Aag Ke Uspar, आग के उस पार

Ajay Kumar Pandey Ki Kahani 'Aag Ke Uspar', अजय कुमार पाण्डेय की यह कहानी एक मजबूत इरादे को दर्शाती है कि कैसे कठिनाइयों के बाद खुबसूरत मंजिल आपका इंतजार करती है।

Aag Ke Uspar, आग के उस पार
'Aag Ke Uspar' hindi kahani by Ajay Kumar Pandey

आग के उस पार (Aag Ke Us Paar)

-‘Aag Ke Uspar’ Hindi Kahani by Ajay Kumar Pandey

बड़ी भीड़ है किसका मेला है श्मशान के पास बने शिवालय की सीढ़ी पर बैठे पण्डित ने एक अजनबी व्यक्ति से पूछा।

बड़े गाँव के पण्डित राम जस दुबे है। अजनबी ने दु:खी मन से कहा।

अरे मास्टर साहब अभी तो स्वस्थ थे कोई बीमारी तो नहीं थी पिछले हफ्ते बड़े गाँव गया था मुलाकात हुई थी उनके यहाँ से सीधा भी लिया था कैसे हुआ? आश्चर्य से पण्डित जी ने पूछा।

कुछ नहीं हुआ था इसी को दैव योग कहते हैं मास्टर जी कल दोपहर में मेरे घर पर आये थे इनका छोटा लड़का जिला पंचायत का चुनाव लड़ रहा है उसी की कन्वेसिंग में बात चीत हो रही थी। शाम को थोड़ा उलझन हुई थी सीने में दर्द शुरु हुआ था डॉक्टर ने देखा था तुरन्त इलाहाबाद ले जाने को कहा था लेकर गये थे परन्तु रास्ते में ही लीला समाप्त हो गई। कहते-कहते अजनबी बिलख कर रो पड़ा।

