मानस नवनीत ।। Manas Navanit a Religion Book by Dr. Prabhakar Dwivedi Prabhamal
“Manas Navanit” Book Written by Dr. Prabhakar Dwivedi ‘Prabhamal’ तुलसी कृत रामचरित मानस का सतत अध्ययन एवं अनुशीलन करते रहने पर मन में राम की कृपा से यह भाव प्रगट हुआ कि कथा प्रसंग में यत्र, तत्र, सर्वत्र व्याप्त भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता तथा आचार, विचार और व्यवहार से सम्बन्धित तथ्यों को यदि नीर क्षीर विवेक भाव से चुनकर सरलतम सूक्ष्म शब्दों में संकलित करके पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जाय तो यह कहावतों और लोकोक्तियों के रूप में प्रचारित एवं प्रसारित होकर समष्टि के कल्याण में अत्यधिक सहायक होगा। इसी भाव से मानस नवनीत की रचना सम्भव हुई।
मानस नवनीत
डॉ. प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’
त़ख्तोताज प्रकाशन, इलाहाबाद
प्रस्तावना
सब जानहि प्रभु प्रभुता सोई।
तदपि कहे जिन रहा न कोई।।
“Manas Navanit” Book Written by Dr. Prabhakar Dwivedi ‘Prabhamal’
तुलसी कृत रामचरित मानस का सतत अध्ययन एवं अनुशीलन करते रहने पर मन में राम की कृपा से यह भाव प्रगट हुआ कि कथा प्रसंग में यत्र, तत्र, सर्वत्र व्याप्त भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता तथा आचार, विचार और व्यवहार से सम्बन्धित तथ्यों को यदि नीर क्षीर विवेक भाव से चुनकर सरलतम सूक्ष्म शब्दों में संकलित करके पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जाय तो यह कहावतों और लोकोक्तियों के रूप में प्रचारित एवं प्रसारित होकर समष्टि के कल्याण में अत्यधिक सहायक होगा। इसी भाव से मानस नवनीत की रचना सम्भव हुई।
यद्यपि राम की कथा का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। राम के नाम, रूप, लीला व धाम की अपनी महत्ता है, अपना रस है, किन्तु उसमें भी फल के रस को निचोड़ कर यदि बिना गुठली और छिलके के केवल रस ही रस का पान किया जाय तो वह और आनन्ददायक और पोषक होगा। इस भाव को ध्यान में रखकर मानस का मंथन करके उसमें से सार भाग नवनीत को निकाल कर ‘मानस नवनीत’ के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा संस्कृत के कठिन श्लोकों का भी सरल एवं सुबोध भाषा में काव्यानुवाद करके उन्हें भावगम्य बनाया गया है।
इस प्रसंग में एक दु:खद घटना प्रमाद बस घट गई कि मैंने दो खण्डों में दो उत्तर पुस्तिकाओं में ‘मानस नवनीत’ की रचना कर उन्नीस सौ सत्तर से ही रखा हुआ था। इसके छपने का सौभाग्य तो अब प्राप्त हुआ है दो हजार तेरह में। यह भी राम की कृपा और इच्छा से। किन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि दूसरी पुस्तिका जिसमें किष्किन्धा, सुन्दर, लज्र एवं उत्तर काण्ड से सम्बन्धित ‘नवनीत’ था वह बहुत प्रयास करने पर भी अभी तक मिल नहीं पायी है। अत: अब मुझे बाध्य होकर केवल बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड एवं अरण्य-काण्ड से सम्बन्धित ‘नवनीत’ ही सुहृद पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ रहा है। भविष्य में यदि राम की कृपा से वह प्रति उपलब्ध हो पाई तो ‘मानस नवनीत’ खण्ड-दो के रूप में प्रकाशित होगी।
‘राम कीन्ह चाहहि सोइ होई। करे अन्यथा अस नहिं कोई।।’
फिर से उस भाव व भाषा में अब इस ढलती उम्र में लिख पाना सरल नहीं है। फिर भी यदि राम की कृपा हुई तो प्रयास करुँगा।
आगे हरि इच्छा।
हरि: ॐ तत्सत्
रामनवमी
सम्वत् २०७०
–प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’
ॐ
श्री रामचन्द्राय नम:
मानस नवनीत
आकार जिनका शान्त, करते भुजग शयन सुरेश जो।
हैं नाभि में जिनके कमल, नभ सदृश विश्वाधार जो।
जो मेघवर्णी, सुभग, लक्ष्मीकान्त, कमल नयन तथा।
वन्दन करें भव-भय-हरण, सब लोकपति उस विष्णु का।।
जिस ब्रह्म की स्तुति, अज, मरुत, वरुणेन्द्र, रुद्र करें सदा।
निज अंग पद, क्रम, उपनिषद संग, वेद गाते सर्वदा।
करि ध्यान तद्गत् मन:स्थिति में, करें योगी दरश जो।
सुर-असुर अन्त न जानते जिनका, नमन उस देव को।।
भगवान जो हर भक्त की, अभिलाष पूर्ण करें सदा।
जिस ईश की सेवा निरत हैं, विष्णु, अज, शिव, सर्वदा।
सुग्रीव, हनुमत, भरत, आदिक, भ्रात अनुपम प्रेम से।
आराधनारत हैं सदा, जिस ईश करुणा सिन्धु के।।
बामाङ्ग शोभित सीय, श्रीमुख श्याम सुन्दर द्विभुज जो।
पटपीत युत, पंकज नयन, मम नमन उस श्री राम को।
जो नेति, निर्गुण, निर्विकार, अनीह, अव्यक्त, अगोचरा।
योगीन्द्र, गुणनिधि, सगुण, सोइ, खलबध निरत, धनु शर धरा।।
जय गिरा, जय गणपति, जयति गिरिजा, जयति गौरीपती।
मङ्गल करनि, भव विघ्न नाशक, हेतु जो अन्तस्थ श्री।
गुरुरूप सङ्ग वन्दन करूँ, सब अशिव शिव जिनकी कृपा।
वन्दन करूँ, पुनि आदि कवि, हनुमान जो विज्ञानदा।।
श्रीराम सङ्ग पत्नी सिया को नमन मम कल्याण को।
उत्पत्ति, पालन, नाश हेतु विनाश क्लेश समस्त जो।
जिनकी कृपा के वशीभूत, समस्त सृष्टि लुभावनी।
ब्रह्मादि, सुर, गन्धर्व, किन्नर, असुर नर, माया जनी।।
जिनकी चरण रज की कृपा से भक्त भव सागर तरें।
वन्दन मेरा उस ईश को, जो समस्त कारण के परे।
श्री रामचरित अनूप, वेद, पुराण, पार न पावहीं।
आगम, निगम, निज शक्ति बस, सब चरित अनुपम गावहीं।।
योगीन्द्र मुनि, कवि भक्त, निज रुचि रूप नव रचना करें।
श्रद्धालु जन कर श्रवण कीर्तन, विशद भव-सागर तरें।
जिनकी कृपा से सिद्ध होते कार्य सब, गण-ईश जो।
गजबदन शुभ गुण सदन, मति निधि दास विनत कृपालु हो।।
जो मूक को वाचाल करते, पंगु को पग-शक्ति दे।
कलि पाप नाशक ईश सो, करि कृपा जन को भक्ति दें।
नीलाभ पुष्कर सम सुभग तन, अरुण पंकज नयन जो।
करि कृपा मम उर वसहु हिय, पयसिंधु स्वामि कृपालु सो।।
शशि कुन्द सम है शुभ्रतन जिन उमापति कामारि का।
जो दीन पर हैं स्नेह करते, करें सो मुझपर कृपा।
गुरु चरण, कमल नमामि मम, साक्षात् नर-हरि रूप जो।
दिनकर सरिस, तम मोह नाशक वचन, नमन कृपालु को।।
वन्दन करें श्री गुर सुभग पद कंज रज सेवक सदा।
परिपूर्ण सुरुचि सुवास और अनुराग रस अमृत मुदा।
जिस भाँति जड़ संजीवनी की, दूर करती रोग सब।
उस भाँति ही गुरु पद्म रज, नाशक सकल भव-रोग जग।।
गुरु चरण रज सुकृती सरिस, शिव तन विभूती निर्मला।
कल्याण कर, आनन्ददायक, भक्त मन मल, दे धुला।
रज तिलक से गुण वश सभी, निज प्रभा माया नाशिका।
हो दिव्य दृष्टि प्रकाश हिय, विश्वास श्रद्धा हो यथा।।
है दूर होता मोह तम, संसार दु:ख मिटे सभी।
गुरुकृपा जब सुप्रकाश, जागे हृदय गुप्त प्रगट मणी।
यह मणि प्रभा, विश्वास श्रद्धा सहित, जब शुभ पथ चले।
श्री राम का पद अचल दुर्लभ, स्वयं सरिता सा मिले।।
ब्राह्मण समाज समस्त वन्दउँ, मोह, संशय जो हरे।
पुनि प्रेम सहित प्रणाम संत समस्त गुण निधि शुभ करें।
सहि विपति स्वयं, समष्टि का, कल्याण जो करते सदा।
सुरसरि सरिस शुचि, मोक्ष दायक, जगत विचरत तीर्थ सा।।
श्रद्धा सहित विश्वास पूर्वक, संत सेवा जो करें।
प्रवचन-प्रकाश, विनाश, माया, मोक्ष फल को अनुसरें।
सतसंग विनु न विवेक उर, सो मिलै जब हो प्रभु कृपा।
प्रभु कृपा हो सद्धर्म से, सद्धर्म मूल सकल फला।।
दुर्जन सुसंगति प्राप्त कर, पारस सरिस सतपथ लहें।
अरि, मित्र, संत समान चित, नहि कोउ जो महिमा कहे।
श्री संत आशीर्वाद से ही, रामचरण सनेह हो।
तब जीव मात्र विभेद बिनु, दुर्जन सुजन से प्रेम हो।।
बिनु हेतु जो हित, मित्र के, प्रतिकूल करते आचरण।
पर हानि में ही लाभ, हर्ष विनाश, वास विषाद घन।
सद््धर्म में बाधक सतत्, परदोष निरत सदा रहें।
दुर्जन महा वे मूढ़ नर, निज नाश कर, अनहित करे।।
सज्जन व दुर्जन बीच केवल एक गुण ही विशेष है।
सज्जन गमन, दुर्जन मिलन, दोउ भाँति मिलता क्लेश है।
सज्जन मिलन सुख हेतु, दुर्जन संग, दु:ख दायक स्वयं।
निज रुचिनुकूल जगत सकल, है गहत सज्जन, दुर्जनम् ।।
विधि कीन्ह जड़, चेतन सकल, गुण-दोषमय जग जानता।
निज हानि, लाभ, कुभाव, भाव, विवेक लक्ष्य अनुहारता।
सज्जन सदा रहते विनयनत, ब्रह्म ज्ञानी जो रहें।
निज हानि पर भी कृपारत रहते, नहीं कछु कटु कहें।।
श्री राम नाम उदार, पावन, वेद, श्रुति का सार है।
कल्याण कर, सब अशुभ नाशक, उमा शिव हित हार है।
रचना वही है श्रेष्ठ, जिसमें राम का गुण गान हो।
रस, भाव, अर्थ, अलंकरण का योग हो, या अभाव हो।।
हो लाख अवगुण काव्य में, यदि राम भाव प्रबल रहे।
तब धूम्र-अगर प्रसंग जिमि, रचना सुघर सज्जन कहें।
शोभा तभी है काव्य की, जब जग विचार, प्रचार हो।
आदर्श का हो ग्रहण, निहित समष्टि का कल्याण हो।।
कवि भी वही है श्रेष्ठ, जो हो गर्व रहित, विनत सदा।
प्रभु कृपा व्यष्टि समष्टि सब निज कर्म निरत रहे सदा।
सब देव वेद, पुराण कहते, नेति नेति जिसे सदा।
कोई न पाता पार, हिय न अघात, सुयश सुनत मुदा।।
श्री राम की प्रभुता अनन्त, अकथ्य है सब जानते।
निज शक्ति रूप तथापि सब गुणगान का सुख मानते।
हर जीव को निज शक्ति भर, प्रभु सुयश गाना चाहिए।
निज भजन के सुप्रभाव से, भवसिंधु तरना चाहिए।।
प्रभु एक, अज, अव्यक्त, रूप रहित, अनीह, अनाम हैं।
सच्चिदानन्द, परधाम, व्यापक, विश्वरूप महान हैं।
वह ईश ही निज रुचिनुकूल, अनेक रूप धरे स्वयं।
निज दास हित, वह प्रणत पाल, कृपालु चरित करे स्वयं।।
जिस पर कृपा करते प्रभो, नहि क्रोध का फिर नाम लें।
प्रभु सरल, सबल, कृपालु, सतत् सहाय, यदि कर थाम लें।
इस हेतु ही बुध जन सदा, वर्णन करें यश राम का।
जो शुचि करें वाणी तथा, कर दें सुलभ फल मोक्ष का।।
भगवत कृपा बल भक्त जो, भगवान को भजते सदा।
मुनि सुर अगम ते नर करें, भव सिंधु पार बिना व्यथा।
मुनि, कवि, सुजन तिहुँ काल के, स्वीकार सबहिं प्रणाम हो।
आशीष से जिनके कवित का साधु घर सम्मान हो।।
विद्वत समाज न आदरित होती सो कविता, व्यर्थ है।
सब व्यर्थ श्रम, वह मूढ़ कवि, रचना स्वयं बिनु अर्थ है।
सम्पत्ति, कविता, कीर्ति वह ही श्रेष्ठ, जो जगहित करे।
सुरसरि समान समष्टि हित, बिनु हेतु, बिनु माँगे करे।।
आदरित कवित सदा सरल, जिसमें सुयश निर्मल रहे।
जिसको सराहें शत्रु भी, निज सहज वैर विसार के।
जब तक न हो शुचि बुद्धि, ऐसी भनिति सम्भव है नहीं।
सम्भव हो तब, प्रभु कृपा जब, आशीष सज्जन का तभी।।
वन्दन करूँ मैं वेद चारो, जगतसिंधु जहाज जो।
रघुनाथ निर्मल सुयश वर्णत जिनहिं स्वप्न न खेद हो।
ब्रह्मा चरण रज करूँ वन्दन, रचे जो भव सिंधु को।
शुभ-अशुभ वस्तु अनेक प्रगटे, मम नमन उस देव को।।
सब देव ग्रह, भू-देव, पण्डित, बुद्ध जन वन्दन करूँ।
हर्षित सभी वर दे मुझे, जिस भाँति इष्ट सुफल करूँ।
पुनि शारदा, सुर सरित वन्दउँ, जुगल शुचि, सुन्दर चरित।
नाशक सकल अज्ञान अघ, सद्ज्ञान सुयश बरें त्वरित।।
गुरु मातु पितु जिमि जानि शम्भु भवानि कोटि नमन करूँ।
श्रीराम सेवक स्वामि सुहृद, सुदानि पद आनन धरूँ।
कलिकाल जगहित हेतु, साबर मंत्र है जिसने रचा।
अनमेल, अजप, न अर्थ, पर, सुप्रभाव है भगवत कृपा।।
वे ही उमापति शम्भु, होहिं कृपालु, मंगल मूल जो।
जिनकी कृपा कलिपाप नाशक, भक्तिप्रद, मम काव्य हो।
यदि स्वप्न में भी उमा-शिव मुझ पर प्रसन्न रहें कभी।
जो कुछ कहा जो उर रहा, अभिलाष होवे सच सभी।।
वन्दन करूँ पुनि अवध पुर, पावन सरजु तट पाप हर।
प्रणवउँ सकल नर-नारि, ममता राम की अति जिनहि पर।
श्रीराम जिसने जानकी निन्दक सकल अघ हर लिया।
करि शोक रहित, कृपालु, जिनहि सुवास निज लोकहि दिया।।
वन्दन करूँ पुनि मातु कौशल्या, जननि श्री राम की।
सद््कीर्ति जिनकी प्रगट चहुँ दिशि, दनुज-रात्रि-कृषानु सी।
मन, वचन, कर्म, प्रणाम दशरथ, भ्रात संग पितु राम जो।
जिन्ह रचि बड़ाई ब्रह्म पाई, जनक जननि कृपालु हों।।
पुनि अवधपति दशरथ नमन, जो सत्य सेवक राम के।
विछुरत तजेउ तन तृण सदृश, जिमि मीन तज विन पानि के।
पुनि जनक प्रणवउं कुल सहित, जेहिं प्रेम अति श्री राम पर।
जो योग भोगहिं गुप्त गूढ़ सनेह, प्रगटे दरश पर।।
श्री भरत प्रथम प्रणाम, जिनका नेम, व्रत को कहि सके।
मन भृंग जिनका राम पद पंकज, प्रभाव न तजि सके।
प्रणवउं लखन पद कंज पुनि, शीतल, सुभग, सुखधाम जो।
श्रीराम कीर्ति निशान दण्ड समान, भयउ सुजान को।।
जो शेष, जग कारण, प्रगट भव, भूमि, धारक गुण सदन।
वे सुमित्रा सुत, सदा रह अनुकूल, मोहि पर, अघ भवन।
शत्रुघ्न पद पंकज नमउ, अनुगामि संतत भरत के।
पुनि पवन सुत प्रणवउं, अघात न राम मन जिन्ह सुयश से।।
हनुमान जो खलबन कृषानु समान, गुणनिधि, ज्ञान घन।
जिनके हृदय में वसत सतत् श्रीराम, सहित निशान, सर।
सुग्रीव, अंगद, जामवन्त, नमन विभीषण कीस सब।
जिनको अधम तन में मिला, दुर्लभ परम श्रीराम पद।।
प्रणवउं सकल खग, मृग, सुरासुर, नर सुसेवक राम के।
निष्काम भाव भजहिं सदा भगवान को, तजि मोह जे।
शुकदेव, सनकादिक, महामुनि, नारदादिक भक्त जे।
प्रणवउं सबहि विज्ञान घन, साष्टांग, होहिं कृपालु ते।।
पुनि राम प्रिय पत्नी सिया पद कमल युग वन्दन करूँ।
जिनकी कृपा शुभमति मिले, जग जननि पद आनन धरूँ।
मन, वचन, कर्म सहित धनुर्धर भक्त रक्षक राम को।
मम नमन बारम्बार करुणासिंधु राजिव नयन जो।।
पुनि राम सीता पद कमल, वन्दन करूँ तजि मोह मद।
जो प्रणतपाल, कृपालु भिन्न, अभिन्न पर, जिमि जल-जलद।
श्री राम जो साक्षात् ब्रह्म, हैं शक्ति जिनकी जानकी।
मुझ पर सदा हों कृपालु, परम दयालु, भक्तन्ह, पातकी।।
अब राम नाम महात्म्य वर्णन करउं, लखि रुचि राम की।
जो मंत्र उपमा रहित, गुण आगार, ब्रह्म, त्रिदेव सी।
शिव मुक्ति दें जप मंत्र जो, काशी मृतक उपदेश से।
महिमा प्रगट, गणपति प्रथम पूजित जिस नाम प्रताप से।।
जप मंत्र जो, उपदेश निज, शिव मुक्ति दें काशी मृतक।
पूजित प्रथम होते गणेश, उस नाम की महिमा प्रगट।
करि जाप उलटा वाल्मीकि हुए पवित्र सुनाम से।
पति संग जपे नित नाम गौरी, शम्भु वचन प्रताप से।।
जिस राम नाम प्रताप से शिव कालकूट अमिय किये।
जिस नाम में लख प्रीति, शंकर उमहिं अर्धांगिनि किये।
दो वर्ण, जिमि दो नयन, जीवन भक्त, जीव सुखद सदा।
इह लोक औ परलोक साधक, कहत सुनत गुनत सुधा।।
दोउ नाम अक्षर भिन्न पर,वे जीव-ब्रह्म समान है।
श्रीराम लक्ष्मण रूप, भगतहिं कल्प तरु जिमि, नाम है।
नर और नारायण समान, सुनाम जग पालक सदा।
सद््बुद्धि से जब प्रीति उपजे नाम, रामहि की कृपा।।
बिनु वस्तु के जिमि बुद्धि में, प्रगटित हो वस्तु स्वनाम से।
प्रभु प्रगट तिमि मन पटल, सुमिरत भक्त जब प्रभु नाम ले।
है नाम रूप अवर्णनीय न छोट बड़ नहिं ज्ञात है।
निर्गुण, सगुण बिच नाम साक्षी, ज्ञानदीप यथार्थ है।।
जिस नाम जप से वाह्य अन्तर, अन्धकार विनाश हो।
मुनि, योगि, ब्रह्म-प्रपंच से हो परे, आत्म प्रकाश हो।
जिज्ञासु जाने गूढ़तम महिमा, जपें जब नाम को।
अर्जित करें सब सिद्धि ऋधि, पावें अगोचर राम को।।
जग चार भक्त प्रकार आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी, अर्थार्थी।
