रणभेरी Ranbheri
Ranbheri book written by Dr. Prabhakar Dwivedi Prabhamal, वीर रस का खण्ड काव्य
रणभेरी (Ranbheri)
(वीर रस का खण्ड-काव्य)
-डॉ॰ प्रभाकर द्विवेदी प्रभामाल
Ranbheri book written by Dr. Prabhakar Dwivedi Prabhamal
आमुख (Introduction)
स्वतंत्रता के पश्चात भारत ने अपना संविधान अपनाया। विश्व शान्ति के लिए हमने पञ्चशील का सिद्धान्त विश्व को सिखलाया। विशेषकर पड़ोसियों के साथ हिलमिल कर रहने का हमने संकल्प अपनाया। चीन और पाकिस्तान के साथ हमने भाईचारे का नाता रखने के लिए हाथ बढ़ाया। ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा पुरजोर लगाया। हमने विश्व को सबकी सुख-शान्ति, आरोग्य एवं शिक्षा का पाठ पढ़ाया। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्नीस सौ बासठ में चीन ने हमारे साथ द़गाबा़जी की। बाहर से दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए दिखावा करके, वह हमारी आस्तीन का साँप बन गया। जिस हिमालय को हम लोग अतीत से अब तक दुर्जेय समझते रहे, वहाँ चीन ने धोखे से एकाएक आक्रमण करके हमारे विश्वास को मटियामेट कर दिया। वहाँ लाशों के ढेर लग गये, रक्त की नदियाँ बह चलीं। हम हिमालय की तरफ से निश्चिंत थे, किन्तु द़गाबा़ज चीन ने हमारी धरती पर आक्रमण करके हमें युद्ध के लिए म़जबूर कर दिया। हमारे पास जो भी सैन्य-शक्ति थी, हमने डटकर शत्रु से लोहा लिया और उन्हें पीछे हटने के लिए बाध्य कर दिया। किन्तु चीन के साथ हमारा विश्वास उसके विश्वासघात के कारण डिग चुका था। अत: हमने हमेशा के लिए अपनी सैन्य-शक्ति को बढ़ाने का संकल्प लिया। विश्व ने हमारी इस संकट की घड़ी में हमारा साथ दिया।
इसी बीच उन्नीस सौ पैंसठ में चीन के उकसावे में आकर, पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। अब तक हम सावधान हो चुके थे। दोनों शत्रुओं के हाथ मिलाने से हम सतर्क हो चुके थे। हमने अपनी सैन्य-शक्ति को काफी म़जबूत कर लिया था। अत: पाकिस्तानी क्रूर आक्रमण को ध्वस्त करने के लिए, हमने सीमाओं के पार जाकर शत्रु को खदेड़ दिया, किन्तु विश्व समुदाय के दबाव में हमें अपने सैन्य दल को वापस बुलाना पड़ा और बाध्य होकर शान्ति के हित में समझौता करना पड़ा।
उन्नीस सौ एकहत्तर में पाकिस्तान ने चीन के साथ दुरभिसन्धि करके पुन: आक्रमण कर दिया। अब तक हम एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में सजग हो चुके थे। हमने शत्रु की ईंट का जबाब पत्थर से दिया और शत्रु के सपनों को चकनाचूर कर दिया। पाकिस्तानी जनरल नियाजी को हमारे जनरलों ने हथियार डालने को बाध्य कर दिया। पाकिस्तान के बानबे हजार से अधिक सैनिकों को हमने बन्दी बना लिया और तब के पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान से मुक्त करके, बंगलादेश के रूप में हमने एक नये देश के रूप में प्रतिष्ठापित कर दिया। विश्व के इतिहास में यह अनोखी घटना घटित हुई। सम्पूर्ण राष्ट्र बंगलादेश के साथ-साथ अपनी विजय वाहिनी का स्वागत और अभिनन्दन करने में अनन्य भाव से खुशियों में डूब गया। इन्हीं घटनाक्रमों के बीच ‘रणभेरी’ का प्रादुर्भाव हुआ।
चीनी आक्रमण के समय मैंने कुछ वीर रस की पंक्तियाँ छिटपुट रूप से लिखी, किन्तु जब पाकिस्तान का आक्रमण हुआ तब कवि हृदय व्याकुल हो उठा और ‘रणभेरी’ लिखने का संकल्प स्वत: जागृत हो उठा। पाकिस्तान के दूसरे आक्रमण के समय तक ‘रणभेरी’ लगभग सम्पूर्ण हो चुकी थी किन्तु इस आक्रमण के बाद उसमें और संशोधन और परिवर्धन हुआ और अन्तत: ‘रणभेरी’ अपने समग्र रूप में आज प्रस्तुत है।
इस ‘रणभेरी’ को युद्ध के दिनों में मैंने अनेक विद्यालयों में और कवि गोष्ठियों में सुनाया और सबने इसकी प्रशंसा की। सौभाग्य से उन्नीस सौ तिहत्तर में राष्ट्र कवि, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ प्रयाग पधारे। वे ‘वैद्यनाथ’ के रामअवतार शर्मा वैद्य के आवास पर ठहरे थे। मुझे जब यह सूचना प्राप्त हुई तो ‘दिनकर’ जी से मिलने और उन्हें ‘रणभेरी’ सुनाने का मोह संवरण न कर सका। दोपहर विद्यालय से अवकाश के समय में मैं वैद्य जी के घर पर पहुँचा और अपने आने की सूचना दी। आदरणीय दिनकर जी से मेरे पिता जी के नाते पूर्व परिचय था। दिल्ली में ईस्ट विनय नगर में वे एक बार पिता जी से मिलने पधारे थे और पिता जी ने मेरा उनसे परिचय कराया था। यह घटना उन्नीस सौ पैंसठ की है। इसके पूर्व उन्नीस सौ पचास में जब मैं बिरला हाई स्कूल, पिलानी का छात्र था तो उस वर्ष ‘बिरला एजुकेशन ट्रस्ट’ की स्वर्ण जयन्ती मनायी गयी थी जिसमें कविवर ‘दिनकर’ जी भी पधारे थे। उनका भव्य व्यक्तित्व तभी से मेरी आँखों में रच बस गया था।