आप जो उस अजनबी की बात सुन रहे हैं वह मेरा बड़ा प्रिय मित्र शिव राम शुकुल है मेरे ही गाँव के। वैसे तो मैं बहुत बार कई शवयात्रा में इस श्मशान पर आया हूँ अपने माँ-बाप की चिता भी सजाई है लेकिन आज मैं स्वयं एक शव हूँ यह भीड़ मेरे साथ है जिन लोगों ने सुना मेरी अचानक मृत्यु से स्तब्ध है स्वयं मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा है कि मेरी मृत्यु हो चुकी है क्योंकि मैं देख रहा हूँ मेरी शरीर चेतना शून्य लेटी हुई है। लोग उस पर फूल माला चढ़ा रहे हैं स्वजन लिपट कर रो रहे हैं। बास की तिट्ठी पर बाधा गया हूँ मुझे कन्धे पर लाद कर चार आदमी चल रहे हैं मेरे पीछे राम नाम सत्य है का उद्घोष करते भीड़ चल रही है परन्तु मैं एक किनारे खड़ा अकेले सब कुछ देख रहा हूँ जैसे मेरे शरीर के साथ कोई नाटक हो रहा है। इस समय मेरी लाश गंगा किनारे मानिकपुर में श्मशान घाट पर है। लोगों की का़फी भीड़ है। बूढ़े नवजवान सभी हैं मेरे सगे सम्बन्धी इष्ट मित्र ज्यादातर सभी दिख रहे हैं। मुझसे दुश्मनी रखने वाले उदय सिंह भी आये हैं मेरा पैर छूकर प्रणाम कर रहे हैं। मैंने इन्हें बुरा समझा था कितने भले हैं। मेरे छोटे बहनोई भी आये हैं मैंने उन्हें एक साईकिल देने को कहा था परन्तु परिस्थिति साथ नहीं दी, नहीं दे पाया था। नारा़ज हो गये थे। घर पर नहीं आते थे वे भी आये हैं। म़जबूरी थी क्या करता, वैसे ये भी बुरे नहीं हैं। मुन्नु तिवारी नहीं दिख रहे हैं उनका बहुत काम किया था हो सकता है खबर न मिली हो। राम लाल पाण्डे का क्या बिगाड़ा था मेरी मौत की खबर सुनकर उसने पड़ाका फोड़ा था, न जाने क्यों वह बैर रखता था। चलिये कोई बात नहीं श्याम लाल भी आया है बड़ा स्नेही है मेरे साथ पढ़ता था। पहलवानी भी करता था उसी पहलवानी में इसका पैर ़खराब हो गया था चल नहीं पाता था फिर भी आया है देखिये चिता सज गई है। म़जबूत खूटों पर लकड़ियों की असमतल सेज बना दी गई है मुझे भी स्नान करा दिया गया मेरे हाथ की अँगूठी भी छोटू ने निकाल लिया, झीने से कपड़े के आवरण में लपेट दिया गया है, सारा अंग झलक रहा है। बड़ा लड़का इलाहाबाद में ही था पोता भी अस्पताल में ही था। छोटू भी सीधा वही पहुँच गया था। रात में ही सभी घर वापस आ गये थे। तीनों दामाद भी दिख रहे हैं मेरे समधी भी हैं। लड़कों के ससुराल से भी आये हैं। बड़ा दामाद बाहर रहता है इसलिये नहीं आ सका। मेरी लाश चिता पर लिटा दी गयी है। पण्डित ने दाह क्रिया कराना शुरू कर दिया है। दाह कर्म बड़ा लड़का कर रहा है, पण्डित पैसों के लिए अड़ गया है पाँच सौ एक रुपये माँग रहा है बड़े आदमी हैं यह अन्तिम नेग है आप से नहीं मिलेगा तो किससे मिलेगा। पोता आगे बढ़कर पैसा दे दिया है। आग वाले को बुला कर आग का दाम देकर आग ले ली गई है। चिता में चन्दन की लकड़ी, लोहवान, घी, डाल दिया गया। आग मेरे पूरे शरीर को छुआ कर मन्त्रोंचार पण्डित कर रहा है। तब तक गिरधारी ने कहा कल पंचक तो नहीं था पण्डित जी ने कहा, नहीं पंचक नहीं था अच्छी लग्न नक्षत्र था दुबे जी मृत्यु के बाद भी बड़ी उन्नति करेंगे। जलती मसाल मेरी चिता में लगा दी गई। मैं देखता रहा मेरी निगाहों के सामने मेरी ही लाश जलने लगी अब मुझे लगने लगा की यह मेरी चेतना शून्य शरीर भी नहीं रहेगी। मैं बिना शरीर के रहूँगा।