है नाम ही आधार जाने सब चतुर, भव पारखी।
जब आर्त भाव भजन करे, सब भक्त विपदायें मिटे।
जिज्ञासु जाने ईश को, भव मोह तम सर्वस हटे।।
जिस भाव से कर भजन ज्ञानी तत्त्व प्रभु का जानते।
अर्थार्थी गा प्रभु सुयश, सुख, सम्पदा अनुहारते।
सब भक्त प्रिय भगवान को, ज्ञानी परन्तु विशेष प्रिय।
जो तत्व प्रभु का जानकर, बिनु हेतु रखते राम हिय।।
सब काल, सब दिशि, सब अवस्था, राम नाम प्रभाव है।
कलियुग परन्तु विशेषकर, बस नाम एक उपाय है।
सब कामना से रहित हो, जो राम का करते भजन।
पाते परम पद प्रभु कृपा, जन इष्ट जो सुर, मुनि, अगम।।
निर्गुण, सगुण दो ब्रह्म रूप, अनूप, अकथ अनादि है।
है नाम श्रेष्ठ स्वरूप से, बस जासु बल, दोउ वाद है।
विश्वास कर जो प्रेम से, भगवान का सुमिरन करें।
प्रभु कृपा प्रगटित तत्त्व सब, बिनु हेतु भव सागर तरें।।
यह नाम, रूप यथार्थ महिमा, प्रभाव रहस्य सब।
प्रगटित स्वयं होता, भजन भगवान का करें भक्त जब।
निर्गुण, सगुण दोउ से प्रभावी, राम नाम उदार है।
अनुभवित, वर्णित कल्प प्रति, सब वेद श्रुति का सार है।।
सेवक बिना श्रम मोह दल जीतें प्रबल, प्रभु की कृपा।
स्वप्नउ न िंचता व्याप्त तेहिं, जीवन बितावें सुख प्रदा।
सब पुन्य कर फल एक, केवल राम में शुचि प्रेम हो।
यह मात्र साध्य, समस्त साधन, यज्ञ, जप, तप, नेम जो।।
था प्राप्त होता परम फल, सतयुग, कठिन मख ध्यान से।
सामान्य जनहिं असाध्य त्रेता, पथ जपादिक ज्ञान से।
द्वापर विधान प्रमाण पूजन, शास्त्र विधि कर भक्त जब।
पावे परम पद प्रभु कृपा कोउ एक, कोटिक पुन्य तब।।
जड़ जीव मोह भुलान कलि, नहिं आचरण शुचि कर सके।
नहिं पाप मन बिलगान, ध्यान, न यज्ञ, पूजन बन सके।
कलिकाल ऐसे कल्प तरु जिमि, नाम एक अधार है।
जेहिं बस सकल इह लोक औ परलोक का सुख सार है।।
बस राम नाम अधार कलि, नहिं कर्म, भक्ति, न ज्ञान है।
जेहि भाव चाहे भजन हो, सब सुफल, सत्य न आन है।
पहचान कर वाणी विनय, मति, भक्ति, स्वामी जानते।
यह नीति, तेहि अनुसार, सब सेवक यथा सम्मानते।।
सर्वज्ञ श्री भगवान भगतन्ह, भाव लखि रीझें सदा।
अनुरूप प्रीति, करें कृपा निश्चय, न होता अन्यथा।
ब्रह्माण्ड में नहिं कोउ अन्य है, शीलनिधि श्रीराम सा।
जो भूल जाते पाप भक्त के, याद रखते पुन्य का।।
श्री राम यश वर्णन श्रवण से, पाप कलियुग के मिटें।
हो मोह भ्रम सब दूर, प्रतिपल राम में शुचि लव लगे।
है राम प्रभु की रीति नीति पुनीत सब निर्वाहते।
कहते तभी सब गूढ़ मत, सद्पात्र जप पहचानते।।
प्रभु प्रीति उपजै तबहिं जब, श्री राम की होवे कृपा।
अज्ञान-भ्रम, संदेह-नाशक, प्रीति जग-सरि नाव सा।
श्री राम यश, विश्राम औ आनन्द दायक सर्वदा।
सब पाप नाशक, तत्व बोधक, पूर्ण फलप्रद कलि सदा।।
यह नरक नाशक, देवकुल रक्षक, कृपा कर संत-दल।
संसार धारक, मुक्तिप्रद, दायक सकल रिद्धि-सिद्धि-फल।
श्री राम में दे अचल भक्ति अटूट प्रेम लुभावनी।
धन-धर्म-धाम परम मिले, जग रोग सकल नशावनी।।
सद््ज्ञान, योग, विराग हित, यह कथा सद्गुरु रूप है।
सब धर्म, व्रत, यम, नियम हित, जिमि बीज प्रिय पितु मातु है।
नाशक सकल संताप, पाप, विशोक हारक हरि कथा।
विश्वास करि जो सुनहि गावहिं, न व्याप्त भव व्यापित व्यथा।।
इह लोक और परलोक पालक, लोभ-उदधि अगस्त्य सा।
मन शत्रु जो कामादि तेहि संहार हित, शिशु सिंह सा।
दारिद्र - दावानल - दमनकारक, सघन - घन - कामना।
जिमि मंत्र मणिवर विष विनाशक, विषय अहि माया जना।।
प्रारब्ध मंद मिटें कठिन, विधि लिखित अमिट ललाट जो।
सेवक सुपालन, तम निवारण, मोह का अनयास हो।
अभिमत सकल सुख सिद्धि प्रदायक, भक्त जीवन सम्पदा।
छल रहित हित, जिमि संत शुचि, मन हेतु गंग तरंग सा।।
श्री राम गुण सब अग्नि जिमि, दाहक सकल कलि दम्भ, छल।
पाखण्ड कुपथ, कुतर्क, कुबुद्धि, कुचाल ईधन, जिमि अनल।
श्रीराम यश शशि पूर्ण, सब सुख हेतु यद्यपि, जीव सब।
सज्जन स्वरूप कुमुद-चकोर विशेषकर यह, लाभप्रद।।
पहले कभी नहीं की श्रवण यह हरि कथा जिस जीव ने।
नहीं रंच भी आश्चर्य, संशय करें, वे पड़ मोह में।
यह हरि कथा निस्सीम, नाना भाँति प्रभु अवतार हैं।
शतकोटि रामायण, अनन्त चरित्र, अकथ्य अपार हैं।।
प्रतिकल्प में हरिचरित अनुपम, भाँति बहु मुनि गावही।
सुर, असुर, नर सब जीव, सादर सुनहि, गुनहि सुनावहीं।
श्री राम चरित अनन्त गुण निस्सीम, अमित कथा प्रभा।
आश्चर्य रन्च न करें शुचि रुचि प्राप्त जिन्ह, भगवत कृपा।।
शुचि चैत्र, शुक्ल, नवमी, को होता अवतार है श्री राम का।
यह वेद वाणी, तीर्थ सब बसते अयोध्या धाम जा।
प्रभु जन्म भूमि पवित्र, सुर, नर, असुर, मुनि जगजीव जे।
रचते महोत्सव, जन्म करते राम का गुणगान ते।।
शुचि नीर सरयू, स्नान, पान, दरश, परश सब पाप हर।
श्रुति वेद वाणी मोक्षप्रद महिमा अमित कल्याण कर।
यह पुरी सब रिद्धि-सिद्धि दायक, नाशकर कामादि का।
संशय निवारक, भक्ति दायक, धाम शुभ, फल इष्ट दा।।
सुनते ही श्री रामचरित मानस, शान्ति अनुपम प्राप्त हो।
मन विषम दावानल ग्रसित को, सुख-सुधा बरसात हो।
मुनि प्रिय सुहावनि शुचि कथा यह, शिव रचित सब पाप हर।
दु:ख दोष दारिद नाशकर, शुभ हेतु कलिहि विशेषकर।।
मन में रखे शिव रच इसे, इस हेतु ‘मानस’ नाम है।
सुखप्रद सुहावनि हरि कथा, आदरत जन निष्काम है।
सद््बुद्धि उपजे शिव कथा, श्रीराम पद तब प्रीति हो।
अपभ्रंश भाव भनित शुभम्, शिव सत्य जो सद््चित्त हो।।
जब सिंधु वेद पुराण से, शुचि साधु-सन्त-जलद बने।
श्रीराम यश बरसा मनोहर, मधुर मंगलमय करें।
सद््बुद्धि-धरती-सात्विकी की, प्यास चरित से शान्त हो।
गह्वर हृदय यश-जल भरे, हो तृप्ति मन को, क्लांत जो।।
श्रीराम यश विस्तार निर्मलता करे मल नाश जो।
वह प्रेम-भक्ति अकथ्य शीतल, मधुर, परम सुस्वादु सो।
सद््कर्म-धानहि राम यश हितकर भगत जीवन स्वयं।
कल्याण कर सब सिद्ध दायक मोक्षप्रद आनन्द मयं।।
श्री राम चरित अथाह देखत ज्ञान नयन प्रसन्न मन।
निगुर्ण, सगुण दो एक आत्मापुरुष संग सब भेद बिन।
सद््कर्म-भ्रमर सदा रहें लवलीन भाव-पराग पर।
कामादि ज्ञान-विज्ञान जप-तप योग रस कहुँ सुयश घर।।
जल-विहग सम, सब सन्त, साधु, सदा सुयश-सर-तट रहें।
अमराई जिमि श्रद्धा निरत जन, शान्ति सन्त सभा लहें।
श्री राम सुयश सरोवरहिं जब, भक्त मन विश्राम ले।
हो भक्ति उद्भव, यम नियम निग्रह, मनेन्द्रिय तट तले।।
तब ज्ञान-फल उपजे तथा श्री हरिचरण में प्रेम हो।
उस ज्ञान-फल का प्रेम-रस पी भक्त स्वाद ले, तृप्त हो।
श्री राम सुयश कहत सुनत रोमांच सुखद सुपात्र को।
बह प्रेम-जल दोउ नयन ते, आदरत भक्त सभाव जो।।
श्रीराम सुयश न विषय रस वर्णन, जो खल कहुँ प्रिय लगे।
एहि कथा नहिं नियरात मन विषइन्ह कठिन भाषा लगे।
श्रीराम में हो प्रीति तब जब स्वयं प्रभु की हो कृपा।
सत्पंथ हो, सत्संग हो, गृह-कार्य-जाल न जो बँधा।।
मद, मोह, मान, न पंथ रोकें, विषम-वन बन व्यक्ति का।
शंका, कुतर्क, न सरित, गिरि, रोके सुपन्थ न लक्ष्य का।
श्रद्धा रहित नर, सन्तहीन, न प्रीति, बिन विश्वास जे।
तिनकहुँ अगम यह कथा, भक्ति रहित रहें भगवान के।।
बिन हरि कथा बहु विघ्न व्यापें, मार्ग में दुष्पात्र के।
नाशक त्रिपात कथा-कृपा, प्रभु-कन्ज-पद मन-भृंग जे।
श्रीराम चन्द्र कथा, यथा सरजू सुमंगल दायिनी।
कलि पाप नाशक, ताप नाशक, त्रिविध मन शुचि कारिणी।।
श्रोता तथा वक्ता सकल, पुन्यात्म पुरुष पुनीत जे।
जेहि कथा मन हर्षित पुलक तन, धन्य नर सदभक्त ते।
सोई काल सुखद, विनम्रतामय औ बड़प्पनयुक्त हो।
श्रीराम की महती कृपा जब, भक्त माया मुक्त हो।।
श्रीराम कृपा त्रिकाल सुखद, विनय बड़प्पन युक्त हो।
सब सिद्धप्रद, फल, मोक्ष कर, जब्ा भक्त माया मुक्त हो।
श्रवणत कथा, गुण करत, आशा-प्यास मन-मल दूर हो।
कलि-पाप-ग्लानि नशात, रामहि प्रेम पावन पुष्ट हो।।
संसार आवागमन श्रम हो दूर, तुष्टि, सन्तोष हो।
सब पाप ताप, दरिद्रता, दु:ख दोष, शमन अभीष्ट हो।
कामादि माया नष्ट, निर्मल ज्ञान संग वैराग्य हो।
मन-पाप सकल नशात, जो येहि आदरत शुचि कथ्य को।।
जो राम सुयश न हृदय राखत ठगित ते कलि काल में।
ते दु:िखत विषम जंजाल पँâसि, जिमि मृग तृषित मृग-वारि में।
सज्जन सदा शुभकार्य के आरम्भ में वन्दन करें।
धरि राम-पद-पंकज हृदय, निज इष्ट मार्ग गमन करें।।
जिन्ह राम पद हो प्रीति अति, तपसी जितेन्द्रिय चतुर जो।
निग्रहित चित्त, दया-जलधि, परमार्थ पथिक मुनीष सो।
यह नीति सन्त कहें तथा श्रुति वेद मुनि नित गावहीं।
नहिं होई उर शुचि ज्ञान तेंहि, गुरुसन जो सत्य दुरावहीं।।
श्रीराम नाम प्रभाव अति, श्रुति सन्त वेद प्रमाण है।
जपि शम्भु जेहिं बल मोक्ष देते, मृतक काशी धाम हैं।
रघुनाथ कथा विचित्र अति ज्ञानी चतुर जन जानते।
मतिमन्द जे, बस मोह के, सब अन्यथा करि मानते।।
नारी जगत का सत्य यह प्रगटित स्वभाव विशेष है।
सन्देह जब उपजे, न विनसे शीघ्र, पातीं क्लेश है।
जो जानकर, अज्ञान निज, संज्ञान संग, छल रत रहें।
करती दुराव, स्वभाव बस, पग असत् पथ, बरबस धरे।
विधि करहि जब जेहिं रीति, मति, गुण कर्म, सब तेहि रीति हो।
रुचि राम की बस सर्वोपरि, सब तर्क कारण व्यर्थ हो।
सज्जन सदा दुष्काल में भगवान का सुमिरन करें।
बिनु हेतु राम सुस्वामि, सेवक कृपा करि, सद्पथ धरें।।
नहि कोउ अस जग माहिं, प्रभुता प्राप्त कर जेहिं मद न हों।
अधिकार बड़, अभिमान जड़, यह सत्य विरले सुजन जो।
गृह मित्र, स्वामी, गुरु, पिता बिन नेवत जाना चाहिए।
यद्यपि तदपि जहँ हो विरोध न पाँव धरना चाहिए।।
यह नीति रहत न शील स्नेह न मान मर्यादा तहाँ।
मन क्लेश पाता विपति वाधा बहुत मिलती है वहाँ।
यद्यपि जगत दारुण विपति के, विपुल वर्ग प्रमाण हैं।
पर जातिगत अपमान सम दु:ख कठिन, सृष्टि न आन है।।
जिस काल भी जिस भूमि में सज्जन जनमते हैं जहाँ।
तेहिं रूप पुन्य प्रभाव प्रगटित फलित होता है वहाँ।
सब जीव जनित स्वभाव वैर तजै परस्पर प्रीति हो।
जग-जीव सब सतपथ चलें नहिं लेश मात्र अनीति हो।।
कन्या वही है श्रेष्ठ जो सुन्दर सुशील सुजान हो।
सम्पन्न सद््गुण से तथा पति हित भवानि समान हो।
नहिं सृष्टि मह कोउ जीव जो, विधि लेख भाल मिटा सके।
प्रभु प्रेरणा प्रारब्ध फल पर शम्भु मात्र हटा सकें।।
यह नीति दोष समर्थ के गुणसम गिने जाते सदा।
हरि शेष-शय्या, भानु-रस, शुभ-अशुभ जल गंगा यथा।
यह नीति मात्र समर्थ हित, ईश्वर समान स्वतंत्र जो।
अभिमान बस जड़ जीव करते होड़ पाते नरक को।।
हों गुण अधिक पर दोष कम, नहिं दोष का परिमाण है।
गुण कम अगर हों दोष अधिक, तो दोष दोष लखात है।
मदिरा में गंगा जल मिले, तब भी न पीते संत हैं।
वारुणि वहीं यदि मिले सुरसरि, शुचि, चढ़त सुर शीश है।।
यह तथ्य सत्य प्रमाण ईश्वर जीव भेद तमाम है।
नही रंच, तर्क-वितर्क कारण, शठ करत अभिमान है।
सामान्य जन प्रभु की कृपा, जब गुणी पुन्य प्रभाव हो।
सब दोष सहज नशात, काग-भुसुण्डि शुचि तब काक हो।।
आराधना शिव की कठिन यद्यपि, न किन्तु असाध्य है।
सन्तुष्ट होते शीघ्र तप से शम्भु, पुरवत आश है।
वरदान दायक, दु:ख विनाशक, शम्भु सेवक के सदा।
शिव कृपा सिंधु प्रसन्न मन, तारक शरण गत सर्वदा।।
शिव के बिना आराधना, वांछित कभी मिलता नहीं।
जप, योग कोटि करे कोई, निज लक्ष्य पाता है नहीं।
संकट में शिव भगवान का, बस भजन करना चाहिए।
कल्याण करते प्रभु सदा, उन्हें स्मरण करना चाहिए।।
हैं निष्कलंक मयंक धर शिव, गुण उदधि कल्याण कर।
तप बल महेश प्रसन्न हों, तब नाश हो सब क्लेश कर।
सुखप्रद सदा, तप दु:ख विनाशक, दोष दारिद दूर कर।
अज सृष्टि रच, हरि पाल जग, संहार कर शिव जासु बल।।
महि भार शेष धरत सदा तप बल न कुछ आश्चर्य है।
आधार तप के सृष्टि सब गोचर-अगोचर धर्म है।
सेवक करे तप भक्ति से जब, प्रेम नित नव प्रगट हो।
सुधि देंह की विसरे तथा, सुख-दु:ख विकार अदृश्य हों।।
शिव चिदानन्द विगत महा मद मोह, काम, निकाम हैं।
हरि हिय धरत, वरणत सुयश, सेवक सदा सुख धाम हैं।
यम नियम से अति प्रेम उपजे, ईश में अनुपम महा।
जब प्रणतपाल कृपालु प्रभु, गुणशील निधि करते कृपा।।
यह धर्म सेवक का, न स्वामी बात को टाले कभी।
अनुचित उचित का तर्क तज, उपदेश सिर धारे सभी।
पितु-मातु, गुरु, स्वामी, वचन शुभ मान करना चाहिए।
उपदेश पालन अहित कर, तब भी न डरना चाहिए।।
श्री विष्णु शुचि सुन्दर, सुशील, सुखद सकल गुण राशि हैं।
दूषण रहित, श्रीपति सुयश, श्रुति, वेद गावत जासु हैं।
निज जनक गुण-अवगुणन कर, सन्ततिहिं पड़त प्रभाव है।
जिमि कनक उद्भित उपल से, जारेहु न तजत स्वभाव है।।
गुरु वचन जेहि न प्रतीति सपनेहुँ, सिद्धि, सुख नहिं सुलभ तेहिं।
नहिं हानि, लाभ विचार शिष्य, सुसत्य गुरु प्रभु स्वयं जेहिं।
गुण-कर्म-वंश स्वभाव से, यद्यपि प्रभावित जीव है।
प्रारब्ध बस सब करत तस, जस चहत करुणासींव हैं।।
जिस पर रमें मन, ताहिं सन बस, तेहिं केवल काम है।
जीवन नशात पतंग कर पर, तज न दीप ललाम है।
संकल्प लेकर एक बार, न फिर बदलना चाहिए।
गुण दोष या क्षति लाभ लख, निश्चय न तजना चाहिए।।
कौतुव्ाâ निरत जे लोग, तिन्ह आलस्य होता है नहीं।
इस द्वार या उस द्वार, बद्ध स्वभाव क्रीड़ारत कहीं।
क्षति लाभ तजि निज लक्ष्य हित बस कर्म करना चाहिए।
कर्मठ सहायक ईश निश्चय, धैर्य धरना चाहिए।।
नहिं धर्म पर उपकार सम, श्रुति वेद कहहिं पुकार के।
परहित तजहिं जो देंह, सन्तत सन्त तािंह प्रसंसते।
शिव का जो करहिं विरोध, उनका होत निश्चय अहित है।
भावानुरूप विरोध प्रतिफल, ध्रुव मरण तक निहित हैं।।
जब होत काम प्रभाव का विस्तार, श्रुति पथ सब तजें।
तेहिं बस सकल चर-अचर, संयम, ब्रह्मचर्य, नियम भगें।
धीरज, धरम, विज्ञान, ज्ञान, न व्रत, विराग रहें कहीं।
नहि सदाचार, न जीव कोउ, मरजाद जेउ तजे नहीं।।
सुर, असुर, नर, किन्नर, वेताल, विशाच, प्रेत, अहि भूत जो।
हैं काम वश ये सर्वदा, तिन्ह दशा वर्णन करइ को।
जड़ जाति सब जब काम व्याकुल, काल भेद भुलावही।
जलचर, गगनचर तथा थलचर काम पथ अपनावहीं।।
जब सिद्ध, मुनि, योगी, विरक्त, तपी सभी बस काम के।
कामान्ध नरगति को कहे पामर न हिय कछु कान जे।
कामान्ध जड़-चेतन, सकल जब काम-कौतुक करत है।
रक्षहिं जिन्हहिं रघुवीर तजि तेंहि, धीर काहु न धरत है।।
शिव दुराधर्ष कठिन परम, करते पराजित ताहिं हैं।
दुरगम भयंकर रुद्र रूप, धरत न समता ताहिं है।
भगवान शंकर स्वयं ईश्वर, मोह माया मुक्त हैं।
ऐश्वर्य, धर्म, विराग, यश, श्री, ज्ञान, षड्गुण युक्त हैं।।
शिव आशुतोष कृपालु, शीघ्र प्रसन्न हो करते कृपा।
यह प्रभुन्ह सहज स्वभाव, प्रथमहिं दण्ड, पुनि करते कृपा।
शिव अज अनिन्द्य, अकाम, योगी, भोगहीन प्रगट सदा।
मन, वचन, कर्म, सप्रेम, सेवा, बस मनोरथ सर्वदा।।
विपरीत गुण, गुण सहज नाशक प्रगट प्रकृति स्वभाव है।
जो अनल निकट तुषार शीतलता न करत प्रभाव है।
जिस भूमि में अवतार लें जगदम्ब वरणन को करे।
सम्पत्ति सुख सब रिद्धि-सिद्धि नवीन नित्य तहाँ बढ़े।।
विधि गति न कछु कहि जात, नीति, नियम न प्रगट विधान है।
