देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा ।। Devavrat Ki Bhishma Pratigya

"देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा" महाभारत की अनुपम गाथा पर आधारित यह एक खण्ड-काव्य है। जिसकी रचना डा प्रभामाल द्विवेदी प्रभामाल ने बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। Devavrat Ki Bhishma Pratigya written by Dr. Prabhamal Dwivedi Prabhamal

देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा ।। Devavrat Ki Bhishma Pratigya
Devavrat Ki Bhishma Pratigya by Dr Prabhamal Dwivedi

देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा

महाभारत की अनुपम गाथा पर आधारित

(प्रबन्धकाव्य)

डॉ. प्रभाकर द्विवेदी प्रभामाल

प्रकाशक

त़ख्तोताज’, इलाहाबाद

आमुख

भारतीय वाङ्गमय में महाभारत जैसे ग्रन्थ को उसकी महत्ता को स्वीकार करते हुए, पञ्चम वेद के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। वैसे तो महाभारत में जितनी भी कथाएँ हैं, जितने भी पात्र या स्थल हैं, सबकी अपनी महत्ता एवं अपनी विशिष्टता है। किन्तु महाभारत महाकाव्य में, भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को निमित्त बनाकर, कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में ही, जो गीता ज्ञान दिया गया है, वह ज्ञान, मात्र सात सौ श्लोकों में ही वेदों का, सार-सार संग्रह है। वास्तव में यह श्रीमद्भगवद्गीता ही पञ्चम वेद है। किन्तु महाभारत महाकाव्य के अन्तर्गत आने के कारण तथा अन्यान्य धर्म, नीति, योग, ज्ञान, ध्यान आदि के आख्यानों से परिपूर्ण होने के कारण इस सम्पूर्ण ग्रन्थ को ही पञ्चम-वेद की प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी है। इस महान ग्रन्थ के रचनाकार महर्षि भगवान वेद-व्यास जी का कथन है कि, जो ज्ञान इस ग्रन्थ में विद्यमान है, वहीं ज्ञान विश्व के अन्यान्य ग्रन्थों में भी उपलब्ध है। तथा जो ज्ञान इस ग्रन्थ में नहीं है, वह अन्य ग्रन्थों में भी नहीं है। ऐसी है इस महान ग्रन्थ की विशिष्टता एवं महत्ता।

महाभारत के विशिष्ट आख्यानों में एक अद्वितीय आख्यान, महान योगी, आजीवन ब्रह्मचारी, ज्ञानी, ध्यानी, भक्तशिरोमणि, वीर, धीर, रणधीर, नीति-धर्म और संस्कृति के प्रकाशक महात्मा देवव्रत का आख्यान है। जिन्हें संसार भीष्मपितामह के नाम से जानता एवं पहचानता है। महात्मा देवव्रत के आख्यान की इतनी विशिष्टता है, इतनी विविधता है, इतना देवत्व का दर्शन है, जितना संसार के किसी अन्य वाङ्गमय के पात्र में उपलब्ध नहीं है। देवव्रत पर अनेक विद्वानों ने, अपनी लेखनी को पवित्र करने के लिए उसका वर्णन अपने-अपने ढंग से किया है। मेरे मन में भी, इस कथानक को, एक विशिष्ट प्रबन्ध काव्य का रूप देने का अन्तर्भाव बहुत दिनों से छिपा था, जो ईश्वर की महती कृपा से आज पूर्णता को प्राप्त होकर, जन-जन के कल्याण के लिए आपके समक्ष प्रस्तुत है।

जैसा कि महाभारत के सभी अध्येता जानते हैं, महात्मा देवव्रत पूर्व जन्म में आठवें वसु प्रभास थे। अपनी पत्नी की इच्छा पूर्ति हेतु, एक दिन उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की नन्दिनी गाय को उसके बछड़े सहित चुरा लिया। महर्षि वशिष्ठ की यह गाय उनकी यज्ञ-याग की पूर्णता में सदा सहयोग करती थी। गाय के चोरी हो जाने पर, जब समय पर वशिष्ठ जी को नियमित सामग्री का अभाव लगा, तो उन्हें नन्दिनी की याद आयी। पर नन्दिनी को तो वसु चुरा ले गये थे। सब जगह खोजने के बाद भी जब गाय नहीं मिली, तब महर्षि ने ध्यान लगाकर पता लगाया, तो उन्हें वसुओं की करतूत का पता चला। उनके इस कुकृत्य के कारण वशिष्ठ जी को क्रोध आ गया और उन्होंने वसुओं को मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दे दिया। यह आभास होते ही, वसुओं के मन में व्याकुलता बढ़ गयी। वे वशिष्ठ मुनि के क्रोध को समझ गये और तुरन्त ही वे उनकी शरण में दौड़े हुए आये। वशिष्ठ मुनि ने सात वसुओं पर तो कृपा किया और उन्हें शीघ्र श्राप से मुक्त होने की बात कही, किन्तु मुख्य दोषी आठवें वसु प्रभास को कुछ अधिक काल तक मृत्युलोक में रह जाने की बात कहा, तथा साथ ही यह भी आशीर्वाद दिया कि- यह बड़ा वीर, धीर और यशस्वी होगा।

यह सब सुनकर सभी वसु गङ्गा माँ की शरण में गये और उनसे माँ बनकर शीघ्र मुक्त करने का निवेदन किया, जिसे माँ गङ्गा जी ने स्वीकार कर लिया।

कथानक के अनुसार माँ गङ्गा महाराज शान्तनु को रिझाकर उनकी पत्नी बनी और उनसे उत्पन्न सात वसुओं को जन्म लेते ही गङ्गा में प्रवाहित कर उन्हें मुक्त कर दिया। आठवें वसु प्रभास के जन्मने पर महाराज शान्तनु अपने को रोक नहीं सके और गङ्गा की निन्दा करने लगे। अपनी शर्त के अनुसार माँ गङ्गा महाराज शान्तनु का साथ छोड़ दीं, किन्तु उन्होंने आठवें पुत्र के लालन-पालन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और युवक हो जाने पर महाराज शान्तनु को देवव्रत को सौंप दिया। महाराज शान्तनु का जीवन यद्यपि गङ्गा के अभाव से, पश्चाताप से पीड़ित था, किन्तु देवव्रत जैसे सुयोग्य पुत्र को प्राप्त कर उन्हें प्रसन्नता हुई। उनका दु:ख कुछ कम हुआ। वे राज-काज का संचालन देवव्रत के सहयोग से सफलतापूर्वक करने लगे।

इसी बीच एक दिन महाराज शान्तनु सत्यवती पर आसक्त हो गये। क्योंकि उनका राग, गङ्गा के अभाव में कम नहीं हुआ था, किन्तु सत्यवती के पिता की शर्त की वजह से वे उसे पहले पा न सके। इस कारण शोक में वे दुर्बल होने लगे। उनके पुत्र देवव्रत, जो राज-काज में पिता के सहयोगी थे, पिता की इस रुग्णावस्था से दु:खी हुए, किन्तु वे इसका कारण न समझ सके। उन्होंने स्वयं जाकर पिता से पूछा, किन्तु उनके उत्तर से वे सन्तुष्ट नहीं हुए। मंत्रियों एवं सभासदों से पूछने पर भी असली बात का पता न चल सका। अन्तत: महाराज के सारथी द्वारा उन्हें असलियत का ज्ञान हो गया।

महाराज शान्तनु सत्यवती पर आसक्त हैं पर उसके पिता देशराज की शर्त उन्हें स्वीकार नहीं है। देवव्रत के रहते वे किसी दूसरे को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने में असमर्थ थे। यही उनकी दुर्बलता का कारण है। इस रहस्य को जानकर, देवव्रत स्वयं देशराज के पास गये और महाराज से सत्यवती वâा ब्याह करने का अनुरोध किया, किन्तु देशराज ने देवव्रत से भी अपनी शर्त दोहरायी। तब पितृभक्त देवव्रत ने उससे अपने सिंहासन पर न बैठने और सत्यवती के पुत्र को ही उत्तराधिकारी बनाने की बात कही। किन्तु देशराज बहुत चतुर था। उसने दूर तक की सोच रखी थी। अत: देशराज देवव्रत से बोला- ‘‘राजकुमार आपकी बात पर मुझे पूरा विश्वास है, किन्तु आपका  पुत्र भी तो आप जैसा ही बलवान होगा, वह यदि मेरे नाती से पुन: राज्य को छीन ले तो मेरी इच्छा धरी की धरी रह जायेगी।’’ यह सुनकर देवव्रत सोच में पड़ गये, किन्तु पितृभक्त देवव्रत ने अपना भीषण संकल्प देशराज को सुनाया कि मैं आजीवन अविवाहित-ब्रह्मचारी रहूँगा। यह कठिन एवं भीषण संकल्प सुनकर देवताओं ने उनकी जय-जयकार की और पुष्प वृष्टि कर उनका स्वागत किया। इस संकल्प को सुनकर देशराज भी परम सन्तुष्ट हो गया और अपनी पुत्री सत्यवती का ब्याह महाराज शान्तनु से करने को सहर्ष तैयार हो गया।

पितृभक्त देवव्रत सत्यवती को साथ लेकर हस्तिनापुर आये और सारी बात अपने पिता को बतलाये। इस प्रकार बड़े धूम-धाम से सत्यवती का विवाह महाराज शान्तनु से हो गया। महाराज शान्तनु देवव्रत पर अति प्रसन्न हो उन्हें यशस्वी होने का आशीर्वाद दिये।

शान्तनु से सत्यवती को दो पुत्र हुए- चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य। महाराज शान्तनु के स्वर्गवासी होने पर, शर्त के अनुसार देवव्रत ने चित्राङ्गद को हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठाया, किन्तु वे अधिक दिन राज्य न कर सके और गन्धर्वों से युद्ध में वीर गति को प्राप्त हो गये। तब विचित्रवीर्य राज्य के उत्तराधिकारी बने। किन्तु वे उस समय नाबालिक थे इसलिए देवव्रत ही राज्य का संचालन करते रहे। विचित्रवीर्य के युवा हो जाने पर देवव्रत ने काशी राज्य की कन्याओं- अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का हरण कर, उनका विवाह अम्बा और अम्बालिका से कर दिया। बड़ी पुत्री अम्बा, चूंकि पहले से ही राजा शाल्व पर आसक्त थी, अत: उसने स्वयं देवव्रत से अथवा शाल्व से अपने विवाह की इच्छा प्रगट की। किन्तु देवव्रत ने आजीवन अविवाहित रहने का अपना प्रण सुनाकर, अम्बा को शाल्व के पास भेजा। किन्तु स्वाभिमानी शाल्व ने यह कहकर उसे स्वीकार नहीं किया कि देवव्रत ने तुम्हारा हरण किया है और युद्ध में मैं उनसे पराजित हो चुका हूँ, अत: मैं तुमसे विवाह नहीं कर सकता। अत: नियमत: तुम देवव्रत की हो चुकी हो। यह सुनकर अम्बा पुन: देवव्रत के पास लौट आयी। देवव्रत ने विचित्रवीर्य से अम्बा को अपनाने को कहा किन्तु उन्होंने उसके शाल्व पर आसक्त होने के कारण, प्रस्ताव को नकार दिया। देवव्रत ने पुन: उसे शाल्व के पास भेजा किन्तु शाल्व ने पुन: उसका तिरस्कार किया। देवव्रत ने भी हर बार अपने संकल्प की याद दिलाकर उसे स्वीकार नहीं किया। विचित्रवीर्य ने भी उसको पुन: तिरस्कृत किया। अत: अम्बा देवव्रत को अपने सारे कष्टों का कारण जान, उनसे बदला लेने की ठान ली। वह अनेक राजाओं के पास देवव्रत से युद्ध कर, उनका बध करने की बात कही, किन्तु सभी राजा देवव्रत से भयभीत रहते थे। अत: किसी ने भी अम्बा का साथ न दिया। क्षत्रियों से निराश होकर, वह ब्राह्मणों और ऋषियों के पास गयी। ऋषियों ने उसके प्रति सद््भावना दिखायी और उसे भगवान परशुराम के पास भेजा। परशुराम जी ने उसकी व्यथा को सुना और शरणागत अम्बा की इच्छानुसार देवव्रत से युद्ध कर, उनका बध करने की बात स्वीकार कर ली। परशुराम जी तुरन्त हस्तिनापुर जाकर देवव्रत को युद्ध के लिए ललकारे। दोनों योद्धाओं में घोर संग्राम छिड़ गया। कई दिनों तक यह संग्राम चलता रहा पर किसी ने अपनी हार स्वीकार नहीं की। अन्तत: परशुराम जी देवव्रत से परास्त हो गये और अम्बा से अपनी असफलता की बात कह सुनायी। यह सुनकर अम्बा बहुत दु:खी हुई, किन्तु उसमें देवव्रत से बदला लेने की ज्वाला और भी भड़क उठी।

अम्बा भगवान कार्तिकेय को प्रसन्न करने के लिए वन में जाकर घोर तपस्या करने लगी। भगवान कार्तिकेय उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और प्रगट होकर एक अम्लान कमलों की माला देकर बोले– ‘‘अम्बें मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ, यह माला लो, जो यह माला पहनेगा वह देवव्रत के सर्वनाश का कारण बनेगा।’’ अम्बा वह माला लेकर पुन: कई राजाओं से मिली। किन्तु किसी राजा की हिम्मत देवव्रत से युद्ध करने की नहीं हुई। अम्बा वह माला ले राजा द्रुपद के पास भी गयी। पर उन्होंने भी उसे निराश किया। अन्तत: वह माला महाराज द्रुपद के दरवाजे पर टाँग दी तथा भगवान शज्र्र को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर्वत पर चली गयी। भगवान शज्र्र उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर बोले– ‘‘अम्बे अगले जन्म में तुम्हारे कारण देवव्रत का संहार होगा।’’ किन्तु अम्बा की क्रोधाग्नि इतनी तीव्र थी कि वह स्वभाविक मृत्यु की प्रतीक्षा न करके, योगाग्नि प्रकट कर अपने आपको जला डाली।

दूसरे जन्म में वहीं अम्बा द्रुपद की पुत्री होकर जन्मी। तथा बड़ी होने पर एक दिन खेल ही खेल में उसने वह माला पहन लिया। यह देख द्रुपद बड़े भयभीत हो गये। यह सोचकर कि इसके कारण देवव्रत से शत्रुता क्यों मोड़ लें, अत: उन्होंने उस कन्या को घर से निकाल दिया। अम्बा को पूर्व जन्म की सारी बातें याद थी। अत: वह पुन: वन में घोर तपस्या करने चली गयी। तथा अपना स्त्री रूप त्याग कर, पुरुष रूप में शिखण्डी के रूप में बदल गयी। जब महाभारत का युद्ध आरम्भ हुआ तो देवव्रत कौरवों के सेनापति बने और नौ दिनों तक भीषण संग्राम करके उन्होने पाण्डव सेना का संहार किया। दसवें दिन के युद्ध में, वहीं शिखण्डी अर्जुन के रथ पर आगे बैठ कर देवव्रत पर बाण चलाती रही। शिखण्डी, पूर्व जन्म की अम्बा ही है, यह बात देवव्रत को भी ज्ञात थी। वह मुझसे बदला लेने के लिए स्त्री से पुरुष बनकर, मेरे समक्ष खड़ी है। स्त्री के साथ युद्ध करना देवव्रत को स्वीकार नहीं था। अत: वे अस्त्र-शस्त्र त्याग कर रथ में चुपचाप बैठ गये। शिखण्डी के पीछे से अर्जुन द्वारा चलाये गये घातक वाणों के कारण वे घायल होकर जब शरसैया पर गिर पड़े तब अम्बा का क्रोध शान्त हुआ।

महाभारत युद्ध के पश्चात कृष्ण के सुझाव पर शरसैया पर इच्छामृत्यु का व्रत धारण करने वाले भीष्म से पाण्डव आदि सद््ज्ञान प्राप्त करने गये। उन्होने बड़े विस्तार से प्रश्नों के अनुसार युधिष्ठिर की सारी जिज्ञासाओं को शान्त किया। अन्तत: भगवान श्रीकृष्ण का आदेश प्राप्त कर उन्होंने योगाग्नि में अपने शरीर को भस्म कर लिया और इस प्रकार वशिष्ठ के श्रॉप या वरदान के अनुसार वे पुन: वसुलोक वासी बने। उनकी अन्त्येष्ठि पूर्ण राजसी ठाठ-वाट से सम्पन्न हुई। यही संक्षेप में देवव्रत का आख्यान है। उनके जीवन की विशिष्टताएँ भारतीय धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर है।

उपर्युक्त कथानक का, काव्य के रूप में, विस्तृत विवरण रोचक ढंग से सरल भाषा में प्रस्तुत है। मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि पाठक इससे लाभान्वित होकर आनन्दित होंगे और इससे प्रेरणा प्राप्त कर, अपने जीवन को भी संकल्पित मन से इह एवं परलोक के लक्ष्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर करेंगे।

हरि: ॐ तत्सत्

देवोत्थान एकादशी                             प्रभाकर द्विवेदी

प्रार्थना

जो कुछ कर्म करुँ मैं प्रभु जी, तेरा हो सब आराधन।

मेरा कुछ भी नहीं तुम्हारा ही, सब, तुमको हो अर्पण।।

जग में वाङ्गमय नहीं कोई भी, नहीं तुम्हारी स्तुति जो हो।

सकल शब्दमय रूप तुम्हारा, सकल दृश्य तेरी छवि हो।।

 

सर्व अमङ्गल-ध्वंसकार हे, सब कल्याण स्वरूप प्रभो।

प्रतिपल, प्रतिपग, अर्चन तेरा, वन्दन प्रति व्यवहार में हो।।

हरि तुमसे अस्तित्व हमारा, तुम ही मेरे प्राण-अधार।

हे अव्यक्त, व्यक्त प्रभु मेरे, निर्गुण तुम, गुणमय, साकार।।

 

जीव-मात्र पर कृपा तुम्हारी, सदा रही है, सदा रहे।

हे प्रभु मंगल-मूर्ति, विभो हे, कोई दीन-दु:खी न रहे।।

सब ज्ञानी, सब गुणी हों प्राणी, स्वस्थ, सुशिक्षित,सब धनवान।

सब सहयोगी, सत्य, अहिंसा, परहित रत हों, हे भगवान।।

 

सब जन ब्रह्म-मुहूर्त में जग कर, नित्य-क्रिया से होकर शुचि।

शुद्धासन पर बैठ ध्यान, जप, स्मरण श्रीहरि: का, निज-निज रुचि।।

योगासन, प्राणायाम नित्य, अभ्यास, आयु, बल, लक्ष्य अनुसार।

स्वस्थ हो तन-मन, ब्रह्मचर्य ब्रत, क्रियायोग निज रुचि, संस्कार।।

 

फिर दिनचर्या-लगन-योगमय, अनासक्त, फलरहित, उदार।

हो आहार-विहार, युक्त, निद्रा, चेष्टा, प्रभु-ध्यान-साकार।।

सदा प्रसन्न, अभय, जीवन हो, परम् लक्ष्य हित,तन-मन-प्राण।

जीवन हो निर्विघ्न तत्त्वमय, ऐसी सनमति दो भगवान।।

हरि: ॐ तत्सत्

व्यास का अवतरण एवं महाभारत की रचना

 

सृष्टि-चक्र सतत, सहज, सक्रिय, सनातन, संतुलन स्वर।

अव्यक्त ब्रह्म हो व्यक्त, अनन्त ब्रह्माण्ड रूप, असीम अम्बर।।

 

पूर्ण चेतन ब्रह्म, जड़ अज्ञान से, विज्ञान चेतन।

पिण्ड से ब्रह्माण्ड तक सब ब्रह्म, सत-चित-सुखनितेन।।

 

द्रव्य, अणु, परमाणु से ऊर्जाणु तक, चेतन सनातन।

सब प्रकाश स्वरूप, परमं प्रकाश, पूर्णानन्द चिद्घन।।

 

जब भी सृष्टि के संतुलन में, अहम-विघटन-विटप उगते।

स्वयं सक्रिय चिर प्रकृति में, अहम नाशक योग बनते।।

 

ब्रह्म स्वयं या अंश विविध, विभूतियों का रूप धरकर।

करे फिर से संतुलन सामान्य, जीवन हेतु हितकर।।

 

महाकाल के कालक्रम में, वह विभूति बनी पराशर।

वही सत्यवती की सौरभमय वदन बन, दी सुअवसर।।

 

