Anant Mein Baj Rahi Bansuri ।। अजय कुमार पाण्डेय की 79 कविताओं का संग्रह

अजय कुमार पाण्डेय की 79 कविताओं का संग्रह Anant Mein Baj Rahi Bansuri है। ये कविताएँ व्यक्ति, परिवार और समाज के विभिन्न क्षेत्रों पर प्रकाश डालती हैं और हमें कुछ न कुछ आदर्श जीवन की सीख देती हैं।

Anant Mein Baj Rahi Bansuri ।। अजय कुमार पाण्डेय की 79 कविताओं का संग्रह
Anant Mein Baj Rahi Bansuri a Poetry by Ajay Kumar Pandey

अनन्त में बज रही बाँसुरी

(कविता-संग्रह)

पुरोवाक

Ajay Kumar Pandey Ki Kavita Sangrah- Anant Mein Baj Rahi Bansuri

भारतेन्दु-युग के साथ हिन्दी कविता में एक नये युग का आरम्भ हुआ। यह वह काल-खण्ड है जब देश के राजा-महाराजा, नवाब और जमींदार सभी अंग्रेजों की सत्ता और व्यवस्था को स्वीकार कर चुके थे। अब देशी क्षत्रपों की जगह विदेशी हुकूमत ने ले लिया था। देश के मजदूर और किसानों की आवाज सुनने वाला कोई न था। चारों तरफ असंतोष की आग धधक रही थी। ऐसे में वैभव के गलियारे में पली-पुसी रीतिकालीन परम्परा की कविता सुनने और बुनने के लिए कोई तैयार न था। आक्रामकता के दबाव में चीखते-चिल्लाते भारतीयजन प्रेरणा के नये स्वर सुनने के लिए बेचैन थे। हाहाकार और धूल धूसरित परिवेश के बीच द्वन्द्व और संघर्ष की चिनगारियाँ लगातार नि:सृत हो रही थीं। जनता नये नेतृत्व के लिए बिलख रही थी। यह नेतृत्व युवा पीढ़ी, जो आग-पानी के मौसम का अर्थ समझती है, उसी द्वारा सम्भव था।

भारतेन्दु से द्विवेदी युग तक कविता का जो प्रवाह क्रम रहा, वह अचानक छायावादी कवियों के आगमन के साथ परिवर्तित हो गया। पंत और निराला ने कविता के माध्यम से नयी शक्ति, नयी चेतना और विकास का आह्वान किया। छंद के बंध ही नहीं खुले, भारतीय जन-समुदाय भी आजाद होने की हैसियत में पहुँच गया। कविता एक नहीं अनेक विचारधाराओं तथा लयों में गुंजित होने लगी। यह परिपक्व एवं अभिव्यक्ति सम्पन्न कविता का समय था। यह परम्परा निरंतर पुष्ट होती अग्रगामिता और समृद्धि का आसन प्राप्त करती रही।

स्पष्ट है, हिन्दी कविता ने सदैव समय और साधारण जन के साथ चलने और उनके सुख-दु:ख तथा सपनों को व्याख्यायित तथा रेखांकित करने का ऐतिहासिक कार्य किया है। पूर्ववर्ती काल-खण्ड की तुलना में आज हम बिल्कुल नयी भूमिका और असीम सम्भावनाओं के क्षेत्र में खड़े हैं। ऐसे में कवि का दायित्व काफी व्यापक हो गया है। एक ओर जहाँ वह भौतिक प्रगति के आख्यान रचता दिख रहा है, वहीं दूसरी ओर अभावग्रस्त रुग्ण समाज को आमूल-चूल बदल देने के लिए तत्पर दिख रहा है। यह तत्परता महज एक संयोग नहीं, वरन् समय की माँग है।

इतने कठिन और उत्पाती समय में कवि अजय कुमार पाण्डेय की कविता-पुस्तक अनन्त में बज रही बाँसुरीका प्रकाशन एक महत्वपूर्ण घटना है। संग्रह की अधिकांश कविताएँ जीवन और समाज तथा प्रकृति के अदम्य सौन्दर्य से जुड़ी हैं। इनका तर्कशास्त्र एवं मनोविज्ञान भिन्न हैं। कवि अजय कुमार का सम्बन्ध गाँव से है। ये गाँव में पैदा हुए, वहीं पढ़े-लिखे और बड़े हुए। प्रकृति का दिव्य रूप, जो खुली धरती और आकाश की छाया ग्रामीण क्षेत्र में सहज-ही देखने को मिलती है, वह नगर अथवा महानगर में दुर्लभ है। यहाँ तो आदमी सूरज का उदय और अस्त होना भी नहीं देख पाता। स्पष्ट है, कवि अजय के यहाँ प्रकृति के अनेक समृद्ध रूप देखने और अनुभव करने के लिए मिलते हैं। मृद परिवर्तनइसी संस्कार में रची-बसी एक कविता है। इसमें शब्दों की फिटिंग और भाव-बोध का स्तर देखते ही बनता है। कवि ने साधारण दृश्य को असाधारण बना दिया है

चुपके चुपके आओ देखें प्रात, प्रकृत का मृदु परिवर्तन।

होता कैसे विलय तिमिर का, नव जीवन का कैसे सर्जन।

चाँद सितारे छिप गये सारे, उन्मुक्त हुआ है शून्य गगन।

अभी अभी तो निशा गयी है, ओस बूँद से धुलकर उपवन।

अविरल प्रीति क्षितिज की देखो, धरती अम्बर गले मिले।

वैâसे मिटती विरह वेदना, होता कैसे क्रौच मिलन।

प्रथम चार पंक्तियों में कवि ने भोर का जिस रूप में वर्णन किया है, वह विरल है। अंधकार कैसे धीरे-धीरे प्रकाश के आवरण में विलीन होकर नया अस्तित्व प्राप्त कर लेता है, इसका केवल अनुभव किया जा सकता है, भाषा के कवच में उसे सुरक्षित रख पाना मुश्किल है। महाकवि पंत के यहाँ प्रकृति का जो वैभव विद्यमान है, उसकी एक झाँकी यहाँ सहज ही उपलब्ध है। यह कवि अजय कुमार की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

प्रेमियों की दुनिया विचित्र है। बिछुड़न और तड़पन की बात करना आसान है किन्तु उसे जीना और उसी को सुख मानना, इस कला को केवल प्रेमी जानता है। जिस प्रिय की तलाश में कवियित्री महादेवी अनन्त के पार तक जाने का सपना देखती हैं उसे अजय कुमार यहीं प्रकृति की गोद में एकान्तिक साधना द्वारा पा लेते हैं। हाँ, कुछ पल उन्हें प्रतीक्षा में जरूर बिताना पड़ता है। नेपथ्यशीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए

कहाँ हो तुम निविड़ तम में, नेपथ्य से कुछ बोल दो।

आ गई लो शशि किरण भी, तम यवनिका खोल दो।

देख लूँ प्रिय रूप तेरा, आवरण पट खोल दो।

गंतव्य से हूँ दूर कितना, नेपथ्य से कुछ बोल दो।

व्योम में तुम चाँद बनकर, धवल चूनर ओढ़ लो।

शृंगार के हर साज में, इन उडगनों को जोड़ लो।

पाश्चात्य काव्य शास्त्र तथा आलोचना में जब यथार्थ के लोप की बात हो रही है, तब भारतीय संदर्भ में कवि अजय कुमार मौलिकताओं की तलाश में यथार्थ की जड़ और तह तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। आशय यह है कि भावुक मन वास्तविकता को भी कल्पना और प्रीतिकर छबियों, बिम्बों में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। कवि यह मानता है कि मनुष्य और समाज में जो रागात्मक वृत्ति है, उसका अन्त कभी हो नहीं सकता। इसके समापन का मतलब जैविक गुणों और मानवता का अन्त होगा।

कवि अजय कुमार आस्थावादी और सांस्कृतिक धरोहर के प्रति अतिरिक्त रूप में सावधान रचनाकार हैं। वे जमीन के कवि हैं अत: तत्वपरक मूल्यों की बात करते हैं। दर्शन की भाषा में यह जगत क्षणभंगुर है। इस पर विश्वास करना केवल आत्म छलना है। लेकिन यहीं भौतिक प्रगति का प्रश्न उठता है। क्या विज्ञान की समूची उपलब्धियाँ जो मनुष्य के कल्याण से जुड़ी हैं उन्हें हम सिरे से नकार दें। कवि अजय आशा और निराशा तथा उत्थान और पतन के बीच संतुलन स्थापित कर आगे बढ़ने की बात करते हैं। वे आलौकिक जीवन दर्शन की झंझट में नहीं पड़ते। जीवन-मूल्यों को प्रतिपादित करते हुए कवि एक स्थल पर कहता है

अपने और पराये का भ्रम

श्वासों का जो अहम लिये हो,

कब तेरा यह साथ छोड़ दे

पल छिन का विश्वास नहीं।

सृजन भरा एक सफर है जीवन,

किसको इसका भास नहीं।

मंजिल तेरी दूर बहुत है,

समय तुम्हारे पास नहीं।

कवि अजय कविता में लय और माधुर्य के समर्थक हैं। संग्रह की लगभग सभी कविताएँ इसका प्रमाण हैं। लय का अभिप्राय जीवन के लय और गति से भी है। सांगीतिक आनन्दवाद तभी सार्थक कहा जायेगा जब उसका जुड़ाव समाज और राष्ट्र से हो। आज का साहित्य समय और उसके संकेत का अर्थ समझते हुए किसी निर्णायक स्थिति में पहुँचना चाहता है। क्योंकि जन की सत्ता सर्वोपरि है। यहीं राष्ट्रहित के चिंतन की व्यापकता स्वत: प्रमाणित हो जाती है। प्यारा वतनमें कवि इसी भावना की पुष्टि करता दृष्टिगत होता है। वह देश की महत्ता और सार्वभौमिकता का विश्लेषण करता हुआ सहज शब्दों में कहता है

भारत है, अपना प्यारा वतन,

जीवन के ख्वाबों का न्यारा चमन।

आँगन में बसते हैं खुशियों के पल

कण-कण को सत्-सत् है मेरा नमन।

अम्बर को छूते हैं हिम के शिखर,

चमकती हैं किरणें यहाँ पर बिखर।

हँसती हैं डाली पर कलियाँ निखर,

मरुधर के आँगन में फूलों का घर।

अजय की कविताओं को देखने और पढ़ने से स्पष्ट है कि वे अपनी बात अपनी शर्तों और सिद्धान्तों पर करते हैं। किसी प्रकार के प्रभाव को स्वीकारना उन्हें कबूल नहीं है। उनकी भाषा और अनुभूतियों में गाँव का संस्कार तथा वहाँ की मिट्टी की सुगंधि है। इसीलिए उनकी कविताओं में मौलिकता, स्वाभाविकता तथा सहजता नैसर्गिक रूप में विद्यमान है। भावुकता तथा बौद्धिक तनाव से मुक्ति के स्तर पर एक अवस्था ऐसी भी आती है, जब इनकी  कविता में मंत्र वाचन का सा आनन्द मिलने लगता है। यह मंत्रात्मक सिद्धि अजय पाण्डेय की खास विशेषता है।

कभी-कभी पाण्डेय जी अपने पाठकों को उस दिशा में ले जाते हैं जहाँ प्रेम, घृणा, निराशा, क्रूरता तथा संशय का विस्तृत परिक्षेत्र गहन अभेद्य अंधकार से ढँका-मुँदा दिखाई देता है। भयावह एवं रहस्यात्मक होने के बावजूद पाठक इस बीहड़ता से आक्रान्त नहीं होता बल्कि उसमें मानवीय सद्भावना का पल्लवन होता है जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए हितकारी होता है। महान कवि प्राय: इस हथियार का प्रयोग करते हैं। मैथिलीशरण गुप्त और बालकृष्ण शर्मा नवीनकी कविताओं में यह गुण शैली और कला के स्तर पर विद्यमान है। कवि अजय निश्चय ही भारतीय परम्परा के उल्लेखनीय कवि हैं।

अजय पाण्डेय हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। कविता ही उनका जीवन है। जिस व्यक्ति का आदर्श इतना ऊँचा है, उसके रचनात्मक वैभव को समझना कठिन नहीं है। यह एक अच्छी बात है कि पाण्डेय जी निरंतर काव्य-रचना में व्यस्त हैं। उनकी कविताओं से पाठक-वर्ग को पर्याप्त प्रेरणा मिल रही है। मुझे विश्वास है कि उनकी अगली रचना हमारे लिए और उत्साहवर्धक होगी।

मत्स्येन्द्र शुक्ल

८-ए, शिवकुटी, इलाहाबाद।

Ajay Kumar Pandey Ki Kavita Sangrah- Anant Mein Baj Rahi Bansuri

अनन्त की ओर

उजाले और अँधेरे के दो सृजनात्मक पक्षों के बीच घिरा मानव जीवन और जगत की धुरी में बैठकर घूमता रहता है और प्रकृति की अद्भुत लीलाओं को देखते हुए आश्चर्यचकित होता और अक्सर उन्हीं में लीन होता रहता है। अखिल-ब्रह्माण्ड के स्रोत को समझने के लिए अक्सर चेतना कुछ पल के लिए केन्द्रित होकर ठहर जाती है, अन्तर में अनुभूतियों के सुखद अहसास के बीच हृदय में उल्लास लिए मानव अपने प्राणों को सुगन्धमय व स्वप्नगंधी छाँव में उल्लास और ताजगी से परिपूरित पाता है तब अन्तर से काव्य-भावों की अनुभूति की रस तरंगे संप्रेषित होकर उद््गारों के रूप में भावानुभूति का अंकुरण फोड़ देती हैं और काव्य-धारा बह निकलती है।

जगत का कण-कण आलोकमय होने लगता है, उद्गारों को नई चेतना, नई दृष्टि, नई कामना, नई समरसता की भावात्मक अनुभूति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में अजय पाण्डेय जी अपने काव्य संग्रह अनन्त में बज रही बाँसुरीके माध्यम से जीवन के विविध आयामों को संजोए हुए एक वृहद वैâनवस लेकर उपस्थित हुए हैं। इनकी रचनाओं में सृष्टि के सृजन की झलक मिलती है। दार्शनिक पक्ष चिन्तन के लिए विवश करता है। फूल, रस, गन्ध से मधुमाते उपवन में जहाँ भ्रमर गुनगुनाते हैं, कलियों में रंगों की ज्योत्स्ना का संचार होता है, वहीं तृप्ति की अभिलाषा में मन देर तक चितचोर बना प्रकृति-नटी के क्रिया कलापों में उलझा रहता है।

सामाजिक सरोकारों को स्पर्श करती हुई इनकाr रचनाएँ जीवन्त परम्पराओं की ओर भी आकृष्ट होती हैं जहाँ मार्मिक विचारों का चित्रण संवेदनाओं के पक्ष को म़जबूत करता है। गाँव की गन्ध को समेटे इनके गीतों में लयात्मकता भी कवि को गुनगुनाने को बाध्य करती हैं।

मिट्टी का सहज सुख किसे नहीं भाता, इनकी कविताएँ गाँव की सोंधी गंध का अहसास कराती हैं।

आज अनायास ही अजय पाण्डेय जी की निम्न पंक्तियाँ मेरे मानस पटल पर उद्वेलित हो रही हैं

निस्तब्ध निर्जन सूने विजन में,

जाने अन्जाने बहुत सोचता हूँ

सघन यामिनी की सूनी डगर पर

घनेरे तिमिर में तुम्हें खोजता हूँ।

उसी खोज में व्याकुल मन कहाँ-कहाँ नहीं भटकता है। कभी-कभी यही भटकाव पाण्डेय जी को अनन्त की ओर खींच ले जाता है और उनका यह अगला सोपान काव्य-सृजन के लिए दृढ़ता पूर्वक स्थायित्व प्रदान करता है। मैं इस काव्य सृजन के लिए इन्हें साधुवाद देता हूँ और अपेक्षा करता हूँ कि भविष्य में ऐसी ही निरंतरता बनाए रखें।

अरविन्द वर्मा, अध्यक्ष

अक्षवट साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, इलाहाबाद

Ajay Kumar Pandey Ki Kavita Sangrah- Anant Mein Baj Rahi Bansuri

मेरी काव्य यात्रा

चलते-चलते भोर से दोपहर हो गई, धूप तेज हो गई, थोड़ी थकान लगने लगी, प्यास बढ़ने लगी, मन करने लगा कि कहीं छाँव मिलती तो थोड़ा आराम कर लेते तो आगे चलते, आँखें ढूँढने लगी थी कोई सुरक्षित छाँव। दूर राह में एक पीपल की घनी छाया दिख गई। उस पेड़ के नीचे रुक कर सुस्ताने लगा, परन्तु बैठते ही पाँव तो रुक गये पर विचारों की यात्रा, विथिका में भटकती रही। मन सोचने लगा कि यह जीवन क्या है? क्या एक यात्रा? प्रश्न उठने लगा कहाँ की यात्रा, कैसी यात्रा, कितने समय की यात्रा फिर इन प्रश्नों का समुचित हल खोजने की जद्दोजहद अन्तिम परिणाम केवल शून्य। जीवन का वही मूल सिद्धान्त ‘‘चरैवति चरैवति’’ (चलते चलो चलते चलो)।

मन तर्क की भूमि पर उतर आता है, सोचने लगता है कि यात्रा है तो कहीं न कहीं तो खत्म होगी। जीवन यदि यात्रा है तो यह भी कहीं न कहीं समाप्त होगी। यात्रा का उद्देश्य होता है, इसका भी कोई न कोई उद्देश्य होगा। तर्क ने अपना जवाब दे दिया। इस जीवन का प्रारम्भ जन्म है और समाप्ति मृत्यु तक ही सीमित है। यह यात्रा समुचित, ईमानदारी, सत्य-प्रेम, समर्पण के साथ पूर्ण हो जाय, यहीं इसका उद्देश्य है। यह प्रश्न यहाँ पर हल नहीं हो जाता। अगर जीवन जन्म-मृत्यु है तो यह प्रकृति क्यों अनवरत है, क्योंकि जीवन एक प्रकृति है। प्रकृति की यात्रा सीधी सपाट नहीं है। इन उलझे प्रश्नों को सोचते-सोचते मन उकता जाता है। मन विचारों का धरातल छोड़कर भागने लगता है। भटक जाता है। अनन्त के शून्य में जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। जहाँ पर न तो प्रश्न है न ही उत्तर। वहाँ पर मन का वजूद भी खत्म हो जाता है। मन की यात्रा खत्म हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों में मैं अकेला। आ़िखर मैं कौन शरीर अथवा प्रकृति परन्तु यह भी सत्य नहीं लगता, इसका अर्थ यह हुआ कि मैं न तो मन हूँ न ही शरीर, न ही प्रकृति और न ही विचार लेकिन मैं तो हूँ। सबसे अलग सबसे भिन्न। ऐसा भी नहीं। मैं तो हर जगह हूँ, यह क्या मैं स्वरूप वाला और बिना स्वरूप वाला हूँ। आ़िखर मेरा केन्द्र क्या है। मैं कहाँ से आ रहा हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। कोई न कोई मेरा केन्द्र तो है। शायद वह   अव्यक्त है। अव्यक्त तो केवल वहहै यानी की परमात्मा। मैं तो परिधि हूँ और वहकेन्द्र है जहाँ से यात्रा शुरु होती है वहीं पर जाकर खत्म होती है। जहाँ पर रुकने का कोई स्थान नहीं है। जिसे अनन्त की यात्रा कहा जा सकता है।