सुख-दु:ख, वियोग-संयोग, सब क्षति-लाभ, अपयश-मान है।
फल कल्प तरु में चाहिए जो लगन, लगत बबूल में।
यद्यपि प्रगट प्रतिकूल विधिगति, तदपि शाश्वत मूल में।।
जिनके न माया, मोह, तिय, गृह, धन, उदासी रहें वे।
घर घाल पर बिन लाज डर, किमि प्रसव पीड़ा जान ते।
विधि लेख अमिट, अटल सदा विश्वास करना चाहिए।
परवश समुझ, नहिं दु:ख, विषाद, सन्तोष करना चाहिए।।
गौरी जगत जननी, भवानी, शम्भु अर्द्धाङ्गिनि सदा।
उत्पत्ति, पालन, प्रलय कारिणि, सत्य, अविनाशिनि प्रदा।
इच्छा स्वरूप धरत सदा, यद्यपि वे अज व अनादि हैं।
सब सुफल दात्री, शिव प्रिया, भवसिंधु हेतु जहाज हैं।।
तन-मन करे पति चरण सेवा, नारि धर्म न अन्य है।
तजि देव, सब फल सर्वप्रद, पति भक्ति नारि अनन्य है।
जिनके न शिव पद प्रीति, ते सपनेहु न राम सुहात हैं।
शिव चरण प्रेम विशुद्ध, निश्चय राम उनके हाथ हैं।।
श्री राम चरित अपार शारद शेष कोटि न कहि सके।
भगवान प्रेरित ज्ञान मति अनुरूप कछु सेवक कहें।
प्रभु सबहि निज माया नचावत, सूत्रधार समान हैं।
मन, वचन, कर्म नमन सतत् शतकोटि ताहि प्रणाम है।।
जब धर्म में हो प्रीति, तीरथ देव दर्शन सुलभ तब।
नास्तिकन्ह सपनेहु सुलभ नहि, सब वर्तमान यथास्ति जब।
शिव कुन्द इन्दु शरीर गौर, प्रलम्ब भुज पुनि परि धना।
तन भस्म, भूषण चन्द्र, अहि, पद तरुण अरुण कमल समा।।
लावण्य वारिधि, अङ्ग सुहावनि, शरद शशि नहिं पट तरे।
सिर जटा शोभित गङ्ग, पंकज नयन, मुनि मन तम हरे।
शोभित सुशान्त शरीर, नील सुकण्ठ त्रिभुवन नाथ का।
कामारि गौरी पति, त्रिपुर-आराति सर्व समर्थ का।।
चर-अचर सुर, मुनि, नाग, नर, असुरादि सेवा निरत सब।
कल्याणमय, सब कला गुण निधि, कल्प-तरु सम, शरण गत।
सब योग, ज्ञान, विराग, बारिधि, विश्वनाथ नमामि हे।
सुख राशि होहु प्रसन्न, सब निज दास, नाथ कृपालु हे।।
जिसका भवन सुर, तरु तले सम्भव न दारिद दु:ख कभी।
मति भ्रम हरहु सब भाँति नाथ नमामि शशिधर सुरसरी।
श्री राम ब्रह्म, अनादि, शेष, पुराण, श्रुति, नित गावहीं।
शिव स्वयं नित जेहिं जपत हैं, दिन रात पुनि न अघावहीं।।
सोइ राम अवध नृपति, कि अन्य अगुण, अगोचर, अज, कोई।
नृप तनय, सो किमि ब्रह्म, सुर-नर-मुनि सबहिं भ्रम होवई।
इच्छा रहित, अज, अगुण, व्यापक, ब्रह्म, सर्व, समर्थ जो।
मति भ्रमित क्योंकर तासु व्याकुल विरह में निज नारि क्यों।।
निर्गुण, सगुण का भेद होवे प्रकट जब नहिं मोह हो।
मन रमें राम कथा तथा अति आर्त सेवक विनत हो।
यह संत सरल स्वभाव आरत पात्र जहँ कहिं पावहीं।
श्री राम निर्मल सुयश सब गुण तत्व ताहिं सुनावहीं।।
त्रिभुवन गुरु त्रिपुरारि, वेद, पुराण नित्य बखानहीं।
छल-छद्म युत तन, कलुष मन, ते जीव, भेद न पावहीं।
गुरु, संत सरल स्वभाव, सुमिरत राम तन अति पुलक हो।
प्रेमाश्रु पूरित नेत्र, परमानन्द मन, अति हरष हो।।
जाने बिना जिनके सदा ही, असत् सत्य प्रतीत हो।
जैसे बिना पहिचान भ्रम वश, सर्प समुझत रज्जु को।
जिमि स्वप्न भ्रम हो दूर जागत, भाँति तेहि जग लुप्त हो।
जब ईश का हो ज्ञान, वन्दउ बाल वय तेहि राम को।।
जिस नाम जप से सिद्धियां सब सहज होती प्राप्त हैं।
सोइ राम, मंगल धाम, करेहु कृपा, जो हरि उर व्याप्त है।
गिरिराज सुता समान उपकारी न जग कोउ अन्य है।
हित हेतु जग प्रगटेउ सुयश रघुनाथ, देवि सुधन्य है।।
नहिं स्वप्न भी भ्रम, शोक, मोह संदेह होता तेहिं कभी।
रघुवर कृपा सब पूर्व मोह विनष्ट शुचि मन बच सभी।
जिसने सुनी नहीं हरि कथा, अहि भवन सम हैं श्रवण तिन्ह।
हैं मोर पंख समान लोचन, संत दर्शन किन्ह न जिन्ह।।
तुम्बी समानतेसिर, जे नमत न, विनय रत, हरि गुरु चरण।
भगवान भक्ति न हृदय जिनके, जियत ते सब शवन सम।
जिह्वा सो दादुर जीभ सम, रघुनाथ सुयश न जो कहे।
हिय कुलिष सम निष्ठुर, कठोर, न हरष जेहि प्रभु यश सुने।।
श्रीराम लीला सुरन्ह कर कल्याण असुर विमोहहीं।
यश कामधेनु समान, सेवा सुखद सब फल दायिनी।
यश हाथ ताली सम, सुनत संशय विहङ्ग उड़ात हैं।
कलि विटप हेतु कुठार जिमि, श्री राम यश शुचि हाथ है।।
श्रुति वेद गावें राम यश, गुण, नाम, कर्म अनन्त हैं।
गुण, कथा, कीरति अमित तिमि, जिमि राम स्वयं अनन्त हैं।
लखि प्रीति संत स्वभाव वश, जस सुने तस वर्णन करें।
श्रुति वेद सम्मत, सुखद सुन्दर, राम यश निज मति कहें।।
मुनि ध्यान धरत जो राम, सो कोई अन्य, जेहिं श्रुति गावहीं।
अस कहहि, सुनहि ते अधम नर, जो झूठ सत्य न जानहीं।
बस मोह के पाखण्ड युत हरि-पद विमुख नर अस कहें।
अज्ञान अंध, जे भाग्य रहित, छली, कुटिल, लम्पट रहें।।
सपनहुँ न संत-समाज दर्शन कीन्ह, हिय दर्पण मलिन।
क्षति लाभ सूझत जिन्हहिं नहिं, ते नयन, श्रवण सुवदन बिन।
निर्गुण, सगुण न विवेक जिन्ह कहुँ बकहि कल्पित बचन जे।
माया विवश जग भ्रमत, तिन्हहि न कछु असम्भव, अज्ञ ते।।
जे वायु रोग ग्रसित, विवश भूतादि मद रस मस्त जे।
नहिं वचन कहहि विचार, संत न तिन्ह वचन पर कान दे।
अज्ञानरत अस मूढ़ सब, नित श्रुति असम्मत पथ लहें।
बस मोह, वेद विरुद्ध वचन कहत, सुनत, भव जल बहें।।
अस जानि जे सज्ञान, तजि संशय भजहिं भगवान को।
भ्रम-तम विनाशक रामयश, कहि, सुनि तजहि भव बन्ध सो।
नहिं सगुण-निर्गुण भेद कछु, मुनि, वेद, पण्डित अस कहें।
निर्गुण जो अलख अरूप, अज,होइ सगुण सोइ भक्तन चहे।।
हिम जल विलग पर दोउ जल, तिमि सगुण अगुण में भेद है।
निज भक्त प्रेम विवश, बनत निर्गुण सगुण दोउ एक है।
जो भानु सम भ्रम-तम विनाशक, मोह किमि तेहि ईश को।
सच्चिदानन्द दिनेश जो, कहँ तम तहाँ लवलेश को।।
जो नित्य ज्ञान स्वरूप, षड्-ऐश्वर्य युत भगवान है।
अज्ञान रात्रि न होत जहँ, तहँ पुनि किमि विज्ञान विहान है।
सब जीव माया मोह बस, अनुरक्त निज-निज कर्म हैं।
अभिमान अहमिति शोक, आदिक, जीव के सब धर्म हैं।।
श्रीराम व्यापक ब्रह्म, परमानन्द मय श्रुति पुरुष हैं।
जग जीव माया स्वामि सोइ, प्रगटित विभिन्न स्वरूप हैं।
भ्रमजाल पँâसि जड़ जीव सब, प्रभु अन्यथा करि मानते।
अज्ञान वश रवि जलद लखि, घन भानु ढक अनुमानते।।
नभ सम सदा निर्लेप, निर्मल नित्य प्रभु श्रीराम हैं।
माया सुस्वामी जग प्रकाशक ज्ञान गुण के धाम हैं।
होकर प्रभावित मोह के, जिसके सकल जग जानता।
यद्यपि असत्य समस्त जड़ माया, तदपि सच मानता।।
इस स्रृष्टि के सब विषय, इन्द्रिय, देव, जीव समस्त जो।
क्रमगत प्रकाशक एक एकहि, सब प्रकाशक ईश सो।
हैं विषय इन्द्रिन्ह से प्रकाशित, इन्द्रिन्ह प्रकाशक देवता।
क्रमश: प्रकाशित एक एक से, सत्य ज्ञानी जानता।।
ज्यों विषय इन्द्रिन्ह से प्रकाशित, इन्द्रिन्ह प्रकाशक देव हैं।
सुर स्वयं सुरवर से प्रकाशित, सबकर प्रकाशक एक है।
जिनसे प्रकाशित सकल सो प्रभु, अज अनादि अवेश है।
माया पती सोइ ब्रह्म, भक्त हितार्थ अवध नरेश है।।
जिमि सीप रजत समान, रवि-कर-रश्मि, जल जिमि लगत ज्यों।
यद्यपि मृषा तिहुँ काल भ्रम, तिमि ईश माया जान लो।
येहि भाँति यह संसार है, आश्रित सदा भगवान के।
यद्यपि असत्य जगत, दु:खद पर, स्वप्न हानि समान ते।।
बिनु जागरण जिमि स्वप्न दु:ख, नहीं दूर हो तिमि जग कथा।
जग जीव माया नींद सोवत, सहत नाना सुख, व्यथा।
नहिं सुख न दु:ख सब मोह माया, स्वप्न ग्रसित जगत सभी।
भगवत कृपा तम मिटे जागत, सम सुखद हो भ्रम तभी।।
जिसकी कृपा भ्रम-तम मिटे, भगवान परम कृपालु सो।
यद्यपि अनादि, अनीह, अज, श्रुति गाव यश अनुमान सो।
है ब्रह्म, पद, कर, कान, आनन, बाणि, घ्राणि, नयन बिना।
तनहीन पर कर कर्म सब, अद्भुत अलौकिक अनगिना।।
सम्भव न वर्णन जासु यश, मति रूप श्रुति, बुद्ध गावहीं।
दशरथ सुवन सोइ राम, भक्त कृपालु मुनि जेहिं ध्यावहीं।
सोई राम शिव मानस मराल, सकल चराचर स्वामि हैं।
सब पाप नाशक जन्म बहु, बिवसहु जपत जिसु नाम हैं।।
सुमिरन करें सादर जो नर, बिनु श्रम जलधि भव पार हों।
अस राम संशय करत तेहिं कर, ज्ञान, गुण बेकार हों।
प्रभु, गुरु-कृपा जब भ्रम मिटे, तब सब कुतर्क विनष्ट हों।
हो प्रीति रघुपति पद कमल, निश्चय सुफल सब ईष्ट हों।।
हो सत्य का सद्ज्ञान, संशय सकल स्वयं नशात है।
जब राम चिन्मय ब्रह्म अविनाशी करत निज दास हैं।
श्रीराम का अवतार परम पवित्र पाप विनाशका।
गुण, नाम, रूप, चरित्र अगणित, अमित पार न पा सका।।
श्रुति, संत, बुध, निज मतिनुसार, कहहिं चरित्र बखानि के।
विश्वास कर गावहिं सुनहिं, श्रद्धा सहित सज्ञान जे।
भगवान का अवतार हो जिस हेतु, नहि कोउ कह सके।
बस एक होत अनेक ज्ञान अज्ञान हेतु को गुनि सके।।
सम्भव नहीं मन बुद्धि वाणी, तर्कना श्रीराम की।
श्रुति संत मुनि आगम, तदपि वर्णहिं सुयश निज-निज मती।
जब-जब हो धर्म का ह्रास, जब मति मन्द असुर अधम बढ़ें।
अन्याय अमित करहिं अकथ, जो विप्र सुर भू कष्ट दें।।
तब-तब धरहिं प्रभु विविध रूप, हरहिं सदा सज्जन व्यथा।
हति असुर, थापहिं सुरन्ह, रक्षहिं धर्म, व्यापइ जग कथा।
यश गाइ सोइ सब भक्त, भव सागर तरहिं बिन यत्न के।
प्रभु कृपा सिन्धु, धरहिं विभिन्न स्वरूप, हित निज भक्त के।।
श्रीराम जन्म अनेक कारण एक से बढ़ एक हैं।
भक्तन हितार्थ चरित्र परम विचित्र ध्येय समेत है।
भगवान का यह सत्य व्रत, निज दास मर्यादा रखें।
कौतुक सकारण करहिं भक्त हितार्थ को माया लखे।।
माया ग्रसित जड़-जीव, व्यष्टि, समष्टि, ज्ञानी, मूढ़ जो।
भगवान जब जैसा चहें, तेहिं काल तह वैसा ही हो।
यह सत्य जान सुजान, तजि मद, मान, ईश भजन करें।
आवागमन तज प्रभु कृपा, पा मोक्ष नहिं पुनि भव परें।।
जो काम, लोभ, ग्रसित, डरत ते कुटिल काक समान है।
जब पाप पथ पग परत, रहत न लाज नहिं यश मान है।
रक्षक बने भगवान जब, नहिं कोऊ कछु करि सकत है।
यदि जानकर कोउ कुपथ पग दे, स्वयं निज से डरत है।।
बलवान इच्छा ईश की, जो चाहते सो होत है।
सम्भव नहीं विपरीत कुछ, भव सिंधु हित दृढ़ पोत है।
प्रभु राम माया अति प्रबल, सब स्रृष्टि जिससे विवश है।
है कौन जग जन्मा जिसे, माया न करती स्ववश है।।
वैराग्य ज्ञान न हृदय तिनके, मन सदा मोहित रहें।
ब्रह्मचर्य व्रत रत, धीर मति, ते सदा काम दुरत रहें।
भगवान का यह सत्य प्रण, हित सेवकों का चाहते।
कौतुक करहिं कल्याण हित, नहिं अन्यथा अनुमानते।।
जब मोह से मति भ्रष्ट हो, नहिं सत्-असत् का ज्ञान हो।
उपदेश हित-अनहित, स्वजन-अरि मानते मतिमन्द जो।
शिव नाम के शत जाप से, मन को तुरत विश्राम हो।
विश्वास तजत न भक्त यह, शिव सम न प्रिय कोउ राम को।।
शिव की कृपा बिनु भक्ति कोई, राम को पाता नहीं।
यह सत्य जान सुजान जो, पथ अन्य अपनाता नहीं।
बहुकाल पुन्य प्रताप हो, तब मृत्यु हरि के हाथ हो।
प्रभु हाथ मरण प्रदाय मोक्ष, न जन्म पुनि संसार हो।।
प्रति कल्प प्रभु अवतार लेकर, चरित नाना विधि करें।
वरणहिं मुनीश प्रसंग, नहिं अचरज विवेकी जन करें।
श्री हरि अनन्त, कथा अमित, नहिं पार कोऊ पा सके।
शिव, शेष, शारद, राम यश, शत कोटि कल्प न गा सके।।
मुनि, ज्ञानि प्रभु माया विमोहहिं, अन्य जन की को कहे।
प्रभु कौतुकी मायापती, सेवत सुलभ सब दुख दहें।
जेहिं मोह नहिं माया प्रबल, नहिं कोउ सुरासुर नर मुनी।
अस जान जे सज्ञान, भजते राम कहुँ, माया धनी।।
श्रीराम कथा विचित्र, चरित विलोकि सुर, मुनि मति ठगे।
भ्रम रुज मिटत महिमा सुनत, मङ्गल सुभग कलि मल भगे।
शुचि तीर्थ नैमिष जग विदित, साधक सकल सिधि दायका।
बहु सिद्ध मुनि तह बसहिं, जपहिं अनादि प्रभु गुण नायका।।
शुभ मंत्र जप, जब भक्त प्रेम समेत, हरि सुमिरन करें।
बहु भाँति जप, तप करहि कोटिक, कोउ एक तिन्ह मह तरें।
विश्वास हो, अभिलाष हो, हो प्रेम जब, हो प्रभु कृपा।
भगवान प्रगटित भाव तेहि, हो भक्त मन, वच, क्रम यथा।।
यद्यपि अखण्ड अनन्त अगुण अनादि प्रभु अनवद्य हैं।
अज शम्भु, विष्णु अनेक जिनके, उपजते लघु अंश हैं।
जेहिं वेद निरुपहिं नेति कहि, निरुपाधि, अनुपम रूप जो।
आनन्दमय श्रुति सत्य कह, निज भक्त बस भगवान सो।।
सेवक सदा निज भाव से, भगवान का सुमिरन करें।
प्रभु भक्त वत्सल रूप सोइ धरि, भक्त हित लीला करें।
जप, तप, नियम, व्रत, योग, ताप समस्त क्षण में दूर हो।
भगवत कृपा शुचि सुधा गिरा प्रविष्ट हिय श्रुति रंध्र सो।।
भगवान निज सेवकन्ह, सुरतरु, कामधेनु समान हैं।
विधि, विष्णु, शिव वन्दित, सुलभ सेवत,सकल सुखधाम हैं।
प्रभु प्रणत पाल, कृपाल, सचराचर सुस्वामि महान हैं।
शिव, कपिहि मन-मानस मराल,जो सगुण, अगुण न आन है।।
ब्रह्माण्ड नायक सर्व समरथ, परम कृपा निधान हैं।
सुनि प्रेममय सेवक विनय देते दरस भगवान हैं।
निज दास की सुन प्रेममय विनती, तथा लखि कामना।
निर्गुण धरे तन सगुण, निज अनुकूल रुचि, नाना मना।।
नर रूप प्रभु जिमि नील पंकज, नीलमणि, घनश्याम है।
कोमल, प्रकाशक, सरस, सुन्दर, कोटि शोभा धाम हैं।
नख शिखा छवि उपमा रहित, प्रति अङ्ग सुन्दरतम धरें।
शोभा निरखि, शत् कोटि काम लजाहिं, नहिं कोउ पटतरे।।
सिर मुकुट कुण्डल मीन आकृति, अङ्ग प्रति भूषण सजे।
श्री वत्स, वनमाला सुभग, मणिरत्न, हार हृदय लसे।
यज्ञोपवीत सुकन्ध शोभित, कटि निषंग, कर शर लिये।
त्रिवली उदर, पट पीत, परम प्रकाश, तिलक शुभग दिये।।
पदकञ्ज छवि उपमा रहित, मुनि, देव मन जिस पर रमे।
जग मूल शोभा राशि, शक्ति अनादि, जिन्ह वामाङ्ग में।
उपजे अनेकों श्री, उमा, ब्रह्माण्ड, जिनके अंश से।
सो शक्ति रूपा जग रचत, जो मात्र भृकुटि विलास से।।
बहु जन्म कोटिक पुण्य से, प्रभु कृपा अस अवसर बने।
भगवान का शुचि, सगुण दर्शन सुलभ, दुर्लभ सुर, मुने।
करुणानिधान प्रसन्न हों, अत्यन्त जब, निज दास पर।
नहिं कछु अदेय रहत तबहिं, विश्वास कर, विश्वास कर।।
प्रभु कृपा निधि हैं, महादानि शिरोमणी, अनुमान लो।
सद्भाव यदि निश्छल विनय, निश्चय सुफल सच जान लो।
ब्रह्माण्ड नायक प्रभु सदा, निज भक्त सब रुचि राखते।
सज्ञान जे, तजि सकल संशय, भक्ति तेहि कर मांगते।।
हो प्राप्त भक्ति जबहि अलौकिक, परम सुख, शुभ गति मिले।
प्रभु चरण नित नव प्रीति, ज्ञान, विवेक, रहनि चरम लहे।
भगवान धर नर वेश इच्छामय, चरित नाना करें।
निज आदि शक्ति स्वरूप सीता सहित, सगुण हो अवतरें।।
यह भक्त सुखदायक चरित, आदरहि, सुनि जे अनुसरें।
ते भाग्यशाली त्याग मद ममता, जगत सागर तरें।
जिस देश का शासक धरम रत, निपुण नीति निधान हो।
बलशील तेज प्रताप युत, शासन जो वेद विधान हो।।
नहि पाप का लवलेश तहँ, सब प्रजा सुख-सम्पति लहे।
दु:ख रहित सब जन, भूमि आदिक प्रकृति, सब दे मनचहे।
सुन्दर, सुशील, धरम, धुरन्धर, प्रजा सुर, गुरु सेवई।
द्विज, सन्त, पितर सुस्वामि, राजा हेतु सर्वस देवई।।
यह नीति शाश्वत, यथा शासक, तथा शासन रहत है।
अनुकूल शासक, प्रजाजन, पथ उचित-अनुचित लहत है।
जे पापमय मन मान बहुत ग्लानि, नहिं शुभ पथ लहें।
अभिमान दरिद समान ते, बहु क्रोध मन ही मन करें।।
भवितव्यता होती प्रबल, ध्रुव अटल कछु संशय नहीं।
होते सहायक हेतु बिनु, गमनागमन तेहिं विधि तहीं।
बैरी, चतुर, कपटी, कुटिल, क्षत्री व राजा अगर हो।
छल-बल निकाले काम निज, जेहिं भाँति तेहिं सम्भाव्य हो।।
