Raj-Dwesh, Kalah-Klesh, Dosh-Darshan, Bhog-Darshan Ko Kaise Samapt Karen

ॐ आनन्दमय भगवान के प्रिय आज्ञाकारी भक्तों की क्या प्रतिज्ञा है? मनुष्य में राग-द्वेष, कलह-क्लेश, दोष-दर्शन, भोग-दर्शन कहाँ से उत्पन्न होते हैं? इन सबका कारण क्या है? इसका त्याग कैसे कर सकते हैं?

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Rag Dwesh, kalah klesh, dosh darshan

ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय

राग-द्वेष, कलह-क्लेश, दोष-दर्शन, भोग-दर्शन का पिता कौन है?

अहंकार (मैं श्रेष्ठ) ‘‘श्री गीता अ० १६ श्लोक १५-१६

शारीरिक रोगों में सबसे भयंकर रोग है, वैâन्सर, ऐसे ही दिमागी रोगों में भयंकर रोग है- अहंकार ‘‘मैं’’। यह ब्रह्मभूत प्रसन्न-आत्मा के दिमाग को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। श्री गीता अ०१८ श्लोक ५४।

ज्ञान के समान पवित्र करने वाला इस संसार में कुछ भी नहीं है अर्थात नि:सन्देह कुछ भी नहीं है, परन्तु उस ज्ञान की प्राप्ति में जो सबसे मुख्य बाधक है वह है- अहंकार श्री गीता अ०४ श्लोक ३८ एवं श्री गीता अ०१३ श्लोक ७।

ॐ आनन्दमय भगवान के प्रिय आज्ञाकारी भक्तों की क्या प्रतिज्ञा है।

संग उनका ही करूँगा, डर है, जिन्हे तुम्हारा।

अहंकार को तजूँगा, अपमान को सहूँगा,

मालिक नहीं बनूँगा, सब कुछ यहाँ तुम्हारा।।

त्याग के लिए क्या प्रतिज्ञा है?

हे श्री आनन्दमय प्रभो ! मैं भूत, भविष्य और वर्तमान के व्यर्थ संकल्पों का त्याग करूँगा। करिष्ये वचनं तव के आज्ञाकारी भक्त, सत्य-वाणी की सदा स्मृति रखते हुये ॐ आनन्दमय भगवान के आज्ञाकारी आदेशों को धारण-पालन में सदा तैयार रहते हैं। ‘‘सत्यवाणी क्या है।’’

काल करन्ता आजा कर, आज करेन्ता अब।

पल में प्रलय होगी, फेर करेगा कब।।

पल में प्रलय होगी, इसका अनुभव गत वर्षों में कराया था।

श्री गीता अ०१८ श्लोक ७३। ‘‘करिष्ये वचनं तव’’ के आज्ञाकारी भक्तों की सुनने सुनाने की तृप्ति हो जाती है। परन्तु स्वेच्छाचारी इन्द्रिय भोगों में रमण करने वाले भगवत-विधान के त्यागी कामी-क्रोधी मूर्ख मनुष्यों की सुनने-सुनाने से तृप्ति नहीं होती। जैसे अग्नि की तृप्ति ईधन से नहीं होती। इसी से संसार में हजारों धर्म-पन्थ चल रहे हैं। हजारों प्रकार के स्वइच्छा से अनुभव रहित थर्म ग्रन्थों का निर्माण हो गया, आकाश, पाताल, पहाड़, नद-नदियों के किनारे गलियों में मठ-मन्दिरों का निर्माण हो गया और होता ही जा रहा है। फिर भी तृप्ति नहीं। श्री गीता कहती है अ०२ श्लोक ६६ अशान्त-तस्य कुत: सुखम।

ॐ आनन्दमय भगवान के आज्ञाकारी भक्त के लिये तो एक ॐ आनन्दमय परमात्मा ही समस्त ब्रह्माण्ड में और चर-अचर में सर्वत्र एवं हृदय मन्दिर में समाये रहते हैं। श्री गीता अ-१२ श्लोक १३ से १९ तक के भक्ति भाव में सदा-सर्वदा सम-शान्त प्रसन्न रहता है एवं ज्ञान की प्राप्ति होने से सर्वत्र और प्रेमी पदार्थों में मोह-ममता राग-द्वेष, कलह-क्लेशों से मुक्त सदा सम-शान्त प्रसन्न रहता है। श्री गीता अ०१३ श्लोक ९-१०।

यह संसार ॐ आनन्दमय भगवान का ही व्यापक स्वरूप है। यह सत्य है। सत्य का दर्शन करने वालों से कभी पाप कर्म नहीं होते। श्री गीता अ०७/७।

सत्य ज्ञान के समान संसार में पवित्र करने वाला और कुछ नहीं है। दर्शन-श्रवण कर इन्द्रिय भोगों में रमण कराकर मोह-ममता, राग-द्वेष के कठिन-बन्धनों में बाँधने वाला संसार का स्वरूप भगवान की माया है। इससे मुक्त होने का उपाय श्री गीता अ०७ श्लोक १४ ही है।