सोचते-सोचते मन निरुत्तर और निष्क्रिय हो गया। मैं शान्ति का अनुभव करने लगा। एक असीम आनन्द की उत्पत्ति शायद यही सत्य है। अब न तो कोई प्रश्न न ही कोई उत्तर; केवल प्रेम, समर्पण और अव्यक्त का सत्य दर्शन। अनन्त के शून्य में गति, लय स्वर का अनोखा संगम हो जिसमें मैं खोता जा रहा हूँ। जैसे कोई वंशी बजा रहा हो और सारा अनन्त उसमें मंत्र-मुग्ध होकर थिरक रहा हो। जहाँ पर निर्माण भी और विनाश भी हो रहा है परन्तु किसी को कोई आभास नहीं हो रहा है।

मेरे जीवन की क्षणिक यात्रा में जो विचार भाव, कल्पना ने शब्दों में विधकर अपना स्वरूप लिया, वही आज एक काव्य-संग्रह के रूप में मूर्तिरूप ले लिया है। मैं कल्पनाओं में मात्र सपनों तक सीमित नहीं रहना चाहता। मैं उस यथार्थ और सत्य को खोजने का प्रयास करता हूँ जो दर्शन के रूप में परिलक्षित होता है। वह सत्य है अथवा भ्रामक, निर्णय तो नहीं ले पाता परन्तु कविता लिपिबद्ध हो जाती है। वह किस विधा की है; नहीं जानता, लेकिन पंक्तियाँ उद्वेलित करती हैं जिसके स्वरूप को लेकर नाम तो दे दिया; अब वे नाम के अनुरूप है अथवा नहीं इसका निर्णय आप सुधीजनों पर है।

अजय पाण्डेय

Ajay Kumar Pandey Ki Kavita Sangrah- Anant Mein Baj Rahi Bansuri

वन्दना

माँ मेरी वस एक याचना, विमल हृदय मन पावन कर दो।

वन्दन अर्चन बोल सकूँ माँ, शब्द सुमन से अंजलि भर दो।

 

छूती पद नख मन्द मलय।

शैल शिखर सा शान्त निलय।।

घनघोर सघन बादल के रव।

नीड़ों का अति सुन्दर कलरव।।

शब्दों का सरल सृजन कर दो गीतों में मधु गुजन भर दो।

 

फूलों सी महक चन्दन सी गमक।

ऊषा में छिपी ज्यों रश्मि चमक।

मस्त मयूरी की थिरकन हो।

निर्जन में सजा ज्यों निर्झर हो।

भाव-लिये अनुराग मृदुल अर्थ भरे स्पन्दन भर दो।

 

चन्दा की धवल किरणों सी।

मन की गली वृन्दावन सी।

अम्बर में सजा ज्यों इन्द्र धनुष।

गंगा से बहें मेरे शब्द पियुष।

रस राग भरी कविता पँक्ति सागर सी नवल गर्जन भर दो।

बात तो आँसू कह देंगे

जीना है तो जी लेंगे हम बिरह व्यथा भी सह लेंगे।

होठ भले ही चुप हो जायें बात तो आँसू कह देंगे।।

 

याद नही अब रहता मुझको क्या पाती क्या खोती हूँ।

सच मानों यह बात हमारी नींद नयन भर सोती हूँ।

फूल हमें क्या सुख देंगें हर स्वांस में सूल पिरोती हूँ।

कितना सर्प डसेगा कोई प्रतिपल विष ही पीती हूँ।

 

प्रीत भरी उन यादों को बस स्वप्न समझ कर रह लेगें।

भलें जुवां कुछ कह न सके पर बात तो आँसू कह देगें।।

 

नहीं बताना चाह रही मैं कितनी गहरी प्रीत हमारी।

अब समझी मैं कितनी पगली न समझी मैं चाह तुम्हारी।

काहे को संदेशा भेजा कह देते तुम भूल हमारी।

बुरा लगा तो केवल इतना मैं ठहरी एक गाँव की नारी।

 

सुख दु:ख दोनों जीवन तट हैं तरल बने हम बह लेगें।

आँख भले पथरा जाये पर बात तो आँसू कह देगें।।

 

उलझ रहे यह देख कर आँसू बहते हैं तो बहने दो।

ंमैं तो जानू प्रीत पुरानी कहना है सो कहने दो।

मत समझाओं ग्यान योग यह दर्द हमें अब सहने दो।

मैं जानूं या माधव समझे, यूँ ही बस अब रहने दो।

 

जाओ तुम भी कह देना हम बिना सहारे रह लेगें।

कितना भाव छिपायें लेकिन बात तो आँसू कह देंगें।।

बात चले तो

लिख दूँ मैं भी एक कहानी सपनों की यह रात ढ़ले तो।

गुँजित होगा भ्रमर राग फिर यदि अनार के फूल खिले तो।।

 

दूर गगन के क्षितिज पार से याद सलोनी आई।

महकी-महकी तन की खुशबू साथ पवन ले आई।

मोर मयूरी अँगना थिरके कोयल कूक सुहाई।

मंञ्जरियों की बाँध पयलिया झूम उठी अमराई।।

 

नई रंगोली सज जायेगी सुमनों का आधार मिले तो।

रच दूँ मैं भी नई अल्पना अधरों पर मुस्कान दिखे तो।।

 

खाली गागर हाथ में लेकर सोच रही पनिहारिन।

साँकल खोले द्वार की वैâसे नहीं साथ में साजन।

घोर निराशा राह में मेरे पता नहीं क्या कारन।

कौन बताये पता पिया का पूछ रही बंजारन।।

 

दूर गगन के शान्त निलय से मिलने का संकेत मिले तो।

जुगुनू पथ के दीप बनेंगे, तेरे घर का पता मिले तो।।

 

सच सपना सब झूठा लगता जलता अपना नीड़।

साथी संगी छोड़ गये अब नहीं साथ कोई भीड़।

माटी का एक लिये घरौंदा बाँध रहे थे मेड़।

पाथर पकड़े शिखर देखते सहमें सहमें चीड़।।

 

नयन कोर में रूप सजा लूँ मन्दिर का यदि द्वार खुले तो।

जीवन मूल्य समझ लूँ मैं भी सघन प्रीत की बात चले तो।।

मैं उलझता रहा

प्रश्न करता रहा, मैं उलझता रहा, सर्जना दर्द पर मुस्कुराती रही।

भोर होती रही, साँझ ढ़लती रही, धरा पर प्रकृति गुनगुनाती रही।।

 

हरितिमा की साड़ी पहन बावरी, बालों में फूलों की सजाये लड़ी।

नयनों में काजल की रेखा सजा, पग में मेंहदी के यावक रचाये खड़ी।।

 

नीरता में कहीं तीरगी थी खड़ी, यामिनी बिन अकेले सिसकती रही।

चाँद छुपता रहा, रात ढलती रही, चाँदनी दूर नभ में सिहरती रही।।

 

वीरान राहें खामोश मधुवन, गया छोड़ पतझर जलाकर बदन।

मधुमास लेकर परिधान आया, चुपके से दिखता था सजता गगन।।

 

संग काटों के कोंपल भी हँसती रही, सृजन वेदना पर थिरकती रही।

फूल खिलता रहा ओस गिरती रही, पंखुरी पुष्प की यूँ सँवरती रही।।

 

शिलायें गलीं हिम शिखर भी गले, राह चलते हुये नीर नीरज मिले।

अपने अन्तस में सागर छिपाये, बरसते हुये नभ से बादल चले।।

 

संग हिरनी विकल, प्यास बढ़ती रही, मृग खड़ा का खड़ा वह तड़पती रही।

धूल उड़ती रही रेत जलती रही, रश्मियाँ ज्योति की यूँ मचलती रही।।

 

स्वप्न अपने अधूरे, अधूरे रहे, पाँव थकते रहे राह चलते रहे।

चाहता था ठिकाना कहीं रुक सकूँ, बन गये राख शोलों पर जलते रहे।।

 

एक दीपक जला दीप जलकर बुझा, दीप की वह शिखा भी सुलगती रही।

श्वाँस चलती रही उम्र ढलती रही, जिन्दगी राह पर यूँ गुजरती रही।।

आयो का बसन्त

प्राची ने पहन लियो काहे को सन्त साज।

देख सखी देख यहाँ, आयो का बसन्त आज।।

 

सूने से आंगन में गुंजन का भ्रमर राग।

उपवन की गलियों में गीतों का मधुर राग।

कोयल ने बागन में गायो है प्रेम राग।

भूल गया पतझर जो गाया था बीत रीग।।

आहट है किसकी यह लगता है राम राज।

देख...

 

निर्जन में जाग गया सोया था कलरव।

कली कली अली देख बाट रहा अनुभव।

कंचन सा चमक उठा सूरज का वैभव।

कौए की बोली भी बनी राग भैरव।

मन्द मलय देख रहा कैसा यह नवल काज।

देख...

 

नख-शिख श्रृंगार किये लगती है धरा व्यस्त।

विह्वल है रति आज पहन चली पीत वस्त्र।

होठों पर मधुर हास हाथों में लिये अस्त्र।

फूलों की डोरी से चलता यह प्रेम शस्त्र।

कलियों से किसलय भी पूछ रही विपुल राज।

देख...

 

प्रकृत ओढ़ बैठी है शाला-दुशाला।

पवन लड़खड़ाता पिये प्रेम-प्याला।

पड़ी ओस लड़ियाँ लगे हीर माला।

खेतों में विखरी है फूलों ही हाला।

कांटों की साखों पर कोंपल का सजा ताज।

देख...

 

तरुवर की छैयां में वंशी की धुन।

थिरक थिरक नाच रही मञ्जरियाँ सुन।

जीवन के जीने का ताना वह बुन।

गली गली बात चली कुछ तू भी गुन।

जीवन संग आशा का लगता यह नया राज।

देख सखी देख देख यहाँ आयो का बसन्त आज।

उस पार

कठिन डगर यह राह कटीली विकट वेदना सहना होगा।

उत्ताल तरगें हैं तो क्या उस पार प्रिये चलना होगा।।

 

हम हैं तुम हो अच्छा लगता साथ यहाँ पर लोगों का।

चाहत का संसार सजा भण्डार भरा है भोगों का।

माना उपवन फूलों का है सुमन महकता डाली का।

सजी धजी है क्यारी-क्यारी झूम रहा मन माली का।।

 

लगती भोर सुहानी कितनी कहीं दिवस का ढ़लना होगा।

लेकर प्रीत पतंगा नाचे दीप जले जलना होगा।।

 

रिस्तों की बारात सजी है अपने और पराये की।

जितना दिन का मिला उजाला उतनी रात अधेरें की।

किसने लूटा कौन सँवारा बात करूँ किन अपनों की।

किससे कह दूँ मन की बातें बात यहाँ सब सपनों की।।

 

मत उलझो इस उलझन में आज यहाँ कल क्या होगा।

साथ रहेगी व्यथा कथा यह नीर नयन भर चलना होगा।।

 

खिले कमल की कली को देखों वैâसे विरहन बनी हुई है।

नभ की सुन्दर चमक चाँदनी वह भी देखों मलिन हुई है।

मन्द ढुरकती सलिन पवन यह बन जाये कब मौत नियन्ता।

किस पल जाने गिर जायेगा हरा-भरा यह डाल का पत्ता।।

 

यही यहाँ की प्रकृति प्रिये है सूल फूल का पलना होगा।

चलना दूर सफर है साथी पलभर कहाँ ठहरना होगा।।

उत्ताल..

एक दिन

ढल रही हैं साँझ यह दिन गगन में ढल गया।

लो जिन्दगी का एक दिन हाथ से फिसल गया।।

सिहर-सिहर हवा चली राह पर मदिर-मदिर।

रात का निखार था दूर तक तिमिर-तिमिर।

मनभरा उछाह था जुगुनुओं का गाँव था।

ज्योंति का ज्योति से हो रहा मिलाप था।।

प्रेम के प्रवाह में प्यार भी मचल गया।

कंप कपा गई शिखा कि कोई मीत जल गया।।

दूर नभ में चाँद था चाँदनी भी संग-संग।

निर्जनों की छाँव में थिरक उठा अंग-अंग।

मौन भी मुखर हुआ अंकुरण का भाव था।

ढ़ल रही थी वह निशा हो रहा प्रभात था।।

शून्यता के भाल पर कोई चित्र रच गया।

सर्जना की राह में दर्द भी पिघल गया।।

लालिमा थी भोर की खिल उठी कली-कली।

बाग में खुमार था महक रही गली-गली।

बहार की बरात थी उड़ रहा पराग था।

सरगमों की ताल पर गुंजनों का राग था।।

लग रहा रहस्य था कि कोई गीत लिख गया।

पूँछता यह वैâसी प्रीत कि रास्ता बदल गया।।

पलछिनों में बन रही है नव कथा कहानियाँ।

मरुधरों में मिट रही है शौर्य की निशानियाँ।

उड़ रही जो व्योम में कब कहाँ पर लुट गई।

जिन्दगी पतंग सी कब कहाँ पर कट गई।।

था नहीं वह अजनवी जो तूलिका से रंग गया।

चल सका न संग संग कि दूर वह निकल गया।

जिन्दगी की मंजिले

जिन्दगी की मंजिलें तलाशते ही रह गये।

मिल सका न तट कहीं धार में ही बह गये।।

सजी-सजी थी अल्पना कब कहाँ बिगड़ गई।

रश्मियाँ भी भोर की साँझ में बदल गई।।

था अभी खिला-खिला डाल से वह झड़ गया।

चल रहा था संग-संग राह में विछड़ गया।।

स्वप्न के सजे महल नीद में ही ढ़ह गये।

था यहीं वह घर कहीं खोजते ही रह गये।।

ज्योति की शिखा जली राख बन कर बुझगई।

यामिनी के गाँव में चाँदनी भी ढ़ल-गई।।

उलझने थी साथ में मन कहीं उलझ गया।

अजनवी सा राह पर रास्ता भटक गया।।

जल रहे थे जो शलभ बात कुछ यूँ कह गये।

बुझ गये थे द्वार दीप हम तडप कर रह गये।।

जल लहर सी जो दिखी दर्द में बदल गई।

प्यास की वह याचना अधबुझी ही रह गई।

रेत को जलधि समझ रेत पर ठगा गया।

था अभी जो शान्त मन वेदना से भर गया।।

रेत पर खड़े-खड़े वे हिरन यह कह गये।

है यहाँ पर सच कहाँ भ्रम भरे ही रह गये।।

गा रही थी रागनी रोशनी भी आ गई।

जो बिछी थी कालिमा स्वेत धानी हो गई।

मोतियाँ वह प्रेम से डाल पर सजा गया।

कुरील का वह कुंज भी नव सुमन से भर गया।।

दूर नभ के तारे भी झिलमिला के कह गये।

बन सके न नव प्रभा घन तिमिर में रह गये।।

कौन है अपना कौन है पराया

कौन है अपना कौन पराया रिस्तों का यह कैसा धन्धा।

दूर अकेले निर्जन बन में महक रही है रजनी गन्धा।

 

मलय महकती छूकर तुम को,

दे जाती एक सुन्दर आशा।

आ जायें कब दु:ख के बादल ,

दे जायें वे धोर-निराशा।

 

फिर भी देखों झेल रहा है जीवन की अभिलाषा अन्धा।

धना कुहासा ठिठुरन कितनी खिली खिली है रजनी गंधा।।

 

तरूण अरूण संग यौवन लेकर,

नहीं रुकी यह भोर-सुहानी।

दूर गगन में ढल गया सूरज,

लिख गई सध्या एक कहानी।

 

कौन सभाले भार यहाँ पर कहाँ मिलेगा किसका कंधा।

हवा तेज हैं वर्फ बरसती सभल रही है रजनी गंधा।

 

जल बिन जैसे प्यास अधूरी,

रिस्तों का यह बन्धन है।

राग द्वेष से हट कर देखों,

जीवन कैसा नन्दन है।

 

सुख-दु:ख दोनों आंसू देते लागे कैसा गोरखधन्धा।

खिली, सजी महकी बन में लो विखर गई फिर रजनीगंधा।।

दीप की बाती जला लूँ

तम घिरे इस राह पर आवाज दे कैसे बुला लूँ।

कुछ देर रुकना जरा मैं दीप की बाती जला लूँ।।

जा रहे हैं दूर दिनकर है विकल यह साँझ बेला।

चाँदनी संग चाँद गुमसुम दूर नभ में है अकेला।।

मलिन मन दूषित हृदय है मधुगंध की मालाबना लूँ।

कुछ देर...

लौट आये विहग सारे हो गया है शान्त कलरव।

हो गयी सुन सान राहें लग रही निस्तव्ध नीरव।।

रागिनी भी मौन बैठी, राग का सरगम सजा लूँ।

कुछ देर..

व्योम की यह तरुण रजनी उडगनों से बीध अलकें।

आरही है नृत्य करती मस्त उसकी झुकी पलकें।।

आगमन यह स्वागतम् के, गीत की पंक्ती बना लूँ।

कुछ देर...

ज्योति लेकर राह पर जुगुनू बने है दीप-माला।

मदिर मंथर मलय आया छक पिये ज्यों गंध हाला?

विखरे पड़े हैं शूल पथ पर दूर से कैसे बता लूँ।

कुछ देर...