विज्ञान निधि जे वास्तविक, सर्वथा गत अभिमान हैं।
रहते छिपाये रूप निज, जेहिं भांति सब कल्याण है।
प्रगटित करे निज रूप यदि, सम्भावना है मान की।
है मान पतन निशान दु:खप्रद, हेतु तेहि वर्तहि सभी।।
इस हेतु ही सब सन्त, वेद, पुकार कर कहते सदा।
प्रभु प्रिय अकिंचन परम, बिन मदमान, ममता सर्वदा।
यह लोक प्रगटित सत्य, मान, सम्मान अग्नि समान है।
तप रूप बन दावाग्नि सम, कर भस्म हेतु तमाम है।।
लख भेष सुन्दर भूलते नर चतुर, मूढ़ तो मूढ़ हैं।
छल छद्म प्रबल प्रपञ्च, माया रूप जो अति गूढ़ है।
यह सन्त सरल स्वभाव, हरि तजि, नहिं प्रयोजन किमपि से।
प्रभु जानते सब बिन जनाये, क्या रिझाये जगत के।।
तप से सुलभ सर्वस्व, तप बल सृष्टि सब ब्रह्मा रचे।
जग पालते हैं विष्णु तप बल, रुद्र सोइ संहारते।
जग में न ऐसी वस्तु कोई, जो न तप से प्राप्त हो।
धर्म, अर्थ आदिक सुलभ सब, प्रभु कृपा भी यदि साथ हो।।
यह नीति जहँ, तहँ हेतु बिन, निज नाम प्रगट करे नही।
सोइ चतुर राजा, लोक सेवक, नीति निपुण, सफल वही।
सद्गुरु तथा द्विज की कृपा यदि, सृष्टि सकल अधीन हो।
एहि कोप, रक्षक कोउ नहीं, सोइ रक्ष पुनि, यदि दीन हो।।
यह वेद नीति बड़ों को, लघु पर, स्नेह करना चाहिये।
जड़ भी निबाहें नेह यह, चेतन न तजना चाहिए।
सब योग, युक्ति, सुमन्त्र, तप, होते प्रभावी हैं तभी।
जब गुप्त साधित, क्रियान्वित, अनुभवित, हों फलप्रद सभी।।
यह नीति रिपु को भूलकर भी, लघु न गुनना चाहिए।
हो तेजसी यद्यपि अकेल, सतर्क रहना चाहिए।
जब भ्रमित होती बुद्धि, रहत न चेत बुध सतपथ तजें।
विद्या, विवेक, विनम्रता निज, भाव तजि भ्रम पथ लगें।।
है अति भयानक श्राप होता ब्राह्मणों का जान लो।
निर्लिप्त अन्तर वचन टलता नहीं, निश्चय मान लो।
विपरीत जब होते विधाता, तब प्रकृति विपरीत हो।
हो मेरु रज सम, जनक यम, रजु सर्प, सुहृद ज्यों शत्रु हो।।
बहुरूप कपटी, कुटिल, रहित विवेक, दुष्ट भयज्र्रा।
निर्दयी, हिंसक, पापरत, जग दु:खद राक्षस ते नरा।
सम्पत्ति, सुख, सेना, सहायक, सुत , बड़ाई, बुद्धि, बल।
सब जय प्रतापादिक बढ़ैं, जिमि लोभ बढ़, प्रति लाभ फल।।
है धर्म तरु की वेद जड़, गो, विप्र, शाख-प्रशाख हैं।
पल्लवित, पुष्पित, फलित, तेहिं बल, नाश तेहिं के नाश है।
जिस देश काल प्रभाव में, सब धर्म के विपरीत हो।
श्रुति, गऊ, विप्र, विरोध, सुर, गुरु सङ्ग, सकल अनीति हो।।
शुभ आचरण से रहित, यज्ञ, न, ध्यान, तप, कोई करे।
नहिं सुनहिं वेद, पुराण, सपनेहु, योग, जाप, रहहिं धरे।
शुभ आचरण हो भ्रष्ट, पर धन, पर त्रिया पर, मन चले।
बाढ़हिं जुआरी चोर, दुष्ट अनेक, अस अवसर बने।।
सुर साधु, माता-पिता, अग्रज, मान्य, सेवा सब तजे।
विपरीत चाहहिं स्वयं सेवा, दुष्ट अस जिस देश के।
सब अशुभ जिनके आचरण, अतिशय अनास्था धर्म में।
नर देह, पर भू-भार, जग, संहारते, निज कर्म से।।
भगवान के श्री चरण का, जब स्मरण करता दास है।
सर्वज्ञ प्रभु हरते सकल संताप, यह विश्वास है।
लखि भक्ति प्रीति समान, तेहिं, तहँ प्रगट प्रभु, तेहिं काल हों।
सर्वज्ञ, व्यापक सर्व प्रभु, जिमि अग्नि प्रगट, प्रयास जो।।
प्रभु भक्त वत्सल, प्रणतपाल, कृपालु, सुरस्वामी स्वयं।
हित हेतु गो, द्विज, सुजन, दुर्जन नाश हित् करुणामयम्।
यद्यपि अखण्ड अनन्त निर्गुण, तदपि दीन दयालु हैं।
निज भक्त हित लीला चरित, अद्भुत सो करत कृपालु हैं।।
अज्ञेय, परमानन्द, मायारहित, परम पुनीत जो।
ध्यावहि निरन्तर मुनि विरत, भजें भक्त गुण अनुरक्त हो।
अज, विष्णु, शिव जो स्वयं, निर्गुण रूप, सृष्टि नियामका।
सुधि लेत, दीन दयाल, परम कृपालु, पाप विनाशका।।
नहिं भक्ति, ज्ञान न कर्म, पूजा विधि, न मन प्रभु पद लगे।
मन, वचन, कर्म, सुजान वन, जीवन सदा चंचल रहे।
श्रुति, शेष, शारद, ऋषय, नारद, आदि नहिं जेहि जानते।
कह वेद नित्य पुकार, द्रवइ, सो ईश, दीन पुकार से।।
गुणधाम, सोइ सुख राशि, भञ्जक भुवन भय, सुधि भक्त लें।
जब शरण जाय कृपालु के, तब नाथ निज पद भक्ति दें।
उत्तम सो नृप जो धर्म पालक, ज्ञान गुण, निधि हरि रता।
मन, वचन, कर्म करत सुशासन, भजत प्रभु, शुभ मोक्ष दा।।
पत्नी वहीं है श्रेष्ठ शुभ आचरण युक्त, विनीत जो।
हरि पद कमल दृढ़ प्रेम, पति अनुकूल परम पुनीत जो।
शुचि मन करे यदि यत्न, सब निश्चय सफल हो कामना।
प्रभु सदा तत्पर देत, सेवक मांग लो जो मांगना।।
जो ईश निर्गुण, सगुण सोइ, गुण ज्ञान माया से परे।
इच्छा जनित, धरि दिव्य तन, निज भक्त हित, रुचि अनुसरे।
हैं ईश दीनानाथ, परम कृपालु भक्तन्ह हित करें।
तन श्याम आभूषण चतुर्भुज रूप निज आयुध धरें।।
प्ाज्र्ज नयन, शोभा सदन, धरि रूप बहु, खल बध करें।
वर्णहिं सुनहिं सब भक्त, अद्भुत रूप, गुण, मुनि मन हरें।
जो ईश, माया, ज्ञान, गुण, से परे, अगुण अनन्त है।
सोइ प्रभु, सगुण, सुभ गुण, दया सागर,कहत श्रुति सन्त हैं।।
प्रति रोम माया रचित बहु ब्रह्माण्ड जिनके रूप में।
सोइ ईश, परम कृपालु, करि निज दास, जन को भक्ति दें।
भगवान के शुभ चरित का गुणगान जो करते सदा।
पाते परम हरि पद, न पुनि जग, लक्ष्य जो है जीव का।।
इच्छा जनित धरि दिव्य तन, गुण, ज्ञान, माया से परे।
प्रभु कर्म बन्धन रहित, गो, द्विज, देव, संतन्ह, हित करें।
यह सत्य पुन्य प्रभाव, निज पुरुषार्थ साध्य सुलभ सभी।
होती सुफल सब कामना, करते कृपा भगवन जभी।।
यह जीव का कर्तव्य, प्रभु जो, लाभप्रद आनन्द दें।
बांटें यथोचित स्वजन निज, संचय करें नहिं भूल के।
श्रीराम की जिस पर कृपा, शुभ चरित, तत्व सकल लखें।
सुर, सन्त जो माया ग्रसित, सो जान सब प्रभु मय दिखे।।
भगवान के गुण, नाम, रूप, अनन्त कोउ नहिं कह सके।
सुर, सन्त, मुनि वर्णन करत, अनुरूप, मति जो गुनि सके।
आनन्द सागर सुख निधान, त्रिलोकपति श्रीराम हैं।
संसार का करते भरण, पोषण, भरत तेहिं नाम है।।
श्रीराम प्रिय आधार जग, लक्ष्मण सुलक्षण धाम है।
शत्रुघ्न वेद प्रसिद्ध नाशक शत्रु सुमिरत मात्र हैं।
साक्षात् ब्रह्म स्वरूप सब ही, परात्पर भगवान हैं।
सुर, सन्त, भक्त हितार्थ, धर नर रूप हेतु न आन है।।
जो ब्रह्म व्यापक अगुण अज, अव्यक्त माया रहित है।
निज भक्त प्रेम प्रभाव वह ही, करत नाना चरित है।
कह सन्त सगुण स्वरूप प्रभु का, शुभग जिमि घनश्याम हैं।
पदकञ्ज अरुण ध्वज, कुलिश, अंकुश, पद्म युक्त ललाम है।।
त्रिबली निशान उदर, सुनाभि, गभीर जाने जो लखे।
भूषण सुशोभित भुज विशाल, सुहार मणि हिय, युग पदे।
नखशिख छटा शतकोटि काम ललाम पार न पा सके।
उपमा रहित प्रति अङ्ग छबि, वर्णहि जो अन्त न पा सके।।
श्रीराम इन्द्रिय, ज्ञान, गिरा, अतीत, माया से परे।
सुख पुञ्ज, सोइ बस भक्त के, शुचि चरित नाना विधि करे।
प्रभु की सहज यह रीति, रखते प्रीति जो पदकञ्ज में।
पाते परम आनन्द, गति प्रत्यक्ष, प्रभु के स्नेह से।।
प्रभु से विमुख, शतकोटि यत्न, न मुक्त भव-बन्धन करे।
चर-अचर सब जग जीव, बस माया के, सो प्रभु से डरे।
भगवान भृकुटि विलास, माया प्रबल, नित्य नचावहीं।
तजि छल, वचन, मन, कर्म, भज रघुनाथ, परम कृपालुही।।
प्रभु के विराट स्वरूप में प्रतिरोम बहुब्रह्माण्ड हैं।
शशि, सूर्य, शिव, अज, विष्णु, अगणित गिरि, सरित, क्षिति, सिन्धु हैं।
गुण, काल, कर्म, स्वभाव, ज्ञान, अनेक बिनु देखे सुने।
माया प्रबल भयभीत जीव नचाव भक्ति जो मुक्ति दे।।
अस रूप प्रभु का लख, पुलक तन, मुख वचन, नहिं आवई।
बहुजन्म पुण्य प्रताप, प्रभु जब कृपा, अस फल पावई।
मन, कर्म, वाणी से अगोचर, नेति, वेद सदा कहें।
सो ईश परम कृपालु, भक्त हितार्थ, बहु लीला करे।।
अति सरल सुन्दर चरित, नाना भाँति भक्त लुभावनी।
श्रुति, शेष, शारद, शम्भु वर्णत भाँति बहु अनुभव जनी।
जेहिं श्वाँस गति श्रुति चार सो प्रभु भक्त हित विद्या पढ़े।
विद्या विनय, गुणशील छात्र स्वभाव आदर्शित करें।।
निज मित्र, अनुजन्ह सङ्ग, खेलहिं खेल, सङ्ग भोजन करें।
पितु, मातु आज्ञा मान, वेद-पुराण सुनि, तद् अनुसरें।
उठ नित्य प्रात:काल माता, पिता, गुरु मस्तक नवें।
सब कार्य आदेशानुसार करें, सोई पथ, जन लहें।।
निर्गुण जो व्यापक ब्रह्म,अज, अनवय, न नाम, न रूप है।
निज भक्त हित, कर भाँति नाना चरित, परम अनूप है।
जिस हेतु लें अवतार प्रभु, सब गति-सहज, तेहिं भाँति हो।
रुख लखि चराचर जीव सब, अनयास तेहिं अनुसार हों।।
जब सगुण बपु श्रीराम, शोभा धाम, धनु तरकस धरें।
तन श्याम, सो भगवान, वक्ष विशाल भुज, लखि अरि डरें।
जिस जीव का हो निधन, सृष्टि विधान, कर, श्रीराम के।
पाता अमर पद् मुनि अगम, जाने जो जन भगवान के।।
अध्यात्म में है शक्ति ऐसी, भूख, प्यास, न क्लेश हो।
यह परम विद्या प्राप्त पात्रहि, अतुल बल, तन तेज हो।
ब्रह्माण्ड प्रभु श्रीराम तेहिं हित, भाँति बहु कौतुक करें।
मारहिं असुर, थापहिं सुरन्ह, निर्भय होें द्विज, श्रुति अनुसरें।।
प्रभु भक्तवत्सल, शरण आगत की सदा रक्षा करें।
हो परम पापी, अशुच, कपटी, कुटिल, तदपि क्षमा करें।
प्रभु राम का शुचि दरस है, भव फन्द नाशक, शुभ प्रदा।
जानहिं परम यह लाभ शज्र्र, देव, मुनि विज्ञानदा।।
श्रीराम परम कृपालु, बिनु कारण स्वजनन्ह दया करें।
तेहिं हेतु जे सज्ञान, जग जंजाल तजि, प्रभु में रमें।
श्रीराम शक्ति स्वरूप, शील निधान हैं, जग जानता।
वे प्रिय चराचर सबहिं, दर्शन, सकल शुभ फल दायका।।
हो बहुत पुण्य प्रभाव जब, प्रभु पद कमल के दरस हों।
आनन्ददायक राम की हो कृपा, सब सुख सुलभ हो।
करते सदा श्रुति धर्म पालन, नीति रक्षा, राम हैं।
बस प्रेम के, सुख सकल सेवक देत, करुणा धाम हैं।।
श्रीराम, शोभा धाम, सुर, नर, नाग, मुनि, नहिं पट तरें।
प्रति अङ्ग छवि, शतकोटि काम ललाम ते, कोटिक परे।
सब सृष्टिगति शुभ अशुभ बस प्रारब्ध के निज पथ लहें।
सुर भोग सब संयोग बस मद, मन्द मति, निज गति कहें।।
ब्रह्माण्ड रच बहु, लवनिमेष, जो राम, प्रभु माया धनी।
कौतुक करें मृदु, मधुर, सुन्दर, वचन, सोइ रघुकुल मनी।
भय, प्रेम, विनय, संकोच युत व्यवहार हो यदि शिष्य का।
अपराध सकल क्षमा करें, सद्गुरु, नियम यह सृष्टि का।।
नर हेतु ही श्रीराम, सब आदर्श, मर्यादा रखें।
यद्यपि अनन्त, अखण्ड, भगतन हेतु, श्रुत्िा पथ अनुसरें।
यह नीति लौकिक शिष्य हित, सब भाँति हित, सेवा करें।
सेवक, अनुज, अग्रज, सदा अनुरूप आज्ञा अनुसरे।।
उठ प्रात नित्य क्रिया सकल करि, यम, नियम से जो रहें।
आचरण सब श्रुति नीति युत, सुख दीर्घ जीवन ते लहें।
है पुरुष वह ही श्रेष्ठ जो, रण पीठ दिखलाते नहीं।
मन, दृष्टि नहि पर नारि पर, भिक्षुक न जहँ सुनते नहीं।।
वह श्रेष्ठ नारी, शील, सुख, छवि, स्नेह, गुण की खान हो।
पति हित समर्पित सर्व, स्वप्नहु चित्त पुरुष न आन हो।
जय जयति जय,हिम गिरि सुता जय शिव प्रिया,जग जननि हे।
गणपति, षडानन, मातु आदि न अन्त, जय छवि सिन्धु हे।।
महिमा अपार तुम्हार शारद शेष कोटि न कहि सकें।
सेवत सुलभ फल चार भक्तन्ह, मातु श्री वरदायिके।
सुर नर मुनीश समस्त, तव पद पद्म पूजत सुख लहें।
जानहु सदा, मन गति, मनोरथ भक्त कर, सब रुचि रखें।।
इस हेतु ही तव दास मन, क्रम, वचन भक्ति सुधा चहें।
पद पद्म सिर धरि विनयरत, पुरवहु मनोरथ मातु हे।
गुण बहुत शशि में, किन्तु अवगुण भी बहुत, बुध, कवि कहें।
है जन्म खारे सिन्धु, विष तेहि बन्धु, दिनहिं मलिन रहे।।
नित घटे, बढ़े, दु:खद बिरहिनिन्ह, राहु ग्रस, निज सन्धि में।
बहु शोकप्रद, चकवहिं, जलज मुर्झात, चन्दिन्ह किरण से।
जिस पर कृपा हो ईश की, पाता वही यश मान है।
शुभ, अशुभ फल तेहिं भाँति, स्वयं प्रकृति बँधा भगवान है।।
जिस भाव से हो प्रभु स्मरण, सोइ भाँति, जन रुचि राखते।
रणधीर-वीर, कुटिल-भयानक, छली प्रगट जिमि काल से।
नर नारि, सरल, समस्त नर भूषण, सुखद कह राम को।
विद्वान प्रभुहि-विराटमय, प्रियजन सगे रख नात जो।।
शिशु रूप मानहि मातु, भक्तन्ह इष्टदेव समान हैं।
सम, शान्त, शुद्ध, स्वत: प्रकाशित, तत्व योगिन्ह राम हैं।
बल, रूप, तेज, प्रकाश, लखि, श्रीराम का सब सुख लहें।
बड़ भाग्य,जेहिं निमिषहु मिलइ यह सुख,जो सुर,मुनि सब चहें।।
अभिमान से अविवेक, तेहि ते अन्ध मति जब जीव का।
क्षति, लाभ कुछ न सुझात, सहजहिं बीज बोते विपति का।
जिमि क्षुधा शान्त हितार्थ, मन मोदकन्ह का नहिं अर्थ है।
बिनु कर्म गाल बजाइ तिमि, अति जल्पना भी व्यर्थ है।।
श्रीराम जगत पिता, सुखद, सुन्दर, सकल गुण राशि है।
निज इष्टदेव समान, हिय जेहि धरत नित त्रिपुरारि हैं।
तजि अमिय सिन्धु, धरत जो मृग-जल, मूढ़ ते जग-जीव हैं।
माया विवश जग भ्रमत, भजत न राम करुणासींव हैं।।
गुण रूप निधि, छवि सिन्धु, उपमा रहित, जननी जानकी।
उपमा सकल त्रिगुणात्मिका, मायिक जगत की व्याप्त श्री।
चिन्मय, अप्राकृत तन स्वरूपा शक्ति, जो भगवान की।
जो विलग, किन्तु अभिन्न, तत्व अद्वैत, गूढ़ अति, ज्ञान की।।
लघु रूप जो, यदि तेज युत, छोटा न गिनना चाहिए।
कुम्भज सुयश, रवि, मंत्र, अंकुश, प्रभाव लखना चाहिए।
तन, मन, वचन से जीव जिस भी ध्येय में अनुरक्त हो।
निश्चय सुफल सब कामना, जब स्नेह सच्चा व्यक्त हो।।
जल बिनु पियासे तन तजे, फिर अमिय सरि, किस काम की।
कृषि सूखने पर वृष्टि, समय चुके, वृथा पछतान सी।
सद््बुद्धि से कर आचरण, मद, क्रोध, ईर्ष्या छोड़ जे।
तेहि कर कुशल सब भाँति, सब दिशि, ईश के सुप्रताप से।।
बलवान का बल व्यक्ति दुर्बल, प्राप्त कर सकता नहीं।
क्रोधिहि न कुशल, न शिव विरोधी, धनद बन सकता कहीं।
सद््कीर्ति लोभी, लालचिहि, कामी न अकलंकी रहे।
श्री हरि-चरण-पंकज विमुख तेहि, परम गति केहिं विधि लहे।।
यद्यपि विपक्षी से न व्यर्थ विवाद करना चाहिए।
सम बल, अधिक बलवान, पर नहिं, सत्य तजना चाहिए।
उड़ता नहीं गिरि पूँâक से, संघर्ष जीवन की कथा।
जिमि दिखाते तर्जनी कुम्हड़ बतिया मरती, डर वृथा।।
सुर, द्विज गऊ, हरि जनन्ह, पर नहिं वीरता की नीति है।
है मारने से पाप लगता, हार पर अपकीर्ति है।
जब क्रोध से मति भ्रमित हो, शुभ बात भी उल्टी लगे।
ऐश्वर्य, तेज, प्रताप, बल हों क्षीण, सद््बुद्धि मुनि तजे।।
जो शूर सच्चे, युद्ध क्षेत्र प्रलाप करते हैं नहीं।
समकक्ष शत्रु, न वीर कायर सा, वृथा वकते कहीं।
यह नीति बालक दोष गुण नहिं, साधु जन गणना करें।
सब बाल भाव, कुभाव, गुरु, पितु, मातु सदा क्षमा करें।।
है क्रोध जड़, सब पाप, जेहिं बस कर्म सब अनुचित करें।
हो विवश जिसके, विश्व के सब जीव, सदा कुपथ परें।
यद्यपि सरलता गुण तथापि, कहीं यहीं बड़ दोष है।
सरलहिं सताते सब, न वक्रहिं पर दिखाते रोष हैं।।
यह नीति स्वामी और सेवक में, न किंचित् द्वन्द्व है।
अनजान गलती क्षम्य, चाहिय वीर दया, द्विज वृन्द हैं।
सम, दम, तपस्या, शौच, आस्तिकता, सरलता और क्षमा।
विज्ञान, ज्ञान, विशिष्ट भूषण, श्रेष्ठ मुनि भृगुपति समा।।
रण में पचारे शत्रु यदि, समबल, अधिक बलवान हो।
यह वीर का है धर्म, लड़े सुखेन, चाहे काल हो।
जो जन्म लेते क्षत्रिय कुल में, युद्ध से डरते कहीं?