‘दिनकर’ जी मेरे पिता जी को ‘बड़े भाई’ कहकर पुकारते थे। मैंने इसी परिचय के साथ अपना संदेशा वैद्य जी के आवास पर पहुँचकर दिनकर जी को दिया था। ‘‘ आपके ‘बड़े भाई’ हरिशंकर शर्मा के सुपुत्र ‘प्रभाकर’ आपसे मिलना चाहते हैं।’’ वे उस समय भोजन करके विश्राम कर रहे थे, किन्तु मेरा सौभाग्य कि उन्होंने नाम सुनते ही मुझे बुला भेजा और बड़े प्रेम से अपने पास बैठाकर हालचाल पूछे। मैंने अपनी ‘रणभेरी’ के बारे में उन्हें बताया तो वे उठकर बैठ गये और मेरी इस रचना को सम्पूर्णता से एकाग्रचित होकर सुनते रहे। रचना पढ़कर जब मैंने समाप्त किया तब मेरे पीठ पर हाथ रखकर उन्होंने मुझे शाबासी दी और कहा- ‘बहुत अच्छा लिखे हो और बहुत अच्छा पढ़ते भी हो’ मैं उनका आशीर्वाद प्राप्त कर गदगद हो गया। उसी प्रसंग में उन्होंने मेरे पिता जी के बारे में कुछ संस्मरण सुनाये। उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री द्वारिका प्रसाद मिश्र जी ने जब ‘कृष्णायन’ लिखा तो उसकी भूमिका लिखने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद को उन्होंने पुस्तक अर्पित किया। राष्ट्रपति को कहाँ इतनी फुर्सत कि वह इतनी बड़ी पुस्तक पढ़ें और भूमिका लिखें। उन्होंने इसकी भूमिका लिखने के लिए मेरे पिता जी को वह पुस्तक दे दी थी और पिता जी ने ही इसकी भूमिका लिखी है। यह संस्मरण सुनकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ और बाद में मैंने पिता जी से भी इसकी चर्चा की, तो वे बड़े विस्तार से उस घटना के बारे में बतलाये।
दिनकर जी ‘रणभेरी’ को सुनकर अपने जीवन का अनुभव बतलाने लगे। उन्होंने कहा– ‘अब कवियों की बातों को, उनकी भावनाओं को, ये आजकल के नेता लोग महत्त्व नहीं देते हैं। मैं लाल किले की चहार दीवारी से और संसद में भी अपनी ललकार सुनाता रहता हूँ। किन्तु आँख के अन्धे और कान के बहरे तथाकथित आज के नेतृत्व के कान में जूँ भी नहीं रेंगती। किन्तु निराश होने की बात नहीं है। कवि को अपना धर्म निभाते रहना चाहिए। आज नहीं तो कल निश्चय ही समाज और राष्ट्र के ऊपर इसका प्रभाव पड़ेगा। निश्चय ही कवियों का योगदान भारत की स्वतंत्रता में और स्वतंत्रता के पश्चात उसके विकास में, उसकी एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण बनाये रखने में कारगर सिद्ध होगा, इसमें जरा भी संशय नहीं है। उन्होंने मुझे अपने आशीर्वाद से प्रेरणा प्रदान की और मैं गद्गद् हृदय से उनके चरण स्पर्श कर वहाँ से विदा हुआ।
भारत की तो यह सनातन परम्परा ही रही है कि जब जब राष्ट्र की सनातन समरसता में व्यवधान पड़ा है, तब कोई न कोई विभूति, भारत की एकता, अखण्णता, समरसता और आसुरी वृत्तियों के विनाश के लिए उठ खड़ी होती है। ऐसा प्रत्येक काल और परिस्थिति में होता रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
यह ‘रणभेरी’ समाज को और राष्ट्र को सजग और सशक्त बनाने में यदि रञ्च मात्र भी अपना योगदान दे सकेगी तो मैं अपने इस कृतित्व को सार्थक समझूँगा।
जय महाकाल –डॉ॰ प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’
पुनश्च;
यह ‘रणभेरी’ पिछले लगभग चालीस वर्षों से अप्रकाशित पड़ी रही। यह एक सुखद संयोग है कि आज जब ‘अन्ना’ की आग सारे देश में भभक रही है, ठीक उसी समय इस ‘रणभेरी’ का प्रकाशन हो रहा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह ‘रणभेरी’ भी इस आग को आगे भी सतत् जलाये रखने में अपना योगदान अवश्य देती रहेगी।
–डॉ॰ प्रभाकर द्विवेदी ‘प्रभामाल’
रणभेरी (Ranbheri)
सौभाग्य तुम्हारा बजी पुन: रणभेरी।
जागो भारत प्रहरी न करो अब देरी।।
जागो भारत हर दिशा, प्रान्त के वासी।
हर धर्म, जाति, वय, लिङ्ग, गृहस्थ, उदासी।।
जागो हिमगिरि के उच्च शृङ्ग शिखरों से।
घाटी, मैदान, मरुस्थल, सरि, नहरों से।।
महलों, झोपड़ियों, कुटियों से, नगरों से।
भारत के हर कस्बों, गाँवों, पुरवों से।।
राजस्थानी ‘राणा प्रताप’ बन जाओ।
भूखे रह भारत माँ की लाज बचाओ।।
तुम ‘अमर सिंह राठौर’ बनो, अरि दहले।
जननी हित प्राणोत्सर्ग गर्व से सह ले।।
रणधीर मराठा वीर ‘शिवा’ बन जाओ।
छल-बल से अरि को मारो, दूर भगाओ।।
हर पंजाबी ‘गोबिन्द सिंह’, ‘हरि नलवा’।
‘रणजीत सिंह’ बन, दे अरि दल को दहला।।
बंगाल, तमिल, केरल, आंध्रा, कर्नाटक।
मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, असम, नगालय।।
गुजरात, उड़ीसा, काश्मीर, हरियाणा।
मीजो, अरुणाचल पहन केशरी बाना।।
दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमांचल।
मध्य प्रदेश, दहला दो दिशा दिगाञ्चल।।
रण हेतु कमर कस बढ़ो, युद्ध आमंत्रण।