ऋषि पराशर की वह कामुक वृत्ति, काम क्रिया भी बनकर।

व्यास जैसे महाज्ञानी पुत्र रूप में, प्रगट ईश्वर।।

 

वही व्यास-गणेश रूप में, महाभारत ग्रन्थ रचकर।

एक घट में भर दिया, सब सांस्कृतिक भण्डार हितकर।।

 

वह विभूति ही गङ्गा-शान्तनु-प्रणय-प्रतिफल, देवव्रत सुत।

वही शान्तनु-सत्यवती की, प्रेमगाथा शुभ अमर कृति।।

 

उसी क्रम में देवव्रत ने किया भीषण तप अनोखा।

उस विभूति की कौतुकी क्ऱीडा के पात्र, सभी विशेषा।।

उसी कौतुक क्रम ने एक ही वंश में, कटुता बढ़ायी।

महाभारत युद्ध बन इतिहास में महिमा समायी।।

 

उसी क्रम में देवव्रत का पाण्डवों को शास्त्र शिक्षा।

प्रगट गङ्गा पुत्र की, पावन अमित सद्ज्ञान दीक्षा।।

 

देवव्रत का स्वर्गारोहण पुन: निज वसुलोक वासी।

सृष्टि का यह चक्र शाश्वत, जीव-जग प्रभुमाया दासी।।

 

पिण्ड से ब्रह्माण्ड का, जो जीव देखे चिर नजारा।

वही जीवन मुक्त है, सच्चिदानन्दमय दृश्य सारा।।

 

महाकाल का वही कौतुक, चल रहा, चलता रहेगा।

सन्त वह जो मात्र दृष्टा बन, सतत् आनन्द लेगा।।

 

उसी प्रभु से प्रार्थना है, बुद्धि-योग की दृष्टि दे दें।

हर दशा में, हर दिशा में, जीव-जग, उस प्रभु को देखे।।

 

इसी भाव से मुनि पराशर-पुत्र-व्यास अवतरण यथा।

शान्तनु-गङ्गा-पुत्र-देवव्रत, की प्रस्तुत यह दिव्य कथा।।

 

जन-जन के कल्याण हेतु, शुभ चरित विशिष्ट का यह प्रिय गान।

निश्चय ही संकल्प यथा, फल दायक, भक्ति, मुक्ति, वरदान।।

 

पाराशर मुनि सिद्ध, तपस्वी, रिद्धि-सिद्धियों के दाता।

त्रिकालदर्शी, परहित में रत, दीन-दु:खी जन के त्राता।।

 

एक बार पाराशर मुनि, आये यमुना तट भ्रमण हितार्थ।

वहाँ उन्हें शुचि गन्ध अलौकिक, खींच ले गयी कन्या पास।।

बीच नदी में नाव में बैठी, सुन्दर-वदना-कन्या एक।

उसी से गन्ध अलौकिक आती, काम-विवश मुनि, उसको देख।।

 

कन्या से पाराशर मुनि ने, प्रणय निवेदन किया तुरन्त।

कन्या ने प्रतिरोध किया, मैं क्वाँरी हूँ, औचित्य न संत।।

 

मुनि ने उसे प्रभाव प्रगट निज किया, सुकन्ये तुम न डरो।

मैं सहवास करूँगा तुमसे, पर न भङ्ग क्वाँरापन हो।।

 

नहीं कोई भी जान सकेगा, तेरा, मेरा मिलन अनूप।

यह कह मुनि ने प्रगट अँधेरा किया घोर, छाया तम-कूप।।

 

बीच नदी में, नाव के अन्दर, मुनिवर ने सहवास किया।

जैसा सा मुनि का प्रभाव, क्वाँरापन रंच न भ्रंश हुआ।।

 

उस सम्भोग से सत्यवती ने, सुन्दर पुत्र को जन्माया।

जैसा था विधि का विधान, वैसा सुत योग्य जगत जाया।।

 

वह पाराशर-पुत्र, कृष्ण-द्वैपायन नाम से हुआ प्रसिद्ध।

रंग साँवला अत: कृष्ण, द्वैपायन प्रभु अवतार की सिद्धि।।

 

पाराशर के पुत्र कृष्ण-द्वैपायन, व्यास नाम सरनाम।

वेदों का संकलन किये क्रमबद्ध, अत: वेदव्यास भी नाम।।

 

वेदव्यास विद्वान, तपस्वी, योगी, दैवीगुण सम्पन्न।

काव्य-कला के धनी, त्याग, संन्यास-समन्वित, व्यक्ति अनन्य।।

 

वेदों का संकलन, महाभारत एवं श्रीमद्भागवत् पुराण।

के सङ्ग रचे, पुराण अट्ठारह, तथा अट्ठारह ही उपपुराण।।

भारत-धर्म, सनातन-संस्कृति तथा सभ्यता का विस्तृत।

वर्णन इनके सद््ग्रन्थों में, विस्तार, समास, यथा समुचित।।

 

महाभारत की रचना मन में कि या व्यास ने, हिय संकल्प।

कौन लिखे, वैâसे हो जग-कल्याण, न सूझा कोई विकल्प।।

 

बुद्धि देवता ब्रह्मा का तब ध्यान किया, मुनि ने सोल्लास।

प्रगट हुए ब्रह्मा जी, किये समस्या-निदान का सफल प्रयास।।

 

ब्रह्मा जी प्रसन्न हो किये प्रशंसा मुनि की, दिये सुझाव।

तात करो गणेश जी को प्रसन्न, पाओ उनका सद््भाव।।

 

मुनि ने किया आवाहन, पूजन, प्रगटे गणेश जी प्रत्यक्ष।

किया व्यास ने अनुनय उनसे, रचना-लेखन में आप दक्ष।।

 

गणपति हुए प्रसन्न, किन्तु रचना-लेखन स्वीकार, सशर्त।

रुके नहीं लेखनी बीच में, अगर रुकी तो, प्रयास व्यर्थ।।

 

व्यास किये स्वीकार शर्त पर, गणपति से भी शर्त रखे।

श्लोक समझकर ही लिखियेगा, समझे बिना न श्लोक लिखें।।

 

हुए इस तरह दोनों बचनबद्ध, चल पड़ा सुभग अभियान।

बना सुयोग महाभारत की रचना का, शुभ कार्य महान।।

 

बीच-बीच में व्यास, कठिन श्लोक-बद्ध करते रचना।

समझें जब तक, गणपति तब तक, श्लोक अनेक रचे मुनिना।।

 

हुआ इस तरह पूर्ण महाभारत सद््ग्रन्थ, विश्वविख्यात।

जिसके लिए व्यास का कहना, इसमें विश्व-ज्ञान है व्याप्त।।

जो कुछ है इस दिव्य ग्रन्थ में, उससे अधिक न ज्ञान कहीं।

जो कुछ इसमें नहीं, विश्व के अन्य ग्रन्थ में प्राप्त नहीं।।

 

वैâसे रहे सुरक्षित, ग्रन्थ-प्रचार हो, चिन्तित थे मुनि व्यास।

व्यास ने पुत्र शुकदेव से सोचा, करेगा वह ही पूरी आस।।

 

व्यास पुत्र शुकदेव जन्म से ही थे अति वैराग्य निधान।

वन जाने से रोके व्यास पुत्र को बहुत, न रुका सुजान।।

 

व्यास ने युक्ति से उसे रिझाया, शिष्य भेज शुकदेव के पास।

सुनकर एक श्लोक विशिष्ट, सम्पूर्ण ग्रन्थ सुनने की प्यास।।

 

अत: लौट आये शुक वन से, सुन करके वह दिव्य श्लोक।

आये व्यास शरण में, कथा सम्पूर्ण सुने, विराग को रोक।।

 

वही सुने वैशम्पायन भी, शिष्य व्यास के जो गुणवान।

व्यास आज्ञा वे कथा सुनाये, जनमेजय के यज्ञ महान।।

 

जनमेजय के नाग-यज्ञ में, पौराणिक सूत जी उपस्थित।

वैशम्पायन से दिव्य-कथा सुन, हुए सूत जी भी अति हर्षित।।

 

सूत के मन में जागा यह संकल्प, कि वैâसे कथा अनन्य।

जन-जन को हो सुलभ, उन्होंने सभा बुलायी नैमिष-वन।।

 

सूत आह्वान से अनेक ऋषि-मुनि आये, नैमिषारण्य-शुचि-धाम।

शौनक जी थे अध्यक्ष सत्र के, कहे सूत जी कथा तमाम।।

 

सुनकर ऋषि-मुनि हुए प्रभावित, कथा महाभारत की दिव्य।

हुई प्रचारित कथा इस तरह, जन-जन में, जैसा था लक्ष्य।।

इसी कथा को नारद मुनि ने, कही देवताओं से जा।

शुक मुनि किये प्रचार कथा यह, असुर, गन्धर्व तथा यक्ष-प्रजा।।

 

महाभारत की दिव्य-कथा में, भारतीय-धर्म-संस्कृति-सार।

कथा सहित, उपदेश, सूक्तियों का यह ग्रन्थ रत्न-भण्डार।।

 

भारत की साहित्य विधा में, श्रेष्ठ ग्रन्थ गणना इसकी।

धन्य व्यास जी, धन्य महाभारत सा ग्रन्थ-रत्न, यशसी।।

 

इसी महाभारत की कथा में, अति विविष्ट, देवव्रत-आख्यान।

पिता नहीं, पर बने पितामह, भीष्म नाम से जग सरनाम।।

 

उसी देवव्रत की गाथा का, कथा प्रबन्ध बनाना ध्येय।

पढ़, सुनकर जिस दिव्य-कथा को, सुजन को प्राप्त, प्रेय सङ्ग श्रेय।।

देवव्रत का जन्म

शान्तनु पुत्र देवव्रत की गाथा, तप, त्याग, शौर्य परिपूर्ण।

अनुपम आदर्शों का पूर्ण समन्वय, भक्ति, मुक्ति, सद््गुण।।

 

देवव्रत की वंशावली, दक्ष से विवश्वान, मनु, इला तथा।

हुए पुुरुरवा, आयु, नहुष, ययाति, पुरु, नृपति प्रसिद्ध कथा।।

 

हुए इसी कुल में दुष्यन्त, भरत, हस्ति, जो डाले हस्तिनापुर नींव।

हस्ति से नौवीं पीढ़ी में प्रतीप से शान्तनु हुए बलसींव।।

 

महाराज शान्तनु के पुत्र देवव्रत, जिनकी कथा विशेष।

प्रभास-वसु से गङ्गा-सुत बन, किये दिव्य कौतुक नरवेष।।

 

महाराज शान्तनु ने ऐसी सिद्धि कि जिस बूढ़े की देह।

कर देते स्पर्श वह बूढ़ा, हो जाता नवयुवक सदेह।।

 

इसीलिये उनका था शान्तनु नाम पड़ा, गुण देख विशेष।

महाराज शान्तनु थे वीर सुधीर, विवेक, विनीत नरेश।।

 

एक  बार वे निकले गङ्गा तट पर, करने भ्रमण सुयोग।

वहाँ उन्होंने देखा अतीव सुन्दर युवती, जागा भोग।।

 

महाराज शान्तनु ने उससे प्रणय निवेदन किया विशेष।

तुम जो भी हो, मेरा प्रेम स्वीकार करो, पत्नी के वेश।।

 

माँ गङ्गा सोद्देश्य वहाँ थी, सुन्दर युवती रूप धरे।

शान्तनु मोहित हुए देख सौन्दर्य, यौवना प्रकृति परे।।

 

सुन राजा का प्रेम निवेदन, गङ्गा स्मित-वदना बोली।

पत्नी बनना मुझको है स्वीकार, शर्त अपना खोली।।

मुझसे कोई कभी न पूछे, मैं हूँ कौन, क्या कुल मेरा?

अच्छा, बुरा मैं जो भी करूँ, न रोके कोई, शर्त खरा।।

 

मेरी किसी बात पर कोई, हो न रंज, न डाट, फटकार।

इन शर्तों में एक भी टूटा, तजू सङ्ग, क्या है स्वीकार?

 

प्रेम विवश शान्तनु ने, सारी शर्तों को स्वीकार किया।

पूर्ण रूप से पालन करेंगे शर्त, प्रिया को वचन दिया।।

 

यह सुन गङ्गा हो प्रसन्न, मन ही मन, राजा शान्तनु साथ।

गयी महल में शान्तनु के, राजा ने पकड़ा परिणय हाथ।।

 

गङ्गा शान्तनु की पत्नी बन गयी, मुग्ध राजा उस पर।

रूप, स्वभाव, विनम्र अचंचल प्रेम, प्राप्त प्रसन्न जी भर।।

 

प्रेम-सुधा में मग्न नृपति को, कालचक्र का भान न था।

इसी बीच गङ्गा से जनमें, सात पुत्र तेजवान यथा।।

 

पुत्रों को गङ्गा पैदा होते ही करती सरित प्रवाहित।

हो प्रसन्न लौटती महल में, देख व्यवहार, शान्तनु अति चिन्तित।।

 

वैâसी यह युवती, अपने पुत्रों को जन्मा, तजे तुरन्त।

रंच न शोक, मोह इसको, सुन्दरी, किन्तु अति कार्य नृशंस।।

 

शान्तनु मन ही मन चिन्तित रहते, पर शर्त का करके ध्यान।

चुप रह जाते, पर आठवें सुपुत्र हेतु, तोड़ा प्रण ठान।।

 

सुन्दरी, तुम कितनी नृशंस हो, अपने हाथों निज सुत प्राण।

ले लेती, मैं समझ न पाता, किस कुल की तुम हो सन्तान।।

क्यों करती यह घोर पाप तुम, माँ होकर, निज सुत नादान।

मृत्यु-गात डालती अकारण, घृणित कार्य, फिर भी मुस्कान।।

 

सुन शान्तनु के वचन, प्रसन्न हुई मन से, पर अभिनय क्रोध।

राजन् सुत से प्रेम आपको, मुझसे नहीं, अत: अति क्षोभ।।

 

मैं निज शर्त अनुसार, एक पल भी, अब यहाँ न रुक सकती।

इस सुत का मैं वध न करूँगी, लालन-पालन प्रण करती।।

 

जब होगा यह युवक, तुम्हें सौंपूँगी इसे समय अनुसार।

राजन्, यह होगा मेरी कोखी का, तुम्हें दिव्य उपहार।।

 

यह कह उस देवी ने, शान्तनु को निज परिचय दिया सप्रेम।

मैं गङ्गा हूँ जिसका ऋषि-मुनि गाते गाथा, नित दृढ़-नेम।।

 

जिन सातों शिशुओं को किया प्रवाहित, वे वसुदेव महान्।

वशिष्ट मुनि के श्राप के कारण, मृत्युलोक में जन्म निदान।।

 

वशिष्ट मुनि ने वसुओं को था श्राप दिया, मृत्युलोक में जन्म।

वसुओं की प्रार्थना पर मैं माँ बन जन्मा, की मुक्त तुरन्त।।

 

यह कह गङ्गा आठवाँ पुत्र ले, चली गयी निज वासस्थान।

दङ्ग रह गये, सुन सब गाथा, शान्तनु दु:खी, मौन, सत्य जान।।

 

वही पुत्र शान्तनु का देवव्रत नाम, तपस्वी, तेज निधान।

भीष्म-प्रतिज्ञा करके, भीष्मपितामह बन, पाया सम्मान।।

 

मुनि वशिष्ट ने श्राप दिया, वसुओं को क्यों, गाथा श्रवणीय।

उसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत, हेतु सुधीजन, जो कथनीय।।

वसुओं को वशिष्ट मुनि का श्राप

एक बार आठो वसु निज पत्नियों के संग विहार-हितार्थ।

आये मृत्युलोक में वशिष्ट मुनि आश्रम के निकट, क्रीड़ार्थ।।

 

आठो वसु आमोद-प्रमोद में व्यस्त, तभी जैसी होनहार।

वशिष्ट मुनि की गाय अलौकिक, नन्दिनी से हुआ साक्षात्कार।।

 

दैवी-गुण सम्पन्न नन्दिनी गाय, प्रगट बछड़े, के साथ।

देख प्रभास की पत्नी, उस पर मोहित हो बोली, प्रिय नाथ।।

 

गाय मुझे अति प्रिय है प्रियवर, इसे ले चलें साथ तुरन्त।

ऐसी गाय न देखी पहले, नाथ न कहिये, किन्तु, परन्तु।।

 

प्रभास ने निज पत्नी को समझाया, ‘यह वशिष्ट मुनि गाय।

हम तो स्वर्गलोक के वासी, जहाँ भोग के सभी उपाय।।

 

पत्नी बोली, ‘अपने लिये न लोभ, निज सखी हेतु प्रयास।

मृत्युलोक में सखी हमारी, उसको दूँगी यह गाय खास।।

 

चाह रहीं यह गौ मैं प्रियवर, मेरा कृपया तुच्छ निवेदन।

शीघ्र करें स्वीकार, ले चलें गो-बछड़ा संग, नाथ निज सदन।।

 

भवितव्यता प्रबल है, होनी होकर रहती, लाख उपाय।

किये न टलती, वैसी मति, गति, हो जाती है, दैव-प्रदाय।।

 

प्रभास-पत्नी से हो विवश, चुरा ले गये गाय वसु सभी।

मुनि वशिष्ट निज नियत कार्य कर, लौट आये, निज आश्रम में तभी।।

मुनि यज्ञानुष्ठान सामग्री, पूजन हित सब यथा विधान।

पा मुनि का निर्देश यथोचित, देती नन्दिनी सब सामान।।

 

मुनि को दिखी न नन्दिनी जब, तब खोजा तत्पर, इधर-उधर।

किन्तु न पता चला तब, मुनि अति चिंतित हुए, गाय खोकर।।

 

तब मुनि ने निज ज्ञानदृष्टि से, जाना वसुओं की करतूत।

क्रोधित हुए वशिष्ट जब उन पर, वसुओं में उद्दिग्नता उदित।।

 

उच्चाटन, अशान्त वसु-मन-हिय, समझ गये मुनि वशिष्ट कोप।

शीघ्र चल पड़े मुनि आश्रम हित, गो-बछड़ा समेत, मन क्षोभ।।

 

आश्रम आ मुनि के चरणों पर गिर, स्वीकार किये अपराध।

मुनिवर क्षमा करें यह भूल हमारी, पत्नी कारण नाथ।।

 

मुनि ने कहाश्राप अटल मेरा, तुम सबका लोभ अक्षम्य।

मृत्युलोक के प्राणी जैसा, पाओ मृत्युलोक में जन्म।।

 

किन्तु प्रभास को छोड़ अन्य सब, देवलोक वासी अति शीघ्र।

प्रभास मृत्युलोक में जन्म ले, वास करेगा काल कुछ दीर्घ।।

 

किन्तु यशस्वी होगा अति वह, धीर, वीर, बलवान, गुणखान।

कुल का नाम बढ़ायेगा वह, उस पर कृपा सतत् भगवान।।

 

मुनि आश्रम से लोट सभी वसु, माँ गंगा की गये शरण।

सारा हाल बता उनसे, किया माँ बनने का विनम्र निवेदन।।

 

हम सबकी माँ बन पृथ्वी पर, जन्माते ही डुबा हमें।

मुक्त करें भव बाधा से माँ, गंगा प्रसन्न, दी वचन उन्हें।।

वसुओं की प्रार्थना के कारण, गंगा ने शान्तनु को लुभाया।

उनसे जन्में सात वसुओं को, जन्मते डुबा कर, मुक्त कराया।।

 

सुन सारी गाथा शान्तनु का, मन विरक्त हो गया तुरन्त।

भोग-विलास से निवृत्त हो गये, राज-काज सक्रिय गुणवन्त।।

 

इसी तरह बीते कुछ दिन तब, भावी वस एक दिन राजा।

शिकार करने की इच्छा से, निकले सुन्दर रथ साजा।।

 

गंगा तट पर गये जहाँ, शान्तनु ने देखा दृश्य विचित्र।

सुन्दर युवक गंगा-धारा को वाणों से बाँध रहा समुचित।।

 

देख दृश्य गंगा-धारा वाणों से बँधी, रुकी तत्काल।

देख शान्तनु दंग रह गये, गंगा प्रगट हुयी तेहि काल।।

 

गंगा निज पुत्र को बुलाकर, बोली शान्तनु से- राजन्

पहचानों हमको और पुत्र निज, इसको सादर करें ग्रहण।।

 

यही आठवाँ वसु है, आपका पुत्र, देवव्रत नाम यथा।

देवोचित सद्गुण समस्त सम्पन्न, वीर, बलवान तथा।।

 