जो डरहिं कुलहिं कलंक देते, नीच वे क्षत्री नहीं।।
प्रभुता यहीं द्विज वंश की, जो तेहि डरे, निर्भय स्वयं।
जिस पर हो विप्र का बरदहस्त, वे अभय हों, नहिं संशयम्।
जय राम, रघुकुल भानु गहन दनुज कृसानु समान हे।
सुर, विप्र, धेनु सहाय, जै हर मोह, क्रोध मदादि, हे।।
जय विनयशील कृपादि सिन्धु जयति वचन रचना धनी।
सेवक सुखद, सब अङ्ग सुभग जय छवि अनङ्ग, कोटिक गुनी।
अज्ञान अंध भुलान जीव, अनेक अनुचित कृत करे।
सब छमहु करुणा सिन्धु, शज्र्र-मन-सरोवर-हंस हे।।
है उचित, कर्म सकल शुभाशुभ, वंश के अनुसार हों।
मति, रूप, द्विज, कुल वृद्ध, गुरु श्रुति रीति सब आचार हो।
जिस भाँति हो, निज स्वामि हित, वह दूत का पथ, लक्ष्य है।
तेहि श्रेय हित, पाना न्यौछावर, धर्म नीति विरुद्ध है।।
पुण्यात्म पुरुषों के लिए है, भूमि सुखप्रद सर्वदा।
जिह भाँति सरिता गति जलधि, धर्मात्म कहुँ सुख सम्पदा।
गुरु, विप्र, गो, सेवकन्ह कहँ सब काल यश कल्याण कर।
धर्मात्म,प्रकृति स्वभाव गत,बस प्राप्त कर, शुभ गुण, सगर।।
श्रीराम जन्मपुरी अवध यद्यपि सुहानी सर्वदा।
मङ्गलमयी शुचि भूमि, रूप मुहुर्त सुन्दरता यथा।
केसर, कस्तूरी, कपूर, चन्दन आदिक सुगन्धित द्रव्य जो।
मिल चार बनते द्रव-चतुरसम, गन्ध, गुण अनुभव्य हो।।
यदि गुरुत्व से अधिक गति हो, सोइ प्रभावी गति रहे।
गति वेग डूब न टाप जल पर, बाजि तहँ, थल जिमि चले।
यह नीति निज गुरु को सदा, सब भाँति आदर मान दे।
आज्ञानुसार समस्त कार्य करे, सो नर मति मान जे।।
गणपति, शिवाशिव, गुरु स्मरण, शुभ कार्य के प्रारम्भ में।
शुभप्रद, सुफल, कल्याणकारक, राम कृपा प्रसाद से।
दिस बाम चारा चाषु ले, कौआ दिखे दाहिन दिशा।
हो नकुल दर्शन, वायु बह अनुकूल, सब विधि सुखप्रदा।।
जल-घट तथा निज गोद बालक लिये नारि सुहागिनी।
लोआ दिखे फिर फिर, मिले गोवत्स संग पय दायिनी।
दाहिन दिखे मृग माल, छेमकरी सुतरु, श्यामा दिखे।
दधि, मीन, पुस्तक, युक्त दो विद्वान ब्राह्मण पथ मिलें।।
सब सगुन, शुभ कल्याण कारक, सकल मङ्गल दायका।
सब सत्य वांछित फल हितार्थ, शुभप्रद तथा सुख दायका।
आराधना शिव की, क्रिया-प्रतिक्रिया तथ्य समान है।
परिमाण जितना सुकृति का, अनुकूल फल, नहिं आन है।।
शिव नाम लेते, जग अमङ्गल मूल, सकल नशात है।
धर्मादि चार पदार्थ होते प्राप्त, यदि विश्वास है।
प्रभु कृपा पुण्य प्रताप जब, सम्पूर्ण मोक्ष मिले तभी।
सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य गति पावें सभी।।
मानव का यह कर्तव्य, सब विधि अतिथि को सम्मान दे।
आदर, विनय, उत्तम वचन से, तथा समुचित दान से।
श्रीराम पद पंकज जहाँ, शिव मन मधुप मडरात है।
मन विमल, सुमिरत नाम, कलि मल सकल, स्वयं नशात है।।
जो पापमय, पद स्पर्श पा, पाते परम गति, मुनि अगम।
पदकञ्ज का मकरन्द रस, गङ्गा धरत सिर, शिव स्वयं।
है जान्हवी जल, हेतु तेहि, शुचिता अवधि, सुर मत सही।
बड़ भाग्य,मन रम प्रभु चरण,सब पुन्य का बल, फल यहीं।।
है चार स्वामी जीव उर, क्रमश: अवस्था चार जो।
जग-जाग्रत, तैजस स्वप्न, प्राज्ञ सुषुप्ति, ब्रह्म तुरीय सो।
है चार फल, धन, धर्म, काम और मोक्ष, भाँति चतुष्क्रिया।
यज्ञ क्रिया, श्रद्धा क्रिया, योग क्रिया, ज्ञान क्रिया।।
सुर, साधु रीझे भाव से, नहिं दान या सम्मान से।
जे पूर्ण काम महानुभाव, न लोक विधि, पर कान दें।
है योग और अध्यात्म विधि, पञ्च कौर करि, भोजन गहे।
प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान हित स्वाहा कहे।।
ईश्वर समर्पण भक्ति प्रद, आध्यात्मिक सुख शान्ति है।
विधि स्वास्थ्य प्रद, यौगिक, नियामक शक्ति, तन-मन कान्ति है।
हैं चार चवर््य, चोष्य, लेह्य और पेय भोजन विधि वने।
षडरस अनेकानेक व्यञ्जन, प्रत्येक विधि के रस सने।।
आशीष उत्तम बधुन्ह को, प्यारी सदा पति को रहे।
अहिवात चिर, वर सीख, सासु, ससुर, गुरु सेवा करें।
रुख देख पति अनुसार तेहि, आज्ञा सकल पालन करें।
यह नारि धर्म निचोड़, यहि पथ चलत ते, भवनिधि तरें।।
जिमि अमिय मरणासन्न, सुरतरु, जन्मजात विभुक्ष को।
हरि पद मिले नर-नारकी, तिमि हरि दरश, हरिदास को।
भगवान पूरण काम, नृपति सुजान, संतत भाव प्रिय।
गुण गहत भक्तन्ह, दोष नाशक, दयानिधि, श्रीरामसिय।।
हे राम मैं जन अकिंचन केहि भाँति तव महिमा कहूँ।
मुनि, शम्भु मन-मानस-मराल, पदाव्ज तव, मैं रति चहूँ।
तजि क्रोध, ममता, मोह, मद, योगी सतत् साधन करें।
सोइ सर्व व्यापक ब्रह्म, अज, अव्यक्त, दास कृपा करें।।
निर्गुण, सकल गुण राशि प्रभु, सच्चिदानन्द स्वरूप हैं।
मन, बुद्धि, वाणी, तर्क बिन, कह वेद जेहिं को नेति है।
जो एक रस, तिहु काल, सोइ सुख-मूल, जब अनुकूल हो।
जग जीव सब विधि लाभ,बरबस, हित करहिं, प्रतिकूल जो।।
तुम रीझते प्रभु प्रेम लघु, मम विनय यह स्वीकार हो।
मन भूल भी पद कञ्ज रति, नहिं तजे, यह अधिकार हो।
मुनि दरश से दुर्लभ न कछु, मन जब अटल विश्वास हो।
सब सुख सुलभ, हो, सुयश, सब,अनुगामि सिद्धि अनयाश हो।।
यह आर्य संस्कृति, भरत खण्ड विशेष, व्याप्त परम्परा।
शुभ कार्य बाजहि वाद्य, मिल नर-नारि गावहिं शुभ गिरा।
भेरी, नगाड़ा, शङ्ख, ढोल, मृदङ्ग, झाँझ सुहावनी।
डफली तथा रस राग मय, शहनाई बज मन भावनी।।
गज, बाज नाचहिं द्वार, घर, बाजार, नगर शुभग सजे।
तोरण, पताका, ध्वज, गली, चौहट, नगर प्रति गृहन्ह में।
शुभ वस्तु, सफला पूङ्ग, फल, केला, रसाल, बकुल तथा।
रोपें तमाल, कदम्ब तरु, मङ्गल कलश, समरथ यथा।।
दधि, दूब, पल्लव, पान, फूल, हरदि, सुपारि, सुवस्तु जो।
सजि, धूप आरती भाँति बहु, शुभ गान गावहिं, मुदित हो।
द्विज, याचकन्ह दें दान, सेवक, स्वजन को सम्मान दें।
बहु खान, पान प्रमाण, आदर, दान, विविध विधान के।।
उठि प्रात, ब्राह्मण देव, गुरु, पितु-मातु जो वन्दन करें।
नर श्रेष्ठ, निद्रा पूर्व, शिव गुरु, द्विज, चरण सुमिरण करें।
सिय-राम यश, शुचि हेतु कवि कुल, सकल मङ्गल खानि है।
निज गिरा पावन करन कारण, कवि-वर्ग करत बखान हैं।।
श्रीरामचरित अपार वेद-पुराण पार न पा सकें।
शुभ सदा गावहिं सुनहिं जे, प्रभु कृपा को महिमा कहे।
जिन्ह अज्र् में हिमगिरि सुता, मस्तक विराजत जाह्नवी।
शशि-बाल-भाल, सुकण्ठ विष, वक्षस्थ शेष, सुशोभहीं।।
तन भस्म भूषित, देव वर, जन पाप हर, सर्वेश्वरा।
शशि, शुभ्र तन, सर्वत्र व्यापक, पाहि प्रभु श्री शज्र्रा।
मुख कमल छवि, रघुकुल तिलक, आनन्ददायक राम की।
सुख-दु:ख रहत जो एक रस, हो हेतु, मम कल्याण की।।
तन नील-कमल समान, कोमल, श्याम शशि बस, बाम में।
कर धनुष वाण अमोघ, रघुकुल स्वामि राम नमामि हे।
गुरु-चरण-पज्र्ज रज सुधारि, सवाँरि, निज मन दर्पणम्।
वरणउ विमल यश राम, दायक चार फल, धर्मादिकम्।।
गुरु-चरण रज धर भाल जो, ऐश्वर्य सब तेहि बस स्वयं।
पूजत पवित्र चरण-कमल-रज, प्राप्त सब सम्पत्ति सुखम्।
पुन्यात्म सज्जन वृन्द कर, यश, नाम अभिमत दायका।
फल प्राप्त होते प्रथम, मन-अभिलाष, तेहिं अनुगामता।।
पछतात मन, हो विमुख, जिनके भजन बिनु न जलन हटे।
श्रीराम स्वामी भाव प्रिय, बस प्रेम अनुगामी, खटे।
जो प्रजा पालक, नीति जनमत जान, सब कारज करें।
गुरु, सचिव, विद्वत वृन्द मति, अनुसार चरितारथ करें।।
गुरु दरश, मङ्गल मूल, नाशक सब अमङ्गल, पाप का।
विश्वास कर प्रिय शिष्य, गुरु सुरधेनु सब सिधि दायका।
सेवक सदन आगमन स्वामी, सब अमङ्गल नाशका।
शुचि हेतु मङ्गल मूल सेवा स्वामि शुभ फल दायका।।
गुरुवर त्रिदेव से श्रेष्ठ, वे साक्षात् ब्रह्म स्वरूप हैं।
सब कामना हो पूर्ण पूजत ताहि, तथ्य अनूप हैं।
जे स्वार्थरत, कपटी, कुटिल, पर विभव, यश न सुहात है।
जिमि चोर चाँदनी रात प्रिय नहिं, उलूकहिं नहिं प्रात है।।
निज कर्म के अनुसार सुख दु:ख, जीव-जग पाते सभी।
प्रारब्ध प्रतिफल कर्म कर, त्रिभुवन विदित चिर सच यही।
लोकोक्ति काने, कूबरे, लङ्गड़े, कुचाली, कुटिल जो।
होतीय यदि चेरी, तो करत अनिष्ट, प्रगट जग सत्य सो।।
शुभ रीति अग्रज स्वामि, सेवक सहोदर जिस वंश के।
कुल राष्ट्र वह शुचि धन्य, अभिमत फलत कारज अंश से।
माया विवश जगजीव, वैरी, सुहृद नात, कुनात को।
प्रति कर्म, कर्म फलित पुन:, फल तासु ज्ञात, अज्ञात जो।।
भावी विवश जग-जीव मति, प्रति कर्म तेहिं अनुकूल हो।
सोइ भाँति देव सहाय सब, किंचित न तेहिं प्रतिकूल हो।
है काल गति अति गूढ़, रीति, कुरीति, कुछ न विचित्र है।
अनुकूल सब प्रतिकूल हों, बिन हेतु, अरि जो मित्र है।।
यह सत्य निज हित, अहित, पशु-पक्षी सभी हैं जानते।
पाकर कुसङ्ग, सुसङ्ग बुध भी, भाँति तेहिं अनुहारते।
दुर्भाग्य वड़, अरि अन्न, जल, धन, सुख सभी बिन अर्थ है।
मरना भला सब भाँति, आश्रित शत्रु जीवन व्यर्थ है।।
श्री राम सम संसार में, को शील स्नेह निधान है।
हो प्रेम बस कौतुक करहिं जो अनन्त, अज भगवान हैं।
बहु शूल, कुलिश कठोर, अस्त्र प्रहार सहते वीर हैं।
रति नाथ के पर पुष्प सर से एक, होत अधीर हैं।।
है नारि चरित अथाह सागर, पार पाना कठिन है।
सामान्य जन की क्या विसारत विवस ज्ञानी, मुनिन्ह हैं।
जो श्रेष्ठ जन निज वचन हित, निज प्राण न्यौछावर करें।
निज सत्य राखन हेतु, सर्वस देहिं, पर न वचन टरें।।
यह वेद वाणी, सत्य उत्तम, सकल सुकृतन्ह मूल है।
पातक समूह न असत् सम, गिरि कोटि गुँजन भूल है।
है योग, सिधि कर मूल, निश्चय प्राप्त फल, शुचि लगन जो।
व्यापत अविद्या विघ्न वीचहिं नष्ट, सर्वस युक्ति सो।।
सम्भव न दोनों साथ, हँसना ठठाकर और रुदन भी।
दानी, कृपणता साथ नहिं, नहिं शूरता बिन चोट की।
निज सत्य राखन हेतु, सत्यव्रती सदा तत्पर रहें।
धन, धाम, धरणी, तन, तनय, तिय, तिन्हहि तृण सम,सब कहें।।
है पुत्र बड़भागी वही, पालक वचन पितु-मातु का।
पितु-मातु तोषक तनय दुर्लभ जगत, विरले राम सा।
जब कुमति उर बस,सहज, सरल वचन, कुटिल कर, जानते।
जिमि सलिल समतल, जोंक चलती वक्र गति,निज भाव से।।
शिव आशुतोष प्रसन्न होते शीघ्र, अवढर दानि हैं।
हिय वसत प्रेरक रूप सबके, नाशते दु:ख, दीन हैं।
है जन्म सुत का धन्य, सुनि जिसका चरित आनन्द हो।
पितु-मातु प्राण समान प्रिय, तिन्ह प्राप्त चार पदार्थ हो।।
नारी स्वभाव रहस्यमय अति, अगम और अगाध है।
प्रतिबिम्ब निज हो ग्राह्य, किन्तु न नारि गति की थाह है।
है कौन सी वह वस्तु, अग्नि जिसे जला सकती नहीं।
क्या सिन्धु में न समा सके, अबला क्या कर सकती नहीं।।
इस जगत में है काल किसको खा नहीं सकता भला।
है धर्म, नभ, सुत, नाम, क्रमश: प्रश्न के उत्तर फला।
विधि गति न कछु कहि जात, उलटी चाल सबहि सदा रहें।
सुख दु:ख, उछाह, विषाद, कारण बिना जग-जीवन मरे।।
मति मान जे सद्धर्म पालन हेतु सर्वस त्याग दें।
नहिं स्नेह बन्धन बधहिं, नाहिन मोह-बुद्धि पर कान दें।
यह नारि धर्म परम, सदा निज पति वचन पालन करे।
सादर सदा सेवा ससुर और सास आयशु अनुसरें।।
गुरु, वेद सम्मत धर्म पालत क्लेश बिनु फल प्राप्त हो।
माया विवश पथ अन्य यदि, परिणाम अनहित, पाप हो।
गुरु, स्वामि, सहज, सुहृद, सदा, शिक्षा न तिनके मान जो।
पछिताहिं अन्तहिं अधम मति, तेहिकर सदा हित हानि हो।।
पतिव्रता नारिहि पति वियोग समान दु:ख न जगत हो।
बहु भोग स्वर्ग समान सुख, पति बिना तिन्ह जिमि नरक सो।
सब नात, स्वजन, सहाय, सब, समुदाय, बिन पति प्राण के।
धन, धाम, धरणी, राज्य सर्वस शोक साज समान से।।
बिन जीव देह, नदी बिना जल, भाव बिन जिमि अर्चना।
बिन प्राणपति तिमि नारि, काया मात्र जीवन बन्धना।
पति सङ्ग नारिहि दु:ख सर्वस जगत के, जिमि स्वप्न से।
दु:ख परम नारिहि पति वियोग, न अन्य दु:ख लवलेश के।।
माता, पिता, गुरु, स्वामि सिख, धरि शीश, जे पालन करें।
तिनकर जनम बस लाभकर, जन अन्य व्यर्थ जनम धरे।
पावें प्रजाजन दु:ख, पर पीड़न यथा जिस राज्य में।
अनुकूल पाते नरक गति, अधिकारि सब परिणाम में।।
पालन निगम संग नीति यद्यपि उचित, बालक क्षम्य हैं।
अवहेलना नर वर, धुरन्धुर, धीर, किन्तु अक्षम्य है।
जो चाहते सद्गति, विभूति व कीर्ति जग माया जना।
उपदेश यद् तद् धर्म, नीति, सहर्ष चाहिय पालना।।
तजि सकल आस भरोस, जग सम्बन्ध, मन, बच, कर्म, से।
प्रभु चरणरत विश्वास, श्रद्धा, प्रेम पूरित धर्म से।
अपराध कोटिक क्षम्य, अन्तर भाव सब प्रभु जानते।
करुणायतन करि कृपा, निज जन जान तेहिं, अपनावते।।
गुरु, मातु, पितु, सुर, बन्धु, स्वामी, प्राण सम सब पूज्य हैं।
जग सकल नात, कुनात सब, बस राम नाते पूज्य हैं।
सौभाग्यशाली जीव सब, तजि राम पद रज चित्त दे।
सोइ पुत्रवती युवती सुफल सुत जासु, रम प्रभु भक्ति में।।
जो मातु राम विमुख सुवन से, लाभ अपना जानती।
अस नारि, बाँझ भली, पशु सम व्यर्थ प्रसव पिरावती।
सब सुकृति कर फल एक बड़, बस राम सिय पद प्रेम हो।
सम्भव तभी, जब राग, मद, मोहादि से मन विरत हो।।
सब भाँति सकल विकार तजि, मन, वचन, कर्म, स्वभाव से।
जब जीव सेवा निरत, पाता राम, राम प्रसाद से।
तजि सकल आस भरोस, सेवक प्रीति प्रभु पद हो यथा।
सिय राम पद पज्र्ज, उपज नित प्रेम नव, निर्मल तथा।।
हो प्रेम बस जो जीव ग्रसित-प्रमाद मोह भुलात है।
कर्तव्य च्युत अस जीव, निंदित जगत पथ बस जात है।
मुनि, वेद कहहिं पुकार, राम सकल चराचर स्वामि हैं।
फल देत जीवहिं ईश सोइ, शुभ-अशुभ कर्म अनुसारि हैं।।
जग गति न किंतु लखात, भ्रम वस मोह माया अन्ध से।
यद्यपि नियम आबद्ध गति, अज्ञात् कहत विचित्र ते।
सन्तुष्ट होते विप्र, आदर, असन, विनती, दान से।
रीझें सुहृद शुचि प्रेम, याचक दान औ सम्मान से।।
गुरु गौरि, गणपति, औ गिरीश मनाय हर्षित भाव से।
प्रारम्भ कर जो कार्य शुभ, निश्चय अशीष प्रभाव से।
सिय-राम-लक्ष्मण जहाँ सुख तहँ, दु:खद सब बिन राम के।
बस करि न सक सब विषम भोग, जो पात्र प्रिय भगवान के।।
रघुनाथ करुणामय दुखित हों, देखि दु:ख निज दास के।
करि यत्न मेटहिं सकल दुख, बस प्रेम, शील सनेह के।
गङ्गा सकल आनन्द, मङ्गल मूल, सुख कारिणि, सदा।
श्रम शूल हारिणि वारि शुचि मज्जत, पियत, मन मुदितता।।
जो शुद्ध त्रिगुणातीत, मायातीत, निर्गुण, ईश है।
सोइ राम, सगुण स्वरूप, कर शुचि चरित, नर हितु हेतु हैं।
है कर्म के अनुसार बनता भाग्य, उत्तम, लघु यथा।
अज्ञान वस जड़-जीव विधि प्रतिकूल, कहि अनुमानता।।
निज कर्म-फल भोगें सभी, सुख-दु:ख न कोउ दे किसी को।
भ्रम फन्द, मिलन-वियोग हित-अनहित, सुहृद औ शत्रु जो।
जग जाल, जन्म-मरण,करम और काल सम्पत्ति-विपत्ति सब।
धन-धाम, धरणी, नगर, परिजन, स्वर्ग, नर्क समान सब।।
है सृष्टि श्रुति की परिधि जहं तक, कल्पना सम्भाव्य है।
अज्ञान सबका मूल, माया सकल, यह श्रुति भाव है।
है मोह निद्रा ग्रसित सृष्टि समस्त मोह भुलान है।
सब स्वप्नवत, नहिं हानि-लाभ, यथा सपन, हित हानि है।।
जिमि स्वप्न हो राजा भिखारी, रज्र् पावे इन्द्र पद।
जागत न हानि न लाभ कछु, तिमि जगत माया जाल सब।
परमार्थरत, जे रहित जगत प्रपञ्च, जागत जीव सो।
जागत तभी जगजीव, भोग विलास जब वैराग्य हो।।
जब हो विवेक, नसात माया, भ्रम, चरण प्रभु प्रेम हो।
हो प्रेम जब श्रीराम पद, है श्रेष्ठतम परमार्थ सो।
