समाज में जाति-धर्म नहीं बल्कि इंसानिय हो

हम समाज में व्याप्त जाति-धर्म जैसे बुराइयों को कैसे जड से मिटा सकते हैं, इसके लिए कौन से कारगर उपाय हैं

समाज में जाति-धर्म नहीं बल्कि इंसानिय हो

समाज में जाति धर्म नहीं सिर्फ इंसानियत हो

यदि हम समाज के सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर मंथन करें, तो हम पायेंगे कि समाज के सबसे बड़े दुश्मन जाति-धर्म ही हैं। हमारे समाज में जितनी वैमन्ष्यता, कलह, क्लेश, लड़ाई-झगड़ा, भ्रष्टाचार और अन्य गलत कार्य किये जाते हैं, उन सबमें अधिकांश का कारण जाति-धर्म ही होता है। कोई धर्म के लिए लड़ाई लड़ता है तो कोई जाति और इगो के लिए।

जाति-धर्म से ही कलह-क्लेश फैलता है

किसी भी प्रकार का कोई उदाहरण यहाँ देने की आवश्यकता नहीं है। जब भी किसी क्षेत्र या देश में दंगा-फसाद होता है तो उसके पीछे अधिकांश कारण धर्म ही होता है। एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से। यदि हम समाज में एक साथ रहते हैं और उसमें कई धर्मों का समन्वय होता हो तो कहीं न कहीं उनकी भावनाएँ एक दूसरे से जरूर टकरा जाती हैं। जिसके कारण एक दूसरे धर्मों को मानने वालों के बीच कलह का कारण बन जाता है और यहीं कलह दंगा का रूप ले लेता है।

धर्मों-जातियों से लोगों में उच-नीच की भावना पनपती है

वहीं दूसरी तरफ हर एक धर्म में अनेक जातियाँ होती हैं। भले ही उन जातियों का का नाम सभी थर्मों में अलग-अलग नाम से जाना जाता हो, परन्तु यह सच है कि सभी धर्मों जातियां होती हैं। धर्मों जातियों के होने से लोगों में उच-नीच की भावना पैदा हो जाती है, और यहीं उच-नीच की भावना लोगों में ईगो पैदा करती है। हम तूमसे बड़े हैं, तुम छोटे हो की भावना लोगों में घर कर गई हैं। यही कारण है जब भी कोई जाति का पुरुष-कन्या एक दूसरे से प्रेम विवाह अपने से भिन्न जाति में करते हैं, तो उसका दुश्मन घर-परिवार हो जाता है।

जाति-धर्म की उत्पत्ति समाज में लाखों वर्षों से कायम है इसलिए इसे मिटा पाना तो इतना आसान नहीं है, लेकिन इससे हम धीरे-धीरे छुटकारा अवश्य पा सकते हैं। इसके कुछ उपाय हैं, जिस पर अमल करने से इस भेदभाव को मिटाया जा सकता है। समाज का कुछ प्रबुद्ध वर्ग इससे उबर रहा है लेकिन जिस तेजी से हमें सुधार की आवश्यकता है, उस तेजी से सुधार नहीं हो रहा है। इसके लिए कहीं न कहीं से सरकार की नीतियां भी जिम्मेवार है। सरकार द्वारा जब भी कोई वैकेन्सी या योजना को लाया जाता है उसे जाति-धर्म के आधार पर आरक्षित कर दिया जाता है।

सरकारी औऱ गैरसरकारी नौकरियों के लिए न माँगे जाति-प्रमाणपत्र

निष्कर्ष रूप में यदि मैं कहूँ तो, यदि सरकार अपने सभी तरह योजनाओं, वैकेन्सियों, चुनावों से जाति की डिमांड न करे, अर्थात् जैसे कि कोई वैकेन्सी निकाली जाती है तो उसके फार्म में जाति प्रमाण पत्र माँगा जाता है, यह इसलिए क्योंकि उसे जाति के आधार आरक्षण का लाभ दिया जा सके। देश के बहुत से चुनाव क्षेत्र जाति के आधार पर आरक्षित कर दिये गये हैं। यदि कहीं भी किसी तरह का सरकारी या गैरसरकारी नौकरियों, योजनाओं या अन्य किसी भी क्षेत्र में लाभ पाने के लिए जाति की अनिवार्यता समाप्त कर दिया जाये तो निश्चय ही हमारे समाज से जाति धीरे-धीरे मिट जायेगी।

समाजिक स्तर पर हम कर सकते हैं बड़ा बदलाव

यदि हम सचमुच में जाति-प्रथा को जड़ से समाप्त करना है तो, हमें अपने बच्चों के नाम के आगे सब टाइटल जो विशेष जाति बोधक होते हैं उन्हें नहीं लगाना चाहिए। यदि हम बच्चों के नाम के आगे जाति-बोधक टाइटल लगाना बन्द कर दें तो एक-दो पीढी बाद निश्चय ही लोगों को यह पहचानने में बड़ी मुश्किल होने लगेगी कि कौन व्यक्ति किस जाति का है। और इसके साथ-साथ जब सरकारी औऱ गैरसरकारी नौकरियों में जाति नहीं पूछी जायेगी अर्थात फार्म के कालम में जाति भरने का कालम समाप्त कर दिया जाये तो पता ही नहीं चलेगा कि कौन सा व्यक्ति किस जाति-धर्म का है। ऐसे में धीरे-धीरे जाति और धर्म प्रथा समाप्त हो सकती है।

-नन्द लाल सिंह, प्रयागराज