Malati Makarand E-book by Dr. Prabhakar Dwivedi 'Prabhamal' ।। मालती मकरन्द
श्री प्रभामाल जी के इस कविता संग्रह “मालती मकरन्द” में विविध प्रकार की रचनायें हैं। उनमें शैली भी हैं, भाषा भेद है, भाव है। अवश्य ही यौवनकाल की कविताओं में प्रेम एवं राष्ट्रभक्ति अनिवार्य होते हैं। यदि कविता का नाता गाँव से होता है तो उसे अपनी जन्मभूमि के प्राकृतिक चित्र वरवस आकृष्ट करते हैं। किन्तु आज शहरी वातावरण में यदि कवि मन उलझकर रह जाये तो कोई बड़ी बात नहीं। उसे निरन्तर प्रतियोगिता की दौड़ में रहना पड़ता है। उसके संगी साथी क्या लिख रहे हैं। लिखने पर कहाँ छप सकता है और नहीं छपता है तो कवि कवि गोष्ठी में रचनाएँ सुनाकर आत्मसंतुष्टी तो पाई ही जा सकती है।
मालती मकरन्द
डॉ. प्रभाकर द्विवेदी “प्रभामाल”
आलोक प्रकाशन
इलाहाबाद
ISBN-978-81-89627-19-5
आनलाइन प्रकाशन
लोक-परलोक प्रकाशन, प्रयागराज
www.lokparlok.in
समर्पण
श्रीमती मालती द्विवेदी
व्यक्त- 16 अक्टूबर, 1940, अव्यक्त- 29 नवम्बर, 2006
सम्मति
डॉ. प्रभाकर द्विवेदी प्रभामाल दुग्ध विज्ञानी होने के साथ-साथ कवि भी हैं। कविता सबों को आकृष्ट करती हैं और जीवन में ऐसा समय भी आता है जब व्यक्ति गुनगुनाने के साथ-साथ कलम चलाने लगता है। इस तरह कविता का जन्म होता है। और कविता लेखन कवि कर्म का रूप धारण कर लेता है।
श्री प्रभामाल जी के इस कविता संग्रह “मालती मकरन्द” में विविध प्रकार की रचनायें हैं। उनमें शैली भी हैं, भाषा भेद है, भाव है। अवश्य ही यौवनकाल की कविताओं में प्रेम एवं राष्ट्रभक्ति अनिवार्य होते हैं। यदि कविता का नाता गाँव से होता है तो उसे अपनी जन्मभूमि के प्राकृतिक चित्र वरवस आकृष्ट करते हैं। किन्तु आज शहरी वातावरण में यदि कवि मन उलझकर रह जाये तो कोई बड़ी बात नहीं। उसे निरन्तर प्रतियोगिता की दौड़ में रहना पड़ता है। उसके संगी साथी क्या लिख रहे हैं। लिखने पर कहाँ छप सकता है और नहीं छपता है तो कवि कवि गोष्ठी में रचनाएँ सुनाकर आत्मसंतुष्टी तो पाई ही जा सकती है।
डॉ. प्रभामाल की कविताएँ स्फुट विषयों पर लिखी हुई हैं। अवश्य ही वे डायरी में अंकित होती रही हैं। यदि कविताओं का रचनाकाल दिया रहता तो कवि कि विचारधारा का, जागतिक, परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण संभव था।
इस संकल्प को पहली रचना ‘शारदे वर दे’ हैं। कवि की प्रार्थना है कि संसार नर-नारी अपने-अपने स्वभाव गुण के अनुसार निष्काम कर्मी हो। शारदा माता इस लोक तथा परलोक के घर-घर को सुखी करें। किन्तु डॉ. प्रभामाल जी जिस सरस्वती वन्दना को प्राय: सम्मेलनों में सुनाते हैं, वह इस संकलन में नहीं हैं। तीसरी कविता ‘जयति हिन्दी राष्ट्रभाषा’ अति सशक्त रचना है जिसे हिन्दी दिवस पर वे प्राय: सुनाते हैं और श्रोतागण मन्त्रमुग्ध होकर सुनते हैं। ‘जयति हिन्दी राष्ट्रभाषा, राजभाषा, मातृभाषा’ इसी क्रम में हिन्दी दिवस, उपेक्षित हिन्दी आदि अन्य कविताएँ पठनीय हैं।
उर्दू शायरी की तर्ज पर उनकी आठवीं रचना हैं- ‘तेरा साथ पाने को जी चाहता है’ ऐसी कई अनूठी रचनाएँ इस संकलन में हैं। स्वतंत्रता का रजतपर्व भी सामयिक रचना है। फिर तो चुनावी लहर में भाषण सुनाने, नारे लगाने की बातें है। बदलने मौसम पर कई कविताएँ हैं। कुछ राजनितक कविताएँ हैं- ‘कृतघ्न बांग्लादेश’ ऐसी ही कविता हैं. एक व्यंग्य कविता है। किव एक हाथी है- खाने के दाँत और दर्शन के दाँत और, लम्बी पसार सूँड चाहे अनुकूल दौर। मतलब का साथी है कवि एक हाथी है।
कवि स्वयं पर भी चुटकी लेना नहीं भूलता। कुछ सामयिक रचनाओं में परिवार नियोजन, शिक्षक दिवस, इन्दिरा नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी, अम्बेडकर, मैशिलीशरण गुप्त, आकाशववाणी मुख्य हैं। कुछ और व्यंग्य कविताएँ भी हैं। कुर्सी, कैसे तेरी याद भुलाऊँ की अन्तिम पंक्ति हैं ‘परम प्रियतमा रानी कुर्सी तुम बिन में भव डुबा डाऊँ’। मैंने कवि की डायरी की चर्चा की है। ‘प्रभामाल जी कविता की कापी’ में मेरे मन की बात मिल गई। कवि कहता है ‘ तुम मेरी एकान्त सहचरी बहुधा तुम्हें बुला लेता हूँ, यही आस विश्वास अटल है बनी रहो तुम मेरी साकी’।
प्रभामाल जी गंगा जी के भक्त हैं, गंगा जी पर उनकी कई कविताएँ हैं। वे अपनी पत्नी सहित वर्षों तक कल्पवास करते रहे हैं। विधि का विधान कि वृद्धावस्था में उनकी पत्नी दिवंगत हो गई। स्वभाविक है कि उन्हें गहरा धक्का लगा। फलत: इल संकलन में पत्नी के प्रति उनकी कविताएँ हैं। 150 से अधिक रचनाओं के इस संग्रह में से सबों के विषय में लिख पाना न तो सम्भव है और न ही आवश्यक। बानगी के तौर पर कुछ रचनाओं के आधार पर हम, कवि की विचारधारा से अवगत हो सकते हैं। हर व्यक्ति प्रच्छन्नत: कवि होता है। कविताएँ पढ़ते समय उसका कवि आदर करता है। अन्दर ही अन्दर आत्मतुष्टि प्राप्त करता है।
कविता का ऐसा रचना संसार है जिसमें हर व्यक्ति रमना चाहता है। मैं अपने शिष्य का डॉ. प्रभामाल दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ जिससे वे माँ शारदा का भण्डार भरते रहें।
-प्रो0 शिवगोपाल मिश्र
प्रधानमंत्री- विज्ञान परिषद्, प्रयागराज
अपनी बात
मुझे याद नहीं कि मैंने कविता करना कब शुरू किया। बचपन में घटित घटनाओं पर अक्सर तुकबन्दी कर दिया करता था। जैसे- ‘प्रात: उठकर करो प्रणाम। राम राम जै जै श्रीराम।’ अथवा ‘आई बाढ़ आई बाढ़। आया सावन गया असाढ़।’ या ‘ आग लगी सब जल्दी आओ। पानी लाकर आग बुझाओ। गइया, बरधा छोड़ भगाओ। माल पानी का बक्स’ हटाओ आदि। ऐसी तुकबन्दियां मैं प्रतिउत्पन्न मति से करता रहता था।
बचपन से ही मैं अन्तर प्रिय रहा हूँ। अकेले बैठकर आकाश निहारते हुए मैं अक्सर कुछ न कुछ सोचते हुए अपने में खोया रहता था। यहाँ तक कि किसी के बुलाने पर भी अथवा किसी के पास आने पर भी मेरा ध्यान भंग नहीं होता था। मेरे इस स्वाभिमानी गुण के कारण ही मेरे एक बाबा ने सामान्य रूप से कह दिया कि अरे यह तो साधू लगता है। फिर क्या था उस दिन से मैं साधू के नाम से प्रसिद्ध हो गया। मेरा असली नाम विद्यालय तक सीमित रह गया। सब लोग मुझे साधू नाम से ही पहचानने लगे। जो आज तक गाँव व रिश्ते नातों में प्रचलित है। आज भी गाँव में मुझे हमउम्र लोग साधू-साधू भैया, साधू बाबा या साधू चाचा के नाम से पुकारते हैं। इस साधू स्वभाव के कारण ही मैंने बचपन से ही हनुमान चालिसा, सुन्दर काण्ड, राम चरितमानस को पढ़ना आरम्भ कर दिया था जो अब तक मास परायण व नवान्ह परायण के रूप में अबाध चल रहा है। यह राम की कृपा ही है। इन ग्रंथों के पढ़ने से भी मुझे दोहा, चौपाई व छन्द लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई जो बाद में मानस नवनीत व गीता गीतिका के रूप में लिखी गई।
मुझे याद है कि कभी गंगा स्नान करते वक्त अचानक मेरे मुख से निकल गया- मिहमा अपरम्पार। लहरों पर हैं लहरें आती निशिदिन बारम्बार। गंगा तेरी महिमा अपरम्पार।। इन पंक्तियों को अभी भी मैं स्नान करते वक्त चाहे गंगा हो या बम्बा या कहीं और स्वभावत: गुनगुनाने लगता हूँ। बाद में इसमें कुछ और कड़ियां जोड़ कर पहली कविता बनी। इसी तरह एक कविता- ‘प्रेम ही आधार जग का। तत्व से है रूप बनता प्रेम से आकृष्ट होकर। रूप विघटित तत्व फिर प्रेम आकर्षण को खोकर। प्रेम ही है सारा जग का।’ यह कविता मैंने देवरियां में एक आम महुवा के बगीचे में बैठकर लिखा था जिसे बाद में और प्रशस्त किया। किन्तु मेरी कविता की झोली तो प्रयाग में आने पर ही भरने लगी। गम्भीरता से काव्य रचना करना मैंने यहीं प्रारम्भ किया। मुझे विद्यालय पत्रिका का सम्पादन कार्य मिला, जिसमें मेरी अनेक कविताएं, कहानियां, चुटकुले तथा सम्पादकीय लेख छपे। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में, आकाशवाणी में भी मेरी कविता का समागम हुआ। प्रयाग की कविगोष्ठियों में भी मैं नियमित रूप से जाने लगा। पण्डित श्रीधर जी के सानिध्य में अनेक गोष्ठियों में मैं भाई अमरकान्त, दृगेश, महेन्द्र कुमार, नीलम, भोलानाथ ‘गहमरी’, ब्रह्मानन्द श्रीवास्तव आदि के साथ जुड़ा रहा। आस पास के सम्मेलनों में भी जाता रहा। वहाँ सर्वश्री सोहनलाल द्विवेदी, श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’, रामनरेश त्रिपाठी, बेढ़व बनारसी, गुलाब सिंह आदि के साथ काव्य पाठ करने का अवसर मिला। मैंने अपने महाविद्यालय में भी ‘युगभारती’ नाम से साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था बनाकर इसके अन्तर्गत अनेक काव्यगोष्ठियों का आयोजन किया। मैंने कवियों और शायरों को एक मंच पर पढ़ने का क्रम प्रारम्भ किया जिसकी प्रशंसा हुई। ‘युग भारती’ की गोष्ठियों में आदरणीय रवीन्द्र घरभरन जी ने भी शिरकत किया था जो मारीशस के उपराष्ट्रपति बने। इन गोष्ठियों में चीफ जस्टिस नारायणी प्रसाद अस्थाना, महेश नाराण शुक्ल, सोहनलाल द्विवेदी, सुमित्रा नन्दन पंत, डॉ. राम कुमार वर्मा, महादेवी वर्मा आदि ने अपनी उपस्थिति से गोष्ठी को गौरव प्रदान किया था। लीडर के पूर्व सम्पादक डॉ. मुकुन्द देव शर्मा के अध्यक्षता में भी एक गोष्ठी हुई थी जिसमें कैलाश गौतम भी पहले पहल आये थे।