परमार्थमय परब्रह्म, अविगत अलख, अज भगवान हैं।
अनुपम अनादि, विकार बिन, नित नेति वेद बखान है।।
सोइ ब्रह्म, श्रुति, गो, भक्त, भूसुर, भूमि, हित नर तन धरे।
कर चरित नाना भाँति, सुनि जेहिं जीव भव-सागर तरें।
सब मोह तजि, जे राम पद पज्र्ज, सतत् अनुरत रहें।
पदकञ्ज प्रेम सुसाध्य अनुपम, वेद श्रुति, मुनि सब कहें।।
नहिं सत्य सम है धर्म अन्य पुकार कह श्रुति, वेद हैं।
शिवि, रन्ति देव, दधीचि तेहिं हित, सहे कोटिक क्लेश हैं।
अपयश करोड़ों मृत्यु सम, सम्भ्रांत पुरुषों के लिए।
निज सत्य राखन हेतु, नृप हरिशचन्द्र बहु संकट सहे।।
है नारि कहु पति प्रेम सर्वस, धाम, धन, बिन अर्थ है।
पति रहित नारी, सकल नात, कुनात, जग सुख व्यर्थ है।
जो विनयशील, विवेकमय, निज पूज्य सन्मुख नत रहें।
उत्तर न प्रत्युत्तर कभी, बस सतत् आज्ञारत रहें।।
हो धर्म राजा, सत्य मंत्री, तथा श्रद्धा स्वामिनी।
गढ़ प्रकृति सब सेवा निरत, वह भूमि अभिमत दायिनी।
है पुण्य क्षेत्र प्रयाग, तीरथ राज सब फल दायका।
सुमिरत त्रिवेणी सकल मङ्गल, सब अमङ्गल नाशका।।
तप, तीर्थ, सेवन, त्याग, योग, विराग, जप, साधन सभी।
सब लाभ सुख सीमा सुफल, यदि राम का दर्शन कभी।
सब कामना हो पूर्ण यदि, श्रीराम पद रज प्रेम हो।
मन, कर्म, वाणी त्याग छल, पदकञ्ज रति बस नेम हो।।
श्रीराम निज सेवकन्ह कर, सब भाँति रुचि, हित राखते।
भगवान बिनु, सपनहु न सुख, बहु भाँति कोटि उपाय से।
मुनि श्रेष्ठ जिनको आदरहि, सोइ श्रेष्ठ नर, मति मान सो।
यह बड़प्पन का सहज गुण, रह विनयरत, गुणधाम जो।।
पुर, गाँव, मग, सो धन्य, पड़ते राम-पद-पज्र्ज जहाँ।
अमरावती सम सब सराहहिं, भाग्य तिन्ह, जो बस वहाँ।
जिस वृक्ष तर प्रभु बैठते, तेहि कल्प तरु ईर्ष्या करें।
भू, चरण पज्र्ज रज परसि, निज भाग्य की शन्सा करे।।
सिय राम लक्ष्मण रूप लख, फल पा प्ारम, सब सुख लहें।
तन पुलक दृग जल भरत, बहु अनुराग तन गति को कहे।
सिय राम लक्ष्मण पथिक रूप, लखे जो हिय छवि रख लिये।
आवागमन से मुक्त श्रम बिन, भाग्यवन्त ते जन हुये।।
जेहि स्वप्न में भी, राम-सिय-लक्ष्मण बटोही वन दिखे।
मुनि अगम सो, शौभाग्यशाली, बन्ध तजि, शुभ गति लहे।
होते सुफल सब पुण्य, करते ही दरश प्रभु राम का।
मुनि, विप्र, तपसी, दु:खी जिन्हते, अन्त नहि संताप का।।
प्रभु जन्म कारण मूल, रक्षहिं वेद मर्यादा सदा।
जानकी स्वयं स्वरूप भूता, सृजति, थिति, लय रुख यथा।
संहार करते लखन निशिचर, राम की रुचि जानके।
श्रीराम अकथ, अगम, कहत श्रुति, नेति नित्य पुकार के।।
जग दृश्य, दर्शक राम, ब्रह्मा, विष्णु, शिव सब नाचते।
है कौन जाननिहार प्रभु को, जब त्रिदेव न जानते।
है जानता प्रभु को वहीं, जिसको जनाते स्वयं वे।
जब जानता जन राम को, तब रूप पाता राम के।।
प्रभु भक्त, प्रभु की ही कृपा से, जानते प्रभु आपको।
प्रभु देह, चिद् आनन्दमय, नहिं प्राप्त उत्पत्ति, नाश को।
नहिं प्रकृति जन्म न कर्म बाधित, रहित माया प्रभु तना।
नहिं वृद्धि, क्षय, न विकार, अन्य, रहस्य जानहिं बुध जना।।
सुर सन्त के उपकार हित, धरते सुनर तन आप हैं।
सब करहिं गूढ़ चरित्र नर जिमि, ब्रह्म यद्यपि आप हैं।
सुख लहहिं ज्ञानी चरित लखि, जड़-जीव पाते मोह को।
ते धन्य त्याग भरोस सब, भज कृपानन्द सन्दोह को।।
ब्रह्माण्ड नायक राम, सत्य स्वरूप कण-कण व्याप्त हैं।
कोई न ऐसा ठाँव जँह, न प्रभाव प्रभु का प्राप्त है।
जिनके श्रवण न अघात, सुनि सुन्दर कथा रघुनाथ की।
प्रभु बसत जिनके हृदय, दृग चातक दरश घन स्वाति सी।।
करते निरादर त्रिजग, सूक्ष्म, स्थूल, कारण, जीव जो।
भू, स्वर्ग, ब्रह्मपुरी सकल बस, रञ्च दर्शन मात्र को।
जो हंसिनी जिमि सुयश मानस पैठि, गुण-मुक्ता चुगें।
प्रभु बसत जिन्हके हृदय, सगुण स्वरूप, सिय लक्ष्मण सङ्गें।।
करते ग्रहण अर्पित प्रथम करि, भोग सकल प्रसाद-सा।
ते राम प्रिय, जे नमहिं सिर, लखि चरण सुर, गुरु, विप्र का।
करते सदा पदकञ्ज पूजा राम की, सब आ सतज।
जो मंत्र-राज जपहिं निरन्तर राम, सब कल्याण प्रद।।
गुरु, विप्र, सेवहिं सकल विधि, कर दान, तर्पण, हवन जो।
प्रभु बसहिं तिनके हृदय, है चिरसाध्य जो सब पुन्य को।
प्रभु का निवास जहाँ, तहाँ मद मान, मोह, न क्रोध हो।
नहिं लोभ, क्षोभ, न राग-द्वेष, न कपट, दम्भ, न द्रोह हो।।
जो प्रिय सभी के, हित करें सबका, सदा बिन भेद के।
सुख दु:ख,स्तुति, निन्दादि, सकल विलोम जिनहिं समान से।
बोलहिं सुजन जो सत्य औ प्रिय वचन सदा विचार के।
गति अन्य नEिह जागत तथा सोवत, शरण बस राम के।।
पर तिय जिन्हें जननी समान, पराय-धन विष तुल्य है।
प्रभु बसहिं तिनके हृदय, पर सुख सुखी, पर दु:ख शूल है।
गुरु, मातु, पितु, स्वामी, सखा, सब नात, जिनके राम हैं।
गुण गहत, अवगुण त्याग जो, प्रभु बसत तिन्ह मन-धाम हैं।।
गो, विप्र, हित संकट सहें, नीति वे निपुण, महान हैं।
नहिं जाति-पाति, न धर्म, धन, परिवार सुख, नहिं मान है।
नहिं स्वर्ग, नरक, न मोक्ष, सकल समान जिन्ह, सज्ञान ते।
माया सकल तजि, रहत शरणागत, सदा भगवान के।।
सब तर्क तजि, मन कर्म वाणी से, सदा जो दास हैं।
प्रभु प्रेम स्वाभाविक जिन्हें, तिनके हृदय प्रभु वास है।
गिरि चित्रकूट परम सुहावन, चारु कानन से घिरा।
बहु सिंह, हाथी, हिरन, खग विचरहि, करहि मधुकर गिरा।।
पावन नदी मंदाकिनी तहँ बह, पुराण प्रशंसिता।
जो धार सुरसरि, पाप हर, तपबल प्रगट की, अनुसुया।
मुनि, अत्रि आदिक बसहिं तहँ, तन कसहिं,जप,तप, योग से।
महिमा अपार बखानि को, दरसन सुलभ संयोग से।।
जिस जीव को प्रभु चरण दरशन, वह तुरन्त सनाथ हो।
बन, भूमि, पंथ, पहाड़, सरि, पशु, विहग, जीवन सार्थ हो।
जो ईश, वेद, वचन अगम, मुनि मन विवश हों प्रेम के।
जग-जीव परम निकृष्ट तिन्ह कहुँ, आदरहि निज नेम से।।
श्रीराम को बस प्रेम प्रिय, जिज्ञासु जन सब जान लो।
तजि सब कुपथ जंजाल, बस प्रभु प्रेम-पथ की राह लो।
प्रतिकूल हों जब भी विधाता, धैर्य धरना चाहिए।
सब स्वार्थ और परमार्थ प्रतिफल कर्म, सहना चाहिए।।
है वीर का यह धर्म, क्वचिदपि युद्ध से भागे नहीं।
तन रहइ, सहइ विपत्ति विपुल, या जाय, परवाहे नहीं।
आत्मीय जन कहँु हो अनर्थारम्भ, तब अपसगुन हो।
अनुभवित तथ्य अनेक, मन रह खिन्न, निशि बहु स्वप्न हो।।
प्रारब्ध यद्यपि अमिट, अप्रिय शान्ति हेतु उपाय हैं।
शिव जाप, ब्राह्मण भोज, रुद्राभिषेक, आदि सहाय हैं।
खर, काक और शृंगाल, बोल कुभाँति जबहि कुठाव से।
अशगुन भयंकर प्रगट करहि, कुभाव सब विधि बाम के।।
यह सत्य प्रगट, कुनारि-हिय-गति, विधि स्वयं नहिं जानते।
ते पापमय, अवगुण भवन, कपटी, कुटिल, तन, प्राण से।
है काल, करम, स्वभाव, अमिट, समय, कुसमय अबहि, रहें।
अनुसार तेहिं सज्ञान, सुख-दु:ख, हानि-ग्लानि, सकल सहें।।
पितु, मातु, सुत, तिय, मित्र, बालक, नृपति की हत्या तथा।
महिसुर पुरी, गोसदन, आश्रम, दहन सब पातक महा।
हरि, शम्भु पंकज चरण सेवा त्यागि, जे भज, भूत गण।
ते वेद धर्म विरुद्ध, कपटी, कुटिल, क्रोधी, पाप जन।।
लोभी, परम लम्पट, रहति पर-नारि, पर-धन, ताक में।
सत्संग प्रिय नहिं, विमुख जे परमार्थ, प्रेम न राम में।
तजि वेद पंथ, कुपथ चलहिं, हरिहर सुयश न सोहात जे।
ते परम पापी, व्यर्थ जीवन धरहिं, बिन हित हानि के।।
है शास्त्र सम्मत रीति प्रचलित, जन्म, मरण संस्व्ाâारगत।
अन्त्येष्टि का प्रचलित विधान, जो वेद श्रुति, स्मृति तथ्य गत।
शवदाह, चन्दन, अगर, केसर, गन्ध बहु सम्भव यथा।
हो पुत्र के माध्यम, पिता-माता का, निश्चय यह प्रथा।।
दाहक्रिया उपरान्त विधिवत स्नान, तथा तिलांजली।
दशगात्र करि हो शुद्ध, ब्राह्मण, ब्रह्म-भोजन-मण्डली।
भूषण, बसन, गो, बाजि, गज, वाहन अनेक प्रकार जो।
देवे यथा सामर्थ्य सब कुछ दान, धन, अन्न, धाम जो।।
भोजन व दान परम्परा, है परम पावन, व्यवस्था सही।
शुभ, अशुभ कर्म प्रभाव, तस फल हेतु, दोउ चेतक मई।
क्षति-लाभ, दु:ख-सुख, मोहजन्य, सज्ञान निर्लिप्तित रहें।
सामान्य जन शुभ कर्म कर, हों उऋण, नहिं संचित करें।।
भावी प्रबल, बहु जन्म प्रतिफल कर्म, पर अज्ञात है।
क्षति-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, सकल विधि हाथ है।
इस हेतु ही संज्ञान नर, नहि व्यर्थ दोष लगावहीं।
जिस भाँति राखे ईश, जीवन भाँति ताँहि निबाहहीं।।
जो त्याग कर निज धर्म कर्म, विषय विषम रस लीन हों।
जीवन वृथा, सो सोचनीय, कुपंथ पथिक, मलीन सो।
बिन वेद ब्राह्मण धर्म तजि निज, विषय में लयलीन हों।
जेहिं प्रजाप्रिय नहिं, सोचनीय सो नृपति, नीति न जान जो।।
जो धनिक कृपण, भगति रहित, शिव अतिथि सेवा नहिं करे।
सोचिय सो शूद्र मदान्ध मुखर, जो द्विजन्ह अपमानित करे।
जो नारि स्वेच्छा चारिणीं, कपटी, कलह प्रिय कुटिल हो।
सोचिय सो वटु, तजि ब्रह्मचर्य, आज्ञा न गुरू की मान जो।।
निज कर्म का परित्याग कर, जो गृही मोह कुपथ चले।
सो सोचनीय यती, जो ज्ञान विराग त्याग, जगत कैसे।
जो छोड़कर तप, भोग रत, सो बानप्रस्थि न मान्य है।
गुरु मातु, पितु, बान्धव, विरोधी,निंद्य, चुगल,क्रोधान्ध है।।
अपकार करते दूसरों का स्वार्थहित, जो निर्दयी।
सो सोचनीय, महान पातक, हरि भजन तजि, छल ग्रही।
श्रुति शास्त्र सम्मत नीति, अनुचित-उचित तर्क विसार के।
पालन करे पितु वचन, तेहिं सुख सुयश, पुन्य प्रताप से।।
है पथ्य गुरु आयशु सदा, आदरहि जो हित जान कर।
सो तजहिं हर्ष-विषाद्, लखि गति काल, सब कल्याण कर।
गुरु, मातु, पितु, स्वामी, सुहृद, वाणी भला कर मान जो।
बिनु उचित, अनुचित तर्क, पालइ बचन, धर्म प्रमाण सो।।
वैराग्य बिनु है व्यर्थ, ब्रह्म विचार, जीव को तन यथा।
बिनु भक्ति, जप, तप, योग, व्यर्थ, समस्त भोग सरुज तथा।
गुणदोष गनहिं न दु:खित जनकर, साधु पुरुष सयान जे।
तिनकहुँ सदा दें स्नेह, ममता, हेतु लखि, मति मान ते।।
होता सदा है कार्य, कारण से कठिन, जग ज्ञात है।
जिमि कुलिश, लोह कठोर, क्रमश: अस्थि उपल से नात है।
कुग्रह ग्रसित, पुनि बात पीड़ित, पुन: विच्छू डज्र् से।
जो ग्रसित, तेहिं मदिरा पिलावइ, कहहु क्या उपचार ये।।
श्रीराम सरल स्वभाव शील, संकोच, कृपा निधान है।
निज दास का अपराध करते क्षमा कर कल्याण है।
सद््गुणी का गुण एक, वह दुर्गुणिन्ह को सद््गुणि करें।
जिमि सर्प मणि सम्पर्क से, विष लेत दु:ख दारिद हरे।।
सम्पत्ति, गृह, सुख, सुहृद, माता, पिता, भाई व्यर्थ से।
यदि राम-पद-पंकज दरस न सहाय, ते सब व्यर्थ से।
सबसे निकृष्ट है पाप, स्वामी-द्रोह, सेवक जो भले।
विश्वासघात न करे, कोटिक दोष पर भी, नहिं टलें।।
रण में मरण सुरसरि किनारे, राम कार्य हितार्थ जो।
तजि प्राण की लालसा लड़ते, भाग्यशाली पुरुष वो।
गिनती न राज समाज में, जिन्ह मन न, राम चरण दिये।
जग व्यर्थ जीवन तासु, जननी कोख मात्र, अशुच किये।।
कोटिक करे कोई यत्न, छिपते बैर और न प्रीति ही।
अनुभव जनाता, भाव और कुभाव मन तक का सही।
आलस्य में भी जीव जो, शुचि राम नाम उचारते।
सब विगत पाप समूह होते नष्ट, आगत सङ्ग ते।।
यह युग युगान्तर रीति, लघु जब मिलइ बड़ से बड़ बने।
जिमि कर्मनाशा मिलत सुरसरि, सुरसरी ही जग कहे।
बाल्मिकी, पामर, सबर, खस, चाण्डाल, यवन, किरात जे।
कोलादि सकल जगत विदित भये, राम नाम प्रसाद से।।
अति नीच लघुतम जीव भी, शुचि भाव राम भजन करे।
सब पूर्ण होती कामना, निश्चय जनम सार्थक बने।
पा जन्म जिसने, राम के शुचि नाम का न भजन किया।
वह व्यर्थ जीवन जगत में, है विधाता ने ठग दिया।।
है ब्रह्ममय शुचि गङ्ग जल, दरशन, परस, मज्जन सभी।
सुखप्रद यथा सुरधेनु, रज भी, सेवकन्ह महिमा कहीं।
जग के प्रकाशन हेतु ही, श्रीराम का अवतार है।
प्रभु शील, सुख, गुण सकल, मङ्गल रूप, के आगार हैं।।
जग विदित प्रगट प्रभाव, पूरनकाम तीरथराज हैं।
तप, त्याग, अक्षय विटप, माधव रूप, ये साक्षात् हैं।
नहिं अर्थ, धर्म न काम, मोक्ष न, अन्य कोई याचना।
प्रति जन्म रति श्रीराम पद, भक्तों की यह ही कामना।।
जिस भाँति पावक में तपाने पर, सुवर्ण चमक बढ़े।
उस भाँति प्रेम नियम निबाहे, भक्त-जन गौरव बढ़े।
विद्वान लोकाचार, वेद-विधान, दोउ को मानते।
सत्-असत्, दोष-अदोष, यश-अपयश, यथा अनुमानते।।
श्रीराम पद-पंकज बढ़े जब प्रेम, सार्थक जन्म हो।
जग सर्व मङ्गल मूल यह ही, साध्य साधन सकल जो।
सुख भोग में ही लिप्त जो, निश्चय धरा पर भार हैं।
उन मूढ़ विषयाशक्त का, नाहक जनम संसार है।।
संसार सुख और राम पद रति, दोउ विरोधी तत्व हैं।
एक मिलत, दूसर मिटत, दूसर प्राप्त, प्रथम का अन्त है।
अनुकूल होते राम जब, भव-भोग से मन दूर हो।
आसक्ति जब भोगहि बढ़ें जस, राम तस प्रतिकूल हों।।
संकट मिलै जब भी, समझ लो राम की जन पर कृपा।
शुचि भाव प्रभु के भजन, निश्चय दूर होती आपदा।
मुन्िा सत्यवादी, उदासीन, न पक्ष लेते किसी का।
तपसी न मुँह देखी कहें, नहिं प्रयोजन, जन रीति का।।
यह शास्त्र सम्मत मान्यता, जप, योग, तप, विज्ञान सब।
साधन चरण रति, साध्य फल, परिपक्व दरशन भक्त तब।
है परम पद अधिकार होता प्राप्त, प्रभु के दरश से।
अधिकार तत्क्षण, कार्य परिणित, होत दर्शन भक्त के।।
जो जीव कहते राम, बस इक बार, जब शुचि भाव से।
तरते स्वयं तारहि जगत, भगवान के सुप्रसाद से।
मायापती सेवकन्ह सङ्ग, अनजान भी यदि छल करे।
भगवान का यह अटल प्रण, माया उलट तेहि पर पड़े।।
प्रभु का स्वभाव प्रगट, न होते रुष्ट, निज अपराध से।
निज भक्त प्रति अपराध, करहिं न क्षमा, कोटि उपाय ते।
प्रभु भक्त प्रति दुर्भाव, भूल न कभी लाना चाहिए।
इह लोक अपयश, शोक, दु:ख परलोक वचना चाहिए।।
रामहि परम प्रिय दास, सेवा तासु प्रभु सुख मानते।
जो बैर सेवक सङ्ग करें, तेहिं राम बैरी जानते।
समभाव यद्यपि राम, राग न द्वेष नहिं ईर्ष्या, कपट।
नहिं गनहि पाप, न पुण्य, नहिं गुण, दोष, पर निज भक्त बस।।
है कर्म के आधार पर, प्रभु सृष्टि को संचालते।
जस कर्म, तस फल देत, मुक्त जे, योग्य जे, प्रति जन्म के।
निज भक्त और अभक्त हित, सम, विषम नियम विशेष है।
रखते निकट निज भक्त, टारहि भार राम अभक्त हैं।।
निर्लेप, निर्गुण, ईश यद्यपि, मान बिनु समरस सदा।
निज भक्त के शुचि भाव बस, धरते सगुण बपु सर्वदा।
निज सेवकन्हि के गुण सदा, आगे लखत श्रीराम हैं।
मन राम भज सब त्याग, साक्षी साधु, वेद, पुराण हैं।।
श्रीराम के जो भक्त, परहित में निरत रहते सदा।
पर दु:ख दु:खी, पर सुख सुखी, सज्जन, दयालु न अन्यथा।
अवसर पड़े सेवक ढिठाई करे, नीति न ढीठ सो।
पूछे बिना हो सहायक, दुविधा बिना हित, मीत जो।।
जे मूढ़ विषयी जीव, प्रभुता पाइ, मोह कुपथ चलें।
नहिं डिगैं सत्पथ, नीति रक्षक, चतुर प्रभु सेवक भले।
माया विवश सब सृष्टि, प्रभुता पाइ जन पागल बने।
गुरु-पत्नि-गामी चन्द्र, भूसुर यान, नृपति नहुष चढ़े।।
सुर राज, राजा सहस बाहु, त्रिशज्र्ु, आदिक नृपति जे।
जीवन कलंकित किये निज, सब राज मद, मतिमन्द ते।
अति सूक्ष्म, लघु या क्षुद्र, अवसर करत प्रगट प्रभाव हैं।
जिमि धूल भू पग के प्रहारे तुरत सिर चढ़ जात है।।
