उलझन- ULJHAN Kahani In Hindi

प्रयागराज निवास अजय कुमार पाण्डेय की सुन्दर कहानी- 'उलझन' हिन्दी में पढें

उलझन- ULJHAN Kahani In Hindi
Unjhan a Hindi Story by Ajay Kumar Pandey

उलझन (Uljhan)

-‘Uljhan’ Hindi Kahani by Ajay Kumar Pandey

मेरा ट्रान्सफर बहराइच के लिये हो गया था। इटावा का सारा चार्ज देकर, मैं बहराईच जाकर ज्वाईन भी कर ली थी। ज्वाईनिंग लेकर लखनऊ आ गई थी। मेरा पूरा परिवार यहीं रहता था,मेरे पति हाईकोर्ट में अधिवक्ता थे। बच्चे स्कूल से आ गये थे, मेरे पति भी कोर्ट से लौट आये थे। लॉन में बैठ कर हम सभी ने चाय पी,सन्तोष मेरे पति कपड़े बदल कर अपने चैम्बर में चले गये मुंशी आ गया था। कल केश की फाइल निकाल कर उनकी मेज पर रख दिया। मै भी अपने बच्चों के साथ ड्राईंग रूम में बैठ कर टीवी देखने लगी। आठ बज रहे थे महराजिन खाना बनाने आ गयी थी। मेरी सासू माँ भगवान की आरती कर चुकी थीं। मेरी सासू जी ने कहा बहूरानी महाराजिन आ गई है अपने मन का भोजन बनवा लो तुम्हे कढ़ी पसन्द है। हींग का छौंका लगवाना। माँ की बात सुनकर मैं किचन में चली गई। एक घण्टे बाद लौटकर आई तो पता चला कि सन्तोष अभी अपने चैम्बर में ही है। मैने पर्दा हटाकर खिड़की से देखा तो मुंशी जी अपने कुर्सी पर बैठे थे टाईपिस्ट भी बैठा था। दरवा़जा खोल कर मैं चली गई।

क्या बात है मुंशी जी अभी आप नही गये ज्यादा काम है क्या?

मुंशी जी, टाइपिस्ट खड़े होकर, नहीं मैडम कोई नया केश है? इटावा से पार्टी आई है।

उसी की रिट लिखानी है। इसलिए साहब ने रोक रखा है।

इटावा का केश मैने उत्सुकुता से पूछा। चॅूँकि अभी मैं इटावा में ही थी।

वैâसा केश है!

‘‘कोई पति-पत्नी का केश है। लड़के को अपनाने का मैटर है। पूरी जानकारी नही है केश बन कर आये तो पता चले ‘‘मैडम’’ मुंशी ने कहा।

मै अपनी व्यग्रता रोक नहीं पाई सोचा चैम्बर में ही चलकर देखूँ कैसा केश है।

मैंने जैसे ही दरवा़जे का पर्दा हटाया, मेरी निगाह एक औरत पर पड़ी जिसे मैं जानती थी, उसका केश मेरी ही अदालत में था। देखते ही मै अन्दर नहीं गई वापस ड्राइँग रूम में आ गई। अचानक मेरी निगाह में उसका पूरा केश उभरने लगा। मुझे याद आया जब मेरी नई-नई पोस्टिंग इटावा में हुयी थी।

वह अगहन की पूर्णिमा थी, हल्की धुन्ध पड़नी शुरू हो गयी थी मैं अपने कमरे में वैठी खिड़की के उस पार देख रही थी, खिड़की से साफ दिख रहा था चाँद की चाँदनी पूरी प्रकृति पर बिखरी हुयी थी, शाम ढल चुकी थी, धरा कुहरे की हलकी चादर ओढ़कर सोने लगी थी। मेरे पति लखनऊ चले आये थे ।    

 रोहित खाकर सोने लगा था। उस रोज कोर्ट में एक नया केश दाखिल हुआ था। जिसे पढ़ने के बाद मुझे अ़जीबो-गरीब-सा लगा था। उस केश में लड़की ने अपने पति पर प्रताड़ना, मारने तथा दहे़ज माँगने आदि की कई बातों का आरोप लगाया था। वह केश लग रहा था जैसे सत्य नहीं है फिर भी उस केश को ट्रायल के लिये मैंने नोटिस कर दिया। पति को सम्मन के लिये आदेश दे दिया।