साठ-सत्तर के दशक में डॉ. राम कुमार वर्मा ने अपने ‘मधुबन’ आवास में जो प्रयाग स्टेशन के पास था रितुराज नामक संस्था के माध्यम से प्रत्येक सोमवार को गोष्ठियों का क्रम प्रारम्भ किया जिसमें शर्त थी कि हमेशा नई रचना ही सुनाई जाये। अत: इस काल में अनेक रचनायें बनीं। उसी काल में मैंने एक एकांकी- ‘जय किसान’ लिखा। जिसे उस संस्था के ने पुरस्कृत भी किया। हमारे आवास पर भी अक्सर गोष्ठियां होती थी। एक गोष्ठी में पद्मकान्त मालवीय जी भी पधारे थे। इस तरह समसामयिक विषयों पर अनेक कविताएं लिखीं। मैं लिखा और पढ़ा तो बहुत ‘नारद भक्ति सूत्र’ का अनुवाद चिन्मय मिशन प्रयाग ने प्रकाशित किया था तथा कानपुर चिन्मय मिशन की पत्रिका ‘चिन्मय चन्द्रिका’ में मेरा दृग्दृश्य विवेक, उपदेश सार तथा आत्मबोध प्रकाशित हुआ। मेरा एक उपन्यास ‘बढ़ते कदम’ उ.प्र. के सहकारिता विभाग द्वारा 1963 में पुरस्कृत हुआ। बम्बई के चिन्मय आश्रम में मैंने ‘दक्षिणमूर्ति स्रोत’ तथा आत्मबोध पद्यानुवाद स्वामी चिन्मयानन्द जी को सुनाया तो उन्होंने प्रसन्न होकर अपना आशीर्वचन दिया- उनका लिखा ऊँ चिन्यमयानन्द It is beautiful बड़ा सा हस्ताक्षर किसी कापी मेरे पास, सुरक्षित है। महाविद्यालय में मैंने ‘कुलभास्कर आश्रम का इतिहास’ लिखा जो प्रकाशित भी हुआ। आकाशवाणी में नियमित रूप से वार्तायें प्रसारित हुई। अपने विषय से सम्बन्धित अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अधिवेशन में मैंने भाग लिया और यहाँ भी अपनी शब्द माधुरी का रसास्वादन साथियों को कराता रहा। अनेक यात्रा संस्मरण, कविता और लेख के रूप में अप्रकाशित पड़े हैं। काव्य लेखन के स्वभाव से मेरी लगभग अर्ध शताब्दि की रचनायें हजारों की संख्या में हैं जिसमें मेरी आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक रचनाएं सुरक्षित हैं।
प्रस्तुत संकलन में पिछले पांच दशकों की कुछ रचनाएं हैं। इसे प्रकाशित करने का संकल्प भी एक दशक पूर्व जिसकी प्रेरणा से लिया था, वह सपना भी अधूरा रह गया। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि संकलन शीघ्र प्रकाशित हो शायद उन्हें आभास हो गया था अपने चिरनिर्वाण का। तभी तो बारम्बार इसके प्रकाशन की प्रेरणा देती थीं। मैं भी इस संकलन को उनसे छिपाकर प्रकाशित कराकर, सुखद आश्चर्य में प्रसन्न कराना चाहता था किन्तु विधाता के विधान के आगे किसी का वश नहीं। मुझे याद है जब मेरा ‘क्रांतियज्ञ’ प्रबन्ध काव्य प्रकाशित होकर इनके हाथ में आया तो परमानन्द के भाव से उन्होंने इसका स्वागत किया था मुझे गले से लगाकर उससके विमोचन की कामना की थी। उनके सामने, इनकी इच्छा के अनुरूप ‘क्रांतियज्ञ’ का विमोचन सम्पन्न हुआ था। उस समय उनकी प्रसन्नता और भाव विह्ववलता देखने लायक थी। जैसे लड़के या लड़की के विवाह अथवा किसी विशेष आयोजन की तैयारी हो। ईश्वर उनकी आत्मा को इस संकलन के प्रकाशन से अवश्य तृप्त करेंगे। वे जहाँ कहीं भी होंगी आज इस संकलन के प्रकाशन से उनकी आत्मा परमशान्ति एवं प्रसन्नता को प्राप्त होगी ऐसा मेरा विश्वास है। इस संकलन के लिए मेरे आदरणीय गुरुवर डॉ. शिवगोपाल मिश्र जी ने शुभाशंसा लिखी है इके लिए मैं अपने आदरणीय गुरु का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। चिरंजीव सुपुत्र देवव्रत ने संकलन के सम्पादन एवं प्रकाशन में हर प्रकार का सहयोग दिया, उन्हें हार्दिक शुभकामना। पुस्तक के प्रकाशन के लिए आलोक चतुर्वेदी और इसके आनलाइन प्रकाशन के लिए नन्द लाल सिंह को हार्दिक धन्यवाद।
हरि ऊँ तत्सत्
प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’
शारदे वर दे दया कर
शारदे वर दे दया कर।
सृष्टि का यह सत्य शाश्वत् ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या।
विश्व माया वरण कारण, असत् भासित सर्प-रजु सा।।
सृष्टि प्रति ममदृष्टि बदलो माँ अविद्या तम् मिटा कर।।
काल चक्र सतत् प्रवाहित, कर्म फल का मोह बन्धन।
मनुज राद-द्वेष पीड़ित, काम कलुषित बुद्धि, मन, तन।
जीव के सब कष्ट हर लो, मातु करुणामृत लुटा कर।।
असत पथ को त्याग कर जन सत्य शाश्वत् पन्थ पग दें।
जग दुखों का हो निवारण तत्व का यदि बोध कर लें।
मोहतम को दूर कर माँ ज्ञान ज्योति सतत जलाकर।।
नारि-नर निज गुण स्वभाव अनुसार हों निष्काम कर्मी।
योग, क्षेम प्रसाद से सब, सतत तेरे स्मरण धर्मी।
‘प्रभामाल’ विनत सुखी कर, माँतु इह परलोक घर घर।।
ध्यान गीत
धीरे-धीरे क्रमश: धीरे और भी धीरे।
छोड़ो वाह्य जगत परिवेश, अन्तर मन में करो प्रवेश।।
अन्तर में हो जाओ मौन, क्रमश: मौन और भी मौन।
निश्चल निष्क्रिय ठहरो पूछो, सच्चा साथी साक्षी कौन।।
तन के अंग-अंग को क्रमश: ढीला-ढाला ढीला छोड़ो।
वाह्य जगत से सभी ओर से, तन इन्द्रिय मन नाता तोड़ो।।
इन्द्रिय जग से मन: जगत से, बुद्धि जगत से हटते जाओ।
सीमा से असीमता पथ पर बढ़ते जाओ, बढ़ते जाओ।।
श्वॉस-श्वॉस की गति नस-नस की, धड़कन पकड़ो जड़ तक जाओ।
प्राणों की लहरों में डूबो, अन्तर तम में खोते जाओ।।
अपने अन्तर के रस-रस में, डूबो गहरे में खो जाओ।
क्रमश: गहरे तल तक जाओ, अपने में पूरे खो जाओ।।
वृत्ति लहर सब शान्त पूर्णत: शान्त, भाव रस में खो जाओ।
अहं वृत्ति भी शान्त पूर्णत: शान्त, शान्त रसमय हो जाओ।।
हृदय गुहा की हंस ध्वनि में, सोहम् एकाकार मिलाओ।
आत्म ज्योति की चिर आभा में, अपना सब अस्तित्व मिटाओ।।
ध्याता ध्यान ध्येय के भेद मिटाकर, ज्योति पुरुष बन जाओ।
परम सत्य आनन्द प्रेम मय, चिन्मय पुरुष मात्र रह जाओ।।
धीरे-धीरे क्रमश: धीरे आत्म ज्योति में तुम मिल जाओ।
द्वैत रहित अद्वैत एक चिर सत्य भाव में तुम खो जाओ।।
जयति हिन्दी राष्ट्रभाषा
जयति हिन्दी राष्ट्रभाषा, राजभाषा, मातृभाषा।
देववाणी सुता विधिसम्मत, विविध भाषा सहेली।।
अर्थ, कृषि, प्रौद्योगिकी, विज्ञान की दुल्हन नवेली।
जग अचम्भित देख तव अभिव्यक्ति, अन्वेषण पिपासा।।
राष्ट्र की नूतन, पुरातन, सभ्यता, संस्कृति पुजारिन।
आधुनिक ज्ञान-कोष-समृद्धि-सक्षम, चिर सुहागिन।
विविध देशज बोलियों की पथ प्रदर्शक, प्राण श्वॉसा।।
सतत भरता रहे तव भण्डार, नित नूतन सृजन से।
व्यक्त तव व्यवहार हो, सबके वचन, मन, आचरण से।
तुम बनो कोटिक जनों के हितों की विश्वास, आशा।।
कोटि कण्ठों से तुम्हारी अस्मिता, चिर-ज्योति चमके।
राष्ट्र उर-पंकज-पराग से दिव्य हिन्दी सुरभि गमके।
जीवमात्र हितार्थ सक्षम बन, हरो जग, अघ, दुराशा।।
मैंने तेरा प्रणय निवेदन
मैंने तेरा प्रणय निवेदन इसीलिए स्वीकार कर लिया।
मौन निमंत्रण तेरा शायद मन ने अंगीकार कर लिया।।
दूर-दूर से मौन मौन ही जाने कैसे बात हो गयी।
तेरे नैनों की हलचल मेरा जीवन इतिहास लिख गयी।
चपला-सी चंचल मुस्कानों ने अन्तर अंधियार हर लिया।।
अद्भुत तारतम्य वह तेरा अन्तर मन उत्प्रेरक था।
शब्द रहित वह मूक भाव बस सब कृत्यों का कारण था।
तेरी चाही-अनचाही मुद्राएँ मुझको विवश कर गयी।
स्नेह रज्जु में बँध तुझ पर आसक्त बनूँ संदेश कह गयी।
सरिता चली प्यास हरने प्यासे की यह विश्वास कर लिया।।
अनजाने ही जाने कैसे मधुर मिलन साकार हो गयी।
मनचाही मूरत जो कोई आप स्वयं वरदान बन गयी।
सूख रही तनमन क्यारी हित स्नेह मिलन वरसात बन गयी।।
सफल सत्य जो नेह कहावत अनुभव गम्य प्रमाण बन गयी।
तेरे मधुर मिलन ने हृदयतन्त्री को मेरे नया स्वर दिया।।
तुमने मुझको अपनाकर है प्रेम दीप जो स्वकर जलाया।
मणि दीपक यह नहीं दीप जो झंझावत से जाय बुझाया।
रत्न दीप टूटे चाहे पर कण-कण में हैं ज्योति समाया।
एक-एक कण रत्न बन जलें अन्तर प्रेम न जाये नसाया।
शाश्वत प्रेम अमर अब मेरा अधरामृत है पान कर लिया।।
स्मृति गीत
मैं तुम्हें भुलाना चाह रहा, पर मन को कैसे समझाऊँ।
अपने पर तो वश अपना है, यह चीज पराई परवश हूँ।।
अनजाने ही मन दे बैठा, परखा अपनाया संजोया।
नव पथ पर मेरा कदम बढ़ा, मैंने कुछ खोया कुछ पाया।।
पाना खोना जीवन जाना, जीवन की महिमा पहचाना।
बीते निशि दिवस न भान हुआ, बस अनायास अर्पित जाना।।
भव निधि को पार करें संग संग, यह निश्चय कर जब कदम बढ़ा।
सम्बन्ध सभ्य जग सह न सका, ले तुम्हें चला मैं रहा खड़ा।।
तुम नयी राह पर चली गयी, नव जीवन पायी नव सुहाग।
तुम सुखी रहो जीवन जीयो, मैंने पाया जो मेरे भाग्य।।
अब तुम्हें भूल जाऊँ चाहूँ, पर मन न मानता मनमाना।
वो तेरी भरी भरी आँखें, वो विदा काल का नजराना।।
वह करुण बेबसी दृष्टि तेरी, वह सत्यव्रती सा स्वाभिमान।
वह जड़ समाज प्रति मूक क्षोभ, नारी गौरव वह गुप्त दाना।।
अब भी मुझको अपनाते हैं, अब भी सम्बन्ध बनाते हैं।
पर सत्य-सत्य है तुम न वही, मैं मैं हूँ याद दिलाते हैं।।
वह तो माया का बन्धन था मैं भ्रम वश रहा भटकता पर।
अब तो मैं रमा ब्रह्म में हूँ उस प्रभु ने सुलभ किया अवसर।।
अब नहीं कोई उलझन संशय प्रभु कृपा परम विश्राम मिला।
मन पूर्ण रूप से शांत हुआ जब सत्य अटल का भान हुआ।।
कली न मुस्कुराओ यूँ
कली न मुस्कुराओ यूँ। अभी न जुल्म ढाओ यूँ।
कि मेरा मन भ्रमर तेरे पराग को मचल उठे।
जमाना मेरे रंगते बहार को तरस उठे।
ये माना हर गुलाब में शबाब उठे एक दिन।
ख्वाब जो सुले पले बने शैलाब एक दिन।
अभी पर कमसिन आप हैं, बुलन्द आफताब हैं।
ये शोला गुल ये गुलने बहार क्या जवाब है।
बसन्त आगमन अभी लुके छिपे भ्रमर सभी।
मदन कमन्द बन न तुम जगाओ सुप्त मन अली।
खिलो तो ऐसे वक्त गन्ध सौगुनी महक उठे।
जो इक कली खिले सो सारा बागवा बिहँस उठे।।
श्रद्धा, विश्वास और आस्था
श्रद्धा का सम्बन्ध हृदय से है। विश्वास बुद्धि पर आधारित है।
किन्तु आस्था, श्रद्धा और विश्वास का योग है। दोनों का सम्मिलित अस्तित्व।
श्रद्धा बदल सकती है, बदलती रहती है। विश्वास में भी हलचलें होती रहती हैं।
इनसे व्यक्ति या समाज में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं आता।
किन्तु जब आस्था पर चोट पहुँचती है, तो वह आत्मघाती हो जाता है और विनाशकारी भी।