प्रति काम का अनुचित, उचित फल लखि तभी पालन करे।
कह वेद, बुध करि शीघ्रता, पछताहि अन्त, ते नहिं भले।
है राजमद सबसे कठिन, जिमि मद्य पियत मदान्ध हो।
जिसने किया सत्सङ्ग, सेवा साधु, बँधत न फन्द सो।।
विधि रचत जगत प्रपञ्च, गुण-पय मिला, दुर्गुण-वारि में।
मतिमान हंस समान, दोउ कर विलग, ग्रहत गुणानि ते।
यदि भरत का होता न जन्म धरा, न धर्म धरात जग।
गुण, शील, सरल स्वभाव की, मरजाद भूलत जगत सब।।
है ईति-अति वर्षण, अवर्षण, मरुत उत्पातक, तथा।
उत्पाक टिड्डिन्ह सुकन्ह कर, नृप आक्रमण, सब षट व्यथा।
आध्यात्मिक, दैविक व भौतिक तीन जगत तृताप हैं।
ग्रह दशा एवं महामारी आदि बढ़-चढ़ आप हैं।।
यम हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहा।
हैं नियम शौच, सन्तोष तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान दा।
यदि राज्य में सप्तांग हो परिपूर्ण, कष्ट न राज्य सो।
स्वामी, अमात्य, सुहृद, सुराष्ट्र, सुकोष, दुर्ग व सैन्य जो।।
ऐसे स्वराज्य विवेक-राजा, जीतते सब मोह-नृप।
करते अकण्टक राज्य, सुख पाती प्रजा, धन्य-धान्य अति।
यदि दास सेवा निरत त्यागे कर्म तो अति कष्ट हो।
परबस वड़ी दुविधा में, स्वामी प्रेम प्रगट न रूष्ट हो।।
मन, बुद्धि, चित्त, अहम् भुला, जब प्रेम-रजु प्रेमी बधे।
वह परम प्रेमी, प्रणय सच्चा, अन्य गति मध्यम बने।
ईश्वराधीन जगत सकल गति, काल, कर्म विधान से।
विधि हाथ सुख-दु:ख, हानि-लाभ, बचहि प्रपंच, मतिमान जे।।
सद् शिष्य जे गुरु वचन पालहिं, सदा तर्क बिसार के।
मन दुखित यदि अवहेलना, भागी नहीं, उस पाप के।
जे साधु प्रेम परख, करहिं सम्मान, जन के भाव का।
अपनत्व भाव प्रबल सदा, नहिं रंच भी अलगाव का।।
यह लोक वेद प्रसिद्ध, रहते विमुख जो श्री राम से।
गति अन्य की क्या बात, दुर्लभ नरक ठौर भी पाप से।
वर्जित सदा हठ दास को, जे करहिं भागी पाप के।
है कठिन सेवक धर्म अति, जिमि भार गिरि वैâलाश के।।
श्रीराम, धर्म धुरीण, सत्य प्रतिज्ञ, परम स्वतंत्र हैं।
श्रुति सेतु, गुरु, पितु, मातु, शिशु कल्याण हित शुभ यंत्र हैं।
को जान प्रभु का तत्व, नीति, सनेह, स्वार्थ, परमार्थ को।
अज, विष्णु, शिव, शशि, सूर्य, माया, जीव, कर्म और काल को।।
दिग्पाल, शेष, समस्त भू, पाताल, लगि व्यवहार जो।
सब राम भृकुटि विलास नृत्य, अदृश्य, दृश्य प्रसार जो।
हित जगत का श्री राम आज्ञा, सदा प्रतिपालित करे।
रुख राम का लखि अनुसरे, तेहिं व्यवहार सुख दायक रहे।।
स्वप्नहु न मिलती सिद्धि, होकर विमुख प्रभु श्रीराम से।
सर्वस्व जाता देखकर, मतिमान आधा त्याग दें।
सम्भावना रहती नहीं, कह आर्त वचन विचार कर।
तद्भाव प्रेरित मनस्थिति, जिमि जुआरिहि, निज दाव पर।।
गुरु चरण अनुरागी जे जन, बड़भाग इह परलोक में।
ईश्वराधीन जगत, पराभव गुरु शरण पर रोक दे।
नहिं बैर प्रेम छिपहि छिपाये, विहग, पशु तक जानते।
मुनि निकट रहहिं निडर, मगर लख बधिक, तत्क्षण भागते।।
भगवान भक्त के भक्ति बस, जो भक्त की सेवा करे।
जब भक्त सब विधि तुष्ट, तब भगवान स्वयं कृपा करें।
भगवान का सुस्वभाव, मानव कल्प वृक्ष समान है।
सम्मुख विमुख नहिं काहु गति,सब अटल नियम न आन है।।
वह नीच सेवक, डाल दुबिधा, स्वामि ाfनज भल चाहता।
सब लोभ, सुख तजि सुसेवक, बस स्वामि सेवा में रता।
जनप्रीति को पहचान करते, नीति पालन राम हैं।
संकोचशील-जलधि, सरल, गुण पुञ्ज, श्री भगवान हैं।।
जँह ज्ञान भानु उदित न, भव-निशि का तहाँ लवलेश है।
नहिं मोह, ममता निकट जात, न अन्य बन्धन क्लेश है।
प्रभु कृपा लौकिक मोह ममता पर विजय जिसको मिली।
श्रीराम का वरप्रेम, करता प्रभावित, निश्चय भली।।
कह वेद विषयी सिद्ध, साधक जीव तीन प्रकार के।
मन जासु राम सनेह भाजन, साधु तेहिं सब मानते।
श्रीराम के बिन प्रेम के, शोभा नहीं है ज्ञान की।
है करणधार भगति, सुगति दे, ज्ञान के जलयान की।।
बिधि बुद्धिगति अति वक्र, जो पय-फेन हित, पवि-टाँक दे।
कोमल जे अति, विनु दोष तिन्ह, बहु बार विपत्ति कुठार दे।
विष बेलि जँह, तँह प्रगट अमिय, अदृश्य, नाम सुनात है।
बक, काग जहँ, तँह उलूक, हंसन्ह मात्र मानस, वास है।।
बिधि बुद्धि बालक खेल जिमि, भोली, विवेक रहित सदा।
विपरीत बहुत, विचित्र गति, रचि सृष्टि, पुन: पँवारता।
बिधि व्यर्थ ही बदनाम, है वह स्वयं परबस ईश के।
बस ईश आज्ञा सर्वपरि, अज, विष्णु, शिव, विष, अमिय जे।।
ईश्वर स्वयं बस कर्म के, इस हेतु कर्म प्रधान है।
दु:ख, सुख तथा क्षति लाभ सर्वस कर्म फल, नहिं आन है।
है कर्म की गति कठिन बिधना एक, केवल जानता।
अनुसार कर्म सबहि सदा, फल शुभ, अशुभ अनुमानता।।
बिधि का प्रपञ्च अटल, अनादि, न सोच करना चाहिए।
सब मोह चिन्तन व्यर्थ, बस शुभ कर्म करना चाहिए।
जिमि कसौटी पर कनक परिचय, जौहरी कर रत्न की।
तिमि समय पर लखि भाव, होती है परीक्षा सुजन की।।
वर पुरुष की यह ही महत्ता, लघुन आदर दें सदा।
पावक धुआँ, गिरि तृण, धरनि धर धूल, सिर पर सर्वदा।
इस धरा पर है किये शुचितर, जान्हवी ने तीन थल।
हरिद्वार, तीर्थराज, गङ्गासिंधु, हर कलि-मल सकल।।
जो धर्म, ब्रह्म-विचार, एवं राजनय कुछ जानते।
ते विवेकी महिमा भरत की, अगम जान न थाहते।
श्रीराम बिनु सम्पूर्ण जग सुख, मात्र नर्क समान है।
वे प्राण प्राण के, जीव जीव के, सुख के सुख भगवान हैं।।
श्रीराम के पदपद्म में, शुचि प्रेम जिनको है नहीं।
विपरीत बिधि सुख कर्म, धर्म जरे, सकल सब ब्यर्थ ही।
श्रीराम प्रेम प्रधानता, जिसमें न भोग, कुभोग है।
वह ज्ञान भी अज्ञान, सुख सो दु:ख, अशुचितम योग है।।
ईश्वर कृपा बिन दु:िखत जीव, सकल सुखी बस राम से।
आज्ञा उन्ही की धार्य केवल, निखिल त्रिभुवन त्राण जे।
श्रीराम सत्यव्रती, धर्मरत, शील स्नेह रखें सदा।
है ज्ञात ईश स्वभाव जिनको, करे वर्तावित यथा।।
गुरु, मातु, पितु अग्रज एवं विद्वान समक्ष जो बोलते।
बाउर ते विनय, विवेक बिन, पथ, नीति बरबस छोड़ते।
जो प्रश्न पूछे पूज्य जन, उत्तर यथोचित धर्म है।
बिनु हेतु बढ़बढ़ प्रलापन पर, बहुत अनुचित कर्म है।।
सेवा धरम अति कठिन, वेद पुराण कह जग जानता।
कर्तव्य पालन स्वामि प्रति, तँह स्वार्थ की नहिं मान्यता।
है बैर अन्धा, प्रेम ज्ञान रहित, पुराण प्रसिद्ध है।
दो बिनु विवेक न चल परस्पर, एक एक बिरुद्ध है।।
दुबिधा समय बहुमत विचार, सुधार हेतु समष्टि का।
लखि प्रेम रख जो नीति निज, पर स्वार्थ तजि, सोइ श्रेष्ष्ठता।
जिस भाँति सम्भव नहीं, निज कर मुकुर ग्रहण प्रतिबिम्ब का।
तेहि भाँति अद्भुत वचन यद्यपि श्रव्य, ग्राह्य न सरलता।।
कह शास्त्र, सुरगण सकल बस रत स्वार्थ रहते हैं सदा।
निज लाभ हित, जग लाभ हानि विवेक, तजते सर्वदा
श्रीराम की जिस पर कृपा, नहिं सुरन्ह बस उन पर चले।
है जहाँ दिनकर की प्रभा, तँह तिमिरता वैâसे मिले।।
प्रभु, पिता, माता, सुहृद, गुरु, स्वामी, परम ये पूज्य हैं।
वे प्रणत-पाल सुजान, शील-निधान, शुचि सर्वज्ञ हैं।
हैं राम अन्तर्यामी, गुण ग्राहक सदा अवगुण हरें।
समरथ, सुसाहिब, स्वामि अन्य न, राम सम रामहिं रहें।।
भल-पोच, ऊँच, औ नीच, अमृत-विष, अमर पद-नर्क का।
भण्डार जग, पर राम आयशु, कोउ न सपनेहु मेटता।
अज्ञानवश यदि कोइ ढिठाई करे, राम क्षमा करें।
सब मान सेवा स्नेह राम कृपालु, सोपि भला करें।।
प्रभु रीति, प्रीति स्वभाव, सुन्दर, वेद विदित प्रसिद्ध है।
जो क्रूर, शील रहित, कुटिल खल, नीच, निडर, कुबुद्धि हैं।
नास्तिक, कलंकी शरण आवें, राम के यदि भाव से।
प्रभु प्रणत पाल विसार अवगुण, साधु कहि सम्मानते।।
अस राम सम को स्वामि, सेवक पर कृपा संतत करें।
पुरवहिं मनोरथ माँग बिनु संकोच, हिय उलटे धरें।
प्रभु सेवकों की भूल बिगड़ी बात, कार्य सुधार दें।
यद्यपि परीक्षण कठिन, अन्तहिं साधुता, सम्मान दें।।
सब पूर्व दुर्गुण, पाप, राम समक्ष जो स्वीकार लें।
अति आर्तभाव विनय करें, प्रभु तेहिं अभय वरदान दें।
साहिब, सुजान, सुहृद समक्ष, प्रलाप अति अपराध है।
स्वल्पहिं सराहहि सब, अधिकता स्वयं में बड़ व्याधि है।।
प्रभु चरण पंकज रज, सुकृत, सुख, सत्य की, सीमा शुभा।
ते धन्य जागृत, स्वप्न, सुप्त, सतत, पियहिं शुचि रज-सुधा।
धर्मार्थ आदिक फल, कपट, स्वारथ समस्त बिसार के।
सेवा करें निज स्वामि की, शुचि सहज स्नेह पसार के।।
निज स्वामि आज्ञा पालने सम, अन्य सेवा वर नही।
आज्ञा प्रसाद सुपात्र सेवक धन्य, जग विरले कहीं।
जब भय उचाट मनस्थिति, मन थिर न तेहिं क्षण में रहें।
दुबिधा सदा दु:ख प्रद, कृपा जब ईश, शुभ गति तब मिले।।
गति चित्त की जब तक द्विचित्त, परितोष मिलता है नहीं।
जिमि श्वान, इन्द्र, युवक सकामी, तोष पाते हैं नहीं।
हैं भरत भत्तâों में शिरोमणि, तासु महिमा को कहे।
जो अगम वेदहु, मुनिन्ह, कवि कुल, उचित यह चुप ही रहे।।
कवि कुल प्रगट सुपरम्परा, सब ब़ड़ेन्ह मर्यादा रखें।
अतिशील नय संकोच से कुंठित, सदा महिमा कहें।
जो भरत भक्त शिरोमणी की, भाव से महिमा कहें।
अनुरक्ति सीता-राम पंकज-चरण, वे निश्चय गहें।।
सुमिरत तिनहिं श्रीराम, प्रेम सुलभ न तेहिं बिधि बाम है।
अस जान जो भज भक्त को, तेहिं मिलत निश्चय राम हैं।
श्रीराम परम सुजान, कृपा निधान, लखि सेवक दशा।
करते अनुग्रह हृदय गति लखि, धर्म-धीर न अन्यथा।।
हैं नीति-नागर, सत्यशील, सनेह सुख निधि राम जी।
करते सदा परितोष, लखि गति देश, अवसर, काल की।
सम्भव लगे अनुचित प्रथम, प्रभु वचन, कर्म, अज्ञान से।
परिणाम हितकारी निरन्तर, जानते सज्ञान जे।।
हैं भरत धर्म-धुरीण, प्रेम-प्रवीण, प्रभु दासत्व में।
दोउ लोक, वेदहु विज्ञ, अन्य न, शुचि वचन मन कर्म से।
जो जानकर कुलरीति, प्रीति, सुकीर्ति समय समाज को।
गुरु,मित्र,अरि,निर्लिप्त, गति लखि, करहिं सब समभाव हो।।
निश्चय सकल हित तासु सोइ शुचि धर्म शुभग, न अन्यथा।
समभाव अस शुभ गति मिले, जब राम की होवे कृपा।
गुरुकुल कृपा से प्राप्त होती सफलता, सब काम में।
धन, धरणि, धाम, धरम, प्रतिष्ठा, लाज, शुभ परिणाम में।।
गुरु का अनुग्रह, धर, विजन, सब जगह में रक्षक रहें।
माता, पिता, गुरु, स्वामि आज्ञा पाल, जन शुभ पथ लहें।
साधकन्ह आज्ञा पालना बस, सकल सिद्धि प्रदायका।
सद्कीर्ति, सद्गति, भूतिमय, पावन त्रिवेणी लाभ सा।।
होते सहायक श्रेष्ठ भ्राता ही, कुअवसर देखकर।
हैं हाथ ही तो रोकते बढ़, बङ्का के आघात पर।
सेवकों को कर, पद, नयन, सम, स्वामि मुख सो चाहिए।
यह प्रीति रीति बने जबहिं, तब उचित कहना चाहिए।।
श्रीराम वाणी, अमिय सानी, प्रेम रूप पयोधि है।
दु:ख, दोष नाशक, प्रेम साधक, देत सुख सन्तोष है।
मुनि अत्रि के सुप्रसाद से, थल चित्रकूट महान है।
बन परम पावन, अति सुहावन, सर्व मङ्गल खान है।।
सेवक भरत, श्रीराम स्वामी, स्वभाव दुइ कर अति भला।
दोउ के नियम और प्रेम शुचि को, भी करे अति शुचि प्रदा।
है भरतकूप अनादि सिद्धस्थान, अति शुचि पुन्यदा।
गति काल कर्म विलुप्त, भरत निमित्त से, पुनि प्रगट भा।।
शुचि तीर्थ जल संजोग से, जलकूप अति पावन बना।
मज्जन नियम और प्रेम पूर्वक, करइ शुचि मन, बच, क्रमा।
सामान्य जन आलस्य में भी, राम नाम ले भाव से।
होती सुलभ सब सिद्धि निश्चय, राम नाम प्रभाव से।।
श्रीराम हित, भव दु:ख दावानल दहइ, हो लाभप्रद।
बिन राम के है व्यर्थ सब, फल मूल पाना परम पद।
माता, पिता, गुरु, स्वामी, आज्ञा पालना शुचि धर्म है।
सब तर्क तजि पालइ, न पतन, कुकर्म बनत सुकर्म है।।
मुख के समान उदारता से, कर्म सब मुखिया करे।
खाये अकेल, विवेक पूर्वक, अङ्ग सब पोषण करे।
जिस भाँति मन भीतर, मनोरथ का अदृश्य निवास है।
सब राजधर्म निचोड़ जनहित निरत, सतत प्रयास है।।
भगवान के पग पीठ दो, जिमि प्राण रक्षक, जीव के।
सम्पुट भरत के प्रेम रत्नहिं, नाम अक्षर ईश से।
रक्षार्थ रघुकुल दोउ कपाट, सुकर्म हित दो हाथ हैं।
सेवा धरम पथ दृष्टि हित, जिमि नयन पाँवर पाथ हैं।।
यदि प्रजा पालक भोग सुख, तन-मन-वचन से त्याग दें।
भगवान, शासक, प्रजा दोउ कहुँ, गति शुभग, सब भाँति दें।
ऐश्वर्य में भी अनासक्त रहे, तो जीवित मुक्ति है।
जिमि भ्रमर चम्पक बाग में, पाते वहीं प्रभु भक्ति हैं।।
यह नियम, व्रत से तेज, तन हो क्षीण, यह सम्भाव्य है।
बल कान्ति मुख की, प्रीति प्रभु की, नित्य नव, पर प्राप्य है।
श्री भरत का आचरण, परम पुनीत मङ्गल दायका।
सब मोह निशा विनाशकर, कलि क्लेश पाप निवारका।।
संताप दल नाशक, सकल भव-भार-भञ्जन हेतु है।
आनन्द दायक, भक्त कहुँ प्रभु भक्ति हित, वर सेतु है।
सिय राम प्रेम पियूष से, परिपूर्ण जीवन भरत का।
यम, नियम, सम, दम, कठिन व्रत, आचरण सब जग जानता।।
श्री भरत का आचरण, जगहित हेतु, वर आदर्श है।
कलिकाल, दु:ख, संताप, दारिद, दम्भ, निशि कहुँ सूर्य है।
सादर नियम से भरत चरित, जे सुनहिं, जीवन आचरें।
सिय राम पद हो प्रीति निश्चय, भव-जलधि में नहीं गिरें।।
जो धर्म तरु के मूल, सिंधु विवेक हित, शशि पूर्ण हैं।
वैराग्य-कञ्ज विकास हित, तम पाप नाशक सूर्य हैं।
जो मोह-घन कहुँ पवन, हरत त्रिताप, जो आत्मज अजम्।
मम भाव नमन, कलंक नाशक, राम प्रिय, श्री शंकरम्।।
जिसका सुतन, जलयुक्त घन जिमि, श्याम, आनन्द रूप है।
तूणीर कटि, कर चाप शर, जो पीत वलकल, युक्त है।
पंकज नयन, मस्तक जटा युत, पथिक परम सुहावने।
सिय लखन सङ्ग आनन्द दायक, राम भज मन भावने।।
श्रीराम गुण अति गूढ़, प्राप्त विरक्ति, जानत बुध मुनी।
जे ईश विमुख न धर्म रति, ते भटकते भव निधि घनी।
लघु जीव चींटी चहे कोउ जिमि, थाह लें वारीश की।
तिमि मन्द मति, कोउ मूढ़ अति, जो लें परीक्षा ईश की।।
श्रीराम द्रोही के लिए है, मृत्यु सम निज मातु भी।
साक्षात् यम पितु, विष अमिय, अरि कोटि करनी, सुहृद की।
सुरसरि तिनहिं वैतरणि सम, नहिं ठाँव तेहिं ब्रह्माण्ड में।
जो राम से हों विमुख उनको, जग ज्वलनतम आग से।।
जो राम शरणागति बने, भयभीत आतुर भाव से।
अघकोटि क्षमहिं कृपालु, करुणासिंधु सरल स्वभाव से।
हे भक्त वत्सल, हे कृपालु, स्वभाव सरल, नमामि हे।
निष्काम जन दे धाम निज, प्रभु चरण-पद्म भजामि हे।।
सुन्दर नितान्त सुश्याम तन, भव-सिंधु मन्थन मन्दरा।
कुसुमित कमल लोचन, मदादिक दोष-निशि कहुँ, दिनकरा।
है अप्रमेय, असीम, तव भुज पराक्रम वैभव प्रभो।
कर चाप शर धर, कटि निसंङ्ग त्रयलोक स्वामी, हे विभो।।
हे सूर्य वंश विभूषणम्, शिव धनुष भंजक ईश हे।
मुनि सन्त आनन्द कन्द, सुर रिपु असुर गरल गिरीश हे।
तुम सदा वन्दित शम्भु से, सेवित अजादिक देव से।
विज्ञानमय विग्रह, तथा सब दोष नाशक देव हे।।
लक्ष्मी पते, सुख सिन्धु, सद्गति रूप, अनेक में एक हो।
जन भजन रत, प्रभु राम सीता लखन सहित, कृपालु हो।
मत्सर रहित हो, जो करहिं, तव चरण पंकज सेवया।
ते तरहिं, तर्क वितर्क सागर तरङ्ग सकल, विनहिं भया।।
जो मुक्ति हित, एकान्त बस, निग्रह करहिं, इन्द्रियादि का।
पाते स्वकीय सुगति, भजहिं जो राम को, शुचि मन मुदा।
जो ईश, अद्भुत, अद्वितीय, तुरीय, सर्व समर्थ है।
इच्छा रहित, व्यापक, सनातन, जगत गुरु, सर्वज्ञ है।।