भारत जय-ध्वनि से, गूँज उठे समराङ्गण।।
जागो, उठ बढ़ो, शीघ्र भारत नर-नारी।
मत अवसर चूको, फिर कब आवे बारी।।
निज जन्म-भूमि की रक्षा की तैयारी।
बढ़ चलो युद्ध-पथ, बनो मोक्ष अधिकारी।।
तुम वीर ‘वुँâवर सिंह’ बनो, कि अरि दल काँपे।
‘आ़जाद’, ‘भगत’, ‘रोशन’, ‘बिस्मिल’ से बाँके।।
‘अशफाकउल्ला’ बन, हँस फाँसी पर झूलो।
बन लाल पद्मधर, सीने पर गोली लो।।
‘गाँधी’, ‘नेहरू’, ‘सरदार’, ‘सुभाष’ बनो रे।
त्यागी ‘जय प्रकाश’, ‘लोहिया’ पंथ गहो रे ।।
तुम ‘लाल बहादुर’ बनो, शत्रु दल भागे।
डट कर लोहा लो, चढ़ सीमा के आगे।।
हिमगिरि, अरावली, नीलगिरि, विंध्याचल।
सब बनो दुर्ग दुर्गम, उदया-अस्ताचल।।
गङ्गा, गोदावरी, महानदी कावेरी।
सब सरितायें रण हेतु बढ़ो, बिन देरी।।
वन-उपवन, दुर्गमतम गढ़ सब बन जाओ।
औचित्य आज का, माँ की लाज बचाओ।।
उत्तुङ्ग हिमालय, अचल दुर्ग सा बन जा।
मलयानिल, विषमय बन, अरि-दल पर चढ़ जा।।
सागर लहरों को शत्रु ध्वंस करना है।
भारत समग्र को ‘वीरभद्र’ बनना है।।
वन-उपवन के फल-फूल बनो बम गोले।
तरु, लतिकाएँ बन जाओ, घातक शोले।।
सूरज किरणें क्षेप्यास्त्र बनों, अरि दहले।
चन्दा, अमृत से भारत पीड़ा हर ले।।
भारत का हर घर, गढ़, बंकर बन जाये।
उद्योग सकल अब सैनिक साज सजाये।।
भारत की मिट्टी आज पुकार रही है।
सर-सरित, सिंधु लहरों से, स्वरित यहीं है।।
भू, पवन, अग्नि, जल, नभ की उक्ति यही है।
बढ़ चलो युद्ध से बढ़, कुछ कार्य नहीं है।।
षड्-ऋतुओं का युग-धर्म, समर सन्देशा।
सब बनो काल-विकराल, वीर रण वेषा।।
हर उत्स, तीर्थ, त्यौहार, सजीव पुकारे।
कर दो अरि-दल संहार, विजय के नारे।।
कृषकों तुम सब मिल, अधिक अन्न उपजाओ।
श्रमिकों तुम भारत का भण्डार बढ़ाओ।।
सब बुद्धिजीवियों का, दृढ़ व्रत यह होवे।
लेखनी, कर्म सब, युद्ध-यत्न-रत होवे।।
यह युद्ध नहीं, आदर्शों का संघर्षण।
है प्रश्न अहम् शाश्वत मूल्यों का रक्षण।।
यह युद्ध नहीं संहार, शान्ति हित रण है।
निज मर्यादा की रक्षा का, यह प्रण है।।
हम भारतवासी सत्य, अहिंसावादी।
यह राष्ट्र मूलत: शान्ति, प्रेम का आदी।।
हम नहीं आक्रमणकारी, अत्याचारी।
हम मानवता-संरक्षक, शान्ति पुजारी।।
हम नहीं लुटेरे, नहीं धरा के प्यासे।
हम नहीं राज्य विस्तारवाद अभिलाषे।।
हम नहीं धर्म-परिवर्तन के आकांक्षी।
हैं जीव मात्र संरक्षक, भारतवासी।।
‘सारी वसुधा परिवार’ हमारा नारा।
है मानवता कल्याण सुध्येय हमारा।।
हम सुख, सहयोग, समन्वय के अभिलाषी।
हम ‘पञ्चशील’ परिपालक भारतवासी।।
हों सभी सुखी, हों सभी निरोग, सुदर्शन।
कोई भी दु:खी न रहे, हमारा दर्शन।।
हम संकल्पित मन से हैं, पूर्ण समर्पित।
जग की पीड़ा हरने को हम हैं अर्पित।।
मिट जाय अविद्या, अहज्रर जग भर से।
शिक्षित हों सभी, गुणी हों, सुख-धन बरसे।।
जग-जीव-ईश का ज्ञान सभी को होवे।
माया-भ्रम के जंजाल, न कोई खोवे।।
हो सत्ता का अस्तित्व, सत्य का दर्शन।
परमात्मा के प्रति प्रेम, समग्र समर्पण।।
जब तक जीवन, सक्रियता दिखलायें हम।
चल विकास-पथ, संतुष्टपूर्ण होवें हम।।
है आत्मा का परमात्मा प्रति प्रतिकर्षण।
हर भारतीय का ध्येय, मुक्ति, प्रभु दर्शन।।
हम ईश्वर जीव द्वैत-अद्वैत बनाते।
एकत्व पूर्णत: प्राप्त, एक हो जाते।।
यद्यपि है भासित सत्य, द्वैत विधि रचना।
गुण-अवगुण सारे, जीव-जगत ज्यों सपना।।
जड़-चेतन का अघ-पुण्य, प्रकाश-अँधेरा।
जीवन या मरण, विविध ऋतु, रात्रि-सबेरा।।
सब सन्त-असन्त, साधु-खल, गृही-उदासी।
सब ईश्वर-जीव, ब्रह्म-माया, गुण-राशी।।
सब मानव-दानव, देव-दनुज भारत के।
सब एक सूत्र बन बढ़ो, आज कटि कस के।।
हम सत्य-अहिंसा, सत्याग्रह पथ गामी।
हम नाशक, कपटी, कुटिल, दुष्ट, खल कामी।।
हम जीव-मात्र सेवक, पोषक, संरक्षक।
हम आक्रामक हित बनें काल, अरि-भक्षक।।
दृष्टांत सभी हैं, द्वैत सृष्टि आवर्तन।
ये माया के प्रत्यूह, सतत् परिवर्तन।।
हम यथा काल गति, तथा करे सद्वर्तन।
प्रभु लीला कठपुतली सा, जग ज्यों दर्पण।।
भारतवासी इस परम् सत्य को जाने।
हम ईश्वर, जीव, जगत रहस्य पहचाने।।
सत्ता से संचालित यह सृष्टि निरन्तर।
है परवश जीव पड़ा, भवसागर दुस्तर।।
बस ईश्वर की इच्छा ही सर्वोपरि है।
है जीव निमित्त मात्र, प्रारब्ध फलित है।।
है यन्त्र सदृश, जग-जीव विवश व्यवहारित।
वह सत्ता-शक्ति-स्रोत, संचालित, आश्रित।।
हम भारतवासी, वीर, अत: रण प्रांगण।
तज मोह बढ़ें हम, प्रतिपग, निजपथ, प्रतिक्षण।।
हम अनासक्त रह, जीवन-पथ श्रम करते।
हम मुक्त भाव से, मुक्ति हेतु लड़ मरते।।
श्रद्धा, विश्वास निरत, हर भारतवासी।
जब रण प्रांगण में मृत्यु, मुक्ति हो दासी।।
यदि प्राप्त वीरगति, स्वर्गवरण वह करता।
या आवागमन चक्र से मुक्ति, अमरता।।
वह स्वागत करता, अत: युद्ध, शुभ अवसर।