दो तीन डेट्स के बाद मैंने लड़की को बयान के लिए बुला लिया। लड़की ने बयान दिया– ‘‘मेरा नाम दीपिका रस्तोगी है। मेरे पिता का नाम श्याम चन्द्र रस्तोगी है। ग्यारह वर्ष पूर्व मेरी शादी दीपक कुमार रस्तोगी पुत्र उमेश चन्द्र रस्तोगी के साथ हुई थी। उस समय मेरी उम्र पचीस वर्ष थी। मैं होम साइन्स से स्नातक हूँ। शादी के समय मेरी स्वीकृति मेरे माता-पिता ने ली थी। शादी के समय मेरे माता-पिता ने दीपक कुमार के परिवार के विषय में पूरी जानकारी की थी। उन्होंने शादी के समय दहे़ज के लिये कोई माँग नहीं रखी थी। फिर भी मेरे माता-पिता ने सामर्थ्य के अनुसार गृहस्थी की सारी चीजें दी थी। दीपक कुमार मुझे पसन्द थे। दस वर्ष मैंने पति के घर में गु़जारा। मेरा पुत्र नर्सिंग होम में आपरेशन से पैदा हुआ। उसका नाम दीपांकर है। इस समय वह आठ वर्ष का है। मेरे साथ रहता है। मेरे पति से कभी-कभार छोटी-मोटी बातों को लेकर त़करार हो जाती थी। ससुराल में सास-ससुर एक ननद, देवर है। ननद फिजिक्स से एम. एससी. कर रही है। देवर बी-टेक कर रहा है पति डॉक्टर हैं क्लीनिक चलाते है पूरे घर का खर्च मेरे ससुर के वेतन से चलता है। खर्च मेरी सास करती है। सास बहुत ही सख्त और पुराने विचारों की है। उस घर में सभी पढ़ने वाले हैं। पूरा काम हमें ही करना पड़ता था। ससुराल में केवल दो कमरे है। सोने तक के कमरे नहीं है। मेरी सास हर बात पर ताने देना यह गलत है यह ठीक नहीं है हर समय बुराई ही करना। भर पेट भोजन करना दूभर हो जाता था। मेरा लड़का शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ता है, लड़के का नाम मेरे पति ने लिखवाया था, पैसा उन्होंने ही दिया था। अब खर्च मैं करती हूँ। मैं नौकरी करती हूँ। एक दवा की कम्पनी में री़जनल मैनेजर हूँ। नौकरी करने के लिये मैंने किसी से राय नहीं ली। मेरे भाई-बाप ने सहयोग किया उनकी व़जह से मुझे नौकरी मिली। मैं अलग फ्लैट लेकर रहती हूँ। मेरे पति मेरे साथ आने को तैयार नहीं है मैं उनके माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहती। कारण मेरी सास है। उस घर में मुझे घुटन होती है। मानसिक परेशानी होती है सुकून नहीं मिलता वहाँ रहने पर मन करता है मर जाऊँ पर इस घर में न रहूँ। मेरे पति मेरे विचारों को नहीं समझते मेरा साथ नहीं देते मैं उनके परिवार के साथ नहीं रह पाऊँगी। दीपक हमारे पति है उनकी जिम्मेदारी मेरे साथ उनके अपने बच्चे के साथ ज्यादा बनती है कि वे हमारा बच्चे का ख्याल रखें।

उस लड़की के बयान के बाद मैंने उसके पति दीपक कुमार को सम्मन कर बुलाया और उसका बयान अकेले में लिया।