निज रूप स्थित जो, भाव प्रिय, दुर्लभ कुयोगी जीव को।
निज भक्त हित जो कल्पतरु, भज सुखद करुणासींव को।
हे ईश अनुपम, जगतपति, जानकी नाथ प्रणाम हे।
पदकञ्ज भक्ति दो, होकर प्रसन्न, रक्ष माम, नमामि हे।।
जो भाव आदर सहित करते, प्रार्थना भगवान की।
तेहिं भक्तिमय कर राम देते परमंपद, निज धाम की।
सज्ञान जन, जो तजि सकल इच्छा, करें यह भावना।
प्रति जन्म बस श्रीराम पद-पंकज-चरण-रति कामना।।
माता, पिता, भ्रातादि निश्चय, सभी हितकर नारि को।
पति किन्तु सुखद असीम, सेव न तेहि, अधम अति नारि सो।
होती परीक्षा विपत्ति में धीरज, धरम, तिय, मित्र की।
अनुकूल पर सब सुहृद गति, प्रतिकूल निबहत भृंग ही।।
हो वृद्ध, रोगी, मूर्ख, बहरा, अंध, क्रोधी, दीन जो।
अपमान ऐसेहु पति किये, तिय पाव यमपुर त्रास को।
तन-मन-वचन से पति चरण में प्रेम, नारी धर्म है।
उनके लिए व्रत, नियम, पति सेवा सही सद्कर्म है।।
पतिव्रता चार प्रकार जग, श्रुति, सन्त, वचन, पुराण का।
उत्तम जो पति तजि स्वप्न में भी, भाव लाव न आन का।
मध्यम विलोके पर पुरुष, भ्राता, पिता, सुत, वय यथा।
तिय निकृष्ट, जो कुल धर्म बस सत्पथ, मगर मन अन्यथा।।
सो अधम, अवसर बिना, या भय बस, रहत पथ विरत जो।
पति त्याग, पर नर रति करे, रौरव नरक शत, परत सो।
प्रतिकूल पति, पाती जवानी विधवपन, बहु जन्म में।
शत कोटि जन्म दु:खद, करे निज हाथ, पल सुख भोग में।।
छल छोड़, करती ग्रहण जो पतिव्रत सतत्, वह धन्य है।
पाती परमगति, परिश्रम बिन, नारि धर्म न अन्य है।
जो नारि सीता आचरण अनुसार, प्रतिव्रत पालती।
सौभाग्यवति वह नारि, नाव प्रयास बिन भव पारती।।
अज, विष्णु, शिव, सनकादि, सब परमार्थवादी, तेहिं भजें।
सो राम, पुरुष निकाम, निज जन को, सदा अति प्रिय लगें।
सब देव का तजि ध्यान, जो बस राम का सुमिरन करें।
बड़भाग्य ते, प्रिय राम के, तेहि राम सब विधि भल करें।।
जप-तप-नियम-व्रत कोटि विधि, कोउ करे जब, भगवत् कृपा।
तब राम का हो दरश, तन अति पुलक, लोचन जल बहा।
जप, योग, धर्म, समूह, सब साधन, भगति बस साध्य है।
दरशन स्वयं साधन, भगति प्रभु कृपा रहित, असाध्य है।।
श्रीराम यश कीर्तन श्रवण, नाशक सकल कलि पाप का।
इन्द्रिय दमन कारक, सकल सुख मूल, पद रति राम का।
कलिकाल पापाचार कोष, न धर्म, ज्ञान, न योग है।
जे चतुर, सब तजि भजहिं बस श्रीराम, अति मनयोग हैं।।
श्रीराम लक्ष्मण उभय बिच सिय, निरखि मन अस भाव हो।
जिमि ब्रह्म जीव सुमध्य माया, राम की गति प्राय हो।
जप, योग, तप, व्रत, यज्ञ आदिक, साधना फल, भक्ति है।
ज्ञानी सदा प्रभु भक्ति मांगहिं, जो प्रभु कृपा वर उक्ति है।।
जो भक्ति का वरदान करते प्राप्त, मोक्ष न ते चहें।
गति दुर्लभा अति भक्ति, कोउ एक पाव, कोटि जनम गहे।
जब भक्त, ज्ञान, विराग, जप, तप, यज्ञ, व्रत आश्रय रहित।
सब आसरा तज राम पद अनुरक्त, प्रभु तेहि पर मुदित।।
विज्ञान का सुप्रकाश जब हो, प्राप्त प्रेमा भक्ति हो।
प्रभु का दरश फल तब मिले, जब राम में अनुरक्ति हो।
जो अल्पमति, अज्ञान अति, किस भाँति प्रभु सुमिरन करें।
महिमा अपार तुम्हार प्रभु, खद्योत् किमि रवि पट तरे।।
प्रभु नील पंकज, श्याम तन, सिर जटा, वलकल पट धरा।
मुनि वेष सङ्ग, कर चाप शर, श्रीराम नमन निरन्तरा।
जो मोह-वन हित अग्नि, सन्त-कमल-विपिन हित भानु हैं।
निशिचर-गजन्ह केहरि जो रक्ष, सो नाथ भव खग बाज हैं।।
जो अरुण कञ्ज नयन, सुवेष, चकोर-सिय-दृग चन्द्रमा।
हर हृदय मानस बाल हंस, नमामि उर, भुज विक्रमा।
जो गरुण-संशय-सर्प समक, विशाद-तर्क सुकर्कशा।
सो राम रक्षहि मोहि, सुर-आनन्द, जो भव नाशका।।
निर्गुण, सगुण, सम, विषम, इन्द्रिय, ज्ञान, वाणी से परे।
मम नमन, अनुपम राम, निर्मल, मार जो महिमा हरे।
जो कल्प-उपवन भक्ति हित, कामादि अरि, जिससे डरें।
मोहि रक्ष रविकुल ध्वज सो राम, जो सेतु भव जलनिधि करे।।
भुजबल प्रताप अपार, बल-निधि, नाम कलिमल सब हरे।
आनन्ददायक, धर्मरक्षक राम, नित्य कृपा करें।
यद्यपि अजर, व्यापक, विरज, सब हिय निरन्तर वास है।
मम हिय बसहु, वन वेष प्रभु, सिय लखन संग यह आस है।।
प्रभु आप निर्गुण, सगुण, अन्तर हृदय की सब जानते।
मम हिय बसहु, प्रभु राम, पंकज-नयन, यह वर मांगते।
है राम स्वामी, दास मैं यह भाव भूल न मन तजे।
सीता-लखन सङ्ग राम धनुधर, शशि हृदय, मम नभ बसें।।
श्रीराम का यह सरल, सुखद स्वभाव, सेवक अनुसरें।
मांगे बिना सर्वस्व दें, बिनु हेतु सदा कृपा करें।
प्रभु भजन के सुप्रभाव से, जन कछुक महिमा जानते।
माया विशाल ज्यों विटप गूलर, ब्रह्माण्ड फल अनुमानते।।
चर-अचर जीव तमाम, जन्तु समान, फल भीतर बसें।
बस एक फल जग जान, आन न, काल फल भक्षक डरें।
सब लोक पति सोइ राम, बल, गुण, धाम, सदा कृपा करें।
सीता-लखन सङ्ग राम सोइ, ममहिय निवास सदा करें।।
अविरल भगति वैराग्य, सतसंगति, निरति पदपद्म में।
दो राम, यद्यपि ब्रह्म अखण्ड, अनन्त, अनुभव-गम्य हे।
नित संत जन भजते जिन्हें, बहुरूप से, बहुनाम से।
सुन्दर, सगुण सोइ रूप, मोहि प्रिय, देहु दास कृपालु हे।।
प्रभू राम ज्ञान निधान, देते ज्ञान, जिज्ञासुन्ह सदा।
माया, विराग, व ज्ञान, ईश्वर जीव भेद कहहिं मुदा।
संक्षेप में माया है मैं अरु मोर, तैं अरु तोर, बस।
जिसके प्रभाव में जीव जग, झेलते सुख विपदा विवस।।
सब इन्द्रियों के विषय, मन की पहुँच जानों जहाँ तक।
माया का ही परिवार, गुण व स्वभाव, देश व काल, सब।
माया के हैं दो प्रकार, विद्या औ अविद्या गुणमयी।
विद्या रचयी प्रभु प्रेरणा से जगत, निज बल तेहिं नहीं।।
है अविद्या माया प्रबल अति दोषयुत, दु:खरूप जो।
जिससे विवश है जीव पड़ा हुआ, जगत के कूप में।
है ज्ञान वह नहिं मान जँह, है जहाँ दोष नहीं कोई।
सब दृश्य जग देखे जो ब्रह्म समान, है ज्ञानी सोई।।
वैराग्य वान वहीं, जो सारी सिद्धियों, गुण ज्ञान को।
तिनके समान है समझता, सब मोह, माया रहित जो।
माया या ईश्वर, स्वयं को, जानें न, वह ही जीव है।
कर्मानुसार, दे बन्ध, मोक्ष, वह माया प्रेरक ईश है।।
हो धर्म के आचरण से वैराग्य, ज्ञान हो योग से।
हो मोक्ष ज्ञान से, वेद वाणी, भक्ति राम प्रसाद से।
प्रभु भक्ति से हैं रीझते, है भक्ति अनुपम सुखप्रदा।
है भक्ति परम स्वतंत्र, ज्ञान, विज्ञान, जेहिं आधीन सा।।
है भक्ति सुख की मूल, मिलती संत जब अनुकूल हों।
प्रभु से मिलाती भक्ति, अतिशय सुगम, पंथ न शूल हो।
है भक्ति का साधन प्रथम, अति विप्र पद में प्रेम हो।
सब जीव, निज निज कर्म, वर्णाश्रमनुसार हों निरत जो।।
इसका सुफल वैराग्य, तब भागवत् धर्म में प्रेम हो।
पहले श्रवण, कीर्तन, श्रीविष्णु में, स्मरण, अर्चन, वन्दनम्।
हो सख्य, दास्य में निरति, नवधाभक्ति, आत्मनिवेदनम्।
तब रामलीला में परम् हो प्रेम, मन, वच, शुद्ध हो।।
हो प्रेम सन्त के पद कमल, मन, वचन, कर्म से भजन हो।
माता, पिता, गुरु, बन्धु, पति, सुर, सेवा राम समान हो।
हो श्रीराम का गुणगान करते, तन पुलक, गदगद गिरा।
हो अश्रुपूरित नेत्र, तब हो, भक्ति में मन अति स्थिरा।।
हो काम, क्रोध, न लोभ, मोह, न मद, न हो मत्सर कभी।
ऐसे जो भक्ति प्रवीण जन, हो राम सन्तत बस तभी।
मन, वचन, कर्म से राम पद हो प्रेम, भजन करे सदा।
श्रीराम, ऐसे भक्त के हिय में हैं बसते सर्वदा।।
कामान्ध, अज्ञानान्ध, नारी, भ्राता, पिता, सुत, मनोहर।
होती विकल, मन रोक पाती नहीं, बहुधा देखकर।
सेवक जो चाहे सुख, भिखारी मान, ब्यसनी धन, यथा।
व्यभिचारि शुभ गति, लोभी सुयश, अभिमानि धर्मादिक तथा।।
जो नभ से दुग्ध दोहन चहें, अधम नर-नारी छली।
सब असम्भव को चाहते सम्भव बनाना, अस खली।
है राजनीति हितार्थ, धन, अरु धर्म, आवश्यक विधा।
प्रभु को समर्पे बिना, सब सद्कर्म, फलित न हों यथा।।
विद्या से हो न विवेक, तो श्रम, पठन-पाठन, सब वृथा।
हो विषय लोलुप्त सन्यासी, हो कुमंत्री, नृप को यथा।
मानी हो ज्ञानी, मद्दी न लज्जित, प्रीति, बिना विनम्रता।
हो अहंकारी गुणी, शीघ्र ही नष्ट हों सब सर्वदा।।
रिपु, रोग, पावक, पाप, प्रभु, को कभी लघु समझे नहीं।
जड़ से मिटावे शीघ्र, घातक अन्यथा बनते सभी।
ये नीति की बातें सभी, पालन सदा, सब बिधि करे।
यदि अन्यथा करता कोई, भव-अग्नि में वह जल मरे।।
यदि दुष्ट बनें विनम्र, वाणी मधुर बोले, जान लो।
अंकुश, उरग, बिल्ली, धनुष, सम बनें घातक मान लो।
हो शस्त्रधारी, भेदज्ञानी, स्वामि, शठ, बन्दी, धनी।
हो वैद्य, कवि, या रसोइयां, नव से विरोध उचित नहीं।।
श्रीराम का गुण, रूप, सरल स्वभाव, शत्रु जो जानते।
उन परम प्रीतम का दरश, लोचन सफल कर मानते।
प्रभु परम कृपा निधान, उनका क्रोध भी है, मोक्षदा।
ऐसे दयालु के चरण, शरण में, निरत भक्त हों सर्वदा।।
प्रभु राम की लीला-रहस्य को, निगम, शम्भु न जानते।
कब क्या करें, वैâसे करें, श्रुति, नेति-नेति पुकारते।
श्रीराम अन्तर प्रेम लख, करते कृपा, निज भक्त पर।
बिन भेद करते कृपा, सुर, असुर जो भी, नारि, नर।।
प्रभु राम भृकुटि विलास मात्र से, सृष्टि रचते, नाशते।
माया विवश, जड़-जीव चले कुपन्त, धर्म न मानते।
जब नर कुपथ पर पग धरे, बल, तेज, बुद्धि, विनष्ट हो।
वह काल बस, होकर विवश, श्रुति धर्म तज, पथ-भ्रष्ट हो।।
श्रीराम पूरण काम, करते मनुज लीला भक्त हित।
वे परम करुणा धाम, अज, अनवद्य, अविनाशी, सहित।
प्रभु के चरण में चिह्न, अंकुश, धनुष, पंकज, बङ्का हैं।
जिनका हैं करते ध्यान, भक्त जो, राम-पद अनुरक्त हैं।।
श्रीराम दर्शन करे तब, सब पीर तन-मन नष्ट हो।
जो मृत्युकाल में नाम ले प्रभु का, अधम भी मुक्त हो।
प्रभु अगम, सुगम भी, विषम,सम भी,शान्त,निर्मल,भाव-प्रिय।।
सो सदा भक्तन्ह उर बसें, लक्ष्मण सहित श्रीराम-सिय।।
श्रीराम का अतिचित्त कोमल, कारण बिना वे दयालु हैं।
वे अभागे, जो राम तजि, विषयाें में अति अनुरक्त हैं।
श्रीराम प्रभु को, ब्रह्मकुल द्रोही, न कभी सोहात है।
मन, वचन, कर्म से, निष्कपट सेवा से, राम लुभात हैं।।
दे श्रॉप, मारे, कटु वचन कहे, फिर भी विप्र है, पूजनीय।
हो शील या गुण रहित, विप्र है पूजनीय, अद्वितीय।
हो शूद्र ज्ञानी, गुणी, फिर नहीं पूजन योग्य है।
यह संत वचन प्रमाण, भागवत धर्म, साधन योग्य है।।
जो भक्त श्रद्धा भक्ति से, पूजन करे श्रीराम का।
षोडस प्रकार, या मात्र एक, से रीझते गुण ग्राहका।
जो प्रेम से करते समर्पित, कन्दमूल फलादि जो।
प्रभु राम प्रेम सहित लगाते भोग, लख भक्त के भाव को।।
प्रभु राम जाति, न पाँति, मानें, धर्म, कुल या बड़ाई।
नहिं धन, न बल, परिजन न गुण, नहिं चतुरता, प्रभु सोहाई।
वे मात्र भक्त को भक्त मानें, जो भक्तिहीन न प्रिय उन्हें।
जैसे जलद हो जल रहित, हैं दूर रखते, प्रभु तिन्हें।।
नवधा भगति प्रिय राम को, पहली भगति, संतों का सङ्ग।
दूसरी प्रभु की कथा रति, तीसरी सेवा गुरु-पद्म-पग।
चौथी भगति प्रभु गुण गनों का गान, श्रद्धा-भाव से।
है भक्ति पंचम, मंत्र जप श्रीराम का, विश्वास से।।
छठवीं भगति है शील, निग्रह इन्द्रियों का, जान लो।
वैराग्य हो अति कर्म से, संत आचरण रति, मान लो।
प्रभुमय दिखे जग, भक्ति सप्तम, संत राम से श्रेष्ठ हों।
संतोष अष्टम भक्ति है, परदोष स्वप्न में भी न हो।।
है भक्ति नवन, कपट रहित, सज्जन हो, सरल स्वभाव हो।
प्रभु पर भरोसा सदा, हर्ष-विषाद बिनु, सब भाव हो।।
यह भक्ति नवधा, एक भी यदि हो, किसी नर-नारि में।
प्रभु राम को वह परम प्रिय, है जीव भव-निधि धार में।।
प्रभु दरस का फल, परम अनुपम, जीव पाता निज स्वरूप।
जड़-जीव, कर्म विविध, अधर्म को त्याग, मत पड़ जगत कूप।
यह नीति शास्त्र, परम सुचिंतित, किंतु पुनि-पुनि देखिये।
युवती परम प्रिय, नृपति सेवित, शास्त्र बस नहिं लेखिए।।
हैं काम, क्रोध व लोभ, परम खल, तीन विवश मुनि ज्ञानी।
लोभ के इच्छा, दम्भ के बल, हैं काम के नारि सयानी।
क्रोध को परुष वचन बल केवल, मुनिवर कहहिं बखानी।
षड्-विकार से ग्रसित जीव, तब राम कृपा कल्याणी।।
गुणातीत प्रभु राम, स्वामि सचराचर, अन्तर्यामी।
दृढ़-वैराग्य विवेकी, लीला भाव, विवशता कामी।
क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि छूटे, जब राम कृपा हो।
माया इन्द्रजाल सम, जीव बचे, जब प्रभु दाया हो।।
शिव का अपना अनुभव, नर दृढ़ हरि भजन जगत सब सपना।
संत हृदय निर्मल, उदार, गृह जाचक, भीड़ का जुटना।
मायाच्छादित ब्रह्म, धर्मशीलन्ह का, जीवन सुखी सदा हो।
पर उपकारी पुरुष, सुसम्पत्ति पाइ नवहिं, सुखदा हों।।
प्रभु श्रीराम सदा प्रसन्न, पर भाव विवश मुनि ज्ञानी।
यथा भाव निज समझहिं प्रभु को, सुख-दु:ख परम सयानी।
अन्तर्यामी राम सदा चाहते भक्त कुछ मांगे।
सरल स्वभाव राम का, दे निज जन को, जो वह माँगे।।
राम के नाम अनेक, एक से एक बड़े, सुखदायी।
भक्त हृदय की जो भी रूचि हो, सब नाम में, सब प्रभुताई।
राम नाम पर सरल, ॐ में अग्नि सदृश तेजस्वी।
राम नाम ज्यों सोम पूर्णिमा, तारागण, उडगण सी।।
भक्त भजहिं जेहिं भाव राम को, तजि कर सकल भरोसा।
जिमि माता निज बालक रक्षा करती, करें सुरक्षा।
प्रौढ़ पुत्र पर तस न प्रित जननी की, जैसे ज्ञानी।
प्रौढ़ तनय सम ज्ञानी प्रभु को, बालक दास अमानी।।
भक्त की श्रद्धा प्रभु बल पर, निज बल आश्रित हों ज्ञानी।
अस विचार सब पण्डित भजते, राम धरे धनु पानी।
काम, क्रोध आदिक रिपुओं से, सदा बचाते राम।
इसीलिए ज्ञानी भी भक्ति नहीं तजते प्रभु सुख धाम।।
काम, क्रोध, लोभादि प्रबल खल, सभी मोह की सेना।
माया रूपी नारि दु:खद अति तिन्ह मह, यह श्रुति वचना।
अवगुण मूल, शूलप्रद प्रमदा, दु:ख की खानि सदा ही।
प्रभु की कृपा होय तब रक्षा, हो इनसे सज्जन की।।
प्रभु राम निज जन से ममत्व व प्रेम कृपा सदा करें।
मति मन्द, अज्ञानी वे नर, जो राम का न भजन करें।
प्रभु सन्त के बस सदा रहते, संत के गुण हैं अमित।
हैं सन्त अनघ, अकाम, शुचि, सब षड्विकारों से रहित।।
वे पाप व कामना रहित, सरल, अकिञ्चन, सुखप्रदा।
ज्ञानी, अनिह, कवि, कोविद, वे मिताहारी सर्वदा।
मानद, सदा मदहीन, निष्ठा सत्य पर अति संत की।
वे धीर, धार्मिक, सावधान, निपुण, न सुधि, गृह देह की।।
गुणवान, जग दु:ख रहित, वे सन्देह बिन प्रभु पद निरत।
निज गुण सुनत सकुचाहिं, हर्षहिं सदा पर गुण को सुनत।
समभाव, शीतल, नीत पालक, सरल, सबसे प्रेम अति।
जप, तप, व्रती, अतिशय्यमी, गुरु, गोविन्द, द्विज, पद, परम रति।।
सम, दम, दया, श्रद्धा, मैत्री, क्षमा, विरति, विवेकमय।
सद््ज्ञान, वेद-पुराण का, विज्ञान, दम्भ रहित, विनय।
नहिं कुमारग पद देहिं गावहिं, सुनहिं, प्रभु लीला सदा।
परहित में रत प्रभु पद निरत, श्रद्धा, क्षमा, दया, मित्रता।।
हैं संत के गुण अमित, सारद, शेष, श्रुति नहिं कह सकें।
प्रभु राम परम दयालु, भक्त हितार्थ, गुण निज मुख कहे।
है दीपशिखा समान युवती तन, रे मन, न पतंग बन।
तजि काम, मद, भज राम, कर सत्संग, जीवन परम धन।।
“Manas Navanit” Book Written by Dr. Prabhakar Dwivedi ‘Prabhamal’
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