अत: आस्थाओं की सुरक्षा देश काल की मांग रही है और सदा रहेगी।।
प्रिये तुम कलम न छीनो अभी
प्रिये तुम कलम न छीनो अभी, अभी कुछ लिखना बाकी है।
अभी कुछ गुनना बाकी है, अभी कुछ रचना बाकी है।।
लेखनी और रचना का प्यार, चरम पर करो न प्रिय प्रतिकार।
शब्दों मुक्ताओं का कुछ छन्द सूत्र में बँधना बाकी है।।
ये माना रात बहुत बीती, प्रणय हत तव अनुनय विनती।
प्रिये पर प्रेम प्रतीक्षा प्याले में, रस भरना बाकी है।।
काव्य से सौतिन का व्यवहार, प्रणय की जो अजस्र शुचिधार।
सौत प्रतिशोधज्वाल मत जलो प्रिये, यह छलना घाती है।।
लेखनी जबबनती तलवार करे यह प्रतिघातक प्रतिवार।
करो मत तुम अरि सा व्यवहार नहीं तो यह बढ़घाती है।।
सही यह मस्त सुहानी रात, पास यौवना अमिय सौगात।।
शान्ति हित, चातक चित स्वाती का, अभी बरसना बाकी है।।
रात-दिन कभी धूप या छाँह, यही जीवन का सतत् प्रवाह।
अभी घन घूँघट छिपे चन्द्र से, अमृत रस झरना बाकी है।।
धरो प्रिय धीर न बनो अधीर, चलाओ मत घातक दृग तीर।
रखूँगा तेरा भी मन, करलूँ जो कुछ करना बाकी है।।
तेरा साथ पाने को
तेरा साथ पाने को जी चाहता है।
लगी दिन बुझाने को जी चाहता है।।
न जाने ये पिछले जनम के करम हैं।
या इस जन्म के पुण्य कृत कुछ धरम हैं।
कि हर जन्म पाने को जी चाहता है।
इन चंचल निगाहों में जादू है ऐसा।
कि नज़रें मिलाने को जी चाहता है।।
तेरी मन्द मुस्कान अमृत लुटाती।
अदाएँ तुम्हारी भुलाई न जाती।।
कि अंग-अंग लुटाने को जी चाहता है।
ये माना तेरा तन मेरा तन अलग है।।
मगर दिल की दरिया नहीं कुछ विलग है।
ये दूरी मिटाने को जी चाहता है।
रहो पास या दूर नज़रों में रहना।
कि दिलबर मेरे दिल के पहरे में रहना।।
यही प्रण निभाने को जी चाहता है।।
भारतीयता का जागरण
हर धड़कन, हर मनन, यत्न हर, जिसके स्वागत को आतुल है।
भारतीयता गर्वित, प्रमुदित, स्वयं तुम्हारा भारत कुल है।।
सदियों के पश्चात् आज फिर, भारत धरा धन्य कहलायी।
युग युग के पुण्यों की थाली, समय पड़े सार्थक बन पायी।।
संचित रत्न अनादि काल से, दबे रहे जो नियति चक्र से।
प्रगटित हुआ अमूल्य कोष वह, प्रभा गगन धरती भर दमके।।
साक्षी है इतिहास विश्व का, भारत की कुर्बानी का।
शौर्य, धैर्य, संयम, गुरु सेवा, शील सत्य बरसानी का।।
त्याग, तपस्या, तेज विनय, विद्या, विवेक गुरु वाणी का।
दान शीलता, क्षमा, दया, धीरता मान औ पानी का।।
शाश्वत रत्न राष्ट्र के द्विगुणित, आभा से हैं चमक रहे।
अग्नि परीक्षा पाकर कुन्दन, बन विशुद्ध हैं दमक रहे।।
भारतीयता तेरे जगते ही, भारत गरिमा जागी है।
हुआ राष्ट्र गतिमान, कलुषता, कटुता संग जड़ता भागी है।
हुआ विनष्ट समस्त तमस, तव तीव्र तेज के आगे।
कोटि बाहु पग कोटि बुद्धि, मन, एक संग सब जागे।।
आज राष्ट्र का एकमात्र, गन्तव्य लक्ष्य औ पथ है।
आहुतियाँ शत कोटि किन्तु बस, एक लक्ष्य पथ रथ है।।
भारत का इतिहास आदि से, ही साक्षी इस बात का।
किया विदेशी धरा विजय हित, हमने युद्ध न पाप का।।
जब जब खड्ग उठाया कर में, मानवता के त्राता बन।
परपीड़ा लख, शान्तिदूत बन, सत्य धर्म के दाता बन।।
शान्ति हेतु जब तक होता हर सम्भव, युद्ध बचाते हम।
सर्वभांति सब धर्म नीति का, पंथ प्रथम अपनाते हम।।
युद्ध अवश्यम्भावी यदि हो, सत्वर खड्ग उठाते हैं।
सत्यं शिवं स्वयं प्रलयंकर, कोटि व्यक्ति बन जाते हैं।।
मर्यादा पुरुषोत्तम जब निज, धनु पर बाण चढ़ाता है।
गीता संग गाण्डीव जहाँ है तहाँ, विजय यह नाता है।।
आदर्शों का समर, निहित, जिसमें समष्टि का हित हो।
नहीं पराजय सम्भव सन्मुख, स्वयं काल अविजित हो।।
भारत निज आदर्श पंथ पर, जब तक बढ़ता जायेगा।
धरती क्या ब्रह्माण्ड मध्य वह, सदा विजय जय पायेगा।।
मौसम का आमंत्रण
वर्षा के स्वागत में सोंधा व्यवहार करें।
मौसम का आमंत्रण खुलकर सत्कार करें।
घिर आई श्याम घटा, मादक मृदु प्रकृति करें।
ऐसे में कौन भला, रह सकता कटा-कटा।
प्रकृति की चुनौती स्वीकार करें।।
गर्जन घनघोर कभी, रिम-झिम का शोर कभी।
घन-घूंघट झाँक करे, चंचला अंजोर कभी।
कुछ तो बरसाती अभिसार करें।।
घर आँगन जल प्रवाह, सिमट सरि जलधि अथाह।
बूँद सिन्धु आकर्षण, पुरुष प्रकृति प्रणय चाह।
ऋतु आमंत्रण प्रिये बिहार करें।।
शीतल सोंधी सुगन्ध, रस मदान्धमय मयन्द।
उत्प्रेरित आकुल उर, रचता ऋतु रसिक छन्द।
सस्वर रसभाव का प्रसार करें।।
स्मृतियों का वातायन, खुलते ही भींगा मन।
थिरक उठा मन मयूर, झूमा तन नन्दन वन।
सन्दली सुगन्ध से दुलार करें।।
जग ऋतुओं का मेला, मधुर तिक्त रस रेला।
मौसम विविधाओं को, जिसने हँस-हँस झेला।
ऐसे नर वर को हम प्यार करें।।
स्वतंत्रता का रजत पर्व
स्वतन्त्रता के रजत पर्व निश्चित ही तेरा स्वागत है।
भारत की चिरपरिपाटि में स्वागत जो अभ्यागत है।
याद हमें दिन जब तुम आये थे पच्चीस साल पहले।
तोड़ गुलामी की जंजीरें नव दिशि नव सन्देशा ले।
भारत के जन-जन ने तुमको पाया था अपनाया था।
कोटि-कोटि कण्ठों ने मिलकर सुयश तुम्हारा गाया था।
भारत हुआ स्वतन्त्र राष्ट्र ने लोकतन्त्र पथ अपनाया।
जन-प्रतिनिधियों के कन्थों पर भारत का शासन आया।
जन-जनकी मौलिक जो आवश्यकतायें पूरी होगी।
भोजन-भवन-बसन, शिक्षा, रोजगार न अब दूरी होगी।
अपनी धरती अपना शासन अपने सब हैं नेता सेवक।
अपना तन-मन-धन देकर हम भारत को देंगे देवत्व।
इसी आश में कोटि-कोटि पगहस्त बढ़ें अपने पथ पर।
पंगु राष्ट्र को खड़ा किया अपने भूखे नंगे रहकर।
साधन धन सम्पन्न राष्ट्र कुछ हुआ शक्तिशाली निश्चय।
लुटी प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त की गरिमा जागी हुआ विजय।
बनी योजनाएं निश्चय कुछ जगा राष्ट्र का भाग्य रे।
स्वतन्त्रता फल चखने का पर कितनों का सौभाग्य रे।
ईंट ईंट पर जिसके श्रम, बल, पौरूष की है छाप रे।
श्रमिक, कृषक समुदाय आज भी भूखा नंगा आप रे।
कोटि-कोटि भारतवासी अब भी फुटपाथों पर सोते।
नन्हें मुन्हें जाने कितने पशुवत जीवन हैं जीते।
क्या स्वराज्य की यह ही परिणति क्या स्वराज्य अभिशाप रे।
इसी नियति के लिए हुए बलिदानी सुत क्या राष्ट्र के?
कैसा यह उत्सर्ष कि जिसमें घोर विरोषाभास है।
हुआ गरीब-गरबी और धन अधिक धनी के पास है।
आज दिवस है पुण्य करें सब मिल चिन्तन इस बात का।
मिटे विरोधाभास सभी तब हो प्रायश्चित पाप का।
जन प्रतिनिधि दर्पण ले देखें अपनी अपनी करतूतें।
कौन हुआ सम्पन्न कौन निर्धन ही रहा किस बस बूते।
छी पेट की रोटी किसकी किसने पेटी भर ली है।
कौन बहाया खून बिना श्रम किसने कोठी कर ली है।
अभी समय है शान्ति पन्थ अनुगामी सारा राष्ट्र है।
शोषित कुंठित क्षिधित मूक पर, अभी सभी सम्भाव्य है।
समय बड़ा बलवान जान लो कल की परिणति क्या होगी।
कुन्ठा घुटन मूक जो अब तक जब बन ज्वाला फूटेगी।
बुझी हुई चिनगारी जन की जब अंगार सी धधकेगी।
पापार्जित धन धाम संग हर पुण्यार्जन भी फूँकेगी।
आज नहीं तो कल निश्चित ही, क्रांति ज्वार जब उमड़ेगा।
बिना भेद मन्दिर, मस्जिद, गिरजा गुरुद्वारा ढहरेगा।
चुनावी लहर
चुनावी लहर है तो भाषण सुनाओ। चुनावी लहर है तो नारे लगाओ।
चुनावी लहर है तो झण्डे उठाओ। चुनावी लहर है तो गुर्गे जुटाओ।
बने जिस तरह अपना मतलब बनाओ। चुनावी लहर है......।।
विशद घोषणाओं का अम्बर लगा कर। सुखद योजनाओं के सपने सजा कर।
धरम जाति मजहब पर संकट बता कर। निज स्वार्थहित लाख वायदे सुनाकर।
सब्जबाग के खूब तम्बू तनाओ। चुनावी लहर है......।।
देश के भाग्य वैभव से मतलब नहीं। जनता सेवा का व्रत कंठ तक ही सही।
हर क्षण बदले जो रंग सच्चा नेता वही। राजनैतिक का स्वारथ है धन्धा सही।
प्रचार कर करके गदहों को घोड़े बताओ। चुनावी लहर है......।।
बनो जब विधायक तब कुर्सी बचाना। कई पुश्त हित निज गरीब हटाना।
सभी नातों रिश्तों को आगे बढ़ाना। मौका मिलने पर देखो न तुम चूक जाना।
नाम जनता के सब काम अपना बनओ। चुनावी लहर है......।।
भले सत्र भर क्षेत्र ही में न जाना। चुनावी बरस घर-घर रिश्ते बताना।
कपट की छुरी बन सदा मुस्कराना। सच्चे जन सेवकी का मुखौटा लगाना।
चले गाली-गोली मगर मुस्कराओ। चुनावी लहर है......।।
रजनी
दिव की खोज में हाल बेहाल रजनी, रात भर चाँद का दीपक लिये
अंधेरे में भटकती रही।
प्रियतम के न मिलने पर तारों के आंसू बहाती,
वह बिरह व्याकुल हो न जाने कब सो जाती है।
निश्तब्ध नीरवता में मूर्छिता सी।
किन्तु तभी दिवस के प्रकाश की छटा का आभास होते ही
उसकी मूर्छना भंग हो जाती है।
वह अंगड़ाइयाँ ले गुन गुना उठती है।
अपने तारों के आँसू पोंछ,
प्रियतम के आने की प्रसन्नता में
ऊषा की मादक मुस्कुराहट बिखेर देती है।
तथा दिवस के आते ही रजनी,
उसके अंकों में समा जाती है।।
अमृत रस बरसे
मम तन परसत प्रेयसि तव कंचन कोमल कर से।
क्लान्त वदन नव ऊर्जा उपजत पीर भगत डर से।
नवल स्फूर्ति नव क्रांति प्रगट तन रोम रोम हरषे।
काया कल्प करन की क्षमता देवन तिय तरसें।
‘प्रभामाल’ प्रभु से यह विनती पाप पुंज नर से।
स्नेहामृत से भरे रहे प्रेयसि के कर कलशे।।
मौसम की चाह
नहीं भूलता अभी हाल में तपिश बड़ी भारी थी।
अंधड़ झोका कहीं बवन्डर धूल भरी क्यारी थी।
घर में घुटन उमस आंगन धरती का हृदय फटा था।
अपने-अपने में सीमित कुंठित सा हर जीवन था।
पथ क्या-क्या गन्तव्य उक्ति क्या अपनी-अपनी राहें।
मृग तृष्णा में भटक रहीं थीं झूँठी अन्तर दाहें।
आशाओं की घिरी बदलियाँ बरसा रानी आयी।
उजड़ी जाती सी बागियां में फिर हरियाली छायी।
उमस घुटन के दिन बीते अब हरा भरा जीवन है।
बिहँसे क्यारी गमके अंगना खुशियों का मौसम है।
रोपे थे जो पौध कभी उनसे अंकुर फूटे हैं।
पीड़ा तपिश फटे हृदयों के फिर सम्बन्ध जुटे हैं।
देख रहा पर आंगन में झंखार उग रहे भारी।
