भगवान सर्वज्ञ, सब रूपों में और हमारे हृदय-दिमाग में किस प्रकार से समाये हुये हैं

भगवान हर व्यक्ति के अन्दर किस तरह से अंग-प्रत्यंग में विराजमान है, कैसे हम उस भगवान का दर्शन अपने हृदय में कर सकते हैं,

भगवान सर्वज्ञ, सब रूपों में और हमारे हृदय-दिमाग में किस प्रकार से समाये हुये हैं
Gyaan Aur Pratigya

ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय

ज्ञान और विज्ञान की प्रतिज्ञा

ॐ आनन्दमय भगवान ने विज्ञान सहित ज्ञान को कथन करने की प्रतिज्ञा की अ०९ श्लोक १ में की है। परन्तु यह विज्ञान-सहित ज्ञान के पात्र दोष दृष्टि वालों के लिये नहीं है। पुन: श्री गीता अ०९ श्लोक २ में विज्ञान सहित ज्ञान की महिमा का कथन किया गया है।

इस विज्ञान सहित ज्ञान का सुगम अर्थ आश्रम से प्रकाशित होने वाली पत्रिका २०१०-११ में प्रकाशित किया गया है। पृष्ठ सं.४६ पर। फिर भगवान ने आगे श्लोक ३ में इस ज्ञान में श्रद्धा न रखने वालों के लिये जन्म-मरण रूप संसार चक्र की प्राप्ति बतलाई।

श्री विश्वशान्ति ग्रन्थ भाग-१ में प्रकाशित श्री सच्ची प्रेम भक्ति के आँठवें मंत्र में सर्वव्यापी ॐ आनन्दमय परमात्मा को सर्वत्र सब रूपों में और अपने हृदय (दिमाग) में मानने का आदेश दिया है। इस आदेश के तत्त्व-रहस्य को श्री गीता अ०९ श्लोक ४ में पूर्णतया समझाया है।

ॐ आनन्दमय भगवान सर्वज्ञ, सब रूपों में और हमारे हृदय-दिमाग में किस प्रकार से समाये हुये हैं। उसको इस श्लोक में अच्छी प्रकार से समझाया है। जैसे बर्फ है वह जल का ही स्वरूप है। पहले भी वह जल था, इस रूप में भी वह जली ही हो जायेगा। जल ही बर्फ के रूप में दिखलाई दे रहा है। पहले भी जल था, बर्फ के रूप में भी जल है और बाद में भी जल रह जायेगा। इसी प्रकार जगत में जो कुछ भी दर्शन श्रवण मिल रहा है, वह ॐ आनन्दमय परमात्मा का ही है। और जब दर्शन, श्रवण समाप्त हो जायेगा फिर वही ॐ आनन्दमय परमात्मा ही रह जायेगें।

अर्थात आरम्भ में और अन्त में ॐ आनन्दमय भगवान ही हैं। बीच में जो दर्शन-श्रवण मिल रहा है इसमें भी वहीं हैं। उनके सिवा कुछ नहीं है। जैस्ो बर्फ के पहले जल ही था, बीच में वह जल बर्फ के रूप में दिख रहा है, परन्तु वह जल ही हो जायेगा। इसी प्रकार यावन-मात्र जो दर्शन श्रवण मिल रहा है, यह समस्त परमात्मा का स्वरूप है। बाद में वही रह जायेंगें। पहले भी वही थे और बाद में भी वही रहते हैं। बीच का अज्ञानमय स्वरूप, ज्ञान से समाप्त होने पर फिर उन्हीं का दर्शन होता है। इसीलिये सर्वप्रथम श्री सच्ची प्रेम भक्ति का है कि हे प्यारे प्रेमियों ! ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय नाम-रूप को मत भूलो, मुझे सर्वत्र, सब रूपों में और अपने हृदय-दिमाग में मानों।

यह पाठ पक्का होते ही श्री गीता अ०६ श्लोक ३०-३१ की स्थिति हो जाती है। यह स्थिति प्राप्त हो जाने के पश्चात् फिर आज्ञाकारी भक्त मोहित नहीं होता। अ०२ श्लोक ६२। ॐ शान्तिमय