राह निर्मल हो गई है ओस लड़ियों ने धुला।

हो रही है रात गहरी द्वार मेरा है खुला।।

अजनवी हूँ राह में मझधार कैसे पारकर लूँ।

आगई अब प्रिय मिलन की मधुर वेला।

कारवाँ के लोग छूटे हो गया नि:शब्द मेला।।

दूर है माली हमारा संकेत से कैसे बुला लूँ।

कुछ देर रुकना जरा मैं दीप की बाती जला लूँ।।

तृष्णा

कैसी चाहत कितनी आशा तृष्णा का विष घोल गये।

भटक रहे हो लिये पिपासा, लहरें सागर भूल गये।

 

हिम शिखरों से जल प्रपात बन,

कल कल करते सरिता बनकर।

लेकर चले उमगें इतनी,

छूट गये तट कितने मिलकर।

 

पथरीले पथ से लड़ते तुम मधुवन आंगन भूल गये।

भटक रहे हो लिये पिपासा लहरें सागर भूल गये।

 

मकरन्दों की गन्ध चुराकर,

मदिर मलय पागल बन घूमा।

कली कली के द्वार द्वार पर,

भँवरा गीत सुना कर झूला।

 

कस्तूरी की गन्ध छिपाये मृग अपनी सुध भूल गये।

भटक रहे हो लिये पिपासा लहरें सागर भूल गये।

 

तिमिर विभा से अरूण उदय तक,

रचते सपनों की परिभाषा।

नई ज्योति संग मिली भोर भी,

कहाँ मिटी मन की अभिलाषा।

 

तिमिर गुहा में ज्योत्सिना से ज्योतित पथ क्यों भूल गये।

कैसी चाहत कितनी आशा तृष्णा का विष घोल गये।।

क्या करूँगा

दूरियाँ धरती गगन की नाप कर मैं क्या करुँगा।

अहम की रागनी पर सरगम सजा कर क्या करुँगा।।

 

ढल रही संध्या अकेली कोई न उसके साथ है।

घेर कर बढ़ता अधेरा कारवाँ बिन पाथ है।

शूल का विस्तार केवल कर रहा उपहास है।

हर तरफ विखरी हुई मृग नयन की प्यास है।।

 

रेत के सूने विजन में कुछ दूर चलकर क्या करूँगा।

पाषाण पर नाम की पट्टी लगा कर क्या करुँगा।।

 

र्स्वाथ के रिस्ते यहाँ पर व्यर्थ की संग भीड़ है।

उड़ रहा पंक्षी गगन में सूना पड़ा यह नीड़ है।

केवल अकेले राह चलना बस यहाँ पर लक्ष्य है।

कौन जाने पास कितना किसका कहाँ गंतव्य है।।

 

अनल की उर्मियों को सागर समझकर क्या करुँगा।

विन सृजन के सर्जना को मधुमास कहकर क्या करुँगा।।

 

व्योम छूती धूल उड़ती कर रही है क्षितिज मैला।

विस्तार से कितना विकल है देख लो यह रेत फैला।

डोर के संग पंतग है इतरा रही आकाश पाकर।

छोड़ दे यहि डोर इसको, जा गिरे किस झाड़ पर।।

 

भ्रम भरा यह जगत मिथ्या, सौगात लेकर क्या करुँगा।

सत्य तो केवल समर्पण, फिर जीत लेकर क्या करुँगा।।

र्स्पश तुम्हारा

स्पर्श तुम्हारा पाकर मलयज चन्दन बनकर महका है।

कितनी मोहक प्रकृत तुम्हारी देख देख मन बहका है।।

 

लजा-लजा कर खिली कुमुदनी चाँद गगन में धवल हुआ।

आहट पाकर कमल कली का आनन कैसे लाल हुआ।

साज रंगोली तन पर तितली मन उसका बेहाल हुआ।

मधुवन की मंजरियाँ मादल, पागल जैसा हाल हुआ।।

बदल गया है रंग भ्रमर का, फिर भी उसका मन लहका है।।

 

रवि किरणों का रुप सजा है बादल के वक्ष: स्थल में।

सुमनों का रूप सँवरता किसलय के अंतस्थल में।

जीवन का राग छुपा है ऊषा की नव पायल में।

मौन धरा सब देख रही है सजा सजा कर आँचल में।।

सुन कर मेधो का गर्जन मोर मयूरी मन चहका है।।

 

मेरी तो पहचान तुम्ही थे जाने काहे समझ न पाया।

तुमसे थोड़ा विछुड़ गये क्या समझ में कोई राह न आया।

रेतों का एक महल बनाते सपनों का संसार सजाया।

लेकर नाव चले कागज की, पग पग पर मझधार बनाया।

दरस को आँखे तरस गयी हैं, प्रकृत देखकर मन बहका है।।

स्पर्श तुम्हारा....

सच बात सुमन

जीवन पथ पर चलना है हम सबको प्रतिपल।।

 

भँवरा सरगम तितली थिरकन।

ज्योति तिमिर की निश दिन बिछुड़न।

सुख दुख की यह छन्दिल उलझन।

बिरह व्यथा की प्रतिपल तड़पन।

बहती नदिया जीवन धारा बहना है अविरल।।

 

स्वागत वन्दन तर्पण अर्चन।

मकरन्द लिये सुन्दर सर्जन।

मन भवो का घोर विकम्पन।

नैराश्य भरा नीरस निर्जन।

तड़ित दामिनी लिये गर्जना अन्तस मधुर सजल।।

 

तूफान कठिन फिर सर्द पवन।

मधुमास लिये पतझर उपवन।

गरमी की तपन वरषा की छुवन।

सरदी की गलन काटों की चुभन।

शून्य भरा सूना परिपथ, ज्यों जल में नीलकमल।।

 

गहन गुहा में ज्योंति सृजन।

दूर विजन में खिला सुमन।

क्षितिज लिये विस्तृत जीवन।

आशाओं का यह खुला गगन।

अभिशाप नहीं वरदान है यह ज्यों खिलता पुष्प नवल।।

मृदु परिवर्तन

चुपके चुपके आओ देखें प्रात प्रकृत का मृदु परिवर्तन।

होता कैसे विलय तिमिर का, नव जीवन का कैसे सर्जन।।

 

चाँद सितारे छिप गये सारे, उनमुक्त हुआ है शून्य गगन।

अभी अभी तो निशा गयी है, ओस बूंद से धुलकर उपवन।

मन्द मधुर मधु गंध लिये हैं चलता धीरे शान्त पवन।

चुपके पलकें खोल रहा है, सोया सोया सारा मधुवन।।

बनती कैसे पुष्प कली हँसता कैसे सुन्दर निर्जन।।

 

बँधी विभा की अलकें लगती सिमटी जैसे काली चादर।

नूपुर पहने ऊषा आई सिर पर डाले पीली चूनर।

कानन के सूने आंगन में नई चेतना रूप प्रखर।

गुनगुन की गुंजार लिये गाते घूमें अलमस्त भ्रमर।।

कुसुम लता की हर डाली पर हँसते कैसे नवल सुमन।।

 

कलरव सरगम की तरंग संग हैं नीड़ों के द्वार खुले।

नई बघूटी जैसे देखों स्वर्ण रश्मि के पाँव चले।

सुन्दर शान्त सरोवर जल में, नील कमल के पुष्प खिले।

अविरल प्रीति क्षितिज की देखों धरती अम्बर गले मिले।।

कैसे मिटती विरह वेदना, होता कैसा क्रौच मिलन।।

चुपके चुपके...

माझी रे

माझी रे साँझ ढली दूर क्षितिज छाँव में।

चलना है दूर बहुत प्रियतम के गाँव में।।

शान्त हुआ बिरह राग निर्जन से पथिक पाथ।

धूमिल सी ज्योति किरन धरा हुई श्याम गात।।

भटका सा मन्द मलय निर्जन से गाँव में।।

माझी रे साँझ ढ़ली...

वेसुध सा भंग पिये भृंग पड़ा गोद में।

विह्वल है कमल कली प्रीत के प्रमोद में।।

सिहरे हैं कमल ताल देख तिमिर गाँव में।।

मांझी रे साझ ढ़ली....

फैली है भँवर जाल साहिल भी दूर है।

फटी फटी नाव पाल बन्धन कमजोर है।।

उलझी है जुगुन ज्योति घोर सघन छाँव में।।

मांझी रे साँझ ढ़ली....

मिटते से बिम्ब सभी मात्र लगे कल्पना।

सपनों सा जीवन पल व्यर्थ लगे साधना।।

थिरक पड़ी यामिनी बाँध घुंघुर पाँव में।।

मांझी रे साँझ ढ़ली...

सोलह श्रृंगार किये सजी धजी यामिनी।

संग संग प्रकृत चली बनी नवल कामिनी।।

तारों के दीप जले अम्बर के गाँव में।।

मांझी रे साँझ ढ़ली....

छन छन कर श्वेत किरन दूर व्योम द्वार से।

सिहरन सी दे रही सलिल पवन प्यार से।।

विहँसी जो कुमुद कली प्रेम भरे भाव में।।

लगती है रची रास प्रियतम के गाँव में।।

मांझी रे साँझ ढली दूर क्षितिज छाँव में।।

चलना है दूर बहुत प्रियतम के गाँव में।।

प्रश्न नवल

पूछा हमने..

सलिल पवन से प्रश्न नवल?

सच हमें बताओं जीवन पल?

चिन्तन करते वेद ऋचा का,

अन्तस में है मौन मुखर।

चाह रहे कुछ कहना जैसे,

मृदु हास लिये पाषाण शिखर।

ढूढ़ रहे क्या दूर क्षितिज पर,

देख रहे हैं शून्य विवर।।

पूछा हमने शान्त शिला से,

क्या कहते हैं शैल शिखर?

आघात नहीं आतप का मधुर साधना जीवन पल।

चुप चाप बताते शैल शिखर सच बात बताते शैल शिखर।।

 

सिक्ता के फैलें आँचल पर,

रचती प्रति पल नई अल्पना।

किस भाषा की लिपि में लिखती,

अपने मन की नई कल्पना।

टकरा कर मेरी कस्ती से,

बुन जाती जाल भँवर।

पूछा हमने रेत कणों से,

क्या कहती है सिन्धु लहर?

मरुधर नहीं यह मृग तृष्णा का उनमुक्त जियो हर जीवन पल।

थिरक बताती सिन्धु लहर जी थिरक बताती सिन्धु लहर।।

आकार विहीन स्वरुप लिये,

कभी क्षितिज सा लगते है।

दिखते केवल धुन्ध मगर,

साथ जलधि ले चलते हैं।

दिव्यास्त्र लिये तूणीर कसे,

करते अभिनय नूतन नव।

पूछा हमने जल बूदों से।

क्या कहते हैं बादल रव?

मिटना केवल नियति नहीं है नया सृजन है जीवन पल।

हँस हँस कहते बादल रव कहते हाँ जी बादल रव।।

 

उपवन के इस निर्जन में,

रुप बना है किसलय का।

महक गया हैं तन मन कैसे,

बहती मन्द मलय का।

कौन तूलिका लेकर आया।

नित नव सुमन सजाया जिसने

पूंछा हमनें खिले पुष्प से,

मधु रस तुन्हें पिलाया किसने?

विहँस बताते पुष्प नवल जी विहँस बताते पुष्प नवल।

आनन्द रुप वह व्यक्त नहीं पर दिया उसी ने जीवन पल।

परिचय

देख लो तुम शून्य में है सृजित संसार सारा।

पल छिन अलग तुमसे नहीं, बस जान लो परिचय हमारा।।

 

मलय का मधुगंध बन पुष्प का पुंकेसर बना।

यामिनी में शशि कुमुद पंक का पंकज बना।।

 

निर्झरों की कविता बना मैं उपवनों का गीत हूँ।

भ्रमर का सरगम बना तो नीड़ का संगीत हूँ।।

 

सूत्र परिणय का बना तो दर्द की बिचलित व्यथा।

स्वांस धड़कन बना मैं प्रीति की अच्छुण कथा।।

 

उलझा हुआ विंध पाथ में मंथर पवन का वेग हूँ।

शान्त स्थिर सिन्धु में प्रलय का उद्वेग हूँ।।

 

राह का रहवर बना मैं पाथ का पाथोज हूँ।

मझधार में कस्ती बना उठती  लहर का ओज हूँ।।

 

ज्वाला बना मैं अग्नि की वैभव भरा परिवेश हूँ।

प्राण की हूँ चेतना तो मृत्यु का आवेष हूँ।।

 

भूगर्भ के अन्तस छिपा सर्जना का लोक हूँ।

मिटता हुआ गहन तम में रश्मि का आलोक हूँ।।

 

मोह का अर्जुन बना तो कृष्ण का उपदेश हूँ।

युद्ध में मिटता हुआ केवल बचा अवशेष हूँ।।

 

विपरीत में एक मीन सा मैं ढूढ़ता प्रतिपल किनारा।

अलग तुमसे नहीं हूँ बस जान लो परिचय हमारा।।

जीवन का गीत

मधुर सुरों में गाते जाओं इस जीवन का गीत।

वीणा के तारों में जैसे रचा बसा संगीत।।

घने तिमिर में धवल चाँदनी,

हँसती गुमसुम कुमुद यामिनी।।

संयोग वियोग लिये प्रतिपल,

बजती रहती नई रागिनी।।

इन्द्र धनुष के रंग संजोये सपनों का मनमीत।।

मधुर...

शान्त शिखर की मधुर साधना,

हिम खण्डो का जमना गलना।।

सरिता मन की प्रबल कामना,

प्रतिपल अविरल बहते जाना।।

सरगम साज संजोये जैसे निर्झर का अनुगीत।।

मधुर....

सूखी डाली ने कभी सुना,

होगा चिड़ियों का कलरव।।

गर्त पड़े इस पत्थर ने भी,

देखों होगा अपना वैभव।।

निभा रहे हैं कण कण देखों सम्बन्धों की प्रीत।।

मधुर....

प्यारी कितनी सुबह सृजन की,

निर्मल सुन्दर ढलती शाम।।

खिला सरोवर नील कमल का,

मिटता बिम्ब सभी अभिराम।।

बिरह मिलन के राग भरे है सुख दुख की यह रीत।

मधुर...

जिन्दगी

एक सजे से मंच पर बस भिनय निभाना जिन्दगी।

करतब अदा का अपनी हँस कर दिखाना जिन्दगी।।

 

कहीं पर दूर तन्हा अजनबी अपना शहर।

कुंज काटों के सधन है कठिन कितनी डगर।।

कुछ देर का सफर है चुपचाप चलना जिन्दगी।।

 

राग की एक रागनी गीत सा है यह सफर।

बिरह के उद्वेग में मिट रही है यह लहर।।

सजाये साज सरगम के एक तार बजना जिन्दगी।।

 

लहरा रहा है तपन में दे रहा है भ्रम लहर।

क्षितिज का छोर छूना चाहता है एक मरुधर।।

सृजन सबनम साथ लेकर एक शाम ढलना जिन्दगी।।

 

फूल में खुशबू लिये मधुमास का लम्बा सफर।

मिल गया राहों में कैसे कहाँ खामोश पतझर।।

एक हँसी में गम लिये आंसू बहाना जिन्दगी।।

 

उलझी हई भटकी हुई स्वंय बुनती है भँवर।

चल रही टकरा रही जलधार से कस्ती मगर।।

सुख दु:ख तो साहिल है एक धार बहना जिन्दगी।।

 

रिस्ते बना कर साथ चलना कारवाँ का यह सफर।

छूट जायें कब कहाँ पर, राह के कितने शहर।।

गिनती लिये संग स्वांस की, दिल का धड़कना जिन्दगी।।

यह मौत भी एक ठौर है, बस गुन गुनाना जिन्दगी।।

राह का साथ

टूटी मन की भ्रमित कल्पना, छूट गया मग साथ।

जिसे समझकर अपना बैठे छोड़ गये सब हाथ।।

 

कितने हमने स्वप्न संजोये लेकर मन में आश।

अमिट लिये बैठे भ्रम में मृग तृष्णा की प्यास।।

 

हुये अकेले अब तो टूटा मेरा हर विश्वास।

माया के इस इन्द्र जाल में प्रतिपल रहें उदास।।

 

घटित हुआ बस केवल वह जो लिखा हमारे माथ।

सघन तिमिर की गहन गुहा में साथ मेरे एक स्वांस।

 

दूर दूर तक शून्य विजन में बस केवल एहसास।।

संग संग तेरे चलने का मैं पलछिन किया प्रयास।

 

आशा का ही दामन पकड़े चलता रहा उदास।।

शान्त क्षितिज के शून्य गगन में निर्जन अपना पाथ।।

 

नहीं शिकायत कोई तुमसे था तेरा जो प्यार।

कस्ती फँसी भँवर में थी, तब तुमने लिया उबार।

 

उलझन मेरे साथ बड़ी थी, दिया तुम्ही उत्साह।

तुम अवलम्बी मेरे ऐसा रहा सदा विश्वास।।

 

कौन यहाँ पर किसका अपना अन्जानों की हाट।।

किससे करूँ अपेक्षा कैसी, स्वारथ के सब घाट।।

छेड़ो न कोई सरगम

गाये है हमने गीत बहुत रागों ने दिये कितने गम।

ढलने दो चुपचाप साँझ अब छेड़ो न कोई सरगम।।

 

धूल भरी पगडड़ी में हैं याद घरौदे बचपन के।

चुपचाप सही पीड़ा हमने देखा है पथ उलझन के।।

मन चाह मिटी न कभी हर ख्वाब अधूरे हरदम।।।

ढलने...

 

नव कोंपल का सजा सजा सा मृदुल हास।

पतझर में जीवन कितना निराश कितना उदास।।

लहरा है शिखर पर मेरे बैभव का बहुत परचम।।

ढलने...

 

अनुबन्धों की बहुत रुलाती ढलती उसकी शाम।

दर्द छिपा अन्तस में कितना दृष्य लगें अभि राम।।

है सागर से दूर बहुत हर एक नदीं का उद्गम।।

ढलने दो...

 

है नव बिहान के नव प्रभात का नया सृजन।

गहन गुहा में मिट जायेगा सघन तिमिर का एक विजन।।

निर्झर बन कर बहने दो नयनों में सजे शवनम।।

ढलने दो...

