रूप , प्रगटा चिर गान ।। 
प्रथम शत्रु के सर्वनाश हित , महाकाल बन गये , परन्तु । 
स्वयं शपथ अनुसार माउजर चला वीर गति पाए , अन्त ।। 
क्रान्तियज्ञ में निज आहुति दे हँस कर त्यागा तन नश्वर । 
माया का सब खेल जगत का , आत्मा तो है अजर अमर ।।

विसर्जन 
युद्ध बन्दियों जैसा हो बर्ताव 
राजगुरु , सुखदेव , भगतसिंह कैद थे लाहौर सेन्ट्रल जेल । 
प्रसिद्ध वकील प्राणनाथ मेहरा से उन सबका था मेल ।। 
उन्नीस मार्च सन् इकतीस को , एक दया प्रार्थना पत्र मजमून । 
कर तैयार भगत से मिलने गये जेल लख उचित सुकून ।। 
दया प्रार्थना पत्र दिया यदि जाय , तो रुक सकती फाँसी । 
ऐसी है वाइसराय की इच्छा , जिसकी चर्चा थी , खासी ।। 
दिया जाय एक दया - प्रार्थना - पत्र देख रुख , वाइसराय । 
फाँसी रुकना है संभव इसलिये किया यह उचित उपाय ।। 
सुनते ही प्रस्ताव हँस पड़े , भगत सिंह बोले तत्काल । 
देर कर दिए दोस्त न आये , पहले लेने मेरा हाल ।। 
अब बेकार मसविदा यह ' , था देर न करना उचित अतः । 
भेज दिया है उचित प्रार्थना पत्र बना मजमून स्वतः । 
स्तब्ध रह गये प्राणनाथ , पढ़कर प्रतिलिपि , प्रेषित प्रस्ताव । 
फाँसी देने के बजाय , गोली से हमें उड़ाया जाय ।। 
भारतीय जनता और ब्रिटिश हुकुमत में जारी जो युद्ध । 
उसमें डटकर भाग लिया है , हमने निश्चय , ब्रिटिश विरुद्ध ।। 
शोषक अत्याचारी , तुम सब , करते रहते , अत्याचार । 
भारतीय जनता चुपचाप न बैठेगी , लेगी प्रतिकार ।। क्रान्तियज्ञ 181
अंग्रेजों के साथ साथ मिल , भारत के कुछ पूँजीपति । 
शोषक बन , सब रक्त चूसते . जनता अति शोषित पीडित ।। 
दोनों का बताव शत्रुवत , हमने बजा दिया डका । 
अन्त न अत्याचारों का , यह युद्ध अनवरत . जनता का ।। 
भाग लिया इस युद्ध में हमने , जनहित में है , हृदय विशुद्ध । 
न्यायालय का यथा फैसला , युद्ध बन्दी हम , ब्रिटिश विरुद्ध ।। 
हमसे , कभी न दया - प्रार्थना की उम्मीद करें , श्रीमान । 
क्रान्ति पथिक हम क्रान्तियज्ञ आहुति इच्छुक सिर सीना तान । 
युद्ध बन्दियों जैसा हो , बर्ताव , निकालें , वह फरमान ।। 
फाँसी की बजाय , गोली से हमें उड़ा दें , यह अरमान ।। 
फाँसी के दिन अति प्रसन्न मुद्रा में , चेहरों पर रौनक । 
ज्यों पिंजरे में बन्द शेर हो झूम रहा मस्तक उन्नत ।। 
सब एकत्रित प्रेमी परिजन , चिन्तित , दुःखित थे , घबराये । 
भगत आदि थे मस्त , मगन , अति वीरोचित गाने गाये ।। 
स्वाभाविक परिणाम हमारे कार्यों की यह है फाँसी । 
गौरवान्वित हम सब , यह फाँसी घर तो , काबा - काशी ।। 
अपने अन्तर मन की बातें , लिखा पत्र में , अपने एक । 
कैदी मित्रों के प्रति उत्तर में , दी सब को , सलाह नेक ।। 
जिन्दा रहने की ख्वाहिश , कुदरती तौर पर , हममें भी । 
पूर्ण स्वतन्त्र शर्त मेरी , बन्दिश यदि , बेहतर मरना ही ।। 
कैदी या पाबन्दी कोई , नहीं गँवारा हम सबको । 
इससे तो बेहतर है फाँसी , मिले प्रेरणा जन जन को ।। क्रान्तियज्ञ 182
'
इन्कलाब ' आदर्श हमारा , पाया हमने गौरव स्थान । 
हम बलिदानी , हिन्दुस्तानी , इन्कलाब के बने प्रमाण ।। 
हँसते हँसते हम सब जिस दिन , फाँसी पर चढ़ जाएँगे । 
हिन्दुस्तानी माताओं की , कोख धन्य कर पाएँगें ।। 
सदा आरजू किया करेंगी , मातायें हम सबके बाद । 
हम जैसे बलिदानी , बेटों हित देगी , सब आशीर्वाद ।। 
बलिदानी वीरों की बढ़ जायेगी , जब इतनी तादाद । 
इन्कलाब तब रुक न सकेगा , विनष्ट होगा साम्राज्यवाद ।।