उसने बयान दिया मेरा नाम दीपक कुमार रस्तोगी है मेरे पिता का नाम उमेश चन्द्र रस्तोगी है। मेरी शादी ग्यारह वर्ष पूर्व दीपिका पुत्री श्याम चन्द्र रस्तोगी के साथ हुई थी। शादी के समय मेरी उम्र छब्बीस वर्ष थी मैं वी.एम.एस. हूँ। मेरी शादी मेरे माता-पिता ने तय किया था जिसमें मेरी मर्जी थी। मैंने शादी में अपनी ससुराल से किसी भी प्रकार के दहे़ज की माँग नहीं की थी। दस वर्ष मेरी पत्नी मेरे साथ रही कभी-कभी वाद-विवाद हो जाता था परन्तु मैंने अपनी पत्नी को कभी मारा नहीं और न हीं अपशब्द ही कहा। मेरे माता-पिता बड़े ही सात्विक विचारधारा के हैं। मेरे माता-पिता कभी किसी को अपशब्द नहीं कहते, पूरे परिवार का खर्च मेरे पिता जी के वेतन से चलता है मेरी छोटी बहन और छोटा भाई दोनों पढ़ रहे हैं। पूरा खर्च पिता जी देते हैं। परिवार खर्च में पूरा बजट मेरी माँ बनाकर चलाती है, वेतन मिलते ही बजट के अनुसार सारा सामान एक साथ आ जाता है, सारा सामान मेरी माँ लाती है जब वह नहीं रहती तो पत्नी और मेरी बहन लाती है घर में किसी भी ची़ज में ताला नहीं लगता किसी को आवश्यकतानुसार कहीं आने जाने की रोक नहीं है। जब कोई बड़ा खर्च आता है तो व्यवस्था मेरे पिता जी करते हैं। मैं अपनी क्लीनिक करता हूँ रात में एक नर्सिंग होम में जाता हूँ अपना खर्च चला लेता हूँ परिवार खर्च में कोई विशेष योगदान नहीं करता। मेरे पिता कभी भी मेरा हिसाब नहीं माँगते, न ही किसी खर्च में कुछ माँगते हैं। जरूरत पर मैं पत्नी को खर्च देता हूँ परन्तु पत्नी बहुत ही आधुनिक सोच की है। उसको अपनी क्षमता का ज्ञान नहीं है दिखावे में अपने को अमीर सिद्ध करने के लिये क्या कर जाय मालूम नहीं। वह दिखावे के लिए अपने गहने यहाँ तक कि मंगल सूत्र तक को बेच सकती है। ऐसा कई बार हुआ भी। वह बहुत ही शानों-शौ़कत की कायल है। उसके माई-बाप उसकी इस आदत को योग्यता मानते हैं। मेरी माता के समझाने पर उसे बुरा-भला भी कह जाती है परन्तु मेरी माँ उस पर ध्यान नहीं देती समझाने का ही प्रयास करती है। इसलिये वह खराब है।

वास्तव में मेरे परिवार में विघटन का जिम्मेदार मेरा बड़ा साला और ससुर जी हैं क्योंकि मेरे बड़े साले की एक दवा की कम्पनी है उसे अपने कम्पनी के प्रचार-प्रसार के लिये एक महिला की आवश्यकता है जो इस क्षेत्र में उसका कारोबार देख सके और उसने अपनी बहन को चुना और इस क्षेत्र का मैनेजर बना दिया है जिसे न तो मेरी पत्नी समझ रही है न ही उसके घरवाले। एक दिन मेरी पत्नी के कहने पर मेरे ससुर जी, साले जी तथा मेरी पत्नी स्वयं मेरे घर पर चढ़कर सारा सामान तोड़ दिया, माँ-बहन को भद्दी-२ गालियाँ दी, जान से मारने की धमकी भी दी। मेरी माँ केवल मितव्यता से घर चलाने की बात करती थी। किसी बात एवं खर्च के लिये कभी रोका नहीं। मैं अपनी पत्नी के विषय में क्या कहूँ वह कब किस तरह का रूप अख्तियार कर ले कहा नहीं जा सकता, ससुर जी उस अपनी लड़की को समझा नहीं सकते केवल मुझे मेरे माँ-बाप से अलग करना चाहते हैं। मेरे लड़के को मेरी पत्नी एवं ससुर जी ढाल बना रखे हैं। मेरी देवी जैसी माँ को बुरा बनाते हैं। वह अपनी लड़की की करनी पर ध्यान नहीं देते। मैं अगर अकेला हो गया तो मेरे ससुर, साले, पत्नी हो सकता कोई अनहोनी कर जाय। पत्नी के चरित्र के विषय में क्या कहूँ नारी का अपमान होता है। मेरे परिवार में नारी को बुरा कहने का संस्कार नहीं है फिर भी न जाने क्यों डर लगता है।