हरियाली में छिपे न जाने कितने हैं विषधारी।
झंखारों का हो समूल ही नाश यही श्रेयस्कर।
जन परिजन को चुमें न कांटे काट सकें ना विषधर।
कंटक मय झंखार हटें, बिन विषधर घर आंगन हो।
फूले-फलें दबे तरू अंकुर, हरा भरा जीवन हो।
एक खटकती बात द्वार का बरगद बहुत बड़ा है।
कर फैलाये नित नव पग भू गाड़े अहम जड़ा है।
सीमित हो बट का प्रतिरोपण क्रम युग की मर्यादा।
छाया तले दबे तरू पनपें निज इच्छा आकांक्षा।
युग की मांग भुलाकर अन्तर ऐसी उक्ति निकालें।
हर मौसम हित सुखद निकंटक, आंगन भवन बना लें।
वह बड़ा अखबार है
लूट, हत्या, डकैती, व्यभिचार, चोरी, गुन्डई।
खूब चर्चा जो करे वह ही बड़ा अखबार है।।
छूरा, बम, कट्टा, रिवाल्वर, जंजीर छीनना आदि की
घूसखोरी खबर छापे वह बड़ा अखबार है।।
असलहा, सट्टा, जखीरा, शराबी भट्टी, जहर।
पुलिस मुठभेड़ें हो झूठी वह बड़ा अखबार है।।
एक से बढ़ एख जालिम सनसनी खबरों का ढेर।
आतंक भय चोरी डकैती वह बड़ा अखबार है।।
रंगा-रंग विज्ञापनों से रंगे जिसके सारे पृष्ठ।
हीरो हिरोईन हो जिसमें वह बड़ा अखबार है।।
औरतें ही औरतें संग मर्द प्रेम नजाकतें।
चित्र अधनंगी निकाले वह बड़ा अखबार है।।
राजनितिज्ञों की करतूतों का बढ़-चढ़ चित्र मय।
चमचागीरि का हो विवरण वह बड़ा अखबार है।।
मंत्रियों, अफसरों, अनुचरों और चमचों का रोज।
वृहद दिनचर्या जो छापे वह बड़ा अखबार है।
सांस्कृतिक, धार्मिक, पौराणिक भक्ति गौरव देश का।
जो न छापे अधिक विवरण वह बड़ा अखबार है।।
खेलकूद का विशद् विवरण चित्रमय चारित्रमय।
उछाले सिक्के जो झूठे वह बड़ा अखबार है।
राष्ट्रीय स्वधर्म का कर्तव्य का विवरण न दे।
मात्र पैसे कमाने की दृष्टि वह बड़ा अखबार है।।
यही क्रम यदि यही गति अखबार वालों की रही।
निश्चय ही यह देश का दुर्भाग्य, बंटाधार है।।
चश्मा
ओ मेरे प्रियतम मेरे सर्वस्व तुम मेरी आँखों पर चढ़ चुके हो।
अब तुम्हारे बिना मुझे सारा संसार सूना-सूना सा लगता है।
तेरा मेरा नाता अब तो जीवन भर के लिए बन गया है।
बना रहेगा। ओ मेरे नैयनों को शोभा प्रदान करने वाले।
नई ज्योति, नई शक्ति प्रदान करने वाले।
मेरे ऐनक, मेरे चश्मे।
जय श्री रीम, जय श्री राम
जय श्री राम, जय श्री राम। गूँज उठी है हर दिशा तमाम।
गाँव नगर हर डगर गली। सिमट बानरी सैन्य चली।
धर्म हेतु निकले तज धाम।।
वय किशोर अधिकांश जवान। चली नारियां सीना ताना।
जन-जन का सेवा सत्कार। जन जागरण मंत्र ललकार।
वस्त्र केसरिया अंकित राम।।
रहने-खाने की सुविधा। कहीं न रंच मात्र दुविधा।
बूँद-बूँद से सिन्धु अपार। स्वत: प्रयास भरा भण्डार।
राम काज तत्पर जन आम।।
दूर प्रदेश देशवासी। सद् गृहस्थ संग सन्यासी।
सब में है उत्साह अपार। एक ध्येय है राम उद्धार।
भीड़ लाख की बिना लगाम।।
मरने-मिटने की है चाह। सब में है अनुपम उत्साह।
छिपे तौर कुछ गुप-चुप मन्त्र। सावधान अति शासन तन्त्र।
क्या होगा इसका परिणाम।।
राम धाम में भीड़ अपार। नइया पड़ी विपति मझधार।
साँप छछुंदर की गति साज। जन समुद्र शासक दल राज।
अनहोनी भय मिश्रित शाम।।
राम राष्ट्र की रखना लाज। तुम्हें समर्पित तेरा काज।
साँप मरे लाठी बच जाये। यही प्रार्थना करने आये।
भव सागर शोषक तब नाम।।
बिछी राजनैतिक शतरंज। आस्थाओं का बदला रंग।
सत्य धर्म उद्घोषक सब। परिणामों से निर्णय अब।
निर्णय के निर्णायक राम।।
ज्यों-त्यों कर बीता पूर्वान्ह। अकथ अपरिचित सा अपरान्ह।
नहीं दूर दर्शन से तृप्ति। पल ज्यों वर्ष विर्वध्य विपत्ति।
राम नाम जप सँग गृह काम।।
सॉय-सॉय भय दायक शाम। इधर-उधर अफवाह तमाम।
मौन धरा है शान्त गगन। सूना-सूना घर आँगन।
विस्मय कारक प्रकृति तमाम।।
अन्त सत्य का पर्दाफाश। सहसा नहीं हुआ विश्वास।
होनी होकर अन्त रही। घृणा द्वेष की नदी बही।
भीड़ कृत्य का दुख परिणाम।।
राजनीति का द्यूत महल। जीर्ण राष्ट्र बढ़ता दल-दल।
युद्ध भूमि अबधर्म स्थल। दानवता सरिता अविरल।
न्यायालय का मूल्य छदाम।।
एक क्षण का एहसास
आँगन में खड़े पारिजात पेड़ के उस पार,
दूर आकाश में एक शरद पूनम के चाँद के
सौन्दर्य को मैं निहारता रहा निहारता रहा,
पवन झोंके से हिलती पुष्पाभूषण लदी
बोझिल शाखाओं के पीछे उस चन्दा का सौन्दर्य अद्भुत था।
मैं उस अप्रतिम सौन्दर्य का एक टक दृष्टि गड़ाये
रसास्वादन करते-करते कब न जाने
किस भाव जगत में डूब गया सुधियों में खो गया।
पारिजात वृक्ष की पवन स्पंदित शाखायें कभी
सद्य; स्नात रूपसी के अछूते सौन्दर्य का भाव उत्पन्न करातीं।
कभी पुष्प गुच्छित बेड़ी का। कभी सरकते हुए आँचल का
कभी अंग-प्रत्यंग पर झीनि ओढ़नी के पीछे
गदराये आभूषण भूषित यौवन का आभास देती।
आकाश का चाँद अपने पथ पर
अविचल भाव शून्य आगे बढ़ रहा था।
पर भाव जगत का चाँद कभी अंगड़ाई लेता दिखाई देता
कभी मन्द मुस्कानों के साथ चंचल निगाहों से अठखेलियाँ करता रहता।
कभी उन्नत उरोजों को उभार शाख आँचल को सरका कर
अपनी तरुणी से प्रणय निवेदन करता रहा।
इसी तरह न जाने कितनी देर तक मैं भाव जगत में तैरता रहा
एवं काव्य धारा बहती रही। मैं आत्म विभोर हो
उस पावन धवल चाँदनी और आकाश गंगा के भाव स्नान से
आज भी पूर्ण तरोजता हूँ।
निज कर्मों का ही फल मिलता
निज कर्मों का ही फल मिलता, जो बोओगे वह काटोगे।
संचित से प्रारब्ध आज का, जो क्रियमाण पुन: पाटोगे।।
चलने से ही मंजिल मिलती व्यर्थ काल्पनिक विचरण सारे।
जिस पथ पर दो कदम बढ़ेंगे, पहुँचेंगे हम उसी किनारे।
सपनों के सुभोग सब मिथ्या, जगने पर बस पछताओंगे।।
फल से होता बीच परीक्षण, फल जो आज बीज वह बोया।
दुख अशान्ति की धुन्ध आज जो, तुमने ही वह धुँआ संजोया।
जहर-जहर जग में फैलाकर, अमृत बूंद नहीं पाओगे।
कड़वे फल से पीड़ा होती, सन्तापों के कांटे चुभते।
किन्तु प्रदूषित तन मन जल से विषमय पल्लव सींचा करते।
फिर आनन्द शान्ति, सुख कैसे नभ सुमनों से पथ पाटोगे।।
पग में दुखमय पायल बांधे, सुखप्रद नृत्य करोगे कैसे।
षड विकार श्रृंगार सकल जब, प्रेम राग छेड़ोगे कैसे।
घृणा शत्रुता विविध वाद्य संग मंगल गीत न गा पाओगे।।
तीक्ष्ण गालियों की बौछारे, शुभाशीष चुप रहे असम्भव।
भरा चुनौती का धन गर्जन, क्षत्र, दंड सम्बल ही सम्भव।
कागज नइया तेज धार, बुल बुले बनों, मत मिट जाओगे।।
घृणा बीज से प्रेम फलासा, छलिये से विश्वास चाहते।
मत्सर से सद्भाव कामना, दुख से सुख की नींद मांगते।
धर्म, संस्कृति जब संकट में, क्यों तुम सोये कब जागोगे।।
अब भी बहुत विलम्ब नहीं है, मन्त्रोच्चार करो शंख ध्वनि।
फिर से हो शिव का ताण्डव फट जाये गगन हिल जाये अवनि।
ऋषि परम्परा के सपूत तुम, उठो मौन कब तक साधोगे।।
मोह प्रसित अर्जुन रण मे मत भागो, फिर गाण्डीव सम्भालो।
कृष्ण सारथी साथ तुम्हारे, आस्तिक आस्थाएँ अपना लो।
कृष्णार्जुन संग जब जय निश्चय तत्व जान लो, यश पाओगे।
आध्यात्मिक क्रांति
पतन के सभी कार्य व्यापार। अत: जग में अति हाहाकार।
प्राणि मात्र पर दुख के बादल। अशान्ति ओले बरसे प्रतिपल।
शोषण हिंसा कुन्ठा दल-दल। संघर्षों की बाढ़ उथल-पुथल।
विविध विषाक्त प्रदूषण पीड़ित मानवता परिवार।।
ऊँच नीच और जाति पांति के। धर्म पन्थ और वर्ग गोत्र के।
निर्धन धनी बली निर्बल के। भेदभाव सब विविध स्वार्थ के।
मानव निर्मित सब दीवारें दुख की कारागार।।
भौतिकता की दुखद कामना। भोग रोग धर अधो वासना।
त्यागे शोषण स्वार्थ साधना। लावें श्रेष्ठ विचार भावना।
जग में जगे चेतना नैतिक रहे न भ्रष्टाचार।।
भाई-बहन सभी जग भर के। लें संकल्प सभी तन मन से।
शिक्षाविद् धार्मिक, वैज्ञानिक। कर्मठ जन व्यवसाय विविध के।
क्रांति शंख उद्घोष करें कवि, लेखक नाटककार।।
नेता, न्यायिक, सब अधिकारी। सभी चिकित्सक सब व्यापारी।
अधिवक्ता, अभियन्ता, वक्ता। सीचें वसुधा की शुचि क्यारी।
दुख दरिद्रता मिटे खुले आनन्द नगर के द्वार।।
सब समाज सेवी संस्थाएं। बच्चे युवक वृद्ध महिलायें।
सब में सद्गुण का विकास हो। यथा शक्ति सहयोग बढ़ायें।
करें कर्म शुभ, सात्विक मन, हो सबसे प्रिय व्यवहार।
आध्यात्मिक बल का सम्बल लें, करें सभी शुचि श्रेष्ठ साधना।
हों निरोग सब, सुखी, श्रेय मार्गी, सबका उद्धार।।
संत तुलसी और रामायण
तुलसी का सुत पाकर पुलकित माता हुलसी, पिता आत्माराम आत्मानन्द में विभोर हुए।
तुलसी की जन्म भूमि भारत की कौन कहे, तुलसी जग भर के जन-जन के चितचोर हुए।।
शाश्वत् श्रुति, स्मृति, पुराण का सम्यक मंथन कर। तुलसी ने रामचरित मानस सद्ग्रन्थ दिया।
निराकार ब्रह्म शब्द ब्रह्म राम नाम बना। निरगुण को सगुण राम ब्रह्म रूप प्रगट किया।।
तुलसी कृत रामचरित मानस की महिमा से राम जन-जन के जनमानस का इष्ट हुआ।
रामचरित, राम नाम, राम धाम, रामकथा, भक्तों की दिनचर्या अंग बन प्रविष्ट हुआ।
धर्म राजनीति, नीति, प्रीति, स्वार्थ परमार्थ, विविध व्यवहारों का समन्वय अभीष्ट हुआ।
अगम तत्व दर्शन सुगम निज शुभाषा में, अति दुर्लभ ब्रह्म तत्व पूर्ण सरल शिष्ट हुआ।।
तुलसी न होते राम घर-घर के न राम होते, व्यष्टि और समष्टि का समन्वय विशिष्ट हुआ।
सत्य, अहिंसा, परहित, भारत धर्म कर्म, ज्ञान, परम मन्त्र रूप प्रगट होकर निर्दिष्ट हुआ।।
भक्तों की भावना सर्वोपरि भगवान हेतु, भागवत् धर्म तत्व जनहिताय प्रविष्ट हुआ।
जब जब भगवान तब तब निश्चय ही धर्म शास्त्र, लेता अवतार प्रतियुग भक्त भाव निष्ट हुआ।।
वेदों पुराणों सद्दर्शनों का सारतत्व, जन भाषा माध्यम से प्रगट किया जिसने।
वर्णों, अर्थों, रसों छन्दों का लक्ष्य प्रथम, मंगलमय वाणी तत्वमन्त्र दिया जिसने।।
श्रद्धा, विश्वास रूप, शिवा-शिव प्रतिष्ठा कर, कलि मल निवारक राम मंत्र दिया जिसने।