है नहीं कर्म शुभ, धर्म-युद्ध से बढ़कर।।
‘रणभेरी’ जब बजती, वह डटकर लड़ता।
वह मातृभूमि हित, प्राण न्यौछावर करता।।
वह आज सुअवसर बरबस आन पड़ा है।
हर भारतवासी कसकर कमर खड़ा है।।
चिरमुक्ति द्वार है खड़ा, न अवसर चूको।
बढ़ करो वीरगति प्राप्त, रुको मत, रोको।।
चढ़ आज रणांगण में, सब होली खेलो।
जय महाकाल, जय दुर्गे, काली बोलो।।
जय बजरंगबली कह, अरि को मारो।
निज अस्त्र-शस्त्र से विविध, शत्रु संहारो।।
तुम मातृभूमि की प्यास बुझाओ फिर से।
तुम जन्मभूमि की त्रास मिटाओ फिर से।।
इस युद्ध-यज्ञ में, शत-अरि आहुति करना।
हो सार्थक तभी जन्म, वीरों का सपना।।
जाने कब ऐसा शुभ अवसर फिर आये।
यदि हुई चूक तो, अन्त व्यर्थ पछताये।।
है अत: आज इस क्षण का महत्व भारी।
कस कमर करो, सद्य: रण की तैयारी।।
साधक, तपसी, सब मिलकर सिद्धि जगाओ।
अरि-दल पर सब अध्यात्म-अग्नि बरसाओ।।
हर यज्ञ, दान, तप, पुण्य, अतीत से अब तक।
हो फलित आज, मद चूर न अरि का जब तक।।
ताकेंगे हम जिस ओर बङ्का घहरेगा।
भारत समक्ष ब्रह्माण्ड नहीं ठहरेगा।।
युद्धोन्मुख भारत ने है कदम बढ़ाया।
अरि-गर्व दलन का शुभ मुहूर्त है आया।
शिव को बस ताण्डव नृत्य आज करना है।
हरि को बस केवल चक्र, गदा गहना है।।
ब्रह्मा निज कौशल आज पुन: दिखलाओ।
भारत-दधीचि शतकोटि, बङ्का बन जाओ।।
हे महादेव तुम प्रलय-गवाक्ष उघारो।
अरि-दल को प्रलयज्र्र शज्र्र संहारो।।
गीता का सत्य रहस्य कृष्ण उच्चारो।
घनश्याम पार्थ को फिर रण हेतु पचारो।।
श्री राम धनुर्धारी फिर आप पधारो।
है मातृभूमि पर संकट, आय उबारो।।
हे दुर्गा सत्य-स्वरूपा, शस्त्र संभारो।
भारत माता को विपत्ति से उद्धारो।।
युवजन तुम ‘छत्रसाल’ बन, अरि पर टूटो।
‘आल्हा-ऊदल’ बन, पुन: युद्ध यश लूटो।।
नारियों, पद्मिनी बन जौहर दिखलाओ।
बलिदानी ‘हाणा रानी’ सब बन जाओ।।
हर गुरुजन, ‘परशुराम’, ‘गुरुद्रोण’ बनो रे।
हर व्यापारी पथ ‘भामाशाह’ गहो रे।।
हर वास्तुकार शिल्पी वह शस्त्र बनाओ।
दुर्जेय बने भारत, कौशल दिखलाओ।।
संगीत, गीत, वीरोचित तान सुनायें।
भारत का कण-कण जगे विजय घर आये।।
जिस मिट्टी का जल-अन्न जन्म से खाया।
प्रगटित कृतज्ञता करने का दिन आया।।
भारत की हर नारी हो ‘लक्ष्मीबाई’।
‘दुर्गा’ हो, ‘रणचण्डी’ हो, ‘पन्ना धाई’।।
ललनाओं तुम सब बनो अग्नि की ज्वाला।
दिखला दो अरि को तेज भारती-बाला।।
युवकों तुम बन ‘अभिमन्यू’, अरि ललकारो।
‘लवकुश’ बन भारत लाल सभी हुंकारो।।
हर वृद्ध ‘भीष्म’ बन युद्ध क्षेत्र में जाये।
सामने पड़े यदि काल, जीत कर आये।।
भारत माता का अङ्ग-अङ्ग अकुलाया।
खर्पर ले काली चली, जीभ पैâलाया।।
अब अरि-रुण्डों-मुण्डों से धरा पटेगी।
अरि-शोणित से धरती की प्यास बुझेगी।।
आरती उतारो करो रक्त का टीका।
सधवाओं शौर्य बढ़ाओ निज-निज पति का।।
युवकों तुमने जिस माँ का दूध पिया है।
होने को उऋण सुअवसर आज मिला है।।
है जननी जन्मभूमि पर संकट भारी।
बढ़ चलो युद्ध-पथ कर समस्त तैयारी।।
मत पीठ दिखाना रण में वीर जवानों।
तुम भारत-अतीत-गौरव को पहचानो।।
सीताओं का अब हरण न होने देंगे।
द्रोपदियों को निर्वसन न होने देंगे।।
तप-यज्ञ-ध्वंस, मुनि-मरण न होने देंगे।
संस्कृति, स्वधर्म का क्षरण न होने देंगे।।
अब बहुत हो चुका अब तक शान्त रहे हम।
मानव सुख-शान्ति हितार्थ, कटोक्ति सहे हम।।
भर चुका पाप का घड़ा, उसे फोड़ेंगे।
दुर्जन, दुष्टों का अहज्रर तोड़ेंगे।।
भारती-‘भरत’, सिंहों से खेला करते।
‘प्रहलाद’ प्रताड़न-पीड़ा, सहर्ष सहते।।
‘ध्रुव’ से संकल्प-व्रती, भारत के बालक।
‘लवकुश’ से प्रतिपक्षी सम्मुख अरि घालक।।
हम ‘हरिश्चन्द्र’ से सत्य-व्रती दृढ़ ज्ञानी।
यह जगत स्वप्नवत, गति-विधि चिर पहचानी।।
सपने में दिया दान भी, सत-सा जाने।
साम्राज्य दान कर हरिश्चन्द्र हित माने।।
हम कठिन परीक्षाओं में सफल निरन्तर।
जागृत या स्वप्न, न दोनों में कुछ अन्तर।।
राजा हों रज्र्, रज्र् हों क्षण में राजा।
आसक्ति, लोभ या मोह, न कुछ भी बाधा।।
हम ‘रन्तिदेव’-सा सहर्ष रहकर भूखा।
परहित में सर्व न्यौछावर हमने सीखा।।
आदर्श, मूल्य, सिद्धान्तों का संरक्षण।
जाज्ज्वल्य प्रतीक अनेक राष्ट्र के भूषण।।
जब संकल्पित मन से हम समराङ्गण में।
टूटेंगे अरि-दल पर, चिर-जय-स्यन्दन ले।।
तब शत्रु प्रबलतम ध्वंश पूर्ण होगा ही।
जब वीरोचित हुज्रर बङ्का होगा ही।।
तब पल में प्रलय मचेगी, रण-प्राङ्गण में।
निश्चय तब शत्रु संहार, निमिष एक क्षण में।।
पल में तब विजय निनाद, चतुर्दिक होगा।
‘जय भारत माँ’ का सिंहनाद जब होगा।।
तब सृष्टि-चक्र की गति फिर पूरी होगी।
तब शान्ति, युद्ध, फिर शान्ति सुहावन होगी।।
यह युद्ध-शान्ति का चक्र अटूट, निरन्तर।
अवतारों से भी विविध, न कोई अन्तर।।