छुईमुई

काँपा अंग अंग तेरा, लजवन्ती काहे सिमट गई।

मन में कैसी हुई बेदना, छुये बिना तू सिहर गई।।

 

खुले गगन में स्वच्छ प्रकृति की तू है सहचर।

निर्मल तेरा भाव भरा मन कितना सुन्दर।।

 

यौवन तेरा इठलाया प्रकृती के आँगन में।

भौंरे ने गाया गीत नया तेरे मन प्रागण में।।

 

धूप छाँव की अठखेली में प्रतिपल तू भी थिरक गई।

अनुराग भरे जीवन पथ पर आखिर काहे सिहर गई।।

 

फूल खिले हर साख तेरे महकी छूकर सलिल पवन।

एक जीवन की आश लिये झूम गया तेरा भी मन।।

 

कर डाला उद्वेलित तुझकों राग तरगों का स्पन्दन।

डूबी हो शायद कुंठा में दे गया तुझे वह कटु कम्पन।।

 

शायद तुझकों छूने की नीरस मन में चाह जगी।

आगत से क्यों भय इतना आहट से बस सिहर गई।।

 

उपहार रुप में मिला तुम्हें जीवन का वरदान।

संवदेना भरी जितनी तुझमें अन्य नहीं उपमान।।

 

इन्द्रियों का मृदुल संकुचन मात्र तुम्ही ने पहना।

रुप श्रृंगार भरा यौवन पट लाज हया का गहना।।

 

आगत का यह स्वागत सुन्दर तू ही केवल निभा गयी।

भटके मन के कुटिल भाव को शायद तू ही समझ गयी।।

एक ठाँव

चलते पथ पर थके पथिक को मिले तनिक ज्यों छावँ।

जीवन सुन्दर मधुर सफर है, यह जग है एक ठाँव।।

 

उपवन की क्यारी में जैसे विविध रंग के फूल।

महक रही है मलय यहाँ तो उगे हुये है सूल।।

 

अनुबन्ध बने सम्बन्ध सभी कितने ही अनमोल।

अमराई के घने कुंज में ज्यों कोयल के बोल।।

 

नाते रिस्ते मधुर मिलन के प्यारी कितना छाँव।।

मिलते कभी सुहाने पल तो कभी दु:खों का जाल।

 

कहाँ रुके कब मुड़ जाये पगड़ड़ी की चाल।।

आते जाते सुख दुख प्रतिपल करते प्रीत निछावर।

 

ऋतुयें जैसे बदला करती अपना नया कलेवर।।

प्रीत लिये छम-छम बजती हैं जैसे नूपुर पाँव।।

 

राग विराग भले हो लेकिन अविरल यहाँ र्सजना।

बादल बनकर सरस बरसते करते प्रवल गर्जना।

 

जैसे कोई नया कारवाँ लेता नव आकार।

अव्यक्त रुप है उसका लेकिन जीवन है साकार।।

 

उमगी भरी नदी में ज्यों आधार बनी इक नाँव।

जीवन सुन्दर मधुर सफर है, यह जग है एक ठाँव।।

कृति की रचना

है चाह मेरे मन की मैं बन जाऊ तेरे कृत की रचना।

शून्य गगन के कोने कोने सजूँ दिखूँ बन नई अल्पना।।

 

खुशबू मेरी विखर जाय उपवन में खिले फूलों की तरह।

दिख जाऊँ घोर तिमिर में आलोक लिये दीपों की तरह।

 

वट रुप बने मेरा अंकुर अन्तस में छिपे कोंपल की तरह।

रौद्र भरा हो रुप भले पर बोल मेरी कोयल की तरह।

 

है दूर क्षितिज तक फैला अधिकार तेरा अपना।

नाप नहीं सकता कोई विस्तार तेरा कितना।

 

उत्साह भरा अन्तस इतना सागर में उठूँ लहरों की तरह।

संगीत लिये कल कल का बह चलूँ यहाँ सरिता की तरह।।

 

सरगम साज लिये मैं नवगीत कहूँ झरनों की तरह।

रोके न कोई बहने दे हमें मन्द मृदुल झोकों की तरह।।

 

है नहीं कोई जो सजा सके तेरी क्यारी का कोना कोना।

गुण अवगुण का भाव नहीं कुछ चमक सकूँ बनकर सोना।।

 

वाणी भी मेरी कुछ बोले नीड़ो में बजे कलरव की तरह।

शून्य क्षितिज छूने का भाव बने शिखरोंकी तरह।।

 

मिट जाऊँ कहीं न मरुघर में, व्यग्र बनी तृष्णा की तरह।

ज्योति लिये चमकूँ नभ में, दिखजाऊँ तुम्हें तारों की तरह।।

 

जल बूदों सा भर दो मुझमें इन्द्र धनुष का नव सपना।

रंग दो कोई रंग नया बन जाऊ  तेरे वृति की रचना।

तुम्हें खोजता हूँ

निस्तब्ध निर्जन सूने विजन में,

जाने अन्जाने बहुत सोचता हूँ।

सघन यामिनी की सूनी डगर पर,

घनेरे तिमिर में तुम्हें खोजता हूँ।।

बिछड़ कारवाँ से हुए हम अकेले।

कहाँ सो गये है परिन्दों के मेले।

मरुधर की रेती के तपते तपन में।

एक पल वसर का शहर ढूढ़ता हूँ।।

भँवर जाल मौजें भी बुनने लगी हैं।

सरकती यह कस्ती भी डिगने लगी है।

सागर की लहरों पर तन्हा खड़ा हूँ।

दूर कितना किनारा पता पूछता हूँ।।

उड़ते ये बादल गगन छू रहे हैं,

धुयें में ये सागर लिये चल रहे है।

जल धार बन कर कहाँ खो गये अब,

उठे बुलबुले से उमर पूछता हूँ।।

तारों की चिलमन पहन छुप गये हो।

बताओं हमें तुम कहाँ खो गये हो।

अधेरे में आओ नवल चाँद बन कर।

धवल चाँदनी की किरण चाहता हूँ।।

घनेरे तिमिर में तुम्हें खोजता हूँ।।

जाने अन्जाने बहुत सोंचता हूँ।

मेरा द्वार खुला है

आओगें तुम सच लगता है, मन को यह विश्वास हुआ है।

निश्चित कोई पल तो नहीं हैं फिर भी मेरा द्वार खुला है।।

 

अभी यहाँ हिम पात हुआ है,

सरिता मन पाषाण हुआ है।

शैल शिखर सब ठिठुर गये है,

वादी में कोहराम मचा है।

गहन धुन्ध की परत पड़ी है,

शशि का मुख भी मलिन हुआ है।

आती केवल सर्द हवायें फिर भी मेरा द्वार खुला है।।

 

अभी यहाँ पतझार हुआ है,

मधुवन भी बेहाल हुआ है।

पेड़ पात सब पीत हुये हैं,

उपवन भी झंखार हुआ  है।

निर्जन बन मरुभूमि दिखा है,

हर कोना शमशान हुआ है।

दिखता केवल घना तिमिर है, फिर भी मेरा द्वार खुला है।।

 

अन्तस पर आघात हुआ है,

सागर मन उद्विग्न हुआ है।

रेतों के तट विखर गये है,

लहरों का उत्पात हुआ है।

बड़ा भयावह रुप बना है।

चक्रवात तो थमा हुआ है।

सब कुछ दिखता वीराना सा फिर भी मेरा द्वार खुला है।

अभी गगन में दिवस ढला है,

घना अंधेरा थिरक चला है।

पंक्षी पथ सुनसान हुये है,

जुगुनू अब मेहमान हुआ है।

दूर दूर तक जाती नजरें,

सारा पथ निस्तव्ध हुआ है।

सघन निराशा घिरी हुई है फिर भी मेरा द्वार खुला है।।

 

बाट तुम्हारी जोह रहा हूँ,

कितना आतुर मन लगता है।

हर आहट पर मेरे मन में।

स्वप्न नया सज जाता है।

जाने किस पल तुम आओगें,

आश का धीरज डोल रहा है।

दीप ज्योंति भी बुझने वाली, फिर भी मेरा द्वार खुला है।।

आओगे तुम सच लगता है, मन को यह विश्वास हुआ है।।

जाने क्यों

यहीं कहीं हो पास मेरे तुम, दिल की धड़कन बढ़ा रहे हो।

देते पलपल विरह वेदना, जाने क्यो तुम रूला रहे हो।।

 

अभी खिली जो कली कमल की शायद तुमने उसे छुआ है।

नाच उठी है विपिन मयूरी, उसने तुमको देख लिया है।।

 

भटकीभटकी गलियों में जो धीरे धीरे बहक रही है।

महकीमहकी मन्द मलय यह, छूकर तुमको महक रही है।।

 

लिये साथ में नवल चेतना कणकण में तुम लुटा रहे हो।

निर्जन वन के सूनेपन को विहग राग तुम सुना रहे हो।।

 

आये हो अमराई शायद, देख तुम्हे यह कोयल बोली।

मंजरियों का मन बदला अलमस्त हुई जो घूँघट खोली।।

 

झरनों ने तुमको देखा है निर्झर वन कर विमल हुये।

कहीं पास से शायद निकले बर्फ पिघल कर सलिल हुये।।

 

पतझरी डाल पर पलपल तुम कोंपल के दल सजा रहे हो।

नदियों के कल-कल कलरव में, तुम संगीत सजा रहे हो।।

 

तेरे मन की लिये उंमगें लहर गजल सी लगती है।

गाती हँसती रेत कणों में नया गीत भी लिखती है।।

 

लेकर सुन्दर बिम्ब नया सूनेसूने मन आंगन में।

चित्र नया रच जाओ कोई मेरे कोरे मन दर्पण में।।

 

मरूथल जैसे जीवन से जाने क्याक्या छुपा रहे हो।

जनमों का यह बन्धन है, जाने क्यों तुम भुला रहे हो।।

पलछिन का विश्वास

मरूधर का लहराता सागर करता वह नीरास नहीं।

दौड़दौड़ कर विकल हिरन है मिटती उसकी प्यास नहीं।

झूठे सपनों का संसृत सजा रहे हो प्रतिपल लेकिन,

यह तृष्णा कब तुम्हे रूला दे पलछिन का विश्वास नहीं।।१।।

 

शून्य क्षितिज की सीमा कोई सच इसका आभास नहीं।

सूरज संध्या सुबह सितारे इनका भी आकास नहीं।

अपने और पराये का भ्रम स्वासों का जो अहम लिये हो,

कब तेरा यह साथ छोड़ दे, पलछिन का विश्वास नहीं।।२।।

 

मौसम कितना बिगड़ जाय कब, ऋतुओं को अभ्यास नहीं।

समझ सको तो समझ लो केवल यह कोई उपहास नहीं।

अपमान मान का परचम लेकर राग द्वेष जो सजा रहे हो,

अहम तुम्हे कब कहाँ मिटा दे, पलछिन का विश्वास नही।।३।।

 

सृजन भरा एक सफर है जीवन, किसको इसका भास नही।

मंजिल तेरी दूर बहुत है, समय तुम्हारे पास नही।

करलो सुन्दर जतन मिला है, मानुस तन का सुधड़ सुअवसर,

व्यर्थ गया यदि मिले तुम्हे कब पलछिन का विश्वास नहीं।।४।।

नव नीड

ढूँढ़ कर तिनके नये नव नीड वह बुनने लगा।

शायद सृजन कोई नया आँख फिर मलने लगा।।

 

कोमल सुमन के बाग में कलियाँ नवल हँसने लगी।

पतझरी साखों पर वह कोपल नई सजने लगी।।

 

पवन निर्मल सलिल सुन्दर सुखद बन बहने लगा।

मधुर गुंजन साथ लेकर गीत नव गाने लगा।।

 

विमल मन भाव के लेकर मधुमास भी मिलने लगा। 

राह में भटका भ्रमर भी नव राग वह कहने लगा।।

 

घने तम के गगन से जुगनू किरन बुझने लगी।

जाने लगे हैं चाँद तारे रात भी ढलने लगी।।

 

काली निशा के द्वार पर ज्योति नव जलने लगी।

रश्मियों का हार पहने प्रात भी हँसने लगी।

 

सूने विजन की राह में चलता पथिक दिखने लगा।

जैसे पकड़ कर बाँह कोई आधार बन मिलने लगा।।

 

कल्पना मन की कोई लो अल्पना बनने लगी।

व्यक्त हो अव्यक्त से साकार बन सजने लगी।।

 

निराशा में आश का प्रतिविम्ब दिखने लगा।

कोई चितेरा चित्र में नवरंग फिर भरने लगा।।

 

ढूढ़कर तिनके नये नव नीड़ वह बुनने लगा।

शायद सृजन कोई नया, आँख फिर मलने लगा।।

आवा़ज कहीं तुम दे देते

कस्ती तो हमारी बच जाती, तुम एक इशारा कर देते।

आशा की किरण दिख जाती आवाज कहीं तुम दे देते।।

 

काँटो से घिरा पथ कितना है, कठिन डगर जाना हमने।

है दूर कहाँ मंजिल अपनी, मालूम नहीं माना हमने।।

 

सघन तिमिर का तोड़ मिथक दो चार कदम ही चल लेते।

घोर निराशा के पल में आवाज कहीं तुम दे देते।।

 

भंवर जाल में फंसी नाव है दूर किनारा माना हमने।

तैर सकूँ यह शक्ति नहीं सच बात इसे जाना हमने।।

 

तीव्र कठिन जलधारा का आघात प्रबल हम सह लेते।

तिनका ही सहारा बन जाता आवाज कही तुम दे देते।।

 

दिगहीन पथों का मरूथल है, इसको भी जाना हमने।

करता कोई बसर नहीं शमशानों में माना हमने।।

 

भ्रामक जल के सागर में मन की प्यास बुझा लेते।

सबनम बूंदे जल बन जातीं आवाज कहीं तुम दे देते।।

 

टूटे रिस्ते सारे अपने हैं मधुर नही माना हमने।

घृणा बहुत है मुझसे कोई प्यार नहीं जाना हमने।।

 

बुझने से पहले जीवन लव इक बार कही उसका देते।

पछताने का पल मिल जाता आवाज कहीं तुम दे देते।।

 

सूक्ष्म तुम्ही हो कणकण में अव्यक्त बात जाना हमने।

घिरा गगन यह शून्य क्षितिज है रूप तेरा माना हमने।।

 

घनघोर सघन घन के नभ को रश्मि रूप यदि दे देते।

मैं भी रहता अन्तस तेरे, आवाज कहीं तुम दे देते।।

स्वप्न नवल

साँझ ढले जब प्राण मेरे तुम स्वप्न नवल बन आना।

तिमिर गगन में धवल चाँद की स्वेत किरन बन जाना।।

 

मै देखूगाँ बन चकोर तब एक कुमुद सा खिल जाऊगाँ।

जुगुनू ज्योति लिये संग अपने स्वागत गीत सुनाऊगाँ।।

बिरल तिमिर की ओढ़े चादर मन्द मधुर मुस्काना।

साँझ ढले ...........

 

सागर की सर्पिल थिरकन पर देख तुझे संग नाचूंगाँ।

आँख मिचौली खेल सुखद संग संग तेरे खेलूँगा।।

रेतीले मेरे मन आँगन में निर्मल एक लहर बन आना।

सॉझ ढ़ले.........

 

तेरे आँचल की छाँव तले नींद नयन भर सोऊँगा।

स्नेहिल तेरी प्रीत लिये स्वप्न क्षितिज मैं देखूँगा।।

झिलमिल चूनर पहन कर सुन्दर लोरी गीत सुनाना।

साँझ ढ़ले......

 

जूही चम्पा और चमेली के फूलों पर इतराऊगाँ।

किसलय कलिका गले लगाकर प्रीत तेरी मै गाऊगाँ।

पुंकेशर की खुशबू लेकर मलयज चँवर डुलाना।

साँझ ढ़ले .......

 

निशा भोर में रूप बदल कर लेकर आये गागर पनघट।

ज्योति पुंज की स्वर्ण रश्मियाँ कलियों का जब खोले घूघट।।

नीद से मुझको जगा प्रिये तुम अन्तस में बस जाना।

साँझ ढले.......

सर्जना

ढूँढ़ कर शब्द वह गीत लिखता रहा।

मै अकेला खड़ा यह निरखता रहा।।

सज&ना में प्रकृत मौन विहवल रही,

वेदना गर्भ में यूँ तड़पती रही।

फट गया इस धरा का हृदय भी करूण,

अंकुरण पर सृजन मुस्कुराता रहा,

वह चितेरा नया चित्र रचता रहा।।

द्रुम दलों का नया रूप सजने लगा,

कोपलों में नया रंग आने लगा।

देख कर सब दिशायें मगन हो गयी,

मधुर मन में मौसम भी गुनता रहा।

वह रंगीला नया रंग भरता रहा।।

बढ़चली एक नवेली सी प्यारी लतर,

ओढ़ कर साख की वह सलोनी चुनर,

देख कर यह तितलियाँ ठिठकने लगी।

भ्रमर मन मृदुल गीत गाता रहा।।

रिक्तता को वह सुन्दर सजाता रहा।

सज गये कैनवस में कहीं पर शिखर,

विजन में दिखे फूल हँसते निखर,

निर्जन में उड़ते देखों ये पक्षी।

घनेरा गगन घन बरसता रहा।।

तूलिका वह लिये कुछ बदलता रहा।

नेपथ्य

कहाँ हो तुम निविड़ तम में, नेपथ्य से कुछ बोल दो।

आगई लो शशिकिरण भी तम यवनिका खोल दो।

 

रश्मियाँ तो छिप गयीं, जाने कहाँ किस व्योम में।

मिट गये पथ बिम्ब सारे साँझ की गोधूल में।

 

खामोश लगती है कुमुदनी ताकती है बस डगर में।

व्यथित कितनी मन चकोरी ढूढ़ती है तम विवर में।।

 

है विकट पल संक्रमण का धौर्य का पुटघोल दो।

हो गया चुप नीड़ कलरव नेपथ्य से कुछ बोल दो।।

 

लग रही है राह लम्बी आश भी डिगने लगा।

श्वाँस की घड़कन बढ़ी अब पाँव भी थकने लगा।

 

कल्पना का दृष्य सारा व्यर्थ सा लगने लगा।

टूटे हुये एक स्वप्न सा भ्रामक बड़ा दिखने लगा।।

 

देख लूँ प्रिय रूप तेरा आवरण पट खोल दो।

गंत्तव्य से हूँ दूर कितना नेपथ्य से कुछ बोल दो।।

 

व्योम में तुम चाँद बनकर धवल चूनर ओढ़ लो।

श्रंगार के हर साज में इन उडगनों को जोड़ लो।

 

आगये कितने शलभ हैं द्वार दीपक देखकर,

प्यारी हँसी हँसकर मृदुल बस दूर से तुम झांक लो।

 

अधजले हैं पंख बिखरे द्वार साँकल खोल दो।

पथिक है पथ पर अकेला, नेपथ्य से कुछ बोल दो।।

जाने क्यों

जा रही है तीरगी आ रहा प्रकाश है।

जाने क्यों आज फिर जिन्दगी उदास है।?।।

 

यामिनी के संगसंग चाँद भी तो है।

रागनी भी चाँदनी की राह में तो है।

रात में यह रोशनी उडगनों के पास है।

जाने क्यों आज फिर जिन्दगी उदास है।?।।

 