वेद और वेदान्त प्रवीण, प्रशिक्षित मुनि वशिष्ट का शिष्य।

शास्त्र ज्ञान में शुक्राचार्य सा, शस्त्र ज्ञान में परशुराम सा दिव्य।।

 

रण-कौशल, योद्धा-विशिष्ट के साथ, चतुर यह राजनीतिज्ञ।

वेद, शास्त्र, इतिहास, प्रवक्ता, भक्ति-मुक्ति विज्ञान में विज्ञ।।

 

महाराज यह पुत्र आपका, शौर्य, वीर्य, तप, त्याग निधान।

अनुपम आदर्शों का पूर्ण समन्वय इसमें, भक्ति प्रधान।।

निज संकल्प अनुसार सौंपती पुत्र आपका, युवक सुजान।

यह कह गंगा, चूमी पुत्र देवव्रत माथा, हित कल्याण।।

 

दे आशीष गयी माँ गंगा, शान्तनु पुत्र को घर लाये।

पाकर पुत्र देवव्रत जैसा, पिता नैसर्गिक सुख पाये।।

 

यही देवव्रत, गंगा-शान्तनु-पुत्र, किए जब भीष्म प्रतिज्ञा।

भीष्मपितामह नाम से हो सरनाम, किए प्रगटित निज प्रज्ञा।।

देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा

राजकुमार देवव्रत के संग, महाराज शान्तनु तन-प्राण।

राजकाज में लीन, प्रजा अति सुखी, राज्य से पाकर त्राण।।

 

चार वर्ष बीते शासन करते इस तरह, विराग प्रधान।

पर मन में जो राग छिपा था, उसका हुआ न किन्तु निदान।।

 

एक बार राजा शान्तनु, यमुना तट पहुँचे, भ्रमण हितार्थ।

देख वहाँ का अति विशिष्ट नैसर्गिक, दिव्य-सुगन्ध यथार्थ।।

 

हो आश्चर्य चकित राजा, पाने मनहर सुगन्ध संज्ञान।

लगे घूमने वन अंचल में, लक्ष्य, जिधर से गन्ध प्रमाण।।

 

उन्हें दिखी एक दिव्य यौवना, रूपवती अप्सरा समान।

उसी सुन्दरी के कमनीय देह से, दिव्य सुगन्ध अम्लान।।

 

सारा वन अंचल जिसकी पावन सुगन्ध से, अति-आप्लावित।

राजा शान्तनु पास गये, उस तरुणी पर हो कर अति मोहित।।

 

पूछा युवती से राजा ने, ‘क्या है नाम तुम्हारा तरुणी।

पिता कौन? आवास कहाँ है? गंध आलौकिक, तन-मन हरणी।।

 

सत्यवती है नाम हमारा, पिता मलाहों के सरदार।

यही पास यमुना तट पर, आवास हमारा, कुल परिवार।।

 

सुन सुन्दरी का परिचय, राजा शान्तनु मोहित हो उस पर।

अपना परिचय दे परिणय-प्रस्ताव रखे, समक्ष हँसकर।।

गंगा से वियोग के कारण, शान्तनु मन उपजा वैराग्य।

हुआ विलीन, देख उस सौरभमय तरुणी को, जागा राग।।

 

शान्तनु के प्रस्ताव को सुन, वह तरुणी बोली मीठी बोल।

पिता की अनुमति ले लें तो, मैं पत्नी बनूँ ’, बचन अनमोल।।

 

शान्तनु केवट राज निकट जा, निज प्रस्ताव सुनाये जब।

दास राज अति चतुर, विवेकी, विनय बचन बोला वह तब।।

 

है विवाह के योग्य सुता मम, ब्याह किसी से करना ही।

रंच नहीं सन्देह आपसा, उत्तम, सुयोग्य, है वर न कहीं।।

 

राजन् किन्तु आपको एक, बचन देना होगा तत्काल।

क्षमा करें धृष्टता हमारी, किन्तु, परन्तु का नहीं सवाल।।

 

राजा शान्तनु हो प्रसन्न बोले, ‘जो माँगो वह दूँगा।

अनुचित हुई न बात अगर तो, तेरा बचन निभाऊँगा।।

 

दासराज विनीत हो बोला, ‘राजन् आपके बाद नरेश।

मेरी पुत्री का ही सुत हो, तभी विवाह करूँ, भूपेश।।

 

शान्तनु को अति अनुचित लगी शर्त यह, केवटराज छली।

हुआ क्षोभ अति उनके मन में, हृदय-व्यथा दीर्घ श्वसन् बन निकली।।

 

गङ्गापुत्र देवव्रत के रहते, कोई अन्य बने राजा।

इसकी अल्प कल्पना भी, करना न उचित, हतप्रभ राजा।।

 

शान्तनु हुए निराश, लौट आये निज नगर, मगर तन-प्राण।

था उद्दिग्न बहुत, चिंता अति, सका न कोई कारण जान।।

सत्यवती के रूप, गंध-दैवी-तरुणायी पर मोहित।

थे राजा अति, शर्त किन्तु, बाधक बनकर, कर रही व्यथित।।

 

मौन-मौन रहते, चिंता अति, दुर्बल होता नित्य शरीर।

क्या है व्यथा, कौन दु:ख ऐसा, क्या है उनके मन की पीर।।

 

चिंतित हुए देवव्रत, देख पिता की हालत, जीर्ण शरीर।

व्यथा अकारण नहीं, मन में कुछ छिपा रहस्य है, अति गम्भीर।।

 

साहस करके गये एक दिन, पिता समीप जानने तथ्य।

बोले पिता से, ‘सब सुख-सुविधा, फिर भी दुर्बलता, क्या है रहस्य।।

 

शान्तनु असली बात छिपा कर, बोले सुत से बात बना।

एक मात्र तुम पुत्र हमारे, व्यसन युद्ध का तुम्हें घना।।

 

किसी युद्ध में मिली वीरगति तुम्हें, तो हम हों वंश विहीन।

शास्त्र बचन है, एक पुत्र का होना, नहीं के तुल्य, प्रवीण।।

 

यहीं हमारी चिंता-कारण, पर रहस्य से सब अनजान।

समझ गये सब गोल-मोल बातें, रहस्य कुछ और महान।।

 

गुप्तचरों से पता लगाये, किंतु न निकला कुछ परिणाम।

मंत्री भी अनभिज्ञ थे सारे, कोई न सका रहस्य को जान।।

 

नित्य साथ रहने वाले, सारथी से प्रगट रहस्य हुआ।

यमुना तट पर, देसराज से, हुई बात सब जान लिया।।

 

सब रहस्य को जान देवव्रत, केवटराज के पहुँचे पास।

सत्यवती का ब्याह करो, महाराज से, मुझे न करो निराश।।

केवटराज ने शर्त सभी दोहरायी, जो शान्तनु से बात।

सुन बोले देवव्रत- बचन देता मैं, लोभ न राज्य का तात।।

 

सत्यवती का पुत्र बनें राजा, मुझको आपत्ति नहीं।

महाराज के बाद सत्यवती-सुत, सिंहासन गहे वहीं।।

 

देशराज अति चतुर, देवव्रत बचन से वह, संतुष्ट नहीं।

अपने मन की बात दूर की, खुलकर उसने पुन: कही।।

 

क्षमा करें युवराज, वीर, रणधीर, बचन के हैं पक्के।

किन्तु हमारे मन में जो सन्देह, दूर उसको कर दें।।

 

मुझको है विश्वास पूर्णत:, आपका है संकल्प अटल।

किन्तु आपका पुत्र, आप जैसा ही होगा वीर विरल।।

 

सम्भव है छीन ले राज्य वह, मेरे नाती से निज बल।

व्यर्थ जाये संकल्प आपका, इसकी सम्भावना प्रबल।।

 

इसका समाधान कर दें, तो पुत्री का मैं शीघ्र विवाह।

कर दूँगा राजा शान्तनु से, जो है आपके मन की चाह।।

 

केवटराज का अप्रत्याशित सुने प्रश्न, देवव्रत सुजान।

पिता-भक्त देवव्रत हुए अति विचलित, न मिला तुरंत निदान।।

 

पर संकल्पित मन वालों को, पर-हितार्थ, निज का बलिदान।

निश्छल हृदय, लक्ष्य जब निश्चित, सदा सफलता दे भगवान।।

 

हुए देवव्रत चिंतनरत अति, शंका उचित, क्या उचित निदान।

शास्त्र-ज्ञान का मंथन करने लगे, शास्त्र-पथ, उचित प्रमाण।।

पुत्र का कर्तव्य, अपने पिता को सम्मान दे।

सभी सम्बन्धों से बढ़कर, पिता को ही मान दे।।

 

पिता के दुर्गुण हों चाहे जो भी, पुत्र न ध्यान दे।

पिता इच्छा पूर्ति हित निज स्वार्थ का बलिदान दे।।

 

पुत्र का यह धर्म, पिता हितार्थ करे निज हित का त्याग।

पिता की मन-भावना लख, करे उनकी पूर्ण माँग।।

 

पिता पुत्र के जनक हैं, परिवार संरक्षक भी वे।

पुत्र का कर्त्तव्य, पिता सेवा में समुचित ध्यान दे।।

 

पिता के आदेश पर, अनुचित-उचित चिंतन रहित।

करें आज्ञा पूर्ण, कर बलिदान निज सुविधा विविध।।

 

पिता को ही प्रमुखता, सम्बन्ध सारे छोड़कर।

प्राप्त करता सुयश जग में, सुपुत्र ऐसा ही प्रवर।।

 

जन्म से ही जनक, जननी, गुरु, सुहृद, आचार्य हैं।

भरण-पोषण, सुशिक्षा, संस्कार के आधार हैं।।

 

पिता से होना उऋण है असम्भव, दुश्वार है।

एक मात्र उपाय, संतति-वृद्धि से, भव पार है।।

 

पिता की इच्छानुसार ही कार्य करना चाहिए।

पिता से कुछ भी छिपाकर नहीं रखना चाहिए।।

 

सोलह बरस का पुत्र मित्र समान होता पिता के।

उत्तम वहीं है सुपुत्र, जो आज्ञा पालक हो अपने पिता के।।

हैं प्रमाण विशेष, पौराणिक कथाओं में अनेक।

पिता के हित पुत्र ने त्यागा है निज सुख, कर विवेक।।

 

शास्त्र के दृष्टान्त विविध, इस तथ्य हेतु प्रमाण है।

अत: शास्त्र बचन का पालन उचित, पन्थ न आन है।।

 

पिता का आदेश पा, परशुराम निज माता को मारे।

पिता हुए प्रसन्न, वर पा, परसु सब संकट को टारे।।

 

परशुराम ने रेणुका माँ को, पुन; जीवित कराया।

माँ को हो सब विस्मरण, पिता जमदग्नि से यह वर भी पाया।। 

 

राम, पिता बचन की रक्षा हेतु, वन वासी बने।

पत्नी व अनुज समेत, चौदह वर्ष, सह संकट घने।।

 

पुत्र पुरु ने पिता ययाति को, भोग हित यौवन दिया।

पुन: यौवन प्राप्त निज, जग में सुयश पैâला लिया।।

 

मारकण्डेय मुनि भी, पिता की कृपा से ही हुए अमर।

सेवा से हो संतुष्ट, पिता दिये उन्हें चिरंजीव वर।।

 

अत: हमको भी पिता की भावना का कर समादर।

त्याग करना चाहिए, निज स्वार्थ को, आदर्श हितकर।।

 

संकल्पित मन से प्रसन्न हो, देसराज से वीर देवव्रत।

आजीवन अविवाहित रहने का’, सुना दिये निज भीषण व्रत।।

 

अब होकर प्रसन्न मन, हिय से, सत्यवती का पाणिग्रहण।

करें हमारे पिता महाराज शान्तनु से, सुनकर मेरा प्रण।।

यही सनातन परम्परा आर्यों की, अत: मैं भी करूँ पालन।

पिता हितार्थ, त्याग निज स्वार्थ को, प्रसन्नता पूर्वक, शुचि-हिय-मन।।

 

अति गम्भीर वचन वे बोले– ‘मैं न विवाह करूँ आजीवन।

तब शंका का शमन पिता-हित, ब्रह्मचर्य व्रत, संकल्पित मन।।

 

राजकुमार देवव्रत से सुन, ऐसी अद्भुत भीष्म प्रतिज्ञा।

रोमांचित हो देशराज बोला– ‘अब तब क्या? कैसी आज्ञा।।

 

सत्यवती को ले जायें निज संग, करें विवाह जो इच्छा।

क्षमा करें हठधर्म हमारा, कहा सुना सब मेरी स्वेच्छा।।

 

सुनकर भीष्म प्रतिज्ञा ऐसी भीषण, जय जय कार चतुर्दिक।

देवलोक से हुई पुष्पवर्षा, जय महाबीर-ध्वनि हर्षित।।

 

गूँज उठी दश दिशा भीष्म जय, जय देवव्रत कुमार महान।

तुमने जो संकल्प किया है, नहीं कहीं इतिहास प्रमाण।।

 

आज से सारा लोक तुम्हें अब, ‘भीष्मनाम से जानेगा।

पिता भले तुम नहीं बनो, जग भीष्मपितामहमानेगा।।

 

पूज्य पितर में होगी गणना तेरी, श्राद्ध-कर्म सम्मान।

नहीं किसी को मिला आज तक, हम देवों का यह वरदान।।

 

सुने देवव्रत शान्त, विनत हो, देवों का यह शुभ वरदान।

ऐसे वीर, धीर ही करते, परहित में, निज हित बलिदान।।

 

सत्यवती को सादर संग ले गये, हस्तिनापुरी नगर।

महाराज शान्तनु सुन सारी बात, हुए प्रसन्न सुत पर।।

सत्यवती का महाराज शान्तनु से, सोल्लास हुआ विवाह।

धूम-धाम से आनन्द उत्सव, जन-जन में अपार उत्साह।।

 

हुई इस तरह देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा पूरी, दृढ़-संकल्प।

महाराज शान्तनु अति हुए प्रसन्न, प्राप्त मन-हृदय-विकल्प।।

 

हो प्रसन्न आशीष दिये, जब तक गङ्गा-यमुना धारा।

पुत्र तुम्हारा सुयश अखण्ड रहे जग, जब तक रवि, शशि, तारा।।

 

संकल्पित मन में है शक्ति अमोघ, सृष्टि संकल्प प्रधान।

अन्ध तमस को चीर, करे संकल्प हर विधा नया विहान।।

 

जय भीष्म, जय देवव्रत नारा, गूँजा धरती से आकाश।

देवव्रत के भीषण संकल्प से, गौरवान्वित भारत का इतिहास।।

 

युग-युग तक यह कथा देवव्रत की, देगी नर हृदय प्रकाश।

नर जीवन क्षण-भंगुर, अक्षय-कीर्ति प्राप्ति, नर-वर, चिर-प्यास।।

अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका

महाराज शान्तनु का, सत्यवती से प्रेम, प्रगाढ़ हुआ।

बिसर गया गङ्गा अभाव सब, नव जीवन रस-राग हुआ।।

 

सत्यवती को शान्तनु से दो पुत्र उत्पन्न हुए, गुणवान।

चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य, दोनों  सुन्दर, सुशील, बलवान।।

 

चित्राङ्गद अति स्वेच्छाचारी, एक बार कर रणभारी।

गन्धर्वों से युद्ध में मर कर, बनें स्वर्ग के अधिकारी।।

 

विचित्रवीर्य तब नाबालिग थे, अत: देवव्रत ही संरक्षक।

बनकर शासन भार सँभाले, राजा के सेवक, प्रति-रक्षक।।

 

राजा हुए युवक तब, विचित्रवीर्य के ब्याह की चिंता भारी।

उसी समय संयोग से, काशी में स्वयंबर की हुई तैयारी।।

 

काशी-राज की तीन कन्यायें, अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका।

थीं अनिन्द्य सुन्दरियाँ, अत: युवराज अनेक सुयशदा।।

 

जुटे स्वयंबर में पाने को, सुन्दरियों का हाथ।

सोम देश का राजा, शाल्व भी आया सबके साथ।।

 

बड़ी सुपुत्री अम्बा, शाल्व को देख विमुग्ध हुई अति।

शाल्व भी उस पर मोहित था, पर ज्ञात न उसको विधि-गति।।

 

सोम देश का राजा शाल्व, अति वीर, बली, स्वाभिमानी।

काशीराज की कन्या, अम्बा, थी उस पर दीवानी।।

 

मन ही मन अम्बा ने, शाल्व को अपना पति था माना।

वीर शाल्व भी अम्बा के सौन्दर्य पर, था दीवाना।।

समाचार सुन काशीराज की कन्याओं के स्वयंबर का।

भीष्म भी गये संकल्पित मन से, विचित्रवीर्य हित हरण करने का।।

 

देख स्वयंबर में अति बूढ़े, भीष्म को आये, सब युवराज।

लगे कटाक्ष विविध विधि करने, इनको न स्वयं की प्रतिज्ञा की लाज।।

 

देख भीष्म को मची खलबली, सभा मध्य सब व्याकुल।

लगे प्रशंसा कुछ करने, कुछ निन्दा, हो शंकाकुल।।

 

भरत श्रेष्ठ श्री भीष्म, वीर, रणधीर, प्रसिद्ध विद्वान।

पर अति बूढ़े, ब्याहन आये, कर निज प्रण अपमान।।

 

आजीवन ब्रह्मचर्य व्रती का, था इनका संकल्प।

पर जग में पा सुयश, आज ढूढ़ा यह नया विकल्प।।

 

मैं अपने हित नहीं, विचित्रवीर्य हित आया हूँ यहाँ।

हरण करुँगा कन्याओं का, यह मेरा संकल्प महा।।

 

सुन-सुनकर कटाक्ष युवकों की, भीष्म हुए अति क्रुद्ध।

युवकों को ललकारा आओ, सब मिलकर कर लो युद्ध।।

 

जिसमें हो साहस, बल, पौरुष, रोक सके तो रोके।

विचित्र वीर्य हित हरण करूँगा, सुभग स्वयंबर मौके।।

 

वीर भीष्म ने सबके आगे, कन्याओं को हर कर।

बैठा लिया जबरदस्ती, जल्दी से अपने रथ पर।।

 

सब युवराज देखते रह गये, सबने हिम्मत हारी।

भीष्म से लोहा कौन मोल ले, सबकी मति गयी मारी।।

किन्तु शाल्व ने पीछा किया, पर वीर भीष्म के आगे।

टिक न सका, अन्तत: पराजित हुआ, प्राण प्रिय लागे।।

 

काशीराज की कन्या, अम्बा का अनुनय, लख प्रेम।

छोड़ा शाल्व को बिना वध किये, लौटा गृह, पा क्षेम।।

 

पहुँच हस्तिनापुर देवव्रत ने, विचित्रवीर्य का ब्याह।

काशीराज की तीनों कन्याओं से करने की, प्रगट की चाह।।

 

तब अम्बा ने कहा, आपने हरण किया है मेरा।

अत: आप ही ब्याहें मुझको, या शाल्व से करें मम फेरा।।

 

भीष्म ने निज संकल्प सुनाया, ब्याह नहीं करने का।

सत्यवती-सुत हित, आजीवन, अविवाहित रहने का।।

 

अम्बे अत: तुम्हे निज प्रेमी शाल्व से ब्याह करना है।

मैं संकल्पित, अविवाहित रहने का, व्यर्थ कहना है।।

 

भीष्म ने अम्बा को भेजा, शाल्व के पास निवेदन करने।

किन्तु शाल्व ने ठुकराया प्रस्ताव, लगा वह कहने।।

 

तुम्हे भीष्म ने हरण किया है, वहीं तुम्हारे पति अब।

तेरे मेरे प्रेम का, अब न महत्व, व्यर्थ चिंतन सब।।

 

हार चुका हूँ भीष्म से रण में, स्वाभिमान पर मेरा।

है अजेय, जब तक जीवन, नहीं पाणिग्रहण अब तेरा।।

 

यह सुन अम्बा पुन: हस्तिनापुर लौटी, मन क्षोभ।

किन्तु विवश थी, अत: भीष्म की शरण गयी, तज क्रोध।।

भीष्म ने तब फिर बिचित्रवीर्य से ही अम्बा का ब्याह।

करने का प्रस्ताव किया तब, बिचित्रवीर्य उर दाह।।

 

उसने प्रगट किया विरोध अपना, यह उचित न तात।

अम्बा शाल्व पर रीझ चुकी है, अत: न पकड़ूँ हाथ।।

 

