यज्ञ, दान, तप की श्रेष्ठता, महत्व एवं प्रभाव

जीवन में यज्ञ, दान और तप की सही अर्थ में कितनी उपयोगिता है और यह हमारे लिए मोक्षदायी कैसे हो सकते हैं

यज्ञ, दान, तप की श्रेष्ठता, महत्व एवं प्रभाव
Yagya, Dan by Shri vishwa shanti ashram

यज्ञ, दान, तप की श्रेष्ठता, महत्व एवं प्रभाव

-परमपूज्य आनन्द किरन जी भगवन

निश्चित कल्याणकारी, धर्ममय साधनों को श्रद्धा-प्रेम पूर्वक श्रवण-पठन करने के उद्देश्य उपस्थित ॐ आनन्दमय अनुरागी प्रेमियों !

यज्ञ, दान, तप की श्रेष्ठता का और उसके द्वारा प्राप्त होने वाले महत्व एवं प्रभाव का हम लोग बचपन से पठन-श्रवण करते आ रहे हैं। परन्तु, अखण्ड विधान के तत्त्वज्ञ श्री गीता-ज्ञान के ब्रह्मदर्शी श्री योगेश्वर भगवान ने श्री गीता अ०४ श्लोक ३३ में द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ को अत्यन्त श्रेष्ठ कथन कर उसकी पवित्रता को अत्यन्त श्रेष्ठ कथन कर उसकी पवित्रता को ज्ञान-रूप नौका से, ज्ञान अग्नि से और ज्ञान पूर्वक कर्मयोग के द्वारा शुद्ध अन्त:करण होने का महत्व बतलाया। हाँ इस श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने के लिये तत्त्व-दर्शी महापुरुषों की शरण जाने की आज्ञा दी है। श्री गीता आ०४ श्लोक ३४।

हाँ! अब हम लोगों को यज्ञ, तप, दान से होने वाले भीषण परिणाम का पठन-श्रवण मिला है। वह तत्त्व ज्ञानियों के विपरीत स्वेच्छापूर्वक मनमानी कर्म करने वालों का।

 पूर्व में प्रजापति दक्ष ने विशाल यज्ञ किया। उसमें पार्वती जी स्वेच्छापूर्वक, तत्त्व-ज्ञानियों की बात को न मानने से उनके भवम-वेगम ने उनके शरीर की राख बना दी। दान के विषय में विश्वव्यापक इतिहास पठन-श्रवण होता रहता है कि तत्त्ववेत्ता भगवान श्री राम की परम-हितकारी वाणी न मानने से स्वेच्छा-पूर्वक वेश-भूषा के बनावटी कामी, क्रोधी, लोभी, साधू-महात्मा को दान देने से क्या हुआ। आज भी सीता माता और रावण का इतिहास पठन-श्रवण करने के साथ राम-लीला करके उनके स्वरूपों का भी दर्शन कराया जाता है।

तप के विषय में क्या कहा जाये, लीला धारियों की लीला से इस विषय में अनहोनी बातों से अश्रद्धा के भाव पैदा होने लगते हैं। फिर भी श्री भरत जी की सच्ची भक्ति रूपी तप के विषय को श्रवण-पठन कर ऐसी सच्ची रूपी तप में श्रद्धा प्रेम के भाव पैदा होते हैं। परन्तु अहंम-वादी के भाव उठने पर इसका महत्व समाप्त हो जाता है। श्री दादा गुरू भगवान भी कभी-कभी एक ऐसे तप-धारी के तप के विषय में कहते थे कि उसकी धोती तप के प्रभाव से आकाश में बिना किसी सहारे सूखती थी, एक दफे उसकी धोती सूख रही थी, तभी एक पक्षी ने उसकी धोती पर बीड कर दी, तब उसने उस पक्षी को क्रोध से देखा और वह नष्ट हो गया। फिर उसकी धोती सूखना-बन्द हो गई।

श्री गीता शास्त्र में भगवान ने यज्ञ, दान, तप को श्री गीता अ०१६ में श्लोक ७ से २२ तक में मनुष्य की प्रकृति सात्त्विक, राजस, तामस के अनुसार होने वाले यज्ञ, दान, तप को समझाया और उनके लक्षणों के अनुसार प्राप्त होने वाले प्रभाव का कथन किया।

अत: अब हम लोगों को श्री तत्त्वज्ञानियों के अनुसार पूर्व श्रद्धा-प्रेम-विश्वास कर लेना चाहिये कि ज्ञान के समान श्रेष्ठ, पवित्र, धर्ममय कल्याणकारक साधन और कोई नहीं है। श्री गीता के अन्त में भगवान ने ज्ञान का महत्व बताते हुये कहा कि मेरे में परम-प्रेम करके इस ज्ञान का प्रचार करने वाला मुझको ही प्राप्त होगा इसमें कोई सन्देह नहीं। परम-प्रेम करने के साधनों से गीता-शास्त्र पूर्ण है एवं श्री सच्ची प्रेम-भक्ति में आदेश के मंत्र परम-प्रेम करने के हैं।

ज्ञान का अनुष्ठान करने से यज्ञ-दान-तप तीनों इसमें समाहित हो जाते हैं। हम लोगों को श्री तत्त्ववेत्ता महापुरुष भगवान से अत्यन्त परम श्रेष्ठ, परम पवित्र दिव्य लाभ प्राप्त करने के सुगम विधि मिली है।

अत: मनुष्य जीवन में यज्ञ, दान, तप इन तीनों का बहुत ही महत्व श्री गीता में बतलाया गया है। इन तीनों के द्वारा मनुष्य अपना यह जीवन सुगम, कल्याणकारी और मोक्षदायी बना सकता है। यज्ञ का मतलब सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं होता बल्कि यज्ञ का सही मतलब कि श्री प्रभुपिताजी के ज्ञान को लोगों तक पहुँचाना भी एक बडा यज्ञ माना जाता है। और इस ज्ञान को लोगों तक पहुँचाने में जो भी आपकी आर्थिक पूँजी लगती है, तो यह दान में आ जाता है। इस ज्ञान के प्रचार-प्रसार आप स्वयं अथवा आश्रम के विधि-विधानों के अनुसार कर सकते हैं। इस प्रकार इस प्रचार-प्रसार में जो भी आपका अमूल्य समय लगता है, मेहनत, परिश्रम लगता है वह तप के अन्तर्गत आ जाता है। हमें अपने जीवन में इन तीनों चीजों पर सही मायने में मंथन और पालन करने की आवश्यकता है। जिससे कि हमारा यह मानव जीवन सार्थक बन सके।