अलगअलग हैं लोग पर काफिला तो है।

बढ़ रहे है संगसंग हौसला तो है।

नफरतों में भी प्यार की प्यास है।

जाने क्यों आज फिर जिन्दगी उदास है।?।।

 

है मृदुल सजल मगर गर्जना तो है।

वेदना प्रबल सही सर्जना तो है।

पतन के संगसंग हो रहा विकास है।

जाने क्यों आज फिर जिन्दगी उदास है।?।।

 

जिन्दगी में हारजीत पल छिनों की बात है।

रात के ही बाद तो हो रहा प्रभात है।

है कठिन डगर मगर मंजिलों की आश है।

जाने क्यों आज फिर जिन्दगी उदास है।?।।

 

डिगे नहीं धैर्य मन विश्वास भी तो साथ है।

प्रखर प्रकृत रूप यह जीवन सौगात है।

विरह व्यथा मिलन मन का उच्छवास है।

जाने क्यों आज फिर जिन्दगी उदास है।?।।

अलविदा

उठी हूक मन में तेरी याद लेकर,

नयनों की पलकें सजल कर गयीं।

अलविदा कह तुम्हें मुस्कुराये मगर,

बिछुड़न की तड़पन विकल कर गयी।।

मानस पटल पर चल चित्र जैसे,

अतीतों के पल तो गुजरने लगे।

सपनों के घर ज्यों सजते सँवरते,

यादों के दिन फिर उभरने लगे।।

सपने ज्यों टूटे धरौदों के अपने,

व्यथा वेदना देखो घना कर गयी।।

कारवाँ का ज्यों मिलना बिछुड़ना,

सफर जिन्दगी का फलस़फा कह गये।

देख संध्या का ढ़लना बनी वेदना,

आगमन सुबह का सिलसिला कह गये।।

मुसाफिर बने दूर नयनों से ओझल,

यादें तुम्हारी अनमना कर गयी।।

तुम्हारे लिये हैं दुआयें हमारी,

खुशियों से दामन भरा हो तुम्हारा।

जहाँ भी रहो तुम सारे जहाँ में,

शिखर पर ही लहरे परचम तुम्हारा।।

कभी फिर मिलेगें किसी मोड़ पर,

भावना भाव की मृदुल बन गयी।।

क्षितिज के पार

पल छिन यहाँ नाटक नया दे रहा निर्देश कोई।

दिखता नहीं पर दूर ओझल है क्षितिज के पार कोई।।

 

पंक्षी गगन से लौट आये छिप गई रवि रश्मियाँ।

हो गई खामोश सारी नीड़ की किलकारियाँ।

 

घन तिमिर से घिर गये प्राचीप्रतीची के गगन,

हँसने लगा लो चाँद नभ में देख कर यह तम सघन।।

 

खद्योत की लघु रश्मियाँ ले चल रहा है साथ कोई।।

रेत पर धूमिल पड़े पद चिन्ह सा हमराज कोई।।

 

मंथर मलय ने छू लिया है दौड़ कर लतिका सुमन की।

हँस पड़े है ताल पुरयन खिल गई कलिका कमल की।

 

बिखरी पड़ी हैं ओस बूंदे मिट गई मरू प्यास भी।

था विकट पतझर मगर हँसने लगा मघुमास भी।।

 

चल रही है इस धरा पर प्यार की प्रतिपलकथा।

सज रही है हर सृजन में बेदना, अबिरल व्यथा।

 

संगीत सरगम बज रहा है जल रहा शमशान भी।

उल्लास उत्सव दिख रहा पर हो रहा अवसान भी।।

 

संगम लिये रसरंग का, है रच रहा संसार कोई।।

दिखता नही पर दूर ओझल, है क्षितिज के पार कोई।।

यह सर्जना

सुप्त तारों के हृदय में रागनी सजने लगी,

छू लिया तुमने प्रिये जो वीण फिर बजने लगी।।

 

प्यासी रही तृष्णा प्रबल, जलते हुये मरुपथ मिले।

खोजते हम राह अपना, उलझे हुये परिपथ मिले।

आश टूटी स्वप्न बिखरे, था कठिन कितना डगर।

उद्विग्न कितना व्यथित मन चलते हुये जीवन सफर।।

 

सांझ की गोधूल में भी शीतल पवन बहने लगी।

वेदना पर जो प्रिये तुम देखकर हँसने लगी।।

 

व्यर्थ ही करते रहे हम स्वप्न की बस साधना।

बिन अर्थ बीते विगतपल अन्जान थी आराधना।

दिगहीन अम्बर घन तिमिर में मिट गया व्यक्तित्व भी।

हो गया बचना कठिन अवशेष का अस्तित्व भी।।

 

निराशा के गगन में चाँदनी बन छाने लगी।

पदचाप की आहट प्रिये जो पास तक आने लगी।।

 

चलते रहे पगराह पर जन्म का आशीष लेकर।

कितनी निशा बीती यहाँ वेदना की टीस लेकर।

आ रहा कोई पथिक जो वेदना के दर्द सह कर।

सूने विजन के पास देखो मेरी खुशी की याचना कर।।

 

निष्प्राण में नव प्राण की लो चेतना दिखने लगी।

स्पर्श तेरा है प्रिये यह, जो सर्जना होने लगी।

दिनकर

बहने लगी है मन्द मलयज गाने लगा है गीत मधुकर।

देखो प्रिये वह कौन आया, पीत चादर ओढकर।।

चाँदनी भी चाँद के संग रात की बारात लेकर

दूर दिग में जा छिपी है यामिनी के संग मिलकर।

शृंगार के हर साज लेकर थाल में सुन्दर सुमन भर।

स्वर्ण सी यह रश्मियाँ व्योम से आई उतर कर।।

सज गये हैं द्वार तोरण खिल गई है पुष्प झूमर।

देखो प्रिये.....

 

सोया हुआ यह भृंग जागा कमल फिर हँसने लगे।

नीड़ के जागे बिहग जीवन ऋचा पढ़ने लगे।

शान्त सागर की लहर आ रेत पर चलने लगी।

राग की अनुराग की प्रिय ग़जल लिखने लगी।।

संगीत सरगम साज कर झरने लगे हैं नीर निर्झर।

देखो प्रिये.....

 

पाषाण मन भी हिम शिखर के हो गये कितने सरल।

निर्जनों में मन मृदुल ले बह रही सरिता विमल।

स्पर्श निर्मल अव्यक्त सुन्दर दिख रहा योगी प्रवर।

दे रहा आलोक पथ को रूप कितना है प्रखर।।

आ गया वह द्वार पर प्रिय प्यार का संसार लेकर।

आओ मिलें स्वागत करें है दे रहा वरदान दिनकर।।

प्रणय पथ

उलझ गया शृंगार साज में समय मिलन का समझ न पाया।

रीता पनघट छोड़ गये तुम प्रणय पंथ में पहुँच न पाया।।

 

साँझ हुई थी मोर पंखिया तोरण द्वार सजाया।

तारों की चूनर पहने था चाँद धवल नभ आया।

पारिजात के फूल खिले थे सुरभितगंध सजोये।

घोर तिमिर में थिरक रहे थे जुगूनू दीप जलाये।।

सघन तिमिर नि:शब्द हुआ संकेत मिलन का समझ न पाया।

रीता पनघट छोड़ गये तुम प्रणय पंथ में पहुँच न पाया।।

 

मधुवनमधुवन डालीडाली डाले पवन हिड़ोले।

सजीसजी मंजरी साख पर प्रेम लसी मन डोले।

बोली कोयल खनकी पायल कितना भ्रमर जगाया।

बड़ी देर तुम रुके द्वार पर लेकर नाम बुलाया।।

झूठे सपने नयन बसाये पलक निगोड़ी खोल न पाया।

रीता पनघट छोड़ गये तुम प्रणय पंथ में पहुँच न पाया।।

 

छिड़क बिन्दु पीयूष प्रकृत पर फूल सजा कर चले गये।

जब तक मेरी नीद खुले तुम धरा छोड़कर चले गये।

गिर गहवर औ वन उपवन में तेरा रूप समाया।

रहा अभागा खड़ा अकेला ढूढ़ रहा प्रतिछाया।।

किससे कह दूँ व्यथा वेदना क्या खोया क्या पाया।

रीता पनघट छोड़ गये तुम प्रणय पंथ में पहुँच न पाया।।

तुम मत आना

काटों का बन निर्जन पथ है कहीं भटक तुम मत जाना।

बड़ी यहाँ पर नीरसता है अभी प्रिये तुम मत आना।।

 

आर्यावर्त के सारे प्रांगण, सैन्य शिविर सा सिमट रहे है।

साझ सिंदूरी देख विहग भी थके पाँव सब लौट रहे है।।

 

गोधूली में भानु दिखे है ज्योति रश्मि का मिट जाना

गगन दीप भी जले नहीं हैं अभी प्रिये तुम मत आना।।

 

घनघोर घटायें घिरी देखकर नाविक लंगर डाल दिये है।

उद्विग्न हुआ है अन्तस कितना सागर तट वीरान हुये है।।

 

देख लहर का पागल पन कस्ती अपनीमत लाना।

तूफानों से घिरी राह है अभी प्रिये तुम मत आना।।

 

आ रहा घनेरा तिमिर दूर से दीप शिखायें बुछीबुछी हैं।

पनघट सब सुनसान हुये हैं श्वेत धुन्ध की परत बिछी है।।

 

पारिजात भी नही खिले है खिले सुमन का मुरझाना।

बड़ी वेदना उपवन में है अभी प्रिये तुम मत आना।।

 

सरिता के उस पार क्रौच भी तड़पन देकर चला गया है।

प्रबल प्यास से व्यथित हिरन है भ्रमित सिन्धु भी सूख गया है।।

 

धवल चाँद बिन दुखी चाँदनी देख यामिनी रुक जाना

विरह वेदना दर्द लिये है अभी प्रिये तुम मत आना।।

तीर्थराज

 

गंगा यमुना का पावन तट, स्वर्ग धाम यह मुक्तीधाम।

नमन मेरा इस पुण्य क्षेत्र को सत् सत् मेरा इसे प्रणाम।।

 

कलकल कलकल कलरव करती गंगा की धारा उज्जवल।

मन्दमन्द मन्थर गति चलती, यमुना की धारा श्यामल।।

 

दूरदूर तक दिखें रेणु कण, लगती जैसी यज्ञ भस्मियाँ।

पुण्य क्षेत्र आलोकित करती, प्रात: काल की स्वर्ण रश्मियाँ।।

 

मनुज दनुज का क्लाँत हृदय, पा जाता यहाँ मधुर विश्राम।

अबिरल बहती शीतल धारा, स्नेह सुधा सम उज्जवल श्याम।।

 

ब्रह्मदेव ने हवन यज्ञ कर, पावन अधिक बनाया है।

सब तीर्थों में श्रेष्ठ यही श्री प्रयागराज कहलाया है।।

 

यहाँ अक्षयवट वृक्ष मनोहर, जिसकी सुन्दर सुखद छाँव हैं।

प्रांगण पुनीत श्री तीर्थराज में, मिलता सबको अमिट ठाँव हैं।।

 

धर्म-ज्ञान का उद्गम परिसर देख हुये थे पुलकित राम।

नहीं यहाँ कुछ राग द्वेष है, जीवन का यह बैकुण्ठ धाम। ।

 

देव यहाँ ले आये थे पावन पुनीत अमृत का कुम्भ।

मिट जाता है यहाँ पहुँच कर देव दनुज का सारा दम्भ।।

 

युगान्तरों से बदल रहा है, काल चक्र अपना स्वरूप।

वही मनोहर छटा निराली, वही आज तेजस्वी रूप।।

 

वेद शास्त्र सब मंगल गाते, करे आरती सुबह शाम।

सत्यं शिवं सुन्दरम् है यह, आदि देव का पावन धाम।।

जानता हॅूं

आंसुओं के बीच कैसे मुस्कुरा कर गा सकूँगा।

शून्य के इस विजन में आवाज कैसे दे सकूँगा।

अहम भाव समेट कर हम, हो गये तुमसे विलग पर।

जानता हूँ बिन तुम्हारे पथ कहाँ मैं पा सकूँगा।

दोष अपने जान कर भी कह दिया मैने व्यथा।

सुन लिया चुपचाप तुमने उलझन भरी मेरी कथा।

दर्द की यह वेदना सुन अजनबी यूँ हो गये।

जानता हूँ तुमने लिखी है जिन्दगी की पटकथा।

दर्द के ही दंस की मैं सह रहा लम्बी सजा।

अपराध कितने नाम मेरे हैं नही मुझको पता।

वेदना के घाव का रूप है वीभत्स लेकिन।

जानता हूँ मौन हो तुम देखकर मेरी खता।

सूल बिन यह फूल भी तो सुघड़ लगता नहीं।

पतझर बिना मधुमास भी तो कभी सजता नहीं।

अपकीर्ति का तुम नाम दे दो लाख मुझकों

जानता हॅूं सत्य भी तो झूठ बिन दिखता नही।

बेजान एक शिला में अरमान के यह भाव जितने।

अल्पना की कल्पना को दे दिया जो रूप तुमने।

यदि टूटकर वह गिर बिखर मिट गया तो

जानता हूँ तुमने सहा होगा दर्द के आघात कितने।

बिन तुम्हारे

थकेथके पाँव थे दिन हुआ निढ़ाल।

डरीडरी चाँदनी और चाँद भी बेहाल।

वेदना के साज पर दर्द की रागिनी

बिन तुम्हारे आगई लो गुनगुनाने यामिनी।।१।।

 

विहग गये दूर थे उदास पड़ा नीड था।

लालिमा की छाँव तले निरास खड़ा चीड़ था।

द्वार खड़ी देख रही दीप लिये कामिनी।

बिन तुम्हारे आगयी लो फिर सताने यामिनी।।२।।

 

मोहक सा खिलाखिला बिखर गया फूल था।

सूने से निर्जन में मुखर हुआ सूल था।

भैरवी के ताल पर थिरक पड़ी जोगिनी।

बिन तुम्हारे आगयी लो फिर रूलाने यामिनी।।३।।

 

स्याही के रंग लिये साँझ हुई श्यामगात।

घनाघना तिमिर और उलझे से विजन पाथ।

कस्तूरी बिन विकल हुई जैसे मृग जीवनी।

बिन तुम्हारे आगई लो फिर डरानेयामिनी।।४।।

 

शीतल सा मन्द मलय पद नख को चूम रहा।

आरती के दीप लिये जुगुनू भी झूम रहा।

डगरडगर ढूँढ़ रहा रूप तेरामोहिनी।

बिन तुम्हारे आगयी लो फिर रिझाने यामिनी।।५।।

बंजारे से मत पूछो

बंजारे से यह मत पूछो कहाँ तुम्हारा ठॉव।

निर्जन वन के पार पथिक का बडा सलोना गाँव।।

रूनझुम करती ऊषा आती मिटता सघन अधेरा।

लिये तूलिका रंगता जैसे कोई चित्रचितेरा।

चिड़ियों का कलरव लेकर आता सुखद सबेरा।

काग वकुल पिक मराल मिल करते रैन बसेरा।।

हिम झरनों के र्निझर झरते शीतल शीतल छाँव।।

देख गगन में घिरते बादल मस्त मयूरों की थिरकन।

अमराई को छूकर चलती शीतल मन्द मलय सिहरन।

ओस कणों से भीगा मधुवन फूलो का गलहार पहन।

संग लिये तितली अपने गलियों में भ्रमर करता गुंजन।।

पेंग मार हिचकोले खाती सजी मंजरी साख।।

सजी बसन्ती चढ़कर आती लेकर फूलो की डोली।

क्यारीक्यारी बिखरा जाती लिये परागों की झोली।

प्राणों के स्पन्दन भरती देकर स्वासें नई नवेली।

जीवन का संगीत सजाती डालो की बन नई सहेली।

मधुमास थिरकता उपवन में बांध पयलियाँ पाँव।।

यह जग एक सराय है लेकिन जीवन एक सफर स्वासों का।

आती जाती भोर निशा ज्यो बनना मिटना सपनों का।

शान्त निलय में बैठा योगी देख रहा र्निपेच्छ भाव से।

सतपथ का आलोक पुंज वह बांट रहा आनन्द भाव से।।

राग द्वेष का भाव नही कुछ प्रेम नगर का गाँव।

निर्जन वन के पार पथिक का बड़ा सलोना गाँव।

छिपकर छुआ है

चन्दा का मुखड़ा मलिन सा दिखा,

तड़पन में किरणें विकल हो गयी।

निशा की भी आखों से शबनम झरे,

शायद वह तुमसे बिछड़ कर गयी।।

शीतल हवायें चुपके से गुजरी,

कम्पन यह तन में नया सा हुआ है।

मादक सी खुशबू मन में समाई,

लगता है तुमने छिपकर छुआ है।।

संगीत के स्वर लिये साज सरगम,

ऊषा के पायल की नूपुर बजी।

निर्जन के झुर मुट में कलरव हुआ,

आने की उनको भी आहट मिली।

खामोश कलियाँ मृदुल मन्द हँसना,

उपवन का तन मन महका हुआ है।।

अंगड़ाई लेकर भौरा जगा क्यों,

लगता है तुमने छिपकर छुआ है।।

होठों से मेरे ये गीतों की पंक्ति,

अनायास ही क्यूँ निकलने लगी।

अनचाहे पैरों में थिरकन हुई,

भूली सी यादें भी आने लगी।

आया है जैसे कोई मीत अपना,

धरती पर लागे ज्यों उत्सव हुआ है।।

रागों की बीणा बजने लगी फिर,

लगता है तुमने छिपकर छुआ है।।

बिछड़ी चकवी

हो गई स्याह सिंदूरी संध्या संझवाती अब सिहर जलेगी।

बिछड़ी चकवी सरिता तट पर घुटघुट विरहन अगन जलेगी।

गोधूली के मिटते ही सपनों का संसार सजाने।

दीप शिखा की बलिवेदी पर जाने कितने प्रेम दिवाने।

हँसते गाते प्रीत मिलन के सुन्दर गीत सुहाने।

आयेगें मिल दूर देश से आहुति करने परवाने।।

घने तिमिर के उलझे पथ पर जुगुनू बनकर ज्योति जलेगी।

 

बिछड़ी चकवी......

ज्योति हीन यह शक्ति बिना प्रकृत ठहर सी जायेगी।

योगी और बियोगी की भी एक कहानी हो जायेगी।

विजनशून्य सी सूनीसूनी निस्तब्ध धरा हो जायेगी।

होंगे केवल तारे नभ में विवश विभा रह जायेगी।।

सपन सुनहरे साथ में लेकर निशा अकेली गमन करेगी।

बिछड़ी चकवी......

