राह के साथी 'Raah Ke Saathi' Hindi Kahani

अजय कुमार पाण्डेय द्वारा लिखित हिन्दी कहानी- राह के साथी, Hindi Story 'Raah Ke Saathi' Written by Ajay Kumar Pandey

राह के साथी 'Raah Ke Saathi' Hindi Kahani
Ajay Kumar Pandey Ki Kahani 'Raah Ke Saathi'

राह के साथी (Rah Ke Sathi)

-‘Rah Ke Saathi’ hindi story by Ajay Kumar Pandey

मनोज, गाड़ी चल दी उतरो नहीं तो ते़ज हो जायेगी।

अच्छा मामा, अपना ख्याल रखना, मामी संजय भैय्या, रोहित, बेबी दीदी को प्रणाम कहना।

मनोज उतर गया, प्लेटफार्म पर डिब्बे के साथ दौड़ने लगा, ट्रेन ते़ज होती गई। मनोज के पाँव धीरे-धीरे रुकने लगे, मैं गेट पर खड़ा देखता रहा, हाथ हिला-हिलाकर अलविदा कहता रहा, ट्रेन दूर होती गयी प्लेटफार्म मेरी निगाहों से ओझल होता रहा, मनोज का हिलता हाथ अब दूर ओझल हो गया, लौटकर मैं अपनी सीट पर आ गया बैग आदि ठीक किया बैठ गया। गाड़ी अपनी ऱफ्तार ले चुकी थी। शहर की सड़कें बड़े-बड़े मकान भागते हुए साथ दौड़ने लगे। गाँव, खेत जंगल, पहाड़ साथ-साथ भागते हुये बिछुड़ते गये। चुपचाप बैठा खिड़की पार सब कुछ देखता रहा, परन्तु मेरी विचार वीथिका अतीत के जंगल में भटकने लगी, एक-एक प्रतिबिम्ब चलचित्र की तरह उभरने लगे।

मनोज की शादी थी बड़े प्रेम से बुलाया था, मामा जरूर आना। शादी में संजय, रोहित, बेबी को बुलाया था परन्तु उन लोगों का आना नहीं हो सका। सोमवार को शादी विदाई फिर बहूभोज एक हफ्ते लग गये, समय का पता ही नहीं चला। कई वर्षों पहले नागपुर आया था, सन् १९७८ में जब शैल व्याह कर आई थी। मेरे बहनोई का घर गाँव अन्तामऊ में था, परन्तु उनके माता-पिता यहीं नागपुर में कपड़ा मिल में काम करते थे उनके दादा पुलिस में थे, कई रिश्तेदार यहीं काम करते थे। मेरे बहनोई भी कपड़ा मिल में लग गये थे। इसलिये शैल का गाँव में रहना ठीक नहीं था सभी लोग नागपुर में थे सो वह भी यहीं आ गई। उस समय बहनोई का पूरा परिवार साथ-साथ रहते थे। मिल की तऱफ से एक छोटी-सी चाल मिली थी, जगह बहुत थोड़ी थी। शैल की सास थोड़ा स़ख्त स्वभाव की थी। शैल १५-१६ साल की थी जब उसका गौना हुआ था। गाँव में खुला संसार स्वच्छन्द घूमना, किसी प्रकार का बोझ नहीं अचानक गौना हुआ गाँव छोड़ शहर आना पड़ गया, साथ में परिवार का दायित्व उस पर सास का स़ख्त स्वभाव शैल टूट गई। उसने एक पत्र चुपके से बैरंग पिता जी के पास लिखकर भेज दिया जिनकी पंक्तियाँ थीं– ‘‘पिताजी मैं भी आपकी बेटी हूँ, कोई पराई तो नहीं जो मेरी सुध भूल गये।’’ पढ़कर पिता जी रो पड़े थे।

उस समय मैं इलाहाबाद में पढ़ रहा था। छुट्टी पर घर गया था। पिताजी ने चिट्टी दिखाई। माँ ने कहा दो वर्ष हो गये शैल को गये ऊब गई होगी, किसी तरह बुला लाते तो उसका भी मन बहल जाता। घर की स्थिति ठीक नहीं थी। चुपचाप चिट्ठी लेकर मैं इलाहाबाद लौट आया था। व्यवस्था की गाड़ी पकड़ी और बिना सूचना के नागपुर पहुँच गया। गाड़ी रात में पहुँची, सुबह पूछते हुये शैल के निवास मांडल मिल चाल नं. १२ पर पहुँच गया।