भीष्म ने तब अम्बा को भेजा, पुन: शाल्व के पास।

किन्तु शाल्व ने ठुकराया उसको, तब टूटी आस।।

 

पुन: लौट कर भीष्म से उसने, किया विवाह निवेदन।

किन्तु भीष्म ने दोहराया, अविवाहित रहने का प्रण।।

 

भीष्म, ने पुन: विचित्रवीर्य से, कहा पकड़ लो हाथ।

किन्तु नहीं स्वीकारा, फिर से दोहरायी सब बात।।

 

भीष्म शाल्व के चक्कर में, अम्बा को बीत गये छ: वर्ष।

खाते-खाते ठोकर, आँसू सूखे, प्रगटा क्रूर, अमर्ष।।

 

उसने अपने सारे दु:ख का कारण, जाना भीष्म को।

भीष्म से बदला लेने की, भड़की क्रोधाग्नि, प्रज्ज्वलित हो।।

 

अनेक राजाओं से मिल, भीष्म से युद्ध का किया निवेदन।

किन्तु भीष्म का नाम सुन डरे, राजा ठुकराये उसका प्रण।।

 

राजाओं ने किया निराश, जब उसकी पूर्ण न हुई कामना।

तब तप कर भगवान कार्तिकेय को, प्रसन्न करने की जगी भावना।।

 

किया घोर तप अम्बा ने तब, प्रगटे कार्तिकेय भगवान।

दिये दिव्य माला कमलों की, तथा दिये इच्छित वरदान।।

अम्बे यह माला लो, जो भी इस माला काे पहनेगा।

भीष्म की मृत्यु का कारण निश्चय, जानो वह नर-वर होगा।।

 

माला पा, हो अति प्रसन्न, अम्बा बतला माला वरदान।

मिली विविध राजाओं से फिर, किन्तु न पूर्ण हुआ आह्वान।।

 

सब राजा भयभीत भीष्म से, अत: सहायक बने नहीं।

राजा द्रुपद से मिली किन्तु, वे स्वीकारे प्रस्ताव नहीं।।

 

हो अत्यन्त निराश, द्रुपद के महल में टांगी वह माला।

कहीं न उसको शान्त मिली, अति-व्यथित हृदय, व्याकुल बाला।।

 

क्षत्रिय कुल से हो निराश, वह गयी ब्राह्मणों, ऋषियों पास।

अपना दु:खड़ा उन्हें सुनाया, तब उन्होंने उसे बँधायी आस।।

 

दु:खी न हो तुम देवी सत्वर, जाओ परशुराम के पास।

निश्चय वहीं सहायक होंगे, वही हरें तव विपदा, त्रास।।

 

परशुराम के शरण में जा, अम्बा ने सब वृतान्त कहा।

परशुराम अति द्रवित हुए सुन, अम्बा व्यथा, विपत्ति महा।।

 

अम्बा से वे पूछे- बेटी बोलो, तेरा क्या अभिप्राय।

शाल्व है मेरा भक्त, क्या उससे पाणिग्रहण में बनूँ सहाय।।

 

तब अम्बा ने कहा- प्रभो अब नहीं ब्याह इच्छा मेरी।

आप भीष्म को बधे युद्ध कर, तब हो मम इच्छा पूरी।।

 

परशुराम को अम्बा का प्रस्ताव भाया, वे उठे तुरन्त।

शरणागत की रक्षा करना धर्म, अत: नहीं, किन्तु-परन्तु।।

क्षत्रिय कुल से द्रोह भी उनको, अत: जा भीष्म को ललकारे।

द्वन्द्व-युद्ध मच गया भयंकर, अम्बा शरणागत द्वारे।।

 

दोनों योद्धा विविध अस्त्र विद्या प्रवीण, वर-धनुर्धारी।

दोनों तेज निधान, जितेन्द्रिय, शौर्य, अखण्ड ब्रह्मचारी।।

 

बहुत दिनों तक युद्ध हुआ पर, हार-जीत का नहीं निदान।

किन्तु अन्त में परशुराम ने मानी हार, प्रसन्न हुए भीष्म महान।।

 

अम्बा से परशुराम जी बोले, ‘जितना था मुझसे सम्भव।

किया प्रयत्न, किन्तु हुआ असफल, अम्बे भीष्म का लो सम्बल।।

 

शोक-क्षोभ से पीड़ित अम्बा, दु:खी हुई सुनकर प्रस्ताव।

हो निराश वह गयी हिमालय, महादेव प्रति बढ़ा लगाव।।

 

हिमगिरि पर अम्बा ने घोर तपस्या की, प्रगटे शज्र्र।

मैं प्रसन्न हूँ तुम पर अम्बे, दूँगा तुमको इच्छित वर।।

 

पुत्री सफल तपस्या तेरी, अगले जन्म में निश्चय भीष्म।

तेरे ही कारण मारे जायेंगे, होगा पूर्ण अभीष्ट।।

 

अम्बा उर में अमर्ष भारी, जितना शीघ्र भीष्म पर घात।

करूँ, अत: स्वाभाविक मृत्यु, न उचित लगी, त्यागूँ निज गात।।

 

उसने चिता बनाकर, यौगिक अग्नि प्रगट कर, भस्मीभूत।

किया स्वयं के तन को अग्नि को भेंट, जल मरी, यज्ञ अभूत।।

 

शिव जी के वरदान से अम्बा, द्रुपद-सुता बनकर जन्मी।

पूर्व जन्म की सारी बातें, उसे याद थी, गुण-कर्मी।।

जब कन्या कुछ बड़ी हुई तो, खेल-खेल एक दिन उसने।

कार्तिकेय भगवान प्रदत्त माला कमलों की, ले पहने।।

 

कन्या की यह क्रीड़ा लखकर, राजा द्रुपद हुए उद्विग्न।

उन्हें ज्ञात थी पूर्व जन्म की, अम्बा की सारी वर-विघ्न।।

 

उन्होंने मन में सोचा, इस कन्या के कारण भीष्म से वैर।

लेना उचित नहीं, अत: कन्या को ही त्यागने में है खैर।।

 

यह निश्चय कर निज कन्या को, राजा घर से दिये निकाल।

विचलित वह न हुई किंचित भी, तप हित वन पहुँची तत्काल।।

 

वन में उसने घोर तपस्या करके, तरुणी तन को त्याग।

पुरुष रूप धर नाम शिखण्डी, हुई जगत भर में विख्यात।।

 

हुआ महाभारत का रण, कुरुक्षेत्र में, तब अर्जुन का रथ।

चला, शिखण्डी ने था पूर्ण किया निज, पूर्व-जन्म-मनोरथ।।

 

रथ पर आगे देख शिखण्डी को, पीछे से अर्जुन वाण।

देख चलाते, भीष्म हुए अति क्षुभित, ज्ञात था पूर्व प्रमाण।।

 

अम्बा ही है पूर्व जन्म की आज शिखण्डी, अत: न श्रेय।

स्त्री आगे अस्त्र चलाऊँ, नहीं, यहीं प्रण, मेरा प्रेय।।

 

भीष्म शान्त हो बैठ गये, रख धनुष वाण, तब पार्थ महान।

के हाथों होकर घायल जब गिरे भीष्म, तब हुआ निदान।।

 

हुआ शिखण्डी का प्रण पूरा, उसका क्रोध हुआ तब शान्त।

भीष्मपितामह सा योद्धा, शरसय्या सोया, नर-विक्रान्त।।

कौरव और पाण्डव

सत्यवती को हुए पुत्र दो, चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य।

शान्तनु के पश्चात हुए चित्राङ्गद राजा, यथा विधीर्य।।

 

चित्राङ्गद एक युद्ध में मारे गये, तो लघु सुत विचित्रवीर्य।

हुए हस्तिनापुर के राजा, पर वे नाबालिक मतिधीर।।

 

अत: देवव्रत, राज-काज संरक्षण किये, तन-मन-हिय-प्राण।

राजा के विवाह की चिन्ता, विचित्रवीर्य जब हुए जवान।।

 

राज वंश के कुल नायक, पालक, पथ-दर्शक, देवव्रत महान।

हर लाये कन्यायें काशीराज की, हुआ विवाह विधान।।

 

हुआ इस तरह विचित्रवीर्य का ब्याह, रानियाँ दो सम्भ्रांत।

अम्बिका और अम्बालिका, दोनों रूपशील, गुण की दृष्टान्त।।

 

दोनों रानियों से एक-एक सुत हुए, अम्बिका से धृतराष्ट्र।

तथा अम्बालिका से सुत पाण्डु का जन्म हुआ, हर्षित कुल, राष्ट्र।।

 

यथा समय धृतराष्ट्र का, गान्धारी से हुआ विवाह सोउल्लास।

तथा पाण्डु का कुन्ती और माद्री से ब्याह, सुखी रनिवास।।

 

धृतराष्ट्र को गान्धारी से, सौ पुत्र हुए, सब वीर सुजान।

तथा पाण्डु को कुन्ती से तीन, माद्री से दो, दैवी-सन्तान।।

 

करते रहे देवव्रत शासन-सहायता, रक्षण, संचालन।

बड़े पुत्र धृतराष्ट्र थे अन्धे, अत: पाण्डु बैठे सिंहासन।।

एक बार महाराज पाण्डु, जङ्गल में गये शिकार हितार्थ।

ऋषि-दम्पत्ति, एक हिरण वेष धर, वहीं विचर रहे थे विहारार्थ।।

 

महाराज ने हिरण समझकर मारा तीर, हरे ऋषि प्राण।

ऋषि ने श्राप दिया, सम्भोग समय तेरे भी, निकले प्राण।।

 

ऋषि के श्राप से दु:खित हुए अति, यद्यपि पाप हुआ अनजान।

महाराज को हुआ परम वैराग्य, छोड़ कर राज्य सुजान।।

 

चले गये वन में, कुन्ती व माद्री सङ्ग, बन ब्रह्मचारी।

सिंहासन धृतराष्ट्र को सौंप, बना भीष्म, विदुर को अधिकारी।।

 

वन में पाण्डु श्राप के डर से, नहीं कभी भी किये सम्भोग।

मन में थी पर पुत्र लालसा, कुन्ती ने तब कहा सुयोग।।

 

दुर्वासा की वर की बातें, बतलाकर निज पति के स्वार्थ।

तीन पुत्र कुन्ती ने जन्माया, दो माद्री ने, देवार्थ।।

 

हुए प्रसन्न पाण्डु पुत्रों को पाकर, पर होनी गम्भीर।

हुए एक दिन ऋतु-मद-मस्त, पाण्डु माद्री सङ्ग, भोग अधीर।।

 

माद्री ने बहुतेरा समझाया, पर काम विवश मति-धीर।

करते ही सम्भोग पाण्डु का, प्राण-रहित हो गया शरीर।।

 

कुन्ती, माद्री हुईं दु:िखत अति, पर प्रारब्ध प्रबल की मार।

पड़ा झेलना, ऋषि, मुनियों ने, समझाया कह, युक्ति ह़जार।।

 

ऋषियों ने ले जाकर सौंपा, भीष्म को, बतलाकर सब बात।

पाण्डु निधन का समाचार सुन, दु:खी हुए परिजन, प्रजा, नात।।

व्यास ने सबको समझाया, था अतीत अच्छा, बुरा भविष्य।

आने वाला है, सत्यवती तुम त्यागो गृह, यह तुमको इष्ट।।

 

व्यास की आज्ञा मान सत्यवती, पुत्रवधू अम्बिका, अम्बालिका।

को ले सङ्ग गयी वन में तप करने, त्यागी तन, जो प्रभु की इच्छा।।

 

पाण्डु का अन्त हुआ तब, बाध्य हो, सिंहासन बैठे धृतराष्ट्र।

अन्धे थे वे जन्म से, अत: अनुज पाण्डु पाये थे राज्य।।

 

चूँकि पाण्डु के पुत्र युधिष्ठिर, उस समय तक थे नाबालिग।

अत: राज्य धृतराष्ट्र को सौंपकर, भीष्म-विदुर-नीति, तात्कालिक।।

 

पाँचों पुत्र पाण्डु के थे सब, विद्या, बल, गुण, नीति-निधान।

अर्जुन जैसा नहीं धनुर्धारी, न भीष्म जैसा बलवान।।

 

प्रजा सभी पाण्डु पुत्रों की, करती रहती सदा बखान।

बने युधिष्ठिर राजा यथा शीघ्र, सब मिल करते गुणगान।।

 

पर धृतराष्ट्र का बड़ा पुत्र दुर्योधन, दुष्ट, क्रूर, मतिमन्द।

रचता रहा विनाश हेतु पाण्डव का, कौरव-जाल-प्रचण्ड।।

 

विष दे भीष्म को, तथा वारणावर्त में, लाख-महल में आग।

रचा कुचक्र विनाशक पर, विदुर नीति से बचे पान्डु-सुत भाग।।

 

दुर्योधन मन सदा जलन, हो किसी तरह विनाश पाण्डवों का।

तब निष्कण्टक राज्य हमारा, सदा हाथ में रहे न शंका।।

 

पाण्डवों के प्रति प्रजा की सहानुभूति से, वह सन्तत चिंतित।

इसीलिये उनके विनाश के उपाय में, वह रहता लिप्त।।

थे यमराज-अवतार विदुर, अत: नीति, ज्ञान, विवेक, राजनीति।

देख बनाया प्रधानमंत्री, भीष्मपितामह ने अति प्रीति।।

 

हर अवसर पर देते रहे सुसम्मति, वे धृतराष्ट्र को।

पर विधि का विधान सर्वोपरि, मना न पाये पुत्र को।।

 

किन्तु देवव्रत, विदुर के आगे, दुर्योधन की एक न चाल चली।

पुत्रमोह से ग्रसित, नृपति धृतराष्ट्र, सहायक शकुनि छली।।

 

जुआ-खेल, शासन बँटवारा, कुरुक्षेत्र का युद्ध प्रमाण।

विदुर बहुत समझाये पर, धृतराष्ट्र पुत्र-मोह-ग्रसित इंसान।।

 

देवव्रत देते रहे सुसम्मति, पर अग्रज सुत दुर्योधन।

किसी की सुनता नहीं था अपने, अहज्रर से ग्रस्त, मूढ़-घन।।

 

पुत्र मोह से ग्रस्त थे राजा, अत: न बन पायी कुछ बात।

कृष्ण संधि-प्रस्ताव ले आये, दूत बने, उन पर भी घात।।

 

हुआ अन्तत: वहीं जो होना था, विधि के विधान अनुसार।

युद्ध महाभारत का, कौरव-पाण्डव बीच, महासंहार।।

 

शासन के संरक्षक नाते, लिए देवव्रत राजा पक्ष।

यद्यपि उनका प्रेम पाण्डवों पर, जो सत्य मार्ग सिद्धस्थ।।

 

कृष्ण, देवव्रत, विदुर, द्रोण आदिक ने किया प्रयास अमित।

युद्ध न हो, पर व्यर्थ गया सब, पुत्र-मोह, धृतराष्ट्र ग्रसित।।

 

एक बार समझौता करके, राज्य का करके बँटवारा।

इन्द्रप्रस्थ पाण्डवों को देकर, विदुर ने झगड़ा निपटारा।।

इन्द्रप्रस्थ का वैभव, देख, सुशासन, सारी प्रजा सुखी।

दुर्योधन अमर्ष में पड़ कर, रहता सदा, नितान्त दु:खी।।

 

शकुनी के छल-कपट से उसने, जुआ खेल इन्द्रप्रस्थ का राज्य।

जीत लिया पाण्डवों सहित, द्रोपदी का चीर हरण, दु:खदाय।।

 

बारह वर्ष बनें वनवासी, तेरहवें में अज्ञातवास।

करके पाण्डव लौटे तब, दुर्योधन लोभी राज्य की प्यास।।

 

बना बहाने राज्य न लौटाने की, साजिश किया अनेक।

शकुनी, कर्ण व दुश्शासन के, बहकावे में उसकी टेक।।

 

पाँच गाँव पर भी समझौता, किया नहीं, जिद्दी, मतिमन्द।

सूई नोक बराबर भूमि भी, बिना युद्ध के नहीं दूँगा, सुत-अन्ध।।

 

भीष्म, द्रोण और विदुर प्रयास किये पर, सब ही रहे विफल।

कृष्ण दूत बन स्वयं पधारे, किन्तु सन्धि में नहीं सफल।।

 

अत: युद्ध से ही हो निर्णय, कौरव-पाण्डव का संकल्प।

ग्यारह अक्षौणी कौरव सेना, सात अक्षौणी पाण्डव सङ्ग।।

 

कृष्ण की नारायणी सेना पा, था प्रसन्न अति दुर्योधन।

कृष्ण को निज सारथी बनाकर, पार्थ थे हर्षित तन, हिय, मन।।

 

हुआ इस तरह कुरुक्षेत्र का, युद्ध कौरवों पाण्डवों बीच।

एक वंश की ही शाखायें भिड़ीं, कुपथ दुर्योधन नीच।।

 

जब सारे प्रयत्न असफल हो गये, युद्ध निर्णय जब बाध्य।

पाण्डव-कौरव दोनों दल, कुरुक्षेत्र में पहुँचे, निज दल साथ।।

महाभारत का युद्ध

पाण्डव पक्ष में द्रुपद-पुत्र, धृष्टद्युम्न बनें सेनापति वीर।

कौरव पक्ष के भीष्मपितामह, देवव्रत सेनापति रणधीर।।

 

कर्ण ने किया प्रतिज्ञा, जब तक भीष्मपितामह, सेनापति।

मैं न युद्ध में शामिल होऊँगा, अहंपूर्ण उसकी मति, गति।।

 

भीष्म का था संकल्प, करूँगा संचालन मैं सैन्य कुशल।

संहारूँगा सैनिक विविध विपक्ष, यथा मम पौरुष बल।।

 

किन्तु पाण्डवों का मैं, वध न करूँगा, वे अपने ही अंश।

उनका पक्ष ही मुझे उचित लगता, पर बाध्य हूँ, राजा-सङ्ग।।

 

युद्ध प्रारम्भ के पूर्व युधिष्ठिर, तज निज कवच, अस्त्र और शस्त्र।

भीष्म, द्रोण को प्रणाम करके, प्राप्त किये अनुकूल वर, यश।।

 

मोह ग्रसित अर्जुन का मोह विनष्ट, कृष्ण से सुन गीता।

रण प्राङ्गण में युद्ध मात्र कर्तव्य, नहीं कोई नाता।।

 

आत्मा अमर, शरीर-क्षेत्र-क्षर, प्रकृति पुरुष-प्रेरित, सक्रिय।

प्रभु कौतुक जग, माया भासित, हरि शरणागति, जीव को प्रिय।।

 

जब जैसा संयोग बने, तब, कर्म सतत आसक्ति रहित।

फल आशा न कदापि करे, फल दाता ईश्वर धर्म सहित।।

 

हुआ युद्ध प्रारम्भ अन्तत:, बजे विगुल, दुन्दुभि और शङ्ख।

भिड़े योद्धा एक दूसरे से, निज जय-निनाद के सङ्ग।।

रथी-रथी, हाथी से हाथी, घुड़सवार से भिडे सवार।

पैदल से पैदल प्रतिपक्षी, एक दूसरे को ललकार।।

 

नित्य हजारों सैनिक मरते, घोड़े, हाथी, रथ हों नष्ट।

राजा, महारथी, रथरक्षक, अस्त्र-शस्त्र सब नित्य विनष्ट।।

 

कभी कौरवों की जय होती, कभी पाण्डवों की जयकार।

सब रिश्ते-नाते व कुटुम्बी, प्रतिपक्षी पर करते वार।।

 

सूचीमुख या कभी गरुणमुख, अर्द्धचन्द, क्रौंच, मकराकार।

कच्छप, कूर्म, त्रिशिखर, व्यूहरचना, प्रतिपक्ष-व्यहू-अनुसार।।

 

सञ्जय को था दिया व्यास ने, दिव्य-दृष्टि जिससे वे नित्य।

युद्ध का सब समाचार सुनाते थे, धृतराष्ट्र को भूत, भविष्य।।

 

सुन-सुन युद्ध का हाल, कभी धृतराष्ट्र हों हर्षित, कभी दु:खी।

सञ्जय विदुर की नीति की बातें करके स्मरण, कभी न सुखी।।

 

हुआ इस तरह युद्ध भयज्र्र, बड़े-बड़े योद्धा रणधीर।

मारे गये महाभारत के युद्ध में, दोनों पक्ष के वीर।।

 

मात्र अट्ठारह दिन तक ही, था मचा महाभारत संग्राम।

किन्तु महानाशक जन-धन का, मरे समर में वीर तमाम।।

 