प्रभामाल उस कुल रवि तुलसी को कोटि नमन, राम रूप रामायण ग्रन्थ दिया जिसने।।
ब्रह्म राम से भी श्रेष्ठ, रामकथा राम नाम, रामायण ज्ञान, ध्यान, भक्ति, कर्मयोग है।
यज्ञ, जप, तप, दान, यम, नियम, तीर्थाटन, नाना धर्म, कर्म, व्रत, साधन फल सुयोग है।
विद्या, विवेक, विनय, गुरू, द्विज, सेवा यह, हरती त्रिताप, दूर करती मानस रोग है।
द्वैत, अद्वैत, अगुण, सगुण, ज्ञान, भक्ति, भेद, बतलाती रामायण, सन्त जंगम तीर्थ है।।
कविता की कापी
तुम मेरी एकान्त सहचरी बहुधा तुम्हें बुला लेता हूँ।
जब भी मन कल्पना उमड़ती मैं तुमको अपना लेता हूँ
कोमल सुधर तुम्हारा तन उस पर अंकित अगणित रेखायें।
जब भी बढ़े लालसा मेरी पाने को बस जी ललचाये।।
जाने अनजाने मैंने जाने तुमको कितना रंग डाला।
मन के सहज मांगलिक शुभ चिन्हों से तब सुहाग भर डाला।
फिर भी मन न भरा मेरा कुछ ऐसी बुरी तुम्हारी लात है।
तुम मेरी मैं तेरा जीवन तेरी मेरी मिलीभगत है।
तेरे कोरे तन पर लेती रूप सभी कल्पना हमारी।
जब भी हाथ हमारे लगती सिंच जाती तेरी तन क्यारी।।
तेरे जीवन के रहस्यमय जाने कितने पृष्ठ निराले।
सदा रहे पीते जीवन भर भाव लेखनी के शुचि प्याले।।
यही आस विश्वास अटल है बनी रहो तुम मेरी साकी।
चलता रहे पिलाना पीना ओ मेरी कविता की कापी।।
आस्था
अदृश्य रसायन युक्त इस पृथ्वी पर,
काल पात्र के समान इस विकराल काल महाकाल ने
न जाने क्या क्या लिख डाला तथा
लिखकर मिटा डाला सबही है अज्ञात।
शेष अवशेष जो कुछ आज।
छुद्र बुद्धि ने निज निज विवेक से विचार मंथन कर डाला।
किन्तु सब ही सतही सत्य से परे रहे अब तक और आगे भी रहेंगे।
रहस्य शायद कभी भी नहीं खुलेगा।
इसलिए केवल श्रुति प्रमाण ही प्रगटित सार्थक सत्य है।
वही मान्य रहा है और रहेगा जन जन को।
अन्य कुछ भी मान्य नहीं रहेगा।
अत: ऐ मूर्खों क्यों व्यर्थ कुतर्क करते हो।
युग युग की मर्यादा न हिली न डुली।
राम कृष्ण शिव का अस्तित्व तुम खंडहर में खोजते हो।
अरे मूर्खों ये सब जन-जन के हृदयों में आस्था के रूप में विद्यमान है।
और हृदय का गहवर अथाह है।
जन जन की ज्वाला में जल जाने का कुत्सित प्रयास जान कर
अन्जान का जंगल जो बुना गया
वह सब भी काल की कला की कुछ करामात मात्र।
महाकाल के समक्ष मात्र बौना बिन्दु सा।
महाकाल सागर सा बूँद का अस्तित्व कितना।
उसी बूँद के अस्तित्व को तुम प्रमाण मानकर चलते हो।
अपनी भी छले जाते और जमाने को भी छल रहे हो।
अरे मूर्खों अब भी सत्य को समझो तुम पहले
अपने अस्तित्व को जानों तभी तुम प्रकृति का
कुछ रहस्य समझ पाओगे।।
रजाई
जाड़े की ठंढक ठिठुरन में, बहुधा दिन में प्रति रातों में।
जब भी भव व्यथा सताती है, तब याद तुम्हारी आती है।।
तत्क्षण मैं तुमको पास खींच, आलिंगन में ले लेता हूँ।
तेरी गरमाहट से तन मन की, व्यथा समस्त मिटाता हूँ।।
तेरी मखमली स्पर्श शाश्वत्, मेरी हर पीड़ा हर लेता।
मेरे तन मन को सुख सागर, के उष्ण ज्वार से भर देता।।
दाँये, बाँये, उल्टे, उतान, प्रत्येक ओर तेरा बितान।
आलम्ब तुम्हारा पाकर के, मिल जाता मुझको अभय दान।।
मैं ही क्या मानवता सारी, तव साहचर्य को आकुल है।
भव की प्रतिकूल परिस्थिति में, बस मात्र तुम्हारा सम्बल है।।
अश्लील नहीं यह स्पष्ट कथन, मुझ पर विश्वास डिगाओ मत।
तुम सब की करनी यही मित्र, मुझसे तुम आँख चुराओ मत।।
अच्छा सबको बतला ही दूँ, परदा बेझिझक हटा ही दूँ।
जाने क्या समझे लोग अस्तु, मिथ्या भ्रम भाव मिटा ही दूँ।।
यह किस्सा नहीं लुगाई का, प्रेमी प्रेमिका मिताई का।
तुम गफलत में मत रहो दोस्त, यह वर्णन मात्र रजाई का।।
विरही पथिक
पथ अंधेरा घना राह भटका हुआ,
दूर तुम मैं यहाँ आस पर जी रहा।
इंतजारी अमानत समझ आपकी,
बाध्य होकर जुदाई व्यथा पी रहा।।
रात जब चाँदनी ले हिलोरे उठे,
पूरबी वायु मन्थर किलोले करे।
या कि जब घन घटा सावनी साज पर,
मूक विरही पपीहा पुकारा करे।।
बस अनायास बीती कथाएं तुरत,
स्मृति पटल पर हैं आती हों चलचित्र ज्यों।।
फिर अचानक कोई आ के नरलोक का,
स्वप्न मंदिर मेरा सुख नशीं तोड़ दे।
जागकर स्वप्न से ही विकल वेदना,
वास्तविकता जगत में मुझे छोड़ दे।।
फिर वही राग धारा वही वेदना,
फिर वही नित्य कृति फिर वही सर्जना।
एक आशा की बाती के लौ के लिए,
बस मिलन की घड़ी की करूँ साधना।।
सूर्योदय
प्रभा पुंज सुप्रभात परम् शाश्वत् ईश्वर कृपा घटम्।
पूर्ण कुंभ सुस्वागतम्।
अक्षत पुष्पम् शुभ तिलकम्
नवल उषा दर्शन मधुरम्।
नव सम्वत्सर नव दिवसम,
देश काल नव मंगलम्।
धरती पर उल्लास परम्।।
गगन प्रहर्षित बाँह पसारे।
भेंट परस्पर छिप नभ द्वारे।
लाज लाल तन पुष्प गुच्छ कर
स्वर्णिम मिलन मुखर आलिंगन।
मोहनिशा अवसान सुखम्।।
ज्ञान भानु किरणों का डेरा।
मिटा अशुभ अज्ञान अंधेरा।
प्राणि मात्र कल्याण हेतु,
जागरण सृजन हित नवल सवेरा।
संकल्पों की मुहन मनोहर, प्रगटित दस दिशि प्रखर परम्।।
भारत माता भाल बिन्दिका,
चूड़ामणि वर रत्न चन्द्रिका।
विन्यासित सुकेश स्वर्णिम।
आभूषण आभा रत्न दीपिका।
ज्योति कलश अमृत घट सधवा सुधर स्वस्ति उत्कर्ष चरम।।
प्रेम प्रीति मिलन
मौसम की बजती शहनाई है। प्रेम प्रीति मिलन है बधाई है।
श्वासों के सरगम पर अधरों की थिरकन।
बाँहों की छाया में हृदयों की धड़कन।
नवल राग रंग छटा छाई है।
अन्तर के प्रगट भाव नयनों के वातायन।
मौन ने कहा सब सर्वस्व का समर्पण।
तन मन में आग सुलग आई है।
अलमस्ती का आलम ऐसा आकर्षण।
मिलने को आतुर दो बहके बहके मन।
बाँध तोड़ नदी उमड़ आई है।
कर पग तरू लता भाव बज्र वक्ष कुच कसाव।
नखशिख प्रति अंगों पर, तद्अंगों का जमाव।
नभ अंकों में धरणि समाई है।।
टूट रहा पोर-पोर शशि किरण रसिक चकोर।
ऐसे दो एक हुए, नहीं रहा तोर-मोर।
डुबकी सुख सिन्धु में लगाई है।।
मौसम जो आया है आयेगा जायेगा,
सपना होगा सच, सच सपना बन जायेगा।
समय सदुपयोग ही खुदाई है।।
गंगा महिमा
गंगा न मात्र नदी लोक वेद का व्यवहार।
शुचि धर्म धरा धाम की सुरसरि अजश्र धार।।
प्रति बूँद अमिय शक्ति श्रोत जान्हवी अवतार।
भागीरथी भारत की भावभूमि भक्ति धार।।
लाखों को रोजगार कोटि-कोटि को जीवन।
गंगा की कृपा राष्ट्र को भरपूर अन्न धन।।
गंगा से भक्ति, मुक्ति, श्रद्धा, प्रेरणा, विश्वास।
संस्कृति व धर्म की धुरी, गंगा के तट के पास।।
गंगा से जुड़े जन्म मृत्यु तक के संस्कार।
गंगा जी राष्ट्र अस्मिता की मूर्ति हैं साकार।।
गंगा हमारी माँ है, इसकी लाज रखेंगे।
गंगा की कसम गंगा की संस्कृति न तजेगें।।
गंगा में न मूलमूत्र कूड़ा कचड़ा बहाओ।
विषयुक्त रसायन के प्रदूषण से बचाओ।।
गंगा को चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, चढ़ाओ।
गंगा को श्रद्धा भक्ति सहित शीश नवाओ।।
आदर्श है मर्यादा गंगा देश की पहचान।
भारत के लिए छोड़कर आयी हैं आसमान।।
युग-युग से दौड़ रही सतत भक्ति ध्वज लिये।
उनका असीम प्रेम भारत भूमि के लिए।।
महाकुम्भ पर्व
आ गया है महाकुम्भोत्सव महान।
तीर्थराज प्रयाग संगम-स्थल स्नान।
कोटि जन समवेत हिय श्रद्धा हिलोर।
मात्र भारत नहीं धरती ओर छोर।
आस्था का अंकुरण नव सृजन कोर।
तन रहा सब ओर स्वागत का वितान।।
हर गली, हर सड़क, हर घर, हर मोहाल।
नगर भर सज धज रहे प्रति पत्र डाल।
बालुका का क्षेत्र संगम तट विशाल।
चतुर्दिक तोरण पताका ध्वज निशान।।
बस रहा है महाकुम्भ नगर नवल।
तम्बुओं, टिन, फूस, लकड़ी के महल।
मन्डलेश्वर, महामंडलेश्वर दुकान।।
विविध सरकारी विभागों के शिविर।
व्यस्त बंदरबांट यह अवसर न फिर।
आसुरी दैवी हितों का द्वन्द चिर।
धर्म, आडम्बर न भौतिकता प्रधान।।
धर्म प्राण अनेक पंथ व सम्प्रदाय।
लक्ष्य इह परलोक साधन स्वाध्याय।
धर्म नश्वर जगत हित शाश्वत् सोपान।
कुम्भ का माहात्म्य जिसका जो विगत।
अन्न, धन, विद्या, बसन, साधन विशद्।
करे वितरित मुक्त हस्त परम विनत।
दीन जन को दे यथोचित दान-मान।।
मेरा गाँव
बरगद की छाँव मेरा गाँव अब उजड़ गया। सुदृढ़ राष्ट्र नाव किस भँवर में बह बिखर गया।
न जिन्दगी का मूल्य है न धर्म कर्म ध्येय है। न श्रेय है, न प्रेय है, मोह अप्रमेय है।
मनुष्य पशु की योनि में न भेद अब रहा कोई, भोग, नींद, भय, मिथुन, की रीति नीति नित नई।
गाँव की न आम्रकुंज, पुष्प वाटिका रही। न कहकहे चौपाल के न पनघटों की की चुहुल रही।
हाय मेरे गाँव का अतीत कहाँ खो गया। रूप गुण स्वभाव गया नाम मात्र रह गया।
गोधूलि ब्रह्म काल की असत् लगें कहावतें। नदी नहर कछार खेत बाग की शरारतें।
नहीं है अब वो भोलापन नहीं श्रमिक का पुष्ट तन। ऐसा लोकतंत्र गाँव भर का मन बिगड़ गया।
न अब अतिथि वरिष्ठ पूज्य संत हित हैं। भाव वह अर्थ का अनर्थ सतत भोग रोग में निरत।
बाह्या शत्रु आये लूटपाट कर चले गये। धर्म जाति पर प्रभाव राज्य तक बदल गये।
संकटग्रस्त राष्ट्र बहुत उथल पुथल कर गये। बदला इतिहास संग भूगोल भी बदल गये।
पर हमारे गाँव, गाँव ही रहे न कुछ घटा। आंधियाँ अनेक पर मिटी न गाँव की छटा।।
मैली गंगा
सोचना पड़ता है गंगा में नहाऊँ मैं कहाँ।
जहाँ तक है, दृष्टि जाती, मल ही मल दिखता वहाँ।।
जहाँ भी हैं कदम पड़ते, पाँव धंस जाते वहीं।
गन्दे नाले की सड़न दुर्गन्ध से पीड़ा बड़ी।।
भय बना रहता है गिरते कगारों का हर समय।
स्नान, तर्पण, अर्ध्य में लगता न मन, व्याकुल हृदय।।
पाँ के नीचे सड़ा कीचड़, बड़ा-दुर्गन्धमय।
तीव्र धारा, ढाल, फिसलन डूबने बहने का भय।।
कहीं दल दल, कहीं गड्डा, कहीं भी समतल नहीं।
हर तरफ बस मल ही मल गंगा कहीं निर्मल नहीं।।
आचमन का जल न लें, या लें, है पड़ता सोचना।
हर जगह सीवर का जल, मलयुक्त, अतिशय घिनौना।।
अब सुरक्षित रह न पाता जल अगर संचित रखें।
