Lakshya Ki Prapti Ke Liye Panch Tyaag II Prabhu Ki Mayamay Sansar

अपने ईष्टदेव के दर्शन करने के लिए पाँच त्याग आवश्यक बतलाया गया है। प्रभु पिताजी के इस मायामय संसार में सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है?

Lakshya Ki Prapti Ke Liye Panch Tyaag II Prabhu Ki Mayamay Sansar
Bhagwan ki Prapti ke liye Tyaag

ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय

गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिये त्याग की आवश्यकता

-परमपूज्य श्री आनन्द करन जी

जन्म के पश्चात् त्यागते रहने का ही विधान है, कब तक त्यागना है, जब तक जीवन है और जब तक ॐ आनन्दमय प्रभु पिता जी का संयोग न हो जाये। श्री गीता अध्याय २ श्लोक ५२-५३।

जैसे नदी को पार करने वाला जल को हाथ-पैरों से त्यागता ही जाता है और कब तक त्यागता है- जब तक वह पानी से भूमि पर नहीं पहुँच जाता।

जीवन में क्या त्यागना हैइसको श्रीगीता अ० २ के श्लोक ५२-५३ में पठन-श्रवण करना चाहिए और भी आगे १८ अध्याय तक में जगह-जगह भगवान ने कथन किया है, एवं इसके तत्त्व रहस्य को जानने-समझने के लिये श्री मानसिक रोगों के परिक्षक महापुरुष भगवान ने श्री विश्वशान्ति ग्रन्थ भाग-१ में मानसिक रोगों के कारण-निवारण में एवं ग्रहण और त्याग नामक ज्ञान में प्रकाशित करवाया है, जिसको ग्रहण-त्याग करने के उद्देश्य से श्रद्धालु भक्त दैनिक पाठ करते हैं। उनमें से हमको क्या त्याग करना है, केवल पाँच सूत्र उच्चारण किये जा रहे हैं

१- हे सर्व हितमय भगवान मैं मन इन्द्रियों द्वारा व्यर्थ कर्म करने का त्याग करूँगा।

२- हे सुहृदमय भगवान मैं मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा की प्राप्ति में अमोद-प्रमोद के विचारों का त्याग करूँगा।

३- हे प्रसन्नतामय भगवान मैं अपने मानसिक भावों से किसी प्रकार अद्विगन होने का त्याग करूँगा।

४- हे समदर्शी भगवान मैं ईर्षा के भावों का त्याग करूँगा।

५- हे सन्तोषमय भगवान मैं निष्काम सेवा और इष्ट-भगवान के जप-ध्यान के अतिरिक्त सब प्रकार की इच्छा का त्याग करूँगा।

ॐ आनन्दमय प्रभु पिताजी की अद्भुत मायामय रचना है?

इस रचना में बहुत से पशु-पक्षियों का ऐसा स्वभाव है कि उनको बहुत शुद्ध पवित्र पौष्टिक आहार दिया जाने पर भी वह अशुद्ध, अपवित्र, घृणा-प्रद त्यागने-योग्य पदार्थों का ही सेवन करते हैं। इसी प्रकार मानव-मण्डल में भी शुद्ध, पौष्टिक, पवित्र वनस्पति जन आहार एवं दूध, घी, शर्बत, लस्सी आदि तरल शक्तिप्रद पदार्थ होने पर भी देह-दिमाग समाज को चौपट करने वाले बहुत तरह के नशीले तामसी पदार्थों के साथ शराब को ही सेवन करते हैं।