 

सबनम बूदें मलयज लेकर दूर गगन से आयेगी।

मधुवन के सूने आंगन को खुशियों से भर जायेंगी।

उतर चाँदनी कलियाँ संग मिल जुल कर रास रचायेंगी।

सकुचसकुच कर ताल कुमुदनी मन्द मधुर मुस्कायेगी।।

तारों के संग अम्बर में चन्दा की बारात चलेगी।

बिछड़ी चकवी...

चिर प्यास देकर

कर लिया पट बन्द उसने रश्मि दीपक साथ लेकर,

कौन है पूछो बटोही क्यों गया चिर प्यास देकर।।?।।

 

अनल की उर्मियों सी हैं जल रही मरूरेतियाँ।

कुंज काँटो से घिरी उलझी हुई पगडंडियाँ।

रिक्तता का बोझ मन पर दर्द अति ही क्रूर है।

चलना यहाँ कितना कठिन पनघट अभी भी दूर है।।

 

हो रहा दिग हीन अम्बर आ रहा तम घेर कर।

दौड़ कर कितना चलूँ मैं वेदना के दंश लेकर।।

 

तप रहा मेरा बदन यह छू रही आकर मलय जो।

हो गया है दूर ओझल छोड़कर आया निलय जो।

विकट कितना पार करना रेत का बिखरा कछार।

भँवर का है जाल फैला हर तरफ गिरता कगार।।

 

जल भरे छाले हरे हैं गिर पड़ा थक हार कर।

आ गया फिर अकिचन द्वार पर इक आश लेकर।।

 

अजनबी मुझको लगा पर कारवाँ का मीरथा वह।

रश्मियों की मेखला संग चल रहा था साथ वह।

परिचय नहीं कैसे कहूँ लक्ष्य का गंतव्य था वह।

राह में फिसले कई पल आ खड़ा था साथ वह।।

 

कौन सा वह गीत गाँऊ शब्द को सुन्दर सजाकर।

जा सके जो है कोई क्या मनुहार का संदेश लेकर।।?।।

कर लिया.....

कौन प्रिये

अन्जानी सी कैसी यह प्यारी बहार।

लरज चली आंगन में छम छम बयार रे।

मचल उठीं लहरें और सरिता कगार।

छेंड़ गया कौन प्रिये सरगम सितार रे।।?।।

तारों की ओढ़नी ओढ़ लिये माथ पर।

चाँदनी के संगसंग नवल चाँद देखकर।

थिरक रही यामिनी सोलह शृंगार कर।

बिहँसी है कुमुद कली मरूधर कछार रे।

छेड़ गया कौन......

चला गया दूर बहुत गाता बंजारा भी।

आये लौट दूर गये पंछी आवारा भी।

माझी ने डाल दिया लंगर भी लौटकर।

एक टक चकोर देखे सपना संसार रे।।

छेड़ गया कौन....

जूही ने चुपके से कानों में बोल दिया।

मधुवन में बेला ने मधुरस भी घोल दिया।

राहों पर ज्योति लिये आशा के दीप जले।

मन्द मधुर मलय चली जीवन का सार रे।।

छेड़ गया कौन.....

महकी कस्तूरी वन उपवन भी महका।

धीरज में व्याकुल हो मृग मन भी बहका।

निर्झर भी गाते हैं स्वागत का गीत ले।

निर्जन में बजते ज्यों वीणा के तार रे।

छेड़गया कौन प्रिये सरगम सितार रे।।?।।

अधूरा गीत

बिखर गयी है शब्द की माला टूटा है एक तारा।

क्या गॉऊ तुम्हे सुनाऊँ अभी अधूरा गीत हमारा।।?।।

 

लहरों का आधात प्रबल है घिरता घन अंधियारा।

तूफानों से नाव घिरी है ओझल दूर किनारा।

मन बोझिल है तन बोझिल है उलझा साज हमारा।

क्या गाँऊ तुम्हें सुनाऊँ अभी अधूरा गीत हमारा।।?।।

 

खाली गागर सूना पनघट ढूँढू रैन बसेरा।

क्षितिज छोर में छिपकर बैठा जाने कहाँ सवेरा।

बिछड़ गये हैं साथी संगी बिछड़ा मीत हमारा।

क्या गाँऊ तुम्हे सुनाऊँ अभी अधूरा गीत हमारा।।?।।

 

परवानों के पंख जले हैं तड़पन प्रीति निभाती।

सिहर सिहर कर जले अकेली दीप शिखा की बाती।

सोच रहा है मन बैरागी झूठा जगत सहारा।

क्या गाँऊ तुम्हे सुनाऊँ अभी अधूरा गीत हमारा।।?।।

 

शैल शिखर पर खड़े विटप सब लगते हैं वैरागी।

घर वन सब ही उजड़ गया है कैसे कह दूँ अनुरागी।

ओस बूंद से प्यास बुझे क्या, पतझर ने तन जारा।

क्या गाँऊ तुम्हे सुनाऊँ अभी अधूरा गीत हमारा।।?।।

पथ निलय का

ढूढ़ता हूँ पथ निलय का अजनवी सा राह में।

यह दिवस फिर ढल गया एक अधूरी चाह में।।

हो गयी रवि ज्योति धूमिल आ रही है तिमिर मिलने।

इक निराशा की हताशा अब लगी है गीत लिखने। 

साथ के हमसफर हमसे हो गये है दूर कितने।

लग रही है विवश विह्वल यामिनी के द्वार किरने।।

मिट गये कितने शलभ् मन एक मिलन की चाह मे।।

ढूढ़ता हूँ.......

 

पाँव में कम्पन हुआ यह स्वॉस भी थकने लगी।

स्वप्न पलकों पर तिरोहित बेदना बढ़ने लगी।

साज के हर तार टूटे रागनी कुठित हुई ।

खो गया प्रतिबिम्ब मेरा यह निशा छलने लगी।।

भ्रम भरी कुंठा लिये अब हो रहा गुम राह में।।

ढूढ़ता हूँ.....

 

नाव बिन माझी हुआ ले चलूँ पतवार वैâसे।

राख की चिनगारियों से मैं करूँ मनुहार वैâसे।

हर तरफ केवल निशा दिग हीन पथ वैâसे चलें।

दौड़ कर किससे मिलूँ नि:शब्द अम्बर के तले।

द्वार बिन दीपक दिखे है पूछूँ कहाँ किस द्वार में।।

यह दिवस फिर.....

कौन पनघट पर प्रिये

जाचुकी प्यारी विभा तो हो गयी वह दूर ओझल।

कौन पनघट पर प्रिये जो बज रही है मधुर पायल।

मंजरी मकरन्द ले मधुगंध बिखराने लगी।

मदिर मन्थर मलय शीतल गीत नव गाने लगी।

कौन आया कौन आया नीड़ में कलरव हुआ।

नींrद से जागी कमलनी देख मुसकाने लगी।।

कुहासों के घने साये हो गये हैं स्वेत बादल।।

कौन पनघट.....

 

धरा धानी ओढ़ साड़ी नव वधू लगने लगी।

कली किसलय फूल बनकर साख पर हँसने लगी।

महकता बिखरा हुआ राह का हर शृंगार यह।

देखकर रागनी की बाँसुरी बजने लगी।।

तिमिर की इक रेख पतली लग रही ज्यों कोर काजल।।

कौन पनघट.....

 

रश्मियों की मेखला में स्वर्ण का उबटन लगाकर।

सतरंग की प्यारी छटा ओस लड़ियों में पिरोकर।

द्वार पर रचने लगी है चित्र की सुन्दर रंगोली।

अर्चना में प्रकृत न्यारी पुष्प की थाली सजाकर।।

सर्जना में चेतना लख हो रही है प्रकृत मादल।।

कौन पनघट पर प्रिये जो बज रही है मधुर पायल।

भौरे से पूछो

लजाती कुमुदनी हँसता है पंकज,

होता है मन में विचारो का मंथन।

भौरे से पूछा हमने बस इतना,

सुनाते हो किसको तुम अपना यह गुंजन।।

कहीं दूर बागों में बोली है कोयल,

डालों पर डाले फूलों का झूला।

गलियों में मधुरस लुटाता हुआ,

मदिर मन्द मन्थर मलय राह भूला।।

चूती है नभ से शबनम की बूँदे

हँसता है कलियों का प्यारा सा नन्दन।

भौरे से पूछा...

आती ये लहरें लिखती हैं गजलें

कहीं दूर तट पर चहकता है चकवा

विरहन की मारी चकवी से मिलता

उमग प्रेम बन्धन निभाता है मितवा।।

थिरकती तितिलियाँ पहन ओढ़ चूनर।

मधुवन का आँगन महकता है चन्दन।।

भौरे से पूछा....

हुई एक आहट लिये साथ गागर

पनघट पर खनकने लगी चूड़ियाँ,

छिपी दूर जाकर निशा व्योम में

कसक मनमिलनकी बढ़ी दूरियाँ।।

प्राची के आँगन में पायल की रूनझुन

विहँस भोर गाने लगी प्रीत बन्धन।

भौरे से पूछा....

निर्जन में कौन सखी

अम्बर में थिरक रही चन्दा संग चाँदनी।

निर्जन में कौन सखी छेड़ रहा रागनी।।?।।

धरती पर कौन अतिथ आया है घूमने।

पतझर की वेदना प्रकृति लगी भूलने।

मन्दमन्द मलय लगी डालडाल झूलने।

चंचरीक मंजरी को मस्त लगा चूमने।।

महकी है गलीगली महक रही यामनी।

निर्जन में....

सेमल के तन मन पर फूलों की चादर।

शान्त हुआ देखो वह टेसू का तेवर।

खिलीखिली सजीसजी पुष्पों की झूमर।

ओढ़ लई धरती ने रंग भरी चूनर।।

मदिरमदिर मस्ती में बहक रही कामनी।

निर्जन में....

होने लगा नीड़ो में कलरव का क्रंदन।

मधुरस से भीग गया सुमनो का नन्दन।

प्यारी सी जानी यह नूपुर की रून झुन।

बांध रही मन में अटूट प्रीत बन्धन।।

खेतों में खेल रही सबनम की रानी।

निर्जन में....

पनघट पर फैली गोधूली की धूलिका।

सांझ ढली द्वार जली दीपों की मालिका।

सिहरसिहर लौट रही गोकुल की गोपिका।

श्याम मिले राह में संग लिये राधिका।।

बेसुध सी खड़ीखड़ी बिवस दिखे ग्वालिनी।

निर्जन में कौन सखी छेड़ रहा... रागनी।।?।।

तेरे साथ चलते

लिये प्रीत बन्धन पकड़ बाँह पथ में।

रही चाह मन में तेरे साथ चलते।

लताओं में छिपते, बहारों में खिलते।

कही दूर चल कर सितारों में बसते।।

तितलियों की थिरकन भौरों की गुंजन,

कलियों का हँसकर गले से लिपटना।।

शबनम का गिरना फूलों को छूना,

नीड़ों में चिड़ियों का खुल कर चहकना।।

हवाओं में उड़ते शिखरों से झरते,

सागर की लहरों पर मिल कर थिरकते।।

कहीं दूर.....

अम्बर का ऑचल, धरती का आँगन,

निर्झर से झरता मधुरगीत पावन।।

सूना सा निर्जन रागों का सरगम,

उपवन में हँसता ऋतुओं का सावन।।

सरिता में बहते किनारों से मिलते

फिजाओं में संगसंग बिखर कर महकते।।

कहीं दूर...

तेरी प्रीत में यह धवल चाँदनी,

मगन मन रही कर मधुर साधना।।

नदिया किनारे विकल हो चकोरी,

तेरा रूप लख, कर रही याचना।।

सरेराह चलकर कहीं गर फिसलते,

विवसता पर मेरी मृदुल मन्द हँसते।।

रही चाह मन में तेरे साथ चलते।

कहीं दूर....

देखो तो नीरे

नयन खोल प्राची में देखों तो नीरे,

लिये साज सरगम वह तुझको जगाने।।

तेरे द्वार आया है कोई रे पगली,

प्रणय रागनी के मधुर गीत गाने।।

किरनों के संगसंग ऊषा नवेली,

जीवन के रागों का गुन्जन हुआ है।

पनघट जो सूना था अब तक रे पगली,

पायल की छमछम से रूनझुन हुआ है।

डालो पर हँसते कोपल के द्रुमदल,

कोमल सा मुखड़ा भी कुन्दन हुआ है।

हवाओं के पावों में थिरकन हुई है,

दिशाओं का आंगन भी कंचन हुआ है।।

तिमिर ओढ़ सोयेगी कब तक रे पगली,

छिपकर निशा भी लगी दूर जाने।।

तेरे द्वार आया....

पेड़ों पर डाले बसेरा विहग जो,

नीड़ों में उनके भी कलरव हुआ है। 

शवनम की बूदें तो हीरक बनी अब,

विजन दूर निर्जन भी नन्दन हुआ है।

घूँघट में छिपती कुमुदनी लजाती,

चन्दा से बिछड़ी मन अनमन हुआ है।

विहँस दौड़ चकवी मिली है किनारे,

साजन के संग मन सावन हुआ है।।

जीवन की सुन्दर सुखद भोर देखो,

पगपग पर तेरे वह खुशियाँ लुटाने।।

तेरे द्वार आया है.....

पूजा की थाली में फूलों की माला,

कलियों से सजकर यूँ मधुवन हुआ है।

चुपके से उसने छुआ है तुझे री,

लिये प्रीत निश्चल मन चन्दन हुआ है।

तेरे भाग जागे अँधेरा मिटाने,

गलियों में देवों का फेरा हुआ है।

सपनों की दुनियाँ से जागो सखीरी,

द्वारे पर तेरे यह सबेरा हुआ है।।

लिये प्रेम जागो उठो ऐ सखी री,

आँगन में तेरे वह जीवन सजाने।

तेरे द्वार आया है कोई रे पगली,

प्रणय रागनी के मधुर गीत गाने।।

मेघ प्रिये आना तुम

सपनों के गाँवों में जलती जब ज्वाला हो।

जीवन के पलछिन भी लगते विष प्याला हों।

मधुर मन्द मलय संग अम्बर के आँगन से।

सुधियों के दीप लिये मेघ प्रिये आना तुम।।

 

सागर की गागर से बूँदों के बादल बन।

स्नेह भरे भावों की सुन्दर-सी आँचल बन।

लिपट लिपट प्रियतम की सुन्दर सी बाहों से।

जीवन की आशा का आधार लिये आना तुम।।

 

रुनझुन-सी मूक बनी पायल की रागनी।

पनघट पर मौन खड़ी विह्वल हो कामनी।

विकल दिखे हिरनी जब प्यासी हो मरुधर में।

धीरज के सरगम का गीत लिये आना तुम।।

 

प्रतीची का आँगन जब लगे स्याह दिखने।

प्राची से आयें सितारे जब मिलने।

चन्दा संग किरनें थिरक जाय अम्बर में।

गमक भरी जूही की प्रीत लिये आना तुम।।

 

पाथर से लड़ती बनती मझधारा हो।

आतुर हो मिलने को बहती जलधारा हो।

सागर से मिलने का राग बजे निर्झर में।

संदेश भरे रागों का संकेत लिये आना तुम।।

 

स्वाँती की बूँदों बिन तड़प रहा कानन में।

याचक बन चातक, जब प्यासा हो निर्जन में।

प्रियतम की बातें तुम मन्थर-सी गर्जन में।

सपनों के सर्जन का संगीत लिये आना तुम।।

मेरा यक्ष

कुछ देर ठहरो मेघ नभ में शान्त सूने निबिड़ तम में।

शायद वहाँ है यक्ष मेरा, विवस विहवल विकल गम में।

दिख रहा दिग हीन अम्बर कालिमा ओढ़े हुये।

खो गयी संध्या विजन में आँख में आँसू लिये।

दूर तक सुनसान वन में पदचिन्ह के संकेत देखो।

डालियाँ टूटी हुई कुछ झाड़ भी उलझे हुये।।

प्यास में कितना विकल मृग है खड़ा वह भ्रमित भ्रम में।

शायद वहाँ हैं.......

लिपटी हुई है तरू लतायें ज्यों मिलन की चाह में।

हँस रही जूही कली चाँदनी संग राह में।

झूमती यह सुमन लतिका डाल कर गल बाँह में।

खिल उठी लो कुमुद कलिका स्वप्न की नवछाँह में।

लख रही मुझको चकोरी है चकित क्यों व्योम में।।

शायद वहाँ है.......

तारे सितारे गूंथ अलके सज खड़ी यह यामनी

निस्तब्ध सूने पाथ पर नि:शब्द हो ज्यों कामिनी।

विहग कलरव नीड़ सरगम सो गयी हर रागनी।

योग की मृदु साधना में मूक हो ज्यों योगनी।।

दीप ले खद्योत बैठा शान्त सूने सघन तम में।

शायद वहाँ है........

चातकी गुमसुम निहारे चाँदनी थकने लगी।

नयन में भर नीर अपने, रात भी ढलने लगी।

प्राची दिशा की कोर में लालिमा की रेख पतली।

देख पनघट छोड़ सूनी प्यारी निशा जाने लगी।

ओस से भीगा बदन ले लड़खड़या भ्रमर भ्रम में।

शायद वहाँ है यक्ष मेरा विवस विह्वल विकल गम में।

साये घनेरे

बहुत दूर ओझल क्षितिज पार तुम हो,

राहों में कितने छाये अंधेरे।

आवाज देकर कहाँ मैं पुकारूँ लिये साथ यादों के साये घनेरे।

शबनम की चादर ओढ़े हुये,

घूँघट में कलियाँ विहंसने लगी।

प्राची में शायद तुम्हे देखकर

ऊषा की पायल भी बजने लगी।

सरोवर में सोई हुई थी जो कलिका

सकुचा कर वह भी संवरने लगी,

देखा है तुमको कहीं दूर नभ में

फिजायें भी वैâसे थिरकने लगी।।

भौरों के होठों पर गीतों की गुनगुन, मधुवन के आंगन में खुशुबू बिखेरे।

छूकर हवायें तुम्हे आज आई, लिये साथ यादों के साये घनेरे।

यामनी भी लगे कामनी सी

नई रूपसी बन निखरने लगी।

चम्पा चमेली हँसी रात रानी

बागों में बेला गमकने लगी।

विहँस कर कुमुदनी खिली ताल में

राहों में जूही महकने लगी।

कहीं दूर नभ में जगी ज्योति मन की

चकोरी भी देखो चहकने लगी।।

बालों में तारों को टांके हुये झिलमिल सितारों के लेकर उजारे।

आये हो नभ में धवल चाँद बनकर लिये साथ यादों के साये घनेरे।

चिर प्यास

ले अमिट चिर प्यास अपनी फिर शिखा बुझने लगी।

अजनवी सी राह में लो रात भी ढ़लने लगी।।

एक मिलन की चाह लेकर रास्ता चलते रहे।

पाषाण की पगड़डियों पर पाँव भी बढ़ते रहे।

लक्ष्य थे गन्तव्य के तुम राह के अवलम्ब भी।

आलोक के स्तम्भ हो तुम रूप के प्रतिविम्ब भी।।

तेरी विरह के वेदना की बात फिर खलने लगी।

अजनवी सी......