मुझे अचानक देखकर सब लोग स्तब्ध रह गये। सबसे म्िाला तीन दिन रहा वहाँ पर सारे रिश्तेदारों के यहाँ गय, अच्छा लगा। दादा ने आने का कारण पूछा तो मैंने वह चिट्ठी दे दी और शैल को विदा करा ले जाने की बात कही तो दादा ने कहा जैसा ठीक समझो, वैसे किसी की राय नहीं है। फिर भी मैं अपनी हठ में शैल को विदा करा कर ले ही आया। शैल की खुशी का ठिकाना नहीं था। शैल गाँव में माँ के पास आ गई परन्तु शैल को चिट्ठी का हवाला देकर ले आना बहनोई जी को अच्छा नहीं लगा और दो वर्षों तक शैल की विदाई के लिये कोई नहीं आया। माँ की चिन्ता बढ़ती गई, जब भी घर जाता अम्मा की तथा शैल की ़खामोश निगाहें लगता कुछ मुझसे प्रश्न कर रही हैं। मैं भी समझता परन्तु कुछ कह न पाता। एक दिन मैंने दादा जी को एक पत्र लिखा उसका जबाब आया कि हरी नारा़ज है फिर उस पत्र के जबाब में मैंने अपने बहनोई को पत्र लिखा, अपनी गलती की क्षमा याचना के साथ सारी बातों का खुलासा करते हुए म़जबूरी बताई। मेरे पत्र ने उनके सारे भ्रम को दूर कर दिया वे आये और शैल को लिवा ले गये। सारा रिश्ता सामान्य हो गया। मनोज पैदा हुआ, गुन्जा, भोलू परिवार बन गया। अब शैल अपने परिवार में व्यस्त हो गई। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-चाकरी, घर-मकान इन्ही की व्यवस्था में समय नहीं मिलता की गाँव आ जाये। पत्र द्वारा हाल चाल मिल जाती है। सबकुछ अच्छा ही है। गाड़ी अपनी ऱफ्तार से चली जा रही थी। अचानक जोर की ब्रेक लगी ऱफ्तार धीमी हो गई और एक झटके के साथ गाड़ी खड़ी हो गई।

बाहर देखा दिन के तीन बज रहे थे। दूर-दूर तक सूना जंगल पत्थरों को पकड़े हुये सागौन के पेड़ झाड़ियों से ढका रास्ता कुछ फूले कुछ सूखे हुये जंगली फल पतझर की मार से घायल डाले हवा में काँप रही थी। मैंने बगल वाले से पूछाअभी इटारसी दूर है क्या? एक घण्टा लगेगा उसने कहागाड़ी एक हल्के से झटके के साथ रेंगने लगी फिर तेज हो गई, कुछ देर खिड़की के बाहर झांकता रहा ठंडी-ठंडी हवा सिहरन पैदा कर रही थी। मैंने शीशे वाली खिड़की बन्द कर ली। अब भी बाहर का सब कुछ दिख रहा था, आहिस्ता-आहिस्ता मेरी आँख झपकने लगी, नींद सी लग गई। कब क्या आया पता नहीं चला। अचानक बगल वाले ने मुझे हिलाया इटारसी आ गया उतरना है क्या?