ऐसे ही मनुष्य के मन-बुद्धि दिमाग को स्वस्थ्य, प्रसन्न, शान्त रखने वाले जो गुण, ज्ञान, भाव, आचरण, प्रेमी-पदार्थ नाम-रूप है, जिसको सरल हिन्दी भाषा में श्री विश्वशान्ति ग्रन्थ भाग-१ में समझाया गया है एवं श्री गीता जी का सारांश श्री सच्ची प्रेम भक्ति के २१ मंत्रों प्रकाशित है। बस इसी को धारण करना है। ॐ आनन्दमय प्रभु पिताजी की विशेष कृपा की वर्षा आज्ञाकारी भक्तों पर होती है। वर्तमान में मानव अज्ञान रूपी जल की धारा में बहा जा रहा है, ऐसी परिस्थिति में उसकी सुरक्षा के लिये तत्त्ववेत्ता श्री महापुरुषों द्वारा अथाह ज्ञान के सागर को मथकर दिमागी शान्ति और आत्म-बल दायक शुद्ध-पवित्र, पौष्टिक ज्ञान रूपी रत्नों का संग्रह श्री विश्वशान्ति ग्रन्थ भाग-१ और २ में कियाहै। एवं सदा हृदय में आनन्द की ज्योति जगमग रखने के लिये वैदिक सनातन ब्रह्मवाची योगसिद्ध महामंत्र ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय का नित्य-निरन्तर मन से मनन और वाणी से उच्चारण करते हुये आवश्यक कर्मों में प्रवृत्ति शील रहना श्री गुरू भगवान की विशेष आज्ञा है।

परन्तु मान, बड़ाई, ईर्षा के कामी, राग-द्वेष, स्वार्थ, अहंकार के लोभी नारी-नर दिमागी रोगों से पीड़ित व्याकुल अशान्त रहते हुये भी, सत्य महापुरुषों द्वारा बताये गये सर्व हितकारी, कर्म-बन्धनों से मुक्त कराने वाले दिमागी पौष्टिक आहार के अनुष्ठानों को नहीं करते। वह स्वयं अपने को बुद्धिमान आचार्य पद को प्राप्त समझते हैं। जैसे शराबी नशे की बेहोशी में अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता।

आज मानव-मात्र को राग-द्वेष, कलह की काम-क्रोध, लोभ, भय आदि की महामारी अनाथ की तरह मार रही है। अत: सचेत होना चाहिये, जोश उत्साह तत्परता पूर्वक ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के ज्ञान-रूपी अग्नि द्वारा इसको भस्म-मय कर डालना चाहिये। श्री गीता अ०४ श्लोक ३७-३८।

आखिर कब तक इस महामारी के आसुरी योनियों के झूले में झूलते रहेंगे। श्री गीता अ०१६ श्लोक १८-१९।

ॐ आनन्दमय प्रभु पिताजी ने ब्रह्म-सृष्टि में एक अमूल्य अत्यन्त सबसे ज्यादा पौष्टिक आहार जो दिमाग को महावीर बनाकर सदा के लिये ॐ आनन्दमय परमात्मा से नित्य संयोग कराने वाला बनाया है। वह है

‘‘करिष्ये वचनं तव’’ ‘‘आज्ञा पालन करना’’

आज्ञा पालन करने के समान प्रभु की रचना में अन्य कुछ भी नहीं है। आज्ञाकारी बनने पर कितना दिव्य, अमूल्य पदार्थ प्राप्त होता है, जो मन-वाणी का विषय नहीं है। ऐसे अखण्ड-आनन्द का शान्ति का, सुख का असीम, अथाह समुद्र प्राप्त होता है जो सदा भरपूर रहता है। समुद्र का जल सूख जाये, परन्तु यह आनन्द का सागर तो सदा भरा ही रहता है। ऐसे आज्ञाकारी बनने पर प्राप्त होने वाली अपुल राशि को छोड़कर जो संसार के अनित्य दु:ख रूप प्रेमी-पदार्थों को मेरा-मेरी बनाने के धर्म-कर्म कराते हैं, उनके नरके-पतन्ती जीवन की गाथा के विषय में क्या कहा जाये। फिर तो वर्तमान और भविष्य दोनों के लिये दु:खमय, भयमं, शोकम बन जाता है, फिर ‘‘आसुरीं योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि।’’ अ०१६ श्लोक २०। ॐ शान्तिमय