 

उलझे हुये है राह भूले व्योम के ये चाँद तारे।

कब कहॉ होगे तिरोहित कब तलक इनको निहारे।

निविड़ तम में कहाँ जा, किस द्वार की साँकल बजाऊ।

दूर तक सुनसान पथ पर कौन सा मैं गीत गाऊ।।

टूट कर मिटने का भय, मन में व्यथा पलने लगी।

अजनवी सी.....

 

शलभ संग यह यामनी भी प्रेम की ले रागनी।

हँसने लगी आ व्योम में चाँद के संग चाँदनी।

अव्यक्त थे पर व्यक्त हो तुम हर तरफ दिखते रहे।

गिरने से पहले बाँह पकड़ी साथ तुम हँसते रहे।

आश की तड़पन लिये यह निशा छलने लगी।

अजनवी सी राह में लो रात भी ढ़लने लगी।

एक दिया जले है

माटी का एक दिया जले है पलपल घटता तेल।

बजे बंसुरियाँ तब तक, यह स्वासों का है खेल।।

 

एक कली ने घूंघट खोला एक फूल मुसकाया।

एक भ्रमर ने गीत गुना तो एक सुमन मुरझाया।।

भोर हँसे फिर सांझ ढ़ले प्रतिदिन का है खेल।

माटी का....

 

बाजार लगी दुकान उठी, छँटती लम्बी भीड़।

आती देखी दूर निशा को लौटे पंक्षी नीड।।

नहीं रूकी पनहारिन कोई, पनघट हुआ अकेल।

माटी का एक.....

 

रेतों का एक महल बनाये देकर अपना नाम।

मिटा दिया लहरों ने आकर बना बनाया काम।।

मिट जाये कब गर्त में देखों अपने सारे खेल।

माटी का.....

 

अहम् भरा वैभव लेकर करते मद के फेरे।

पाषाणों पर कीर्ति भरा अपना अभिलेख उकेरे।।

पर धन को हम अपना कहते कहाँ बनेगा मेल।

माटी का ......

 

नहीं कोई कुछ लेकर आया, जाओगें सब छोड़।

स्वासों का यह सफर है साथी, जीवन है एक मोड़।।

कठ पुतली का यहाँ पर कोई खेल रहा है खेल।

माटी का एक दिया जले है, पलपल घटता तेल।

संग तुम चलते रहे

जब जहाँ देखा तुम्हे हर मोड़ पर मिलते रहे।

वैâसे कहूँ मैं राह भूला संग तुम चलते रहे।।

छिप गयी थी रश्मियाँ औ स्वप्न भी धूमिल दिखे।

दूर तक छाया तिमिर था दीपकुछजलते मिले।

कल्पना की अल्पना सी चल रहे थे साथ मेरे।

वह निशा नि:शब्द थी, उडगन हमे हँसते मिले।।

बिखरे पड़े पाषाण पथ पर रास्ते बनते रहे।

जब जहाँ.....

 

पाँव की नव पैजनी में राग का सरगम संजोये।

डाल की नव बल्लरी पर पुष्प के गुच्छे सजायें।

दूर तक एकान्त पथ पर पाँव के पद चिन्ह देखे।

मोतियों सी इस धरा पर ओस की लड़ियाँ बिछाये।।

भोर की लाली लिये तुम सर्जना करते रहे।

जब जहाँ.....

 

हिम शिखर से निर्झरों में प्रीत बन कर बह चले।

नव सुमन के गन्ध लेकर मधुमलय बनकर मिले।

भ्रम भरी यह भावना अब लग रही मुझको मिथक।

सच लगी यह सोच मुझको वैâसे कहाँ तुमसे पृथक।।

मेरे हृदय में प्राण बनकर साधना करते रहे।

जब जहाँ देखा तुम्हे हर मोड़ पर मिलते रहे।

आ गयी नभ यामनी

छेड़ दी संध्या सिंदूरी शान्त नभ में रागनी।

रूप का शृंगार कर के आगई नभ यामनी।।

व्योम की रवि रश्मियाँ नैराश्य की दे वेदना।

खामोश सी पगडंडियाँ सहती हुई अवहेलना।

मिटते क्षितिज के कोर पर गीत की थपकी सुनाती।

नव प्रणय के भाव लेकर आ रही फिर चेतना।।

छुपतीछुपाती डाल तन पर लाज की वह ओढ़नी।

रूप का शृंगार.....

मनुहार के नव गीतगाती लौटती पनहारियाँ।

जोहती पलकें बिछाये नीड की किलकारियाँ।

देख कर बढ़ता अंधेरा राह में खद्योत यह,

आलोक करने आ गये बन दीप की चिनगारियाँ।।

चकित चंचल चाँद के संग आ रही सज चाँदनी।

रूप का शृंगार.....

महकी हवा सिहरन भरी बहने लगी ले प्रेम हाला।

पे्रम की मधु साधना में आ रही ज्यों देवबाला।

प्रीत की एक व्यंजना सी दिख रही यह तिमिर छाया।

सज गया आंगन गगन का झिल मिलाती दीप माला।।

शान्त मन विह्वल धरा यह, बन गयी एक कामनी।

रूप का शृंगार......

साथ में ले महक मादल राह में बिखरे सुमन।

पॉव की पायल छिपाये नीद से जागे नयन।

थमथम कर आती, जानी हुई पदचाप लगती।

अधखुली पलके लिये मिल रहा शायद सजन।।

मन्द स्वर के राग पर ज्यों नाचती कोई योगनी।

रूप का शृंगार कर के आगई नभ यामनी।

प्यारा वतन

भारत है अपना यह प्यारा वतन,

जीवन के ख्वावों का न्यारा चमन।

आँगन में बसते है खुशियों के पल,

कणकण को सत्सत् है मेरा नमन।।

अम्बर को छूते है हिम के शिखर,

चमकती है किरने यहाँ पर बिखर।

हँसती है डालों पर कलियाँ निखर,

मरुधर के आँगन में फूलों का घर।।

महकता हवाओं में खिल कर सुमन,

कणकण को सत्सत् है मेरा नमन।

दिखती है कलकल में प्यारी लगन,

बहती है अबिरल हो सरिता मगन।

निर्झर भी सुन्दर सरगम सजाये,

योगी से लगते है निर्जन के वन।।

निश्च्छल सा मन ले विचरता पवन,

कणकण को सत्सत् है मेरा नमन।

सूरज की किरणें भी करती ठिठोली,

मन को रिझाती है विहगों की बोली।

बागों की डालों पर डाले हिड़ोला,

ऋतुयें भी रचती है सुन्दर रंगोली।।

धानी सी धोती में निखरा बदन,

कणकण को सत्सत् है मेरा नमन।

झूठा जग व्यवहार

साज संरगी जोगी गाये सुन लो यह संसार।

सम्बन्धों का बन्धन सारा झूठा जग व्यवहार।।

 

बड़े सबेरे रची महावर नैनन कोर सजाया।

चुन कर सुन्दर फूल लतर की गजरा बाल बनाया।

 

सज धज कर दर्पण देखी बिदियाँ माथ लगाया।

मंगल गीत विहँस कर गायी, हँसि सिन्दूर भराया।।

 

जोड़ा कितना नाता रिस्ता मान लिया सच प्यार।

कर्मों की एक गठरी मोटी बांध लिया अतिभार।।

 

बाट जोहते दिन बीता है ढ़लती साँझ अकेली,

साथ स्वजन सब छोड़े अपनी सूनी नई हवेली।

 

बिन दीपक के द्वार देहरी भूली गीत पहेली।

खोले घूँघट दुल्हन बैठी साथ न संग सहेली।।

 

सघन निशा में उलझन भारी कब होगा भिनसार।

कौन चलेगा साथी संग में, कौन बने पतवार।।

 

लोग कहें यह न घर तेरा, सच लागे उपदेश।

साजन का घर दूर बहुत हम बसे पराये देश।

 

बारबार चिठियाँ लिख भेजे आया है संदेश।

प्रिया मिलन की बात बावरे प्रीतम का आदेश।।

 

नदिया गहरी तेज धार है, भंवर भरी मझधार।

बिन नाविक के नाव हमारी जाना है उस पार।।

गुंजन के राग

जीवन का मतलब क्या भ्रमर भूल जाओ।

गुंजन के राग नये गीत मधुर गाओ।।

प्रखर रश्मियों के कुलिश घात सहना।

हवाओं की सिहरन में हँसते ही रहना।

यही रूप है इस प्रकृति की नियति का

काँटों के संग को सुखद नीडकहना।।

बातें हैं राहों की सहज सहतेजाओं।।

रूपों की रंगत में जीवनतराना।

परागों का तुझको मिला जो खजाना।

इसे ही कहूँगा मैं कर्मो की रेखा।

नही तेरा अपना इसे भी लुटाना।।

सुख दुख के हर पल में सरल रूप लाओ।

पल छिन का जग यह पलपल सजाना।

रागों में गीतों का सरगम बजाना।

स्वासों के पल का सफर है यह साथी।

न अपना न तेरा कोई गीतगाना।।

रागों के बन्धन में सहज गुनगुनाओ।

रेशम की डोरी ये जीवन का पलना।

माटी की मूरत का सजना संवरना।

वीणा की डोरी कहाँ टूटजाये।

सजी भोर देखों इसे साँझ ढलना।

चलो साथ ऊषा के नई राह पाओ।

हवाये जो भटकी तेरे द्वार आकर।

लगा झूमने तू डाली पर हँसकर।

यही भूल तेरी अपनी रे पगले।

सपने को माना अपना समझ कर।।

अपने को समझो अकेले ही गाओ।

जीवन का मतलब क्या भ्रमर भूल जाओ।

पतझर हुआ उदास

रंग बिरंगा निर्जन देखा, पतझर हुआ उदास।

गलीगली में फूल सजाता, घूम रहा मधुमास।।

 

लगा कर बिदियाँ अलसी झूमे मदमाता कचनार।

देख मगन मन मैना नाचे, सेमल का शृंगार।

 

धवल फूल की माला पहने हँसता है मन्दार।

खिले सुमन को देख डाल पर भ्रमर करे गुंजार।।

 

बेर पेड़ पर सुगना बैठा, तोड़ रहा उपवास।

प्रेम भाव के रस में डूबा जोगी हुआ पलाश।।

 

दूर देश से कोयल आई डाल पर डाले डेरा।

अलख जगाता कौंआ घूमें, करे नीड का फेरा।

 

थिरकथिरक कर तितली नाचे मतवाली बन अन्धी।

झोली भरती मधुरस की घूम धूम मधु गन्धी।।

 

अमराई के सूने मन में उछल पड़ा उल्लास।

दु्रम दल की नव कोपल देखी जाग उठा विश्वास।।

 

गुम सुम बैठी डाल गिलहरी, देखे रंग रंगोली।

उड़ कर आते विहग संग में करते नई ठिठोली।

 

धरा धूल से लिपट रही है, शीतल मन्द पवन।

ज्योत्स्ना की रजत रश्मि से उज्जवल हुआ गगन।।

 

हँसी सर्जना देख सृजन की होता नवल विकास।

नई रोशनी करता सूरज लेकर नया प्रकाश।।

तुम भी चलो

धरोहर नहीं है धरा यह किसी की

समझ पथ इसे बस पथिक बन चलो।

हम भी चलें साथ तुम भी चलो।

जहाँ भी मिलो कारवाँ बन चलो।।

फूल काटें मिलें, राह सूनी मिले।

पाँव छाले पड़ें, साँझ ढलती मिले।

दुश्वारियाँ कितना भी हो साथ 

भोर लाली लिये रात काली मिले।।

रवि रश्मियों का आलोक लेकर

घनेरे तिमिर में किरन बन चलो।।

लुटाते चलों प्रीत प्यारीलिये

निराशा के मन में आशा जगाते।

चलो राह पर दीप माला सजाते,

भटके जो पथ में उन्हें पथ बताते।।

लिये हाथ अपने धीरज की ज्योति

मरुधर में सुन्दर चमन बन चलो।।

यहाँ क्या है अपना जगत छूट जाना,

गई रात बीती कहाँ फिर ठिकाना।

मिले साथ कैसे इसे योग कहलो

मुसाफिर है हम तुम कहीं दूर जाना।।

परागों की लड़ियाँ बिखेरो हवा में

जहाँ के लिये तुम सुमन बन चलो,

चन्द स्वासों का केवल सफर जिन्दगी है।

बाँह पकड़े हुये हम सफर बन चलो।।

सखी री

रवि रश्मियों की नई रोशनी संग

ऊषा की लाली थिरकने लगी है।

काटों की डालों पर फूलों कि कलियाँ

मधुर मन्द देखो विहसने लगी है।।

 

खाली है तेरी गागर सखी री

काहे तू नयनों में निदिया सजोयें।

द्वारे की साँकल खोलो चलोरी

पनघट की गलियाँ तुझको बुलायें।।

 

नया राग सरगम लिये साथ अपने

मधुवन में कोयल कुहूकने लगी है।

आमों की डालों में गुमसुम सी सोई

नई मंजरी भी महकने लगी है।।

 

बाँसों के झुरमुट में कलरव हुआ है।

सूनी गली का नहीं डर सताये।

बदला कलेवर तिमिर का चलोरी

पनघट की गलियाँ तुझको बुलायें।।

 

शीतल हवायें जलन दे चली है

पपीहे की बोली तड़पने लगी है।

बिछड़ों का कैसा मिलन हो रहा है

चकवी गले से लिपटने लगी है।

 

कितनी सलोनी है अलकें तुम्हारी

नयनों में काहे काजल पिरोये।

सजना संवरना छोड़ो चलोरी

पनघट की गलियाँ तुझको बुलायें।।

 

हुई देर तुझको तो होगी अकेली,

कठिन राह पनघट की तुझको लगेगी।

कितना सुनेगी तू लोगो के ताने

राहों में नटखट की टोली मिलेगी।।

 

जगाओ न सोया है पीहर अभी तो

काहे तू अपना कंगना बजायें।

चुपके से गागर उठाओ चलोरी

पनघट की गलियाँ तुझको बुलायें।।

नव जागरण

आओ चलो मिल कर सजायें जिन्दगी का साज कोई।

नव जागरण का गीत गाता दे रहा आवाज कोई।।

 

यामिनी की कालिमा में भोर की लाली लिये वह।

नवल नूतन रश्मियाँ ले स्वप्न की थाली लिये वह।

वँâपकपाते हाथ पर दीप की ज्योती जलाये

द्वार की साँकल बजाता प्रीत की प्याली लिये वह।।

 

अजनवी सी राह पर मिल गया हम सफरहमराज कोई।

नव जागरण......

 

कलियाँ खिली उपवन हँसा हँसने लगा प्यारा सुमन।

महकी हवा बहकी चली प्यार की मादल छुवन।

गुनगुनाता गीत गुंजन डाल के हर छोर तक।

काँटे सजे, डाली सजी, सजने लगा सारा चमन।।

 

लोग अपने देश अपना कहने लगा यह राज कोई।

नव जागरण.....

 

हो गया असहाय कैसे सत्य का प्यारा वदन।

है व्यथा बस दर्द की झुलसा हुआ धरती गगन।

झझकोर कर अपनागिरेवाँ देख लो सोचो जरा

अंकुरण घायल हुआ क्यों मिट रहा सारा सृजन।।

 

सुन्दर नई प्यारी सुबह का दे रहा आगा़ज कोई।

नव जागरण.....

शीत बरषा ताप में बस योग की लाठी लिये वह।

मुठ्ठी बंधी भृकुटी तनी आचरण की थाती लिये वह।

सत्य का सरगम बजाता चेतना मेरी जगाता

द्वार पर भूखा अकेला संकल्प की बाती लिये वह।।

 

स्वर्ण में जैसे पिरोने आ गया पुखराज कोई।

नव जागरण.....

 

बिछी चौसर वह अकेला था अडिग हर गोट पर।

दर्द की वह टीस सहता हँसता रहा हर चोट पर।

शान्ति सेवा त्याग सुचिता बन गई उसकी जवानी।

कह रहा वह हम लिखेगें जीत की सुन्दर कहानी।।

 

धैर्य का सागर लगा वह जैसे अटल हिमराज कोई।

नव जागरण.....