मैंने दोनों का बयान ले लिया था। एक दिन दोनों के बयान को मैंने पढ़ा और का़फी मनन किया कि इसमें कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है केवल आपसी समझ की कमी है। इसमें हमें लड़की तथा उसके माँ-बाप कुछ ज्यादा ही आधुनिक एवं असामाजिक विचारधारा के लगे। मैने सोचा जीवन तो लड़की को बिताना है उन्हें बुलाकर समझाया जाय हो सकता है समस्या सुलझ जाय इसी सोच के तहत हमने एक दिन दोनों को अपने घर पर बुला लिया। लड़की अपने पिता के साथ आई थी। मैंने उसके पिता को वापस कर दिया। उसका बाप कुछ भुन-भुनाया, कहा- मेरी लड़की को कुछ नहीं होना चाहिए। मैंने उसकी बात चुप-चाप सुन ली और कहा ठीक है कुछ नहीं होगा वह चला गया परन्तु मेरी सोच को और बल मिल गया कि लड़का गलत नहीं है। यह लड़की प्रताड़ित नहीं बल्कि अपने पति की प्रताड़ना का आधार बनी है।

उन दोनों को अपने स्टडी रुम में बैठा ली नौकर से चाय लाने को कह दिया। नौकर चाय दे गया जब दोनों ने चाय पी ली मैं उनसे मु़खातिब हुई।

मैंने तुम दोनों को अपने घर पर बुलाया शायद यह तुम्हें आश्चर्य लगा हो कि मेरा तुमसे क्या सम्बन्ध है। मै एक न्यायाधीश हूँ तुम दोनों का मेरे कोर्ट में मु़कदमा हैमु़कदमा कोर्ट में होता है घर पर नहीं परन्तु इस बात को तुम लोग नहीं समझोगे। तुम लोग पढ़े लिखे विवेकशील हो, जीवन बड़ा दुर्लभ है इसे सुकून से जीने के लिये सही रास्ते की तलाश करना चाहिये। स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक होते हैं। तुम दोनों ने जीवन के शुरुआती दिनों में ही सहयोग, प्रेम की जगह राग-द्वेष, ऩफरत, अहम को अपनाकर अपने जीवन को गर्त की ओर मोड़ दिया। इस समय मेरी बात हो सकता है असैद्धान्तिक लग रही हो लेकिन मैं तुम लोगों को एक नई सोच देना चाहती हूँमेरा कर्तव्य केवल वादी-प्रतिवादी की बात सुनकर एक निर्णय दे देना ही नहीं है बल्कि किसी भी आपराधिक सोच को समाज से निकाल कर नये-प्रेम सहयोग को बल देना भी है। इसी विचारधारा के तहत मैंने तुम दोनों को अलग से अपने घर पर बुला कर बात करना उचित समझी कि शायद तुम लोग अपनी भूल को समझो और सही रास्ता अपना सको।

