भक्ति आन्दोलन और निर्गुणकाव्य विमर्श #Devotional Movement and Nirgunakavachar

Bhakti Andolan Aur Nirgunkavya Vimarsh by Dr. Ram Pal Gangawar

भक्ति आन्दोलन और निर्गुणकाव्य विमर्श #Devotional Movement and Nirgunakavachar
Bhakti Andolan Aur Nirgun Kavya Vimarsh

भक्ति आन्दोलन और निर्गुणकाव्य विमर्श (bhakti Andolan Aur Nirgunkavya Vimarsh)

पुस्तक का नाम- भक्ति आन्दोलन और निर्गुणकाव्य विमर्श

लेखक- डा. राम पाल गंगवार

प्रकाशक- लोक परलोक प्रकाशन, प्रयागराज

संस्करण- 2020

मूल्य- 260 रुपये

पुस्तक का विषय है-

1- भक्ति आन्दोलन के उदय की पृष्ठभूमि

2- निर्गुणकाव्य विमर्श- संत और सूफी काव्य

3- संतकाव्य- थिर परम्परा : एक परिचय (विचार)

4- संतकाव्य :  अनुभूति और अभिव्यक्ति- एक विमर्श

पुस्तक के बारे में (About the book- bhakti Andolan Aur Nirgunkavya Vimarsh)

प्रस्तुत पुस्तक में चार अध्याय हैं जो पृथक समय अवधि (1999-2019) में लिखे गये मेरे कुछ आलोचनात्मक निबन्ध हैं। कोई भी शोध पूर्ण और अन्तिम नहीं होता, इसको आधार मानकर मैं निरन्तर बिना किसी घबराहट के आगे बढने का प्रयास करता रहता हूँ। इस पुस्तक में मुझे अपनी बात कहने का अवसर (स्पेस) मिला, मगर मेरा यह दावा नहीं है कि जो मैंने कहा उसे अभी तक किसी ने नहीं कहा।

मैं उन सभी गुरुजनों का आभार व्यक्त करता हूँ जिनसे मैंने सीखा है और इस पुस्तक में जिनके विचारों का मैंने यथास्थान उपयोग किया है। 