बड़े-बड़े राजे-महराजे, सैनिक, रथ, गज, अश्व अनेक।

हुए विनष्ट महा रण-प्राङ्गण, रुदन भयावह दिशा-दिगन्त।।

 

विस्तृत विवरण प्रस्तुत जिसका जन-जन के संज्ञान हितार्थ।

पढ़, सुनकर जिसको पायेंगे, भक्त ज्ञान के सङ्ग परमार्थ।।

प्रथम दिवस का युद्ध भयज्र्र, भीष्म से पाण्डव सेना त्रस्त।

उत्तर, श्वेत, विराट-पुत्र दो, मरे आज, कर कौरव पस्त।।

 

अभिमन्यू का रण-कौशल लख, भीष्म स्वयं आश्चर्य-चकित।

सात महारथियों ने घेरा, किन्तु न रञ्च वह, हुआ व्यथित।।

 

युद्ध दूसरे दिन का भीषण, भीष्म से पाण्डव दल की हार।

देखकर, अर्जुन और भीष्म में टक्कर हुई, भयज्र्र मार।।

 

धृष्टद्युम्न और द्रोण में टक्कर, भीम से घायल दुर्योधन।

भीष्म, द्रोण से भिड़े युधिष्ठिर, हारे कौरव, रण-प्राङ्गण।।

 

हुआ तीसरे दिन का युद्ध भयज्र्र, अर्जुन-भीष्म भिड़े।

भीष्म की मार से, कृष्ण और अर्जुन अति घायल होकर भी लड़े।।

 

कृष्ण कूदकर रथ पहिया ले, भीष्म के ऊपर टूट पड़े।

हो प्रसन्न, कर जोड़ भीष्म, श्रीकृष्ण के आगे हुए खड़े।।

 

तब अर्जुन ने यह अनर्थ लख, कृष्ण को पीछे खींच लिया।

कौरव पर कर घोर आक्रमण, पार्थ ने रण को जीत लिया।।

 

चौथे दिन के युद्ध में अभिमन्यू ने किया अमित संहार।

भीम भिड़े दुर्योधन से फिर, दिये हजारों हाथी मार।।

 

उधर हिडिम्बा पुत्र घटोत्कच, पिता भीम को घायल देख।

टूट पड़ा कौरव दल दहला, पर युद्ध रुका संध्या की रेख।।

 

युद्ध पाँचवे दिन का अद्भुत, देख शिखण्डी को रण प्राङ्गण।

भीष्म हट गये युद्ध भूमि से, द्रोण-शिखण्डी-रण समराङ्गण।।

किन्तु द्रोण के आगे, नहीं शिखण्डी की चल पायी चाल।

युद्ध से विरत हुआ वह फौरन, अपने को नहीं सका सम्हाल।।

 

भूरिश्रवा तथा सात्यकी के दस पुत्रों में, हुआ युद्ध भयज्र्र।

किन्तु भूरिश्रवा के आगे, दसो पुत्र वीर गति पाये लड़कर।।

 

छठवें दिन का युद्ध भयज्र्र, भीम कौरवों पर भारी।

पैदल ही वे गदा से मारे, अनेक गज, अश्व, रथ, पदचारी।।

 

धृष्टद्युम्न, अभिमन्यू के भय, कौरव दल में हाहाकार।

किन्तु भीष्म ने बीच में आकर, त्रस्त सैन्यदल लिया उबार।।

 

दुर्योधन घायल हो रथ में गिरा, कृपाचार्य चतुराई से।

उसे  बचाकर निज रथ से, ले गये दूर कठिनाई से।।

 

दुर्योधन की सुश्रूषा कर, भीष्म बचाये उसके प्राण।

हुआ सातवें दिन का युद्ध भयज्र्र, घातक अर्जुन वाण।।

 

भीष्म-अर्जुन में युद्ध भयज्र्र, द्रोणाचार्य-विराट के बीच।

अश्वत्थामा भिड़े शिखण्डी, धृष्टद्युम्न-दुर्योधन नीच।।

 

नकुल और सहदेव-शल्य सङ्ग, भीम से भिड़े-दुर्योधन भाई।

युद्ध घटोत्कच तथा भगदत्त में, अलम्बुष और सात्यकी में लड़ाई।।

 

एक मोर्चे पर भूरिश्रवा-धृष्टद्युम्न में मुकाबला।

तथा युधिष्ठिर-श्रुतायु मेंकृपाचार्य-चेकितान में युद्ध चला।।

 

अर्जुन-भीष्म मे भारी टक्कर, रथ, घोड़े, हाथी का नाश।

पैदल की गिनती न कोई, दोनों दल में भारी सर्वनाश।।

युद्ध आठवें दिन का, कौरव पक्ष हेतु था अति नाशक।

आठ पुत्र धृतराष्ट्र के भीम ने मारे, प्रबल युद्ध त्रासक।।

 

किन्तु उसी दिन नाग-कन्या से, अर्जुन-पुत्र-इरावान वीर।

मारा गया अलम्बुस राक्षस के हाथों, छल से, रणधीर।।

 

अर्जुन हुए शोक-व्याकुल सुन, भीम, तथा घटोत्कच महान। 

टूट पड़े, कौरव सेना में भगदड़ हो गई, युद्ध घमासान।।

 

नौवें दिन का युद्ध अलम्बुस और अभिमन्यु में घनघोर।

पार्थ-पुत्र के घात से भागा, युद्ध छोड़ घायल रणचोर।।

 

उधर दूसरी ओर सात्यकी-अश्वत्थामा में हुई भिड़न्त।

सब पाण्डव मिल भीष्म को घेरे, भीषण युद्ध, विनाश अनन्त।।

 

अर्जुन के रथ को वाणों से छिपा दिये देवव्रत महान।

अर्जुन काटे कई भीष्म के धनुष, बदल कर लड़ा सुजान।।

 

पार्थ को देखकर सुस्त, कृष्ण रथ का पहिया लेकर दौड़े।

भीष्म हँसे, करवद्ध कहे, ‘मारिये प्रभो, यश हेतु खड़े।।

 

अर्जुन दौड़ पड़े पकड़े केशव को, नाथ न यह औचित्य।

मैं मारुँगा काका को अब, आप पूर्ण होवें निश्चिंत।।

 

लौट पड़े श्री कृष्ण, सारथी का फिर कर्म सम्हाले रण।

अतुल विनाश दोनों दल का, लाशों से पट गया रण-प्राङ्गण।।

शर-सैया पर भीष्म पितामह

दसवें दिन अर्जुन के रथ पर, आगे बैठ शिखण्डी वीर।

चला रहा था वाण, पृष्ट से पार्थ मारते घातक तीर।।

 

देख शिखण्डी को आगे बैठा, तज अस्त्र भीष्म बलवान।

यह है पूर्व जन्म की अम्बा, बदला लेने को प्रण ठान।।

 

नारी पर न आक्रमण का प्रण मेरा, अत: न युद्ध, हो शान्त।

बैठ गये, अर्जुन के घातक वाणों से, तन जर्जर क्लान्त।।

 

उतरे ढाल तलवार लेकर रथ से, पर तब तक अर्जुन वाण।

किए विनष्ट अस्त्र-शस्त्र उनके, गिरे भूमि पर भीष्म सुजान।।

 

इतने वाण चुभे थे तन में, जगह न उँगली रखने की।

धरती पर वे गिरे किन्तु रह गये, शर-सैया पर ही।।

 

युद्ध भूमि में भीष्म पितामह, के गिरते मचा हाहाकार।

उधर देवताओं ने नभ से, पुष्प वृष्टि कर, की जयकार।।

 

हुआ इस तरह भीष्म के युद्ध का अन्त, अटल उनका सिद्धान्त।

शर-सैया पर पड़ा वीर-तज अस्त्र-शस्त्र, रण में, हो शान्त।।

 

गिरते भीष्म-पितामह को लख, सब देवों ने किया प्रणाम।

गङ्गा पुत्र देवव्रत की जयकारों से, गूँजा दिग-धाम।।

 

पितृ-भक्त महावीर देवव्रत, पिता हेतु, कर निज सुख त्याग।

आजीवन ब्रह्यचर्य-व्रत-निरत, अटल कृष्ण के प्रति अनुराग।।

 

परशुराम को परास्त करके, अद्वितीय योद्धा की ख्याति।

प्राप्त किये पर, दुर्योधन के अहज्रर से मिली न शान्ति।।

बाध्य हुए रण-रत होने को, शासन की रक्षा का प्रण।

आज पड़ा वह महावीर, शर-सय्या पर करते हुए रण।।

 

परम वीर रणधीर, कुशल योद्धा, रणवाँकुरा, संत महान।

परहित में आजीवन रत रह, दिया युद्ध में जीवन दान।।

 

ऐसे नर-वर से है पूज्य, प्रशंसित, भारत का इतिहास।

सुनकर जिसकी कथा, सुजन पाते आनन्द, दुष्ट सन्त्रास।।

 

त्रिविध पवन शीतल जल वर्षा, स्वागत किये देव करवद्ध।

भीष्म के शर-सैया पर गिरते, बन्द हो गया उस दिन युद्ध।।

 

गङ्गापुत्र-देवव्रत प्राणि-मात्र कल्याणार्थी, तन, प्राण।

का हो गया समाप्त युद्ध, शर-सैया पर पड़ा वीर महान।।

 

धन्य देवव्रत, भीष्म पितामह, पिता हेतु व्रह्मचर्य व्रत ठान।

महाराज शान्तनु के सुख हित, अपने सुख का त्याग, महान।।

 

परशुराम को परास्त करने वाले, योद्धा वीर महान।

संरक्षक के नाते रक्षक बने, राज्य के हित-कल्याण।।

 

अद्वितीय योद्धा वह, सत्यव्रती, प्राणों से बेपरवाह।

लड़ा युद्ध तन-मन से, यद्यपि, नहीं पाण्डवों से रण-चाह।।

 

अन्तिम क्षण तक लड़े शक्ति भर, तन जर्जर, पर अन्तिम बूँद।

जब तक रक्त बचा था तन में, तब तक लड़ता रहा सपूत।।

 

नारि समक्ष न रण, प्रण रक्षा, किया अन्त तक वीर सुजान।

ऐसे कर्म व्रती से, भारत-भूमि प्रतिष्ठित, व्यक्ति न आन।।

हुआ युद्ध का अन्त आज के, भीष्म के गौरव का गुणगान।

योद्धा सभी हुए नत-मस्तक, धन्य देवव्रत, वीर सुजान।।

 

शर-सैया पर पड़े देवव्रत, सारे तन में चुभे थे वाण।

किन्तु न शिर में लगा वाण था, सिर लटका जाता बिन त्राण।।

 

भीष्म खड़े लोगों से बोले, मेरा सिर है लटक रहा।

इसे सहारा दे दो कोई, पीड़ा से है कष्ट महा।।

 

शिविरों से तुरन्त दुर्योधन, मँगवाये मसनद-मखमल।

भीष्म हँसे न उचित रण-प्राङ्गण में, ऐसे मसनद कोमल।।

 

अर्जुन को देवव्रत बुलाये, आधार हेतु मांगे उपचार।

पार्थ मार कर तीर भूमि में, सिर को दिये उचित आधार।।

 

हुए प्रसन्न भीष्म यह लखकर, फिर बोले- है प्यास लगी।

दौड़े दुर्योधन आदिक सब, स्वर्ण-पात्र-जल लिये सभी।।

 

देख हँसे फिर भीष्म, बुलाये अर्जुन को- बेटे मुझे प्यास।

ऐसा यत्न करो जिससे, जल मिले मुझे, जब तक तन, श्वाँस।।

 

अर्जुन ने एक तेज वाण मारा, पृथ्वी से जल की धार।

निकल दाहिनी ओर से मुख में गिरी भीष्म के, धरती फाड़।।

 

गङ्गा स्वयं प्रगट होकर, पाताल से सुत की हरने प्यास।

आयीं स्वयं वाण-गङ्गा बन, वीर पार्थ का सफल प्रयास।।

 

तृप्त देवव्रत हुए, दिये आशीष, कहे- जब तक भाष्कर।

नहीं उत्तरायण हो जाते, तब तक मैं शर-सैया पर।।

पड़ा रहूँगा इसी तरह, तब ही निकलेंगे मेरे प्राण।

जाओ सब अपने शिविरों में, रण का सब मिल करो निदान।।

 

दुर्योधन से कहे देवव्रत– ‘कर लो तुम पाण्डवों से सन्धि।

युद्ध विनाशक सदा रहा है, अब भी बदलो कुत्सित बुद्धि।।’ 

 

किन्तु न भायी सम्मति दुर्योधन को, कड़वी बात लगी।

मृत्यु निकट फिर भी औषधि ज्यों, कड़वी लगती, बात चुभी।।

 

सुना कर्ण ने भीष्म पड़े शर-सैया पर, वह आया दौड़।

राधा-पुत्र कर्ण करता प्रणाम, आशीष दें, वीर सिरमौर।।

 

बड़े प्रेम से सिर पर रख कर हाथ, उसे आशीष दिये।

राधा-पुत्र नहीं तुम, कुन्ती-पुत्र, रहस्य वे खोल दिये।।

 

नारद जी ने बतलाया है मुझको, सूर्य-पुत्र तुम वीर।

तुमने किया अकारण द्रोह पाण्डवों से, था अत: अधीर।।

 

मैं न द्वेष करता था तुमसे, पर मेरा मन रहा दु:खी।

तेरे अहज्रर के कारण, दान-वीर तुम, रहो सुखी।।

 

तुम पाण्डव के ज्येष्ठ पुत्र हो, अत: तुम्हारा यह कर्त्तव्य।

युद्ध बन्द कर, अब भी सन्धि करो पाण्डव से, वीर अनन्य।।

 

वैर-भाव का अन्त हो सबसे, प्रेम भाव, मम-सद्-इच्छा।

जिधर धर्म है वहीं विजय होगी, आगे जो हरि इच्छा।।

 

सब सुन बोला कर्ण विनम्र हो, ‘मुझे ज्ञात सब मर्म पितामह।

सूत-पुत्र मैं नहीं, पुत्र-कुन्ती माँ का मैं, उचित फिर भी यह।।

दुर्योधन का मित्र सदा रह, करुँ युद्ध, उसका कल्याण।

उचित नहीं त्यागूँ संकट में, बनूँ सहायक तन-मन-प्राण।।

 

शरण दिया है दुर्योधन ने, मुझ पर किया अनेक उपकार।

नहीं छोड़ सकता मैं उसको, संकट में हरदम तैयार।।

 

दें आशीष पितामह मुझको, दुर्योधन का रक्षक बन।

करुँ युद्ध पाण्डव सेना से, तन-मन-हिय, जब तक जीवन।।

 

हुए प्रसन्न पितामह सुनकर, सत्य, अटल, मित्र प्रति प्रेम।

कल्याणार्थ दिये आशीष तब, हुआ प्रसन्न कर्ण दृढ़ नेम।।

द्रोणाचार्य के चक्रव्यूह में अभिमन्यू

ग्यारहवें दिन, युद्ध के लिए, द्रोणाचार्य बने सेनापति।

दुर्योधन की चाल में फँस, उन्होंने युधिष्ठिर को पकड़ने की, प्रण की।।

 

द्रोणाचार्य के भीषण रण से, पाण्डव वीर सब हुए पराजित।

किन्तु युधिष्ठिर हुए न बन्दी, अर्जुन आ उलटे, रण की गति।।

 

बाणों की भीषण वर्षा कर, द्रोण को पार्थ ने पीछे ठेला।

हुआ मनोरथ पूर्ण न गुरु का,आदेश युद्ध बन्द, शाम की बेला।।

 

अगले दिन अर्जुन को, युद्ध भूमि से दूर करने की चाल।

चल कर दुर्योधन ने, त्रिगर्त राजा से, पैâलाया निज जाल।।

 

बारहवें दिन त्रिगर्त राजा, सेना सङ्ग लिये संशप्तक-व्रत।

मरना या मारना युद्ध से, नहीं भागना, व्रत की शर्त।।

 

युद्ध हेतु ललकार पार्थ को, दूर ले गये निज सेना।

अर्जुन पीछा किये बाध्य हो, तज धर्मराज रक्षा करना।।

 

मचा भयज्र्र युद्ध, त्रिगर्त सेना का अमित हुआ संहार।

अर्जुन समझ विचलित निज दल को, लौट किये भगदत् पर वार।।

 

भगदत-गज था बड़ा भयज्र्र, किया बड़ा भीषण संहार।

पर अर्जुन ने पलटी रण गति, भगदत सङ्ग, भगदत-गज मार।।

 

भगदत ने मरने से पहले मन्त्र-सिक्त अंकुश एक मार।

कृष्ण पार्थ को ठेले पीछे, अंकुश बना कृष्ण गल-हार।।

अर्जुन-शकुनि में युद्ध भयज्र्र, मामा का प्रयास निष्फल।

देख शाम, निज हानि, विफलता, युद्ध बन्द कर, द्रोण विकल।।

 

बारहवें दिन युद्ध हार कर, दुर्योधन मति-मन्द हुआ।

धर्मराज को नहीं पकड़ पाने पर, द्रोण पर खिन्न हुआ।।

 

द्रोण ने कहा- पार्थ के रहते, नहीं पकड़ पाना सम्भव।

अपनी क्षमता भर लड़ता पर, अर्जुन को जीतना असम्भव।।

 

अत: तीसरे दिन फिर, त्रिगर्त राजा ने पार्थ को ललकारा।

दूर दक्षिण दिशा में ले गया, पार्थ ने सेना संहारा।।

 

चक्रव्यूह रच इधर द्रोण ने, किया पाण्डव-दल संहार।

बड़े-बड़े महारथी थे चिंतित, कैसे होगा बेड़ा पार।।

 

धर्मराज ने अभिमन्यू को दिया व्यूह-भेदन का भार।

अभिमन्यू ने कहा जानता घुसना, पर न निकलना, पार।।

 

धर्मराज, भीम, सात्यकी तथा धृष्टद्युम्न आदिक वीर।

कहे व्यूह तोड़ो तुम पहले, हम अनुकरण करेंगे चीर।।

 

हम सब साथ तुम्हारे रहकर, रक्षा का लेते हैं भार।

चक्रव्यूह तुम तोड़ो घुसकर, करेंगे हम कौरव संहार।।

 

पा सबका आशीष, वीर अभिमन्यू रथ चढ़ किया प्रहार।

देख तीव्रता रथ की, कौरव सेना में खलबली अपार।।

 

द्रोण का मोर्चा तोड़ घुस गया, चक्रव्यूह में अभिमन्यू।

लाशों से पट गयी भूमि सब, बिखरे, सिर, धड़, कर, पग, भू।।

देख महा संग्राम, क्रुद्ध दुर्योधन हुआ समक्ष खड़ा।

पर अभिमन्यू के आगे वह, घायल हो, रथ पर गिर पड़ा।।

 

दुर्योधन की रक्षा हेतु, तब द्रोण ने सेना को भेजा।

प्राण बचाया दुर्योधन का, रथ को रण से दूर ले जा।।

 

रिपुओं से था घिरा वीर अभिमन्यू, निडर बना बागी।

अरि-दल का संहार अमित, कुछ प्राण बचा, सेना भागी।।

 

द्रोण, कर्ण, शकुनी, अश्वत्थामा, शल्य, दुश्सासन, दुर्योधन।

एक साथ आक्रमण किये मिल, अभिमन्यू पर लड़ा मगन।।

 

सबको घायल किया, भगी सेना, गज अश्व, रथ, शल्य का भ्रात।

मारा गया वीर अभिमन्यू के हाथों कौरव-दल मात।।

 

शूर वीरता, युद्ध-कुशलता, अभिमन्यू की देखकर द्रोण।

हुए प्रसन्न, किये सराहना, कृपाचार्य से, वीर वह बेजोड़।।

 

किन्तु जयद्रथ के रण कौशल से, पाण्डव सेना का मार्ग।

टूटा था जो चक्रव्यूह, अवरुद्ध हो गया, मिली न राह।।

 

व्यूह की टूटी हुई किलेबन्दी कर, फिर दृढ़ व्यूह रचा।

भीम, युधिष्ठिर, किये प्रयत्न अनेक, न कोई यत्न बचा।।

 

पाण्डव व्यूह से बाहर ही रह गये, अकेला अभिमन्यू।

लड़ता रहा महारथियों से, गज अनेक संग सिंह एक ज्यूं।।

 