तुम दोनों का बयान लिया सुनी भी हमें कोई ऐसी बात नहीं दिखी जिससे तुम दोनों का जीवन बाधित हो रहा हो। इस केश में दीपिका तुम अपने भाई, बाप की म़र्जी पर काम कर रही हो। जिसमें कहीं न कहीं शायद उनका कुछ स्वार्थ निहित हो। शादी के बाद लड़की का घर उसकी ससुराल होती है उसका मैका गौड़ हो जाता है। यहाँ पर तुमने अपने पति का घर छोड़कर मैके में रहने लगी। सास-ससुर के प्रति गलत बयानी किया उनकी मर्यादा पर आघात करवाया जिसमें तुम्हारा भी सहयोग रहा। तुम्हें नारी होने का कानूनी लाभ मिल सकता है परन्तु गलत ढंग एवं झूठे आरोप लगाने से नहीं। माना कि समाज में कुछ लोग हैं जो नारी पर जुल्म करते हैं परन्तु इस विचारधारा के सब नहीं, तुम्हारे केश में तो विशेष रूप से नहीं। तुम्हारे पति को तुम्हारी बात माननी चाहिये तुम्हारे सुख, दु:ख का ध्यान रखना चाहिये, इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिये लेकिन किसी के अधिकार को छीन कर नहीं।  तुम अपनी सास को सहन नहीं कर सकती क्या वह तुम्हें मारती-पीटती है, बयान से लगा कि वह तुम्हें केवल आमदनी के अनुसार घर खर्च चलाने को कहती है बयान में ऐसी बात नहीं आई जो तुम्हारे स्वाभिमान पर आघात कर रही हो। यही बात मैं दीपक से भी कहना चाहती हूँ कि जब कोई लड़का लड़की एक दाम्पत्य सूत्र में बँधते हैं तो नारी अपने पिता का घर छोड़ कर यकायक ऐसे घर में आ जाती है जो उसके लिये अन्जाना, अनदेखा, अपरिचित होता है, सब कुछ नया नया होता है जहाँ  वह किसी भी व्यक्ति के विषय में कुछ नहीं जानती न तो आदत नहीं, स्वभाव के विषय में उसके लिये वह घर एक नया जन्म-सा होता है। वहाँ पर उसका केवल एक मात्र साथी सहयोगी उसका पति ही होता है जबकि वह भी अन्जाना ही होता है। धीरे-धीरे सबके प्रेम प्यार से बँधकर वह लड़की उसी घर की हो जाती है और उसका मैका पराया हो जाता है। यहाँ पर उस लड़की की योग्यता उसके समर्पण एवं परिस्थितियों के प्रति समझौता करने की छमता पर निर्भर होता है कि वह कितनी जल्द उसे आत्मसात् कर लेती है। जब यही छमता लड़की में नहीं होती तो वह न ससुराल की होती है और न ही मैके की। क्योंकि लड़की अपने मैके के ममत्व-प्यार को भुला नहीं पाती और ससुराल को आत्मसात् नहीं कर पाती। वह बार-बार मैके की तऱफ भागती है उसका पति ससुराल के लोग दुश्मन से लगने लगते हैं जिसका परिणाम संघर्ष-विघटन परिवार का टूटन होता है।

इस केश में मुझे यही देखने को मिल रहा है। तुम दोनों के बीच एक अबोध लड़का है जिसे नया जीवन, नई सोच, प्रेम-प्यार भरा जीवन देना तुम्हारा परम् कर्तव्य है। परन्तु तुम दोनों अपने इस कर्तव्य को भूलकर सहयोग को न अपनाकर केवल अपने अहम को बढ़ावा दे रहे हो। मान लो तुम दोनों अलग हो गये फिर वह लड़का जिस पर दोनों का बराबर का अधिकार है उसे तुम दोनों का प्यार भी मिलना चाहिये, वह किधर जायेगा। इसलिये मैं पहले तुम दोनों को समय देती हूँ कि खूब मनन करो, जीवन के हर पहलू को समझो एक दूसरे को प्यार देने का प्रयास कर घृणा से बचो। मेरे पास आना तब मैं अपना निर्णय दूँगी।

एक बात और बताना चाहती हूँ कि यह जीवन अनमोल है। ईश्वर की असीम अनुकम्पा के बाद मिलता है इसलिये मिलता है कि कुछ अच्छा करके जीवन को सफल बना लो। इसे व्यर्थ के संघर्ष में केवल अपने अहम् को कायम रखने के लिये नष्ट न करो। प्रेम से जियो, प्रेम बाँटो, राग-द्वेष से एक दूसरे को नीचा दिखाकर अपमानित करने की मत सोचो प्रेम देने से प्रेम मिलता है। द्वेष-घृणा करने से नहीं। वैसे दीपिका पति के साथ रहने पर ही अधिकार जन्म लेता है। बिना पति के जीवन अकेला होता है यही बात दीपक के लिये भी है। एक बात समझ लो माँ-बाप बच्चों की आँख होते हैं उनके द्वारा नई दिशा मिलती है। वे त्याग और घृणा के पात्र नहीं होते उनको भी अपने बच्चों से उम्मीद होती है उसे मिटने नहीं देना चाहिये।