साल भर, छै मास क्या, अब चार दिन में, कृमि ग्रसें।
कैसे हो गंगा का जल पावन, पुन:, यह प्रश्न है।
देव सरिता अब तुम्हारे हाथ तव जल रत्न है।।
विषधर
पुराणों के अनुसार शेषनाग जब करते हैं फुफकार
अथवा परिवर्तित करते हैं जब फनभार।
फनासीन पृथ्वी तब डगमग हो जाती है।
जैसे लघु तरणी हो डगमग मद गज भार।
भू का यह कम्पन ही कहलाता भूचाल।
मानवत का भविष्य डगमग है डोल रहा।
अन्तर में लावा है काँप रहा फूट रहा।
विषधर हैं आज बने रक्षक और प्रति पालक।
कुण्डली लगाए बैठे प्रतिपालक या घालक।
ऊपर में काल रूप हलाहल।
जाने कब फन बदले।
जाने कब विष उगलें।
अच्छा लगता है
अच्छा लगता है जब कवि बहका रहता है।।
नील गगन में चाँद सुनहला, संग तारों का ब्यूह रुपहला।
कुन्तल की घनघोर घटाएं, इन्द्र धनुष की ओढ़ अदाएँ।
शीतल मन्द पवन झोंका कुछ कहता लगता है।।
मदमाती छवि प्रकृति नटी की, अविरल कल कल गान नदी की।
हरे मखमली सेज धरा पर, रंग विरंगी छींट सुमन की।
बीच खड़ा तरू लतिका लखड़े सहता लगता है।।
जीवन सत्य उधर कछार में, तत्व दृष्टि गिरते कगार में।
सीना ताने अहंकार में, क्षण भंगुर तरू ढह कगार में।
काल चक्र की गति में ढह कर बहता लगता है।।
छत पर अंगड़ाई ले बाला, लगा रहे क्यों मुँह पर ताला।
बोलो सत्य कहो खुल करके, आज नहीं तो कल मुँह काला।
यौवन क्षणिक अधिक इठलाना महंगा पड़ता है।।
मर्यादा के तट बन्धन में, बंधकर रहना निज सम्बल में।
दुनिया है एक भूल भुलैया, नाम न लिखवाना अन्धों में।
खल खन्दक से बचकर सज्जन बनना रहता है।
किससे कहें सत्य हम शाश्वत्, तत्व ज्ञान से सब ही अवगत।
धर्म भूमि और कर्म भूमि में, समता जग में, यह मेरा मत।
मिटे मन, वचन, कर्म, भेद, सब, कवि का कहना है।।
एकान्त
सूने एकान्त घर में अकेले में बैठकर,
भीड़ भरी जिन्दगी का एहसास करना,
मुझे अच्छा लगता है।
मन से मौन हो, लोगों से बात करना,
मुझे शान्ति प्रदान करता है।
मैं अत्यधिक उत्साहित होता हूँ इस जीत से।
आखिर लोग हार ही जाते हैं।
इससे बड़ा आनन्द और विश्रान्ति
भला और कहाँ और कैसे
प्राप्त की जा सकता है।
बसन्ती आवाहन
मधु ऋतु की मधुमय बेला में, आया हूँ मधु आस लगाये।
मेरा मन मधुवन मुरझाया, कोई मधुरस बरसा जाये।।
गगन घटा घनघोर अपरिमित, जग जीवन नित नेह नहाये।
एक बूँद स्वाती बन कोई, मुझ चातक की प्यास बुझाये।।
सिन्धु गगन का सीप अकिंचित, ठौर कीच बिच बरबस पाये।
वारिद की लघु एक बूँद बन, कोई मुक्ताहार बनाये।
मेरे जीवन की बगिया में, कंज कुमुदिनी अगनित छाये।
रवि शशि रश्मि रूप आ कोई, किसलय किंचित बिखरा जाये।।
झूम रही मन यौवन डाली, नव बसंत ने सुमन सजाये।
आवाहन है बुलबुल कोई, बैठ डाल मधुगान सुनायें।
प्रकृति नटी के अमित कोष की, एक यौवना जो मुसकाये।
बिखराये बहार, बासंती, मेरा मन मधुवन खिल जाये।।
माया जीव मिले जंह जब भी, मधुवन मधु ऋतु वहीं सजायें।
प्रभामाल बस यही निवेदन, जीवन ही मधुमास बनाये।।
अर्पण-प्रत्यर्पण
मैं भौरा हूँ तुम कली प्रिये तुम खिलो और मैं मँडराऊँ।
तुम विखराओ निज गंध सुमन, मैं तृप्त नृत्य कर गुन गाऊँ।।
फैलाकर अपना बाहु पंख अपना लो मुझको धन्य बनूँ।
तेरा रस पी जीवन पाऊँ तुमको ही अर्पित हो जाऊँ।।
हे मधुप मधुर तेरी रचना, संशय न हमारे खिलने में।
रस गंध युक्त जीवन होगा, निश्चय मृदुता मम आनन में।।
पर भ्रमर देख तेरा स्वभाव, जड़ प्रकृति जीव पर मुझे क्षोभ।
यह कैसी निष्ठुर नीति तेरी, बिन ठौर, नेह क्यों रहित मोह।।
हे प्रिये, सत्य भाषण तेरा, पर निज रहस्य बतलाता हूँ।
मधुकर हूँ मधुसूदन समान, मधुवन प्रेमी गुन गाता हूँ।।
है श्याम रूप समदरसि भाव, रस रूप गंध निर्लिप्त रहूँ।
हूँ छूद्र जीव प्रभुकृपा किन्तु निष्काम योग का पंथ गहूं।।
हे चंचरीक षटपद, मलिन्द मकरन्द, रसिक, अरविन्द भृंग।
हे अलि, द्विरेफ, हे भ्रमर, गुंज अर्पित सर्वस्व न अब विलम्ब।।
मैं माया हूँ तुम जीव जगत जीवन रहस्य सिखलायें संग।।
अर्पण, प्रणयन, निर्लिप्त भाव, यह मोक्ष मार्ग मिट जायें संग।।
हरियाली तीज
आज हरियाली तीज का त्योहार।
फिर आयी मौसम में नयी बहार।
चारो ओर हरियाली ही हरियाली से भरा
धरती का कोना कोना।
प्रकृति नटी का सौन्दर्य सलोना।
ऐसे मौसम में गिरगिट भी रंग बदल देते हैं।
जन जीवन का हृदय मधु मस्त हुआ
घूमता है दिन दुगना रात चौगुना।
किन्तु प्रियतम के बिना सब सूना सूना।
विरही पथिक
पथ अँधेरा घना राह भटका हुआ,
दूर तुम मैं यहाँ आस पर जी रहा।
इंतजारी अमानत समझ आपकी,
बाध्य होकर जुदाई व्यथा पी रहा।।
रात जब चांदनी ले हिलोरे उठे,
पूरबी वायु मन्थर किलोले करे।
या कि जब घन घटा सावनी साज पर,
मूक विरही पपीहा पुकारा करे।।
बस अनायास बीती कथाएं तुरत,
स्मृति पटल पर है आती हों चलचित्र ज्यों।।
फिर अचानक कोई आ के नरलोक का,
स्वप्न मंदिर मेरा सुख नशीं तोड़ दे।
जागकर स्वप्न से हो विकल वेदना,
वास्तविकता जगत में मुझे छोड़ दे।।
फिर वही राग धारा वही वेदना,
फिर वही नित्य कृति फिर वही सर्जना।
एक आशा की बाती के लौ के लिए,
बस मिलन की घड़ी की करूँ साधना।।
उनकी नजरें
उनकी नजरें का प्याला। बड़ी कातिल बनाती मतवाला।।
उनकी नजरें समुद्र सी गहरी। खुशी के गम के मोतियों से भरी।।
उनकी नजरों में चाँद की तासीर। ज्वार उठते हृदय सागर के तीर।।
उनकी नजरों में बहुत आकर्षण। नक्शे तन खींचती जैसे दर्पण।।
उनकी नजरों का वो रिश्ता नाता। अपना बेगाना बने बेगाना अपना।।
उनकी नजरों की टकटकी कातिल। जो न पिघले बड़ा पत्थर दिल।।
उनकी नजरों का ये ताना-बना। बेगाने अपने बने अपने बने बेगाना।।
उनकी नजरों की वो बाँकी हलचल। बड़े-बड़ों को भी करती विह्वल।।
विरह गीत
मेरे मन की झंकार अभी चुप रहना। मेरी श्वासों के तार मिटे तब क्रम।।
अंतर मन की हुंकार अभी सब सहना। मेरी दृग सागर धार अभी मत बहना।।
बीती घड़ियां त पथ पर आँख बिछाये। जिसका डर रह रह ग्रसे वही हम पाये।।
यह जग क्रम निरखूं अगनित आवें जायें। पर प्रिये अकेली तुम ही क्यों नहि आये।।
यह माना कोई सत्य अजाना होगा। संभव है कोई सभ्य बहना होगा।।
बीते जो पल वह पुन: न आना होगा। विरही समक्ष सब तर्क पुराना होगा।।
तुम परवश हो यह ज्ञात मुझे है लेकिन। तुम भी बेहाल यह ख्याल मुझे है लेकिन।।
बीते जस मुझ पर हाल तेरा भी मुमकिन। वह राह दूर की चाह न चाहूँ लेकिन।।
हे प्रिये मेरे इस भावुक मन को जानो। तुम बिन यह परवश तपे इसे पहचानो।।
जो सत्य राह हो उसको ही बस मानो। दृढ़ इच्छा आगे सम्भव सब यह जानो।।
बस इसीलिए हूँ बार-बार यह कहता। जग स्वारथ रत नहिं कोई उपवन, गिरि, सरिता।।
तुम भी बस अपने अन्तर्मन की जानो। जग लोक लाज भय समाज सीमित मानो।।
जब भी पुकार हो तुम को आना होगा। जब भी मन चाहे तुम्हें बुलाना होगा।।
रोके पथ जो भी उसे हटाना होगा। बस प्रभामाल संग नेह निभाना होगा।।
अर्धाङ्गिनी के प्रति श्रद्धांजलि
तुम गई आशा गई विश्वास भी डगमग हुआ।
अब कहाँ किसकी दवा किसके लिए करना दुआ।।
आज भी आँखों में अंकित अन्तिम सक्रियता तेरी।
पूजा घर में झाड़ू पोछा यद्यपि तन जर-जर हुआ।।
तुम पकड़ ली खाट अस्थि के दर्द से लाचार थी।
तेरी आह कराह करवट लेने में दर्द विकट हुआ।।
जितनी थी सम्भव दवा और दुआ सभी हुई मगर।
पर प्रबल प्रारब्ध आगे सब प्रयत्न बेअसर हुआ।।
अन्त काल तुम्हारा क्रमश: देख तन, मन, हिय विकल।
कैसे प्रगटू शब्द सीमा, गम को भारी गम हुआ।।
तुम तुम्हारे शब्द, जग व्यवहार, सब प्रत्यक्ष मन।
भावना का ज्वार हिय में तेरा प्रेम अमर हुआ।।
तन तो सबका क्षर हुआ क्षर किन्तु अक्षर आत्मा।
देह बंधन त्याग आत्मा मिली अन्तर कम हुआ।।
जब हुआ विश्वास बचना अब तुम्हारा असम्भव।
दृढ़ किया तन मन हृदय को, मुक्ति हित तत्पर हुआ।।
मानसिक सब तीर्थ का आह्वान, पूजा का प्रसाद।
महा मृत्युन्जय के मन्त्र का जप स्वत: सस्वर हुआ।।
तुलसी गंगा जल तुम्हारे मुख में गीता मन्त्र स्वर।
स्वयं शिव के भाव राम का महामन्त्र मुखर हुआ।।
मेरा दायां हाथ तेरे सिर पर, बायें कर में कर।
करने को अन्तिम विदाई, अश्रु जल निरझर हुआ।।
बहू बेटा बेटियां सबने ही, तुलसी गंगा जल।
मुख में डाला सबके आगे, मुक्त तन बन्धन हुआ।।
एक पल के लिए तेरे नेत्र खुले निहारे जग।
धीरे-धीरे श्वाँस मन्द से मन्द तर हो स्थिर हुआ।।
प्रिये तुम तो चल बसी जाना है सबको एक दिन।
किन्तु तेरी छटपटाहट दृश्य अन्तिम ज्वर हुआ।।
आज भी उस ताप से तन, मन जले, पीड़ित जिगर।
तेरी जैसी साध्वी का प्रारब्ध क्यों कर यह हुआ।।
अब तो जो होना था वह हो गया, सब अनुचित कथन।
स्वस्थता लक्षण दिखाकर अटल मरण वरण हुआ।।
काल आता है नहीं, वह है बुलाता सबको पास।
देह, इन्द्रिय, बुद्धि, मन, सब काल मय बरबस हुआ।।
काल के आगे न चलता, किसी का कुछ भी प्रयत्न।
सृष्टि से अब तक सदा, शाश्वत यही गति क्रम हुआ।।
तुम गई स्मृतियाँ तुम्हारे साथ की सब पास हैं।
पाँच दशकों का सकल इतिहास अजर अमर हुआ।।
जाना है सबको जो जन्मे जायेंगे सब एक दिन।
जब तक मेरी जिन्दगानी, प्रेम गीत अमर हुआ।।
तुम जहाँ भी जन्म लो प्रभु भक्ति सतत् मिले तुम्हें।
तुमको यह आशीष आत्म प्रणीत स्वत: मुखर हुआ।।
हे प्रभो जग जीव सब तब कृपा भक्ति वरण करें।
जीव तेरा अंश भ्रम वश भटकता अशरण हुआ।।
तव कृपा से जीव तेरी चरण शरण गहे प्रभो।
ऐसा दो वरदान सबको प्रभामाल विनत हुआ।।
हमजोली बिना होली
यह मेरे जीवन की होली, पहली पहली बिन हमजोली।
सूना सूना लगे जमाना, स्मृतियों का है भरा खजाना।
क्या बोलूँ क्या बने तराना, सोच-सोच अब मन बहलाना।
स्मृतियाँ ही बस आज सहेली।।
होली की योजना बनाना, खुश होकर त्योहार मनाना।
मिल-जुल कर पकवान सजाना, हंसी-खुशी खाना और खिलाना।