दुर्योधन के पुत्र लक्षमण को, समक्ष लख वीर जवान।

मारा भाला फेंक गिरा वह, उड़ा पखेरु, निकला प्राण।।

पुत्र को मरते देख दुर्योधन, आग बबूला हो बोला।

मारो इसको अभी यहीं पर, बहुत हानि हमने झेला।।

 

द्रोण के कहने पर पीछे जा, कर्ण ने काटा रथ की डोर।

धनुष की डोर भी काटा उसने, तब ढाल और तलवार ले हुई होड़।।

 

द्रोण व कर्ण ने फिर पीछे जा, ढाल, तलवार भी नष्ट किया।

गदा ले लड़ा अन्तत: अभिमन्यू, प्रति-उत्तर उचित दिया।।

 

पर दुश्शासन का सुपुत्र, पीछे से सिर पर कर गदा प्रहार।

प्राण हर लिया अभिमन्यू का, गिरा वीर कर अति संहार।।

 

अभिमन्यू के प्राण पखेरु उड़े, देखकर कौरव वीर।

लगे सभी आनन्द मनाने, नाचे, गाये, उड़ा अबीर।।

 

किन्तु धृतराष्ट्र का पुत्र युयुत्स बोला- यह सब अधर्म भारी।

लल्जित होने की बजाय, तुम सब खुश हो, गयी मति मारी।।

 

भारी पाप किया तुम सबने, भावी संकट मोड़ लिया।

तुम सबको धिक्कार कायरों’, कह रण से मुख मोड़ लिया।।

 

सुन अभिमन्यू का बध छल से, शोक, क्षोभ पाण्डव दल में।

होनहार होकर ही रही, नहीं मर्यादा कोई प्रेम, रण में।।

 

शोक-ग्रस्त पाण्डव दल को, आ व्यास ने ज्ञान प्रदान किया।

दे दृष्टान्त अनेक, युधिष्ठिर का विह्वल मन शान्त किया।।

 

मृत्यु अवस्था ऐसी, जग के हित के लिए, उचित, अनिवार्य।

अगर न होती मृत्यु, भूमि सीमा निश्चित, बढ़ता भू-भार।।

उधर संसप्तकों का करके संहार, जब लौटे कृष्णार्जुन।

सूना-सूना शिविर, न शिष्टाचार कोई, न तो मङ्गल-ध्वनि।।

 

पहँुच शिविर में देख शोक-संतप्त, सभी को पूछे पार्थ।

अभिमन्यू को नहीं देख, वे समझ गये, पाण्डव संताप।।

 

द्रोण के चक्रव्यूह में पँâ, हाँ मारा गया पुत्र मेरा।

आप सभी मिल बचा न पाये उसे, शत्रु ने जब घेरा।।

जयद्रथ वध

धर्मराज ने बतलाया तब, हम सब मिल कर किए प्रयास।

किन्तु जयद्रथ के कारण, हम घुस न सके, देकर विश्वास।।

 

यह सुन दु:खी पार्थ ने भीषण शपथ लिया, कल शाम के पहले।

बधूँ जयद्रथ को यदि विफल, तो प्राण तजू निज, चिता में जल के।।

 

सिन्धु देश के राजा, वृद्धक्षत्र का पुत्र जयद्रथ वीर।

जन्म समय नभ वाणी हुई, यह पुत्र यशस्वी, अति रणधीर।।

 

किन्तु युद्ध में एक क्षत्रिय के, हाथों कट कर इसका सिर।

निश्चय गिरेगा पृथ्वी पर, ऐसी इसकी भावी तकदीर।।

 

सुनकर यह नभ वाणी, सिद्ध पुरुष वृद्धक्षत्र ने कहा तुरन्त।

जो इसका सिर भूमि गिराये, उसके सिर के हों शतखण्ड।।

 

हुआ जयद्रथ जब सुयोग्य, उसको दे राज्य वृद्धक्षत्र नरेश।

चले गये तप हेतु सघन वन, ‘स्वमंत-पञ्चकस्थान विशेष।।

 

सुनकर पार्थ के भीषण प्रण को, हुआ जयद्रथ अति भयभीत।

अन्त समय अब निश्चय मेरा, भागूँ सिन्ध, न सकूँ पार्थ को जीत।।

 

किन्तु द्रोण और दुर्योधन के, समझाने पर रुका रहा।

हुआ युद्ध चौदहवें दिन का, अर्जुन आकर डटा वहाँ।।

 

पहले दुर्मषण का बध कर, दुश्शासन से भिड़े तुरन्त।

छिड़ा भयज्र्र युद्ध, छोड़ रण भागा, दुश्शासन लख अन्त।।

फिर अर्जुन और द्रोण में युद्ध छिड़ा, दिखा निज-रण-कौशल।

द्रोण ने पार्थ को रोके रखा, आगे बढ़े न, हुए विकल।।

 

कृष्ण के कहने पर अर्जुन तब, द्रोण से बचकर, उनके बाम-

से आगे बढ़ गये, द्रोण ने कहा- पार्थ यह अनुचित काम।।

 

शत्रु से डरकर भाग रहे, यह तब विपरीत सुयश पुरुषार्थ।

नहीं शत्रु, गुरु आप हैं मेरे, प्रण रक्षा वरीय, हित स्वार्थ।।

 

आगे बढ़कर पार्थ ने, कृतवर्मा को लड़कर किया परास्त।

सुदक्षिण व श्रुतायुध मिल भिड़ गये, पार्थ से सहसा वीर दो मस्त।।

 

दिया श्रुतायुध को कुबेर ने, मन्त्र-सिद्ध, एक गदा विशेष।

जब तक रहे यह गदा साथ में, कभी पराजित नहीं नरेश।।

 

किन्तु निशस्त्र व्यक्ति पर यदि यह, गदा श्रुतायुध करे प्रयोग।

उसी गदा से हत्या उनकी, जब निशस्त्र पर हो उपयोग।।

 

युद्ध-भूमि में किया श्रुतायुध ने, श्रीकृष्ण पर गदा प्रहार।

कृष्ण निशस्त्र थे, अत: गदा से हुआ श्रुतायुध का संहार।।

 

अर्जुन फिर कम्भोज राज को मार, अक्षतायुध को बध।

असंख्य सेना का करता संहार, जा पहुँचा, जहाँ जयद्रथ।।

 

दुर्योधन को दु:खी देख, दिया द्रोण ने, एक अमोघ कवच।

अभिमन्त्रित उस कवच को देकर, कहा- वीर तुम हुए अबध।।

 

द्रोण से पाकर कवच चला दुर्योधन पार्थ से करने युद्ध।

भिड़े वीर दो, किन्तु पार्थ के तीर आज, थे घात-विरुद्ध।।

समझ गये, दुर्योधन द्रोण का कवच पहन कर आया आज।

इसलिये मेरे घातक वाणों से, बच कर उसको नाज।।

 

किन्तु जहाँ था कवच नहीं, उन मर्म स्थानों पर करके घात।

अर्जुन से घायल हो दुर्योधन भागा, हो त्रस्त, परास्त।।

 

थके हुए थे रथ के घोड़े, अत: कृष्ण ने खोला रथ।

तभी बिन्द, अरबिन्द वीर दो, किये आक्रमण, रोके पथ।।

 

पर अर्जुन ने दोनों वीरों को, पछाड़ भेजा सुरधाम।

घोड़ों को कुछ आराम देकर, कृष्ण बढ़े, कर साध लगाम।।

 

यह सब देख जयद्रथ के, रक्षकों का दिल अति दहल गया।

कर्ण, शल्य, अश्वत्थामा, वृषसेन, भ्रूरिश्रवा आदि ने पहल किया।।

 

धृष्टद्युम्न ने सोचा, द्रोण न जाने पावें अर्जुन पास।

अत: उन्हें ललकार युद्धरत हुआ, वीर पर द्रोण से आस।।

 

विजय की करना धृष्टद्युम्न के, वश में न था,वह लड़ा मगर।

द्रोण के हाथों मरने से बच गया, चला जब घातक शर।।

 

सात्यकी काटे द्रोण के तीर को, बीच में अत: बच गया वीर।

द्रोण सात्यकी भिड़े, युद्ध अति हुआ भयज्र्र, दोउ रणधीर।।

 

सात्यकी ने सौ धनुष द्रोण के काटे, देख सराहे द्रोण।

धन्य वीर तुम राम सदृश धनुर्धारी, पर न चले अब होड़।।

 

द्रोण ने आग्नेयास्त्र चलाया, सात्यकी ने वरुणास्त्र से रोक।

मारे तीर अनेक द्रोण को, पर वह वीर था डटा अशोक।।

द्रोणाचार्य से युद्ध में, उलझा सात्यकी थक कर चूर हुआ।

दिया युधिष्ठिर ने आदेश, तब धृष्टद्युम्न मजबूर हुआ।।

 

अर्जुन ने था कहा सात्यकी, आज हो तुम, धर्मराज रक्षक।

जब तक मार जयद्रथ को, मैं यहाँ न लौट आउँ, तब तक।।

 

धृष्टद्युम्न व द्रोण में युद्ध मचा, तब सात्यकी पिण्ड छुड़ा।

लौट आया धर्मराज की रक्षा में, आकर वह हुआ खड़ा।।

 

किन्तु युधिष्ठिर ने आदेश दिया, तुम जाओ अर्जुन पास।

यहाँ भीम और धृष्टद्युम्न हैं रक्षक मेरे, रञ्च न त्रास।।

 

सात्यकी और कौरव सेना में, युद्ध भयज्र्र हुआ परन्तु।

सात्यकी सबको पछाड़कर जा पहुँचा, पार्थ के पास तुरन्त।।

 

सात्यकी के हटते ही द्रोण ने, किया आक्रमण अति भीषण।

छिन्न-भिन्न हुई पाण्डव सेना, धृष्टद्युम्न सतर्क तत्क्षण।।

 

इधर युधिष्ठिर के आदेश से, भीम भी गये पार्थ के पास।

मार्ग में ग्यारह धृतराष्ट्र पुत्रों को, मारा भीम ने बिना प्रयास।।

 

भीम भयज्र्र युद्ध में तत्पर, जा पहुँचे गुरु द्रोण समक्ष।

गुरु के रथ को तोड़, घुस गये व्यूह में, करते सेना ध्वस्त।।

 

पार्थ के पास पहुँच कर भीम ने, सिंहानाद किया अति गम्भीर।

अर्जुन ने भी सिंहनाद कर, दूर किया धर्मराज की पीर।।

 

युद्ध भयज्र्र मचा, पार्थ, भीम, सात्यकी मिलकर किये प्रयास।

उधर भ्रूरिश्रवा, कर्ण तथा दुर्योधन में था भारी त्रास।।

कर्ण, भीम में युद्ध भयज्र्र, हुआ कर्ण रथ चकनाचूर।

भीम ने धनुष अनेक काट, कर्ण को किया रण छोड़ने को मजबूर।।

 

किन्तु तभी दुर्योधन ने भेजा, दुर्मुख, दुर्जय को कर्ण-हितार्थ।

मारे गये भीम के हाथों, दोनों भाई, कर्ण अनाथ।।

 

कर्ण घाव से पीड़ित होकर, तथा दु:खी, सुन भ्रात मरण।

क्लांत हृदय, पीड़ा से व्याकुल, दूर हटा वह, त्याग कर रण।।

 

भीम भी घायल यद्यपि, तब भी, किये वे सिंहनाद गम्भीर।

विजय देख अपनी हुए हर्षित, तन की दूर हुई सब पीर।।

 

किन्तु तभाr दुर्योधन ने भेजा, पाँच बन्धु कर्ण रक्षा हित।

मारे गये भीम के हाथों, सात, पुन: सात, भ्रात सब सैन्य सहित।।

 

भीम-कर्ण में युद्ध भयज्र्र मचा, कर्ण कर क्रोध प्रचण्ड।

खण्डित किया सारथी रथ, अश्व, भीम उठाये मृत-गज-मुण्ड।।

 

कर्ण, भीम को करके आहत, हुआ प्रसन्न, न मारा पर।

अपने प्रण अनुसार, पाण्डवों में पार्थ का वध ही, स्मरण कर।।

 

अर्जुन, भीम को थका देखकर, भिड़े कर्ण से, ले धनुवाण।

भीषण वाणों की वर्षा लख, भागा कर्ण, बचाकर प्राण।।

 

उधर देख सात्यकी को आते, पार्थ हुए चिंतित, तज कर्म।

छोड़ युधिष्ठिर को आया यह यहाँ, था उनकी, रक्षा धर्म।।

 

वीर सात्यकी, भ्रूरिश्रवा, जो जन्म के शत्रु थे, भिड़े युगल।

रथ, सारथी, ढाल, तलवार सब नष्ट, तो कुश्ती, दोउ सम-बल।।

किन्तु सात्यकी थका हुआ था, अत: भ्रुरिश्रवा पटक उसे।

ले तलवार काटने को सिर उद्यत, देख श्रीकृष्ण हँसे।।

 

कृष्ण ने पार्थ से कहा- पार्थ तब मित्र, शिष्य सात्यकी घायल।

मार रहा भ्रूरिश्रवा है’, सुनकर, पार्थ ने काटा उसका कर।।

 

भ्रूरिश्रवा ने निन्दा की, जब पार्थ ने काटा उसका हाथ।

पीछे से क्यों घात किये मुझपर, तुम युद्ध नियम तज, पार्थ।।

 

अर्जुन ने प्रतिउत्तर में तब किया, भ्रूरिश्रवा की निन्दा।

घायल, अस्त्र-रहित की हत्या किये, सभी मिल, मति-मन्दा।।

 

अभिमन्यू का वध सब किये, निहत्थे पर, आक्रमण अक्षम्य।

मित्र हमारा सात्यकी, उसका वध न उचित था, कार्य जघन्य।।

 

अत: तुम्हें दण्डित करने को, काटा हमने तेरा कर।

प्राण न लिया, यहीं क्या कम है, ढोंगी हो तुम, रण अवसर।।

 

इसी बीच सात्यकी स्वस्थ हो, टूट पड़ा भ्रुरिश्रवा पर।

लेकर तीक्ष्ण खड््ग काटा सिर, गिरा भूमि पर, वह मर कर।।

 

सबने निन्दा की सात्यकी की, पर उस वीर ने कहा निडर।

तोड़े तुम सब नियम युद्ध के, अब निंदा किस मुँह कायर।।

 

युद्ध-धर्म का एक नियम, जिस भाँति हो सम्भव, अरि-संहार।

अनुचित-उचित विचार को तज, हो अपनी विजय, शत्रु की हार।।

 

भ्रूरिश्रवा का वध कर सात्यकी, भिड़ा कर्ण से, करके ध्वस्त।

अश्व, सारथी, धनुष-वाण से रहित, कर्ण भागा, हो पस्त।।

अर्जुन और जयद्रथ अब थे, आमने-सामने, दोनों वीर।

एक दूसरे पर बल-छल कर, चला रहे थे, घातक तीर।।

 

किन्तु जयद्रथ की रक्षा में, दुर्योधन था खड़ा अधीर।

बार-बार वह अस्ताचल को, जाते सूर्य को, देखे वीर।।

 

तभी अचानक हुआ अँधेरा, सर्वोपरि, ईश्वर माया।

हँसा जयद्रथ, प्राण बच गये, दुर्योधन नाचा, गाया।।

 

तभी बादलों के पीछे से, सूर्य झाँकते, देखकर कृष्ण।

अर्जुन अभी न अस्त सूर्य हैं, प्रण पूरा कर, वीर, जो इष्ट।।

 

देख पार्थ ने लिया तीव्रशर, किया जयद्रथ का सिर भङ्ग।

वह सिर जा आकाश मार्ग से, गिरा, पिता वृद्धक्षत्र के जंघ।।

 

ध्यान लगाये वे बैठे थे, जैसे ही सिर गिरा, तुरन्त।

झटक दिया सिर गिरा भूमि पर, पिता-पुत्र दोनों का अन्त।।

 

पिता वृद्धक्षत्र का वरदान ही, उनकी मृत्यु का, बना निदान।

सारा जग प्रभु की लीला है, परम् कौतुकी, कृपा निधान।।

 

हुआ पार्थ का प्रण पूरा, पिता-पुत्र दोनों सुर-धाम।

देख कृष्ण सङ्ग पार्थ, भीम, सात्यकी के किया शङ्ख-ध्वनि, शाम।।

घटोत्कच, द्रोणाचार्य, कर्ण एवं शल्य का वध

चौदहवें दिन अस्ताचल के बाद भी, युद्ध चला निर्बाध।

भीम-हिडिम्बा-पुत्र-घटोत्कच-राक्षस रात्रि में शक्ति अबाध।।

 

दोनों दल ने जला मशालें, किया युद्ध भीषण संहार।

किन्तु घटोत्कच के आगे कौरव सेना विचलित, लख हार।।

 

कहा कर्ण से दुर्योधन ने, कर्ण कटोत्कच को मारो।

राक्षस सर्वनाश पर आतुर, कौरव दल को उद्धारो।।

 

कर्ण था व्याकुल घटोत्कच की, लख पैशाचिक शक्ति अपार।

प्रलय मचा था कौरव दल में, असंख्य योद्धा का संहार।।

 

राजाज्ञा सुन अत: कर्ण ने, शक्ति अमोघ जो, इन्द्र-प्रदत्त।

जिसे रखा था अर्जुन-बध हित, छोड़ा घटोत्कच पर, हो त्रस्त।।

 

मारा गया घटोत्कच, भीम-सुपुत्र, इन्द्र की शक्ति-अमोघ।

पाण्डव दल में शोक, कृष्ण पर हो प्रसन्न, किये शङ्ख उद््घोष।।

 

पाँचों पाण्डव की रक्षा का, कृष्ण का पाकर आश्वासन।

कुन्ती और द्रौपदी निश्चिंत, अवसर स्वत: प्राप्त पावन।।

 

जब तक थी अमोघ शक्ति वह, कर्ण के तर्कश में विद्यमान।

तब तक कृष्ण थे चिंतित, आज बिना प्रयास के मिला निदान।।

 

मरा घटोत्कच किन्तु रात्रि के, युद्ध का फिर भी हुआ न अन्त।

द्रोणाचार्य क्रुद्ध हो युद्ध में, मार रहे थे वीर अनन्त।।

देख कृष्ण ने तब अर्जुन से कहा, धर्म-रण अब न उचित।

मारे जाँय द्रोण गुरु ऐसा, अब उपाय सार्थक, समुचित।।

 

जब तक द्रोण के कर में धनु-शर, तब तक नहीं, वे मारे जायें।

अस्त्र-शस्त्र वे तजें जिस तरह, वह उपाय हम अपनायें।।

 

सुनकर रण-उपदेश कृष्ण का, पार्थ हुए लज्जित, भयभीत।

किन्तु घटोत्कच के वध कारण, भीम को कृष्ण की प्रिय लगी नीति।।

 

भीम द्रोण के समक्ष जाकर, लगे उन्हें लज्जित करने।

ब्राह्मण होकर क्षत्रिय धर्म, क्यों अपनाया गुरुवर तुमने।।

 

स्वधर्म को तज, परधर्मी बन, आप अनर्थ कर रहे पाप।

जीवन व्यर्थ आपका गुरुवर, ब्राह्मण-कुल के हित अभिशाप।।

 

सुनकर भीम कटोक्ति, द्रोण के मन में द्वन्द्व, रण प्रति वैराग्य।

शिष्य भीम है उचित कह रहा, ब्राह्मण युद्ध करे दुर्भाग्य।।

 

इसी बीच भीम ने शीघ्र जा, अश्वत्थामा गज को मार।

चिल्लाये वे बड़े जोर से, अश्वत्थामा का संहार।।

 

सुनकर भीम की बात, द्रोण के मन में उपजा, अति संताप।

प्यारा पुत्र मरा क्या सचमुच, धर्मराज बतलायें आप।।

 

कहा युधिष्ठिर ने- गुरुवर अश्वत्थामा है मरा सही।

नर नहीं, गज वहकिन्तु, युधिष्ठिर बात द्रोण सुन सके नहीं।।

जैसे ही था कहा युधिष्ठिर ने, ‘अश्वत्थामा मरा सही।

तभी कृष्ण के शङ्ख-ध्वनि से, पूर्ण कथन सुन सके नहीं।।

 

सुनते ही यह बात, द्रोण ने अस्त्र-शस्त्र सब त्याग दिया।

शोकग्रस्त हो रथ में ही, तत्काल समाधि था लगा लिया।।

 

अवसर देख क्रुद्ध हो अतिशय, द्रोण का परम्शत्रु धृष्टद्युम्न।

ले कटार कूदा, क्षण में किया, द्रोण का सिर, धड़ से अलग, हो मग्न।।

 