उस दिन वे दोनों चले गये। छ: माह बाद दोनों साथ आये थे, साथ रहने को रा़जी हो गये थे। मैंने उस केश को खारिज कर दिया था। दीपिका अपने पति के साथ खुश थी, जीवन सामान्य रूप से चल रहा था। आज उसे यहाँ देखकर मेरे मन में शज्र उठने लगी, क्या वे दोनों साथ नहीं रहे या आगे चलकर अलग हो गये। क्या कोई बात हो गई, दीपक गलत या दीपिका ने फिर कोई गलत कदम उठा लिया अथवा प्रेम पर अभिमान अहम हावी हो गया। अनेक प्रश्न उठने लगे मुझे बेचैनी-सी होने लगी।

दस बज गये थे मेरे पति अपने चैम्बर से उठकर आ गये थे मुंशी चला गया था। मेज पर खाना लग गया सभी लोग खाकर अपने-अपने बेडरूम में चले गये। मैं भी अपने बेड पर चली आई। सन्तोष की आदत थी खाना खाने के बाद पान का दोहरा खाकर कुछ देर टहलते थे। आज भी वे गेट तक गये चौकीदार से बात करके वापस आ गये। मुझे जागते देखकर कहा क्या है सरोज अभी तुम सोई नहीं, तबियत तो ठीक है।

नहीं कोई बात नहीं है, नींद नहीं आ रही है। यह जो अभी औरत आई थी, इसका क्या केश है।

क्यों क्या हुआ?

ऐसे ही

औरत का नाम दीपिका है, इटावा की रहने वाली है इसका पति देहरादून में रहता है। इसकी अपने पति से बनती नहीं है वह इसके साथ नहीं रहता यह एक दवा की कम्पनी में मैनेजर हैं इसको एक लड़का है वह अपने पिता के साथ रहता है इससे मिलने भी नहीं आता। यह दोष अपने पति पर लगाती है कि वह आने नहीं देता इसी बात को लेकर हैवीकारपस की रिट दा़खिल करना चाहती है उसी के लिये आई थी।

आप ने उसकी रिट लिखा दी क्या?

हाँ, इसका केश भी चला था इटावा में तुम्हारी ही कोर्ट में उस पर तुम्हारा निर्णय भी है हमने उसे पढ़ा भी है।

इस केश में कुछ नहीं है यह औरत नाहक ही परेशान हो रही है वास्तव में इस औरत पर इसका अहम् हावी है इसके भाई-बाप इसका प्रयोग कर रहे है या यह औरत नासमझ है किसी को इतना अहम्  रहना उसके जीवन के लिये मुश्किल पैदा कर देता है वही है इस औरत के साथ यह परिस्थितियों के साथ सामञ्जस्य नहीं बना पा रही है। अपने दोष को देखती नहीं दूसरों को दोषी बनाती है। तुमने जिस विचारधारा से इसे समझाने का प्रयास किया था वह कुछ दिन भले इसे अच्छा लगा पर यह शायद उसे अपना नहीं पाई और फिर अपने भाई-बाप के कहने पर उसी अहम के दलदल में पँâस गई।

क्या करोगी सरोज यह जगत है और यहाँ यह जीवन एक अनन्त की यात्रा का माध्यम इस यात्रा में वही सफल है जिसने प्रेम-प्यार समर्पण को अपनाया है जिसे राग-द्वेष, मोह, क्रोध और अहम् ने छू लिया फिर वह ऐसी विभीषिका में पँâस जाता है जहाँ से उसे निकलना मुश्किल हो जाता है। वह सत्य से कोसों दूर असत्य के भँवर जाल में उलझ जाता है। वह तभी उभर पाता है जब कभी प्रभू, फिर कृपा करते हैं। यह संसार है यहाँ सब कुछ प्रभू की म़र्जी से ही होता है। समय ़ज्यादा हो गया है सो जाओ सरोज। संसार उलझे हुये सूत की तरह है, जैसे मकड़ी का जाल।

सन्तोष करवट बदल कर सो गये और मैं प्रभू के अनसुलझे रहस्य के कृत्य में सत्य को खोजने का अन्तहीन प्रयास करती रही सोचते-सोचते बिना निर्णय के कब नींद आ गई पता नहीं।

-Ajay Kumar Pandey Ki Hindi Kahaniya- ULJHAN