प्रत्येक कार्य के तीन भेद होते हैं- श्री गीता

राजसी औऱ तामसी मनुष्यों के लिए प्रत्येक कार्य के तीन भेद होते हैं, एक ही कार्य राजसी-तामसी व्यक्तियों के लिए अलग-अलग हो सकते हैं। श्री गीता ज्ञान

प्रत्येक कार्य के तीन भेद होते हैं- श्री गीता
Karya ke bhed by anand nidhi ji bahan

प्रत्येक कार्य के तीन भेद होते हैं- श्री गीता

-पूज्य बहन आनन्द निधि जी

श्री गीता विधान में प्रत्येक कार्य के तीन भेद बतलाये हैं। जो कर्म मनसा, वाचा कर्मणा राजसी मनुष्य करते हैं उनसे सर्वथा विपरित सात्त्विक मानव करते हैं और जो कर्म, तन, मन, वचन से सात्त्विक मानव करते हैं उनसे सर्वथा विपरीत तामसी मनुष्य करते हैं।

श्री गीता विधान में राजसी मनुष्यों के जो भाव आचरण बताये हैं वह अधिकांश वर्तमान में दूर देशवासियों के देखे सुने जाते हैं। जो पचास वर्ष पूर्व किसी अंश में भारत देश में भी थे।

गीता विधान में तामसी मनुष्यों के जो भाव आचरण बताये हैं वह वर्तमान में अत्यधिक मात्रा में भारत वासियों में व्यापक हुए हैं।

गीता में जो सात्त्विक सुख, शान्ति का वर्णन किया है वह ध्यानयोग अभ्यासी कुछ प्रेमी जनों ने किसी अंश में अनुभव किया है और करने में प्रयत्नशील हैं। जैसे विवाह कर्म के विषय में विचार करने से यह ज्ञान इतिहासों में पाया जाता है कि पहले विवाह की प्रथा स्वयंवर से थी परन्तु इस पद्धति को तामसी गुरूओं ने सर्वथा बन्द करके सात वर्ष की आयु में ही विवाह करना सर्वश्रेष्ठ धर्म बताया और कन्यादान का विशेष महात्म्य लिखा परन्तु इस पद्धति का दूर देशों में अभाव है। विवाह सम्बन्ध में उनके गुरूओं ने और माता-पिताओं ने स्वतंत्रता दे रखी है। वही राजसी प्रथा अब पुन: भारत देश में किसी अंश में आ रही है जिसका स्वार्थी लोग घोर विरोध कर रहे हैं।

विवाह के सम्बन्ध में सात्त्विक मर्यादा इस राजसी से भी विपरीत है। ध्यानयोग जनित आनन्द-शक्ति के ज्ञाताओं ने बतलाया कि ब्रह्मचारी बनों। यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जिन भगवतियों का और भगवत् भक्तों का ध्यान लगा है उन्होंने इन वर्षों में नवीन सन्तानें तैयार नहीं की। अब जो सन्ताने ध्यानयोग व सेवायोग का अभ्यास करेंगी वह सन्तानें विवाह कदापि नहीं करेंगी उन्हें यह ज्ञान हो गया है कि विवाह वही करेगा जो श्री प्रभु की जेल जाने का पात्र बन गया है।

अब मृत्यु के विषय में विचार किया जाय तो यही देखा-सुना जा रहा है कि राजसी मनुष्य न जीवन मुक्ति के विश्वासी हैं और न वह मृत्यु के पश्चात् किसी की मुक्ति करते हैं परन्तु तामसी मनुष्य जीवित माता-पिताओं को तो चिन्ता, क्रोध, भय, नारा़जगी और रूदन प्रदान कर तिरस्कार करते हैं तथा मृत्यु के पश्चात् आजीवन मुक्ति करते रहते हैं। यह उनके गुरूओं की आज्ञा है।

सात्त्विक मानव दोनों के विचारों से भिन्न हैं। वह अपनी मुक्ति जीवित अवस्था में अपने पुरूषार्थ में स्वयं करते हैं। यह कार्य अपने बेटे-पोतों पर नहीं छोड़ते।

इसी प्रकार तीनों के समस्त कर्म-धर्म भिन्न हैं। एक दूसरों से मेल नहीं हो सकता।

पदाधीश का सुख जेल निवासियों से भिन्न है और जेल निवासियों से कालापानी की मर्यादा भिन्न है। जेल निवासी पदाधीश हो सकता है परन्तु कालापानी वाला आजीवन कारावास में ही जीवन बितावे यही विधान सात्त्विक राजसी और तामसी नाम से श्री प्रभु पिता का है।                                                              ॐ शान्तिमय