देख दृश्य यह दु:खी हुए, पाण्डव-कौरव दल के सब वीर।

हुआ इस तरह अन्त द्रोण का, भरद्वाज-सुत, प्रिय रणधीर।।

 

दिव्य-आत्मा-ज्योति निकलकर, तन से स्वर्ग सिधार गई।

अभिमन्यू वध से प्रारम्भ हो, अधर्म-रण-नीति, नित्य, नयी-नयी।।

 

द्रोणाचार्य के निधन के पश्चात्, कर्ण बने कौरव सेनापति।

शल्य बने सारथी कर्ण के, मचा घमासान युद्ध तीव्र गति।।

 

अर्जुन, भीम ने मिलकर सङ्ग में, किया कर्ण पर घोर प्रहार।

देख दुश्शासन भिड़ा भीम से, हुआ भीम को क्रोध अपार।।

 

रे दुश्शासन आज न  बच पायेगा मेरे घातों से।

किया द्रौपदी सङ्ग दुर्व्यहार जो, मरेगा अपने पापों से।।

 

यह कह भीम झपट दुश्शासन को, धक्का दे गिरा दिये।

तोड़-मरोड़ अङ्ग-अङ्ग उसका, हाथ तोड़ कर फेंक दिये।।

जिन हाथों ने किया द्रौपदी का अपमान, वे टूटे आज।

हो मदमस्त भीम रण-प्राङ्गण, लगे नाचने करतल बाज।।

 

लगे रक्त पीने दुश्शासन का पशुवत, चिल्ला-चिल्ला।

आवे कोई बचावे इस पापी को, जिसमें हो हौसला।।

 

गया महापापी संसार से, हुई प्रतिज्ञा मम पूरी।

कहाँ छुपा दुर्योधन पापी, अब उसकी भी है बारी।।

 

देख भयानक रूप भीम का, वीभत्स कृत्य, सब काँप गये।

कौरव-दल का दिल दहला, भय से रण तज, सब भाग गये।।

 

शल्य ने कर्ण को समझाया, तुम भी हो वीर, हताश न हो।

हारो मत हिम्मत, दुर्योधन की रक्षा में, डटे रहो।।

 

तुम्हीं आसरा हो उसका, दायित्व तुम्हारे ही सिर पर।

योद्धा हो, कर विजय प्राप्त, या स्वर्ग सिधारोगे मर कर।।

 

शल्य की सार्थक शिक्षा को सुन, कर्ण क्रोध से लाल हुआ।

टूट पड़ा वह अर्जुन ऊपर, युद्ध महा विकराल हुआ।।

 

छिड़ा घोर संग्राम कर्ण और पार्थ में, कर्ण ने अर्जुन पर।

छोड़ा सर्प-मुखास्त्र-तीर, वह चला विष बुझा, ज्यों विषधर।।

 

वह अर्जुन के लिए था घातक, किन्तु कृष्ण ने किया उपाय।

दबा दिया रथ को कुछ नीचे, कृष्ण पार्थ के बने सहाय।।

मुकुट ले उड़ा तीर, बच गये पार्थ, देख वे हुए अधीर।

अति क्रोधित हो, लगे कर्ण पर, बरसाने अति घातक तीर।।

 

तभी अचानक कर्ण के रथ का, बायां पहिया धँसा जमीन।

देख कर्ण घबराकर बोला, ‘पार्थ न छोड़ो तीर, प्रवीन।।

 

तुम क्षत्रिय हो, धर्म युद्ध का सुयश तुम्हें है, अब तक प्राप्त।

तुम रथ पर, मैं खड़ा भूमि पर, अति अनुचित, यदि तीर से घात।।

 

यह सुन कृष्ण हँसे, और बोले- कर्ण तुम्हें अब धर्म की याद।

कहाँ गया था धर्म तुम्हारा, जब तुम सबमें था उन्माद।।

 

तुम दुर्योधन, दुशासन ने, जब द्रौपदी का, बीच सभा।

किया घोर अपमान था तब, था धर्म तुम्हारा, कहाँ छिपा।।

 

याद करो अपने सारे कुकर्म को, जिसमें बने सहायक।

जुआ-कुचक्र, भीम को विष, लाक्षागृह-दाह, अभिमन्यू-वध-नायक।।

 

वनवास बाद न राज्य लौटाना, पाप अनेक, अब धर्म की बात।

जब संकट में धर्म-स्मरण तब, मरण-काल में, ज्यों सन्निपात।।

 

कृष्ण की सुन कटोक्ति हो लज्जित, कर्ण न दे पाया उत्तर।

धँसे हुए रथ से शर वर्षा, करने लगा कुपित होकर।।

 

मारा तीव्र तीर, अर्जुन क्षण भर को, विचलित हुए तभी।

कर्ण उतर रथ से, धँसा पहिया, लगा निकालने श्रम व्यर्थ सभी।।

परशुराम के दीक्षा मंत्रों का वह करने लगा स्मरण।

किन्तु श्राप के प्रभाव कारण, भूल गया जब अवसर-रण।।

 

तभी कृष्ण ने कहा पार्थ से- अर्जुन अब मत चूको वीर।

मारो दुष्ट कर्ण को इस क्षण, बिना हिचक छोड़ो विष-तीर।।

 

सुन श्रीकृष्ण आदेश पार्थ ने, छोड़ा ऐसा तीर प्रखर।

कट कर कर्ण का सिर तत्क्षण ही, धड़ से विलग गिरा भू-पर।।

 

धर्म-अधर्म की बातें नाहक, युद्ध तो युद्ध, बस एक नियम।

चाहे जैसे विजय शत्रु पर, हरि इच्छा सर्वोपरि क्रम।।

 

कर्ण भी मारा गया, सूचना सुन, दुर्योधन शोक ग्रसित।

कृपाचार्य ने दिया सांत्वना, पाण्डव से अब सन्धि उचित।।

 

यद्यपि था हताश दुर्योधन– ‘कृपाचार्य यह उचित न उक्ति।

कायरता से नहीं, वीरता से ही सम्भव होती जीत।।

 

अत: युद्ध जारी रखना ही, मेरा है कर्त्तव्य महान।

मेरे लिये अनेक मित्र सब, किये न्यैछावर अपने प्राण।।

 

ऐसी स्थिति में भीरु बनूँ मैं, उचित नहीं आचार्य कथन।

अपयश का भागी बन जाऊँ, प्राण बचाऊँ, किस कारण।।

 

संन्धि से क्या सुख भोग मिलेगा, चिन्ताग्रस्त सदा जीवन।

लोक की निन्दा सुनना उचित न, अत: न छोड़ूँ रण-प्राङ्गण।।

दुर्योधन की सुन वीरोचित बात, सभी ने किया प्रशंसा।

शल्य बने सेनापति, फिर से हुई शङ्ख-ध्वनि, रण-हित-जलसा।।

 

इधर पाण्डवों ने निर्णय कर, किया युधिष्ठिर को रण-नायक।

धर्मराज और शल्य भिड़ गये, चले विनाशक, अगणित शायक।।

 

सदा शान्ति की मूर्ति युधिष्ठिर, आज क्रोध प्रतिमूर्ति बने थे।

उनका भीषण उग्र रूप लख, सभी वीर आश्चर्य चकित थे।।

 

हुआ देर तक युद्ध, अन्तत: किया युधिष्ठिर ने संधान।

भीषण शक्ति का, लगते जिसके, शल्य गिर पड़ा, निकले प्राण।।

 

मारा गया शल्य सेनापति, कौरव सेना हुई हताश।

किन्तु युद्ध था छिड़ा भयज्र्र, शकुनि और सहदेव में खास।।

 

बचे पुत्र धृतराष्ट्र के घेरे भीम को, रञ्च न मन-संत्रास।

किया घोर हुज्रर भीम ने, ब्ाधा सभी को, बिना प्रयास।।

 

मारा गया शकुनि सहदेव के हाथों, तीखे वाण के घात।

कट कर गिरा शकुनि का सिर भू-पर, कुटिलता हो गई समाप्त।।

 

कर्म शुभाशुभ का सबको मिलता फल, तत्त्व सभी को ज्ञात।

बरबस जीव किया करता सद्कर्म, दुष्कर्म, मर्म अज्ञात।।

 

ईश्वर सबके हृदय में बैठा, सारा खेल खेलाता है।

उसके भजन से सार्थक जीवन, मिथ्या सब जग नाता है।।

दुर्योधन का पराभव

कौरव सेना के सभी वीर, कुरुक्षेत्र युद्ध में मृत्यु को प्राप्त।

दुर्योधन था बचा अकेला, चिन्ता, भय, पश्चाताप, व्याप्त।।

 

गदा लिये वह छिपा जलाशय में जा, अतीत बातें सब।

सता रही उसको अपनी करनी, पर क्या पछताये अब।।

 

प्रात: जब न दिखा दुर्योधन, पहुँचे पाण्डव छिपा जहाँ।

कहा युधिष्ठिर ने ललकार कर- क्षत्रिय होकर छिपे यहाँ।।

 

सारे कुल का नाश कराकर, कायर बन अब, प्राण के मोह।

छिपे जलाशय में आकर के, निकलो बाहर, नायक-कुल-द्रोह।।

 

सुनकर दुर्योधन बोला- मैं प्राण बचाकर छिपा नहीं।

मारे गये सभी साथी, अब मात्र अकेला बचा मैं ही।।

 

थका हुआ था, अत: जलाशय में आकर विश्राम किया।

मोह न प्राणों का मुझको, अब युद्ध से भी, मन मोड़ लिया।।

 

सारा राज्य तुम्हारा अब, तुम सब पाण्डव, सुख भोग करो।

लोभ न राज्य का अब मुझको, चाहे जैसे उपयोग करो।।

 

सुन सब बात युधिष्ठिर बोले- पश्चाताप न तुम्हें अभी।

महापाप जो किये सुयोधन, याद करो वे कर्म सभी।।

 

जो नुकसान हमें पहुँचाया, जो अपमान किया सबका।

माँग रहे तेरे प्राणों की बलि वे सब, उत्तर उसका।।

सुनकर अति कठोर बातें, दुर्योधन जल से ही बोला।

थका हुआ, अति घायल हूँ, है कवच नहीं, मैं हूँ अकेला।।

 

सुनकर कहा युधिष्ठिर ने, ‘क्या अभिमन्यू वध, याद नहीं।

घायल रथ-विहीन को मारे, सात वीर, तब युक्ति सही।।

 

धर्म का ध्यान तभी आता, जब अपने पर संकट पड़ता।

आजीवन अधर्म कर अब, जब मृत्यु निकट, तब क्यों डरता।।

 

निकलो जल के बाहर, कवच पहन लो, हम सबमें, जिससे।

चाहो युद्ध करो, क्षत्रिय हो, हार-जीत, निर्णय उससे।।

 

यह सुन, दुर्योधन जल से बाहर निकला, बोला तत्क्षण।

गदा युद्ध मेरा व भीम का होगा, निर्णय रण-प्राङ्गण।।

 

दोनों योद्धा, गदा युद्ध के हित, सज-धज, तत्क्षण तैयार।

भिड़े एक दूजे से, गदा-युद्ध प्रारम्भ हुआ विकराल।।

 

टकराते जब गदा, निकलतीं चिंगारियाँ अनेक प्रकार।

बहुत देर तक गदा-युद्ध था मचा, न निर्णय, जीत या हार।।

 

दोनों बली, गदा-रण लड़ते-लड़ते, थक कर हो गये चूर।

लेकिन पीछे हटा न कोई, निज-निज बल-कौशल भरपूर।।

 

तभी कृष्ण ने अर्जुन से, कहा- है कमजोर दुर्योधन जङ्घा।

कृष्ण वचन सुन भीम ने मारी जंघे पर गदा, युद्ध है अन्धा।।

कमर के नीचे गदा मारना, यद्यपि है रण के विपरीत।

फिर भी जब, अधर्म रण व्यापक, तब फिर अवसर लाभ से जीत।।

 

लगते ही जङ्घे पर गदा प्रहार, गिरा राजा दुर्योधन।

गिरने पर, सिर लात मार कर, किया भीम ने घोर घन-गर्जन।।

 

उचित न लगा कृष्ण को यह, अपमानजनक लातों से घात।

भीम चलो, अब मरने दो पापी को, अब मत मारो लात।।

 

आखिर यह अपने ही कुल का, क्षत्रिय, वीर, बली राजा।

निज कर्मों का भोग रहा फल, बैर छोड़, अब शान्त हो जा।।

 

कृष्ण की बातें सुन अहज्रर से भरा, अधमरा दुर्योधन।

क्रोध-द्वेष से बोल पड़ा- रे कृष्ण, तुम्हीं सब कृत-कारण।।

 

तुमने ही छल-छद्म से रण में, मरवाये मेरे साथी।

मुझको ही पापी कहते हो, तुमको लाज नहीं आती।।

 

सुन दुर्योधन की बातें, तब कहा कृष्ण ने दुर्योधन।

मृत्यु निकट अब भी न तुम्हें, होता है कुकर्मों का दर्शन।।

 

लोभ-मदान्ध सदा सत्ता के, तेरे महापाप परिणाम।

आज फलित सब, भुगत रहे हो, व्यर्थ न करो मुझे बदनाम।।

 

अब भी पश्चाताप न करके, राग-द्वेष से हो पीड़ित।

मरण-काल यह उचित नहीं’, सुन दुर्योधन में ज्ञान उदित।।

कृष्ण मुझे वह प्राप्त वीरगति, जो क्षत्रिय की अभिलाषा।

जी कर भी तुम अपयश भागी, मुझे सुयश, जिसका प्यासा।।

 

धर्म-युद्ध तज, अधर्म पथ चल, कौरव-पाण्डव दोनों दल।

बैर-भाव का अन्त यहीं है, लोभ, क्रोध, कटुता, छलबल।।

 

गदायुद्ध दुर्योधन-भीम में, भीषण, किन्तु दु:खद परिणाम।

उसी समय जब युद्ध हो रहा, तीर्थ यात्रा से लौटे बलराम।।

 

सुनकर भीम ने गदायुद्ध में, दुर्योधन के कमर के नीचे।

किया प्रहार, हुए अति क्रोधित, हल ले दौड़े, भीम के पीछे।।

 

कृष्ण बीच में पड़ बतलाये, दुर्योधन के पाप अनेक।

शान्त हो गये, रुके न लेकिन, गये द्वारिका, सहित विवेक।।

 

हुए युधिष्ठिर भी व्याकुल अति, भीम के कृत्य पर शर्मिंदा।

बहुत अन्याय सहा है भीम ने, अत: न करना, उचित निंदा।।

 

निंदा-स्तुति से रहित पार्थ थे, अन्य वीर पाण्डव दल के।

दुर्योधन के कार्यों की, निंदा किये सब मिल, हँस-हँस के।।

 

किन्तु कृष्ण ने कहा- उचित यह नहीं राज कुल का वह पुत्र।

दुष्टों के सङ्ग कुमति में पड़ कर, हुआ नष्ट, उलटे नक्षत्र।।

 

इसे छोड़कर यहीं, चलो सब, शिविरों में आराम करो।

निज कर्मों का फल यह भुगते, निंदा-स्तुति पथ, पग न धरो।।

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अश्वत्थामा की उल्लू-कौवा-रणनीति

 

किया भीम ने गदायुद्ध में दुर्योधन पर अनुचित घात।

सुन अश्वत्थामा क्षुब्ध हुआ अति, पिता के वध की याद आयी बात।।

 

तुरत पहुँच कर दुर्योधन के पास, सुनाया अपना प्रण।

आज पाण्डवों के कुल-बीज का नाश करूँगा, रहे न ब्रण।।

 

यद्यपि पीड़ा से व्याकुल दुर्योधन सुनकर हुआ प्रसन्न।

अश्वत्थामा व्ाâो तुरन्त सेनापति बनाया अन्तिम क्षण।।

 

हे गुरुपुत्र, है यह मेरा अन्तिम आदेश, करे पालन।

सफल हुए यदि सुन सन्देश यह, शान्ति से करूँगा मृत्यु-वरण।।

 

अस्ताचल को गये सूर्य जब, अन्धकार छाया घनघोर।

अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा, गये वटवृक्ष की ओर।।

 

रात्रि करें विश्राम यही पर, यह विचार कर सोये सब।

थके हुए थे नींद आ गयी, अश्वत्थामा न सो सका तब।।

 

क्रोध-द्वेष से पीड़ित था वह, दुष्ट विचारों में तत्लीन।

उस वट-वृक्ष के डाल-डाल पर कौवों के समूह आसीन।।

 

तभी एक उल्लू ने आकर, किया आक्रमण कौवों पर।

रात समय कौवे न देखते, पर उल्लू की तेज ऩजर।।

 

अत: एक उल्लू ने किया, अनेक कौवों का सत्यानाश।

दृश्य देख यह अश्वत्थामा, के मन उपजा नियम-विनाश।।

थके शत्रु को सोते समय मारना, इसी तरह आसान।

कृपाचार्य को जगा सुनाया, उल्लू-कौवा-नीति-निदान।।

 

सुनकर कृपाचार्य बोले, यह अनुचित, सुयश न नष्ट करो।

विदुर आदि नीतिज्ञ की बातें मान, वही पथ ग्रहण करो।।

 

सुन झल्लाकर अश्वत्थामा बोला, मामा नीति-अनीति।

युद्ध में कब का टूट चुका है, मुझे न अब सिखलायें नीति।।

 

पिता-घात, कर्ण की विवशता, दुर्योधन के प्रति अन्याय।

सोच-सोच हिय रक्त खौलता, बदला लेना ही अब न्याय।।

 

यह कह अश्वत्थामा क्रोधित हो, चला पाण्डव-शिविरों की ओर।

देख कृपाचार्य, कृतवर्मा भी, साथ हो लिये, मन में कोर।।

 

पाण्डव शिविर में धृष्टद्युम्न था, सोया बेसुध, कवच उतार।

हो उन्मत्त, अश्वत्थामा ने, नाच-नाच कर किया संहार।।

 

करके नृत्य, सभी पाञ्चालों का इस तरह, किया संहार।

पाँचो पुत्र द्रौपदी के भी, मारे उसने शपथ विचार।।

 

आग लगा दी शिविरों में फिर, मचा चतुर्दिक हाहाकार।

पाण्डव-द्रुपद-सैनिकों का, तीनों ने मिलकर किया संहार।।

 

निर्दयता का नग्न नृत्य कर, तृप्त होकर, अश्वत्थामा।

तुरत गया दुर्योधन के पास, संग कृतवर्मा, कृपाचार्य मामा।।

 

अश्वत्थामा दुर्योधन के पास पहुँचकर चिल्लाया।

महाराज जीवित हैं या मृत, सुने जो कृत मैं कर आया।।

इस शुभ समाचार को सुनकर, निश्चय आपको मिलेगी शान्ति।

हम तीनों ने मिलकर, पाञ्चालों की कर दी पूर्ण समाप्ति।।

 

पाण्डव पुत्रों का भी वध कर, पाण्डव सेना का कर नाश।

पाञ्चाली सेना विनष्ट कर, हम आये हैं आपके पास।।

 

पाण्डव-दल में सात शेष बस, हम हैं तीन बचे नृपराज।

सुन दुर्योधन अति प्रसन्न हो, ‘बोला किया पूर्ण मम काज।।

 

भीष्म, द्रोणगुरु, कर्ण न कर पाये जो कार्य, किये तुम वीर।

शान्ति से मेरा मृत्यु वरण अब’, कह दुर्योधन तजा शरीर।।

युद्ध की विभीषिका

सुन सब समाचार संहारक, पाण्डव-दल में हाहाकार।

रञ्च असावधानी के कारण, जीत हमारी, बन गयी हार।।

 

सुना द्रौपदी ने जब पुत्र विनाश, तो आग बबूला हो।

बोली- पापी अश्वत्थामा से कुकृत्य का बदला लो।।

 

निकल पड़े पाण्डव सब, कृष्ण भी साथ, ढूढ़ने को उसको।

गङ्गा तट पर छिपा मिल गया, अश्वत्थामा ने देखा सबको।।

 

पहले तो वह घबड़ाया, पर मंत्र-शक्ति का उसको ज्ञान।

अत: तुरन्त उठाया तिनका एक, किया अभिमंत्रित तान।।

 

पाण्डव वंश समूल नष्ट हो’, कह छोड़ा दिव्यास्त्र प्रचण्ड।

चला उत्तरा-गर्भ-नाश हित, किन्तु कृष्ण थे रक्षक सङ्ग।।

 