होली अब लगती ज्यों गोली।।
होली पर नव काव्य बनाना, गाकर तत्क्षण उन्हें सुनाना।
सुन खुश हो सन्तोष जताना, या सुधार करके मुस्काना।
लगता अब आयी अब बोली।।
होली पर हुड़दंग मचाना, हथकण्डे छिप छिपा दिखाना।
रंग अबीर गुलाल लगाना, उपटन से फिर स्वत: छुड़ाना।
अब किससे होली की ठिठोली।।
जीवन का चिर सत्य सुहाना, चोला नव चिर बाद्य पुराना।
प्रकृति नटी का ताना बाना, अकेले आना अकेले जाना।
युग-युग की अनबुझी पहेली।।
सत्य की खोज
अन्तर्ज्ञान चक्षु से पहले देखी जब तेरी छाया।
रूप सलोना देखा जब से भूल गया सब जग की काया।।
साक्षी हैं आकाश के तारे साक्षी जड़ चेतन जग सारे।
मन ने तुझको ही पहचाना तन ने तुझको अपना जाना।।
एक एक से बढ़कर जग में प्रभु ने अनुपम रूप बनाया।
नहीं कहीं हैं सीमा जिसकी अद्भुत भगवन तेरी माया।।
ऐसी अनुपम बृहद् सृष्टि में कोई नहीं है अपना पराया।
केवल है सब प्रभु की माया सब कुछ है बस केवल छाया।।
छाया तत्व आत्म मन मिलकर जगत सृष्टि का बीज उगाते।।
आत्मा सत्य जगत सब मिथ्या, ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
संशय भ्रम माया प्रेरित वह जगत भटकता मृग तृषना सी।।
प्रभामाल इस जीवन अंश की हर चेष्टा प्रभु आज्ञा मानो।
छिपा नहीं कुछ भी मन दृग से मन इच्छा प्रभु इच्छा जानो।।
इसीलिए मन की पुकार को छाया तुम को सुनना होगा।
अनासक्त हो इस भव निधि तट साथी बन कर चलना होगा।।
समय की पहचान
नदी अपनी जवानी पर है,
पर पानी बेकार बह रहा है।
शक्ति का यह अतुलित श्रोत
प्रतिपल विनष्ट हो रहा है।
समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।
जल्दी अवरोध डालकर शक्ति की धारा को मोड़ो।
शक्ति का संचय सदुपयोग कर सत पथ पर प्रवाह को छोड़ो।
नहीं तो शक्ति का यह बेकल उफान
कहीं विनाश का कारण न बन जाये।
हाथ से छूटा तीर संघात तो करेगा ही तो
गन्तव्य पर करे।
ऐसा न हो कि यह ज्ञात सत्य बाद में
मात्र पछतावे का कारण ही रह जाये।
परिवार नियोजन
एक ही सूर्य सारे जगत में, है लुटाता दिवस का उजाला।
एक ही चाँद भी जीव जग को, है पिलाता सुधा रस का प्याला।
तारे अगणित गगन में हैं लेकिन, रोशनी चाँदनी दे न पाते।
एसलिए एक या दो ही अच्छे, इससे ज्यादा हो तो कष्ट पाते।
जिनके दो वे सुखी दिन बीताते, दो से ज्यादा अगर रोते गाते।
हर कदम पर कठिन उनका जीवन, मौत को आये दिन वे बुलाते।
उनकी नजरें
उनकी नजरें शराब का प्याला।
बड़ी कातिल बनाती मतवाला।।
उनकी नजरें समुद्र सी गहरी।
खुशी के गम के मोतियों से भरी।।
उनकी नजरों में चाँद की तासीर।
ज्वार उठते हृदय सागर के तीर।।
उनकी नजरों में बहुत आकर्षण।
नक्शे तन खींचती जैसे दर्पण।।
उनकी नजरों का वो रिश्ता नाता।
अपना बेगाना बने बेगाना अपना।।
उनकी नजरों की टकटकी कातिल।
जो न पिघले बड़ा पत्थर दिल।।
उनकी नजरों का ये ताना-बना।
बेगाने अपने बने अपने बने बेगाना।।
उनकी नजरों की वो बाँकी हलचल।
बड़े-बड़ों को भी करती विह्वल।।
क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि
हे भारत माँ के चिर सपूत हे तप: पूत हे पुण्य धाम।
हे त्यागी बलिदानी वीरों तुम सबको है शत-शत प्रणाम।।
तुमने कर कृपा दिया दर्शन कृत-कृत हुए हम सभी आज।
संगमस्थल पर तव संगम से गर्वित प्रमुदित है तीर्थराज।।
तुमने जो ज्योति जलाई है, युग-युग तक उसका चिर प्रकाश।
भारत तो क्या भूमण्डल भर का सदा करेगा निशा नाश।।
तेरे शोषित से तृप्त धरा से उपजेंगे जो विटप सुमन।
लख सौरभ सुषमा फल छाया ईर्ष्यारत होगा नन्दन वन।।
जिसने परहित में जीवन दे भारत माता की रखी लाज।
उन वीर शहीदों के कर्मो से गर्वित प्रमुदित राष्ट्र आज।।
आदर्श म्यान में रक्षित यद्यपि तेरी शुचि तलवार रहे।
अवसर पर अरि मद मर्दन हित हरदम तत्पर तैयार रहे।।
है वर्तमान ने भुला दिया यद्यपि तेरी कुरबानी को।
पर दबा सका है कोई क्या चिर स्वतंत्रता अभिमानी को।।
तेरे त्यागों, बलिदानों की गाथा इतिहास बखानेगा।
तेरी परिपाटी अपनाकर भारत युग-युग तक जागेगा।।
भारत जन के हिय में अंकित हीरक अक्षर में नाम तेरा।
जयकार कर रहा भू कण-कण तेरे त्यागों से तृप्त धरा।।
अर्पण-प्रत्यर्पण
मैं भौरा हूँ तुम कली प्रिये तुम खिलो और मैं मँडराऊँ।
तुम विखराओ निज गंध सुमन, मैं तृप्त नृत्य कर गुन गाऊँ।।
फैलाकर अपना बाहु पंख अपना लो मुझको धन्य बनूँ।
तेरा रस पी जीवन पाऊँ तुमको ही अर्पित हो जाऊँ।।
हे मधुप मधुर तेरी रचना, संशय न हमारे खिलने में।
रस गंध युक्त जीवन होगा, निश्चय मृदुता मम आनन में।।
पर भ्रमर देख तेरा स्वभाव, जड़ प्रकृति जीव पर मुझे क्षोभ।
यह कैसी निष्ठुर नीति तेरी, बिन ठौर, नेह क्यों रहित मोह।।
हे प्रिये, सत्य भाषण तेरा, पर निज रहस्य बतलाता हूँ।
मधुकर हूँ मधुसूदन समान, मधुवन प्रेमी गुन गाता हूँ।।
है श्याम रूप समदरसि भाव, रस रूप गंध निर्लिप्त रहूँ।
हूँ छुद्र जीव प्रभुकृपा किन्तु निष्काम योग का पंथ गहूं।।
हे चंचरीक षटपद, मलिन्द मकरन्द, रसिक, अरविन्द भृंग।
हे अलि द्विरेफ, हे भ्रमर, गुंज अर्पित सर्वस्व न अब विलम्ब।।
मैं माया हूँ तुम जीवन जगत जीवन रहस्य सिखलायें संग।।
अर्पण, प्रणयन, निर्लिप्त भाव, यह मोक्ष मार्ग मिट जायें संग।।
तब और अब
पहले मेरा मन मनमानी करता था।
जहाँ मैं चाहता था, वहाँ नहीं जाता था।
जहाँ नहीं चाहता था, वहाँ भी चला जाता था।
जहाँ नहीं जाना चाहिए, वहाँ भी चला जाता था।
जहाँ जाना चाहिए, वहाँ कभी कभार ही जाता था।
किन्तु अब मैंने अपने मन पर लगाम लगा दिया है।
अब मेरा मन पूर्ण रूप से मेरे काबू में है।
अब मैं जहाँ चाहता हूँ, वहीं मेरा मन जाता है।
जहाँ चाहता हूँ घण्टों ठहर जाता है।
अक्सर मौन भी हो जाता है।
मेरा मन मेरे बस में हो गया है।
इससे मुझे अपूर्व आनन्द आता है।
अब मैंने तन, मन, इन्द्रिय और हृदय
सब पर अंकुश लगा दिया है।
अब तो मेरी ख्वाहिश है कि मेरी तरह
सबका मन भी उनके बस में हो तो
यह दुख भरी दुनिया स्वत: स्वर्ग बन जाती।
यह भव सागर आनन्द सागर बन जाता।।
मैं भौंरा हूँ तो कली प्रिये
मैं भौरा हूँ तू कली प्रिये, तुम खिलो और मैं मंडराऊँ।
तुम बिखराओ निज गंध सुमन, मैं तृप्त नृत्य कर गुन गाऊँ।।
फैलाकर अपना बाहुपंख, अपना लो मुझको धन्य बनूं।
तेरा रस पी जीवन पाऊँ, तुमको ही अर्पित हो जाऊँ।।
भाव गीत
एकाकार हुआ प्रिय जब जब तव, मम, तन, मन, धी हिय प्राण।
तब तब हुआ निरन्तर निश्चय, चिदानन्द का कुछ अनुमान।।
काया की यह बात नहीं है, स्थूल सूक्ष्म सब माया है।
भाव समर्पण पूर्ण परस्पर, सुख जाने जो पाया है।।
शब्दों के सम्प्रेषण सीमित, उत्तम भाव जगत का माध्यम।
शब्दार्थों के परे प्रेम के, अनुपम अनुभव जनित उपक्रम।
उसी भाव से उसी चाव से, पर-सुख में सुख के स्वभाव से।
सदा परस्पर जग निर्वाहन, करें सतत आनन्द अवगाहन।।
बना रहे युग युग यह उपक्रम, महाकाल भी लगे विपलसम।
कभी परस्पर प्रेम हो न कम, युगल अभेद न त्वम् अह्म, तव, मम।।
सीताराम बीचि जल सम हम, राधेश्याम गिरार्थ रहित तम।
अर्धनारीश्वर गौरी शिव सम, निरगुण हम ही, सगुण स्वयं हम।।
फिर उलूक दल में खुशी छाई है
अस्त हुआ सूर्य ढली शाम अन्धकार बढ़ा।
चिड़ियों का कलरव, जन कोलाहल शान्त पड़ा।
तारों जुगनुओं की तरुड़ाई है।।
मन्द-मन्द दीप जले पवन गति प्रकाश हिले।
नाचते पतंगे अनजान क्या भविष्य मिले।
काल घटा सिर पर मड़राई है।।
कोलाहल शान्त हुआ जन जीवन नींद ग्रसित।
मुरदैनी छाई कुछ लोग मात्र भोग लिप्त।
चोर उचक्कों की बन आई है।।
सज्जनता सो गई मनुष्यता उनींदी सी।
सामाजिकता नैतिकता विवश स्वप्न लोक बसी।
पृष्ठ ओट चाँदनी मुस्काई है।।
धूप-छाँव, रात-दिवस प्राकृतिक विविध उपक्रम।
जड़-चेतन जन्म-मरण परिवर्तन शाश्वत् क्रम।
सुख-दुख क्षति-लाभ क्रम खुदाई है।।
होली पर खुलकर उपहार दिया जाता है
मौन-मौन रह कर भी प्यार किया जाता है।
मस्त नयन तीरों से वार किया जाता है।
अंगड़ाई लेकर उपकार किया जाता है।
होली पर खुलकर उपहार दिया जाता है।।
दूर-दूर से भी नयन चार किया जाता है।
टूटे दिलों का उपचार किया जाता है।
एक बार नहीं बार-बार किया जाता है।
होली पर.......।।
हंसी ठिठोली से फिर वार किया जाता है।
फिर समक्ष बहक चहक वार किया जाता है।।
झिझक-झिझक पहले अभिसार किया जाता है।
होली पर.......।।
छोटी बातों को विस्तार दिया जाता है।
संकेतों से कुछ संचार किया जाता है।।
आमिष फिर सामिष प्रतिकार किया जाता है।
होली पर .......।।
सम्बन्धों को फिर विस्तार दिया जाता है।
सम्बन्धों का फिर संहार किया जाता है।
होली पर.......।।
संजोये सपनें साकार किया जाता है।
दिल के भावों को झंकार दिया जाता है।।
भव सागर तूफाँ को पार किया जाता है।
होली पर.......।।
मस्त निगाहों को दो चार किया जाता है।
लोल कपोलों को अंगार किया जाता है।
दूर, पास, लिपट, झपट वार किया जाता है।
होली पर.......।।
बदला व्यक्तित्व
पहले बातों पर रहते अटल थे। कथनी करनी में पहले सफल थे।।
जब से पद का मुखौटा वे पहने। आज खलनायक नायक जो पहले।।
उनकी बातों का क्या अब भरोसा। सुबह कुछ शाम को कुछ वे कहते।।
जो है दिल में नहीं अब जुवां पर। वे दबावों में हरदम हैं रहते।।
अब तो संयम भी उनका है टूटा। सुनकर शिकवा वे हैं होश खोते।।
क्रिया पर प्रतिक्रिया उनकी अपनी। निज बड़प्पन स्वयं ही हैं खोते।।
अब तो बेहतर वे सन्यास लेलें। अब कुछ उम्मीद उनसे नहीं है।।
धोबी कुत्ता बेधर घाट के वे। आज घर-घर में यह बतकही है।।
लक्ष्य की प्राप्ति
तुम गुलाब के फूल प्राप्त करना जो चाहो,
तो कांटो से डर कर पीछे मत हट जाना।
चाह रहे यदि मिले तुम्हें सुन्दर प्रसून तो,