नहीं मुझे इलाहाबाद जाना है यहाँ पर चाय पीने का इरादा था। मैंने कहा।

यहाँ गाड़ी ३० मिनट रुकेगी, इन्जन बदलेगा उसने कहा।

अच्छाकह कर मैं चुप हो गया।

बगल वाले को दिल्ली जाना था। उसने अपना सामान ठीक किया उतर गया।

मैने भी अंगड़ाई ली, पानी की बोतल लिया नीचे उतर गया, नल से पानी भरा एक आलू बड़ा लिया, खाया पानी पी चाय लिया फिर अपनी सीट पर आकर बैठ गये। गाड़ी का इंजन बदल कर दूसरा लग चुका था। सिगनल हो गया गाड़ी फिर अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगी। धीरे-धीरे पूरब का सूरज भी पश्चिम की तरफ बढ़ रहा था, सारी प्रकृति अपनी अवाध गति से प्रति दिन की क्रिया कर रही थी। दूर पश्चिम में सूरज जोगी होने लगा था। मेरी गाड़ी नर्मदा के क्षेत्र से गु़जर रही थी। ऊँचे-नीचे पहाड़ों की सुन्दर अल्पना बनी दिख रही थी। कहीं छोटी-छोटी नदियों की तलहटी में बसे गाँव असमतल खेतों में लहलहाती फसल बड़ी भली लग रही थी।

पश्चिम का अम्बर सिन्दूरी होने लगा था। दिन ढल चुका था, सूरज किसी सुन्दरी के माथे पर सजी बिंदिया-सी लग रहा था। प्राची से कालिमा की रेखा उभरती हुई दिखाई दे रही थी, लग रहा था जैसे कोई कामिनी धीरे-धीरे अपने मुखड़े पर घूँघट डाल रही हो। खेतों में गदराये गेहूँ, चने के सजे पके खेत, गन्ने की फसल ढलती शाम में सिहरने लगे थे। प्रकृति बड़ी सुहानी लग रही थी। गाड़ी धीरे से रुक गई मैंने झाँक कर देखा तो एक छोटा-सा स्टेशन काकरवेल जिस पर कोई यात्री नहीं था। दूर सूरज छिप चुका था, प्रकृति स्याह हो चली थी अंधेरा घना होने लगा था। स्टेशन पर लगी बैगनबेलिया पतझर के बाद भी फूली हुई थी। कचनार की डालों पर अधखिली कलियाँ अलसाई दिख रही थी। कलिमा के बाद भी प्राची में अष्टमी का चाँद चमकने लगा था, उसकी धवल किरनें पेड़ों पर खेतों में थिरकने लगी थीं। रात के बाद भी कुछ डरावना नहीं लग रहा था। सारी प्रकृति सजीव दिख रही थी। सिगनल हो गया गाड़ी फिर चल पड़ी। इटारसी में कई लड़के डिब्बे में आ गये थे, भीड़-सी हो गई थी, बैठने में परेशानी हो रही थी। मेरी ऊपर की सीट थी, ऊपर जाकर मैं लेट गया। परन्तु मेरा ध्यान बच्चों पर ही लगा रहा। बच्चे समय पास करने के लिए चोर-सिपाही का खेल खेल रहे थे, समय अपनी ऱफ्तार से बीतता रहा, नींद नहीं लग रही थी, बच्चों की बातचीत भी कारण बनी हुई थी। रात के ग्यारह बज रहे थे, उन्हीं में से एक लड़के अखिलेश ने कहा एक घण्टे बाद मेरा जन्मदिन आने वाला है आप लोग मुझे विश करेंगे। अन्य बच्चों ने पूछा वैâसेअखिलेश ने कहा जैसे ही १२ बजेगा आप लोग मुझे एक-एक तमाचा मारेंगे वही मेंरे लिये शुभकामना होगी। मैं ऊपर लेटा बच्चों के बचपने पर मुस्कराता रहा। इसी बीच मैंने करवट बदली तो मुझे मेरा भी बचपन याद आ गया। जब मैं अपने गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था तो वहाँ सभी क्लास के बच्चे दो ग्रुप बना लेते और अन्ताक्षरी होती। शर्त होती जो ग्रुप हारेगा जीता हुआ ग्रुप एक-एक तमाचा हारे हुये ग्रुप को मारेगा। आज जब मैं गाड़ी पर बैठा था तो अपने उसी जमाने के एक दोस्त नरेश शुक्ला से मिल कर आया था जो इस समय नागपुर में पुलिस विभाग में कार्यरत हैं। यह बात मुझे नहीं मालूम थी कि नरेश नागपुर में नौकरी करता है। उस दिन मनोज ने मेरा परिचय अरुण से कराया था। मनोज ने कहा मामा यह अरुण हैं। नरेश शुक्ला आपके सहपाठी का लड़का। इतना कहते ही अरुण ने दौड़कर मेरा पैर छुआ। मैं और नरेश कक्षा पाँच में रामगंज में साथ पढ़ते थे। वे आपसे मिलना भी चाहते थे, कह रहे थे मनोज तुम्हारे मामा शादी में आयें तो उन्हें लेकर आना। मनोज ने कहा- जरूर मिलूँगा, परन्तु मेरी गाड़ी तो कल सुबह की है शाम को मिल आयेंगे। मैंने कहा । लेकिन शाम को जाना नहीं हो पाया। सुबह उठे गाड़ी का पता किया तो एक घंटा लेट थी। मनोज ने गाड़ी निकाली नरेश शुक्ला के घर चले गये। मुझे देखते ही शुक्ला जी दौड़कर आये गले लगाते हुये कहने लगे मेरे भाग जागे दोस्त तुम मिले। पाण्डेय जी आप तो बूढ़े हो गये। मैंने भी कहा शुक्ला तुम भी जवान नहीं दिख रहे हो, सारे बच्चे हँस पड़े। मैंने अपनी एक काव्य संग्रह उन्हें सादर भेंट की, लेकर शुक्ला जी भावुक हो गये। मैं भी उसी भावुकता से उन्हें निहारता रहा जैसे हम दोनों चालीस साल के पहले के हो गये। शुक्ला जी चुप्पी तोड़ते हुये कहने लगे पाण्डेय जी आप तो कुछ कर रहे हैं मैं तो सि़र्फ डण्डा पीटता रह गया। आपके पास निधि है मैं क्या दूँ। इसे मैं संभाल कर रखूँगा। तब तक चाय नाश्ता आ गया था, गाड़ी पकड़नी थी। भारी मन से चले आये।