जग सहज यन्त्रवत गति, सब सदा रही है।
जड़-चेतन का अन्तर भी सत्य नहीं है।।
सब परम् सत्य-सत्ता प्रति प्रेम बढ़ायें।
हम उसके अंश, उसी में फिर मिल जायें।।
भारत की मिट्टी की है अद्भुत महिमा।
इसकी वीरोचित परिपाटी क्या कहना।।
इस धर्म-धरा के अनुपम सब दृष्टान्त।
पशु-पक्षी तक इसके विशिष्ट दुर्दान्त।।
ये शान्ति-काल में सहयोगी सद्-सेवक।
पर युद्ध-काल में, अरि-दल उर-विच्छेदक।।
अपने स्वामी के साथ सतत् रण-प्राङ्गण।
प्राणों की बाजी लगा भिड़ें समराङ्गण।।
स्वामी के साथ, सुयोग्य सैन्य-बल बनकर।
अरि से लोहा लेते, रण प्राङ्गण डट कर।।
व्यक्तिगत तथा सामूहिक कर रण-कौशल।
दिखलाते अरि को निज विवेक, कल-छल-बल।।
‘दुर्गा’ का सिंह वृषभ ‘शिव’ का, कपि, भालू।
‘शारदा’-हंस-विधि, गरुण-‘विष्णु’, श्री-‘उल्लू।’।
‘कार्तिक’-मयूर, गजराज-‘इन्द्र-इन्द्राणी’।
‘बाराही’-शूकर, गिद्धराज संग्रामी।।
है क्षुद्र गिलहरी धर्म-युद्ध सहयोगी।
अरि उर-छेदन में, मूसक भी उपयोगी।।
‘राणा’ के चेतक की है अमर कहानी।
है अश्व-युद्ध की गरिमा झाँसी रानी।।
सब जीव-जन्तु भारत का कण-कण योद्धा।
है इसीलिए भारत जग-गुरु, पुरोधा।।
हम यन्त्र, तन्त्र और मन्त्र शक्ति को जाने।
हम सत्य, दया, तप, दान शक्ति पहचाने।।
प्रारब्ध बदल देने की क्षमता हममें।
पुरुषार्थ, प्रबल प्रतिरोध प्रखरता हममें।।
हम प्रबल शत्रु को धूल चटा देते हैं।
अरि-दल को नानी याद दिला देते हैं।।
संचित, क्रियमाण कर्म, रण शत्रु संहारण।
दुर्जनों, द्रोहियों से धरती उद्धारण।।
जीवन-संरक्षण, प्रेम, शान्ति विस्तारण।
कल्याण सभी का, भ्रातृभाव सुप्रचारण।।
है आज धर्म संस्कृति पर, संकट भारी।
है अत: युद्ध ही धर्म, करो तैयारी।।
मत पीठ दिखाना रण में वीर जवानों।
इस धर्म-धरा की गरिमा को पहचानो।।
भारत आदर्श ‘उशीनर’, ‘शिवि’ से राजा।
निज तन को काट, सिंह को सामिष ताजा।।
हम वीर ‘कर्ण’ निज वचन-कर्म के पक्के।
सब सत्य जान, तन त्राण दिया, प्रण रखे।।
हम ‘भीष्म’ बली, रण प्रतिपक्षी मद मथते।
प्रभु प्रण को भी झुठलाकर, निज प्रण रखते।।
हम ‘दधीचि’, परहित में निज तन दे देते।
तप, तेज, शौर्य, बल, वीर्य, बङ्का भर देते।।
मेरी उदारता, सहनशीलता, धीरज।
से परिप्लावित, सागर जल सङ्ग, धरती रज।।
हम धर्म-रथी हैं, सत्-पथ कदम हमारा।
सर्वदा अधर्मी, अरि-दल को संहारा।।
सब देव चतुर्भुज प्रतीक प्रिय भारत के।
दो कर में शान्ति प्रतीक, शस्त्र दो कर में।।
है शङ्ख, पुष्प, सङ्ग चक्र, गदा भी हितकर।
चिर-शान्ति-व्रती, यदि युद्ध, तो लड़ते डटकर।।
यह युद्ध शान्ति हित, भ्रांत नहीं रहना है।
अपना यह दृढ़ मंतव्य, अटल रहना है।।
चिर शान्ति प्रतीक, सुशङ्ख, पद्म रखना है।
अवसर पर निश्चय चक्र, गदा गहना है।।
हम नहीं धरा के भूखे, धन के प्यासे।
हम क्षणभङ्गुरी न प्रभुता के अभिलाषे।।
हम धर्म, सभ्यता, संस्कृति के संरक्षक।
इन पर कुदृष्टि रखने वालों के भक्षक।।
अपनी मिट्टी का कण-कण हमको प्यारा।
युग से पुरखों ने शोणित सींच सँवारा।।
भारत माता को आँख दिखायेगा जो।
निश्चय ही शीघ्र रसातल जायेगा वो।।
सीमाएँ लक्षमण रेखा बनीं हमारी।
पग समझ बढ़ाना, दुर्जन अत्याचारी।।
यदि काल स्वयं भी साथ तुम्हारा देगा।
तेरे सङ्ग वह भी निश्चय धरा धरेगा।।
सब भारतवासी अपने भेद भुलाओ।
बन एक अङ्ग तुम माँ की लाज बचाओ।।
चिर सत्य, संघ में ही, सब शक्ति निहित है।
जिस ओर कदम शतकोटि, विजय निश्चित है।।
दुर्जन से हर प्रतिकार चुकाना होगा।
चिर शान्ति हेतु फिर खड्ग उठाना होगा।।
अब मात्र युद्ध से शान्ति, सजग रहना है।
गौतम, गाँधी को भी कृपाण गहना है।।
जब मोह अहम् सीमा ऊपर होता है।
तब पाञ्चजन्य, गाण्डीव मुखर होता है।।
जब होता ‘अभिमन्यु’ का आत्म-विसर्जन।
तब ‘पार्थ’ धनुर्धारी करते अरि मर्दन।।
हे महादेव फिर त्रिपुट-नेत्र तुम खोलो।
हरहर बम-बम, हर भारतवासी बोलो।।
कण-कण से गूँजे ‘महाकाल’ जय नारा।
फट जाय वक्ष-अरि, बहे रक्त-सरि धारा।।
नारा ‘जय जवान’, ‘जय किसान’ फिर गूँजे।
‘जय विज्ञान’ सङ्ग, ‘जय ईमान’ बोल, सब जूझें।।
हम दिखलादें फिर अरि को अपनी क्षमता।
हो नष्ट शत्रु-दल, बहे रक्त की सरिता।।
भारत वीरो रणवीरों का है देश।
त्यागी, तपसी, बलवीरों का यह देश।।
हर वर्ग क्षेत्र में शत् शत् वीर बधूटी।
बालक से वृद्ध, सभी में शक्ति अनूठी।।
कर्नाटक वीर बधूटी ‘माँ चेनम्मा’।
आन्ध्रा महरानी वीराङ्गना ‘रुद्रम्मा’।।
वारङ्गल ‘काकतीय’ राजा के सेवक।
सेनापति वीर ‘प्रोलय’, ‘कप्पय’ दो नायक।।
‘भाष्कर वर्मा’ से श्रेष्ठ असम के राजा।
काश्मीर वीर ‘ललितादित्य’ से महाराजा।।
‘कृष्णदेवराय’ महराजा विजय नगर के।
सम्राट ‘खारवेल’ अति रणधीर कलिङ्ग के।।