बढ़ो उठाओ हाथ, नहीं होगा पछताना।।
सम्भव हैं पा सको सुमन बिन श्रम प्रयास तुम,
सुलभ नहीं छबि सौरभ, मृदु, संतोष अपेक्षित।
मुरझाये वे मृतक सुमन हे सुहृद न छूना,
बड़े ग्लानि की राह, पड़े भू झुकना निश्चित।।
चाह रहे यदि सचमुच पाना शुभ्र सुमन तो,
उठो बढ़ो, शुभ, शाख झुका लो अपने आगे।
नहीं डरो, कंकड़, कीचड़, कंटक कराल से,
करो हस्तगत लक्ष्य, चाहते जो मुँह मांगे।।
बनाकर बहाने
बनाकर बहाने बुलाना रिझाना।
नजर मिलते ही झट पलट मुसकराना।।
कभी सिर या सीने से आंचल हटाना।
नजर ही नजर से नशा खुद पिलाना।।
कभी ढीठ बनकर निडर बेफिकर हो।
क्षणिक भौंह धनुही क्षणिक मुसकराना।।
किसी लुफ्त की बात को सुनकर हंसना।
कभी पीछे मुड़ मुँह छिपा मुसकराना।।
जबाँ से न इक लब्ज भी वे निकालें।
निगाहों इशारों से सब कुछ बताना।।
बड़ी शोख दिलकश है यह मौन भाषा।
मुखर से भी बढ़कर प्रभावी तराना।।
फड़कते हुए ओठ बोझिल सी पलकें।
मगर पूर्ण फरमाइशें करते जाना।।
सलामत रहे उनकी फितरत शरारत।
कयामत तक इश्के डगर चलते जाना।।
‘प्रभामाल’ मजबूरियों से बंधे हैं।
समझते नजर ओंठ का बुदबुदाना।।
गजब की नशीली हैं उनकी निगाहें।
नशे सिन्धु में एक झलक में डुबाना।।
न जाने नशा उनकी नजरों में क्या है।
विवश होकर उनकी तरफ खिंचते जाना।।
होली फीकी लगे
होली फीकी लगे प्रिय संग बिना।।
रंग-रंग के रंग मंगाकर।
इत्र गुलाब अबीर सजाकर।
नयी नयी योजनाएं बनाकर।
हंस-हंस कर और खूब हंसाकर।
होली होली नहीं है उमंग बिना।।
होली ठिठोली हो नर हो या नारी।
लेकिन संभल के न करे मारा मारी।
मस्ती में झूम-झूम मिल जुल के गावे।
अपने भी नाचे और सबको नचावे।।
होली फीकी लगे हुड़दंग लगावें।
करे मजाक जो सबके मन को भावे।
होली होली न लागे चंग बिना।
झांझ मजीरा मृदंग बजावे।
ढोल करताल पर नाच दिखावे।।
रंग में भंग न करे न करावे।
भांग बदाम ठंडई घोतावे।
केसर कस्तूरी संग दूध मलाई।
गोजिया, समोसा, मालपुआ मिठाई।
होली होली न लागे भंग बिना।।
हिन्दू धर्म
हिन्दू धर्म, अर्थात् सब धर्मों का आधार।
सभी धर्मों, पन्थों और संस्कृतियों का सार।
सब धर्मों के प्रति आदर और प्यार।
सबसे, अर्थात जीव मात्र से सद् व्यवहार।
सब धर्मों के प्रति समता का विस्तार।
प्राणी मात्र के लिए परस्पर का स्नेह प्रेम दया और करुणा का प्रचार, प्रसार।
सब धर्मों का आदर और सत्कार। सब धर्मों के अस्तित्व को अंगीकार।
यहाँ है ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या का तत्त्व संचार।
ऐसा हिन्दुत्व ही है हमें स्वीकार।
इस सनातन सहिष्णुता, समता, सेवा और सहयोग को करें सार्थक और साकार।
वास्तविक धर्मसम्मत हो सबका आचार, विचार और व्यवहार।।
श्रीराम झूले पलना
श्रीराम झूले पलना, हमारे अंगना।।
दशरथ नृप वरिष्ठ घर आये। अपना दुखड़ा उनसे सुनाए।
गुरु विशिष्ठ जी विधि बतलाये। श्रृंगी ऋषि से यज्ञ कराये।
प्रगट हुए अग्नि स्वयं चरु लिये कर माँ। श्रीराम झूले पलना।।
चैत्र शुक्ल नौमी तिथि आया। मध्य दिवस में अभिजीत नक्षत्र छाया।
ब्रह्म प्रगट का अवसर आया। प्रकृति नटी ने रंग दिखाया।
सुर, मुनि, नर, नाग करें वन्दना। श्रीराम झूले पलना हमारे अंगना।।
प्रथम चतुर्भुज रूप में आये। कौशल्या को ज्ञान सिखाये।
लीला का उद्देश बताये। सुर, नर, मुनि सब भय विसराये।
पल में शिशु बन रोवन लगे ललना। श्रीराम झूले पलना हमारे अंगना।।
निरगुण ब्रह्मा सगुण क्यों होता। कारण सत्य न कोई जानता।
शम्भु, सन्त, श्रुति के अनुसारा। सुर, गो, द्विज श्रुति हित अवतारा।
प्रगट होकर भक्तों पर करें करुणा। श्रीराम झूले पलना हमारे अंगना।।
ब्रह्म जो माया गुण गोतीत। निजानन्द, निरुपाधि, अतीत।
जिससे शिव, अज, विष्णु, सभीत। भक्त प्रेम वश स्वयं प्रणीत।
बन के निरगुण सगुण पूर्ण करें कामना। श्रीराम झूले पलना हमारे अंगना।।
हम सब मिलकर लोग लुगाई। हरि गुण गाये तन मन लाई।
जीवन का यह ही फल भाई। राम भजे सब काम बिहाई।
भवसागर के पार का उपाय और न। श्रीराम झूले पलना हमारे अंगना।।
प्रभु जी चंचल मन भरमावे
प्रभु जी चंचल मन भरमावे।
काम क्रोध मद लोभ मोह मत्सर ठग बहुत सतावें।
निज निज फंद फंसा मोहि जब तब नाना नृत्य नचावें।
कृशित बदन, अति दीन मलिन मन, बुद्धि विवेक न आवे।
शास्त्र-ज्ञान सब श्रवण, मनन, सत्संग अधिक उलझावैं।
तीर्थाटन, जप, तप, सब साधन, पग, पग अति डर पावे।
बहुत उपाय कियो निज बुद्धि बल, एकऊ काम न आवे।
निज विवेक पर अब न भरोसो, तत्व समझ यह आवे।
बिन प्रभु कृपा दृष्टि भवसागर, जीव थाह किमि पावै।
‘प्रभामाल’ प्रभु आश्रित हो, निश्चित सतत् गुण गावै।
करुणानिधि जग प्रगट तेरा प्रण, शरणागत् अपनावै।।
मन दर्पण
हे मानव तुम्हारे मन रूपी दर्पण पर मल आवरण और विक्षेप पड़ गया है।
अत: तुम्हें तुम्हारा प्राकृतिक स्वरूप नहीं दिखाई देता।
तुम अपने को जानो, पहचानो।
इसके लिए आवश्यक है कि सबसे पहले अपने मन के मल को निर्मल करो।
धीरे धीरे आवरण और विक्षेप भी साफ हो जायेंगे।
तब तुम्हें अपना आत्म स्वरूप दिखाई पड़ने लगेगा।
अर्धांङ्गिनी के सानिध्य में पांच दशक
जब से तुम मेरे घर आई शुशियों की बारात लिए।
घरभर के हिय मन में छाई, नवल प्रेम, मधुमास लिए।।
निर्मल सरल स्वभाव तेरा, सेवा संयम, व्यवहार कुशल।
गृह कार्यों में पूर्ण दक्ष, वाणी, विवेक, मुस्कान विरल।।
माता पिता बिदाई में, थे दिये विपुल उपहार तुम्हें।
कभी न कुल में मिला किसी को, बिन मांगे जो मिला हमें।।
मेरे जीवन में आया, नव बसन्त, नव अनुराग भरा।
तृप्त हुई तव स्पर्शान्जलि से मेरी प्यासी हृदय-धरा।
संयम, सेवा, हंस मुख स्वभाव से, घरभर का मन मोह लिया।
माँ का, आजी का, विशेष कर, हृदय, पूर्णत: जीत लिया।।
मेरी जीवन नइया की, मांझी तुम कुशल, साध पतवार।
करने लगी पार भवसागर, कभी न फंसी बीच मजधार।।
मैं तुमको ‘साहब’ कहता तुम मुझको ‘साहब’ कहती।
दो तन नाम एक आत्मा एकता प्रवृत्ति प्रगटती।।
कभी न ऐसा हुआ कि तुमने, कहना मेरा नहीं माना।
अपना दुख मेरे सुख खातिर, सुखस्वरूप तुमने जाना।।
जीवन के हर मोड़ पर तुमने, साथ निभाया मेरा।
हर हलचल हर उथल-पुथल में उत्साह बढ़ाया मेरा।
बनी प्रेरणास्रोत हमारी, कविता की खेती में।
सम्भव हुआ सृजन मंगलमय, सूखी हिय-रेती में।।
हर तीर्थाटन, देशाटन में, साथ निभाई मेरा।
सेवक, रक्षक सहयोगी, गृहणी, सुमित्र, गुण तेरा।।
मैं रहता निश्चिंत सदा, पा तब आंचल की छाया।
दिन दिन लगी निखरने मेरी, जर्जर तन, मन काया।।
गमक उठी बगिया मेरी, ऐसी जीवन सहचरी मिली।
आशाओं, आकांक्षाओं की, मन भावन हर कली खिली।।
तुम जैसी पत्नी पाकर मैं, बना परम अनुरागी।
काम वासना तृप्ति हुई संग, राम कामना जागी।।
कल्पवास, हर धर्म कर्म में, श्रद्धा और विश्वास बढ़ा।
आस्था की सूखी क्यारी, पुष्पित, पल्लवित विकास चढ़ा।।
पुत्री-पुत्र तीन पैदा पर, दैययोग दुर्भाग्य रचा।
हुए काल कवलित दो सुत, सौभाग्य एक कुल रत्न बचा।।
पुत्र रत्न देवव्रत पुत्रियां वन्दना, बीना, साधना।
पाकर हुआ गौरवान्वित मैं, पूर्ण युगल की कामना।
विविध गृहस्थी कार्य सदा, तत्परता से तुम करती।
कभी न आलस, राग-द्वेष सद्भाव प्रेम रस भरती।।
कठिन कष्टप्रद कार्य जिसे, जीवन में पहले किया नहीं।
वह सब भी तुमने सप्रेम की, हंसी खुशी दुख रंच नहीं।।
यद्यपि तेरा प्रेम बंट गया, बच्चों के परिपालन में।
पर हार्दिक सद्भाव बढ़ गया सहज संतुलित लालन से।।
जब भी समय निकलता यद्यपि श्रमित किन्तु अपना लेती।
मुस्काती नजरों से तन मन हिय से गले लगा लेती।
मैं भी सदा प्रतीक्षारत रहता, तुझको पा जाने को।
देर रात तक जाग कर, तुझको गले लगाने को।।
यह सब जीवन का दैनिक क्रम, सबके हित तव जीवन प्राण।
पूर्ण संतुलित संयम, सेवा, सबको सुख कर, सबका त्राण।।
जब भी संकटग्रस्त कभी मैं, तेरा प्राण विकल होता।
हर प्रयास कर दु: ख हरण हित, तत्परता व्याकुलता।।
तेरी सेवा सुश्रुशा सम्बल शीघ्र स्वास्थ्यप्रद होती।
दवा संग तव दुआ वृत्ति, निश्चय प्रभाव कर बनती।।
तेरा निर्मण हृदय भाव, प्रभु तो करुणा के सागर।
भक्ति भावना लख तत्क्षण, दुख हर लेते नट नागर।।
केवल गुण ही गुण तुममें, अवगुण न कोई किंचित था।
भ्रमवश निन्दक भी तेरे, सद्भाव नहीं वंचित था।।
तेरी कुछ इच्छायें पूर्ण न हुई, मुझे इसका अफसोस।
सक्षम था सामर्थ्य भी पर, असमर्थ सोच दुख हृदय मसोस।
श्रम करना बस हाथ जीव के, सुख दु:ख हानि लाभ परिणाम।
फलदाता के हाथ ज्ञान यह, करे दूर असन्तोष तमाम।
कितना कहूँ कहाँ तक गाऊँ तेरी चिर जीवन गाथा।
अब तो मात्र हृदय मन्दिर की मूर्ति, समक्ष विनत माथा।
स्वप्न लोक की परी बन गयी उड़कर चली गयी आकाश।
मैं धरती पर पड़ा रह गया खंडित सब आस्था विश्वास।।
एक बात से पूर्ण तुष्ट हूँ तेरा प्रण परिपूर्ण हुआ।।
तुम सधवा स्वर्गीय बन गयी तेरा चिर सौभाग्य विरल।
हानि लाभ जग जीवन आवागमन जीव प्रारब्ध अटल।।
अनहोनी जो हुई हमारे लिए अटल वह होनी थी।
पाया कभी अमूल्य रत्न वह असमय में ही खोनी थी।।
मेरी प्रभु से यही प्रार्थना तेरा जीवन हो सुख कर।
भव बन्धन से मुक्त करें जीवन चिर लक्ष्य प्राप्त सत्वर।।
अपने ही सब बने पराये किसको क्योंकर दोष लगाऊँ।
जीवन की यह रीति निराली सहज कर्मफल अपना पाऊँ।
कौन है अपना कौन पराया स्वार्थी जग जीवन सब माया।
वही पुरुष प्रबुद्ध कहलाया जो माया से पिन्ड छुड़ाया।।
जग से क्या कुछ लेना देना सर्व भोग या चना चबैना।
सब स्थिति में सन्तोष से रहना परम शान्त कुछ कहना न सुनना।।
अब तो सद् जीवन का क्रम है ईश्वर एक सत्य यह वाणी।
माया नगरी जग सब भ्रम है शास्त्र सन्त की अटल कहानी।।
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