रात के बारह बजे थे गाड़ी तेजी से भागी जा रही थी। डिब्बे के सभी लोग ऊँघने लगे थे, शरारत करते बच्चे भी इधर-उधर जगह ढूँढ़ कर लेट गये थे, ठंडक बढ़ गई थी। मुझे भी नींद आने लगी थी गाड़ी सतना पार कर रही थी। मैंने साल को पूरी तरह लपेट लिया स़फर अभी चार घण्टे का था, सोच कर सोने लगा। परन्तु नींद आती फिर टूट जाती। मन में जाने क्यों एक उचाटपन सा था शायद मेरा गंतव्य इलाहाबाद जल्द ही आने वाला था। आ़िखर गाड़ी जमुना पुल पार करने लगी उसका शोर संकेत दे गया कि इलाहाबाद आ गया। मैं अपनी सीट से नीचे उतरा साल-चद्दर तह किया बैग में रखा, पानी की बोतल सहेजी गेट पर आ गया। तब तक गाड़ी प्लेट-फार्म पर खड़ी हो चुकी थी। कुली, सवारी प्लेटफार्म पर दौड़ने लगे, मेला जैसा लग गया। मैंने प्लेटफार्म पर उतरकर अपना सामान रखा । रात के तीन बज चुके थे सर्दी कुछ ज्यादा थी। म़फलर मैने कान में लपेटा एक चाय पी समय बिताने के लिये वहीं बेन्च पर बैठ गया। बाहर बड़ा अँधेरा था अष्टमी का चाँद डूब चुका था गाड़ी फिर रेंगती हुई चली गई। मैं सोचता रहा यहाँ कुछ रुकने वाला नहीं है। अपना बैग उठाया धीरे-धीरे घर की तरफ चल दिया। जीवन एक सफर है, यहाँ रुक नहीं सकते क्योंकि यहाँ केवल प्लेटफार्म है। आओ जीवन के स़फर का आनन्द लें। हर रोज एक नई तैयारी, एक नये स़फर, नये भोर का इन्त़जार है। आज तो अतीत हो गया। परन्तु यही आज कल मेरे अगले पड़ाव के साथ होंगे। स़फर यही खत्म नहीं होता। दो वर्ष बाद बीमारी ने मेरे बहनोई को मृत्यु की गोद में सुला दिया। राह का एक साथी बिछुड़ गया। स़फर चलता रहा राह के साथी मिलते बिछुड़ते रहे।

-अजय कुमार पाण्डेय की हिन्दी कहानी- राह के साथी