मुझे अपना कल याद आने लगा कि मैंने कैसे यह शरीर छोड़ा।

कल शाम शौच क्रिया से निपटने के बाद संध्या किया था, सर्दी कुछ ज्यादा थी छोटू की पत्नी ने आग जला दिया था रामचन्द्र दुबे आ गये थे घूमते-घूमते विशम्भर भी आकर बैठ गये थे कुछ चुनाव की बात हुई थी मुझे कुछ उलझन सी महसूस हुई थी रामचन्द्र भी जल्दी में थे चले गये मैंने भी गुड़िया को आवा़ज दिया था कि चारपाई बिछा दो खाना नहीं खायेंगे थोड़ा दूध पी लेंगे। बिस्तर पहले से लगा था जाकर मैं लेट गया मुझे लेटते देखकर विश्वम्भर भी चले गये थे परन्तु मेरी उलझन कम नहीं हुई उठकर मैंने विशम्भर को आवा़ज लगाई थी विश्वम्भर आ गये थे। परेशानी बताई उन्होंने तुरन्त डॉक्टर को बुलाया डॉक्टर दुबे ने कहा भैय्या दवा मेरे पास नहीं है जितनी जल्दी हो सके इन्हें कुण्डा ले जाये यदि हो सके तो इलाहाबाद ही ले जाइये किसी अच्छे अस्पताल में दिखायें जितनी जल्दी हो सके शीघ्र करें। विश्वम्भर ने तुरन्त राम सुख को बुलाकर उसकी मारुती में मुझे लेकर इलाहाबाद भागे थे परन्तु रास्ते में उलझन बढ़ती गई, इतनी बढ़ी कि मैं अपना शरीर छोड़कर बाहर आ गया। मैंने देखा मेरा शरीर निढाल हो गया। मैंने फिर प्रयास किया कि अन्दर प्रवेश कर जाऊँ पर नहीं कर सका मुझे लगा कोई मुझे पकड़ कर खींच रहा है। मैं चाह कर भी इस शरीर में प्रवेश नहीं कर पाया मैं मंत्रमुग्ध किसी का अनुगमन करता रहा। इलाहाबाद में बड़े लड़के पोता को फोन से ही खबर हो गई थी वे लोग अस्पताल पर ही मौ़जूद मिले डॉक्टर ने बाहर आकर मारुती पर ही देखा तब तक स्टेचर बगैर लेकर कर्मचारी आ गये थे। डॉक्टर ने नब्ज देखी, आला लगाकर देखा और बड़ी ही मायूसियत से कह दिया– ‘ही इज नो मोरदेरी हो गई इनकी मृत्यु आधा घण्टे पहले ही हो गई है। सुनते ही बड़ा लड़का स्तब्ध रह गया, पोता भी रोने लगा साथ गये लोगों की भी आँखें छलक आईं। मैं यह सब देखता रहा। मेरी मौत हो गई।

अस्पताल पर रुकने का अब कोई प्रश्न ही नहीं था तुरन्त वापसी की तैयारी कर दिया रात एक बजे घर आ गये। फोन की सुविधा थी खास जगहों पर खबर हो गई। घर पहुँचते ही मैं नहीं रहा, सुनकर मेरी पत्नी बेहोश होकर गिर पड़ी, बिलखने लगी देखकर अच्छा नहीं लगा क्योंकि उसको इतना नि:सहाय मैंने कभी नहीं देखा था, ज्यादातर वह मुझसे लड़ती ही रहती थी इस उम्र में भी कही यह व्यवस्था नहीं तो वह व्यवस्था नहीं है। जीवन नष्ट हो गया आज तक एक धोती तक नहीं दिया, गहना गिहठी के नाम पर एक चाँदी की चुटकी तक नहीं बनवाया, तुम्हारी कमाई का क्या सुख जानूँ। जबकि मैं अपनी सारी तऩख्वाह उसी के हाथ में दे देता था। सारी व्यवस्था वही करती थी। रिटायर होने के बाद आधा पैसा उसी के नाम से जमा करा दिया था जब कभी कोई मेरा दोस्त या कोई मिलने वाले आते चाय पानी के लिये कहता तो दो-चार बात जरुर सुनाती लेकिन अब किससे लड़ेगी, चलो अच्छा हुआ इसको भी फुरसत मिली मुझे भी मिली। परन्तु अब बेचारी अकेली हो गयी, अब किससे लड़ेगी, अपना सुख-दु:ख कहेगी। छोटू की पत्नी बड़ी ही स़ख्त स्वभाव की है। जब मेरे रहने पर लड़ती थी तो अब क्या सुनेगी। मेरा इसने खूब साथ निभाया, अगर यह न होती तो इतना बड़ा परिवार बच्चों को पढ़ाना-लिखाना, खेती-बारी, कारोबार, समाज में सम्मान सब में कही न कहीं इसका सहयोग रहा अब यह अकेली हो गई कभी फुरसत में बैठकर सुख-दु:ख की बातें कर लेते थे, अब कोई कष्ट किससे कहेगी। जब मेरी उम्र दस वर्ष की थी इसकी आठ वर्ष तभी हमारी शादी हो गई थी, तीन साल बाद गौना हुआ था तब से यह मेरे साथ ही रह रही है, हर सुख-दु:ख में सहारा बनी आज साथ छूट गया। सबको अलग-अलग जाना है कोई साथ नहीं जाता। मेरी लाश निकलते ही उसने अपनी चूड़ी फोड़ डाली थी। द्वार तक आई थी फिर मैं अकेला हो गया। म़जबूर था कुछ नहीं कर सकता था खड़ा-खड़ा टुकुर-टुकुर देखता रहा सान्त्वना तक नहीं दे सका। छोटू बड़ा रो रहा था उसकी पत्नी बच्चे भी रो रहे थे, बच्चे मेरा बड़ा ख्याल करते थे, मीरा सुबह-सुबह फूल तोड़ लाती थी हरी ओम पूजा की चौकी सा़फ कर देता था मेरी एक आवा़ज पर सभी दौड़ पड़ते थे। बड़े का पूरा परिवार शहर में रहता कल रास्ते भर छोटू रोता रहा। बड़े समझाते रहेछोटू मत रोओ यह प्रकृति की नियति है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होगी यह कटु सत्य है। प्रभु से प्रार्थना करो कि पिता जी की आत्मा को शान्ति मिले, तुमको रोता हुआ देखकर उनकी आत्मा को कष्ट होगा। छोटू रोये क्यों न मेरी सारी पेंशन उसी के काम आती थी बड़े मेरे पैसे का कोई हिसाब नहीं लेते थे, जरूरत पर कुछ न कुछ दे जाते थे पूरे घर की खेती बारी की आमदनी छोटू के ही हाथ में थी। मेरी व़जह से समाज में लोग उसे भी उसी तरह सम्मान देना शुरु कर दिये थे वह भी सामाजिकता निभाता था। अब वह भी अकेला पड़ गया। विश्वम्भर मेरा छोटा भाई था वह भी फूट-फूट कर रो रहा था। कह रहा थाजोड़ा फूट गया भैय्या से हमारी भी शान थी। विश्वम्भर बाबू के ही समय में घर छोड़कर चला गया था। पचीस साल बाद मैं उसे ढूँढ़ कर लाया था उसके लिये घर बनवा दिया था उसका पूरा परिवार यही रहने लगा था चार गाँव की पुरोहिती थी उसमें पूजा-पाठ करता है उसकी भी अच्छी मर्यादा बन गई है, उसको हमसे का़फी सहयोग मिलता था, हर काम हमसे पूछ कर ही करता था, बड़ा दु:खी था।