राजगुरु , सुखदेव , भगत सिंह 
गीता का उपदेश शाश्वत , सबके उर प्रेरक भगवान । 
कर्मो का फल दाता प्रभु है , निर्भय धर्म , कर्म - निष्काम ।। 
हुआ शहीद चन्द्रशेखर आजाद , वीर बाँकुरा जवान । 
कर्मव्रती कर प्राप्त वीरगति , बढ़ा गया भारत सम्मान ।। 
ऐसे वीर जवानों की , गाथा का युग - युग गौरव गान । 
राष्ट्रप्रेम , बलिदान , शौर्य से कृतज्ञ , नतशिर हिन्दुस्तान ।। 
शेखर स्वर्ग सिधार गये , हि.स.प्र.स. ताना बाना टूटा । 
सुखदेव पकड़े गये , अन्ततः स्वतः सभी भंडा फूटा ।। 
राजगुरु सुखदेव , भगत पर मुकदमा , फाँसी निर्णय । 
वीर भगत सिंह फाँसी फन्दा झूल गये , हँस हँस , निर्भय ।। 
राजगुरु , सुखदेव , भगत सिंह , तीनों को सँग ही फाँसी । 
तन कारा से मुक्त हुए सब , आत्मा तो है अविनाशी ।। 
तेइस मार्च सन इकतीस , का वह , क्रूर दिवस , बेहद मनहूस । 
रावी तट , लाहौर नगर का , फाँसी घर , वह जोश , खरोश ।। 
लगता अब भी बोल पड़ेंगे , जड़ , परन्तु साक्षी प्रत्यक्ष । 
हँसते गाते झूम झूम कर , चढ़े वीर ज्यों , फाँसी तख्त ।। 
रावी की लहरें , कल - कल कर , वीर शहीदों का , गुणगान । 
करती , निशि - दिन , गगन लालिमा , वीरों का समुचित सम्मान ।। 
अंग्रेजो की कूटनीति , छल - बल से , यद्यपि क्रान्ति विफल । 
रक्त बीज पर वीर सपूतों का , युग युग तक देगा फल ।। क्रान्तियज्ञ 184

शुभ कामना 
अमर हुए आजाद , अमर गाथा , उनकी , जो हुए शहीद । 
जननी जन्म भूमि हित . प्राणोत्सर्ग की बिरलों से उम्मीद ।। 
क्षण भंगुर जीवन है जो , जग जन्मा , निश्चित जायेगा । 
परहित जीवन दाता का , युग , युग , गौरव गायेगा ।। 
हँसते हँसते जिस स्वतन्त्रता हेतु , जवान हुए बलिदान । 
वह स्वतन्त्रता अजर - अमर हो , ऐसे हो सब कर्म महान ।। 
जिस गौरव संस्कृति परम्परा हित , वीरों का था , आह्वान । 
समाजवादी , प्रजातान्त्रिक , मान्य व्यवस्था हिन्दुस्तान ।। 
सभी विभेद मिटें , समत्व , भ्रातृत्व - भाव का , प्रिय परिवेश  
सुखी , स्वस्थ , शिक्षित , सुयोग्य सब , पर सेवारत , भारत देश ।। 
भारत भूमि प्रसिद्ध युगों से , वीरों रणधीरों का देश । 
ज्ञानी , ध्यानी , परहित रत दें , सत्य , अहिंसा का संदेश ।। 
पर यह भी दुर्भाग्य देश का , गृह - भेदी भी हुए अनेक । 
गौरव - गाथा धूल धूसरित , किए , दुष्ट जन , रहित विवेक ।। 
घर का भेदी लंका ढाहे , यह लोकोक्ति , सत्य , सब काल । 
सतत् सावधानी आवश्यक , शठे शाट्यम् गति तत्काल ।। 
भारत जन , अब भी सचेत हो , करो वरण निज कीर्ति महान । 
छुद्र लाभ के लिए राष्ट्र का , मत बेचो गौरव सम्मान ।। 
जननी जन्मभूमि , जनता मानवता पर , प्रभु कृपा करो । 
अकर्मण्यता , कायरता , भय कर दूर , जगत का कष्ट हरो ।। 
सत्य , अहिंसा , परहित , धर्म , सुकर्म परम , यज्ञ , तप , दान । 
राष्ट्रप्रेम , मानवता , जीव - मात्र हित , त्याग , आत्मबलिदान ।। क्रान्तियज्ञ 185
बिरले युगपुरुषों को मिलता , गौरव ऐसा जन सम्मान । 
रत्नाक्षर में अंकित , अमर सुगाथा , सुलभ ब्रह्म निर्वाण || 
क्रान्तियज्ञ की पूर्णाहुति की , फलश्रुति यह , चिर युग - संदेश । 
प्रगट अमर आजाद रहेगा , जब जब कुन्ठित पीड़ित देश ।। 
क्रान्तियज्ञ की अग्नि न बुझने पाये , यह आह्वान विशेष । 
अभिलाषा , मानवता को सुख शांति , सुरक्षित भारत देश ।। 
हरिः ॐ तत्सत्