‘पुष्प मित्र’ से शुङ्ग-वंश-संस्थापक वीर।
आसाम के ‘लाचित’ ‘बड़फुक्कन’ रणधीर।।
रणनीति कुशल ‘खेटक्कर’ वीर महान।
‘बिरसा मुण्डा’ से बलिदानी बलवान।।
वीराङ्गना ‘अवन्तीबाई’ का रण कौशल।
जिस वीर नायिका से काँपा था अरि-दल।।
ये नाम नहीं रणयज्ञ हेतु आहुति हैं।
वीरों के विजय लक्ष्य हित ये गति-मति हैं।।
यह धरा ‘विक्रमादित्य’ ‘कनिष्क’ नृपति की।
राजर्षि ‘हर्ष वर्धन’, ‘अशोक’ श्रीपति की।।
हम ‘चन्द्र’-‘समुद्रगुप्त’, ‘पृथ्वीराज’ के वंशज।
‘पोरस’, ‘चाणक्य’ आदि के प्रति, नतमस्तक।।
वैदिक, पौराणिक, ऋषियों की यह धरती।
सिंचित, पोषित, रक्षित, विस्तारित संस्कृति।।
कविगण ‘वाल्मीकि’, ‘व्यास’, ‘सूरदास’, ‘तुलसी’।
कविवर ‘चन्दवरदाई’, ‘रामदास’, गुणरासी।।
‘जायसी’, ‘कम्ब’, ‘भूषण’, ‘कबीर’, ‘मतिराम’।
‘दादू’, ‘रहीम’, ‘भारतेन्दु’, ‘गिरिधर’, सरनाम।।
आधुनिक काल के अनेक कविगण, लेखक।
भर रहे तेज, बल पुण्य धरा के सेवक।।
निज बुद्धि, विवेक, कला-कौशल से तत्पर।
लेखनी शस्त्र, कविवाणी बाण से बढ़कर।।
सब अस्त्र-शस्त्र, तन-प्राणों तक ही घातक।
वाणी, लेखनी आत्मा-अन्तर-उर दाहक।।
सब स्मरण कराते अतीत गौरव अपना।
बलिदानी सुकवि अनेक न सम्भव गणना।।
वीरों के वंशज, वीर सुधीर बनो रे।
अरि-दल पर मिल कर, शस्त्र प्रहार करो रे।।
रणयज्ञ सफल होगा, आशीष हमारा।
‘रणभेरी’ निश्चय बने तीक्ष्ण असि-धारा।।
भर जाय भारती जन-जन में तरुणाई।
अरि-दल विनष्ट, फिर बजे, विजय शहनाई।।
निज पापों का फल पापी को मिल जाये।
मद, मोह, अहम् का निशिचर फिर मर जाये।।
संकल्प-अमोघ अस्त्र भारत अपनाये।
तप, तेज, शौर्य, बल, वीर्य सफल हो जाये।।
जय होगी निश्चय विजय हमारी होगी।
भारत जननी फिर शान्ति पुजारी होगी।।
श्रीकृष्ण सङ्ग जब जहाँ हैं पार्थ धनुर्धर।
श्री, विजय, विभूति सदा बन जाती अनुचर।।
सब बन्दर, हनुमत, अङ्गद से बन जायें।
सब रीछ, जामवन्त बन, अरि दहलायें।।
सब सिंह, नृसिंह बनें, अरि-हिय को फाड़ें।
वन, पर्वत, वनज समस्त, विजय ध्वज गा़ड़ें।
लघु जीव गिलहरी भी सहयोगी बनकर।
श्री रामकाज में तत्पर हो निज बल भर।।
जलचर, नभचर, थलचर सब निज बल बूते।
सहयोग सभी का सफल, धर्म-रण जीते।।
एकेश्वरवाद की रक्षा हित, यह रण है।
बहुदेववाद की दीक्षा हित, यह रण है।।
चिर पुनर्जन्म प्रति निष्ठा हित यह रण है।
है ब्रह्म सत्य, जग असत्, तथ्य हित, प्रण है।।
हम वर्णाश्रमी व्यवस्था के अनुरागी।
जीवन जीने की कला, श्रेष्ठ बड़ भागी।।
हम धर्म निदेशित अर्थ, काम के प्रेमी।
पुरुषार्थ परम्, हम मोक्ष-धर्म, दृढ़ नेमी।।
हम आर्य हैं, आर्यावर्त अनादि निवासी।
यह झूठ सफेद कि, मध्य एशियावासी।।
हम मानव हैं, मानव सन्तान सदा से।
हम बन्दर की औलाद नहीं, झुठलाते।।
वैदिक सद्ज्ञान को, अपौरुषेय हम जानें।
चिर-श्रुति-परम्परा अनादि, अव्यय मानें।।
है वेद-ज्ञान प्रामाणिक, सर्वोपरि है।
सब स्मृति, पुराण, इतिहास आदि पूरक हैं।।
अवतारवाद हम मानें, भक्ति प्रबलता।
जब-जब हो धर्म की ग्लानि, अधर्म पसरता।।
तब-तब ईश्वर हो प्रकट, कर्म शुभ करके।
भक्तों के कल्याणार्थ वेद-पथ चलते।।
प्रभु विविध वेष धर, देश-काल अनुसार।
पीड़ा हर, करते भक्तों का उद्धार।।
श्रुति-धर्म-सनातन, पुन: करें प्रतिष्ठापित।
हों सभी अधर्मी विनष्ट, या विस्थापित।।
यह धर्म, सभ्यता, संस्कृति, रक्षा हित रण।
हमको अखण्ड भारत का प्यारा कण-कण।।
हम नहीं भूमि के भूखे, धन के प्यासे।
हम धर्म-सनातन-संस्कृति के अभिलाषे।।
इसका जो नाशक, बने हमारा अरि वह।
इस पर जो घातक, बने हमारा अरि वह।।
उसको दण्डित करने की क्षमता हममें।
उसको भस्मित करने की प्रभुता हममें।।
हम श्राप और वरदान मन्त्र से दीक्षित।
करते उसका उपयोग, विवेक यथोचित।।
हैं ऋद्धि-सिद्धियाँ सकल हमारी अनुचर।
साधन बनते सब ग्रह, नक्षत्र, शशि, दिनकर।।
है धर्म-सनातन अटल, अनादि हमारा।
यह मूल सभी धर्मों का, सात्विक धारा।।
इससे ही जग के धर्म, पन्थ सब उपजे।
सब हैं शाखाएँ मात्र,बीज वैदिक के।।
गीता, गायत्री, गङ्गा, गाय हमारी।
माता ये जननी जन्मभूमि अति प्यारी।।
सागर, सरिताएँ, पर्वत, वन, तरुलतिका।
माया-कारण, आधार ब्रह्म है सबका।।
हम ब्रह्म-भाव से सबका पूजन करते।
जग, जड़, माया, सब भासित मात्र समझते।।
सबका आधार ब्रह्म ही, बनता ईश्वर।
अपनी माया को वश में कर, जगदीश्वर।।
वह राम, कृष्ण, दुर्गा, गणपति, शशि, दिनकर।
वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश, वही धरणीधर।।
उसके ही अंश अनादि, सभी जड़-चेतन।
उसकी ही कृपा कटाक्ष, हेतु रत सज्जन।।
हम ‘मनु-सतरूपा’ वंशज, योनिज कुल के।
सप्तर्षि स्रोत, सब गोत्र, प्रवर, शाखा के।।
सब वर्ण, जाति, उपजाति आदि इह-कालिक।
हम एक से, हुए अनेक, कर्म, गुण आश्रित।।