किये गर्भ-रक्षा, कृपालु भगवान की, कृपा अखण्ड, अपार।

एक मात्र वह पुत्र परीक्षित, पाण्डव कुल में शेष, आधार।।

 

भीम और अश्वत्थामा में, मचा युद्ध भीषण, पर हार।

हुई द्रोण-सुत-अश्वत्थामा की, सङ्ग भीम की जय-जयकार।।

 

कर स्वीकार पराजय अपना, मस्तक-रत्न निकाल तुरन्त।

दिये भीम को अश्वत्थामा, हुआ महाभारत का अन्त।।

 

अश्वत्थामा गये विजन में, पहुँचे भीम द्रौपदी पास।

प्रिये रत्न यह तुम्हें समर्पित, पूर्ण हुए सब प्रण, मेरे खास।।

हो प्रसन्न, ले रत्न द्रौपदी, कही युधिष्ठिर से महाराज।

स्वीकारें यह रत्न, विजय प्रतीक हो, आपके के सिर का ताज।।

 

हुआ महाभारत का युद्ध समाप्त, सुने जब, तब धृतराष्ट्र।

आये युद्ध क्षेत्र, कुरुक्षेत्र में, महाविनाशक युद्ध विराट।।

 

चारो ओर ढेर लाशों के, कुत्ते, कौवे, गिद्ध, शृगाल।

चील्ह आदि लाशों पर टूटे, नोचे, खायें, खींचे खाल।।

 

चारो ओर विलाप रुदन, व्याकुलता युद्ध का दुष्परिणाम।

एक वंश के लोग युद्ध कर, सर्वनाश का कर्म तमाम।।

 

जो राज-मुकुट सिर की शोभा, वे आज धूल-धूसरित पड़े।

सिर कहीं गिरा, धड़ कहीं पड़ा, पहचान कौन, किस भाँति करे।।

 

रत्नों की मालायें अनन्त, बिखरी थी भू पर, इधर-उधर।

जो कल तक थी गलहार आज, वे सड़ी-गली आभा खोकर।।

 

गज, रथ व अश्व सरजाम विविध, बहुमूल्य पड़े थे बेशुमार।

बहुरुण्ड-मुण्ड और सुण्ड आदि से, रक्त प्रवाहित, तीव्र धार।।

 

कर, पग विखरे थे छिन्न-भिन्न, सब धूल-धूसरित, रक्त सने।

कञ्चन-कंगन-कृपाण करके, सब रत्न-जटित निर्जीव बने।।

 

सिर कटा मगर आँखे घूरें, लालिमा क्रोध से भरी हुई।

मिल जाये शत्रु, तो वार करें, ऐसी क्रोधाग्नि से सनी हुई।।

 

कटे हुए सिर, क्रोधित आँखें फाड़, शत्रु ललकार रहे।

काटा है जिसका सिर जिसने, कल उसका कटेगा याद रहे।।

थे अस्त्र अनेकों शस्त्र पड़े, अद्यतन रक्त-तन बहा हुआ।

जाने कितनों की जान लिया, वह आज मृतक सिर पड़ा हुआ।।

 

अतड़ी, यकृत, आमाशय आदि, दिल से फौव्वारे फूट रहे।

वीभत्स रूप था रण-क्रन्दन, चीत्कार, चिग्घाड़ से गूँज रहे।।

 

जिस तन के पोषण हेतु विविध, भोगों का आश्रय लिये आज।

वे तन मिट्टी में सने हुए, संग में साथी, सब राज-साज।।

 

कर पग-अपंग थे यहाँ-वहाँ, पीड़ा से पड़े कराह रहे।

आ त्वरित सहायक बने कोई, पर कौन वहाँ, जो कहे, सुने।।

 

सेवक सेवादल के अनेक, थे जुटे, किन्तु थी कमी बड़ी।

किसको लेवें, किसको छोड़ें, पग-पग पर नाशक, मौत खड़ी।।

 

सञ्जय धृतराष्ट्र को बतलाते, वीभत्स, भयावह, युद्धस्थिति।

सुन-सुन कर राजा आह भरे, दृग-अश्रु-धार, मन-हृदय व्यथित।।

 

सोच-सोच कर अतीत बातें, था धृतराष्ट्र को कष्ट अपार।

अपने ही कुल का संहार यह, नहीं किसी की जीत या हार।।

 

देख धृतराष्ट्र को विलाप करते, सञ्जय ने उनको समझाया।

कहीं दूसरें के समझाने से, क्या दु:ख है, दूर हो पाया।।

 

अपने मन को ही दृढ़ करिये, धीरज रखिये, होवें प्रशान्त।

तभी दु:ख का पूर्ण निवारण सम्भव, आप विज्ञ-वेदान्त।।

 

दृढ़कर अपने मन को करिये, बन्धु-बान्धवों के संस्कार।

यही आज कर्त्तव्य आपका, शोक-मोह तज, जग-व्यवहार।।

विदुर ने भी सद््ज्ञान दिया, वीरोचित मृत्यु से, स्वर्ग अवाप्ति।

हुई है, जिनको उनके हित, शोक व्यर्थ, औचित्य गर्व की प्राप्ति।।

 

आत्मा अजर-अमर है, उसका भाई-बन्धु नहीं कोई।

जीवन तक ही सम्बन्ध का जाल, काल-गाल में सब खोई।।

 

सब प्राणी अव्यक्त से प्रगटित, मृत्युवाद अव्यक्त में लीन।

अटल नियम यह है जीवन का, त्यागें, शोक, नरेश प्रवीण।।

 

वीतीं बातों पर विलाप है व्यर्थ, धर्म-अर्थ-काम न प्राप्त।

अत: शोक औचित्य न राजन, शोक से मोक्ष की, व्यर्थ है बात।।

 

विदुर से वार्तालाप के बीच ही, आये वहाँ महा मुनि व्यास।

बोले- पुत्र ज्ञात सब तुमको, माया-जगत का प्रगट प्रकाश।।

 

जीवन है अनित्य, यह युद्ध तो भूमि-भार हरने हित कार्य।

ईश्वर की यह कृपा जीव पर, होनहार है अपरिहार्य।।

 

इतना कह भगवान व्यास जी, तत्क्षण हो गये अर्न्तध्यान।

आये कृष्ण पाण्डवों के सङ्ग, दिये सांत्वना-पूर्ण निदान।।

 

गले मिले धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर प्रेम से, ‘भीम कहाँबोले।

समझ गये श्री कृष्ण कुटिलता, लौह-प्रतीक रखा, हौले।।

 

लौह-प्रतीक को भीम समझ, धृतराष्ट्र ने कस कर मसल दिया।

सौ पुत्रों का वधिक समझ, धृतराष्ट्र ने क्रोध निज प्रगट किया।।

 

मूर्ति मसलने के पश्चात, वे शोक विकल होकर बोले।

हाय क्रोध में भीम की हत्या, कर दी,’ कृष्ण रहस्य खोले।।

महाराज मैं समझ गया था, आपके मन की कपटी चाल।

अत: भीम को नहीं, लौह-प्रतीक को आपने किया हलाल।।

 

सुन धृतराष्ट्र धैर्य धारण कर, दिये पाण्डवों को आशीष।

आज्ञा लेकर पाण्डव, केशव, गान्धारी के गये समीप।।

 

व्यास ने पहले ही जाकर, था गान्धारी को ज्ञान दिया।

क्रोधित, दु:खी, दीन अति, फिर भी, सुन सच, सबको क्षमा किया।।

शर-सैया से भीष्म का उपदेश

शोकग्रस्त अति हुए युधिष्ठिर, सर्वनाश का ताण्डव देख।

नारद, व्यास उन्हें समझाये, कालचक्र आपदा विशेष।।

 

अत: अतीत को भूल, बैठ सिंहासन, शासन करना श्रेय।

जो कुछ हुआ वह होनहार था, प्रजा का पालन, अब हो ध्येय।।

 

कृष्ण की आज्ञा पा, राज्याभिषेक से पहले पाण्डव आदि।

गये भीष्म से उपदेश लेने, राज-धर्म, कर्म-भक्ति-ज्ञान आदि।।

 

शर-सैया पर भीष्म महात्मा, पहुँच सभी प्रणिपात किये।

सेवा से कर तृप्त भीष्म को, प्रश्न हेतु आदेश लिये।।

 

शर-सैया पर भीष्म पड़े थे, पर जिज्ञासु के प्रश्नों पर।

श्रद्धा, आस्था देख युधिष्ठिर की, दिये प्रश्नों के उत्तर।।

 

राजोचित शिष्टाचारों सङ्ग, धर्म, नीति, राज्य-शासन।

वर्णाश्रम, सर्वसाधारण धर्म सङ्ग, राज-धर्म के अनुशासन।।

 

राजा का कर्त्तव्य, प्रजा-अभ्युदय, लोक-परलोक तथा।

ब्राह्मण, विद्वान, मित्र, पुरोहित, प्रति राजा व्यवहार यथा।।

 

उत्तम, मध्यम, अधम व्यक्ति प्रति, राजा के कर्त्तव्य विशद।

राज्य-सुरक्षा, युद्ध-नीति, चुनाव, मंत्रियों संग सभासद।।

 

सैन्य-संचालन, शत्रु से रक्षा, दुर्ग, दूत, शरणागत रक्षण।

माता-पिता व गुरु की सेवा, किये विस्तार से शील-निरुपण।।

देश-काल व्यवहार सभी, जीवन जीने की कला तथा।

देव, पितर, पूजन की महिमा, बतलाये सब, प्रश्न यथा।।

 

पाप-प्रायश्चित, पुुरुषार्थ विविध, संसार-शरीर-तत्त्व वर्णन।

कर्म, ज्ञान व ध्यान विवेचन, सत्ता-महिमा आत्म-दर्शन।।

 

विश्वोत्पत्ति, वैराग्य, मुक्ति-उपदेश, दम तथा सम-वर्णन।

उद््भव, पालन, प्रलय स्रृष्टि का, ब्रह्म-ज्ञान, ईश्वर-दर्शन।।

 

सांख्य-योग, ब्राह्मीस्थिति वर्णन, क्षर-अक्षर का तत्त्व विभाग।

यज्ञ, दान, तप की महिमा सब, नर-नारायण प्रति अनुराग।।

 

भीष्म कहे श्रीकृष्ण की महिमा, कृष्ण कहे शज्र्र-माहात्म्य।

ब्राह्मण तथा धर्म की महिमा, आध्यात्मिकता सदा सहाय।।

 

सुख-दु:ख प्राप्ति, शुभाशुभ कर्मों के अनुसार यथा प्रतिफल।

करे धर्म का अनुष्ठान, श्रद्धा से, त्याग कपट, दम्भ, छल।।

 

आध्यात्मिक तत्त्वों का वर्णन, विस्तृत, किया प्रश्न अनुसार।

आवागमन चक्र का वर्णन, मिथ्या-जग, माया-परिवार।।

 

ब्रह्म-सत्य, जग-मिथ्या, भाषित-सत्य, स्वप्नवत जग-व्यवहार।

जगने पर जो स्वप्न असत् हो, तत्त्वज्ञान से, त्यों संसार।।

 

विविध कथाओं, संवादों के, माध्यम भारत-धर्म-संस्कृति।

आचारों-व्यवहारों का प्रश्नानुसार, वर्णन विस्तृत।।

महाभारत के शान्ति और अनुशासन पर्व में धर्म-दर्शन।

ईश्वर जीव, जगत के सभी रहस्यों का विस्तृत वर्णन।।

 

जो कुछ भी इस धर्म-भूमि की, आदि से अब तक के आख्यान।

सबका वर्णन किया भीष्म ने, जो कुछ आगम-निगम-पुराण।।

 

सुनकर सद््उपदेश, भीष्म की आज्ञा से, परिवार समेत।

राजा गये हस्तिनापुर, आये फिर यथा समय, समवेत।।

महान योगी देवव्रत का वसुलोक गमन

देकर सद्-उपदेश युधिष्ठिर को, विस्तार से शास्त्र अनुसार।

हुए देवव्रत ध्यानमग्न, फिर कहे कृष्ण से वचन उदार।।

 

कृष्ण आप हैं नारायण, नर-पार्थ, मुझे यह है सद्ज्ञान।

आप ही राम,परशु, वामन, नृसिंह, कच्छ, मत्स्य, शूकरादि भगवान।।

 

अब मेरा इस भारत भू पर, आज इसी पल अन्तिम काल।

त्याग करुँ यह तन आज्ञा दें, मिले योग्य-गति ज्यों तत्काल।।

 

सुन श्रीकृष्ण सहर्ष आदेश दिये, भीष्म आप मारकण्डेय समान।

पितृ-भक्त है, अत: मृत्यु-दासी, जायें वसुलोक श्रीमान।।

 

पाये जब श्रीकृष्ण की आज्ञा, शान्तनु-नन्दन-देवव्रत, शान्त।

प्राण-वायु को रोका मन से, क्रमश: अङ्ग-अङ्ग स्थिर, विश्रान्त।।

 

करके यौगिक क्रिया विविध, धारणा में स्थापित करके घ्राण।

अष्ट द्वार सब बन्द कर लिये, ब्रह्मरंध्र में ले गये प्राण।।

 

क्रमश: शान्त हो गये पञ्च प्राण, व्यान, उदान, अपान, समान।

ब्रह्मरंध्र को फोड़ उड़ गयी, ज्योति, अनन्त-आकाश-वितान।।

 

योगक्रिया कर रहे भीष्म तब, जिस-जिस अङ्ग से निकला प्राण।

उस-उस अङ्ग के घाव भर गये, स्वत: निकल कर गिर गड़े वाण।।

 

वाणों से हो मुक्त, स्वस्थ तन, पड़ा भूमि पर, देव समान।

सबके समक्ष हुआ आश्चर्य यह, धन्य योगी देवव्रत, महान।।

देवों ने दुंदुभी बजाई, देवपुष्प अर्पित सम्मान।

हुआ इस तरह शान्तनु-गङ्गा-पुत्र-देवव्रत का अवसान।।

 

तत्त्पश्चात् बहुकाष्ठ चिता रच, विविध सुगन्धित द्रव्य, घृतादि।

अगर पुष्प, चन्दन, कपूर, रोली, अक्षत, गुग्गुल इत्यादि।।

 

पाण्डव, विदुर, युयुत्स आदि मिल, रखें चिता पर शव, सादर।

विविध रेशमी वस्त्र, पुष्प माला से, ढके सब, शव सत्वर।।

 

छत्र लिये युयुत्स, अर्जुन ले चवर, भीम व्यञ्जन से डुला।

नकुल और सहदेव रखे सिर पर पगड़ी, नारियों ने पंख झला।।

 

विविध पितृमेघ कर सादर, भीष्म के शव का, कर संस्कार।

रखवाये धृतराष्ट्र के कर से, चन्दन-काष्ठ, सुगन्धि अपार।।

 

चिता में आग लगाकर, सबने किया प्रदक्षिणा, भीड़ अपार।

गङ्गा तट फिर आये सब मिल, दिये तिलाञ्जलि, कुल परिवार।।

 

श्रद्धाञ्जलि, ब्राह्मण वेद-ध्वनि, सब राजसी, ठाट-बाट अनुसार।

पूर्ण हुआ देवव्रत वीर का श्रद्धासहित, अन्तिम संस्कार।।

 

हुए पूर्ण संस्कार सभी जब, तब माता गङ्गा प्रगटी।

रो-रो कर निज सुत गाथा कह, बार-बार सिर, भू पटकी।।

 

कृष्ण सान्त्वना दिये उन्हें, माता न शोक करिये, सुत हेतु।

दिव्यलोक, वसुलोक गये वे, अमरकीर्ति का फहरा, केतु।।

कृष्ण, व्यास जब समझाये, तब माता गङ्गा स्वयं महान।

गयी लोक निज जल के भीतर, सब लौटे कर गङ्गा स्नान।।

 

हुई पूर्ण जीवन गाथा, प्रभास वसु, देवव्रत-भीष्म महान।

धीर, वीर, रणधीर, ज्ञान, तप, योग, सिद्ध-भक्त जन-प्राण।।

 

श्राप बना वरदान, देवव्रत हेतु, यही गुरुकृपा महान।

गुरुबन किये प्रशिक्षित, ऐसा गुरु वशिष्ट सा, शिष्य न आन।।

 

इसीलिए भारत-संस्कृति में, गुरु महिमा, बढ़कर भगवान।

गुरु-सेवा ही प्रभु-सेवा है, माता-पिता भी, गुरु के समान।।

 

अत: धर्म-प्राण जन-जन को, इह-परलोक का एक निदान।

माता-पिता तथा गुरुसेवा, करने से, सब विधि कल्याण।।

 

है संकल्प में महान ऊर्जा, इसीलिए संकल्प विधान।

भारतीय संस्कृति के सब शुभकर्मों में संकल्प प्रधान।।

 

संकल्पित मन देवतुल्य बन जाता, अहम् का मिटे निशान।

देव-ऊर्जा आप्लावित कर, करते पूर्ण, कर्म भगवान।।

 

संकल्पित मन में है शक्ति अमोघ, इन्द्रियाँ हों एकाग्र।

मात्र-लक्ष्य है समक्ष होता, लक्ष्य हेतु, संकल्प सुमार्ग।।

 

हे संकल्प-निधान देवव्रत, प्राणिमात्र को दें वरदान।

संकल्पित मन कर्म करें शुभ, निश्चय कृपा मिले भगवान।।

उपसंहार

सृष्टि संतुलन संरक्षण में, मृत्यु सतत् सहयोगी।

यह प्राकृतिक व्यवस्था प्रभु की, हर युग में उपयोगी।।

 

जड़-चेतन, चिर-काल-चक्र के, अंश, सहज, स्वभाविक।

जीव-जीव आहार बना, करते भू-भार समन्वित।।

 

लघु जीवों को दीर्घ जीव, निर्बल को सबल हैं खाते।

मरने पर भी जीव विविध, शव तक हैं खा जाते।।

 

मानव भी अधिकांश विश्व के मांसाहारी ही हैं।

उनमें से कुछ अंश नारि-नर शाकाहारी भी हैं।।

 

शाकाहारी दूध, फल तथा विविध वनस्पति खाते।

उनमें भी जीवन होता है, यह हम सभी जानते।।

 

चेतन ही सर्वत्र व्याप्त है, फिर क्या जड़, क्या चेतन।

मानव हित जो अगम, अन्य जीवों को उनका दर्शन।।

 

सूक्ष्म-जीव, सर्वत्र, सतत, प्रतिपल, आहार सहज ही।

मुख, नासिका, कर्ण माध्यम, अनचाहे भोग बने ही।।

 

कीट-पतंग विविध पशु पक्षी, भक्षण करते रहते।

उदर पूर्ति के हेतु सतत्, हर दिशा घूमते रहते।।

 

महाकाल का कौतुक अविरल, प्रति ब्रह्माण्ड में व्याप्त।

बड़े-बड़े ग्रह नक्षत्रों में, छोटे सतत् समात।।

कण-कण से अणु से परमाणु, पुन: परमाणु हो अणुमय।

इलेक्ट्रान, प्रोटान का क्रमश: उद्भव, पालन, पुनिलय।।

 

लघु से दीर्घ, दीर्घ से लघु पुनि, सतत् स्वचालित गतिक्रम।

अणु परमाणु से बने बड़े ग्रह, पुनि परमाणु में विघटन।।

 

सकल चराचर महाकाल का, कौतुक मात्र समन्वित।

मानव से विषाणु तक जीवन, उद्भव, पालन, लय गति।।

 

बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज, सतत् क्रम-बद्ध वनस्पति।

तृण से ताड़, ताड़ से तृण हो, सबमें शाश्वत यह गति।।

 

यही सत्य चिर, शोक, मोह निस्तारण हेतु उपाय।

यही सत्य हर स्थिति में है, आनन्द-अखण्ड-प्रदाय।।

 

जो इस सत्य को जाने, समझे, सहज, सात्विक, गति, मति।

जो इसके विपरित चले, पाये पग-पग पर दु:ख, क्षति।।

 

संकल्पित मन से यह सत्य सनातन जो अपनाते।

जीवन के हर झंझावत में, शान्ति, सदा सुख पाते।।

 

सत्य-अहिंसा, परहित-रत सब ईश्वर भाव जगायें।

संकल्पित मन से जीवन, जीते-जीते स्वर्ग बनायें।।

 

गङ्गा-पुत्र देवव्रत की यह कथा, जो पढ़े सुजान।

उनका जीवन निश्चय ही, मानवता हित वरदान।।