भक्ति अर्थात् आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण, श्रद्धा एवं प्रेम, अविचल विश्वास, पूर्ण आस्था। भक्ति का आन्दोलन किसके लिए ? मुक्ति के लिए, सान्निध्य के लिए.....? समर्पण जिसकी पहली शर्त, वह भक्ति अपने आराध्य की, उपास्य की; आराध्य दिव्य सत्ता, जिन पर बस नहीं, उन कार्यों का विधाता। भौतिक रूप में गुरू के प्रतिसमर्पण और शरणागत हो’ जो गुरू बताये करते रहो मुक्ति होगी। किससे मुक्ति की प्रेरणा में उठ खड़ा यह आन्दोलन ? कष्टों से, दुखों से, जन्म-मरण से..। 
कोई आंदोलन विशिष्ट उद्देश्य के लिए, प्रयोजन के लिए होता है; जैसे समाज में सुधार के लिए, धर्म में सुधार के लिए, प्रशासन तंत्र में सुधार के लिए, जब वह समाज, धर्म, शासन-प्रशासन-तंत्र विकृतियों, बुराइयों से ग्रस्त हो जाता है। यह आंदोलन सुधार भी करता और जब सुधरने की गुंजाइश नहीं रहती तो पूर्णतः विस्थापन कर परिवर्तन कर नूतन रूप प्रदान करने के लिए भी होता है। वस्तुतः आंदोलन एक व्यापक, प्रगतिशील विचारधारा है, चिन्तन-दर्शन है, सामाजिक गतिविधि है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थों की बजाय सामूहिक, सामाजिक हित की चेतना रहती है। तो दक्षिण में भक्ति का आंदोलन था भी। इतना व्यापक जनहितों से प्रेरित था भी कि उसे आंदोलन कह सकें ? जिन भक्तों, आचार्यों का नामोल्लेख किया जाता है क्या वे जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति थे या व्यक्तिगत मुक्ति तक सीमित भक्त के प्रयास- भगवान के प्रति करुणालाप-थे ?
भक्ति के बीज तो दक्षिण में उठ खड़े ९वीं-१०वीं शताब्दी के नयनार-अलवार (शैव-वैष्णव) आचार्यों के बहुत पहले से- वेद, उपनिषद्, बौद्ध महायान, भागवतपुराण, गीता आदि में- उपस्थित थे और उनकी उपस्थिति अखिल भारतीय भी रही फिर दक्षिण और उत्तर में एक साथ और दक्षिण में भी ९-१०वीं से पहले क्यों नहीं भक्ति का आंदोलन आरम्भ हुआ ?
इस सम्बन्ध में हमें क्षेत्र-विशेष की परिस्थितियों की पड़ताल करनी चाहिए। क्षेत्र विशेष के आंदोलन की अपनी परिस्थिति होती है और तन्निहित विशेष कारण जिन्हें पृथक्-पृथक् समझना चाहिए न कि एक के कारण को दूसरे पर लागू करना चाहिए। उत्तर में १३वीं-१४वीं शती में दक्षिण के चार-पाँच सौ वर्षों बाद भक्ति आंदोलन के उत्पन्न होने का यही तर्वâ है जो वहाँ की दक्षिण से भिन्न पृथक् परिस्थितियों के कारण देर से आया जिसका सीधा सम्बन्ध ब्राह्मण-राजपूत गठजोड़ जन्य परिस्थितियों एवं तुर्वâ सत्ता द्वारा उसके सफाए और उनकी गतिशील नीतियों से है। अब हम दक्षिण में भक्ति आंदोलन का जायजा लेंगे। भक्ति आंदोलन के रूप में ६ठी सदी से आरम्भ हुए और १०वीं सदी में चरम रूप में उठे खड़े होने के पीछे वहाँ की परिस्थितियाँ थी। 
समाज अवैदिक था परिणामत: वहाँ वर्ण व्यवस्था की उत्तर भारतीय कठोर एवं जटिल संरचना नहीं दिखती। ब्राह्मण के अतिरिक्त क्षत्रिय वर्ण का अभाव और सीधे द्विजेतर शूद्र जाति का होना, वह भी ताकतवर थी। सत्ता और राजनीति का केन्द्र थी। बड़े कृषक सामंत (वेल्लार) थे जिनके राजनीतिक सम्बन्ध थे। लिहाजा ब्राह्मण की उत्तरवाली हैसियत नहीं थी। हॉ श्रेष्ठ माना जाता था उन्हें पर गठजोड़ करने के लिए कोई विकल्प नहीं था। कृषि बहुत समृद्ध थी। सिंचाई के साधन और भूराजस्व की उचित व्यवस्था थी। शासक स्वयं द्विजेतर थे जो खेती और अर्थ व्यवस्था में उसके महत्त्व को समझते थे। 
दक्षिण भारत में तटीय व्यापार का विशेष महत्त्व था। समुद्र के द्वारा वाह्य व्यापार खूब होता था। बहुत सारे जिंस विदेशों में माँगे जाते थे जिनसे सोना-चांदी देश में आता था। राजा खुद व्यापार को प्रोत्साहन देते थे। व्यापारियों की सुरक्षा की गारण्टी थी। उद्योग एवं व्यवसाय उन्नत दशा में और खेती इतनी उपजाऊ कि एक हाथी बैठने की जमीन में ७ लोगों को खिलाने भर का अन्न पैदा किया जा सकता, अतः आर्थिक स्थिति इस समय के उत्तर भारत से कहीं ज्यादा बेहतर थी।
राजनीतिक दृष्टि से राजतंत्र था। राजा लोग (चोल, चालुक्य, पाण्डय, चेर, पल्लव) निरन्तर दिग्विजय हेतु युद्धरत रहते थे। तथापि उत्तर की अपेक्षा यहाँ स्थायित्त्व आ चुका था। चोलों एवं पल्लवों- जिनके संरक्षण में नयनार और आलवर (शैव, वैष्णव) आंदोलन चला और आचार्यों को सरक्षण प्राप्त हुआ- का शासन अपनी उपलब्धियों (व्यापार, कृषि, विदेशी सम्बन्ध, साहित्य, कला, राजनीति, धर्म, मंदिर आदि) के लिए जाना जाता है।
दक्षिण में शंकराचार्य (७८८-८२०) का केरल में होना और अद्वैत वेदान्त का दर्शन स्थापित करना अपने में महत्त्वपूर्ण था। शंकर ने अद्वैतवाद की प्रतिष्ठार्थ बौद्धो-जैनों को शास्त्रार्थ में हराया उन्हीं की रणनीति से। शंकर बौद्ध विरोधी थे पर महायान शून्यवाद और विज्ञानवाद विरोधी नहीं। उनके गुरु गौडपाद भी समर्थक थे। इसी से शंकर महायानियों की भाषा में जगन्मिथ्या की बाते करते हैं जो उन्हें छद्म बौद्ध तक कहने को विवश करती। शंकर का जगत् मिथ्या और माया का सिद्धान्त बौद्धों की तरह तत्कालीन उभरती परिस्थितियों के अनुकूल नहीं था और शूद्रों को ब्रह्म विद्या के अयोग्य मानना उन्हें जनता से काटे रखा। जैनों और बौद्धों की अहिंसा, हिंसक दिग्विजेताओं के प्रतिकूल थी। शंकर एक अर्थ में व्यावहारिक भी थे। वे शैव थे और उन्होंने शहरों में शैवधर्म को केन्द्रित करने हेतु मठ बनाये, यहाँ तक कि बौद्धों के मठों, विहारों को इन शांकर मठाधीश शैवों ने ध्वस्त किया और कब्जा कर लिया। व्यापारियों का समर्थन भी मिला........

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