नख से शिख तक है एक शरीर हमारा।
सबका अपना उपभोग स्वधर्म सहारा।।
यदि कोई अङ्ग अपङ्ग, शरीर अपङ्गी।
कोई न ऊँच या नीच, सभी अङ्ग, सङ्गी।।
यदि पग में काँटा चुभता शीश सिहरता।
कर, सत्वर पीड़ा हरने हित, श्रम करता।।
तन के जब किसी अङ्ग में कोई पीड़ा।
पग सत्वर, सक्रिय होकर, कर-सङ्ग क्रीड़ा।।
है अत: सभी का सामूहिक सहयोग।
सब अपने क्रम से करते, श्रम उपयोग।।
सबकी अपनी विशिष्टता, गरिमा, महिमा।
परिपूरक सब हैं, नहीं श्रेष्ठता, लघिमा।।
जलती यह रहे मशाल, न बुझने पाये।
है जहाँ कहीं भी अन्धकार मिट जाये।
चिर ‘क्रान्तियज्ञ’ की अग्नि न बुझने पाये।
हर भारतीय, पथ-सदाचार अपनाये।।
हुँकार हमारी सुन, अरि-दल दहलेगा।
ललकार हमारी सुन, अरि मुँह मोड़ेगा।
फटकार हमारी सुन, दुश्मन दुम दाबे।
चिग्घाड़ हमारी सुन, अरि-दल हिय फाटे।।
हर भ्रष्टाचार मुक्त हो भारत माता।
अत्याचार तथा व्यभिचार से टूटे नाता।
सब अनाचार का अन्त हो, अनहित कर्ता।
हो दु:ख दरिद्रता दूर, सुखी सब भ्राता।।
आयेगा निश्चय यह दिन आयेगा ही।
उग रहा ‘प्रभाकर’ कलुष मिटायेगा ही।
जब जहाँ कहीं भी बजेगी ‘रणभेरी’ यह।
दुश्मन का दिलो-दिमाग, चूर्णं होगा तँह।।
जब जहाँ अनैतिकता से होगा नाता।
तब तहाँ बजेगी ‘रणभेरी’ जन-त्राता।
‘रणभेरी’ सुन, अरि-दल हिय फाटेगा ही।
‘रणभेरी’ सुन, जन-जोश-ज्वार उमड़ेगा ही।।
जन-जोश-ज्वार बन, महाकाल विकराल।
वह सदा जलायेगा, चिर क्रान्ति मशाल।
जिस ओर बढ़ेंगे, कोटि-कोटि कर, पाँव।
दुष्टता दमन, पाये सज्जनता छाँव।।
होता जब जन-जागरण असीमित बल हो।
उसके आगे सब तंत्र-यंत्र असफल हों।
जनता का, जनता द्वारा, जनता के हित।
है लोकतंत्र, सर्वोत्तम शासन की विधि।।
पर लोकतंत्र भी यदि स्वार्थी तत्त्वों से।
घिर जाता, जनहित दबता निज अर्थों से।
तब भूखी, नंगी, पीड़ित जनता जगती।
ऐसे शासन को आग हवाले करती।।
जब रक्त खौलने लगता जनता उर में।
तब क्षोभ, क्रोध प्रगटित होता एक स्वर में।
आवाज वहीं बन जाती है चिनगारी।
बन मशाल अगणित, हरने को तम भारी।।
यह आग, अहिंसक पहले कुछ दिन रहती।
अपनी कहती, प्रतिपक्ष-कथन भी सुनती।
पर यह चिंगारी, ज्वाला जब बन जाती।
वह घात और प्रतिघात पंथ अपनाती।।
इसलिए समय की चिंगारी को समझें।
ज्वाला बनने से पहले, समुचित जल दें।
अन्यथा ध्वंशकर अग्नि बनें चिंगारी।
रह सदा सजग, सोचें शासक, अधिकारी।।
इसलिए सदा जन-हितकर, शासन सार्थक।
विपरीत कदम यदि, शासन सभी निरर्थक।
यदि कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका-
में नहीं समन्वय, सार्थक जनता हित का।।
है इसीलिए यह आवश्यक अति भाई।
सब एक सूत्र में बँधे, भेद बिसराई।
सब धर्म, जाति, कुल, गोत्र, क्षेत्र की बातें।
भाषा, भूषा, भोजन विभेद के नाते।।
सब भारतीय पहले, फिर अन्य हो परिचय।
भारत माता से नाता, अन्य न कतिपय।
जब एक सूत्र में बँध जायेंगे हम सब।
कोई न शत्रु फिर आँख दिखायेगा तब।।
हैं व्यक्ति तो आते जाते, पर सिद्धान्त।
बदले न कभी, यह शाश्वत, रहें न भ्रांत।
चिंगारी, आँधी सह पा, ज्वाला बनती।
वह समय पड़े पर, हर दुष्कर्म झुलसती।।
पर रहे न व्यक्ति-आश्रित, क्रान्ति हमारी।
संकल्प और संघर्ष में दमखम भारी।
हम झुकें, न झुकने दें, सिद्धान्त अटल हो।
हम सत्य राह पर चलें, संग सत्य पटल हो।।
शोषित, पीड़ित की पुकार, न दबने पाये।
नवयुवकों की हुँकार, न घटने पाये।
जलती जो क्रान्ति-मशाल, न बुझने पाये।
अत्याचारी नर-नाग न बचने पाये।।
नारी-अस्मत जो लूटें, दण्डित होवें।
भ्रष्टाचारी्र, व्यभिचारी दण्डित होवें।
सब शोषक, अत्याचारी दण्डित होवें।
सब राष्ट्र-द्रोह-अधिकारी दण्डित होवें।।
हो न्याय शीघ्र, अन्यायी दण्डित होवें।
ईमान, धर्म वाले विश्वास न खोवें।
सबको निज-निज स्वभाव सम्मत कारज हो।
सबको समुचित भोजन, आवास सुलभ हो।।
हों सभी सुशिक्षित, स्वस्थ, गुणी नर-नारी।
सुख-सुविधा,रक्षा करें, योग्य अधिकारी।
बाहरी शत्रु से सेना रक्षा-रत हो।
भीतरी शत्रु से शासन सतत् सजग हो।।
तब भारतीय जनता, विकास पथ चल कर।
धनधान्य उपार्जन करने में, दृढ़ तत्पर।
भौतिक समृद्धि से राष्ट्र सबल तब होगा।
‘सोने की चिड़िया’ - गौरव पुन: गहेगा।।
भौतिकता केवल सुख प्रदान करती है।
स्पर्धा-संग, अशान्ति-बीज बोती है।
भौतिकता संग, आध्यात्मिकता भी आवश्यक।
तब ही सम्भव सुख-शान्ति, समष्टि सुरक्षक।।
यह मार्ग सुचिंतित, ऋषियों का अनुभव है।
इस पथ ही निश्चय, विश्वशान्ति सम्भव है।
सब भारतवासी यह सुपन्थ अपनायें।
फिर से अतीत का ‘जगत गुरु’ पद पायें।।
सब एक बङ्का-तन बन, रण-पन्थ ब़़ढ़ो रे।
निज-निज कौशल से अरि-दल त्रस्त करो रे।।
मिल एक, एक, ग्यारह संख्या बन जाओ।
मिल तन्त्र सुकोमल, सुदृढ़ रज्जु बन जाओ।।