चिता जल रही है आधी लकड़ी जल चुकी है मेरी लाश का करीब-करीब आधा हिस्सा जल चुका है मांस पानी बन कर उड़ गया है केवल हड्डियाँ ही शेष है वह भी जलना शुरू हो गई है। चिता एकंगी हो रही है जिसके कारण मेरी लाश सरक रही है। छोटू विश्वम्भर बाँस से उसे ठीक कर रहे हैं उस पर कालिख जम गयी है बाँस से ही पीट कर उसे छुड़ा रहे हैं कितनी बेरहमी से मुझे जला रहे हैं। ये मेरे लड़के, भाई-बन्धु है प्रकृति का खेल है। अभी तक मेरे लिये कितना रो रहे थे। मुझे भी अपने इसी शरीर का कितना अभिमान था। आज तक कोई भी पहलवान मुझे चित नहीं कर सका। कितना विवश हूँ मेरे सामने लाश जल रही मेरे अपने ही स्वजन जला रहे हैं। यह कैसा संसार है कितने स्वार्थ का, एक दिन भी उस घर में नहीं रह पाया जिसे अपने खून पसीने की कमाई से बनाया था। मरते ही लाश को ठिकाने लगाने का जुगत करने लगे, एक दिन भी अन्दर नहीं रख सके बाहर से ही हटा दिया गया। लो वह लाश भी जल गई। थोड़े से अवशेष को मिट्टी के साथ बाँधकर गंगा की धारा में प्रवाहित कर दिया गया। चिता की शेष राख भी धारा में फेंक दी गयी। मेरे साथ आये सभी लोग जो अभी तक उस संसार की नश्वरता की बात कर रहे थे। कह रहे थे संसार कुछ नहीं है। न कुछ लेकर आये हो न कुछ साथ जायेगा जो मिला यही मिला यहीं छूट भी जायेगा। परन्तु यह क्या लाश जलते ही सबको इतनी जल्दी घर जाने की। सभी लोग चिता बुझते ही गंगा में स्नान करके मुझे आंशिक अँजुली देकर अपने-अपने साधन से चले गये मेरी सुध भूल गये शायद मेरा बड़ा लड़का मेरा पिण्डदान करेगा तेरह दिन तक मेरे नाम से घर में अशान्ति रहेगी। मुझे किसी एकान्त में पीपल के पेड़ के पास मिट्टी के घड़े में दीप और पानी दिया जायेगा। शाम ढल रही है मेरी शव यात्रा के सभी लोग लौट गये हैं शमशान पर केवल आग वाला डोम नाव वाले का परिवार गंगा किनारे का पण्डित शेष बचे हैं वे भी अपने जेब के पैसों की गिनती कर के जाने वाले हैं।