 

पहन टोपी स्वयं अपनी तोड़ डाला सारा मिथक।

थक गई सारी निगाहें लग रहा कितना अथक।

व्यंग के आरोप के सहता रहा वह तीर तीखे।

अपमान सारा पी गया वह लग रहा शिव सा पृथक।।

 

नापता सूने क्षितिज को दिखने लगा परवाज कोई।

नव जागारण का गीत गाता दे रहा आवाज कोई।।

जिन्दगी के लिये

जाने न जाने कहाँ राह में कारवाँ बिन अकेले भटकते रहे।

आसमाँ के तले जिन्दगी के लिये दर्द काँटो का सहते गुजरते रहे।।

 

घनेरे तिमिर में अकेले कहीं,

अल्पना का नया इक चितेरा मिला।

नया राग गाता नई रागनी में,

नवल रश्मियों का उजेरा मिला।

अम्बर के आँगन हिंडोला सजा

मधुवन में सुन्दर बसेरा मिला

खिल उठी पांखुरी पुष्प की,

जिन्दगी को नया एक सबेरा मिला।।

चेतना की नई एक कहानी बनी अंकुरण में दिखे फिर निखरते रहे।

आसमाँ के तले जिन्दगी के लिये दर्द काँटो का सहते गुजरते रहे।।

 

तूलिका से नया रंग भरने लगा

एक कोना सजा वैâनवस सजगया।

दे दिया रूप सुन्दर सलोना मुझे

देख सूरत सुघड़ आसमां छुक गया।

छू चली ये हवायें महकने लगी

रागों से दामन मेरा भर गया।

गुन गुनाती मिली साथ विहगों की टोली

कल्पना का नया एक सफर सजगया।।

यह शहर आज अपना लगा स्वप्न लोको में पलपल विचरते रहे।

आसमाँ के तले जिन्दगी के लिये दर्द काँटो का सहते गुजरते रहे।।

 

रूप का गंध का दिव्य आकार ले

प्रीत का मैं अनूठा सृजन बन गया।

वेदना में व्यथा दर्द की ले कथा

बिरहन के मन की अगन बन गया।

चाँदनी में लिये हास बन मैं खिलूँ

मुग्ध चितवन लिये एक भजन बन गया।

बसे प्राण में जो सहज प्यार ले

किसी के हृदय का सुमन बन गया।।

यामिनी में धवल चाँदनी बन निखर, धरा से लिपट कर बिखरते रहे।

आसमाँ के तले जिन्दगी के लिये दर्द काँटो का सहते गुजरते रहे।।

 

कोकिला कंठ में तान बन कर सजा

भोर की मैं विचरती पवन बन गया।

वेसुधी में बुलाकर नचाने लगा

 कृष्ण की बांसुरी में गजल बन गया

छलक कोर की छोर में छिप कहीं,

एक पल में पलक का सजल बन गया।

नूपुरों में सजी राग झंकार की

प्यार की एक कहानी अटल बन गया।

बन गया मैं मिथक फिर कहानी कथा रूप बनता रहा हम संवरते रहे।

आसमॉ के तले जिन्दगी के लिये दर्द काटों का सहते गुजरते रहे।

आँकड़ा

दे रहा जो आँकड़ा वह देश के उत्कर्ष का।

है अभी भी झोपड़ों में गाँव अपने देश का।।

 

देश की वह विवसता पर दे रहा है आज ताने।

धवल सुन्दर भेष धारे आगया तुमको लुभाने।

 

चोट केवल कर रहा वह कोमल तुम्हारे भाव पर।

स्वप्न की दुनिया दिखाता मुसकुराता मंच पर।।

 

मारीच धर कर रूप आया स्वर्ण के झूठे हिरन का।

कुटिल उसकी हँसी ऐसी विष भरा फन शेष का।।

 

अच्छी तरह वह जानता है पिछड़े हुये इस ग्राम को

कह गया परधान से वह जीत के पैगाम को।

 

कौन वैâसे बिकेगा हर तरह से आँक लो।

जान लो मजबूरियाँ और चन्द पैसे फेंक दो।।

 

बो गया वह बीज देखो पास आकर भेद का।

वह बधिक क्या दर्द जाने छटपटाते भेड़ का।।

 

ताल पोखर नदी नाले सब पचा ली पेट में।

योजनायें खर्च कर ली जन्म दिन के भेट में।

 

बस इसी का जन्म होता और की तो मृत्यु है।

खबीसों से घिरा देखो गाँव का अभिमन्यु है।।

 

आ गया वह कत्ल करने प्रीत के विश्वास का।

उसमें भरा है भाव केवल राक्षसी अवशेष का।।

 

वैâसे बनेगा काम अपना आता इसे रूपक सजाना।

इनके लिये बस खेल है सच कहाँ वैâसे मिटाना।

 

घात करना छिपकर सदा दर्द पर मरहम लगाना।

है कला मालूम इसे घड़ियाल सा आँसू बहाना।।

 

दिख रहा है रूप इसका जैसे किसी करूणेश का

कब कहाँ ये रंग बदले निश्चित नही निरमेष का।।

 

भूख से व्याकुल विकल बिन वस्त्र के बच्चे मिलेगें।

तिलतिल तड़पते बोझ ढोते उम्र से कच्चे मिलेगें।

 

रोटी बिना फिर सो गया वह आज ढलती शाम को।

बरसात से भीगी सतह है जाये कहाँ विश्राम को।।

 

निराशा के घने तम में अर्थ क्या उपदेश का।

सोचो जरा कैसे मिटेगा धुन्ध इस परिवेश का।।

 

गैडें सरीखे खाल इसकी कैसे कटे तलवार से।

घात प्रतिघात कर बच जायेगा हरवार से।

 

जो लुटेरा ठग रहा हो त्याग दो बस प्यार से।

सिखा दो सीख उसको वोट के हथियार से।।

 

मतलब नही मालूम जिसे मानवीय उद्देश्य का।

गुन गुनायें गीत कितना गिरगिटों के भेष का।।

रंगो वाली

आज ढ़ली फिर बिना तुम्हारे सिन्दूरी यह शाम।

पूँछ रहा हॅूं दीप शिखा से लेकर तेरा नाम।।

बीते पल का अनुभव लेकर गाते गीत पंखेरू।

लौट रहे हैं नीड को अपने देख गगन का गेरू।।

मिटने लगे क्षितिज में सारे दृष्य प्रकृत अभिराम।

दूरदूर तक शान्त शिखर भी दिखता लाल ललाम।।

टूट रहा भ्रम उजले पन का सिमट रही गोधूल।

जीवन का इतिहास बताकर बिखर गये सब फूल।।

गाकर सरगम गया भ्रमर छिप, लोग करें बदनाम।

कुसुम लता की डाल झुकी है सर पर ले इलजाम।।

उड़ती केवल दिखे हवा में जले पंख की राख।

लिये कहानी सुधियाँ आई भर आई फिर आँख।।

सँझवाती का दिया अकेला छोड़ गई संग शाम।

दौड़ रहा है लिये पतंगा प्रेम भरा पैगाम।।

हर पल बढ़ती प्यास हमारी कैसी यह मजबूरी।

चाह रहा हॅूँ साथ तुम्हारा बढ़ा रहे हो दूरी।।

बूँदबूँद को तड़प रहा हूँ खालीखाली जाम।

घोर निराशा जटिल राह पर कैसे ढूढूँ धाम।।

घने तिमिर में चुपकेचुपके जाग रही अभिलाषा।

लिखने लगा गगन में चन्दा जीवन की परिभाषा।।

चलते पथ के थके पथिक को कहाँ मिले विश्राम।

नहीं पता है रूक जाये कब स्वासों का संग्राम।।

पूँछ रहा हूँ.....

अधूरी ग़जल

यादों के आँचल में सुधियाँ समेटे,

बहुत देर जागे गई रात ढल।

लगे एक कहानी से जीवन के पल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।१।

गुमसुम सिसकती चकोरी दिखी।

सपनों की झोली लिये रात भर

बहुत देर रोई शिखा दीप की

चाँदनी बिन गया चाँद भी अपने घर।

चाँद तारे गये दे गये गम नवल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।२।।

नीद टूटी हमारी बड़ी देर से

राह सूनी अकेला पथिक भी गया।

राग सरगम सजाते नये गीत का

न जाने कहाँ वह भ्रमर उड़ गया ।

नयन कोर भीगे हुये नम सजल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।३।।

काँटो की डालों पर कलियाँ खिली

रात रानी महकती रही रात भर।

अंकुरण में सृजन भाव बनता रहा

नींद टूटी नहीं खूब सोया शहर।

देख ऊषा की लाली खिला तो कमल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।४।।

स्वासो का सरगम बजाते रहे

उम्र भर हम शिला लेख लिखते रहे।

रंगोली सजाते नया चित्र रच

स्वप्न भूली कहानी बनाते रहे।।

रीता सा बीता वह जीवन का कल

नही लिख सके फिर अधूरी गजल।।५।।

मचलती थिरकती सी लहरों की दुनियां

किसे क्या पता है इन नदियों की उलझन।

गाये सुरीले भले गीत माझी

कहाँ कोई सुनता कस्ती की धड़कन।।

दर्पण सा सुन्दर दिखा नीर निर्मल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।६।।

हवाओं में केवल हम परचम हिलाते

लिखें सिर्फ काग़ज पर खर्चो का लेखा।

सिकन्दर की खाली हथेली दिखी

कमजोर थी उसके हाथों की रेखा।

मुझे देख हँसने लगा एक पागल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।७।।

कजरी के गीतों में कोयल मगन,

झुरमट में मादल मयूरी दिखी।

सावन मिला मुस्कुराता हुआ

झमा झम बरसती घटायें मिली।

खंजन के नयनों में दिखा नया काजल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।८।।

हवायें भी छूकर थिरकती रहीं

लताओं की कलियां खिली हो भले ही

विरह भाव लेकर विजन में अकेला

मिलन गीत गाता चला मै भले ही,

मौसम महकता लगे जैसे सन्दल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।९।।

कितना सजाया सवाँरा इसे

बहुत ढाक रखा था अपना बदन।

मान अपना गया, अजनवी हो गये,

मलमल में लिपटे दिखे बस नगन।

शोलों पर जल कर बने राख केवल

नहीं लिख सके फिर अधूरी गजल।।१०।।

कहो तो

अभी तो खिली है कली एक कमल की,

लिये साथ जीवन कहानी सजा कर।

नहीं नींद टूटी है सोये भ्रमर की,

कहो तो जगाऊँ कोई गीत गाकर?

तारो के गावों में चन्दा की डोली,

सुनो दूर निर्जन में वैâसी ठिठोली।

आया है चुपके से कोई गगन में,

काँटों की डालों पर रच दी रंगोली।।

धरती पर टपकी ये सवनम की बूँदे

गया है वह शायद निशा को रूलाकर।

विछुड़न में बिरहन सी रूठी दिखी है

कहो तो मनाऊँ कोई गीत गाकर।।

संध्या में ढलती ये सूरज किरन है

कोई बात पूछे ये जाती कहाँ है।

अंधेरे में लगता सृजन कोई करती

छुपछुप कर चुपके से रहती कहाँ है।।

पश्चिम में छिपती कहीं दूर जाकर

प्राची में दिखती नया राज लेकर।

सुबह और संध्या ये सूरज का ढलना

कहो तो बताऊ कोई गीत गाकर।।

नई अल्पना को नया रूप देता

जनम मृत्यु का एक दर्पण दिखा कर।

आना ये जाना है जीवन कहानी

कहो तो सुनाऊ कोई गीत गाकर।।

दीप हूँ जलता रहूँगा

एक सृजन हॅूं सर्जना की, आज हॅूं कल भी रहूँगा।

हो घना कितना तिमिर, मैं दीप हूँ जलता रहॅूंगा।

हो गये हो यदि अकेले

दिग भ्रिमत हो गहन गहवर।

दूर तक केवल विजन हो

छोड़ दे यदि संग रहवर।।

ज्योति है थाती हमारी, रश्मि ले हँसता मिलूँगा।

लडखड़ायें पाँव लेकिन, राह पर चलता रहूँगा।

चाहते हो तम मिटाना

आगे बढ़ो मुझको जलाओं।

बन विजन हो घोर निर्जन

राह पर मुझको सजाओ।।

तेल संग बाती लिये मै लक्ष्य तक जलता रहूँगा।

ले चलो तुम साथ मुझको तुंग शिखरों तक चलूँगा।

झूठ का सपना सजाना 

है नही उद्देश्य अपना।

भाता मुझे है मात्र केवल

सत्य का दीदार करना।।

दूर तट पर आश बनकर स्तम्भ पर जलता मिलूँगा।

हो कठिन यह डगर कितनी अवलम्ब देता ही रहूँगा।

हर तरफ आलोक देखो 

बिखरी हुई स्वर्णिम किरन।

नाचती कैसे धरा यह

खिल रहे पलछिन सुमन।।

आँधियाँ आयें भले ही ज्योति ले लड़ता रहूँगा।

बुझ गया यदि मैं प्रलय में नव सृजन में फिर मिलूँगा।

हो घना कितना तिमिर मैं दीप हूँ जलता रहूँगा।

नीड तिनको का

करीने से कितना सजाओ मगर

नीड तिनकों का एक दिन बिखर जायेगा।

अपने पराये ये सपने सलोने

छोड़ रिस्ते ये नाते बिछुड़ जायेगा।।

महकते चमन ये फिजाओं की रंगत

चाँद तारे सितारे धरा ये गगन,

महकती मचलती ढुरकतीहवा

डालों पर खिलते ये हँसते सुमन।।

तुम्हारे नहीं यें धरोहर धरा के

लिये साथ अपने कहाँ जायेगा।

रागों का सरगम सुहानी शमा

तितलियों की थिरकन भ्रमर गीत गुँजन

स्वागत में हँसते सजे द्वार तोरण

अम्बर तक पैâला परागों का चन्दन।

बिता लो यहाँ पर निशा यह घनी

भोर होते सफर पर निकल जायेगा।।

लिखो नाम अपने शिलालेख कितने

छोड़ जाओ कोई भी यहाँ पर निशानी

सजाओ संवारों करो राज कायम

नहीं याद रक्खेगा कोई कहानी।

यहाँ तो सभी एक मुसाफिर हैं साथी

नहीं कोई पल भर ठहर पायेगा।

सपनों सा सुन्दर भ्रमित एक दर्पण

ठहरता नही है कोई रंग दर्शन

माना मिटेगा सभी रूप यौवन

हताशा नही एक आशा है जीवन।।

चलो गुनगुनाते बढ़ो राह पर,

राग वीणा पर कोई निकल आयेगा

घनेरा तिमिर हो कहीं भी मगर

ज्योति जलते अंधेरा सिमट जायेगा।।

लहरों की उलझन

किनारे से कहती क्या मौजों की धड़कन।

चलो पूँछ लेते है लहरों की उलझन।।

एक जीवन की सुन्दर सी लगती लड़ी।

माला में गूंथी ज्यों मणियाँ-कड़ी।

अन्जान हलचल मची दूर तल में

फेंक दी है किसी ने कोई कंकड़ी।।

सिहरती हवाओं की चुपके से ढुरकन।

चलो............

सरगम के रागों में जीवन के लमहें।

छिपती छिपाती विखरती उमंगें।

चाँद आया उतर दूर आकाश  से

लिये प्रीत की वह स्वप्निल तरंगें।।

लगता है सरवर यह अम्बर का दरपन।

चलो...............

काटें न कलियाँ न फूलों का उपवन।

अन्तस में जैसे महकता हो चन्दन।

न तितली न कोई भ्रमर पास आया।

दिखी गुनगुनाती नया गीत गुंजन।।

सुधियों में खोई बिचारों की भटकन।

चलो..............

सृजन सर्जना और समर्पण लगन

सरसता के भावों का अनुपम मिलन।

कानों में कहती क्या कोई गजल

सिखाती है रेतों को जीवन चलन।।

सहती समझती फिजाओं की अनवन। चलो...

मंजिल तुम्हारे कदम चूम लेगी

चाहते हो अगर तुम शिखर चूमना

सोपान सारी शिलायें-बनेगी।

हौसला है कहीं गर तेरे साथ तो

हर पल सफलता तेरा साथ देगी।।

 

बीते यहाँ वर्ष कितने युगों के

किसी के झुकाये हिमालय झुका क्या?

हर रोज आता अन्धेरा धरा पर

किसी के डराये यह सूरज डरा क्या?

 

भले राख कितनी चितायें बनी हैं

सपूतों से धरती यह खाली हुई क्या?

रूधिर धार कितनी वही है धरा पर

कोई कहानी मिटाये मिटी क्या?

 

अंधेरा विजन हो भले पास तेरे

ऊषा की किरणें तेरा साथ देगी।

अडचनें लाख रोके तेरा पाँव लेकिन

काटों की बगिया सुखद छाँव देगी।।

 

हवाओं ने किससे कहाँ राह पूछा

जिधर भी गई है तूफान बन कर।

घटाओं को कोई कहाँ रोक पाया

वरसती धरा पर हैं सावन ही बन कर।।

 

हो न भले साथ मरूधर में कोई

अन्जान बढ़कर तेरा साथ देगें।

धरा की प्रकृत यह फिजाओं की हलचल

दिखते पराये भी तेरा साथ देंगें।

 

हिम्मत न हारो चलो राह अपनी

सागर की लहरें तेरा साथ देगी।

हो भले ही कटीली कठिन राह लेकिन

मंजिल तुम्हारे कदम चूम लेगी।

सुमन हूँ

हँसता हुआ सुमन हूँ, खुशबू बिखेर दूँगा।

परिवेश हो विजन का जीवन गुजार लूँगा।।

 

तोड़े हमें कोई भी पत्थर पर फेक दे वह।

पंख नोच ले या गजरे में गूथ दे वह।।

 

काँटो की डाल को भी सुन्दर सँवार दूँगा।

जुल्फों में विध गया तो अलके निखार दूँगा।।

 

आक्रोश रवि-किरन का, चन्दा की चाँदनी हों।

दूर हो सितारे विरहन की यामनी हो।।

 

जलते हुये तपन में सुरभित समीर दूगाँ।

स्पर्श हो किसी का स्निग्ध प्यार दूँगा।।

 

रिमझिम हो बादलों की घनघोर हो घटायें।

डालें हो पतझरी या ऋतुराज की फिजायें।

 

मरूधर के तपित तल पर अनुपम बहार दूँगा।

गलहार बन गया तो मधुरिम खुमार दूँगा।।

 

मन्दिर में याचना हो मसजिद में हो सदायें।

जीवन का हो मिलन या सजती हुई चितायें।

अँजुरी में साथ तेरे ईश्वर पुकार लूँगा।

समर्पण में मिट गया तो जीवन निखार दूँगा।।

यामनी

स्वप्न सारे तिरोहित हुये शून्य में,

जा रही छोड़ कर यह गगन यामनी।

थक गया वह अकेला पथिक व्योम का,

मुख मलिन चाँद का है विकल चाँदनी।।

 

बेला चमेली खिली रात-रानी।

सपनों की उलझन परियों की रानी।

शान्ति का उपवन रागों का सरगम,

सुधियों में आयेगें बनकर कहानी।।

 

दिशाओं के नयनों से छलके हैं आंसू,

गा रहे ओस बन कर विरह रागनी।

नही कह सकी बात कोई अधिक,

तोड़ कर प्यार के चल दिये सब मिथक।।

 

लिखती रही यह धरा एक कथा,

आखों से ओझल हुआ वह पथिक।

लिये लालिमा रवि किरन साथ में,

चली आ रही बन ऊषा कामनी।।

 

अधजगी यह प्रकृत फिर सँवरने लगी,

कमल की कली भी छिटकने लगी।

पनघट पर लेकर चली गागरी,

हाथ की चूडियाँ फिर खनकने लगी।।

 

दूर प्राची में थोड़ी सी लहचल हुई,

दिख गई रवि किरन की नई रोशनी।।

सुमन खिल गये चमन जग गया।

मधुर नींद से वह भ्रमर उठ गया।

 

विहग उड़ चले नीड को छोड़ कर

सृजन का नया कैनवस सज गया।।

चाँद तारे सितारे धरा पर उतर।

बन गये इस प्रकृत में नवल जीवनी।।

Ajay Kumar Pandey Ki Kavita Sangrah- Anant Mein Baj Rahi Bansuri