है तत्त्वज्ञान आवश्यक, रण हितकारी।
अपनी शाश्वत पहचान को जान, जुझारी।।
जब शास्त्र, शस्त्र, इतिहास ज्ञान सब होगा।
एकता सुदृढ़ तब, तन-मन अर्पण होगा।।
तब एक अङ्ग बन, सारे भारतवासी।
निज लक्ष्य बढ़ेंगे सुदृढ़, विजय अभिलाषी।।
इसलिए सैनिकों, शास्त्र मर्म सब समझो।
आदर्श, यथार्थ, अबूझ पहेली बूझो।।
जब सब सैनिक संस्कारित नख-शिख होंगे।
तज गेह, नेह सब, युद्ध-यत्न-रत होंगे।।
तब होगी विजय सुनिश्चित जन हितकारी।
तब होगी, अन्न-औषधि युत भारत-क्यारी।।
तब कुछ दिन, शान्ति रहेगी भू पर फिर से।
निज धर्म, कर्म, सुख बीज उगेंगे फिर से।।
तब फिर धरती धन-धान्य सुहागिन होगी।
तब फिर मानवता शाश्वत-पन्थ गहेगी।।
हमने पड़ोसियों पर विश्वास जताया।
हमने आगे बढ़ प्रेम से हाथ मिलाया।।
‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ गुण गाया।
हमने ‘पञ्चशील’ नारा पुरजोर लगाया।।
हम सच्चे दिल से पड़ोसियों से हिलमिल।
रहने का शपथ लिये, मन बुद्धि तहे-दिल।।
पर दु:ख, पड़ोसियों ने विश्वास डिगाया।
विश्वासघात कर, अहि ने फन पैâलाया।।
मेरा दुर्जेय हिमालय, घायल होकर।
लाशों से था पट गया, अजेयता खो-कर।।
आस्तीन साँप बन गया, मित्र दुश्मन बन।
सम्बन्धों का हिय फटा, लुट गया जन-धन।।
हम सावधान हो, बढ़े कुचलने फन को।
करके सहस्त्र बलिदान, मार अजगर को।।
जिनको हम अपना अङ्ग समझते वे भी।
दुस्साहस कर बैठे, पड़ोस दोनों ही।।
हमनें फिर शङ्ख बजाया, ‘रणभेरी’ भी।
कर दिया कूच, निज सैन्य-शक्ति, बल जो भी।।
अरि-दल को हमने मार भगाया डट कर।
सीमाओं के उस पार, वार कर दृढ़तर।।
पूर्वी बंगाल था पीड़ित, पाक-कुशासन।
उनकी सेना में थे अनेक दुस्साशन।।
हमनें उनके कुचक्र पर दाव लगाया।
कर ‘बंगला देश’ विमुक्त, सुयश फैलाया।।
पर शत्रु अभी भी मौका देख रहा है।
घायल है अजगर, अब भी नहीं मरा है।।
है शत्रु, शत्रु का मित्र, नीति पर चलकर।
हमजोली बन ढूढ़ता, आक्रमण अवसर।।
है हमें अत:, हरदम तैयारी करना।
सीमाओं पर हर समय चौकसी रखना।।
हम अखण्ड भारत का हैं स्वप्न सजोंये।
जो सोये, सो खोये, जागे सो पाये।।
हमको हर दृष्टि से, कर समग्र तैयारी।
जल, थल, नभ सब में शक्ति प्रकृष्ट हमारी।।
तब ही भारत दुर्जेय राष्ट्र बन चमके।
सुख, शान्ति, सुरक्षित, भारत-क्यारी गमके।।
आओ हम सब मिल राष्ट्र-एकता व्रत लें।
धागे-धागे मिल रज्जु सुदृढ़तम कर लें।।
‘भारत माता की जय हो’ जोर लगायें।
अरि यदि धृष्टता करे फिर, मार भगायें।।
है इसीलिए यह ‘रणभेरी’, फिर गूँजी।
जानो अपना अतीत गौरव चिर-पूँजी।।
सब मिल अपना-अपना गौरव दिखलायें।
अरि-दल को भारत-भूमि से दूर भगायें।।
अपनी धरती में भी ‘जयचन्द’ छिपे जो।
जो बनें ‘विभीषण’ उन्हें न संरक्षण हो।।
सब ‘मीरजा़फरों’ को हम शीघ्र कुचल दें।
जो राष्ट्र-घातकी, उनको नहीं शरण दें।।
यह धर्म-धरा तब पूर्ण सुरक्षित होगी।
पद, पैसा, प्रभुता, लोभ मुक्त जब होगी।।
आस्तीन साँप से बच कर रहना होगा।
एकता-सूत्र में बँधकर रहना होगा।।
जो शोषक अत्याचारी, भ्रष्टाचारी।
आतंकवाद के पोषक, जो व्यभिचारी।।
उनसे भी डटकर लोहा लें हम पहले।
मदचूर करें, बनकर नहले पर दहले।।
अपने ही, अपने घर को जला रहे हैं।
धन-संरक्षण पा वाह्य, दुराव करे हैं।।
ऐसे बिच्छुओं का डज्र् काटना होगा।
विषदन्त-कुचल-अहि, निर्भय बनना होगा।।
होगा निश्चय, विश्वास हमें सब होगा।
प्रभु वरद हस्त, सिर सदा, साथ वह देगा।।
इस आस्था का सम्बल ले युद्ध करें हम।
सङ्ग महाकाल विकराल, न रञ्च डरें हम।।
जय होगी निश्चय विजय हमारी होगी।
अरि-दल की शक्ति, धूल-धूसरित होगी।।
रण प्राङ्गण में वीरों ने कदम बढ़ाया।
‘रणभेरी’ का आह्वान, विजय-पथ पाया।।
‘रणभेरी’ का शुभनाद विजय का द्योतक।
‘रणभेरी’ तुमुल निनाद, शत्रु-दल भक्षक।।
‘रणभेरी’ बजी उठो, सब भारतवासी।
‘रणभेरी’ सुन, कटि कसो, विजय अभिलाषी।।
यह ‘रणभेरी’, भविष्य-वक्ता, अधिकारी।
जब-जब पनपें, व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी।
तब, तब ‘रणभेरी’ सुना, प्रयाण करें सब।
जिसका खाया, जल-अन्न, उऋण होंगे तब।।
‘जय महाकाल’ का गूँजे फिर से नारा।
‘भारत माता की जय हो’ लक्ष्य हमारा।।
सद् लक्ष्य हेतु हम, सत्पथ चलने वाले।
‘रणभेरी’ सुना, शत्रु दहलाने वाले।।
जब राम-लक्ष्मण साथ जग-जननि सीता।
अर्जुन के कर गाण्डीव, कृष्ण की गीता।।
तब विजय सुनिश्चित, श्री विभूति हों, वश में।
‘रणभेरी’ सुन, उर जोश, युद्ध-पथ पग दें।।
हरि: ॐ तत्सत्
जय जवान, जय किसान
जय विज्ञान, जय ईमान
वन्दे मातरम्
जय हिन्द जय हिन्द जय हिन्द
Ranbheri book written by Dr. Prabhakar Dwivedi Prabhamal
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