आग वाले ने पण्डित जी से पूछा कितने की आमदनी हुई पण्डित जी कोई खास नहीं पन्द्रह सौ रुपये मिले हैं इसमें से आधा जनार्दन को देना है। पण्डित जी ने कहा।

क्यों?

क्योंकि वह भी आधे का हिस्सेदार है न, पण्डित जी ने कहा।

आज पूस की अमावस्या है चाँद नहीं निकलेगा साँझ अँधेरे में बदलने लगी है सारा श्मशान सूना हो गया अब किसी लाश के आने की आशा नहीं है जो भी होगा सुबह होगा सभी लोग अपने-अपने घर चले गये हैं मैं अकेला गंगा किनारे सूने निर्जन में खड़ा हूँ न तो कोई साथ है न ही कोई आगे रास्ता है हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा है। अब मैं वापस घर भी नहीं जा सकता जाऊँ तो जाऊँ कहाँ समझ में नहीं आ रहा है। इस अँधेरे में कोई नहीं दिख रहा है पर लग रहा है कि कोई मेरी बांह पकड़े मुझे इसी अँधेरे में खींचता जा रहा है मैं विवश खिंचता जा रहा हूँ इस अँधेरे में मुझे सब विस्मृत होता जा रहा है मेरे होने का एहसास यह दृश्य संसार मेरा अपना अतीत वर्तमान यहाँ तक कि भविष्य की सोच सब भूलता जा रहा हूँ। अँधेरा और विकट अँधेरा। फिर भी मैं बढ़ता जा रहा हूँ किसी अदृश्य शक्ति के पास, चलते-चलते मेरे पाँव रुक गये हैं दूर बहुत दूर से कर्णप्रिय मधुर ध्वनि मध्यम-मध्यम सुनाई देने लगी है। एक हलके प्रकाश का आभास होने लगा है धीरे-धीरे प्रकाश बढ़ता जा रहा है। ते़ज ते़ज और ते़ज इतना प्रकाश जैसे सैकड़ों सूरज एक साथ निकल आये हों लेकिन जलन अथवा तपन का कोई एहसास नहीं सुगन्ध से सारा वातावरण सुवासित हो रहा है। रंग विरंगे फूलों से सजी वाटिका कूकती कोयल का मधुर गान सुनाई दे रहा है। मेरे पाँव फिर बढ़ने लगे हैं। मैं अब एक असीम आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ परन्तु मेरा सारा अस्तित्व मिट गया है मैं उसी प्रकाश में समाहित हो रहा हूँ जैसे कोई नदी सागर में मिल रही हो। गंगा की धारा का सारा जल विलीन हो रहा है। अब मैं गंगा पार कर चुका हूँ मैं नहीं रह गया हूँ मेरा आकार कितना विशाल हो चुका है मुझे भी नहीं मालूम।

-Ajay Kumar Pandey ki Hindi Kahaniya- Aag Ke Us Par